साहित्य

  • जन की बात न दबेगी, न छिपेगी, अब छपेगी, लोकतंत्र के सच्चे सिपाही बनिए अपने लिए नहीं, अपने आने वाले कल के लिए, आपका अपना भविष्य जहाँ गर्व से कह सके आप थे तो हम हैं।
  • लखीमपुर-खीरी उ०प्र०

Wednesday, January 24, 2024

राम अयोध्या लौटे हैं- एड. रमाकान्त चौधरी

एड. रमाकान्त चौधरी
गोला गोकर्णनाथ, लखीमपुर खीरी।
उत्तर प्रदेश, मो. 9415881883


जो हाथ लगायेगा सीता को वह रावण मारा जायेगा।
राम अयोध्या लौटे हैं अब राम राज्य आ जायेगा।
सदियों से शोषित पीड़ित जो वह स्वाभिमान पा जायेंगे।
शोषण करने वालों पर कोड़े बरसाए जायेंगे।
दीप जलेंगे खुशियों के गम के बादल छंट जायेंगे।
जातिवाद और ऊंच नीच के सब गड्ढे पट जायेंगे।
अब ना होगा जुल्म किसी पर जुल्मी मारा जायेगा।
राम अयोध्या लौटे हैं अब राम राज्य आ जायेगा।
रिश्वतखोरी और दलाली अब ना होगी थानों पर।
रोक लगेगी भारत भर के मक्कारों बेईमानों पर।
बालाएं अब घूम सकेंगी मेलों में बाजारों में।
दुष्कर्म नहीं हो पाएंगे अब ट्रेन बसों व कारों में।
राहजनी और लूटपाट अब कोई नहीं कर पायेगा।
राम अयोध्या लौटे हैं अब राम राज्य आ जायेगा।
हर मानव अब सच बोलेगा अब सतयुग फिर से लौटेगा ।
झूठ बोलने वाला कोई दूर-दूर तक नहीं दिखेगा।
हर द्वारे पर गाय जनेंगी प्यारे-प्यारे बछड़ों को।
ताले अब लग जाएंगे भारत के बूच़डखानों को।
हर किसान खुशहाल रहेगा अब ना जान गंवाएगा।
राम अयोध्या लौटे हैं अब राम राज्य आ जायेगा।
भात भात कहकर के कोई अब न मरेगी संतोषी।
हर नंगा कपड़ा पायेगा हर भूख पायेगा रोटी।
मुनिया का अपहरण न होगा अब न बिकेगी कोठों पर।
मुजरिम को अब सजा मिलेगी न्याय न होगा नोटों पर।
सबके नाथ सियापति होंगे कोई न अनाथ कहायेगा।
राम अयोध्या लौटे हैं अब राम राज्य आ जायेगा।
आतंकवाद का दूर-दूर तक नामों निशां नहीं होगा।
गद्दारों का धड़ होगा सिर का पता नहीं होगा।
बेरोजगार अब कोई न होगा सबको मिलेगी अब रोजी।
देशद्रोहियों को मारेगा सरहद का इक-इक फौजी।
पुलवामा का किस्सा अब बिल्कुल न दोहराया जायेगा।
राम अयोध्या लौटे हैं अब राम राज्य आ जायेगा।
घर-घर जा साधु सन्यासी अब उपदेश सुनायेंगे ।
राजनीति से दूर रहेंगे अपना फर्ज निभाएंगे।
धोखा देने वालों का निश्चित ही जेल पठाना है।
सच कहता हूं सुनो मित्रों मुझे अयोध्या जाना है।
राम राज्य आ जाने से अब परिवर्तन आयेगा।।
राम अयोध्या लौटे हैं अब राम राज्य आ जायेगा।।


Saturday, January 06, 2024

मोहन यादव सरकार: अपनी लकीर बड़ी करने की पुरजोर कोशिश... अजय बोकिल

राजनीतिक चर्चा
वरिष्ठ  संपादक
सुबह सवेरे, म०प्र०


मध्यप्रदेश में नई भाजपा सरकार में मुख्यमंत्री पद की दौड़ में डाॅ. मोहन यादव को शुरू में भले ही ‘डार्क हाॅर्स’ माना जा रहा हो, लेकिन अपने 20 दिन के कार्यकाल में उन्होंने जिस तेजी से और जिस संकल्प शक्ति के साथ फैसलों की झड़ी लगा दी है, उससे राज्य में साफ संदेश गया है कि कोई उन्हें ‘हल्के’ में न ले। यह अपनी लकीर बड़ी करने की कोशिश भी है। खास बात यह है कि डाॅ.मोहन यादव के कुछ फैसलों में कई छोटी- छोटी लेकिन गंभीर जमीनी समस्याअों की निदान की चिंता भी दिखाई पड़ती है। यानी ये समस्याएं तो बरसों से चली आ रही हैं, लेकिन किसी भी मुख्यमंत्री ने इन्हें अब तक बहुत संजीदगी से नहीं लिया। दूसरे, यादव सरकार के फैसलों में राजनीतिक दूरदर्शिता के साथ- साथ प्रशासनिक कसावट का आग्रह भी साफ नजर आती है। 
मप्र में पूर्व मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान के नेतृत्व में भाजपा की चौथी बार बंपर जीत के बाद बहुतों का कयास था कि अब पार्टी को राज्य में नया चेहरा प्रोजेक्ट करना आसान नहीं होगा। लेकिन भाजपा आलाकमान ने सरकार का चेहरा मोहरा बदलने की ठान ली थी। इसी के तहत बहुत कम चर्चित लेकिन भगवान महाकाल की नगरी के बाशिंदे डाॅ. मोहन यादव को मुख्‍यमंत्री पद की कमान सौंपी गई। हालांकि आला कमान द्वारा सुनियोजित तरीके से दरकिनार ‍िकए गए पूर्व मुख्यमंत्री‍ शिवराजसिंह चौहान ने एक अलग रणनीति अपनाते हुए एक बार फिर से अपनी दावेदारी जताने का कोई मौका नहीं छोड़ा  और वो अभी भी यह बताने में लगे हैं कि भूमिका कोई सी भी हो, वो जन सेवा से पीछे हटने वाले नहीं है। शिवराज की यह कसक समझी जा सकती है, क्योंकि उन्होंने लगभग 17 साल तक देश के इस ह्रदय प्रदेश की कमान संभाली और राजनीति का अपना अलग नरेटिव गढ़ा। लेकिन लगातार सत्ता में बने रहने के अपने दुष्परिणाम भी होते हैं। सरकार में एक काकस और निरंकुशता का भाव बन जाता है। यूं शिवराज भावनात्मक और भौतिक रूप से जनता से जुड़े रहे, लेकिन प्रशासनिक तंत्र जनता से दूर होता चला गया। उसमे मगरूरी का भाव घर कर गया। इसके अलावा खुद शिवराज का बढ़ता कद भी भाजपा आला कमान को असहज करने वाला था। इसलिए माना गया कि अब राज्य में बदलाव का सही समय है। 
नए मुख्‍यमंत्री डाॅ मोहन यादव के सामने वही चुनौतियां थीं, जो किसी भी नए नवेले और अचर्चित मुख्यमंत्री के सामने होती है। उन्हें तय करना था कि वो शिवराज सरकार की छाया और प्रशासनिक शैली से बाहर निकलकर नई पिच पर कैसी बैटिंग करते हैं। जनता देख रही है कि उनमें उनकी अपनी सोच, संघ से तालमेल, भाजपा के एजेंडे को क्रियान्वित करने का संकल्प, नौकरशाही में धमक कायम करने का जज्बा और प्रशासनिक तंत्र को नए नई और सही दिशा में हांकने की क्षमता कितनी है। इस दृष्टि से इतना तो कहा ही जा सकता है कि सीएम डाॅ.मोहन यादव ने इस वन डे मैच के शुरूआती अोवर दमदारी से और सधे हाथों से खेले हैं।
और इस बात के पुष्ट प्रमाण भी हैं। मसलन मुख्‍यमंत्री बनने के तत्काल बाद जारी उनका पहला आदेश प्रदेश में धार्मिक स्थानों पर जोर से लाउड स्पीकर बजाने और खुले में मांस और अंडे की बिक्री पर सख्‍ती से रोक। इस फैसले को यूपी में योगी आदित्यनाथ सरकार के दूसरे कार्यकाल के मंगलाचरण की नकल के रूप में भी देखा गया, लेकिन धार्मिक स्थलों और अन्य कार्यक्रमों में कई बार बहुत ज्यादा शोर और कानफोड़ू लाउड स्पीकर आम जनता की परेशानी का सबब बन गए थे। चूंकि मामला धार्मिक था, इसलिए इसके खिलाफ कोई बोलने की हिम्मत नहीं कर पाता था। विपक्षी कांग्रेस  ने इस आदेश में भाजपा और आरएसएस का साम्प्रदायिक एजेंडा देखा और इस आदेश को परोक्ष रूप से मुसलमानों के खिलाफ बताने की कोशिश भी हुई, लेकिन मोटे तौर पर आम जनता ने इसका स्वागत ही ‍िकया, क्योंकि यह नियम किसी धर्म विशेष के स्थलों के लिए न होकर सभी धार्मिक स्थलों  के लिए था। इसी तरह खुले में मांस व अंडों की बिक्री पर रोक से उन छोटे दुकानदारों और ठेले वालों को जरूर परेशानी हुई है, जो सरेआम सड़क किनारे दुकान लगा कर ये सामग्री बेचकर अपना पेट भरते हैं, लेकिन ज्यादातर लोगों ने इसे इसलिए सही माना, क्योंकि खुले में मांस बिक्री वैसे भी स्वास्थ्य के लिए हानिकर है। ऐसी कुछ अवैध दुकानों को तोड़ा भी गया। यही नहीं सरकार ने ध्वनि प्रदूषण के मामलों की जांच के लिए फ्लाइंग स्क्वॉड भी गठित किया है, जो निर्धारित सीमा से अधिक ध्वनि प्रदूषण की शिकायत मिलने पर क्षेत्र में जाकर कार्रवाई करेगा। धार्मिक स्थलों पर लाउडस्पीकरों से होने वाले ध्वनि प्रदूषण की हर हफ्ते समीक्षा की जाएगी। इसका असर दिखने भी लगा है।  भाजपा नेता उमा भारती यादव सरकार  के इस फैसले से गदगद दिखी। उन्होंने सोशल मीडिया पर इसे ‘यादव सरकार की संवेदनशीलता’ निरूपित किया। 
यादव सरकार का दूसरा अहम फैसला राज्य में विस चुनाव नतीजों के बाद भोपाल में एक भाजपा कार्यकर्ता पर हमला कर उसकी कलाई काटने के आरोपियों के घरों पर बुलडोजर चलाने का था। अल्पसंख्यक समुदाय के आरोपियों के घर बुलडोजर चलवाकर यादव ने यह संदेश दिया कि अपराध नियंत्रण और आरोपी को सबक सिखाने के मामले में वो योगी सरकार की नीति पर चलेंगे। हालांकि बुलडोजर को ‘त्वरित न्याय’ का उपाय मानने और इंसाफ की वैधानिक प्रक्रिया को दरकिनार करने के भाजपाई सोच पर प्रश्नचिन्ह भी लगता रहा है, लेकिन इससे जनाक्रोश को तत्काल कम करने का संदेश भी जाता है। एक और निर्णायक फैसला  प्रदेश की राजधानी भोपाल में विवादित बीआरटीएस ( बस रैपिड ट्रासंपोर्ट सिस्टम) के खात्मे का था। देश के कुछ दूसरे शहरों की नकल पर भोपाल में ‍िनर्मित बीआरटीएस शुरू से विवादों में रहा। करीब 13 पहले शिवराज सरकार के कार्यकाल में बना यह बीआरटीएस 360 करोड़ रू. खर्चने  के बाद भी न तो पूरी तरह बन सका और न ही राजधानी के यातायात को सुगम बनाने का इसका मूल उद्देश्य पूरा हो सका। इसे हटाने की बात बीच में सवा साल के लिए सत्ता में आई कमलनाथ सरकार के कार्यकाल में भी उठी थी, लेकिन अफसरों ने उस सरकार को भी इस बारे में कोई ठोस निर्णय लेने से रोक दिया था। हकीकत में बीआरटीएस जी का जंजाल ज्यादा बन गया था। यह बात अलग है कि इस बीआरटीएस को हटाने में भी अफसर और नेताअों की चांदी होने वाली है, क्योंकि हाथी मरा भी तो सवा लाख का। बताया जा रहा है कि इसे हटाने पर भी 40 करोड़ का खर्च अनुमानित है। 
 लेकिन यादव सरकार के  जिस फैसले ने मोहन यादव सरकार की धमक कायम की वो गुना बस हादसे के समूची नौकरशाही को जिम्मेदार मानते हुए  ‘पूरे घर के बदल डालने’ का था। एक निजी बस और डंपर की टक्कर के बाद लगी आग में 13 यात्रियों की जलकर मौत हो गई थी। जांच में सामने आया कि दोनो ही वाहन अवैध तरीके से चल रहे थे। इसके बाद सीएम मोहन यादव ने गुना जिले के कलेक्टर, एसपी के साथ साथ  ट्रांसपोर्ट कमिश्नर और प्रमुख सचिव परिवहन को भी पद से हटा कर समूची नौकरशाही में कड़ा संदेश ‍िदया।  यह मौका देखकर चौका मारने वाली बात भी थी, क्योंकि आगे पीछे शिवराज सरकार में प्रमुख पदों पर बैठे अफसरों को हटना ही था, लेकिन सड़क हादसा इसका निमित्त बन गया। वैसे भी किसी सड़क हादसे में सरकार द्वारा अब तक की गई यह सबसे बड़ी कार्रवाई है, हालांकि जिस बस के यात्रियों की अकाल मौत हुई, वो एक भाजपा  नेता की है और उसके खिलाफ कार्रवाई का अभी लोगों को इंतजार है।  
जन समस्याअों से जुड़ा एक और मुद्दा जिलों, तहसीलों और थानों की सीमा के पुनर्निधारण का है। इसके लिए एक कमेटी बनाने का फैसला हुआ है, जो इसका अध्ययन कर सरकार को रिपोर्ट देगी। शुरुआत पायलट प्रोजेक्ट के रूप में इंदौर संभाग से की जाएगी। यह सही है कि राज्य में कई तहसीलों और थानों की भौगोलिक सीमाएं ऐसी हैं, जो स्थानीय नागरिकों की पहुंच से प्रशासन को दूर करती हैं। इनके युक्तियुक्तकरण की बेहद आवश्यकता थी। मसलन किसी गांव से जिला मुख्यालय 10 किमी है तो किसी दूरस्थ तहसील से इसकी  दूरी सौ किमी तक है। जबकि पड़ोस का जिला मुख्यालय वहां से बहुत पास है। यही स्थिति थानों  की भी है। किसी गांव से पुलिस थाना बहुत पास है तो किसी गांव से बहुत दूर। इस विसंगति को मिटाने  के लिए तहसील और थानों की सरहदों का पुनर्निधारण बेहद जरूरी था। यादव सरकार ने इस बारे में निर्णय लेकर एक बुनियादी मसले के हल की दिशा में कदम उठाया है। प्रशासन की लोगों तक सुगम पहुंच के इस फैसले पर अगर सही ढंग से अमल हुआ तो इसका सकारात्मक असर जरूर दिखाई देगा। ताजा तरीन फैसला ड्राइवरों की औकात को लेकर की गई घटिया टिप्पणी के बाद शाजापुर कलेक्टर किशोर कन्याल को ताबड़तोड़ पद से हटाना है। संदेश यही कि ड्राइवर जैसे छोटे कर्मियों का भी सरकार की नजर में बड़ा महत्व है। इसके अलावा उच्च शिक्षा में गुणवत्ता के उद्देश्य से हर जिले में प्रधानमंत्री एक्सीलेंस काॅलेज खोलने का निर्णय भी अहम है। लेकिन इसी के साथ राज्य में पहले से चल रहे काॅलेज आॅफ एक्सीलेंस और सीए राइज स्कूलों की दुर्दशा पर भी सरकार को गंभीरता से ध्यान देना चाहिए। कुल मिलाकर नई सरकार का आगाज तो अच्छा है, लेकिन इसके अनुकूल राजनीतिक, सामाजिक और प्रशासनिक परिणाम कैसे और कितने आते हैं, इस पर यादव सरकार का भविष्य काफी कुछ निर्भर करेगा।
( सुबह सवेरे’ में दि. 4 जनवरी 2023 को प्रकाशित)


देह व्यापार की गुलाबी गलियां-सत्य प्रकाश 'शिक्षक'

(पुस्तक चर्चा)
समीक्षक-सत्य प्रकाश 'शिक्षक'
लखीमपुर-खीरी उत्तर प्रदेश
नारी विमर्श पर केंद्रित 'गुलाबी गलियां' कृति में संकलित लघुकथाएं  साहित्य के अभिजन वर्ग द्वारा वर्जित विषयों पर तन्मयता के साथ अंकित की गई हैं। इन लघुकथाओं  में समाज की सच्चाई का बोध कराने का स्तुत्य प्रयास किया गया है। कहीं जीवन के स्याहपक्ष को सहजता से स्वीकार किया गया है, तो कहीं जीवन के अनकहे, अनछुये पहलुओं के यथार्थ कटु चित्रों को प्रस्तुत किया है। दूरवर्ती लेखकों से संपर्क करके उनकी रचनाओं का संकलन-परिमार्जन एक दुरूह कार्य है जिसे संपादक ने अपने तन, मन-धन से कुशलता पूर्वक संपन्न किया है। संकलन में  दायित्वबोध के क्रम में सच्ची लघु, कथाएं ग्रीष्म की  तपन के साथ चांदनी शीतल छांव भी प्रदान करतीं हैं जिनसे पाठक अपने अंर्तमन में झांककर देख सकता है कि‌ सभ्यता के विकास क्रम में वे अग्रसर हो रहे हैं या समाज के साथ पतनोन्मुख हो रहे हैं। चर्चित लघुकथाकार सुरेश सौरभ जी ने प्रस्तुत संग्रह की अपनी भूमिका में सही कहा है कि कभी छल से या कभी बल से नारी अनादि काल से शोषित रही है । प्रस्तुत संकलन वेश्याओं के जीवन संघर्ष, को पढ़ते हुए आत्मसात करने वाले किसी भी पाठक के मन में संवेदना जगाने में पूर्ण सक्षम है। प्रसिद्ध साहित्यकार संजीव जायसवाल 'संजय व उदीयमान युवा साहित्यकार देवेंद्र कश्यप "निडर'' जी ने संग्रह पर अपनी अमूल्य टिप्पणियां लिख कर किताब को कालजयी बना दिया है। इससे पहले सुरेश जी की इस दुनिया में तीसरी दुनिया, तालाबंदी, बेरंग, वर्चुअल रैली, एक कवयित्री की प्रेमकथा, पक्की दोस्ती, निर्भया आदि रचनाएँ अपार ख्याति पा चुकीं हैं। इनकी रचनाएँ गरीबों किसानों महिलाओं एवं मध्यम वर्ग की संवेदनाओं भावनाओं के इर्द-गिर्द विचरण करती रहती हैं। गुलाबी गलियां साझा संग्रह में देशभर के 63 लघुकथाकारों को संकलित किया है। बधाई सौरभ जी। 

पुस्तक- गुलाबी गलियां
संपादक-सुरेश सौरभ
प्रकाशन- श्वेत वर्णा प्रकाशन नई दिल्ली
मूल्य-249 (हार्ड बाउंड) 

Friday, November 17, 2023

करो कम ,फैलाओ ज्यादा-सुरेश सौरभ

(हास्य-व्यंग्य) 
  सुरेश सौरभ
निर्मल नगर लखीमपुर-खीरी
उत्तर प्रदेश पिन-262701
मो-7376236066


   पुराने दिनों बात है। उन दिनों 'कर्म ही पूजा है’ के सिद्धांत को मजबूती से अपनी गांठ में बांधकर बड़ी कर्मठता, ईमानदारी से, मैं अपना कार्य किया करता था। लेकिन फिर भी लोगों की मेरे प्रति, यह गलत धारणाएँ बनी हुईं थीं कि मैं अपने कर्म के प्रति उदासीन रहता  हूं, हीलाहवाली करता हूं, ऐसी रोज अनेक मेरी शिकायतें बॉस से हुआ करती थीं। आए दिन बॉस की डांट मुझ पर पड़तीं रहती थी। मैं बहुत परेशान रहता था। क्षुब्ध रहता था। 
  घर में पत्नी बच्चों की किचकिच से बचकर जब ऑफिस आओ, तो बेवजह बॉस की झांड़ सुनो, मेरी जिंदगी किसी बड़ी पार्टी से निकाले गये, उस नेता जैसी हो गई थी, जिसे लाख कोशिशों के बाद भी उसे कोई मंजिल न मिल रही हो,कोई सही ठौर-ठिकाना न मिल रहा हो, कोई  पुरसाहाल न हो। क्या करूँ ? क्या न करूँ ? मेरी दशा चिड़ियाघर में कैद बेचारे निरीह निरुपाय जीव जैसी हो गई थी। हमेशा सोचता रहता था, कैसे अपनी जहन्नुम हो चुकी जिंदगी को जन्नत बनाऊं।
     फिर एक दिन अचानक परमात्मा की मुझ पर असीम कृपा हुई। हर समस्या का समाधान चुटकियों में हल करने वाले, एक संत जी सोशल मीडिया के दरवाजे पर दिखे, उनसे फोन पर रो-गाकर अपनी सारी व्यथा बताई ,तब उन्होंने मिलने के लिए, परामर्श से समाधान के लिए, अपनी ऑनलाइन फीस बताई। मैंने तुरत-फुरत उनकी फीस जमा कर दी। उनसे मिलने का ऑपाइंटमेंट लिया। फिर ढेर सारे फल, मेवा, मिष्ठान आदि लेकर, नियत स्थान, नियत तिथि, नियत समय, संत जी के आश्रम पहुंच गया। संत जी उर्फ बाबा जी ने मुझे अपने एकांत केबिन बुलवाया। मेरी समस्या ध्यान से सुनी। फिर मुझे खूब समझाया। काउंसिलिंग की। फिर मुझे परमार्थ करने के अनेक पुण्य बताते हुए, मेरे कान में कुछ मंत्र फूंकें। जिन्हें अपने तक ही सीमित रखने का आदेश दिया। मैं उनके बताए नेक मार्ग पर चलने लगा। फिर मुझे संत जी के मंत्रों और टोटकों से बहुत लाभ होने लगा। घर से लेकर ऑफिस तक, अपनी फुल बॉडी के अंदर से लेकर बाहर तक, मुझे गुड फील होने लगा। जिंदगी मंगलमय आनंदमय में बीतने लगी। अगर अन्य लोगों से संत जी के मंत्रों की चर्चा करूंगा, तो उन मंत्रों का असर मेरे जीवन से जाता रहेगा। लिहाजा फिर भी मेरा मन नहीं मान रहा है। अपने दिल पर बड़ा सा पत्थर रखकर, एक मंत्र मैं आप से शेअर किए ले रहा हूँ। ...काम करो कम फैलाओ ज्यादा, जी हां इसके आगे और न बताऊंगा। यूँ समझो बॉस की चापलूसी करते हुए ...करो कम फैलाओ ज्यादा तथा संत जी के अन्य टोटकों से अपना जीवन सुखमय और शांतिपूर्वक बीता रहा हूँ। खुशी और मस्ती से राग मल्हार गाते हुए अब अपने दिन सोने जैसे सुनहरे, रातें चांदी जैसी, चांदनी जैसी चम-चम चमकाने लगी हैं।

ग़ज़ल- नन्दी लाल निराश

गजल
नन्दी लाल निराश
गोला गोकर्ण नाथ (खीरी)


 बाजरे के खेत से     बाहर निकलने का समय।
 आ गया है अब चिड़ी के घर बदलने का समय।।

 कुछ दिखाई दी नई  उम्मीद की चढ़ती किरण,
 जो लगा उनको तुम्हारे साथ चलने का समय।।

 गर्दिशी में दिन गुजारे हैं     कई सालों से अब,
 बीत आया बैठ खाली  हाथ मलने का समय।।

 चेतना के स्वर जहन में    यार के मुखरित हुए ,
 मिल गया सरकार से जो फिर सँभलने का समय।।

 गर्म जोशी से हवाएँ     चल रही मद मस्त अब,
 क्या फिजा में लग रहा पर्वत पिघलने का समय।।

 तेल, बाती, दीप ,झालर    से सजा दीवाल, घर,
 आ गया दीपावली के  दीप   जलने का समय।।

 फिर लगायेंगे हवा में    गाँठ करतब बाज, है
 पूड़ियाँ सुखी कढ़ाई     बीच तलने का समय।।

नीरू की पांडुलिपि हिंदी संस्थान ने की चयनित

साहित्यिकं समाचार

    लखीमपुर उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा अनुदान से पांडुलिपि चयन प्रक्रिया के अन्तर्गत गोला गोकर्णनाथ की युवा कवयित्री नीरजा विष्णु 'नीरू' की पांडुलिपि 'लिखेंगी इतिहास चिरैया' का चयन हुआ है। यह जानकारी संस्थान की संपादक अमिता दूबे ने पत्र द्वारा दी। नीरजा की कविताएँ निरंतर प्रकाशित होती रहती हैं। इनकी मार्मिक कविताएँ सोशल मीडिया पर वायरल भी होती रहीं हैं। कविता वाचन एवं प्रकाशन में नीरू ने साहित्य जगत में विशिष्ट पहचान बनाई है। हिंदी संस्थान से कविता संग्रह की पांडुलिपि चयनित होने के लिए नंदी लाल, द्वारिका प्रसाद रस्तोगी, लघु कथाकार  सुरेश सौरभ, विकास सहाय अखिलेश कुमार अरुण, रमाकांत चौधरी, श्याम किशोर बेचैन ,आदि साहित्यकारों ने नीरजा को बधाई दी है। 
प्रेषक-अंजू

Tuesday, November 07, 2023

लिक्खेगी इतिहास चिरैया-नीरजा विष्णु 'नीरू'

नीरजा विष्णु 'नीरू'
कविता 
नन्हें पंखों से नापेगी 
यह पूरा आकाश चिरैया 
नहीं सुनेगी किसी बाज की 
अब कोई बकवास चिरैया।।

उसको है मालूम घरौंदा 
अपना स्वयं बनाना होगा,
फिर सारे झंझावातों से भी 
खुद   उसे   बचाना  होगा 
सुख-दुःख से आगे जाने का 
कर लेगी अभ्यास चिरैया।

नहीं सुनेगी किसी बाज की 
अब कोई बकवास चिरैया।।

जब दुनिया नफरत बोयेगी 
तब भी वह बस प्यार रचेगी,
नीले अम्बर की फुनगी पर 
सपनों का संसार रचेगी
हारों के भीतर भर देगी 
जीवन का उल्लास चिरैया।

नहीं सुनेगी किसी बाज की 
अब कोई बकवास चिरैया।।

आज भले ही कैद करो तुम 
या फिर उसके पर काटो,
ऊँच-नीच और लिंग भेद का 
कितना ही कचरा पाटो,
जगवालों! इक रोज गगन पर 
लिक्खेगी इतिहास चिरैया ।

नहीं सुनेगी किसी बाज की 
अब कोई बकवास चिरैया।।

जब तक चुप है; तब चुप है,
पर जब शौर्य  दिखाएगी..
हार नहीं मानेगी; जिस दिन 
जिद पर वो आ जाएगी..
बोल उठेगा तिनका-तिनका 
वाह! वाह! शाबाश चिरैया
नन्हें    पंखों    से   नापेगी 
यह  पूरा  आकाश  चिरैया।

नहीं सुनेगी किसी बाज की 
अब कोई बकवास चिरैया।

बुद्ध स्तुति-डॉ० कैलाश नाथ

डॉ० कैलाश नाथ
 (प्राचार्य) 
डॉ० भीमराव अम्बेडकर पी०जी० कॉलेज, 
मुराद नगर (पतरासी) लखीमपुर खीरी। 
मो- 9452107832 



!! बुद्ध स्तुति !!

हे बुद्ध ! हे बुद्ध ! हे बुद्ध ! हे बुद्ध ! 
जैसे जगे आप हमको जगा दो, 
महाज्ञानी हो ही मुझे ज्ञान दे दो ।
एक बार फिर से आ जाओ भगवन्, 
वट छाँव में ज्ञान- सुरसरि बहा दो ।

हे बुद्ध ! हे बुद्ध ! हे बुद्ध ! हे बुद्ध ! 
दुख ही दुख है पूरे जगत में, 
सुधामय वाणी का मंत्र दे दो ।
ज्ञान-ज्योति दिखा दो भटकते मनुज को,
पंचशील का मर्म हमको बता दो।

हे बुद्ध ! हे बुद्ध ! हे बुद्ध ! हे बुद्ध ! 
दुनिया ने जाना सबने है माना,
तथागत के बोल अमृत समाना। 
कला जीवन की जीना सिखाया,
अष्टम् मार्ग क्या है हमें भी बता दो ।

 हे बुद्ध ! हे बुद्ध ! हे बुद्ध !हे बुद्ध ! 
मेरी आज विनती तुमसे यही है,
पड़ी भीर भारी मनुज के है ऊपर । 
विपदा हरौ है व्यथित आज जन-जन, 
कर दो दया राह भटके जनों पर ।

हे बुद्ध ! हे बुद्ध ! हे बुद्ध ! हे बुद्ध !



Tuesday, October 31, 2023

सोशल मीडिया पर नंगे होने की होड़ - रमाकान्त चौधरी


           रमाकान्त चौधरी           
ग्राम -झाऊपुर, लन्दनपुर ग्रंट, 
जनपद लखीमपुर खीरी उप्र।
सम्पर्क -  9415881883

    
    जैसे ही मनुष्य के हाथ में मोबाइल आया तो यूं लगा की सारी दुनिया उसकी मुट्ठी में आ गई। मोबाइल क्रांति ने मनुष्य के जीवन में बहुत बड़ा परिवर्तन कर दिया, जो कार्य करने में काफी लंबा सफर तय करना पड़ता था वही काम कुछ पलों में होने लगा।  सोने पर सुहागा तब हुआ जब सोशल मीडिया ने दस्तक दी , यू ट्यूब, फेसबुक, व्हाट्सएप, ईमेल, ट्विटर, इंस्टाग्राम जैसे दर्जनों प्लेटफार्म आ गए जहां मनुष्य अपने विचारों का एक दूसरे से आदान-प्रदान करने लगा।  गरीब से गरीब व्यक्ति जो सीधे-सीधे शासन प्रशासन से अपनी बात, अपना दुख दर्द नहीं  कह पाता था वह इन सोशल मीडिया के तमाम प्लेटफार्म के माध्यम से अपनी बात शासन प्रशासन तक पहुंचाकर अपना मन हल्का  करने का रास्ता खोज निकाला। और तो और वर्षों बिछड़े पुराने मित्र जिनसे शायद दोबारा कभी मिलने की उम्मीद न थी सोशल मीडिया के माध्यम से वह सभी लोग मिलने लगे और मनुष्य अपनी जिंदगी का पूर्ण आनंद सोशल मीडिया पर ढूंढने लगा। जीवन में अपने सगे संबंधी से ज्यादा सगेपन की जगह इस अदने से प्लास्टिक के टुकड़े ने ले ली। वर्तमान समय में समाजनीति से लेकर राजनीति  व धर्मनीति का प्रचार प्रसार करने का माध्यम सोशल मीडिया से बेहतर दूसरा कोई नहीं है।  जैसे-जैसे देश दुनिया ने प्रगति की वैसे-वैसे छोटे बड़े हर हाथ में मोबाइल पहुंचने लगा।  फिर एक दौर ऐसा भी आया कि बड़ों से ज्यादा बच्चे एवं किशोर मोबाइल का उपयोग करने लगे, जो जानकारी चाहो मोबाइल से पूछो तुरंत हाजिर, किंतु सबसे ज्यादा आश्चर्यजनक चीज यह हुई कि एक प्रश्न पूछने पर दस उत्तर हाजिर हो गए।  साथ साथ सोशल मीडिया के उपरोक्त तमाम प्लेटफार्म  वीडियो रील्स आदि बनाकर अपलोड करने के बदले अपने नियम शर्तों के मुताबिक अच्छा खासा  एमाउंट भी दे रहे हैं । मोबाइल फोन सोशल मीडिया लोगों के पैसा कमाने का एक बेहतरीन जरिया भी साबित हुआ। जहां एक और हर आदमी अखबार खरीद कर नहीं पढ़ पा रहा था और घर पर बैठकर टीवी पर समाचार देखने का समय नहीं था वहीं  व्यक्ति को अपने कार्य करते हुए भी  युटुब चैनलों के माध्यम से क्षेत्र से लेकर देश-विदेश तक की खबरें देखने का जानने का बेहतर प्लेट फार्म मिल गया।
 किन्तु  इन तमाम फायदों के साथ  अप्रत्याशित कार्य यह भी हुआ कि बहुत सारी वह भी चीजें मोबाइल पर खुलकर सामने आने लगी जिन्हें किशोर एवं बच्चों को नहीं देखना चाहिए।  किंतु जब सामने आई है तो फिर देखने व जानने की जिज्ञासा बढ़ जाना लाजिमी है।  इसी जिज्ञासा ने  पढ़ने वाले हाथों को अनावश्यक चीजे सर्च करने पर मजबूर कर दिया परिणाम स्वरूप जिन चीजों को जानने की अभी बिल्कुल आवश्यकता नहीं थी वह भी जानने लगे।  इसका प्रभाव यह रहा कि किशोरों द्वारा यौन अपराधों में अकल्पनीय वृद्धि हो गई । जिस कोरी स्लेट पर मानवता की इबारत लिखी जानी चाहिए थी उस स्लेट पर उम्र से पहले वे चीजें लिख गईं जो उनके जीवन के लिए अहितकर साबित हो रही हैं। आज  जो बच्चे व किशोर यौन अपराधी बन रहे हैं देखा जाए तो  मोबाइल एवं सोशल मीडिया की इस बिगड़ती सामाजिक व्यवस्था में महत्वपूर्ण भूमिका साबित हो रही है। किन्तु सबसे अहम परिवर्तन जो हुआ उसके विषय में सोच कर ही रूह कांप जाती है, पढ़ाई करने वाले, कैरियर बनाने वाले, कैरियर की फिक्र करने वाले युवा व किशोर  जिस तरह से रील्स बना बनाकर मोबाइल पर अपलोड करने में व्यस्त हैं वह भविष्य के लिए ठीक नहीं साबित होगा। जहां एक ओर फिल्मी गानों पर युवक युवतियां अर्धनग्न होकर वीडियो रील्स बना रहे हैं तो वहीं  दूसरी ओर आजकल  स्तनपान कराने वाली माताएं बच्चों को स्तनपान कराते हुए अर्द्धनग्न होकर रील्स बनाकर अपलोड कर रही हैं, जहां मातृत्व होना चाहिए वहां अश्लील तरीके से स्वयं को माताएं परोस रही हैं। जैसे ही सोशल मीडिया का कोई भी प्लेटफॉर्म खोला जाए कोई न कोई वीडियो रील्स जो फूहड़ता से लवरेज होगी, सामने खुलकर आ जाएगी। ऐसा लग रहा है कि मोबाइल सिर्फ इसी कार्य के लिए बनाया गया है। बच्चे, किशोर, युवा सभी नंगे होने की होड़ में लगे हुए हैं। इन्हीं नंगी पुंगी रील्स बनाने वाले हाथों में कल देश दुनिया का भविष्य  होगा, यह एक चिंतनीय व विचारणीय विषय है।

Thursday, October 26, 2023

बलत्कृत रूहें-सुरेश सौरभ

 (कविता)
  सुरेश सौरभ
निर्मल नगर लखीमपुर-खीरी
उत्तर प्रदेश पिन-262701
मो-7376236066


कुछ लोग कहते हैं
कि युद्ध थल पर
जल पर
नभ पर 
और साइबर पर होते हैं
पर ऐसा नहीं? कदापि नहीं?
युद्ध तो होते हैं, 
हम औरतों की छातियों की विस्तृत परिधियों पर
हमारे मासूम बच्चों के पेटों 
और उनकी रीढ़ों के भूगोलों पर 
जब तमाम बम, मिसाइलें गिरतीं हैं 
ऊंची-ऊंची इमारतों पर
रिहायशी इलाकों पर
रसद और आयुध पर
तब मातमी धुएं और घनी धुंध में,
चारों दिशाओं में हाहाकार-चीत्कार उठता है
लोग मरते हैं,घायल होकर तड़पते हैं 
लाशों चीथड़ों से सनी-पटी धरती का      
 कलेजा लाल-लाल हो 
घोर करूणा से चिंघाड़ता-कराहता है।
तब उन्हीं लाशों चीथड़ों के बीच तड़पड़ते हुए 
लोगों के बीच से
परकटे परिन्दों सी बची हुई घायल-चोटिल लड़कियों को, 
औरतों को मांसखोर आदमखोर गिद्ध उन्हें नोंच-नोंच कर तिल-तिल खाने लगते हैं।
आदमखोर वहशी गिद्ध बच्चों को भी नहीं बख्शते 
उनकी मासूमियत को नोंच डालते हैं
 हिटलरों के वहशीपन की तरह
जार-जार रोती उन स्त्रियों की, बच्चों की, 
रोती तड़पती रूहों की, 
कातर आवाजें आकाश तक गूंजती रहती हैं, 
पर अंधे बहरे लोभी धर्मांध सियासतदां
 उन्हें नहीं सुन पाते, नहीं देख पाते।
अगर न यकीं हों तो इस्राइल फलस्तीन के
युद्ध को देख समझ सकते हैं 
जहां धूं धूं कर जलती इमारतों के बीच से वहशियों से लुटती, पिटती, घिसटती
स्त्रियों के घोर करूण दारूण चीखों को सुन सकते हैं। 
कोई जीते कोई हारे, 
पर हम स्त्रियां की रूहें युद्ध में बलत्कृत होती रहेंगी, 
हमेशा लहूलुहान होती रहीं हैं 
और होती रहेंगी।

Thursday, October 05, 2023

विशेष सत्र केवल महिला आरक्षण बिल तक सिमट जाना,कई अहम सवाल खड़े कर गया:नन्दलाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)

विशेष सत्र का एजेंडा अभी भी गुप्त
नन्दलाल वर्मा
(सेवानिवृत्त एसोसिएट प्रोफेसर)
युवराज दत्त महाविद्यालय
लखीमपुर-खीरी 
                प्रधानमंत्री मोदी जी द्वारा संसद का विशेष सत्र बुलाने का हिडेन एजेंडा क्या था,वह आज भी मीडिया, विपक्ष,राजनीतिक विश्लेषकों और एकेडेमिक्स से जुड़े लोगों के लिए एक रहस्य के तौर पर देखा जा रहा है। विशेष सत्र केवल महिला आरक्षण बिल पारित कराने के लिए बुलाया गया, यह बात सहज रूप से स्वीकार नहीं हो रही है। महिला आरक्षण बिल जो जातिगत जनगणना और परिसीमन की लम्बी प्रक्रिया के बाद लागू होना है और इस पूरी प्रक्रिया में कम से कम दस साल का समय लग सकता है, मात्र उस बिल को पास कराने के लिए मोदी जी द्वारा विशेष सत्र के बुलाये जाने की बात राजनीतिक गलियारों में गले नहीं उतर रही है। मीडिया,विपक्ष,राजनीतिक विश्लेषकों और एकेडेमिक्स में इस बात पर गहन अध्ययन और चिंतन चल रहा है और कई तरह की आशंकाओं को रेखांकित कर केवल महिला आरक्षण बिल पास करने के नाम पर बुलाये गए विशेष सत्र के लिये मोदी जी द्वारा तय किये गए गुप्त एजेंडों पर भी गहन अध्ययन जारी है,क्योंकि बिल के लागू होने के समय के हिसाब से यह बिल आगामी शीतकालीन सत्र में भी आसानी से पास हो सकता था।  तो फिर बिल को लेकर इतनी छटपटाहट क्यों थी। मीडिया,विपक्ष,राजनीतिक विश्लेषकों और एकेडेमिक्स में गुप्त एजेंडों को लेकर माथापच्ची जारी है। यह अनुमान लगाया जा रहा है कि मोदी जी इस विशेष सत्र में कुछ बड़ा करने वाले थे,लेकिन पांच राज्यों के विधानसभाओं के आसन्न चुनावों का राजनैतिक माहौल अनुकूल महसूस न होने/ हार की आहट और घबराहट या जातिगत जनगणना की मांग और उसके अनुरूप आरक्षण विस्तार जैसी राजनीतिक परिस्थितियों को भांपते हुए अपने मूल एजेंडे पर फ़ोकस न कर देश की पचास प्रतिशत आबादी नारी शक्ति का वंदन  के नाम पर उनके साथ राजनीतिक रूप से भावनात्मक रूप से जोड़ने की नीयत से  33% राजनैतिक आरक्षण देने के बिल तक सिमटना पड़ा। बौद्धिक क्षेत्र में यह भी चर्चा है कि मोदी जी इस बिल पर विपक्ष की ओर से ना नुकुर या विरोध या हो -हल्ला की उम्मीद लगाए बैठे थे। यदि बिल के पास कराने पर विपक्ष कोई हंगामा या बखेड़ा खड़ा कर देता तो मोदी जी विपक्ष पर नारी या महिला विरोधी होने की मोहर और मानसिकता का आगामी लोके सभा चुनाव प्रचार के दौरान प्रचार- प्रसार कर देश की महिलाओं का वोट बैंक अपने पक्ष में करने की कवायद में सफल होने की रणनीति तय करते दिखाई देते, लेकिन विपक्ष की ओर से बिल पर किसी तरह का विरोध न आने से मोदी जी की सारी रणनीति और योजना धराशायी होती दिखी। महिला आरक्षण बिल जो पारित हुआ है, उसमें एससी-एसटी महिलाओं के आरक्षण की स्थिति स्पष्ट नहीं बताई जा रही है। चर्चा यहां तक है कि इस बिल में एससी-एसटी का राजनैतिक आरक्षण यथावत जारी रहने की बात कही गयी है,लेकिन ओबीसी और ओबीसी की महिलाओं के लिए आरक्षण की व्यवस्था  नहीं की गई है, यह शत प्रतिशत सही है। यदि बिल में एससी-एसटी वर्ग की महिलाओं का क्षैतिज आरक्षण होता तो ओबीसी की महिलाओं को भी क्षैतिज आरक्षण देना पड़ता,यह तभी सम्भव होता जब ओबीसी को एससी-एसटी की तरह पहले सही आरक्षण व्यवस्था चली आ रही होती या इस बिल में नई व्यवस्था होती,जो कि दोनों  नहीं है। ऐसी स्थिति में ओबीसी की महिलाओं को आरक्षण मिलने की कोई सम्भावना नही लग रही है।

Wednesday, September 27, 2023

महिला आरक्षण बिल के पीछे छिपे राजनीतिक षडयंत्र और चुनावी राजनीति के गूढ़ निहितार्थ:नन्दलाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)

महिला आरक्षण बिल:पार्ट 2
नन्दलाल वर्मा
(सेवानिवृत्त एसोसिएट प्रोफेसर)
युवराज दत्त महाविद्यालय
लखीमपुर-खीरी 
                डॉ.भीमराव आंबेडकर के संविधान की दुहाई देकर एक पिछड़े परिवार से पीएम बनने के अवसर को बड़े फक्र के साथ दावा ठोकने वाले नरेन्द्र मोदी की सरकार में पारित महिला आरक्षण बिल में ओबीसी महिलाओं के लिए लोकसभा में एक सीट भी आरक्षित नहीं की गई हैं,जबकि डॉ.आंबेडकर किसी समाज की प्रगति या विकास का मानदंड उस समाज की महिलाओं के विकास के साथ जोड़कर देखते थे। महिला आरक्षण बिल एक खास वर्ग की महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी और सशक्तिकरण की दिशा में उठाया गया राजनीतिक कदम आरएसएस और बीजेपी सरकार की सवर्ण मानसिकता/वर्ण व्यवस्था/मनुवादी सोच को दर्शाता है। ओबीसी आरक्षण के मामले में आरएसएस और बीजेपी का राजनीतिक चरित्र शुरू से ही विरोधी रहा है। इसलिए ओबीसी महिलाओं के आरक्षण के सम्बंध में भी आरएसएस और बीजेपी से यही उम्मीद थी। 1977 में जब जनता पार्टी की सरकार बनी थी जिसमें बीजेपी भी शामिल थी। एकीकृत जनता पार्टी के चुनावी घोषणा पत्र में सरकार बनने पर कालेलकर आयोग की सिफारिशें लागू करने का वादा किया गया था। चुनाव बाद मोरारजी देसाई के नेतृत्व में बनी सरकार ने कालेलकर आयोग की सिफारिशों को लागू करने से इस आधार पर मना कर दिया था कि इसकी रिपोर्ट काफी पुरानी हो चुकी है और ओबीसी की सामाजिक और शैक्षणिक स्तर काफी बदल चुका है। इसे बहाना बनाकर मोरारजी देसाई की सरकार ने एक नया मंडल आयोग गठित कर बड़ी चालाकी से टाल दिया था। वीपी सिंह के नेतृत्व में जब 1989 में जनता दल की सरकार बनी तो बिगड़ते राजनीतिक माहौल की वजह से 1990 में वीपी सिंह द्वारा ओबीसी के लिए केवल सरकारी नौकरियों में 27% आरक्षण की घोषणा करते ही बीजेपी ने समर्थन वापस लेकर उनकी सरकार गिरा दी थी और दूसरी तरफ ओबीसी का आरक्षण जैसे महत्वपूर्ण मुद्दे से ध्यान हटाने के लिए लाल कृष्ण आडवाणी ने ओबीसी की जातियों को लेकर राम मंदिर आंदोलन की रथयात्रा शुरू कर दी जिसमें वर्तमान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया था। ओबीसी के आरक्षण के परिप्रेक्ष्य में यदि बीजेपी के चरित्र और कृत्य का अवलोकन और आकलन किया जाए तो वह पूरी तरह ओबीसी विरोधी दिखाई देता रहा है,इसमें कोई संदेह नहीं है। 

एससी-एसटी की महिलाओं को उनके वर्ग के लिए पूर्व प्रदत्त संवैधानिक राजनैतिक आरक्षण का 33% आरक्षण का रास्ता तो साफ है,लेकिन ओबीसी महिलाओं को लोकसभा में आरक्षण के माध्यम से प्रवेश करने का रास्ता नहीं बनाया गया है। ओबीसी को यह अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि महिलाओं के नाम जो 33% राजनैतिक आरक्षण दिया गया है, वो वास्तव में केवल सवर्ण महिलाओं के लिए आरक्षण की व्यवस्था है,जैसा कि सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थाओं में 10% ईडब्ल्यूएस आरक्षण के सम्बंध में हुआ था। लोकसभा में महिलाओं के लिए 543 की 33% कुल 181 सीटें आरक्षित होंगी,जिनमें एससी और एसटी की कुल आरक्षित 131सीटों का 33% यानी 47 सीटें (अनुमानित) इस वर्ग की महिलाओं के लिए क्षैतिज आरक्षण मिल जायेगा। अब 181- 47=134 बची सीटों पर सामान्य वर्ग की सशक्त और संसाधन युक्त परिवार की महिलाओं के लिये चुनाव लड़कर लोकसभा जाने का रास्ता साफ कर दिया गया है क्योंकि सशक्त परिवार की इन महिलाओं का मुकाबला करने वाली आरक्षित वर्ग (एससी-एसटी और ओबीसी,ओबीसी के विशेष संदर्भ में ) की महिलाएं बहुत कम मिल पाएगी। इसलिए इन सीटों पर सामान्य वर्ग की सशक्त और समृद्ध परिवारों की महिलाओं के चुनाव जीतने की सबसे ज्यादा संभावना है। मेरे विचार से सामान्य वर्ग की महिलाओं के लिए वे सीटें आरक्षित की जाएंगी जहां से ओबीसी के पुरुष लंबे अरसे से चुनाव जीतकर आ रहे हैं। यदि ऐसा होता है तो ओबीसी के लोकसभा में जाने की सम्भावना और संख्या न्यूनतम हो जाएगी जिससे संसद में उनका प्रभावशाली और निर्णायक प्रतिनिधित्व नहीं रह जाएगा और आरएसएस नियंत्रित बीजेपी का यही हिडेन राजनीतिक एजेंडा है। भाजपा-आरएसएस ओबीसी सांंसद और विधायक देने वाली संसदीय और विधानसभा सीटों पर महिला आरक्षण बिल के बहाने कब्ज़ा कर ओबीसी को राजनीतिक नुकसान पहुंचाने की एक अदृश्य दूरगामी साज़िश से इनकार नहीं किया जा सकता है। जब संसद में ओबीसी का पर्याप्त प्रतिनिधित्व ही नहीं बचेगा तो जातिगत जनगणना और आरक्षण विस्तार का मुद्दा ही नहीं उठेगा,अर्थात " न नौ मन तेल होगा और न राधा नाचेंगी " की कहावत चरितार्थ होती नजर आएगी। मनुवादी सोच पर अमल करने वाली बीजेपी के महिला आरक्षण बिल का यही असली निहितार्थ है, जिसे ओबीसी को समझने की बहुत जरूरी है। उल्लेखनीय है कि पंचायत राज अधिनियम में एससी- एसटी और ओबीसी को लंबवत(वर्टिकल) और क्षैतिज(होरिजेंटल) दोनों तरह का आरक्षण दिया जा रहा है। क्या पारित महिला आरक्षण बिल और पंचायत राज अधिनियम में महिलाओं के संदर्भ में असंगति या असमानता नहीं होगी?

संविधान और आरक्षण पर सवाल एससी-एसटी और ओबीसी के वे सांसद उठाते हैं जो विपक्ष में होते हैं। यदि वे सत्तारूढ़ दल से हैं तो उस दल और उसके शीर्ष नेतृत्व की वजह से चुप्पी साधे रहने को मजबूर होते हैं। सत्तारूढ़ दल और सरकार का समर्थन कर रहे दलों के सांसद कई तरह के अदृश्य और दृश्य भयों के डर से सरकार की लाइन से हटकर बोलने का साहस नहीं कर सकते और यदि बोलते भी हैं तो 'जितनी चाबी भरी राम ने ,उतना चले खिलौना"जैसी स्थिति दिखाई देती है। चूंकि एससी-एसटी के आरक्षण की संवैधानिक व्यवस्था है, इसलिए उनके आनुपातिक आरक्षण या प्रतिनिधित्व पर कैंची चल नहीं सकती है। जातिगत जनगणना के आंकड़े उपलब्ध न होने के कारण ओबीसी का आरक्षण या प्रतिनिधित्व अधर में लटका हुआ है। 10%ईडब्ल्यूएस आरक्षण के बाद ओबीसी की ओर से जातिगत जनगणना और प्रतिनिधित्व विस्तार का मुद्दा लगातार उठाये जाने की संभावना बन गयी है जिससे आरएसएस और बीजेपी हमेशा दूर भागना चाहती है। ओबीसी की जातिगत जनगणना और उसके आरक्षण विस्तार की भावी मांग से आरएसएस और बीजेपी बुरी तरह डरी हुई नज़र आती है। इसलिए बीजेपी ओबीसी के प्रतिनिधित्व को यथासंभव कम करने की कोई कोशिश या प्रयास छोड़ना नहीं चाहती है। महिला आरक्षण बिल इसी दिशा में उसकी एक सोची समझी दूरदर्शी राजनीति और रणनीति का हिस्सा है। महिला आरक्षण बिल के ज़रिए महिला वोटों के साथ सवर्णों के वोट साधने की रणनीति की दिशा में भी माना जा रहा है,जैसा 2019 के लोकसभा चुनाव से ठीक पहले सामान्य वर्ग के बच्चों के लिए सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में प्रवेश के लिए लाए गए ईडब्ल्यूएस (आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग) के माध्यम से किया गया एक चुनावी राजनीतिक प्रयास सफल रहा। महिला आरक्षण बिल उसी दिशा में उठाया गया अगला कदम है। आरएसएस और बीजेपी अपने एससी-एसटी और ओबीसी के आरक्षण विरोधी चरित्र के माध्यम से सवर्णों का वोट बैंक अपने साथ स्थायी रूप से टिकाए रखने की दिशा में लगातार काम करती रहती है,लेकिन एससी एसटी और ओबीसी चंद चुनावी प्रलोभनों,धर्म और हिंदुत्व के प्रभाव की वजह से बीजेपी की इन दूरदर्शी चालों से बेख़बर है।

आरएसएस और बीजेपी के इस महिला आरक्षण बिल के पीछे छिपे जिस राजनीतिक षडयंत्र और चुनावी राजनीति के गूढ़ निहितार्थ को गम्भीरतापूर्वक समझने की जरूरत है,उस पर अभी ओबीसी का फोकस ही नही है। आरएसएस और बीजेपी ने ओबीसी को मंदिर-मस्जिद,हिन्दू-मुस्लिम,छद्म राष्ट्रवाद और चंद चुनावी लालच में अच्छी तरह फंसाकर रखा है। ज्यादातर क्षेत्रीय दल सामाजिक न्याय का नारा देकर उभरे हैं। इसलिए उनका आधार वोट बैंक सामाजिक,शैक्षणिक और राजनीतिक रूप से शोषित,वंचित और पिछड़ा समाज ही है। इस समाज के लोग राजनीति के लिए उतने सक्षम, सशक्त और तिकड़मी नहीं हैं, जितना कि सवर्ण लोग सक्षम, संसाधन युक्त और तिकड़मबाज है। चुनाव में संसाधनों और राजनीतिक परिपक्वता के संदर्भ में सवर्ण समाज के लोगों के सामने ओबीसी प्रत्याशी कॉन्फिडेंस के स्तर पर कमजोर साबित होते हैं और महिला आरक्षण हो जाने के बाद उनके समाज की महिला प्रत्याशी के सामने ओबीसी महिला प्रत्याशी कितनी मजबूती और कॉन्फिडेंस के साथ लड़ पाएगी,उसका सहज अनुमान लगाया जा सकता है,क्योंकि ओबीसी की महिलाएं अभी व्यक्तिगत तौर पर सवर्ण महिलाओं की तुलना में उतनी राजनीतिक रूप से स्वतंत्र,सक्षम और कॉन्फिडेंट नही दिखती हैं। ओबीसी की अधिकांश पढ़ी-लिखी महिलाएं या तो छोटी-छोटी नौकरी कर रही हैं या घर-परिवार की देखभाल कर रही हैं। सामाजिक परिवेश की वजह से राजनीतिक रूप से ओबीसी महिलाएं सवर्ण महिलाओं की तुलना में अभी भी बहुत पीछे हैं। बातचीत करने के मामले में सवर्ण महिलाएं ओबीसी महिलाओं की अपेक्षा ज्यादा प्रभावशाली और वाकपटु होती हैं,ऐसा उनके सामाजिक परिवेश में खुलेपन की वजह से होता है। ओबीसी महिलाओं में राजनीति के वांछित गुणों और तत्वों के अभाव की वजह से ओबीसी की महिला प्रत्याशी सवर्ण महिला प्रत्याशी के सामने मतदाताओं को प्रभावित करने के मामले में पूरी दमदारी के साथ लड़ नहीं पाती है। बीजेपी सरकार द्वारा पारित महिला आरक्षण से ओबीसी का अधिकतम राजनीतिक नुकसान होने के बावजूद पिछड़े वर्गों के उत्थान और भागीदारी की राजनीति करने का दावा करने वाले दलों (अपना दल-एस,सुभासपा, निषाद समाज पार्टी ) का बीजेपी के साथ सरकार में भागीदार बनकर इस बिल के समर्थन में पूरी दमदारी के साथ खड़ा होना उनके सामाजिक और राजनीतिक एजेंडे और राजनीतिक वैचारिकी और चाल-चरित्र पर बड़ा सवालिया निशान लगाता हुआ दिखाई देता है। इन दलों को याद रखना चाहिए कि पिछड़ों के उत्थान और प्रतिनिधित्व की झूठी राजनीतिक वकालत कर सत्ता की मलाई चाटने का यह राजनीतिक चरित्र और उपक्रम लंबे समय तक नहीं चल पाएगा। बहुजन समाज के बल पर सत्ता के शिखर तक पहुंची बीएसपी की सामाजिक और राजनीतिक दुर्गति किसी से छुपी नहीं है। ऐसे दलों और उनके आधार वोट बैंक को इन सबसे सबक सीखने की जरूरत है।

Wednesday, September 20, 2023

मोदी सरकार का आधा-अधूरा और विसंगतिपूर्ण " नारी शक्ति वंदन बिल"-नन्दलाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)


            "इस बिल को महिला आरक्षण बिल या सवर्ण महिला आरक्षण बिल कहें .....पढ़िए इस पुरे लेख में आखिर क्या है यह महिला आरक्षण बिल ?....महिला आरक्षण बिल के आधे-अधूरे और विसंगतियों को लेकर विरोधियों के पास भी अपने ठोस तर्क हैं जिनके आधार पर वे चर्चा के दौरान सरकार को घेर सकते हैं........बीजेपी गठबंधन सरकार के लिए गले की हड्डी बन सकता है और सामाजिक न्याय की पक्षधर पार्टियों में एक नई तरह की एकजुटता के लिए नए अवसर पैदा हो सकते हैं"
नन्दलाल वर्मा
(सेवानिवृत्त एसोसिएट प्रोफेसर)
युवराज दत्त महाविद्यालय
लखीमपुर-खीरी 

    ✍️महिला आरक्षण बिल एक संविधान संशोधन विधेयक है, जो भारत में लोकसभा और सभी राज्य विधान सभाओं में महिलाओं के लिए 33% आरक्षण देने की बात करता है। यह बिल 1996 में पहली बार पेश किया गया था, लेकिन अब तक पारित नहीं हो पाया है। महिला आरक्षण बिल भारतीय राजनीति में महिलाओं की भागीदारी और सशक्तिकरण की दिशा में उठाया जाने वाला एक महत्वपूर्ण कदम है। भारत में, महिलाओं की लोकसभा में 2023 में भागीदारी केवल 14.5% है, जो विश्व में सबसे कम में से एक है। महिला आरक्षण बिल के पारित होने से उम्मीद है कि महिलाओं की प्रतिनिधित्व में वृद्धि होगी और वे नीति निर्माण में अधिक प्रभावी भूमिका निभा सकेंगी। हालांकि, सोमवार को चली कैबिनेट बैठक को लेकर कोई आधिकारिक जानकारी सामने नहीं आई है,लेकिन इस बात की चर्चा तेज है कि केंद्रीय कैबिनेट ने महिला आरक्षण बिल को मंजूर कर दिया है।विपक्ष कई बिन्दुओं को लेकर इस महिला आरक्षण बिल पर सरकार को घेरने की रणनीति बना रहा है। वह सवाल उठा रहा है कि जब सभी पार्टियां बिल के समर्थन में थीं, तो फिर 10 साल तक इंतजार करने की क्या जरूरत पड़ी और ओबीसी महिलाओं के आरक्षण पर सरकार अपनी मंशा क्यों नही जता रही है? उनका कहना है कि ऐसा कुछ राज्यों के सन्निकट चुनावों और 2024 के लोकसभा चुनाव को ध्यान में रखकर महिला वोट बैंक तैयार करने की दिशा में यह उपक्रम किया जा रहा है। 
✍️इस महिला आरक्षण बिल के समर्थकों का तर्क है कि यह महिलाओं के सशक्तिकरण और समानता स्थापित करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम साबित होगा। उनका मानना है कि इस आरक्षण से महिलाओं को राजनीति में प्रवेश करने और अपनी नेतृत्व क्षमता की भूमिकाओं को हासिल करने के लिए एक समान अवसर उपलब्ध होगा,जबकि इस बिल में एससी-एसटी महिलाओं के लिए क्षैतिज (होरिजेंटल) आरक्षण की बात कही जा रही है और ओबीसी महिलाओं के बारे में इस बिल में कोई जगह नहीं दी गयी है, तो फिर ऐसी स्थिति में यह बिल सशक्तिकरण और समानता की दिशा में महत्वपूर्ण कदम कैसे साबित होगा? तुलनात्मक रूप से सामान्य वर्ग की महिलाएं एससी-एसटी और ओबीसी की महिलाओं से प्रत्येक क्षेत्र में आगे हैं और वर्तमान में महिला राजनीति की भागीदारी की बात की जाए तो सामान्य वर्ग की महिलाओं की ही अधिकतम भागीदारी दिखाई देती है,एससी -एसटी और ओबीसी महिलाओं की भागीदारी नाममात्र की दिखती है। महिला आरक्षण बिल के आधे-अधूरे और विसंगतियों को लेकर विरोधियों के पास भी अपने ठोस तर्क हैं जिनके आधार पर वे चर्चा के दौरान सरकार को घेर सकते हैं। फिलहाल, सरकार लोकसभा में दो तिहाई बहुमत से और राज्यसभा में राजनीतिक प्रबंधन से बिल पास कराने की स्थिति में सक्षम दिखती है। बिल पास होने के बाद इसकी विसंगतियों को लेकर विपक्ष या सामाजिक न्याय का कोई संगठन सुप्रीम कोर्ट जा सकता है। विधि विशेषज्ञों का मानना है कि सुप्रीम कोर्ट ओबीसी महिला आरक्षण के बिंदु पर सरकार के निर्णय से परे राय देते हुए निर्णय दे सकती है।
✍️नए संसद भवन में देश की आधी आबादी नारी शक्ति को राजनैतिक रूप से सशक्तिकरण की दिशा में लोकसभा और विधान सभा में 33 प्रतिशत आरक्षण देने के लिए विगत दो दशकों से अधिक समय से लंबित महिला आरक्षण विधेयक मोदी सरकार राज्यों और लोकसभा चुनाव से पहले एक बार फिर लेकर लायी है। इस बिल की विषय सामग्री का अध्ययन करने के बाद ही पता चल पाएगा कि बिल की वास्तविक विषयवस्तु क्या है। कहा जा रहा है कि यदि यह बिल पारित होकर कानून बन जाता है तो भी उसके लागू होने की संभावना 2029 तक पक्के तौर पर नहीं कही जा सकती है। परिसीमन और जनगणना एक जटिल प्रक्रिया मानी जाती है। इस बिल की विसंगतियों और संभावना पर शुरुआती दौर में ही तरह- तरह की उंगलियां उठने लगी हैं। बताया जा रहा है कि एससी-एसटी की तरह लोकसभा और राज्य की विधान सभाओं में महिलाओं को 33% आरक्षण दिए जाने की बात कही गई है। एससी और एसटी वर्ग की महिलाओं को उनको मिलते आ रहे 15 % और 7.5 % राजनीतिक आरक्षण के भीतर ही आरक्षण दिया जाएगा,यह भी सुनने में रहा है। तो इसका सीधा अर्थ यह हुआ कि बाकी आरक्षण अन्य एक विशिष्ट वर्ग (सामान्य वर्ग) की महिलाओं को 33% आरक्षण का लाभ दिए जाने की बात है। ओबीसी की महिलाओं के राजनैतिक आरक्षण की बात इस बिल में कहीं नहीं है, ऐसा तथ्य सामने निकलकर आ रहा है। एससी और एसटी वर्ग की महिलाओं को तो क्षैतिज (होरिजेंटल) आरक्षण का लाभ मिल जाएगा क्योंकि उनके वर्ग को पहले से ही राजनैतिक आरक्षण मिलता आ रहा है, लेकिन ओबीसी महिलाओं को आरक्षण कैसे मिल पायेगा, ओबीसी को तो राजनैतिक आरक्षण नहीं मिल रहा है जबकि 1953 में गठित काका कालेलकर आयोग और 1979 में गठित मंडल आयोग की सिफारिशों में ओबीसी को राजनैतिक आरक्षण की भी सिफारिश है। चूंकि एससी और एसटी को केवल लोकसभा और राज्य की विधान सभाओं में ही आरक्षण मिल रहा है, उनके लिए राज्यसभा तथा राज्यों की विधान परिषदों में आरक्षण की व्यवस्था अभी भी नहीं है। अब सवाल यह उठता है कि क्या इस बिल में एससी और एसटी की महिलाओं को राज्यसभा और राज्यों की विधान परिषदों में आरक्षण देने की बात कही गयी है,कि नही ? और यदि ऐसा नहीं है तो अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के संगठनों ,राजनीतिक दलों और उनके बौद्धिक मंचों से लंबित इस अधूरे राजनैतिक आरक्षण की मांग नए सिरे से उठना लाज़मी होगा। 
✍️चूंकि ओबीसी को वर्तमान में राजनैतिक आरक्षण नहीं मिल रहा है, इस आधार पर अनुमान लगाया जा रहा है कि उनकी महिलाओं को एससी-एसटी की महिलाओं की तरह क्षैतिज आरक्षण कैसे मिल सकता है? यदि ओबीसी की महिलाओं के लिए आरक्षण की बात इस बिल में है तो फिर उन्हें एससी-एसटी वर्ग की महिलाओं की तरह क्षैतिज आरक्षण नहीं मिल पायेगा। ऐसी स्थिति में महिलाओं में दो भिन्न कैटेगिरी हो जाने से उनके बीच एक नई तरह की खाई पैदा होती दिखेगी जो कि नैसर्गिक न्याय के खिलाफ़ होगी। परिस्थितियों से यह सम्भव लग रहा है कि पहले एससी-एसटी की तर्ज पर ओबीसी के नए राजनैतिक आरक्षण की बात नए सिरे से उठे। अभी तक ओबीसी को सरकारी नौकरी और शिक्षण संस्थाओं में 27% आरक्षण सीमा और क्रीमीलेयर की शर्त के साथ ही आरक्षण मिल रहा है। 10% ईडब्ल्यूएस आरक्षण के बाद ओबीसी को मिल रहे 27% आरक्षण सीमा की शर्त को लगातार खारिज किया जा रहा है, क्योंकि ओबीसी आरक्षण पर निर्णय देते समय सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण की कुल सीमा 50% निर्धारित की थी। ईडब्ल्यूएस पर 2023 में आये सुप्रीम कोर्ट के निर्णय से यह सीमा टूट गई है,ऐसा माना जा रहा है। अब एक बड़ा सवाल यह उठता है कि महिला आरक्षण में यदि ओबीसी महिलाओं को शामिल नही किया जाता है तो मोदी जी के " नारी शक्ति वंदन " नारे और बिल की व्यावहारिकता और सार्थकता कैसे सिद्ध होगी? सामाजिक, राजनीतिक और बौद्धिक मंचों से इस बिल को कई तरह की विसंगतियों से भरा हुआ बताया जा रहा है और यह भी कहा जा रहा है कि सन्निकट राज्य विधासभाओं और 2024 के लोकसभा चुनाव के भविष्य को लेकर जल्दबाजी में लाया गया यह बिल मोदी जी का एक और जुमला साबित हो सकता है।
✍️2019 में जब सामान्य वर्ग के आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्ग के लिए सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थाओं में 10% आरक्षण के लिए संविधान संशोधन बिल पास हुआ था तो उसके बाद से ही ओबीसी आरक्षण की सीमा बढ़ाने और जातिगत जनगणना की मांग जोर शोर से उठ रही है। महिलाओं को 33% राजनैतिक आरक्षण देने के लिए लाए गए इस बिल के बाद जातिगत जनगणना और उसके हिसाब से आरक्षण दिए जाने की एक सामाजिक और राजनीतिक मांग उठने का एक और माक़ूल मौका मिलता हुआ दिख रहा है। यदि सामाजिक न्याय की पक्षधर पार्टियां इस बिल पर बहस के दौरान यह मांग उठाती हैं और विसंगतियों के कारण बिल के पास होने या लागू होने में कोई अड़चन पैदा होती है तो यह स्थिति बीजेपी गठबंधन सरकार के लिए गले की हड्डी बन सकता है और सामाजिक न्याय की पक्षधर पार्टियों में एक नई तरह की एकजुटता के लिए नए अवसर पैदा हो सकते हैं, अर्थात विपक्ष की राजनैतिक एकता के गठबंधन का दायरा और बड़ा होने के साथ पहले से अधिक मजबूत बन सकता है। इस बिल से विपक्ष को सामाजिक न्याय और जातिगत जनगणना कराने का एक और सुअवसर मिलने की संभावना जताई जा रही है। यदि ओबीसी महिलाओं को आरक्षण की परिधि में नहीं लाया गया तो 2024 के लोकसभा चुनाव सरकार के लिए भारी पड़ सकता है। जरा इस पर गम्भीरतापूर्वक सोचिएगा!

Tuesday, September 12, 2023

लिखा नहीं जाता और कलम है कि मानती नहीं-डॉ० हरिवंश शर्मा


      नजरिया
डॉ हरिवंश शर्मा (प्राचार्य)
आदर्श जनता महाविद्यालय
देवकली, लखीमपुर-खीरी 
        यात्रा की थकान अभी उतर नही पाई थी । अचानक याद आया कि जरूरी काम एक बाकी है । मैंने मोबाइल उठाया और हमारे सहयोगी कम्प्यूटर सहायक डी के जी से पूछा, " आज आफिस आओगे क्या ? 
    "सर जी, वैसे तो मुझे दवा लेने जाना है हॉ अगर कोई जरूरी काम हो तो आ जाते है। 
    "किस समय बता दो" मैने पूछा। बोले," कहिए अभी आ जाऊं ।" 
    "तब ठीक है, मैं बस कपड़े बदलकर तुरन्त आता हू ।"
    मैने पत्नी से कहा ,"आफिस कुछ जरूरी काम है थोड़ा वक्त लगेगा ।"
    "खाना कब खाओगे ? पत्नी ने पूछा । 
    "दो - ढाई तो बज ही जाएगा ।"
    वैसे भी इस समय बच्चों के हास्टल जाने के बाद घर आधा सन्नाटा ही रहता है । ऐसे में अगर मोबाइल भी साथ छोड़ दे तो संसार ही अधूरा हो जाये । खैर छोडिए बात ये नही है कुछ और है ।
    स्कूटी लेकर मै घर से निकला था । जल्दी भी थी क्यों किसी को इन्तजार कराना मेरी आदत नही । ख्यालों में था कि कुछ बैंक का काम भी निपटा ही लेते है । बच्चों को कुछ पैसे भेजने है पर ये क्या बैक खुली भी है बन्द भी है सबसे सरल उपाय - सर्वर नही आ रहा । चेक तो जमा हो जाएगी मैंने पूछा तो हिकारत भरे स्वर में बोला नही आज वह भी नही हो पाएगा । मै मन ही बुदबुदाया सीधे मेन्टीनेन्स की बन्दी नही बोल रहे । फिर याद आया कि डाकघर में भी एक खाता है वहां चलते है । वैसे तो अमूमन यहाॅ के कर्मचारी तो बैंक से ज्यादा बेढंगे है । कभी सीधे मुह बात छोडिये जनाब चाल भी तिरछी रहती है । शायद मेरे साथ ही ऐसा हो क्योंकि न पान पुड़िया खाकर बतियाते है और न ही भौकाल बनाने के लिए धत् तेरी करते है । खैर मै पहुचा तो जमा निकासी वाले राना बाबू नही थे । मिश्रा जी भी नही दिखे । एक बैठा था उससे पूछा तो बताया . मिश्रा जी बीमार है । उनकी जगह एक नये सज्जन बैठे थे । उनसे मालूम किया तो बोले - मिश्रा जी बीमार है ऐसे जमा निकासी सब कुछ बन्द । पास में बैठे एक एजेन्ट महाशय मुझे तरह तरह के ज्ञान देने लगे । पिण्ड छुड़ाकर मै बाहर आया । मन में गुस्से का गुब्बार जरूर था । यह मनोदशा लेकर मैं स्कूटी से आगे बढ़ा तो बायें साइड की तरफ पड़ने वाली कोतवाली से एक्टिवा पर सवार एक नौजवान पुलिस वाला जिसकी पीठ पर आज के चलन का पिट्ठू बैग था । वह सरपट चौरहे की तरफ बढ़ा । जन्माष्टमी के चलते शहर के चौराहों पर लगने वाली पटरी थी दुकानों के चलते सदा सर्वदा कहने को ही फुटपाथ है । पुलिस वाले के पीछे उसकी बगल एक साइकिल वाला चल रहा था । उसकी उम्र कुछ अधेड होगी । यह क्या अचानक वह पुलिसवाला - साले हरामखोर आदि सहित मा बहन की दो चार गालियां उस साइकिल वाले देने लगा | साले मारुगा थप्पड़ । भीड थी । ऐसे किसी से साइकिल मोटर साइकिल लड़ जाना स्वाभाविक था । इसी के फलस्वरूप वह गालियां खा रहा था चुपचाप बड़े प्रेम से । कसूर था कि साइकिल उस महापुरुष से कैसे छू गई तो इतना प्रसाद जरूरी था । थोड़ा पीछे मै था । मुझे लगा कहीं मेरी स्कूटी उसकी स्कूटी से लड गई होती तो क्या होता? खैर उनको वर्दी ऐसी ही जनरक्षा सुरक्षा के मद्देनजर मिली है । भीड की धक्कम धक्का के चलते सब इधर उधर जा रहे थे । में भी अपने रास्ते चला गया 1 मन सिफ रह गया अफसोस कि हर जगह मनुष्य के ये कौन कौन से रुप देखने को मिल रहे । वाह री ये दुनिया ।  चाहते हुये भी कलम नही रुकी ।

Saturday, September 02, 2023

यदि संविधान बदला तो एससी-एसटी और ओबीसी की गति उस लोहार जैसी ही होगी जिसे भेंट में मिले चंदन के बाग-नन्द लाल वर्मा (सेवानिवृत्त एसोसिएट प्रोफेसर)

चिंतनीय_आलेख
नन्दलाल वर्मा
(सेवानिवृत्त एसोसिएट प्रोफेसर)
युवराज दत्त महाविद्यालय
लखीमपुर-खीरी 

         एक बार एक राजा ने एक लोहार की कारीगरी से खुश होकर उसे चंदन का बाग इसलिए भेंट कर दिया कि वह चंदन की बेशकीमती लकड़ी बेचकर धनवान बन जाये।
उस लोहार को चंदन के पेड़ की कीमत और उपयोगिता का कोई अंदाजा नहीं था। इसलिए उसने अपने पेशे की उपयोगिता के हिसाब से चंदन के पेड़ो को काटकर उन्हें भट्टी में जलाकर कोयला बनाकर अपने काम में और अपने पेशेवर साथियों को बेचना शुरू कर दिया। ऐसा करते-करते, धीरे-धीरे एक दिन बेशकीमती चंदन का पूरा बाग कोयला के रूप में तब्दील होकर बिक और उसकी भट्टी में जल गया।
          एक दिन राजा घूमते हुए उस लोहार के घर के बाहर से गुजर रहे थे तो राजा ने सोचा अब तो लोहार चंदन की लकड़ी बेच-बेचकर बहुत अमीर हो गया होगा। सामने देखने पर लोहार की स्थिति जैसे की तैसी ही बनी हुई नजर आई। यह देखकर राजा को बहुत आश्चर्य हुआ। अनायास राजा के मुँह से निकला यह कैसे हो सकता है! राजा ने अपने जासूसों से सच का पता लगावाया तो पाया चंदन के बाग की बेशकीमती लकडी को तो उसने कोयला बनाकर बेच दिया और अपनी भट्टी में प्रयोग कर लिया है। यह सुनकर राजा ने अपना माथा पीटते हुए कहा कि उपहार,भेंट और दान किसी पात्र व्यक्ति को ही देना चाहिए। तब राजा ने लोहार को बुलाकर पूछा,तुम्हारे पास चंदन की एकाध लकडी बची है या सबका कोयला बनाकर बेच दिया? लोहार के पास कुल्हाडी में लगे चंदन के बेंट के अलावा कुछ भी नहीं था,उसने वह लाकर राजा को दे दिया।
          राजा ने लोहार की कुल्हाड़ी का बेंट लेकर लोहार को चंदन के व्यापारी के पास भेज दिया, वहाँ जाकर लोहार को कुल्हाड़ी के बेंट के बदले अच्छे खासे पैसे मिल गये। यह देखकर लोहार भौचक रह गया, उसकी आंखो में आंसू आ गये। उसकी स्थिति " अब पछताये होत क्या,जब चिड़ियां चुंग गयी खेत " जैसी हो गयी थी। वह बहुत पछताया और फिर उसने रोते हुए आँसू पोछकर राजा से एक और बाग देने की विनती की। तब राजा ने उससे कहा कि " ऐसी भेंट जीवन में बार-बार नहीं मिलती हैं बल्कि, एक बार ही मिलती है।"
         अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग को संविधान प्रदत्त अधिकार विशेषकर मतदान का अधिकार चंदन के बाग की भेंट की तरह मिले हुए हैं। इन्हें पांच किलो मुफ्त राशन, सब्सिडी पर मिल रही घरेलू गैस,शौचालय एवं किसान सम्मान निधि के नाम पर मिल रही चन्द आर्थिक सहायता के लालच में बेचा जा रहा है। अगर संविधान प्रदत्त अधिकारों के संरक्षण के लिए एकजुट होकर सड़क से लेकर संसद तक विरोध-प्रदर्शन नहीं किया गया तो एससी-एसटी और ओबीसी की हालत उस लोहार जैसी होने में देर नहीं लगेगी। लोकतंत्र के आवरण में छुपी वर्तमान तानाशाह प्रवृत्ति की सत्ता की नीयत साफ नहीं लग रही है। यदि 2024 के लोकसभा चुनाव में आरएसएस से निकले मनुवादी भाजपाई एक बार फिर संसद में कब्जा करने में सफल हो जाते हैं तो डॉ आंबेडकर का न्याय पर आधारित संविधान बदलना तय है। डॉ.भीमराव आंबेडकर जी के अथक प्रयासों से पिछड़े समाज को जो सांविधानिक अधिकार मिले हैं जिनकी वजह से उसका एक बड़ा हिस्सा सामाजिक,राजनीतिक और आर्थिक रूप से एक सशक्त मध्यम वर्ग बनकर उभरा है। यह वर्ग अच्छा खा रहा है, उनके बच्चे देश विदेश की प्रतिष्ठित संस्थाओं में पढ़ और रिसर्च कर रहे हैं, सूट,बूट और टाई पहनकर मूछों पर ताव देकर आज़ादी से घूम रहा है, घोड़ी पर चढ़कर बारात निकाल रहा है, अच्छे मकानों और हवेलियों में रह रहा है, बड़ी बड़ी कारों में घूम रहा है, शिक्षित होकर बौद्धिक वर्ग विभिन विषयों और मुद्दों पर सड़क से लेकर उच्च संस्थाओं में सरकार की गलत नीतियों के खिलाफ सीना तानकर लिख और दहाड़ रहा है, जिन्हें आज़ादी से पहले चारपाई पर बैठने का अधिकार नहीं था, वे आरक्षण की वजह से बड़े-बड़े अधिकारी बन रहे हैं, ऐसा होने से मनुवादियों को लग रहा है कि वे उनके सिर पर बैठ रहे हैं, ये सब मनुवादियों को अच्छा नहीं लग रहा है। संविधान बदलने के बाद वही पुरानी मनुस्मृति की व्यवस्था लागू होने की पूरी सम्भावना है जो सामाजिक व्यवस्था में ऊंच-नीच और भेदभाव से भरी जाति व्यवस्था फिर से कायम होने की पूरी सम्भावना दिख रही है। डॉ.आंबेडकर की सोच की दूरदर्शिता की वजह से राजनैतिक आरक्षण के माध्यम से जो एससी और एसटी के 131 सांसद हर लोकसभा में पहुंच रहे हैं, संविधान बदलने के बाद एससी और एसटी एक भी सांसद बनाने के लिए तरस जाएगा। बहुजन समाज को मिल रहे चुनावी प्रलोभनों से निजात पानी होगी। बहुजन समाज (एससी- एसटी और ओबीसी) की सामूहिक जिम्मेदारी बनती है कि सारे सामाजिक और राजनीतिक द्वेष और दुराग्रह दरकिनार कर 2024 के लोकसभा चुनाव में संविधान,लोकतंत्र और उसके सामाजिक न्याय की पक्षधर पार्टियों के गठबंधन को ही जिताने में अपनी सारी राजनीतिक ऊर्जा लगाएं और समाज को भी प्रेरित व जागरूक करें।
        जब डॉ.आंबेडकर ने भारतीय संविधान की रचना की थी,वह मनुवाद पर आंबेडकर द्वारा किया गया करारा प्रहार था। इसलिए मनुवादी आंबेडकर और उनके संविधान से घोर नफ़रत करते हैं और उन्होंने ऐलानिया तौर पर भारतीय संविधान को स्वीकार करने से मना भी कर दिया था। सांविधानिक व्यवस्थाओं को देखकर मनुवादियों को सांप सूंघ गया था। संविधान ने एससी -एसटी और ओबीसी को केवल आरक्षण ही नहीं दिया,उसने बहुजन समाज को बहुत कुछ दिया है, जैसे आठ घण्टे का कार्य दिवस, महिलाओं को मातृत्व अवकाश और महिलाओं को तो डॉ आंबेडकर ने इतना दिया है, जितना उन्हें देश के सारे समाज सुधारक नहीं दे पाए। इसके बावजूद देश की 50प्रतिशत आबादी को डॉ.आंबेडकर के योगदान का एहसास नहीं है। देश के वंचित वर्ग के जीवन में जो भी बदलाव आया है वह सिर्फ डॉ.आंबेडकर और उनकी सांविधानिक व्यवस्थाओं से ही सम्भव हो पाया है। जिन्हें डॉ.आंबेडकर और उनके संविधान से प्रेम या लगाव नहीं है,अर्थात उससे नफ़रत करते हैं तो वे संविधान के माध्यम से डॉ.आंबेडकर द्वारा दी गयी सारी सुविधाओं और लाभों को त्याग दें,तब उन्हें संविधान की अहमियत पता चल जाएगी। इसलिए वर्तमान सत्ता द्वारा संविधान के बदलाव की संभावना से उपजने वाले गम्भीर दुष्प्रभावों को भांपते हुए बहुजन समाज को समय रहते ही सावधान और सजग हो जाना चाहिए और उस लोहार को मिली चंदन की लकड़ी की कीमत की तरह अपने सांविधानिक अधिकारों की कीमत पहचान कर संविधान की रक्षा करने की दिशा में आज से ही गम्भीर विचार-विमर्श के माध्यम से सामाजिक व राजनीतिक स्तर पर सार्थक प्रयास शुरू कर देना चाहिए अन्यथा लोहार की तरह बेशकीमती चीज खो जाने के बाद पछतावे और हाथ मलने के सिवा कुछ हासिल नहीं होने वाला। भारतीय संविधान की अनमोल विरासत देश के हर वर्ग और नागरिक के हित में है। इसलिए इसके सरंक्षण की जिम्मेदारी भी सभी नागरिकों की बनती है। वर्तमान सत्त्तारुढ़ दल द्वारा बिना एजेंडे के संसद का विशेष सत्र बुलाने के गूढ़ निहितार्थ को समझने की जरूरत है। राजनीतिक और बौद्धिक गलियारों में संभावित बिंदुओं पर प्रकाश डालने की प्रक्रिया शुरू हो गयी है, लेकिन इस सत्र के एजेंडों की असलियत सत्र शुरू होने के बाद ही सामने आ पाएगी।

पढ़िये आज की रचना

चर्चा में झूठी-सुरेश सौरभ

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