व्यंग्य कहानी
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अखिलेश कुमार अरुण तकनिकी/उपसम्पादक अस्मिता ब्लॉग |
मेवालाल जी स्थानीय छुटभैये नेताओं में सुमार किये जाते हैं। उनकी पुश्तैनी नहीं अपनी पहचान है, जिसे अपने खून-पसीने की खाद-पानी को डालकर पल्लवित-पोषित किया है। हर एक छोटे-बड़े प्रस्तावित कार्यक्रमों में उनकी उपस्थिति अनिवार्य होती है पर सबसे बड़ी बात तो यह है कि वह किसी के खास नहीं और सबके खास हैं। ऊपर से कहीं-कहीं तो उनही उपस्थिति कुछ खास लोगों को खलने लगती है। इनकी उपमा उन लोगों के लिये राहु-केतु या काले नाग से कम की न होगी विचारे तिलमिला के रह जाते हैं पर कुछ कर नहीं पाते हैं। इनकी जान-पहचान आला-अफ़सरों से लेकर गाँव-घर के नेताओ से, सांसद तक है।
छोटी-बड़ी सभी चुनाव में हाथ आज़माते हैं, जीतने के लिये नहीं हारने के लिये ही सही एक पहचान तो बने, जहाँ जनता इनके खरे-खोटे बादों से तंग आकर चैथी-पाँचवीं जगह पर पहुँचा देती है, कुछ चुनावों का परिणाम तो ऐसा है कि जमानत जब्त करवा कर मुँह की खाये बैठे हैं। मानों वह चुनाव ही चिढ़कर मुँह फिरा लिया हो ‘क्या यार! हमारी भी रेपोटेशन की ह्वाट लगा देता है, सो इनका अब भविष्य में चुनाव जीतना तो मुष्किल ही है पर यह हार कहाँ मानने वालों में से हैं। समाजसेवी विचारधारा के हैं हर एक दुखिया का मदद करना अपना परम्कत्र्तव्य समझते हैं। और तो और इनका सुबह से शाम का समय समाज के कामों में ही गुजर जाता है। परिणामतः इनके तीन बच्चों में से कोई ढंग से पढ़-लिख न सके, गली-मोहल्ले, चैराहों की अब शान कहे जाते हैं।
इनका अपना स्वप्न यह है कि अपने जीवन काल में भारत से भ्रष्टाचार मिटा देना चाहते हैं। इस स्वप्न को साकार करने के लिये जहाँ कहीं जब भी मौका मिलता है अन्ना हजारे आन्दोलन के कर्णधार बन बैठते हैं। उन्हें अपना आदर्ष मानकर आन्दोलन करते हैं, भूख हड़ताल इनका अपना पसंदीदा आन्दोलन है, गले तक खाये-पीये हों वह अलग बात है, जिले का हर अधिकारी इनको अपने कार्यकाल में मुसम्मी, अनार का जूस पिला चुका होता है। उसका कार्यकाल क्यों न चार दिन का ही रहा हो, पहचान बनाने का उनका अपना यह तरीका अलग ही है।
अपने कार्यक्रमों में चीख-चीख कर चिल्लाते हैं न लेंगे न लेने देंगे यह हमारा नारा है। भाईयों-बहनों हम गरीब-मज़लुमों पर अत्याचार होने नहीं देंगे, ‘‘सत्य का साथ देना हमारा जन्मसिध्द अधिकार है।’’ इनका अपना सिध्दान्त है जिसे एक सच्चे वृत्ति के तरह धारण किये हुये हैं।
सेवा का चार्ज लेने के बाद यह मेरे सेवाकाल की दूसरी पोस्टिंग थी। विभाग में नये होने के चलते जगह बदल-बदल कर मुझे मेरे अपने क्षे़त्र में पारंगत किया जा रहा था। मुझसे मेरे विभाग को बड़ी आषा थी, जो मेरे से अग्रज थे वह तो नर्सरी का बच्चा समझकर हर एक युक्ति को सलीके से समझा देना चाहते थे। कक्षा में कही गई गुरु जी की बातंे एक-एक कर अब याद आ रहीं थी कि व्यक्ति को पूरे जीवन कुछ न कुछ सीखना पड़ता है, इसी में जीवन के पैतीस बंसत पूरे हो गये पता ही नहीं चला पर जो आज सीखने को मिला वह जीवन के किसी भी पड़ाव पर शायद भूल नहीं पाऊँगा।
मैं अपने काम में व्यस्त किसी मोटी सी फाईल में खोया था तभी एक आवाज आई, ‘नमस्ते बाबू जी।’
‘हाँ नमस्ते।’
‘पहचाना सर, मुझे। सफेद कुर्ता-पाजामें में एक फ़रिस्ता मुस्करा रहा था, शायद......... एक कुटिल मुस्कान।
मुझे पहचानने में देर न लगी, अरे! मेवालाल जी, आप?’
‘हाँ बाबू जी’ कहते हुये कुरसी पर आ विराजे, मैं श्रृध्दा से मन ही मन उनको नमन किया। और शब्दों में शालीनता का परिचय देते हुये कहा, ‘कहिये।’
बोले कुछ बोले बगैर, एक फाईल मेज पर सरकाते हुये मुस्करा रहे थे, ‘साहब देख लीजियेगा, मेरा अपना ही काम है।’
और अगले ही पल आॅफिस से जा चुके थे, कौतुहलवश फाईल खोलकर जल्दी से जल्दी देख लेना चाहता, आखिर काम क्या है? जिसे लेकर एक ईमानदार छवि का व्यक्ति मेरे सामने आया है। जिसमें गाँधी, अन्ना हजारे जैसे उन तमाम तपस्वियों की झलक दिखती है जो भ्रष्टाचार को मिटाने के लिये एक पैर पर खड़े रहते हैं। उसके लिये मेरा काम करना तो किसी बड़े यज्ञ में आहुति देने के समान है, मैं अपने छात्र जीवन में ऐसी ही क्रान्ति करना चाहता था। जहाँ भ्रष्टाचार का नाम नहो ऐसे मेरे देश की विष्व में पहचान बने। इसी विचारमग्नावस्था में फाईल को खोला तो लगा जैसे किसी ने मेरे स्वप्न पर एकाएक ताबड़तोड़ प्रहार कर दिये हों, उसमें से दो हजार के रुपये वाला गाँधी जी का चित्र बेतहासा मुझ पर हंसे जा रहा था।
(पूर्व प्रकाशित रचना 'भ्रष्टाचार' मरू-नवकिरण, राजस्थान से वर्ष 2018 और मध्यप्रदेश से इंदौर समाचार पत्र में 4 अप्रैल 2022 को प्रकशित)
ग्राम-हजरतपुर, पोस्ट-मगदापुर
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