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  • लखीमपुर-खीरी उ०प्र०

Tuesday, July 16, 2024

केवल आरक्षण से ही आधे आईएएस एससी-एसटी और ओबीसी,लेकिन वे शीर्ष पदों पर क्यों नहीं पहुंच पाते-नन्दलाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)


【अधिकारियों के लिए न्यूनतम और अधिकतम कार्यकाल/अवधि तय होनी चाहिए और शीर्ष पदों के लिए गठित पैनल को गैर-विवेकाधीन, मैट्रिक्स-आधारित और पारदर्शी बनाना होगा】
नन्दलाल वर्मा
(सेवानिवृत्त एसोसिएट प्रोफेसर)
युवराज दत्त महाविद्यालय
लखीमपुर-खीरी
9415461224.
कांग्रेस के सांसद राहुल गांधी ने महिला आरक्षण विधेयक पर लोकसभा में बोलते हुए एक महत्वपूर्ण विषय के तार छेड़ दिए,जिसे जानते तो सभी हैं,लेकिन उन पर बड़े मंचों पर चर्चा तक नहीं होती है। महिला आरक्षण के अंदर अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) महिलाओं के लिए आरक्षण की मांग करते हुए राहुल गांधी ने कहा था कि आज की सरकार में सचिव स्तर की नौकरशाही पर सिर्फ तीन ओबीसी अफसर हैं। यानी देश की आधी से ज्यादा उनकी आबादी और हर वर्ष 27% आरक्षण से ओबीसी अधिकारी चयनित होने के बावजूद उनकी भारत सरकार के सिर्फ 5 प्रतिशत बजट निर्धारण में ही भूमिका है। इस मुद्दे को उन्होंने प्रेस कॉन्फ्रेंस,भारत जोड़ों की पैदल यात्रा और चुनावी रैलियों में भी उठाया और आरक्षण विरोधी नरेंद्र मोदी सरकार को इसके लिए ज़िम्मेदार ठहराया।
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इसके जवाब में भारतीय जनता पार्टी और केंद्र सरकार ने यह तो नहीं कहा कि राहुल गंधी का ओबीसी अफसरों का बताया हुआ आंकड़ा गलत है,लेकिन जवाबी राजनीतिक हमला करते हुए कहा कि जब केंद्र में कांग्रेस की सत्ता थी, तो उसने ओबीसी अफसरों की संख्या बढ़ाने के लिए क्या किया? कैबिनेट मंत्री किरेन रिजीजू ने इस बारे में एक्स पर पोस्ट किया था कि इस समय वही अफसर सचिव बन रहे हैं जो 1992 के आसपास नौकरी में आए थे। इसलिए कांग्रेस को बताना चाहिए कि ओबीसी अफसरों को आगे लाने में कांग्रेस की सरकारों की भूमिका क्या रही?
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2024 में होने वाले लोकसभा चुनावों तक ऐसा लगता था कि सामाजिक न्याय पर ओबीसी के मुद्दे पर काफी चर्चा होगी और नौकरशाही के शीर्ष पर ओबीसी अफसरों के यथोचित प्रतिनिधित्व न होने या कम होने पर भी काफी चर्चा होगी,लेकिन चुनावी रैलियों और चुनावी घोषणा पत्र में सामाजिक न्याय पर ओबीसी अफसरों के प्रतिनिधित्व और महिला आरक्षण बिल में ओबीसी महिलाओं का आरक्षण न होने और जातिगत जनगणना पर जिस तेजी और जोर शोर से चर्चा होनी चाहिए थी, वह नहीं होती दिखी। मोदी के अबकी बार 400पार के नारे के निहितार्थ पर बीजेपी के कतिपय नेताओं की संविधान बदलने के बयान से एससी-एसटी और ओबीसी समाज मे यह संदेश घर कर गया कि यदि इस बार बीजेपी को दो तिहाई बहुमत हासिल हो जाता है तो संविधान में महत्वपूर्ण बदलाव किया जा सकता है। यदि संविधान बदला तो सरकारी नौकरियों में आरक्षण तो खत्म हो ही जाएगा। इस बार के लोकसभा चुनाव में संविधान और लोकतंत्र का मुद्दा फेज़ दर फेज़ जोर पकड़ता चला गया जिसका सर्वाधिक प्रभाव यूपी में पड़ा जहां बीजेपी इस बार राम मंदिर के नाम पर अस्सी की अस्सी सीटें जीतने का दावा कर रही थी,वहां अयोध्या की सीट पर वहां की जनता ने बीजेपी को हराकर यह संदेश दे दिया कि हिन्दू बनाम मुस्लिम की राजनीति अब चलने वाली नहीं है। मंदिर और मुस्लिम मुद्दा इस बार चुनाव में कहीं भी जोर पकड़ते नहीं दिखा जिसके चलते वह यूपी में मात्र 33 सीटें ही जीत पाई और इस चुनाव की सबसे बड़ी उपलब्धि कि अयोध्या में एक दलित समाज के व्यक्ति से बीजेपी के कथित रघुवंशी लल्लू सिंह को हार का सामना करना पड़ा जो बीजेपी के राम मंदिर निर्माण की जनस्वीकार्यता पर बड़ा सवाल खड़ा करती है। बनारस से मोदी जी की जीत की असलियत पर भी सवाल उठ रहे हैं। फ़िलहाल वह हार से बचा लिए गए।
राहुल गांधी ने ओबीसी नौकरशाही की सहभागिता का मुद्दा तो सही उठाया था,लेकिन उनका यह कहना पूरी तरह सही नहीं है कि इसकी सारी जिम्मेदारी वर्तमान मोदी सरकार की ही है। यह नौकरशाही की संरचना,उसके काम करने के तरीके और उसके जातिवादी चरित्र से जुड़ा मामला है और किसी भी पार्टी की सरकार के आने या जाने से इसमें बहुत ज्यादा फर्क नहीं पड़ेगा। इस समस्या का यदि वास्तव में समाधान करना है तो वह नौकरशाही की संरचना और उसकी चयन प्रक्रिया के स्तर पर ही सम्भव हो सकता है।
तीन प्रस्तावित समाधान:
आईएएस अफसरों के नौकरी में आने की अधिकतम उम्र 29 साल हो और इसी दायरे के अंदर विभिन्न कैटेगरी को उम्र में जो भी छूट देनी हो, दी जाए या फिर सभी अफसरों की नौकरी का कार्यकाल बराबर किया जाए,ताकि सभी श्रेणी के अफसरों को सेवा के इतने वर्ष अवश्य मिल जाएं ताकि वे भी नौकरशाही के शीर्ष स्तर तक पहुंच पाएं। नौकरी के अलग-अलग स्तरों पर जब अफसरों को चुनने के लिए पैनल बनाया जाए तो यह प्रकिया पारदर्शी हो और इसमें मनमाने तरीके से किसी को चुन लेने और किसी को खारिज कर देने का वर्तमान चलन पूरी तरह से बंद होना चाहिए। अफसरों की सालाना गोपनीय रिपोर्ट(सीआर) के मामले में जातिवादी मानसिकता पर अंकुश लगे और भेदभाव को प्रक्रियागत तरीके से सीमित किया जाए।
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इन उपायों पर चर्चा करने से पहले यह ज़रूरी है कि इस विवाद के तीन पहलुओं पर आम सहमति बनाई जाए। सबसे पहले तो सरकार और नीति निर्माताओं को सहमत होना होगा कि भारतीय नौकरशाही के उच्च पदों पर सामाजिक विविधता का अभाव है और एससी-एसटी और ओबीसी के अफसर उच्च पदों पर आनुपातिक रूप से बहुत कम हैं। 2022 में संसद में पूछे गए एक सवाल के जवाब में तत्कालीन केंद्रीय कार्मिक मंत्री डॉ.जितेंद्र सिंह ने सरकार की तरफ से जानकारी दी थी कि संयुक्त सचिव और सचिव स्तर पर केंद्र सरकार में 322 पद हैं,जिनमें से एससी,एसटी,ओबीसी और जनरल (अनारक्षित वर्ग) कटेगरी के क्रमश: 16, 13, 39 और 254 अफसर हैं। 2022 में ही पूछे गए एक अन्य सवाल के जवाब में डॉ.सिंह ने सदन को जानकारी दी थी कि भारत सरकार के 91 अतिरिक्त सचिवों में से एससी-एसटी के दस और ओबीसी के चार अफसर हैं,वहीं 245 संयुक्त सचिवों में से एससी-एसटी के 26 और ओबीसी के 29 अफसर ही हैं। आख़िर निर्धारित प्रतिशत तक आरक्षण और ओवरलैपिंग से अनारक्षित श्रेणी में अतिरिक्त जगह बनाने के बावजूद उच्च नौकरशाही के हर स्तर पर आरक्षित वर्ग के अधिकारियों का न्यूनतम आनुपातिक प्रतिनिधित्व न होना,सरकार की संविधान विरोधी सोच को दर्शाता है।
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हमें दूसरी सहमति इस बात पर बनानी चाहिए कि यह समस्या 2014 में बनी मोदी सरकार में ही पैदा नहीं हुई है,लेकिन यह तथ्य और सत्य है कि उन्होंने भी इसे ठीक करने के लिए कोई कदम नहीं उठाया है। यह सच है कि यह समस्या 2014 से पहले से ही चली आ रही है। मिसाल के तौर पर,मनमोहन सिंह के यूपीए शासन के तुरंत बाद 2015 के आंकड़ों के मुताबिक, केंद्र सरकार के 70 सचिवों में कोई ओबीसी नहीं था और एससी-एसटी के तीन-तीन ही अधिकारी थे। 278 संयुक्त सचिवों में सिर्फ 10 एससी और 10 एसटी और 24 ओबीसी थे।
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तीसरी सहमति इस बात पर बनानी चाहिए कि राजकाज और खासकर नौकरशाही में तमाम सामाजिक समूहों, खासकर वंचित समूहों की हिस्सेदारी न सिर्फ अच्छी बात है, बल्कि संविधान और लोकतंत्र के सामाजिक न्याय के लिए यह ज़रूरी भी है। किसी भी संस्था का सार्वजनिक या सबके हित में होना इस बात से भी तय होता है कि इसमें विभिन्न समुदायों और वर्गों की समुचित हिस्सेदारी है या नहीं! ज्योतिबा फुले ने उस समय इस बात को बेहतरीन तरीके से उठाया था,जब उन्होंने पाया कि पुणे सार्वजनिक सभा में पिछड़ी जातियों का प्रतिनिधित्व ही नहीं है तो उन्होंने पूछा कि फिर यह सार्वजनिक सभा कैसे हुई? ज्योतिबा फुले के इस विचार को भारतीय संविधान में मान्यता मिली और अनुच्छेद 16(4) के तहत व्यवस्था की गई है कि अगर राज्य की नज़र में किसी पिछड़े वर्ग (एससी- एसटी और ओबीसी) का सरकारी नौकरियों में पर्याप्त प्रतिनिधित्व/हिस्सेदारी नहीं है तो सरकार उस वर्ग के लोगों के लिए आरक्षण की व्यवस्था कर सकती है।
उपरोक्त तीन स्थापनाओं पर सहमति के बाद हम उन कारणों पर विचार कर सकते हैं जिनकी वजह से एससी-एसटी और ओबीसी के नौकरशाहों की शीर्ष निर्णायक तथा महत्वपूर्ण पदों पर हिस्सेदारी नहीं है:
नौकरी में अलग-अलग उम्र में आना और कार्यकाल में अंतर:
1️⃣
सिविल सर्विस परीक्षा के लिए यूपीएससी के मापदंडों के हिसाब से अनारक्षित और ईडब्ल्यूएस कैटेगरी के अभ्यर्थियों की अधिकतम उम्र 32 साल निर्धारित है। ओबीसी कैंडिडेट को तीन साल और एससी-एसटी कैंडिडेट इस उम्र में पांच साल की छूट है। यानी ओबीसी कैंडिडेट 35 साल तक और एससी-एसटी कैंडिडेट 37 साल की उम्र तक ऑल इंडिया सर्विस में आ सकते हैं,लेकिन इसका एक यह भी अर्थ है कि एससी-एसटी और ओबीसी के कई कैंडिडेट,अनारक्षित और ईडब्ल्यूएस कैंडिडेट्स के मुकाबले कम समय नौकरी कर पाएंगे। यह बात बहुत महत्वपूर्ण है,क्योंकि सबसे लंबी अवधि तक नौकरी कर रहे कैंडिडेट्स से ही शीर्ष स्तर के अफसर चुने जाते हैं। उम्र में छूट की वजह से सैद्धांतिक रूप से देखा जाए तो सिविल सेवा के दो अफसरों के कार्यकाल में 16 वर्ष तक का अंतर हो सकता है,क्योंकि सभी वर्गों से एक अफसर न्यूनतम 21 साल की उम्र में और दूसरा आरक्षित वर्ग का अफसर अधिकतम 37 साल की उम्र में सर्विस में आ सकता है।
सकता है।
2️⃣
दूसरी समस्या उच्च पदों के लिए गठित एंपैनलमेंट की है। अभी व्यवस्था यह है कि सरकार का कार्मिक विभाग नियत समय की नौकरी पूरी कर चुके अफसरों से पूछता है कि क्या वे विभिन्न उच्च पदों के लिए एंपैनल होना चाहते हैं। जो सहमति देते हैं उनमें से कुछ अफसरों को उन पदों के पैनल में चुन लेती है। इसी पैनल से अफसरों को प्रमोशन के लिए चयनित किया जाता है। अभी पैनल में अफसरों को लेने की प्रक्रिया पारदर्शी नहीं है और इसमें विभाग के उच्च अधिकारियों का मंतव्य यानी उनकी राय महत्वपूर्ण होती है। चूंकि,उच्च पदों पर एससी-एसटी और ओबीसी के अफसर बहुत कम हैं तो आरक्षित वर्ग के अफसरों के प्रति एक स्वाभाविक पक्षपात हो सकता है, इस बात से इनकार तो नहीं किया जा सकता। इसलिए ज़रूरी है कि इस प्रक्रिया में पक्षपात की आशंका को न्यूनतम किया जाए और विभिन्न मापदंडों को स्कोर के आधार पर निर्धारित किया जाए। अगर ऐसा कोई निष्पक्ष सिस्टम बना पाना संभव न हो तो फिर जिन अफसरों ने एक निर्धारित कार्यकाल पूरा कर लिया है,उन सभी को पैनल में ले लिया जाए। दूसरे प्रशासनिक सुधार ट्रिब्यूनल की रिपोर्ट ने कैबिनेट सेक्रेटेरिएट के आंकड़ों के हवाले से बताया है कि अनारक्षित श्रेणी के कैंडिडेट्स औसतन लगभग 25 साल की उम्र में जबकि एससी-एसटी और ओबीसी औसतन लगभग 28 साल की उम्र में सेवा में आते हैं,यानि आरक्षित श्रेणी के कैंडिडेट अनारक्षित श्रेणी के कैंडिडेट से औसतन तीन साल कम नौकरी कर पाते हैं। प्रशासनिक सुधार ट्रिब्यूनल मानता है कि, आरक्षित श्रेणी के कई अफसर इस वजह से भी नीति निर्माता के स्तर पर नहीं पहुंच पाते हैं।
रिपोर्ट में यह भी उल्लेख किया गया है कि “आरक्षित वर्ग से बहूत कम अफसर ही सचिव स्तर तक पहुंच पाते हैं।” लोक प्रशासन पर बनी कोठारी कमेटी ने तो अनारक्षित वर्ग ही नहीं,आरक्षित वर्ग के कैंडिडेट्स के लिए भी सिर्फ दो बार परीक्षा में बैठने की सिफारिश की थी। भर्ती नीति और चयन पद्धति पर इस समिति (डी.एस.कोठारी) ने परीक्षा चक्र के डिजाइन पर सिफारिशें प्रदान कीं, जिसके परिणामस्वरूप तीन चरणों में परीक्षा की वर्तमान प्रणाली शुरू की गई: एक प्रारंभिक परीक्षा जिसके बाद एक मुख्य परीक्षा और एक साक्षात्कार। इसके अलावा,ऑल इंडिया सर्विसेज के लिए एक ही परीक्षा की योजना शुरू की गई। देश में गठित कई सुधार आयोग और समितियां इस बात पर एकमत दिखती हैं कि ज्यादा उम्र के चयनित अफसर सेवा में नहीं लिए जाने चाहिए और सुधारों में यह सुझाव बेहद उपयोगी माना जाता है। 31अगस्त 2005 को जांच आयोग के रूप में वीरप्पा मोइली की अध्यक्षता में दूसरे प्रशासनिक सुधार ट्रिब्यूनल ने सिफारिश की है कि सिविल सर्विस परीक्षा में बैठने के लिए अनारक्षित वर्ग हेतु उम्र 21 से 25 साल होनी चाहिए। ओबीसी के लिए इसमें तीन साल और एससी-एसटी के लिए अधिकतम चार साल की छूट हो। इस उम्र तक अगर लोग नौकरी में आ जाते हैं तो इस बात की पूरी संभावना होगी कि हर अफसर सचिव पद हेतु एंपैनल होने के अर्ह(योग्य) हो जाएगा। दूसरा सुझाव पहली नज़र में अटपटा लग सकता है,लेकिन अगर ज़िद है कि अफसर 32, 35 और 37 साल तक के हो सकते हैं तो ऐसा नियम बनाया जा सकता है कि किसी भी वर्ग से अफसर चाहे जिस उम्र में आए,सबको एक समान कार्यकाल मिलेगा।
3️⃣
एक और महत्वपूर्ण पहलू, किसी अफसर को काबिल और ईमानदार मानने या न मानने को लेकर है। हालांकि, प्रशासनिक सेवाओं में जाति आधारित पक्षपात को साबित कर पाना हमेशा संभव नहीं है,लेकिन उच्च पदों पर उनकी लगभग अनुपस्थिति को देखते हुए इस आशंका से इनकार भी नहीं किया जा सकता। जब 22.5% एससी-एसटी तथा 27% ओबीसी अफसर केवल आरक्षण से सर्विस में आ रहे हैं और कुछ उच्च मेरिट की वजग से ओवरलैपिंग से अनारक्षित श्रेणी में जगह ले लेते हैं, तो वे बीच में कहां लटक या अटक जा रहे हैं? दूसरे प्रशासनिक सुधार ट्रिब्यूनल ने सालाना रिपोर्ट बनाने में पक्षपात कम करने के लिए यह सिफारिश की थी कि "आउट ऑफ टर्न प्रमोशन ग्रेड" किसी भी स्तर पर सिर्फ 5-10% अफसरों को ही दिया जाए यानी कि मनमाने ढंग से प्रोमोशन पर एक सीमा तक अंकुश लगाना भी न्यायसंगत होगा। साथ ही यह भी सिफारिश थी कि गोपनीय रिपोर्ट की जगह एक नया सिस्टम ईज़ाद किया जाए,जिसमें कार्यभार पूरा करने के स्पष्ट रूप से पहचाने जाने वाले मानकों के आधार पर किसी अफसर का प्रोमोशन हेतु मूल्यांकन हो।
सरकार अगर सचमुच नौकरशाही के उच्च पदों पर सामाजिक विविधता के आधार पर न्याय या हिस्सेदारी देना चाहती है, तो उसे उपरोक्त कुछ उपायों पर गम्भीरतापूर्वक विचार करना चाहिए।

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