साहित्य

  • जन की बात न दबेगी, न छिपेगी, अब छपेगी, लोकतंत्र के सच्चे सिपाही बनिए अपने लिए नहीं, अपने आने वाले कल के लिए, आपका अपना भविष्य जहाँ गर्व से कह सके आप थे तो हम हैं।
  • लखीमपुर-खीरी उ०प्र०

Wednesday, September 27, 2023

महिला आरक्षण बिल के पीछे छिपे राजनीतिक षडयंत्र और चुनावी राजनीति के गूढ़ निहितार्थ:नन्दलाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)

महिला आरक्षण बिल:पार्ट 2
नन्दलाल वर्मा
(सेवानिवृत्त एसोसिएट प्रोफेसर)
युवराज दत्त महाविद्यालय
लखीमपुर-खीरी 
                डॉ.भीमराव आंबेडकर के संविधान की दुहाई देकर एक पिछड़े परिवार से पीएम बनने के अवसर को बड़े फक्र के साथ दावा ठोकने वाले नरेन्द्र मोदी की सरकार में पारित महिला आरक्षण बिल में ओबीसी महिलाओं के लिए लोकसभा में एक सीट भी आरक्षित नहीं की गई हैं,जबकि डॉ.आंबेडकर किसी समाज की प्रगति या विकास का मानदंड उस समाज की महिलाओं के विकास के साथ जोड़कर देखते थे। महिला आरक्षण बिल एक खास वर्ग की महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी और सशक्तिकरण की दिशा में उठाया गया राजनीतिक कदम आरएसएस और बीजेपी सरकार की सवर्ण मानसिकता/वर्ण व्यवस्था/मनुवादी सोच को दर्शाता है। ओबीसी आरक्षण के मामले में आरएसएस और बीजेपी का राजनीतिक चरित्र शुरू से ही विरोधी रहा है। इसलिए ओबीसी महिलाओं के आरक्षण के सम्बंध में भी आरएसएस और बीजेपी से यही उम्मीद थी। 1977 में जब जनता पार्टी की सरकार बनी थी जिसमें बीजेपी भी शामिल थी। एकीकृत जनता पार्टी के चुनावी घोषणा पत्र में सरकार बनने पर कालेलकर आयोग की सिफारिशें लागू करने का वादा किया गया था। चुनाव बाद मोरारजी देसाई के नेतृत्व में बनी सरकार ने कालेलकर आयोग की सिफारिशों को लागू करने से इस आधार पर मना कर दिया था कि इसकी रिपोर्ट काफी पुरानी हो चुकी है और ओबीसी की सामाजिक और शैक्षणिक स्तर काफी बदल चुका है। इसे बहाना बनाकर मोरारजी देसाई की सरकार ने एक नया मंडल आयोग गठित कर बड़ी चालाकी से टाल दिया था। वीपी सिंह के नेतृत्व में जब 1989 में जनता दल की सरकार बनी तो बिगड़ते राजनीतिक माहौल की वजह से 1990 में वीपी सिंह द्वारा ओबीसी के लिए केवल सरकारी नौकरियों में 27% आरक्षण की घोषणा करते ही बीजेपी ने समर्थन वापस लेकर उनकी सरकार गिरा दी थी और दूसरी तरफ ओबीसी का आरक्षण जैसे महत्वपूर्ण मुद्दे से ध्यान हटाने के लिए लाल कृष्ण आडवाणी ने ओबीसी की जातियों को लेकर राम मंदिर आंदोलन की रथयात्रा शुरू कर दी जिसमें वर्तमान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया था। ओबीसी के आरक्षण के परिप्रेक्ष्य में यदि बीजेपी के चरित्र और कृत्य का अवलोकन और आकलन किया जाए तो वह पूरी तरह ओबीसी विरोधी दिखाई देता रहा है,इसमें कोई संदेह नहीं है। 

एससी-एसटी की महिलाओं को उनके वर्ग के लिए पूर्व प्रदत्त संवैधानिक राजनैतिक आरक्षण का 33% आरक्षण का रास्ता तो साफ है,लेकिन ओबीसी महिलाओं को लोकसभा में आरक्षण के माध्यम से प्रवेश करने का रास्ता नहीं बनाया गया है। ओबीसी को यह अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि महिलाओं के नाम जो 33% राजनैतिक आरक्षण दिया गया है, वो वास्तव में केवल सवर्ण महिलाओं के लिए आरक्षण की व्यवस्था है,जैसा कि सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थाओं में 10% ईडब्ल्यूएस आरक्षण के सम्बंध में हुआ था। लोकसभा में महिलाओं के लिए 543 की 33% कुल 181 सीटें आरक्षित होंगी,जिनमें एससी और एसटी की कुल आरक्षित 131सीटों का 33% यानी 47 सीटें (अनुमानित) इस वर्ग की महिलाओं के लिए क्षैतिज आरक्षण मिल जायेगा। अब 181- 47=134 बची सीटों पर सामान्य वर्ग की सशक्त और संसाधन युक्त परिवार की महिलाओं के लिये चुनाव लड़कर लोकसभा जाने का रास्ता साफ कर दिया गया है क्योंकि सशक्त परिवार की इन महिलाओं का मुकाबला करने वाली आरक्षित वर्ग (एससी-एसटी और ओबीसी,ओबीसी के विशेष संदर्भ में ) की महिलाएं बहुत कम मिल पाएगी। इसलिए इन सीटों पर सामान्य वर्ग की सशक्त और समृद्ध परिवारों की महिलाओं के चुनाव जीतने की सबसे ज्यादा संभावना है। मेरे विचार से सामान्य वर्ग की महिलाओं के लिए वे सीटें आरक्षित की जाएंगी जहां से ओबीसी के पुरुष लंबे अरसे से चुनाव जीतकर आ रहे हैं। यदि ऐसा होता है तो ओबीसी के लोकसभा में जाने की सम्भावना और संख्या न्यूनतम हो जाएगी जिससे संसद में उनका प्रभावशाली और निर्णायक प्रतिनिधित्व नहीं रह जाएगा और आरएसएस नियंत्रित बीजेपी का यही हिडेन राजनीतिक एजेंडा है। भाजपा-आरएसएस ओबीसी सांंसद और विधायक देने वाली संसदीय और विधानसभा सीटों पर महिला आरक्षण बिल के बहाने कब्ज़ा कर ओबीसी को राजनीतिक नुकसान पहुंचाने की एक अदृश्य दूरगामी साज़िश से इनकार नहीं किया जा सकता है। जब संसद में ओबीसी का पर्याप्त प्रतिनिधित्व ही नहीं बचेगा तो जातिगत जनगणना और आरक्षण विस्तार का मुद्दा ही नहीं उठेगा,अर्थात " न नौ मन तेल होगा और न राधा नाचेंगी " की कहावत चरितार्थ होती नजर आएगी। मनुवादी सोच पर अमल करने वाली बीजेपी के महिला आरक्षण बिल का यही असली निहितार्थ है, जिसे ओबीसी को समझने की बहुत जरूरी है। उल्लेखनीय है कि पंचायत राज अधिनियम में एससी- एसटी और ओबीसी को लंबवत(वर्टिकल) और क्षैतिज(होरिजेंटल) दोनों तरह का आरक्षण दिया जा रहा है। क्या पारित महिला आरक्षण बिल और पंचायत राज अधिनियम में महिलाओं के संदर्भ में असंगति या असमानता नहीं होगी?

संविधान और आरक्षण पर सवाल एससी-एसटी और ओबीसी के वे सांसद उठाते हैं जो विपक्ष में होते हैं। यदि वे सत्तारूढ़ दल से हैं तो उस दल और उसके शीर्ष नेतृत्व की वजह से चुप्पी साधे रहने को मजबूर होते हैं। सत्तारूढ़ दल और सरकार का समर्थन कर रहे दलों के सांसद कई तरह के अदृश्य और दृश्य भयों के डर से सरकार की लाइन से हटकर बोलने का साहस नहीं कर सकते और यदि बोलते भी हैं तो 'जितनी चाबी भरी राम ने ,उतना चले खिलौना"जैसी स्थिति दिखाई देती है। चूंकि एससी-एसटी के आरक्षण की संवैधानिक व्यवस्था है, इसलिए उनके आनुपातिक आरक्षण या प्रतिनिधित्व पर कैंची चल नहीं सकती है। जातिगत जनगणना के आंकड़े उपलब्ध न होने के कारण ओबीसी का आरक्षण या प्रतिनिधित्व अधर में लटका हुआ है। 10%ईडब्ल्यूएस आरक्षण के बाद ओबीसी की ओर से जातिगत जनगणना और प्रतिनिधित्व विस्तार का मुद्दा लगातार उठाये जाने की संभावना बन गयी है जिससे आरएसएस और बीजेपी हमेशा दूर भागना चाहती है। ओबीसी की जातिगत जनगणना और उसके आरक्षण विस्तार की भावी मांग से आरएसएस और बीजेपी बुरी तरह डरी हुई नज़र आती है। इसलिए बीजेपी ओबीसी के प्रतिनिधित्व को यथासंभव कम करने की कोई कोशिश या प्रयास छोड़ना नहीं चाहती है। महिला आरक्षण बिल इसी दिशा में उसकी एक सोची समझी दूरदर्शी राजनीति और रणनीति का हिस्सा है। महिला आरक्षण बिल के ज़रिए महिला वोटों के साथ सवर्णों के वोट साधने की रणनीति की दिशा में भी माना जा रहा है,जैसा 2019 के लोकसभा चुनाव से ठीक पहले सामान्य वर्ग के बच्चों के लिए सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में प्रवेश के लिए लाए गए ईडब्ल्यूएस (आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग) के माध्यम से किया गया एक चुनावी राजनीतिक प्रयास सफल रहा। महिला आरक्षण बिल उसी दिशा में उठाया गया अगला कदम है। आरएसएस और बीजेपी अपने एससी-एसटी और ओबीसी के आरक्षण विरोधी चरित्र के माध्यम से सवर्णों का वोट बैंक अपने साथ स्थायी रूप से टिकाए रखने की दिशा में लगातार काम करती रहती है,लेकिन एससी एसटी और ओबीसी चंद चुनावी प्रलोभनों,धर्म और हिंदुत्व के प्रभाव की वजह से बीजेपी की इन दूरदर्शी चालों से बेख़बर है।

आरएसएस और बीजेपी के इस महिला आरक्षण बिल के पीछे छिपे जिस राजनीतिक षडयंत्र और चुनावी राजनीति के गूढ़ निहितार्थ को गम्भीरतापूर्वक समझने की जरूरत है,उस पर अभी ओबीसी का फोकस ही नही है। आरएसएस और बीजेपी ने ओबीसी को मंदिर-मस्जिद,हिन्दू-मुस्लिम,छद्म राष्ट्रवाद और चंद चुनावी लालच में अच्छी तरह फंसाकर रखा है। ज्यादातर क्षेत्रीय दल सामाजिक न्याय का नारा देकर उभरे हैं। इसलिए उनका आधार वोट बैंक सामाजिक,शैक्षणिक और राजनीतिक रूप से शोषित,वंचित और पिछड़ा समाज ही है। इस समाज के लोग राजनीति के लिए उतने सक्षम, सशक्त और तिकड़मी नहीं हैं, जितना कि सवर्ण लोग सक्षम, संसाधन युक्त और तिकड़मबाज है। चुनाव में संसाधनों और राजनीतिक परिपक्वता के संदर्भ में सवर्ण समाज के लोगों के सामने ओबीसी प्रत्याशी कॉन्फिडेंस के स्तर पर कमजोर साबित होते हैं और महिला आरक्षण हो जाने के बाद उनके समाज की महिला प्रत्याशी के सामने ओबीसी महिला प्रत्याशी कितनी मजबूती और कॉन्फिडेंस के साथ लड़ पाएगी,उसका सहज अनुमान लगाया जा सकता है,क्योंकि ओबीसी की महिलाएं अभी व्यक्तिगत तौर पर सवर्ण महिलाओं की तुलना में उतनी राजनीतिक रूप से स्वतंत्र,सक्षम और कॉन्फिडेंट नही दिखती हैं। ओबीसी की अधिकांश पढ़ी-लिखी महिलाएं या तो छोटी-छोटी नौकरी कर रही हैं या घर-परिवार की देखभाल कर रही हैं। सामाजिक परिवेश की वजह से राजनीतिक रूप से ओबीसी महिलाएं सवर्ण महिलाओं की तुलना में अभी भी बहुत पीछे हैं। बातचीत करने के मामले में सवर्ण महिलाएं ओबीसी महिलाओं की अपेक्षा ज्यादा प्रभावशाली और वाकपटु होती हैं,ऐसा उनके सामाजिक परिवेश में खुलेपन की वजह से होता है। ओबीसी महिलाओं में राजनीति के वांछित गुणों और तत्वों के अभाव की वजह से ओबीसी की महिला प्रत्याशी सवर्ण महिला प्रत्याशी के सामने मतदाताओं को प्रभावित करने के मामले में पूरी दमदारी के साथ लड़ नहीं पाती है। बीजेपी सरकार द्वारा पारित महिला आरक्षण से ओबीसी का अधिकतम राजनीतिक नुकसान होने के बावजूद पिछड़े वर्गों के उत्थान और भागीदारी की राजनीति करने का दावा करने वाले दलों (अपना दल-एस,सुभासपा, निषाद समाज पार्टी ) का बीजेपी के साथ सरकार में भागीदार बनकर इस बिल के समर्थन में पूरी दमदारी के साथ खड़ा होना उनके सामाजिक और राजनीतिक एजेंडे और राजनीतिक वैचारिकी और चाल-चरित्र पर बड़ा सवालिया निशान लगाता हुआ दिखाई देता है। इन दलों को याद रखना चाहिए कि पिछड़ों के उत्थान और प्रतिनिधित्व की झूठी राजनीतिक वकालत कर सत्ता की मलाई चाटने का यह राजनीतिक चरित्र और उपक्रम लंबे समय तक नहीं चल पाएगा। बहुजन समाज के बल पर सत्ता के शिखर तक पहुंची बीएसपी की सामाजिक और राजनीतिक दुर्गति किसी से छुपी नहीं है। ऐसे दलों और उनके आधार वोट बैंक को इन सबसे सबक सीखने की जरूरत है।

No comments:

पढ़िये आज की रचना

चर्चा में झूठी-सुरेश सौरभ

(फिल्म समीक्षा)      एक मां के लिए उसका बेटा चाहे जैसा हो वह राजा बेटा ही होता है, बच्चे कच्ची मिट्टी की तरह होते हैं, जिन्हें हम अपने विचार...

सबसे ज्यादा जो पढ़े गये, आप भी पढ़ें.