साहित्य

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  • लखीमपुर-खीरी उ०प्र०

Friday, July 12, 2024

सामाजिक न्याय के नाम पर सत्ता की मलाई चाटते जातीय दलों की असलियत जो एससी-एसटी और ओबीसी के लिए आस्तीन के सांप सिद्ध हो रहे हैं-नन्दलाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)

भाग:एक
       
नन्दलाल वर्मा
(सेवानिवृत्त एसोसिएट प्रोफेसर)
युवराज दत्त महाविद्यालय
लखीमपुर-खीरी
9415461224.
✍️सामाजिक न्याय की दुहाई देकर जातीय आधार पर दल गठित जो दल संविधान विरोधी आरएसएस और उसके राजनीतिक दल बीजेपी नेतृत्व एनडीए की सरकार में शामिल होकर लंबे अरसे से सत्ता की मलाई चाटने वाले दल बहुजन समाज (एससी-एसटी और ओबीसी) के लिए आस्तीन के सांप साबित हो रहे हैं। अनुप्रिया पटेल,ओम प्रकाश राजभर और संजय निषाद सभी सत्ता की अवसरवादी राजनीति कर समाज मे राजनीतिक बिखराव पैदाकर मनुवादी शक्तियों को अप्रत्यक्ष रूप से लंबे अरसे से राजनीतिक लाभ पहुंचा रहे हैं,अर्थात उनकी चुनावी राजनीति को मजबूत कर रहे हैं। संविधान और लोकतंत्र के मुद्दे पर ओबीसी और एससी-एसटी और अल्पसंख्यक मुस्लिम समुदाय में चुनावी जागरूकता के साथ टैक्टिकल वोटिंग का हुनर पैदा होने से आज बीजेपी और एनडीए गठबंधन यूपी में अप्रत्याशित रूप से कमजोर हुआ है,यदि बीएसपी सुप्रीमो विपक्ष के इंडिया गठबंधन में शामिल हो गईं होती तो यूपी में बीजेपी और एनडीए गठबंधन का सफाया लगभग पक्का था,लेकिन दुर्भाग्यवश वो न हो सका। बीएसपी सुप्रीमो की भूमिका को लेकर भी सामाजिक-राजनीतिक और बौद्धिक मंचों पर कई तरह के आलोचनात्मक ढंग से सवाल उठते रहे और उन सवालों या संशयों के दुष्प्रभाव बीएसपी के आये चुनावी परिणामों का विश्लेषण करने से परिलक्षित होते दिखाई भी दिए हैं। लोकसभा चुनाव 2019 में समाजवादी पार्टी से गठबंधन कर शून्य से दस तक पहुंचने वाली बीएसपी ने लगभग 20% वोट हासिल किया था और समाजवादी पार्टी अपनी पुरानी संख्या ही बचा पाई थी। 2024 में बीएसपी सुप्रीमो की "एकला चलो" की नीति के फलस्वरूप वह शून्य पर जा पहुंची और वोट प्रतिशत भी आधे से ज़्यादा कम हो गया। जब देश की सबसे बड़ी पार्टी बीजेपी गठबंधन की राजनीति का फार्मूला अपनाने पर मजबूर है या यह उसकी सत्ता की राजनीति का अभिन्न हिस्सा बन चुका है तो ऐसी परिस्थिति में बीएसपी की एकला चलो की राजनीति कितनी तार्किक और न्यायसंगत लग रही है।
✍️मोदी नेतृत्व बीजेपी जैसे-जैसे राजनीतिक रूप से कमजोर दिखाई देगी,सामाजिक न्याय की झूठी राजनीति करने वाले बहुजन समाज के असली राजनीतिक दुश्मनों का बीजेपी से मोह भंग होता हुआ दिखेगा और सत्ता की ओर बढ़ते किसी दूसरे राजनीतिक विकल्प की तलाश जारी करते हुए दिखाई देंगे। आज की विशुद्ध सत्ता की राजनीति के दौर में सामाजिक न्याय के नाम पर बने ऐसे जाति आधारित दलों की कोई कमी नहीं है,एक हटेगा तो  जातीय राजनीति की भरपाई के लिए कोई दूसरे के आने का क्रम थमने वाला नहीं और पैदा होते रहेंगे एवं अलग-अलग जाति के नाम पर बहुजन समाज राजनीतिक रूप से बंटता हुआ राजनीति का शिकार होकर ठगा जाता रहेगा। समाज के शिक्षित जानकार और जागरूक लोगों को आगे आकर समाज की सामाजिक-राजनीतिक चेतना और कदम पर काम करना होगा। जातीय राजनीति और चेतना के अति भावावेश या अतिरंजना में अब और बहने की जरूरत नहीं है,क्योंकि देश में सामाजिक- राजनीतिक बहुरूपियों की कमी नहीं है। एक हटेगा तो दूसरा आकर .....।
【अपना दल (एस) सांसद अनुप्रिया पटेल की मुख्यमंत्री योगी को लिखी चिट्ठी का पोस्टमार्टम एवं राजनीतिक निहितार्थ】
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✍️आजकल एनडीए गठबंधन में शामिल अपना दल (एस) की केंद्रीय राज्यमंत्री अनुप्रिया पटेल की एक चिट्ठी सोशल मीडिया से लेकर मुख्यधारा के मीडिया में सुर्खियों में है जिसमें उन्होंने प्रदेश के मुख्यमंत्री श्री योगी आदित्यनाथ को पत्र लिखकर सरकारी नियुक्तियों में एनएफएस(नॉन फाउंड सूटेबल) के नाम पर एससी-एसटी और ओबीसी के अभ्यर्थियों के साथ हो रहे अन्याय की ओर सरकार का ध्यान आकर्षित किया है। उल्लेखनीय है कि अपना दल (एस) राज्य में 2014 से बीजेपी गठबंधन की राजनीति का हिस्सा बनकर योगी सरकार में और 2017 से केंद्र सरकार में शामिल है। आरएसएस संचालित और नियंत्रित बीजेपी का राजनीतिक आचरण शुरू से ही संविधान और लोकतंत्र विरोधी रहा है। जब बीजेपी की सरकार नहीं हुआ करती थी तबसे वह आरक्षण खत्म करने की अप्रत्यक्ष और अदृश्य साज़िश के तहत संविधान समीक्षा की बात करती रही है और 2014 में मोदी के नेतृत्व में पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में आने के बाद भी संविधान और आरक्षण की समीक्षा की लगातार समय-समय वकालत की जाती रही है। संविधान और संविधान सम्मत आरक्षण को सीधे खत्म करने का वक्तव्य-कदम किसी भी दल के लिए कितना आत्मघाती साबित हो सकता है,आरएसएस और बीजेपी उसे अच्छी तरह समझती है। इसलिए संविधान और आरक्षण पर डायरेक्ट हिट या आक्रमण नहीं होगा,बल्कि उसके अप्रत्यक्ष विकल्पों पर लगातार विचार-मंथन होता रहता है और 2014 से उसकी कार्ययोजना पर क्रियान्वयन भी हो रहा है। सरकारी और सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों का बेतहाशा निजीकरण,बैंकों का विलय,पीपीपी मॉडल का अनवरत विकास,सरकारी नौकरियों में कमी,विशेषज्ञता के नाम पर लेट्रल एंट्री के नाम पर एक वर्ग और संस्कृति विशेष की भर्तियां करना आदि सामाजिक न्याय जैसी सांविधानिक व्यवस्थाओं की धज्जियाँ उड़ाने की अप्रत्यक्ष और अदृश्य रूप से तो विगत दस सालों से उपक्रम जारी है। चुनावी माहौल में एससी-एसटी और ओबीसी मंदिर,हिंदुत्व और धर्म के नशे में बेसुध होकर मतदान करता दिखाई देता है। 
✍️2019 के लोकसभा चुनाव से ठीक पहले आर्थिक रूप से पिछड़ों के लिए संवैधानिक आरक्षण व्यवस्था न होने के बावजूद सवर्ण वर्चस्व आरएसएस के इशारे पर सामान्य वर्ग की जातियों के लिए दस प्रतिशत सरकारी नौकरियों में आरक्षण देते समय सत्ता और विपक्ष में बैठे सभी एससी-एसटी और ओबीसी के सांसदों के मुँह में दही क्यों जम गई थी अर्थात उनकी जुबान को लकबा क्यों मार गया था? यदि डॉ.भीमराव आंबेडकर जी ने एससी-एसटी के लिए लोकसभा में आरक्षण की व्यवस्था न की होती तो एससी-एसटी के लिए लोकसभा में पहुंचना एक सपना ही रह जाता। 75 साल के लोकतंत्र में संसद की राज्यसभा में आरक्षण न होने की वजह से एससी-एसटी के कितने सांसद पहुंच पाए हैं?
✍️एससी-एसटी और ओबीसी अभ्यर्थियों के साथ लंबे अरसे से होते आ रहे अन्याय या चीर हरण पर अपना दल (एस) प्रमुख और सांसद की नज़र अब पहुंची है, उसके लिए बहुजन समाज की ओर से सादर धन्यवाद और साधुवाद। एससी-एसटी और ओबीसी अभ्यर्थियों के साथ केवल एनएफएस के आधार पर ही अन्याय या उनकी हकमारी नहीं हो रही है,बल्कि उनके साथ केंद्र में 2014 से और राज्य सरकार में 2017 से यह प्रक्रिया अनवरत रूप से कई रूपों में जारी है। विधान मंडल और संसद में बैठे एससी-एसटी और ओबीसी के सांसदों के दिमागों में सत्ता के ताले,जुबानों पर लकबा की मार और आंखों पर पट्टियां बंधी हुई हैं। सबसे बड़ा सवाल यह है कि उसका इलाज कैसे हो सकता है? सरकारी नौकरियों में एससी-एसटी और ओबीसी की बैक लॉग की बंद पड़ी भर्ती प्रक्रिया, आरक्षण में ओवरलैपिंग व्यवस्था का खात्मा,शिक्षण संस्थानों में नियुक्ति के उपरांत प्लेसमेंट में नई रोस्टर व्यवस्था लागू होना, डिफेंस सेवाओं में भर्ती की सारी पुरानी प्रक्रिया, किंतु चार साल के लिए अग्निवीर बनाया जाना,ओबीसी आरक्षण में क्रीमिलेयर के नाम पर उस वर्ग के योग्य और पात्र अभ्यर्थियों को आरक्षण से बाहर करना,बढ़ती महंगाई के फलस्वरूप घटती क्रय शक्ति (परचेजिंग पावर) अर्थात अप्रत्यक्ष रूप से घटती आय और नए वेतनमान की वजह से बढ़ती आय के फलस्वरूप बढ़ता क्रीमिलेयर वर्ग अर्थात क्रीमीलेयर के बहाने आरक्षण की सीमा से बाहर होता ओबीसी का एक बड़ा वर्ग, ओबीसी वेलफेयर की संसदीय समिति के अध्यक्ष सतना-एमपी से लगातार चौथी बार के सांसद गणेश सिंह पटेल द्वारा क्रीमीलेयर की आय सीमा 15लाख रुपये की सिफारिश करने की वजह से रुष्ट कथित ओबीसी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उनका कार्यकाल का विस्तार ही नहीं किया और उनके स्थान पर सीतापुर से सांसद राजेश वर्मा को नामित किया। उनके कार्यकाल में शायद ही इस मुद्दे पर कोई अगली कार्यवाही हो सकी हो। 2024 में गणेश सिंह पटेल सतना से लगातार पांचवीं बार सांसद चुने गए हैं।
✍️मंडल आयोग की स्पष्ट सिफारिश होने के बावजूद प्रोमोशन में आरक्षण न होने से तत्संबंधी स्तर पर आरक्षण में कमी आना... आदि बड़ी हकमारी की ओर हमारे एससी-एसटी और ओबीसी के चुने हुए जनप्रतिनिधियो का ध्यान अभी तक क्यों नहीं जा सका? सामाजिक न्याय करने का वादा कर विधान मंडल और संसद में पहुँचकर हमारे जनप्रतिनिधि यदि वहां सत्ता से सामाजिक न्याय की मांग नहीं कर सकते हैं तो ऐसे लोगों को दुबारा प्रतिनिधि चुनना उस समाज की मूर्खता या जातीय अंधभक्ति ही समझी जाएगी। सामाजिक न्याय की राजनीति के बहाने विधायिका में हिस्सेदारी पाने वाले सभी दलों पर जातिगत जनगणना कराने का सामाजिक दबाव बनना चाहिए जिससे जनसंख्या के हिसाब से जातिगत आरक्षण के विस्तार की राजनीति को भरपूर ताकत मिल सके। एनएफएस तो आरक्षण में कटौती करने की मनुवादियों द्वारा एक नवीन अदृश्य तकनीक विकसित की गई है जिसका दायरा शिक्षण संस्थाओं जैसे क्षेत्रों की नौकरियों तक ही सीमित है या जहां साक्षात्कार की मेरिट के आधार पर नियुक्तियां होती हैं। अपना दल (एस) की सांसद की चिट्ठी में केवल एनएफएस के आधार पर आरक्षण में हो रही साज़िश का ही उल्लेख नहीं होना चाहिए था, बल्कि ऊपर अंकित उन सभी बिंदुओं को शामिल किया जाना चाहिए था जिनके माध्यम से एससी-एसटी और ओबीसी की लंबे अरसे से बारीकी से बड़ी हकमारी हो रही है।
भाग दो पढ़ने के लिए लिंक करे    https://anviraj.blogspot.com/2024/07/blog-post_55.html

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