साहित्य

  • जन की बात न दबेगी, न छिपेगी, अब छपेगी, लोकतंत्र के सच्चे सिपाही बनिए अपने लिए नहीं, अपने आने वाले कल के लिए, आपका अपना भविष्य जहाँ गर्व से कह सके आप थे तो हम हैं।
  • लखीमपुर-खीरी उ०प्र०

Saturday, June 19, 2021

वीरांगना झलकारी बाई- कवि श्याम किशोर बेचैन

जन्म 22 नवम्बर 1830 मृत्यु 04 अप्रैल 1857


झलकारी का शौर्य पराक्रम 

जब झांसी में आम हुआ ।

अंग्रेजों की नीद उड़ गई 

और आराम हराम हुआ ।।

 

बाइस, ग्यारह, अट्ठारह सौ 

तीस को जन्मी झलकारी ।

अट्ठारह सौ सत्तावन में 

कहेर बन गई चिनगारी ।।

 

तेग उठी जब झलकारी की 

सेना मे कोहराम हुआ ।

अंग्रेजों की नीद उड़ गई 

और आराम हराम हुआ ।।

 

पिता सदोवर माता जमुना 

पति पूरन जांबाज मिले ।

इन्ही से अंग्रेजों पर भारी 

पड़ने के अंदाज मिले ।।

 

जोभी सामने आया दुश्मन 

उसका काम तमाम हुआ ।

अंग्रेजों की नीद उड़ गई 

और आराम हराम हुआ ।।

 

शेर से जब वो लड़ी शेरनी 

शेर से छक्के छूट गए ।

जितने डाकू घुसे गांव में 

सबके पसीने छूट गए ।।

 

झलकारी के इस साहस का 

चर्चा सुबहो शाम हुआ ।

अंग्रेजों की नीद उड़ गई 

और आराम हराम हुआ ।।

 

झलकारी की झलक देखके

रह ना सकी लक्ष्मी बाई ।

थी हमशक्ल महारानी की 

योद्धा झलकारी बाई ।।

 

बना दिया सेना मे नायक

फिर सेना में काम हुआ ।

अंग्रेजों की नीद उड़ गई 

और आराम हराम हुआ ।।

 

रानी जब घिर गई महल में 

तब झलकारी खूब लड़ी ।

बचाके अपनी महारानी को 

अंग्रेजों पर टूट पड़ी ।।

 

चार अप्रैल को मिटी शेरनी 

रण वीरों में नाम हुआ ।

अंग्रेजों की नीद उड़ गई 

और आराम हराम हुआ ।।

 

पीठपे जो बेटे को लेके 

गोरों से टकराई थी ।

भूला दिया गोगों ने जिसको 

वो झलकारी बाई थी ।।

 

जाने क्यों इतिहास में ये 

बेचैन नाम गुमनाम हुआ ।

अंग्रेजों की नीद उड़ गई 

और आराम हराम हुआ ।।

 


पता-संकटा देवी बैंड मार्केट लखीमपुर खीरी

 

चोर पकड़ा गया-सुरेश सौरभ

 बाल-कहानी 

राहुल घर में आते ही बस्ते को एक ओर फेंक कर उदास होकर बैठ गया। मम्मी ने आवाज दी-बेटा राहुल कहाँ हो आओ खाना खाओ। लेकिन वह टस से मस न हुआ। थोड़ी देर बाद मम्मी उसके पास पहुँचीं और उसके सर पर हाथ फेरते हुए बड़े प्यार से बोली-बेटा आज तू बड़ा उदास है। क्या स्कूल में किसी से तेरा झगड़ा हुआ ? मम्मी के काफी जोर देने पर उसकी चुप्पी टूटी। वह रुआँसे स्वर में बोला-कुछ नहीं हुआ मम्मी। अब तो मम्मी का शक पूरे विश्वास में बदल गया। जरूर कुछ न कुछ राहुल के साथ हुआ है। उन्होंने बड़े दुलार से पूछा-बेटा अगर तू मेरा राजा बेटा है, तो मुझे सारी बात बता।

अब तो राहुल के सब्र का प्याला टूट गया। वह सुबकते हुए मम्मी के गले से लिपट गया। रोते हुए बताने लगा-मम्मी गोलू पूरी कक्षा में सबसे बड़ा लड़का है। वह अक्सर छोटे बच्चों के साथ शैतानी करके परेशान किया करता है। कई दिन पहले उसने मुझसे दो पेंसिलें लिखने के लिए माँगी थीं।जब मंैने उससे मना कर दिया, तो उसने जबरदस्ती करके मेरे बस्ते से निकाल लीं। जब गुरु जी कक्षा में पढ़ाने आए तो मैंने उनसे गोलू की शिकायत की। उन्हांेने उसके बस्ते की तलाशी ली, पर मेरी पेंसिल नहीं निकलीं, इससे सारी कक्षा के बच्चों ने मेरी हँसी उड़ाई। फिर गोलू ने गुरु जी से कहा-गुरु जी इसने मुझ पर झूठा आरोप लगाया है। इसको सजा मिलनी चाहिए। कक्षा के सारे बच्चों ने उसके स्वर में अपना स्वर मिला दिया। हाँ-हाँ गुरु जी राहुल को जरुर सजा मिलनी चाहिए। फिर गुरु जी ने मुझसे कान पकड़ कर पचास उठक-बैठक लगवाई। पूरी कक्षा में मुझे अपमानित होना पड़ा। वो भी बेगुनाही में। मम्मी गोलू बड़ा शैतान चोर लड़का है। हर बार अपनी चालाकी से बच निकलता है।

फिर हॉफ टाइम खत्म होने के बाद जब सारे बच्चे क्लास में पहँुचे तो रोहित ने गुरु जी से कहा-गुरु जी मेरा ज्यामेट्री बाक्स गायब हो गया है । कक्षा में वही गुरु जी थे जिन्होंने मुझे दण्ड दिया था। उन्होंने सबकी तलाशी ली। मैं हैरान था मेरे बस्ते में रोहित का बाॅक्स कहाँ से आ गया। मैंने उनसे अपनी लाख बेगुनाही बताई पर वे न माने। वे क्रोध में बोले-हर चोर पकड़े जाने पर ऐसा ही नाटक करता है। चलो फौरन कान पकड़ो सौ उठक-बैठक लगाओ। मैं बार-बार रो-रो कर अपनी सफाई देता रहा, पर वे न माने, पूरी सौ उठक-बैठक लगवा कर ही माने। मंै रोता-गिड़गिड़ाता रहा और सारे बच्चे ताली बजा-बजा कर कह रहे थे, चोर पकड़ा गया।..चोर पकड़ा गया।

छुट्टी होने पर जब मैं स्कूल के बाहर निकला, तो सारे बच्चे मुझे चोर-चोर कह कर मेरा मजाक उड़ा रहे थे। अब तुम्हीं बताओ मम्मी जब तुम मुझे सारी चीजें लाकर देती हो, तो मैं क्यों चोरी करने लगा। कोई मुझे चोर-चोर कहे यह मुझे कतई बर्दाश्त नहीं ? मम्मी मैं कल से स्कूल नहीं जाऊँगा। इतना कह कर राहुल मम्मी के गले से लगकर फूट-फूट कर रोने लगा।

 नहीं-नहीं बेटा ऐसी बात नहीं करते अच्छे बच्चे! मुझे पूरा विश्वास है कि यह शरारत गोलू की है। कल तेरे पापा स्कूल जायेंगे और प्रधानाचार्य से बात करेंगे। तभी दूध का दूध और पानी का पानी होगा।

मम्मी ऐसा कभी न करना, वरना मेरा दोस्त विमल कह रहा था कि गुरु जी की शिकायत अगर प्रधानाचार्य से की गई, तो वे मुझे परीक्षा में फेल कर देंगे। इससे अच्छा तो यही है कि वहाँ न पढ़कर कहीं और पढूं।

 बेटा जीवन में जो भी समस्या आए उसका सही समाधान निकालना चाहिए। जितना समस्याओं से बाधाओं से मुँह मोड़कर भागोगे उतनी ही तुम्हारे गले पड़ेंगी। समझे बेटा राहुल।

राहुल को मम्मी की नसीहत अच्छी लगी।

दूसरे दिन पापा राहुल के स्कूल गये और प्रधानाचार्य से सारी बात बताई। प्रधनाचार्य ने उस अध्यापक को बुलवाया फिर उसे समझाते हुए बोले-आप को जरा से बच्चे को छोटी सी बात पर इतनी कठोर सजा नहीं देनी चाहिए थी। आप को ये पता है, उसके पैरांे में कितना दर्द है, उसने सिर हिला कर न किया और आँखें झुका लीं। आप को इतनी भी समझ नहीं कि चोर चोरी का सामान क्या अपने घर में रखेगा। अगर राहुल को ज्यामेट्री बाॅक्स चुरानी ही होती तो वह अपने बचाव के लिए कहीं भी रख सकता था फिर अपने बस्ते में ही रखकर अपना ही गला क्यों फँसाता।

फिर प्रधानाचार्य ने गोलू को बुलवाया। उससे कड़ाई से पूछा-गोलू मुझे कल की घटना सच-सच बता दो। मुझे एक लड़के से तुम्हारी सारी शरारत पता चल गई है। अब तुम खुद बताओ बाॅक्स राहुल के बस्ते में कैसे पहुँचा। अगर तुमने सीधी तरह अपनी शरारत कुबूल कर ली तो ठीक है, अन्यथा मैं तुम्हारा स्कूल से नाम काट कर भगा दूँगा। अब, तो गोलू की सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई। वह प्रधानाचार्य के फौरन पैर पकड़ कर गिड़गिड़ाने लगा-गुरु जी मैंने ही रोहित की ज्यामेट्री राहुल के बस्ते में रखी थी। मुझे माफ कर दो, आइंदा ऐसी हरकत न करूँगा.....प्लीज गुरु जी मेरा नाम मत काटना। राहुल ने मेरी शिकायत गुरु जी से की थी, इसलिए मैं उसे मजा चखाना चाहता था।

प्रधानाचार्य की सूझ-बूझ से गोलू ने अपनी गलती कुबूल कर लिया और फिर कभी ऐसी शरारत न करने की कसम खा ली।

राहुल अब रोज स्कूल जाने लगा। अब किसी ने नहीं कहा चोर पकड़ा गया, बल्कि गोलू को ही सारे बच्चे चिढ़ाते चोर पकड़ा गया, चोर पकड़ा गया।

सुरेश सौरभ


पता-निर्मल नगर लखीमपुर-खीरी यूपी

Friday, June 18, 2021

इंकलाब जयघोष गगन में- मोहन लाल यादव

 भोजपुरी कविता 

केतना  दुखड़ा  गाई  भाइ

केतना  दरद  छिपाई भाइ

गरज रही बा बेरोजगारी

बरस रही  महंगाई  भाइ

चारिउ ओरिया ठगहारी बा

कइसे  देश  बचाई  भाइ

राजा भ बेइमान के संगी

केसे अरज  सुनाई भाइ

छल प्रपंच  के हरियर  खेती

सत्य फसल कुम्हिलाई भाइ

हम किसान के जिनगी दूभर

रक्तन  आँस  चुवाई  भाइ

दागी  भइली राम चदरिया

रामउ  गए  बिकाई  भाइ

सभै अहैं मतलब के साथी

केसे  करी  मिताई  भाइ

बहुतै भारी  बिपत गठरिया

गई  बहुत  गरुआई  भाइ

इंकलाब जयघोष गगन में

तब  दुश्मन  थर्राई  भाइ



ग्राम- तुलापुर, झूँसी, प्रयागराज यूपी

मोबाइल-9956724341

पोस्टमैन हैं प्यारे बादल- शिव सिंह सागर

 बाल-कविता 

पोस्ट मैन हैं प्यारे बादल,

डांक खुशी की लाते हैं!

लाद पीठ पर अपने पानी,

जगह - जगह बरसाते हैं!


आसमान में उड़ते रहते,

काले - काले गोरे- गोरे!

कभी रात में आते हैं,

कभी ये आते बड़े सवेरे! 


कंधे पर थैला लटकाए,

घूम रहे हैं द्वारे - द्वारे!

अम्बर तल में आते हैं जब,

सबको लगते हैं प्यारे!



पता-बन्दीपुर हथगाम फतेहपुर


Thursday, June 17, 2021

धार्मिक आडंबरों के चलते सामाजिक जागरूकता संभव नही- नन्द लाल वर्मा

विमर्श ज्ञान-विज्ञान और सामाजिक-धार्मिक आडम्बरों-कुरीतियों पर

एन०एल० वर्मा

"भारतीय समाज में बचपन से ही धर्म और भगवान नाम की एक अद्भुत अदृश्य किस्म की घुट्टी पिला दी जाती है जिससे पढ़ाई-लिखाई और नौकरी करने के बावजूद धर्म या ईश्वर के विरुद्ध जा पाना आम आदमी के लिए संभव नहीं हो पाता है। इसी के चलते लाभ-हानिजीवन-मरण,अर्थ-अनर्थस्वर्ग-नरकमंगल-अमंगल,शगुन-अपशगुन आदि अवधारणाओं ने आम जनमानस के मन-मष्तिष्क को कुंद कर दिया है।"

        ज्ञान-विज्ञान की इक्कीसवीं सदी के दौर में भी भारतीय जनमानस खुद को कथित धर्म,धार्मिक कर्मकांडों और धार्मिक गुरुओं की चंगुल से अपने को अलग नहीं कर सका है। धर्मगुरुओं पर लगने वाला कोई भी आरोप चाहे उसमे कितनी भी सच्चाई क्यों न हो, उनके समर्थकों के विश्वास को खंडित या डिगा नही सकता है। गुरुओं और भक्तों की भक्ति पर उँगली उठाना उनकी भावनाओं को चोट पहुँचाता है। ऐसा किसी एक धर्म के साथ नहीं बल्कि यह स्थिति सभी धर्मों के सन्दर्भ में लगभग एक जैसी ही है। किसी भी धर्मगुरु के प्रति उसके भक्तों की अगाध श्रद्धा को सभी धर्मगुरु भलीभाँति जानते-समझते हैं और गाहे-बगाहे इसका अनुचित लाभ भी उठाते रहते हैं। भारतीय समाज में बचपन से ही धर्म और भगवान नाम की एक अद्भुत अदृश्य किस्म की घुट्टी पिला दी जाती है जिससे पढ़ाई-लिखाई और नौकरी करने के बावजूद धर्म या ईश्वर के विरुद्ध जा पाना आम आदमी के लिए संभव नहीं हो पाता है। इसी के चलते लाभ-हानि, जीवन-मरण,अर्थ-अनर्थ, स्वर्ग-नरक, मंगल-अमंगल,शगुन-अपशगुन आदि अवधारणाओं ने आम जनमानस के मन-मष्तिष्क को कुंद कर दिया है।

          तथाकथित धर्मगुरुओं के अनगिनत और रसूखदार अन्यायी होने के कारण जहाँ ये बाबा अकूत संपत्ति के मालिक बन बैठते हैं वहीं धर्म की आड़ में बलात्कार,आर्थिक-यौन शोषण के साथ राजनैतिक सत्ता और आपराधिक गतिविधियों का संचालन भी करने लगते हैं। इधर हाल में कुछ धर्म गुरुओं के प्रकरण खुलासा होने से और देश के विभिन्न धर्मों के  गुरुओं ने अपने क्रियाकलापों से धार्मिक विश्वास को बुरी तरह खंडित किया है। धार्मिक उपदेश देते और प्रवचन करते हुए इन कथित बाबाओं को अपने भक्तों का विश्वास खंडित करने से और धार्मिक पाखण्ड फैलाने से भले ही कोई न रोक पाए,किन्तु इनकी अंध-भक्ति में डूबे इनके भक्तों को समझना होगा कि धार्मिक आवरण के पीछे की हकीकत क्या है३इन धर्म-गुरुओं की असलियत क्या है? हालाँकि, सामाजिक-धार्मिक आडम्बरों-कुरीतियों की अंध-दौड़ में शामिल समाज से ऐसी जागरूकता दिख पाना हाल-फिलहाल तो संभव नहीं लगती।

         हर काम आर्थिक फायदे के लिए नहीं किया जाता हैं बहुत सारे ऐसे सामाजिक जनजागरूकता के काम भी होते हैं जो प्रत्यक्ष आर्थिक फायदा न मिलते हुए भी समाज को बहुत कुछ अप्रत्यक्ष फायदा दे जाते हैं। शूद्र समाज (ओबीसी,एससी और एसटी) में पाखंड-अंधविश्वास भयंकर रूप में फैला है, तभी तो बाबरी मस्जिद ढहाने जैसे धार्मिक व राजनैतिक उपक्रम सफल हो जाते हैं। इस देश में कभी मंदिर के नाम पर तो कभी गाय के नाम पर हत्याएं होती हैं। आज हर कोई बड़े से बड़ा देशभक्त बनने की कोशिश कर रहा है। जातीय श्रेष्ठता और कट्टरता तो इतनी है कि उसकी कोई मिसाल ही नहीं है। धार्मिक आयोजनों की तो बाढ़ सी आई हुई है जबकि उन्हें पता होना चाहिए कि धर्म ने उन्हें अछूत तक बना कर छोड़ा है। हद हो गयी है, जो व्यवस्था सौ फीसदी उनके खिलाफ है ,उसे ही वो अपने गले में लटकाए घूम रहे हैं।

        शूद्रों के दलित घरों में डॉ.आंबेडकर की मूर्ति या तस्वीर भी उनके बीच देखी जा सकती है जो हिंदू धर्म के देवी-देवता कहलाए जाते हैं। आंबेडकर का नाम लेते हैं,जय भीम का सामाजिक-राजनैतिक अभिवादन-नारा भी लगाते हैं और अन्य देवी-देवताओं के सामने धूप-अगरबत्तियां जलाकर घंटा और शंख भी बजाते हैं। यह कैसा आंबेडकरवाद है? जबकि उन्होंने तो हिंदू धर्म को सिरे से खारिज कर दिया था। शूद्र समाज अनंत और अपरमित सामाजिक जटिलताओं से भरा और जकड़ा हुआ है। इन जटिलताओं को शिक्षित,जागरूक और समझदार बनकर धीरे-धीरे दूर करने का प्रयास किया जाना चाहिए। ईश्वर और धर्म को अपनाने और मानने से शूद्र समाज (ओबीसी,एससी और एसटी) का किसी भी तरह का फायदा नहीं हुआ है,उल्टे वे कई तरह के शोषण के शिकार अबश्य हुए हैं। शूद्र समाज का दलित जिन हालातों में जिंदगी बसर कर रहा हैं, क्या उसकी यही जिंदगी और नीयति है? जबकि वह ईश्वर और धर्म को अधिक सात्विकता, निष्ठा और विश्वास से मानता है जिससे उसको ऐसी नारकीय जिंदगी से मुक्ति मिल जानी चाहिए थी! लेकिन ऐसा नहीं हुआ।

        समाज का एक कथित श्रेष्ठ समुदाय दलितों को जानवरों से बदतर अछूत तक मानता है। दलितों के पास किसी भी तरह के प्राकृतिक संसाधन नहीं है। जब ऐसी बात है तो उसके पास भी संसाधन होने चाहिए। दूसरा समुदाय है जो सारे संसाधनों पर कब्जा जमाए बैठा हुआ है। शूद्र वर्ण के दलित समाज को कभी नहीं लगता कि उन संसाधनों पर उनका भी कब्जा होना चाहिए? शूद्र जितना समय अदृश्य ईश्वर या कथित धर्म के नाम पर बर्बाद करता है यदि वह उसे अपने कल्याणध्उन्नति के लिए लगाए, तो मैं समझता हूं उसको फिर न कभी धर्म और धर्मगुरुओं की जरूरत पड़ेगी और न ही किसी देवी-देवता की।

        जहां तक जातीय श्रेष्ठता और कट्टरता की बात है,मैं तो समझता हूं कि शूद्रों में कोई जाति नहीं होनी चाहिए।शूद्र अनगिनत जातियों में बुरी तरह बंटा हुआ है और इस बंटवारे का फायदा किसी और को मिल रहा है,इस यथार्थध् मर्म को शिक्षित और समझदार शूद्र समझें। उच्च वर्ग कभी नही चाहता है कि शूद्रोंध्दलितों के बीच जातियां खत्म हो और समभाव पैदा हो। उन्हें निष्कंटक होने के लिए शूद्र समाज में फूट और विभाजन चाहिए। शूद्रों को अपने बच्चों की शादियां किसी अपनी विशिष्ट जाति में नहीं बल्कि शूद्र समाज में करनी चाहिए। फिर देखिये, कैसे ब्राह्मणों की जातीय श्रेष्ठता और राजनैतिक साम्राज्य ढहता हुआ नजर आता है! शूद्रध्दलित देश का राजा रहा है और आज भी राजा बनना चाहिए। लेकिन आपसी फूट या श्रेष्ठता का भाव ही उसके राजा बनने में सबसे बड़ी बाधा है। ष्शादियां जाति के बाहर होनी चाहिए,ऐसा करने से पहला फायदा यह होगा कि हमारे बीच जातीय श्रेष्ठता , कट्टरता और भेदभाव की भावना कम होगी ,दूसरा फायदा यह होगा कि संताने उच्च शंकर प्रजाति की होगी जिसके तेजतर्रार निकलने की संभावना है,उनकी सोचने-समझने की शक्ति में बदलाव आएगा और उनका आईक्यू लेवल भी ऊंचा होगा।ष् भारत के हर शिक्षित परिवार को अंतरजातीय विवाह को प्रोत्साहन देना चाहिए।

एसोसिएट प्रोफेसर, लखीमपुर-खीरी(यूपी)

Ph.9415461224,8858656000

मन में साहस भरना भैया-डॉ. सतीश चन्द्र भगत

अच्छी बातें रखें ध्यान में,

काम समय पर करना भैया।

 

आपस में शुचि प्रेमभाव हो,

एक- दूसरे प्रति लगाव हो।

हिंसा चोरी बुरी बात है ,

सही राह पर चलना भैया।

 

अहंकार से तोड़ें नाता,

श्रम - संयम से बने विधाता।

करें सभी के साथ भलाई ,

निर्बल के दुरूख हरना भैया।

 

आपस में हो भाईचारा,

थोड़े में ही करें गुजारा।

मातृभूमि पर बलि- बलि जाएं,

मन में साहस भरना भैया।


 

निदेशक- हिन्दी बाल साहित्य शोध संस्थान,

बनौली, दरभंगा ( बिहार) -847428

 

‘अनाथ’ तो दरअसल ‘परिवारवाद’ हुआ है-अजय बोकिल

 राजनैतिक चर्चा
लोक जन शक्ति पार्टी ( लोजपा)  में इन दिनो जो आंतरिक घमासान छिड़ा है, वह किसी भी वंशवादी पार्टी की अनिवार्य ट्रेजिडी है। पार्टी पर कब्जे की बाजी हारने के बाद लोजपा के संस्थापक और पूर्व केन्द्रीय मंत्री दिवंगत रामविलास पासवान के बेटे चिराग पासवान ने मीडिया के सामने यह दम भरना ‍कि ‘मैं शेर का बेटा हूं। किसी से डरता नहीं हूं।‘ इस बात की जमानत है कि जो हो रहा है, वह किसी भी परिवारवादी पार्टी की नियति है। क्योंकि ये पार्टियां व्यक्ति/‍परिवार से शुरू होकर वहीं पर खत्म होती हैं। इनकी कोई ठोस राजनीतिक विचारधारा, नैतिक प्रतिबद्धता या कोई दूरगामी लक्ष्य नहीं होता। किसी भी तरह सत्ता हासिल करना और इस उपक्रम में हर कीमत पर अपने किसी सगे-सम्बन्धीम को आगे बढ़ाकर उसके राजतिलक की दुंदुभि बजाते रहना ही एकमा‍त्र उद्देश्य होता है। ऐसी व्यक्ति केन्द्रित पार्टियां सत्ता के लिए कई बार इतना वैचारिक यू-टर्न ले लेती हैं कि आश्चर्य होता है कि आखिर इस पार्टी की वैचारिक नींव आखिर है क्या? लेकिन यह भी सच है कि भारतीय मतदाता तथाकथित राष्ट्रीय पार्टियों के अवसरवाद और नाकारापन से खीज कर कभी-कभी इन पार्टियों को सत्ता सौंपने का राजनीतिक प्रयोग करता रहता है। हालांकि लोजपा तो कभी खुद के दम पर सत्तासीन होने वाली व्यक्तिवादी पार्टी भी नहीं रही। इसके बावजूद रामविलास पासवान की राजनीतिक विरासत को कब्जाने जिस स्तर पर घमासान मचा है, वह मध्यजयुग में सिंहासन हथियाने के लिए राजपरिवारों में होने वाले षड्यंत्रों की याद दिलाता है। शायद यही वजह है कि एक भाई अपने चचेरे भाई पर बलात्कार का आरोप लगाने में भी नहीं हिचक रहा। उधर चिराग और उनके सगे चाचा और सांसद पशुपति पारस एक दूसरे पर धोखा देने और पार्टी पर कब्जे के आरोप लगा रहे हैं। कहा जा रहा है कि इस पूरी पारिवारिक बगावत के सूत्रधार बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार हैं और इस खेल के तार भाजपा से भी जुड़ रहे हैं। 
अपनी ही पार्टी के छह में से पांच सांसदो की बगावत के बाद अभी भी खुद को अध्यक्ष मानने वाले चिराग पासवान ने नई दिल्ली में राजनीतिक जोश के जो दीप बाले, उसका लुब्बोलुआब यही है कि उन्होंने अपनी उन मूर्खताअो को स्वीकार कर लिया है, जो किसी दूसरे दल के इशारे पर की गई थीं। चिराग अब कह रहे हैं कि पार्टी संविधान के हिसाब से चलेगी, तो अब तक पार्टी कौन से संविधान से चल रही थी? और कौन सी व्यक्तिवादी पार्टी संविधान के हिसाब से ही चलती है? ऐसी पार्टियों में व्यक्ति या नेता की मर्जी ही संविधान होता है। वहां राष्ट्र, राज्य, जाति और समाज सब एक व्यक्ति में ही समाहित हो जाते हैं। लेकिन इस स्थिति को पाने के लिए लंबा संघर्ष भी करना पड़ता है। 
अगर व्यापकता की बात करें तो देश में अब  राष्ट्रीय पार्टी के रूप में भारतीय जनता पार्टी ही बची है। हालांकि परिवारवाद और वंशवाद का घुन उसे भी लग चुका है, लेकिन उसकी जड़ें अभी व्यापक नहीं हैं, उसे फैलने में वक्त लगेगा। हालांकि अपनी अलग विचारधारा का दावा करने वाली यह पार्टी भी अब करिश्माई नेतृत्व पर जरूरत से ज्यादा निर्भर होती जा रही है, जो दल के भविष्य के लिए खतरे की घंटी है। कल तक सबसे बड़ी राष्ट्रीय पार्टी रही कांग्रेस इसी में निपटी है। आंशिक रूप से राष्ट्रीय पार्टी रही कांग्रेस भी अब वंशवाद से ऊर्जा और जनसमर्थन से आॅक्सीजन ग्रहण करती है। कुलमिलाकर कांग्रेस परिवारवाद, गिरोहवाद, व्यक्तिवाद, कुछ वैचारिक प्रतिबद्धता और पुरानी राजनीतिक पुण्याई का ऐसा अमर काॅकटेल है, जो कभी-कभी इतना दम मार देता है कि पार्टी किसी राज्य में सत्ता में आ जाती है  या उसमें हिस्सा पा जाती है। देश में तीसरी श्रेणी उन पार्टियों की है, जो व्यक्तिवाद की नींव पर खड़ी होने के साथ-साथ वैचारिक मुलम्मा भी साथ लिए चलती हैं। इनका अपना वोट बैंक भी होता है, लेकिन उनमें नेतृत्व की दूसरी या तीसरी पंक्ति नहीं होती अथवा नहीं बनने दी जाती। शीर्ष नेतृत्व का असुरक्षा भाव अथवा निश्चिंतता इसका कारण हो सकती है। लेकिन कुछ सालों के बाद  राजनीतिक रक्तप्रवाह अवरूद्ध होने से ऐसी पार्टियां सूत्रधार के अवसान के बाद स्वत: तिरोहित होने लगती हैं। कालांतर में नेतृत्व का यह बांझपन ही इन पार्टियों की सियासी जमीन को स्वत: बंजर बना देता है। इस श्रेणी में बहुजन समाज पार्टी, बीजू जनता दल और जनता दल (यू) या ऐसी ही कुछ और छोटी-मोटी पार्टियों  को रखा जा सकता है। संक्षेप में कहें तो बसपा का अतीत, भविष्य और अंत खुद मायावती हैं तो बीजेडी में नवीन पटनायक और जेडी यू में नीतीश कुमार हैं। इन नेताअो में सत्ता हासिल करने का दम है। इसीलिए ‍िबहार में नीतीश और अोडिशा में नवीन पटनायक का इकबाल बुलंद है। वही यूपी में कभी बहनजी मायावती का था। लेकिन  जैसे ही ये करिश्माई व्यक्तित्व सक्रिय परिदृश्य से अोझल हुए या होंगे, पार्टी का हाल भी पंगत उठने के बाद जैसा हो सकता है। 
देश में तीसरी श्रेणी उन आकंठ व्यक्ति/परिवारकेन्द्रित क्षेत्रीय दलों की है, जो आज कई राज्यों में सत्ता में हैं। यहां भी कहानी ‘तेरे नाम से शुरू, तेरे नाम में खतम’ वाली है। यूं तो आज भारतीय राजनीति में सिद्धांतवाद और वैचारिक निष्ठा जैसी कोई चीज बची नहीं है। येन-केन-प्रकारेण सत्ता हासिल करना और उस पर कुंडली मार कर बैठना ही आज भारतीय राजनीति का असल चरित्र है। इसके लिए सुविधानुसार फार्मूले, मुद्दे तथा नैतिक‍ सिद्धांत गढ़ लिए जाते हैं और उन्हें ‘व्यावहारिक राजनीति’ का हालमार्क करार दे दिया जाता है। लेकिन सत्ता की ‘म्यूजिकल चेयर रेस’ खेलने वाली ये पार्टियां कब किसके साथ ‘लिव इन’ में रहने लगें, कब राजनीतिक विवाह कर तलाक भी ले लें, कहा नहीं जा सकता। एक स्थायी तर्क यह है कि चूंकि राजनीति होती ही सत्ता के लिए है, इसलिए उसे पाने के लिए हर खटकरम में काहे की शरम ? सही है। लेकिन इन पार्टियों का राजनीतिक चक्र भी व्यक्ति विशेष की मर्जी, स्वार्थ, सनक और जुझारूपन के इर्द-गिर्द ही घूमता है। ये पार्टियां कब स्थानीय, कब क्षेत्रीय और कब राष्ट्रीय किरदार में होंगी, यह तात्कालिक राजनीतिक परिस्थिति पर निर्भर करता है। कोई एक करिश्माई नेता इन पार्टियों की स्थापना करता है। चक्रवर्ती बनता है और फिर अपने बेटे-बेटी की ताजपोशी को ही अपना राष्ट्रीय कर्तव्य मान लेता है। आज देश में करीब डेढ़ दर्जन पार्टियां इसी ‘परिवारवाद’ के अमर सिद्धांत पर पल्लवित हो रही हैं। दरअसल यह एक तरह की लोकतांत्रिक राजशाही है, जिसमें लोक का महत्व केवल सत्ता की पालकी ढोते रहने तक का होता है। उस पालकी में विराजमान सदा नेता या उसके  स्वजन ही होते हैं। सत्ता का अधिकार गादी के रूप में चलता है और जनादेश से वैधता पाता रहता है। लोकजनशक्ति पार्टी उन्हीं में से एक है। इसकी स्थापना (आंशिक रूप से) दलित नेता रामविलास पासवान ने की थी। उन्होंने भी पहले अपने परिजनो को उपकृत किया। बाद में सारी ताकत बेटे चिराग की ताजपोशी में लगा दी। उनकी ‘सामाजिक न्याय’ की लड़ाई का अंतिम लक्ष्य शायद यही था। यूं चिराग भी केवल राजनीतिक रूप से ही दलित हैं। वैसे चिराग का जो हश्र हुआ या होता दिख रहा है, वह उन लोगों के लिए चेतावनी है, जो दिल्ली में बैठकर राज्यों या अंचलों की राजनीति करना चाहते हैं। लोजपा की तरह आज समाजवादी पार्टी, डीएमके, शिरोमणि अकाली दल, शिवसेना, नेशनल कांफ्रेंस, पीडीपी, जनता दल (एस), राजद, तृणमूल कांग्रेस, टीआरएस, वायएसआर कांग्रेस, अपना दल, राष्ट्रीय लोकदल व जननायक जनता आदि ऐसी पार्टियां हैं, जिनमें सत्ता और संगठन व्यक्ति/ परिवार के आसपास घूमते हैं और व्यक्ति के कमजोर पड़ते ही बिखरने को अभिशप्त हैं।  
अब सवाल यह कि देश का राजनीतिक कम्पास किस दिशा की ओर इंगित कर रहा है? लोजपा प्रकरण व्यक्तिकेन्द्रित दलों के बिखराव की शुरूआत है या फिर भाजपा जैसे राष्ट्रीय दल की राजनीतिक दंबगई के खिलाफ उनके और मजबूत होने की अोर इशारा है?  क्या वैकल्पिक राष्ट्रीय पार्टी समझी जाने वाली  कांग्रेस भी व्यक्तिकेन्द्रित दल में तब्दील हो चुकी है या फिर भाजपा से लड़ने की नैतिक ताकत उसमें अभी बाकी है? इनसे भी बड़ा सवाल यह है कि देश और लोकतंत्र को मजबूत करने में इन व्यक्तिकेन्द्रित दलों की कितनी सार्थक भूमिका है? है भी या नहीं? इस पर गंभीरता से विचार जरूरी है। आज चिराग पासवान के बहाने परिवारवाद जरूर ‘अनाथ’ हुआ है, इसमे दो राय नहीं।   
(वरिष्ठ संपादक दैनिक सुबह सवेरे मप्र-9893699939)

लाल अनार-सतीश चन्द्र भगत

लाल अनार लाल अनार,

गेंद सरीखे गोल अनार।

 

लदे फदे हैं पेड़ों पर,

लगते अच्छे लाल अनार।

 

इसके अंदर लाल दाने,

करता है मन, इसको खाने।

 

जब खाएंगे लाल अनार,

नहीं पड़ेंगे हम बीमार।

 

जमकर खाएं लाल अनार,

हमें मिलेंगे शक्ति अपार।



पता- निदेशक- हिन्दी बाल साहित्य शोध संस्थान,

बनौली, दरभंगा ( बिहार) -847428

भाईचारा-डॉ. सतीश चन्द्र भगत

प्रेम  मुहब्बत रहे  सभी  में

घृणा- द्वेष से दूर रहें  हम

हिंसा- चोरी  बात हो झूठी

मुंह मोड़ना  अच्छा भैया ।

 

अहंकार से  तोड़े  नाता

सदा क्रोध से दूर रहें हम

करें भलाई दीन- दुखियों का

ईर्ष्या कभी न करना भैया।

 

निर्मल  मन  से  भाईचारा

कायम रहे तभी तो अच्छा

कितना प्यारा  भाईचारा

सबसे हिलमिल रहना भैया।


 

पता- निदेशक- हिन्दी बाल साहित्य शोध संस्थान,

बनौली, दरभंगा ( बिहार) -847428

भाजपा को उसी की चाल से शह दे रही हैं ममता-अजय बोकिल

 राजनैतिक चर्चा

अजय बोकिल
भाजपा को यह गुमान नहीं रहा होगा कि पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनाव खत्म होने के बाद मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी वही खेल खेल सकती हैं, जो भाजपा दूसरे राज्यों में सत्ता पाने या अपनी सत्ता को मजबूत करने के लिए खेलती आई है और उसे नैतिक रूप से भी सही बताती आई है। या यूं कहें कि कुर्सी पाने या उसे मजबूत करने की जो वैधानिक पतली गलियां भाजपा ने खोज निकाली थीं, ममता दी अब उन्हीं गलियों में अपनी नई राजनीतिक‍ बिसात बिछा रही हैं। यही वजह है कि विधानसभा चुनाव नतीजों के महज डेढ़ माह बाद मुकुल रॉय जैसे नेता वापस ममता के खेमे में लौट गए हैं, जबकि चार साल पहले ममता का दामन झटकर भाजपा के शामियाने में आने वाले वो पहले बड़े नेता थे। चर्चा है कि दो दर्जन और भाजपा विधायक पाला बदलने के लिए सही मौसम और हरी झंडी का इंतजार कर रहे हैं। भाजपा में इस संभावित दल बदल का डर कितना गहरा है, इसे इसी बात से समझा जा सकता है कि चुनाव में ममता को हराने वाले और अब विधानसभा में नेता-प्रतिपक्ष शुभेंदु राय ने राज्यपाल से मुलाकात कर अपील की कि वो प्रदेश में दलबदल कानून को ठीक से लागू करने पर ध्यान दें। इससे भी ज्यादा आश्चर्यजनक यह है कि राज्य के बिरभूम व हुगली जैसे जिलों में कई भाजपा कार्यकर्ता अब जनता से अपने किए पर सार्वजनिक माफी मांग रहे हैं और टीएमसी दफ्तरों धरना देकर गुहार लगा रहे हैं कि दीदी सारे पाप भुलाकर हमे वापस अपनी शरण में ले लो। हालांकि भाजपा आरोप लगा रही है कि भाजपा कार्यकर्ताओं की यह कथित ‘घर वापसी’ राज्य में तृणमूल कांग्रेस की गुंडागर्दी की वजह से है न कि पश्चाताप के कारण। क्योंकि चुनाव नतीजे आने के बाद से ही भाजपा ने टीएमसी कार्यकर्ताओं द्वारा उसके दफ्तरों पर हमले और हिंसा के आरोप लगाए थे। लेकिन बंगाल की जनता पर इसका कोई असर नहीं हुआ। उल्टे टीएमसी छोड़कर आए बहुत से कार्यकर्ता अब पुरानी पार्टी में वापस जाना चाहते हैं। 
इस हिसाब से पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनाव पूर्व और चुनाव पश्चात परिदृश्य में जमीन-आसमान का अंतर है। यह अंतर उस हवाई माहौल और जमीनी हकीकत के कारण है, जिसमें यह संदेश देने की पूरी कोशिश थी कि राइटर्स बिल्डिंग पर भगवा फहराया ही समझो। हालांकि यह भी सही है कि ‍बीजेपी ने इस बार अपना जनाधार पिछले विधानसभा चुनाव की तुलना में काफी बढ़ाया, बावजूद इसके वो टीएमसी से बहुत पीछे रही। जहां 2019 के लोकसभा चुनाव में दोनो पार्टियों के वोट शेयर में 3 फीसदी का अंतर रह गया था, वही विधानसभा चुनाव में फिर बढ़कर 10 फीसदी हो गया। पूरी ताकत झोंकने के बाद भाजपा ने पहली बार राज्य में 77 सीटे जीतकर मुख्यल विरोधी दल होने का दर्जा हासिल किया, लेकिन प्रतिपक्ष का यह किला भी डेढ़ महीने बाद ही दरकने लगा है। ज्यादातर भाजपा कार्यकर्ताओं को यह लगने लगा है कि इससे तो दीदी के साथ ही अच्छे थे। यूं कहने को मुकुल रॉय भाजपा में शुभेंदु को ज्यादा महत्व मिलने से नाराज होकर टीएमसी में लौटे हैं, लेकिन उन्हें मालूम है कि मोदी सरकार उनके खिलाफ नारदा घोटाले की ठंडे बस्ते में पड़ी फाइल फिर खोल सकती है। लेकिन अगर यह जोखिम भी मुकुल ने उठाया है तो समझ लें कि भाजपा का हिंडोला किस कच्ची रस्सी पर झूल रहा है। 

यह वाकई चैंकाने वाली खबर थी कि भाजपा कार्यकर्ताओं ने बंगाल में दीदी के आगे कान पकड़ कर माफी मांगना शुरू कर ‍िदया है। राज्य के बीरभू‍म और हुगली जिले में कुछ भाजपा कार्यकर्ता बैटरीचलित रिक्शा पर लाउड स्पीकर लगाकर ऐलानिया माफी मांग रहे हैं। कह रहे हैं कि चुनाव के पहले उनसे गलती हुई। हमे प्रलोभन देकर टीएमसी में ले जाया गया था। हम माफी मांग कर वापस टीएमसी में आना चाहते हैं। इस ‘ह्रदय परिवर्तन’ के पीछे कारण दीदी की राज्य के विकास के प्रति प्रतिकबद्धता को बताया जा रहा है। ये वही कार्यकर्ता हैं जो भाजपा के विकास के वादों पर रीझे थे। भाजपा इसे दबाव में ‍हुआ बदलाव और लोकतंत्र की हत्या बता रही है। वैसे कुछ लोगों का मानना है कि बंगाल की राजनीति अमूमन ‘जिसकी लाठी, उसकी भैंस’ के फार्मूले पर ही चलती है। इसलिए इसमें चैंकने वाली कोई बात नहीं है। 

जबकि अमूमन राजनीति में ऐसा नहीं होता। चुनावी तूफान गुजर जाने के बाद काफी समय तक विजेता और विजित खेमो में शांति रहती है। चुनाव की थकान दूर करने में दोनो व्यस्त रहते हैं। जनादेश को शिरोधार्य किया जाता है। कामयाबी और नाकामयाबी की जुगाली की जाती है। नई रणनीति के बारे में सोचा जाता है। लेकिन बंगाल की कथा कुछ अलग ही है। वहां तो लंका कांड के बाद उत्तर कांड भी उतना ही तल्खी भरा है। ऐसे में अगर भाजपा के टिकट पर चुनाव जीतने के बाद भी कई विधायक अपने पुराने घर के दरवाजों की और आस भरी नजरों से देख रहे हैं तो भाजपा के लिए यह गहन चिंता और आत्मविकश्लेषण का कारण होना चाहिए कि दलबदलुओं का नए घर में मन क्यों‍ नहीं लग रहा है ? आलम यह है कि विधायक दल की बैठकों में भी पूरे विधायक नहीं आ रहे हैं। यहां तक कि राज्यपाल से मिलने जो विधायक गए, उनमें भी 23 विधायक कन्नी काट गए। खुटका यही है कि इनके भी अंदरखाने दीदी से तार जुड़ रहे हैं। हालांकि ममता बैनर्जी के पास 213 विधायकों का भारी बहुमत है, उन्हें और विधायकों की गरज नहीं है। फिर भी अगर भाजपा को दल बदल का डर सता रहा है तो इसके पीछे दीदी की नहले पर दहले की संभावित चाल हो सकती है। लेकिन वो भाजपा को उसी की भाषा में जवाब देने से शायद ही चूकेंगी।

याद करें कि भाजपा ने पिछले दरवाजे से सत्ता में आने के लिए पिछले दिनो गोवा और कर्नाटक में निर्वाचित विधायकों से उनकी पार्टी और विधायकी से इस्तीफे दिलवाकर अपनी पार्टी में शामिल किया और भाजपा के चुनाव चिन्ह पर चुनाव लड़वा के जितवा भी लिया। यानी राजनीतिक शुद्धिकरण का यह नया भाजपाई संस्कार था। यह ऐसी पतली वैधानिक गली थी, जिसमें से विधायक दलबदल कानून में फंसे बगैर सुरक्षित बाहर निकल आता है और भाजपा का पीपीई किट पहन कर वापस विधानसभा पहुंच जाता है। इसी व्यूहरचना ने भाजपा ने मप्र में भी खोई सत्ता फिर से पाई। लेकिन बंगाल में यही खेल ममता दी अब भाजपा के साथ खेलना चाहती हैं। आश्चर्य नहीं कि कल को भाजपा से सोशल डिस्टेंसिंग रख रहे उसी पार्टी के विधायक भाजपा और विधानसभा से इस्तीफा देकर टीएमसी के टिकट पर चुनाव लड़ें और जीतकर फिर विधानसभा पहुंच जाएं। ऐसा इसलिए भी संभव है, क्योंकि दलबदल कानून उसी स्थिति में लागू नहीं होता कि जब किसी पार्टी के दो तिहाई विधायक एक साथ ‍अन्य किसी पार्टी में खुद का विलय कर लें। 

इसका मतलब यह नहीं कि बंगाल में ‘खेला’ एकतरफा है। हो सकता है कि भाजपा विधायकों का यह अनमनापन सचमुच दबाव की राजनीति की वजह से भी हो। ध्यान रहे कि ममता बनर्जी चुनाव में अपनी सीट गंवाने के बाद भी पार्टी के दबाव और सारी सत्ता अपने हाथ में रखने के आग्रह के चलते तीसरी बार मुख्यमंत्री बन तो गई हैं, लेकिन वो अभी सदन की सदस्य नहीं हैं। उन्हें अपनी पारंपरिक सीट भवानीपुर से उपचुनाव लड़ना है। लेकिन उपचुनाव कब होगा, यह चुनाव आयोग और परोक्ष रूप से मोदी सरकार को तय करना है। नियमानुसार अगर वो 4 नवंबर तक विधानसभा की सदस्य नहीं बनीं तो उन्हें मुख्यधमंत्री पद छोड़ना होगा। हो सकता है कि दलबदल की हवा बनाकर ममता बैनर्जी भाजपा और केन्द्र सरकार पर जल्द उपचुनाव करवाने के लिए दबाव ला रही हों। उन्हें पता है कि यही स्थिति महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे के सामने भी बनी थी। लेकिन ठाकरे ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से सीधे गुहार कर की और विधान परिषद के चुनाव ताबड़तोड़ करवा कर अपनी कुर्सी बचा ली थी। परंतु ममता के मामले में ऐसा होने की संभावना बहुत कम है। पश्चिम बंगाल में विधान परिषद भी नहीं कि ठाकरे की तरह ममता वैकल्पिक रास्ते से किसी सदन में पहुंच जाएं। अगर चुनाव आयोग ने कोविड या ऐसा ही कोई कारण बताकर उपचुनाव समय पर नहीं कराए तो बंगाल में राजनीतिक टकराव का नया और शायद हिंसक मोर्चा खुल सकता है। लेकिन वो भविष्य की बात है। फिलहाल राजनीति की जो बिसात बिछी है, उसमें शह तो ममता दीदी ही दे रही हैं, इसे समझने किसी दूसरे चश्मे की जरूरत नहीं है। 

(वरिष्ठ संपादक दैनिक सुबह सवेरे मप्र-9893699939)

Wednesday, June 16, 2021

किसान-अल्का गुप्ता

सच्चे नायक हैं  
करते तनिक आराम नहीं
भविष्य आश्रित है जिनपर
देवदूत हैं किसान वही.

करता परिश्रम 
हर मौसम की ढिठाई में 
जो भूमिपुत्र किंचित् सी कमाई में 
क्या आवश्यक है नहीं संशोधन? 
नये सत्ता की अगुवाई में.
पता-लखीमपुर(खीरी), उ०प्र०

Tuesday, June 15, 2021

परिवर्तन की बात, सूरजपाल चौहान-अखिलेश कुमार अरुण

भावपूर्ण श्रृद्धांजलि

Surajpal Chauhan
अभी-अभी फेसबुक खोले सरसरी निगाह से देख ही रहे थे कि कौशल पवांर, अशोकदास, उर्मिलेश, सुमन कुमार सुमन आदि लोग जो दलित साहित्य और आन्दोलन के मुखर आवाज हैं, एक के बाद एक आप सभी के  फेसबुकवाल श्रद्धांजलि से पटा पड़ा है, पिछला साल और यह साल बहुत बुरा रहा, एक-एक कर हमने-जिसमें शांति स्वरूप बौद्ध, दीनानाथ निगम, अखिलेश कृष्णा मोहन आदि और आज सूरजपाल चैहान को खो दिया। यह दलित साहित्य के लिए अपूर्णीय क्षति है...जिसकी भरपाई नहीं हो सकेगी, शायद कभी नहीं। 

किसना “परिवर्तन की बात” कहानी का पात्र ही नहीं था। बल्कि वह प्रतिनिधित्वकर्ता था, दकियानूसी समाज के नियमों की अवहेलना करने वाला जो सूरज पाल चैहान के कहानी में चीख कर कहता है, "अब हमने और हमारे समाज के लोगों ने मरी गाय उठाना बंद कर दिया है" प्रतिशोध में नाग की तरह फुंफकारते हुए कहानी के अंत में ठाकुर कहता है, “ साले मारे लाठिय के घुटना तोड़ दूंगा............।, परिवर्तन हो रहा है ठाकुर साहब आप क्या चाहते हैं कि हम आज भी मरे हुए गायों को ही ठिकाने लगायें......... ।”  रघु ठाकुर “साले लीडर बनता है....चमारों का लीडर...... ।" यह कहानी, कहानी नहीं है अपने में बहुत कुछ सत्यता को समेटे हुए है। देश आजाद होने और संविधान लागू होने से लेकर आज तक के वंचित, दलित समुदाय के प्रतीकात्मक परिवर्तन के सच का आईना है।  देखिये परिवर्तन कहाँ हुआ है।  राजनैतिक परिवर्तन अधुरा है जब तक की सामाजिक परिवर्तन नहीं होता और जब तक लोग यह नहीं मान लेते कि व्यक्ति जन्म से नहीं कर्म से महान है।  जो कर्म परिवर्तन करना चाहता है उसे सम्मान दिया जाए और उसके प्रति हमारे बौद्धिक दृष्टिकोण भी परिवर्तित होने चाहिए। 

सूरजपाल चैहान को दलित साहित्य का अग्रदूत कहे जाने में अतिश्योक्ति नहीं होनी चाहिए। आप दलित साहित्य को गति प्रदान करने वाले सामन्तवादी सोच के खिलाफ विगुल बजाने वाले साहित्यकार हैं, वर्तमान साहित्य को अपनी मुट्ठी में करने वाले विलक्षण साहित्यकार हैं। आपकी लेखनी जाति व्यवस्था पर करारा व्यंग्य के साथ ही साथ एक साहित्यिक क्रांति है। सूरजपाल चैहान के ‘हैरी कब आयेगा’ (1999), ‘नया ब्राह्मण’ (2009), ‘धोखा’ (लघुकथा संग्रह, 2011)  के साथ साहित्य जगत में देखते ही देखते छा जाते हैं। सूरजपाल चैहान अपने कथा लेखन में बड़ी सहजता से जाति व्यवस्था की भयकंर दुश्वारियों को सामने लाते हैं। ‘छूत कर दिया’, ‘घाटे का सौदा’, ‘साजिश’, ‘घमण्ड जाति का’,  सूरजपाल चैहान ‘आपबीती’ और ‘जगबीती’ अनुभवों से जातिवाद के बीहड़ इलाकों की शिनाख्त बड़ी ही सहजता और स्पष्टता से करते हैं। मैंने जितना पढ़ा उतने में आपको समेटने का एक छोटा सा प्रयास है, लिखूंगा दिल खोल के लिखूंगा तल्लीनता से लिखूंगा आपके बोये बीज को खाद-पानी देने का काम अब हम सबके सिर-माथे है। यही आपके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी.

-अखिलेश कुमार अरुण

ग्राम-हजरतपुर, पोस्ट मगदापुर

जिला-लखीमपुर(खीरी)


पढ़िये आज की रचना

चर्चा में झूठी-सुरेश सौरभ

(फिल्म समीक्षा)      एक मां के लिए उसका बेटा चाहे जैसा हो वह राजा बेटा ही होता है, बच्चे कच्ची मिट्टी की तरह होते हैं, जिन्हें हम अपने विचार...

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