साहित्य

  • जन की बात न दबेगी, न छिपेगी, अब छपेगी, लोकतंत्र के सच्चे सिपाही बनिए अपने लिए नहीं, अपने आने वाले कल के लिए, आपका अपना भविष्य जहाँ गर्व से कह सके आप थे तो हम हैं।
  • लखीमपुर-खीरी उ०प्र०

Wednesday, April 09, 2025

अछूत के सिकयित-हीरा डोम


    भोजपुरी कविता      
अछूत के सिकयित
 हीरा डोम की साहित्य जगत में उपलब्ध एकमात्र रचना 
गुगल से साभार
हमनी के रात-दिन दुखवा भोगत बानी,
हमनी के सहेबे से मिनती सुनाइब।
हमनी के दुख भगवनओं न देखताजे,
हमनी के कबले कलेसवा उठाइब।
पदरी सहेब के कचहरी में जाइबिजां,
बेधरम होके रंगरेज बनि जाइब।
हाय राम! धरम न छोड़त बनत बाजे,
बे-धरम होके कैसे मुंखवा दिखाइब।।

खम्भवा के फारि पहलाद के बंचवले जां
ग्राह के मुंह से गजराज के बचवले।
धोती जुरजोधना कै भैया छोरत रहै,
परगट होकै तहां कपड़ा बढ़वले।
मरले रवनवां कै पलले भभिखना के,
कानी अंगुरी पै धर के पथरा उठवले।
कहंवा सुतल बाटे सुनत न वारे अब,
डोम जानि हमनी के छुए डेरइले।।

हमनी के राति दिन मेहनत करीले जां,
दुइगो रुपयवा दरमहा में पाइबि।
ठकुरे के सुख सेत घर में सुतल बानी,
हमनी के जोति जोति खेतिया कमाइबि।
हाकिमे के लसकरि उतरल बानी,
जेत उहओ बेगरिया में पकरल जाइबि।
मुंह बान्हि ऐसन नौकरिया करत बानी,
ई कुलि खबर सरकार के सुनाइबि।।

बमने के लेखे हम भिखिया न मांगव जां,
ठकुरे के लेखे नहिं लडरि चलाइबि।
सहुआ के लेखे नहि डांड़ी हम मारब जां,
अहिरा के लेखे नहिं गइया चोराइबि।
भंटऊ के लेखे न कबित्त हम जोरबा जां,
पगड़ी न बान्हि के कचहरी में जाइब।
अपने पसिनवा के पैसा कमाइब जां,
घर भर मिलि जुलि बांटि चोंटि खाइब।।

हड़वा मसुइया के देहियां है हमनी कै;
ओकारै कै देहियां बमनऊ के बानी।
ओकरा के घरे घरे पुजवा होखत बाजे
सगरै इलकवा भइलैं जजमानी।
हमनी के इतरा के निगिचे न जाइलेजां,
पांके में से भरि-भरि पिअतानी पानी।
पनहीं से पिटि पिटि हाथ गोड़ तुरि दैलैं,
हमनी के एतनी काही के हलकानी।।

यह कविता महावीर प्रसाद द्विवेदी द्वारा संपादित ‘सरस्वती’ (सितंबर 1914, भाग 15, खंड 2, पृष्ठ संख्या 512-513) में प्रकाशित हुई थी।

नोट-इस कविता के लेखक (हीरा डोम) की यह एक इकलौती कविता है जिसे भोजपुरी दलित साहित्य ही नहीं अपितु हिंदी दलित साहित्य की पहली और उनकी इकलौती रचना मानी जाती है या उनकी अन्य रचनाये कूड़ा के भाव में कहीं सड़ गल गयीं. कोई अता-पता नहीं. क्या उन्होंने इसके अतिरिक्त कोई दूसरी रचना लिखी नहीं होगी, उक्त रचना को पढ़कर ऐसा प्रतीत तो नहीं होता कि कोई लेखक/कवि अपनी पहली रचना में ही तुक, छंद, लय-ताल, भाव, विमर्श, दर्शन सब समाहित कर दे. उनकी और भी रचनाएँ रही होंगी जिन्हें समकालीन रचनाकारों/संपादकों ने अपनी पत्र-पत्रिकाओं में स्थान नहीं दिया होगा. कुछ आज के समकालीन रचनाकार हीरा डोम को एक मिथक मानते हैं . उनका कहना है कि दलित विमर्श को उठाने के लिए महावीर प्रसाद द्विवेदी ने खुद हीरा डोम के नाम से इस रचना को लिखाकर अपनी पत्रिका में प्रकाशित किया था. क्या यह सच है? हमें तो नहीं लगता. फ़िलहाल आप रचना पढ़िए और उसका दर्शन समझिये.

पढ़िये आज की रचना

अछूत के सिकयित-हीरा डोम

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