(लघुकथा)
सुरेश सौरभ |
‘‘साले दिखाई नहीं पड़ता।’’
‘‘चटाक! चटाक!..
‘‘तेरी माँ की..... देख कर नहीं मोड़ता।’’
‘‘चटाक! चटाक!...
‘‘साले जब इधर भीड़ थी तो क्यों लेकर आया इधर?’’
‘‘चटाक! चटाक! चटाक!...
‘‘कितना भी मारो गरियाओ, पर तुम लोग बाज नहीं आते?’’
शाम। टूटा-थका-हारा घर आकर वह बैठा गया।
‘‘चटाक! चटाक!चटाक... कोई तमीज नहीं? जब कह दिया, पैसे नहीं, फिर भी इतने पैसे इनको दो, ये चाहिए वो चाहिए।...उं उं...उं..ऽ..ऽ.ऽ छोटा बच्चा रोये जा रहा था।
‘‘क्या बात है, क्यों मार रहीं है इसे?’’
‘‘कोई काम सुनता नहीं ऊपर से जो भी कोई ठेली खोमचा वाला निकले, तो जिद, ये चाहिए वो चाहिए।...बच्चा रोये जा रहा था।.... चुपता है या नहीं चुपता है... हुंह ये ले..ये ले..चटाक चटाक...
अब वह अपने गाल सहलाने लगा, पत्नी को करूण नेत्रों से देख, बेहद मायूसी और नर्मी से बोला-अब न मार बच्चे को, चोट मुझे भी लग रही है रे! लग रहा हम रिक्शे वालों की पीढ़ी दर पीढ़ी ऐसे ही मार खाती बतेगी।
अब पत्नी, अपने पति रिक्शे वाले को हैरत से एकटक देख रही थी। रो तो बच्चा रहा था, पर उसकी आँखों में आँसू न थे। लेकिन उसकी और उसके रिक्शे वाले पति की आँखों में आँसू डबडबा आए थे।
निर्मल नगर लखीमपुर-खीरी
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