साहित्य

  • जन की बात न दबेगी, न छिपेगी, अब छपेगी, लोकतंत्र के सच्चे सिपाही बनिए अपने लिए नहीं, अपने आने वाले कल के लिए, आपका अपना भविष्य जहाँ गर्व से कह सके आप थे तो हम हैं।
  • लखीमपुर-खीरी उ०प्र०

Tuesday, July 02, 2024

इंदिरा गांधी की इमरजेंसी से ज़्यादा खतरनाक है,आज के दौर की अघोषित तानाशाही और इमरजेंसी-नन्दलाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)

"लोकतंत्र के मंदिर में राजतंत्र-तानाशाही की निशानी "सिंगोल" स्थापित करने के पीछे मोदी/बीजेपी की नीयत क्या है?"                        
नन्दलाल वर्मा
(सेवानिवृत्त एसोसिएट प्रोफेसर)
युवराज दत्त महाविद्यालय
लखीमपुर-खीरी
✍️लोकसभा स्पीकर बनने के बावजूद आरएसएस और बीजेपी की ग़ुलाम मानसिकता से न मुक्त हो पाने वाले ओम बिरला को कांग्रेस की 50साल पुरानी इमर्जेंसी याद है,किंतु नीट,यूजीसी नेट,सीएसआईआर जैसी प्रतियोगी परीक्षाओं की धांधली और नग्नता - सांप्रदायिकता की आग से अभी-अभी बुरी तरह झुलसे मणिपुर के गहरे ज़ख्म और वहां की जनता की पीड़ा याद नहीं, क्योंकि वह अपनी आँख से न तो देख पाते है और न ही अपने दिमाग से सोच पाते है। बीजेपी शासित राज्य उत्तर प्रदेश और राष्ट्रीय स्तर की प्रतियोगी परीक्षाओं के पेपर लीक होने से रद्द हुई परीक्षाएं  से जो भद्द कटी है,उससे बेख़बर और बेशर्म हो चुके हैं, हमारे स्पीकर और पूरी बीजेपी। उन्हें 1975 वाली इमरजेंसी तो याद है,लेकिन अयोध्या की 1992 में बाबरी मस्जिद और 2002 में गोधरा  कांड जैसी विध्वंसक और पूरे देश में अराजकता फैलाने और दिल दहला देने वाली घटनाएं याद नहीं! व्यक्तिवादी और दलीय अंधभक्ति-स्वामिभक्ति और ग़ुलामी की पराकाष्ठा दर्शाता है,बिरला का सम्पूर्ण व्यक्तित्व,वक्तव्य और कृतित्व। इंदिरा गांधी ने जो कुछ भी किया वह डंके की चोट पर और ताल ठोंककर किया,किसी राजनीतिक विरोधी को छुपके से घात लगाकर या पीठ में छुरा भोंककर नहीं। लोकहित में बड़े-बड़े राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मुद्दों को सुलझाने में जो ऐतिहासिक,महत्वपूर्ण और सख़्त निर्णय लिये,उनका भी सम्मान के साथ ज़िक्र किया जाना चाहिए। निःसंदेह कांग्रेस के माथे पर इमरजेंसी के और बीजेपी के माथे पर गोधराकांड और बाबरी मस्जिद विध्वंस के लगे गहरे काले और बदनुमा धब्बों के निशान मिटाना संभव नहीं है।
✍️सरकार के इशारे पर जनता द्वारा निर्वाचित और संवैधानिक पद पर आसीन किसी मुख्यमंत्री तक को किस हद तक परेशान किया जा सकता है इसकी जीती जागती मिसाल हैं,दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल और झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन। इन दोनों के खिलाफ कोई ऐसा लिखित या ठोस सबूत नहीं मिला है कि उनके साथ एक दुर्दांत अपराधी की तरह पेश हुआ जाए! इसके बावजूद सरकार की कठपुतलियां बनी देश की जांच एजेंसियां सरकार के इशारे पर उनके साथ ऐसा बर्ताव कर रही हैं जो राजनीतिक वैमनस्यता या खीज़ से प्रेरित लगती है। जिस तरह कानूनी दांव-पेंच का फायदा उठाकर इन दोनों को जेल में डालने की साजिश रची गई है,वह भारत जैसे देश के विशाल और प्रौढ़ लोकतंत्र के लिए एक खतरनाक संकेत और संदेश है। अरविंद केजरीवाल को जैसे ही निचली अदालत से जमानत मिलती है,उसमें तनिक भी विलंब किये बिना उससे ऊपरी अदालत में उनके खिलाफ एक अर्जी डाल दी जाती है। इतना ही नहीं,उस पर कोई फैसला आ पाता कि तुरंत एक दूसरी जांच एजेंसी ने अपनी दबिश बढ़ा दी और उनको गिरफ्तार कर लिया। बदले की भावना से प्रेरित इस तरह की कार्रवाई को लोकतांत्रिक देश में कतई जायज नहीं ठहराया जा सकता है। 
✍️वर्तमान अघोषित तानाशाही और इमरजेंसी के अलंबरदार पीएम नरेंद्र मोदी संसद भवन में इंदिरा गांधी द्वारा 25जून,1975 को घोषित इमरजेंसी को कोस रहे थे और लोकतंत्र के प्रति गहरी आस्था जताते हुए संसद में एक लंबा भाषण भी दिया,लेकिन उनके दावों और हकीकत में जमीन-आसमान का अंतर साफ दिखाई देता है। 1975 में जो भी हुआ वह सब कुछ बाक़ायदा घोषित था और सभी को पता था कि देश में आपातकाल घोषित हो चुका है, नागरिकों के संवैधानिक- लोकतांत्रिक अधिकार आपातकाल उठने तक स्थगित और सीमित कर दिए गए हैं। देश के लोगों को आपातकाल में सोच-संभल कर और समझकर किसी भी तरह के कदम उठाने का मौका दिया गया था,लेकिन वर्तमान में तो ऐसा लगता है कि लोकतंत्र प्रशासनिक-जांच एजेंसियों के कदमों के नीचे दबा हुआ है। जब सुप्रीम कोर्ट केजरीवाल की जमानत देने का इशारा कर चुकी थी फिर रात के अंधेरे में केजरीवाल से पूछताछ क्यों की गयी और अगले दिन रिमांड की मांग क्यों की? सत्ता के इशारे पर जांच एजेंसी ने यह सब इसलिए किया ताकि उनका जेल से बाहर आना संभव न हो सके और ऐसा हुआ भी। निचली अदालत ने जमानत इसलिए दे दी थी,क्योंकि उनके खिलाफ कोई ठोस सबूत नहीं मिले। केवल गवाहों के आरोपों को सबूत के रूप में पेश किया जा रहा था। मामले से जुड़ी जांच एजेंसियां सत्ता को खुश करने के लिए अपने रसूख़ का नाज़ायज़ फायदा उठा रही हैं जिसे भारत जैसे देश के 75 साल के परिपक्व लोकतंत्र में कतई उचित नहीं ठहराया जा सकता है। किसी भी सत्ता की इस तरह की मनमानी कार्रवाइयों का वृहद स्तर पर विरोध किया जाना चाहिए जिससे बिना ठोस सबूत के फंसाए गए संवैधानिक पदों पर आसीन व्यक्तियों को न्याय मिल सके।
✍️राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि तत्कालीन घोषित इमरजेंसी से आज की अघोषित इमरजेंसी ज़्यादा और व्यापक रूप से घातक या खतरनाक साबित हुई है और हो रही है। बीजेपी के दस साल के शासन काल में विपक्षी दलों और आम आदमी को आर्थिक रूप से जर्जर करने की नीयत से जानबूझकर काले धन के नाम पर की गयी अचानक नोट बंदी और लॉक डाउन से उपजी राष्ट्रव्यापी बेचैनी और अफरातफरी और उससे ध्वस्त हुई देश की अर्थव्यवस्था,यातायात व्यवस्था और उसके बेरोजगारी जैसे भयंकर दुष्परिणाम शायद वो भूल गए हैं। सरकार के पीेएम केयर्स फंड और सुप्रीम कोर्ट द्वारा असंवैधानिक घोषित एलेक्टोरल बॉण्ड जैसे बड़े-बड़े घोटाले और चंदा देने वाली कम्पनियों के खुलासों की फ़ाइल उनकी स्मृतियों से बहुत जल्दी डिलीट हो गई हैं। किसी भी सदन के सभापति का आचरण निष्पक्ष और दलीय विचारधारा से परे माना जाता है। शायद यह भी भूल गए हैं, हमारे दूसरी बार बनाए गए  स्पीकर साहब! देश की सर्वोच्च पंचायत संसद संविधान और संसदीय मर्यादाओं और परंपराओं से विगत लंबे अरसे से चलती आ रही है। विपक्षी दलों के सांसदों के प्रति ओम बिरला का एक स्पीकर के रूप में तानाशाह वाला आचरण और वक्तव्य बेहद अशोभनीय और निंदनीय कहने में कोई अतिशयोक्ति नही है। बीजेपी की शह पर संसद में ओम बिरला विपक्षी सांसदों के प्रति संविधान और संविधानिक मर्यादाओं का खुला उल्लंघन करने में कोई संकोच नहीं कर रहे हैं। ओम बिरला जी को यह याद रखना चाहिए कि इस बार की लोकसभा की बनावट और बुनावट पिछली लोकसभा से कतई अलग है। अब सदस्यों के निष्कासन और उनके प्रति अधीनस्थों जैसी अपनाई जा रही भाषा-शैली और आचरण उनके और मोदी सरकार के ऊपर भारी पड़ सकते है। ओम बिरला की नियुक्ति या चयन की पूरी प्रक्रिया में नीतीश कुमार और चंद्र बाबू नायडू  संसदीय (संविधान और लोकतंत्र) इतिहास के पन्नों में खलनायक के रूप में दर्ज़ हो चुके हैं। इसके बावजूद नीतीश कुमार की राजनीतिक गठबंधन की कोई स्थायी गारंटी या वारंटी नही कही जा सकती है। बिहार में 2025 में होने वाले विधानसभा चुनाव का राहु या शनि देव कभी भी प्रकट हो सकता है। ओम बिरला के रहते यदि इस बार भी संसदीय परंपराओं और मूल्यों में और अधिक गिरावट देखने को मिलती है तो उसके लिए नीतीश और नायडू भी बराबर के दोषी या.... माने जायेंगे। 
✍️संविधान, लोकतंत्र और सामाजिक न्याय के नाम पर व्यक्तिगत राजनीतिक लाभ के लिए जातियों की गोलबंदी कर जातीय आधार पर गठित जो राजनीतिक दल आज एनडीए की सरकार का हिस्सा बनकर सत्ता की मलाई खा रहे हैं और सामाजिक न्याय के मुद्दे पर मुंह में ताला लगाए हुए हैं, वे दल और उनके नेता ओबीसी और एससी-एसटी समाज के भविष्य के लिए आरएसएस और बीजेपी से ज़्यादा खतरनाक साबित हो रहे हैं। सरकार से हिस्सेदारी खत्म होने के डर से उनकी स्थिति भेड़िया या शेर के सामने बकरी जैसी दिखती है। आरएसएस और बीजेपी तो ऐलानिया तौर पर संविधान और लोकतंत्र की आरक्षण जैसी व्यवस्था की शुरू से ही विरोधी रही है, लेकिन सामाजिक न्याय का राजनीतिक चोला ओढ़े सामाजिक-राजनीतिक भेड़ियों से बहुजन समाज को ज़्यादा खतरा है। संविधान, लोकतंत्र और सामाजिक न्याय विरोधी आरएसएस रूपी कथित सांस्कृतिक और राष्ट्रवादी संगठन और उससे उपजी बीजेपी और उनके सहयोगी दलों और नेताओं से बहुजन समाज अर्थात ओबीसी और एससी-एसटी के साथ अल्पसंख्यक समुदायों को राजनीतिक रूप से दूर रहने में ही भलाई है, क्योंकि इन सभी का इन समाजों को हिन्दू- मुसलमान, मंदिर-मस्जिद और हिन्दू राष्ट्र के नाम पर सामाजिक वैमनस्यता फैलाकर राजनीतिक सत्ता हासिल करना एकमात्र लक्ष्य हैं।
✍️2024 में मोदी नेतृत्व में तीसरी बार एनडीए की सरकार बनने में सामाजिक न्याय की दुहाई देने वाले नीतीश कुमार और चन्द्र बाबू नायडू की भूमिका राजनीतिक विश्लेषकों की समझ से परे बताई जा रही है। मोदी सरकार 3.0 को नीतीश कुमार और चन्द्र बाबू नायडू द्वारा दिया गया सहयोग और समर्थन भविष्य में क्या राजनीतिक गुल खिलायेगा,इसका अनुमान और आंकलन करने में बड़े-बड़े राजनीतिक पंडित और भविष्य वक्ता फेल होते नज़र आ रहे हैं। एनडीए गठबंधन की मोदी सरकार 3.0 बहुत कुछ नीतीश कुमार और नायडू की राजनीतिक चाल-चलन पर निर्भर करेगी,साथ ही यह भी अटकलें लगाई जा रही हैं कि बीजेपी के लोकसभा स्पीकर के माध्यम से मोदी-शाह की शतरंजी चाल से नीतीश-नायडू को होने वाले खतरे से भी इनकार नहीं किया जा सकता है। राजनीतिक विश्लेषकों और विशेषज्ञों का अनुमान है कि इस बार की लोकसभा में पिछली लोकसभा से अधिक नंगा नाच होने की संभावना है। नीतीश कुमार और बीजेपी की स्थिति सांप-नेवले के रूप में देखी जा रही है। कौन सांप और कौन नेवला साबित होगा, यह तो आने वाला वक्त ही बता पायेगा। फ़िलहाल, इस बार की लोकसभा में कुछ ऐसा होने की संभावना जताई जा रही है जो संसदीय इतिहास में आज से पहले कभी नही हुआ है।

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