साहित्य

  • जन की बात न दबेगी, न छिपेगी, अब छपेगी, लोकतंत्र के सच्चे सिपाही बनिए अपने लिए नहीं, अपने आने वाले कल के लिए, आपका अपना भविष्य जहाँ गर्व से कह सके आप थे तो हम हैं।
  • लखीमपुर-खीरी उ०प्र०

Thursday, September 30, 2021

पक्की दोस्ती-बाल संवेदनाओं का संवहन-सत्य प्रकाश 'शिक्षक'

जब तक देश में रेडियो का प्रचलन रहा,तब तक घरों में बाल साहित्य प्रचुर मात्रा में पढ़ा जाता था। जब चंदा मामा, नंदन,चंपक, बालभारती जैसी पत्रिकाएं बच्चे ही नहीं बड़े भी चाव से पढ़ते थे, परन्तु भौतिकता की बढ़ती चकाचैंध में टीवी कम्प्यूटर,और स्मार्टफोन के घरों में प्रवेश होते ही, जब बचपन अनायास ही युवा और पौढ़ होता जा रहा है,तब बाल संवेदनाओं को बचाने के लिए बाल साहित्य की महती भूमिका बन जाती है। ऐसे में सिद्धहस्त लघुकथाकार सुरेश सौरभ की नवीनतम कृति बाल कथा संग्रह ‘पक्की दोस्ती‘ साहित्य जगत में कुछ आशा का संचार करती दिखाई पड़ती है। संग्रह की सभी 19 कहानियों में विविधता के साथ सरसता भी है, जो अपनी सहज भाषा शैली से पाठको का मन मोह लेने में समर्थ हैं। ये बाल कथाएँ मनोरंजन के साथ-साथ एक अदर्श भी प्रस्तुत करतीं हैं, जो बाल मन को भविष्य के लिए सुनागरिक बनने की प्रेरणा भी प्रदान करती हैं। इस संग्रह में ‘पापा जल्दी आ जाना‘ तथा ‘मैं अभिनंदन बनना चाहता हूँ‘ नामक कथाएँ देश प्रेम की प्रेरणा देती है,तो ‘पक्की दोस्ती‘ और ‘नन्दू सुधर गया‘ आदि कहानियाँ समझदारी के साथ नसीहत देती प्रतीत होती है। ‘पक्की दोस्ती‘ बाल कथा संग्रह से ऐसी प्रेरणा मिलती है, जिससे उनका बचपन असमय परिपक्व न हो, क्योंकि बचपन से ही बच्चा बना रहना, बाल संवेदनाओं और घर-परिवार, समाज और देश के लिए सुखदायी है।

   सौरभ जी की रचनाएँ देश के प्रसिद्ध अखबारों पत्रिकाओं में प्रकाशित और चर्चित हो रहीं हैं। अस्तु आशा ही नहीं वरन पूर्ण विश्वास है कि श्वेतर्णा प्रकाशन दिल्ली से प्रकाशित सुरेश सौरभ की कृति ‘पक्की दोस्ती‘ हिन्दी साहित्य को समृ़द्ध करेगी।

पुस्तक-पक्की दोस्ती (बाल कहानी संग्रह)
लेखक-सुरेश सौरभ
प्रकाशन-श्वेतवर्णा प्रकाशन नई दिल्ली।
मूल्य-80रू
पृष्ठ-64
समीक्षक-सत्य प्रकाश ‘शिक्षक‘
पता-कीरत नगर टेलीफोन एक्सचेन्ज के पीछे लखीमपुर-खीरी पिन-262701
मो-7985222074

Thursday, September 16, 2021

हिन्दी हैं हम-अखिलेश कुमार 'अरुण'

आन-बान-शान-
'हिंदी' है अभिमान,
सिरमौर बने यह भाषा-
जो दे मुझे मेरी पहचान।
तुझे-
लाज क्यों है?
लजाता मनुज
तूं अपनी भाषा को,
है क्यों? छिपाता।
क्या तेरी भाषा, अपनी भाषा नहीं है?
किराए की भाषा का खेवनहार तूं-
शेखी बघारता, 
आल्हादित होते हुए, 
किराए के महल की बादशाहत-
तुझे लज्जित नहीं करती?
लाज आती है तुझे, 
तूं शर्माता भी बहुत है-
जब तूझे कहे कोई 'ई देखो, हिन्दी बोलता है।'
ज़बाब क्यों नहीं देता? 
पलट कर-
हिन्दी है हम, 
हमारी भाषा है हिन्दी।
सारे देश को पिरोती-
यह संस्कृत की सूता है,
जो सूत बन-
कन्याकुमारी से कश्मीर 
और 
गुजरात से अरूणाचल तक 
मोतीमाला को संजोए हुए है,
देश की अखंडता और गौरव का प्रतीक- 
सर्वहारा की अभिव्यक्ति
जिसे हम और हमारा कुनबा समझता है।
सर्वोच्च न्यायालय की समझ से बाहर
जो न, हमें समझे-
न हम उसे समझें, क्योंकि-
वह गरीबों की भाषा नहीं बोलता।
हमारी भाषा हमारी पहचान है।
और आन-बान-शान है,
हिंदी हैं हम हिन्दी पहचान है।

(प्रकाशित वुमेन एक्सप्रेस, दिल्ली १४ सितम्बर २०२१ के अंक में और इन्दौर समाचार, मध्यप्रदेश के १६ सितंबर २०२१ के अंक में)

अखिलेश के अरुण
ग्राम-हजरतपुर, पोस्ट-मगदापुर
जिला-लखीमपुर-खीरी
मो.न.8127698147

हिन्दी को दिवस की जगह व्यवहारिक और व्यवसायिक बनाईए-अखिलेश कुमार अरुण

ए०के० अरुण
आज के समय में हिन्दी को जिन्दा रखने में सबसे अहम भूमिका कोई निभा रहा है तो वह है सोशल मीडिया वह भी ट्वीटर को छोड़कर, ट्वीटर जहां अंग्रेजियत का पर्याय है वहीं फेसबुक हिन्दी का वैश्विक पटल बना हुआ है। नामचीन लेखकों में सुमार एक से एक हस्तियां अपने पाठकों की टोह में फेसबुक के शरणागत हुए अपनी कविता, कहानी, समसामयिक विषयों पर आलेख संस्मरण आदि चिपका रहे हैं वह अलग बात है कि उनके लेख की सार्थकता स्वरूप कमेन्ट के रूप में बधाई, बहुत अच्छे, सुन्दर रचना, नाईस आदि से ही संतोष करना पड़ रहा पर इतना जरूर है वह अपनी लेखकीय धमक को जमाने में कामयाब रहे हैं।

हिंदी जनसामान्य की आवाज बनी हुई है कहीं इसलिए भी इसकी अनदेखी तो नहीं की जा रही कि हिंदी विश्व स्तर की भाषा न बन सके। भारत देश में वंचितों, शोषित, गरीब, मजदूर, मजलूमों के साथ क्या हो रहा है इसकी भनक दूसरे अन्य देशों को ना लगे। आप देखेंगे तो अंग्रेजी के अखबार से ऐसे-ऐसे न्यूज़ निकल कर आते हैं जिनका सरोकार जमीनी स्तर से बिल्कुल नहीं है किंतु विश्व पटल पर वाहवाही लूटी जा रही है।

बीते इतिहास के दिनों में जाएं तो हम देखते हैं कि संस्कृति शासक, सामंत या सवर्ण उच्च जातियों की भाषा रही है जो 'खग ही जाने खग की भाषा' के नक्शे कदम पर चल कर अपनी सामंत शाही सत्ता को बनाए रखने में इसे साधन के रूप में प्रयोग किया है। जहां इस प्रकार के ग्रंथों का निर्माण किया गया जो शोषण पर आधारित थे वही हुबहू आज के दौर में हो रहा है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में नौकरशाही, सामंत शाही का पर्याय बनी हुई है जिसकी अपनी भाषा है अंग्रेजी। संघ लोक सेवा आयोग से लेकर राज्य लोक सेवा आयोग तक अंग्रेजी को महत्व देने के चलते हम एक शासकवर्ग का निर्माण कर रहे हैं जो आने वाले समय में ऐसे नीति नियमों को लेकर आ रहे हैं जो केवल और केवल नौकरशाही को पुष्ट कर रहा है तथा एक बड़े तबके को हाशिए पर धकेल रहा है।

अंग्रेजी माध्यम से पढ़े लिखे युवाओं का भविष्य उन्नत है क्योंकि आज के वर्तमान स्वरूप में योग्यता की जगह अंको को अधिक महत्व दिए जाने के कारण हिंदी माध्यम के  स्कूलों की अपेक्षा अंग्रेजी माध्यम के स्कूल छात्रों को अंक प्रदान करने में कहीं आगे हैं वह अलग बात है आईआईटी जैसी परीक्षा में सफलता प्राप्त करने में राज्य बोर्ड के बच्चे आगे आ रहे हैं।

कुछ अजीब सा नहीं लगता है कि हम अपनी मातृभाषा के कुशल मंगल के लिए १४ सितम्बर से १५ दिन पखवाड़ा मनाते हैं। जगह-जगह सभाएं की जाती हैं, स्कूल-कालेजों में हिंदी पढ़ना, लिखना और बोलने का संकल्प दिलवाते हैं। रेलवे, बस स्टेशन और सरकारी कार्यालयों में “हिंदी में काम करना राष्ट्रीयता का घोतक है।” तख्ती टंगवाते हैं। इन कर्तव्य निर्वहनों द्वारा हम कितना न्याय कर पा रहें हैं। अपनी भाषा के विकास के लिए बाद हम अपने लड़के को इंग्लिश बोर्डिंग के स्कूल में ही पढ़ने को भेजते हैं। उसकी गिटर-पिटर के इंग्लिश पर पुलकित होकर असीम सुख पाते हैं। तोतले मुंह बच्चे को वाटर, ब्रेड, नुडल्स, कहना सिखाते हैं। और यही सब हम आप को अपनी सोसायटी से अलग करती है और अपनी इस पहचान को मिटा कर समान्य लोगों से अलग होने का दंभ भरते हैं। विलायती भाषा को सीखना गर्व की बात है किन्तु अपनी भाषा को भूल जाना शर्म की बात भी तो है। भारतेंदु जी भी लिखते है-

निज भाषा उन्नति अहै, सब भाषा को मूल।
बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटें न हिय को शूल।।

 अंग्रेजी माध्यम से पढ़ने वाला छात्र बड़े सलीके से कहता है कि उसकी हिंदी कमजोर है। लज्जित होने की अपेक्षा अपने को गौरवान्वित महसूस करता है 'वाह जी वाह तुमको हिंदी नहीं आती और झेंपना हमको पड़ता है । अस्सी-नब्बे नब्बे दशक के हिरो फिल्मों में अंग्रेजी के चार शब्द विलायत से पढ़कर आने वाली मैम(हिरोइन) के सामने चबा जाए तो दर्शकों की तालियों की गड़गड़ाहट से हिंदी प्रेमियों पर क्या बीतती है पुछिए मत, किसी के योग्यता का परिचायक केवल अंग्रेजी ही हो सकती है क्या? ऐसा है तब तो होटल का बैरा, टूरिस्ट गाइड आदि जो अंग्रेजी अच्छी तरीके से बोल लेते हैं, समझ लेते हैं। उन्हें अन्य विषयों में प्राप्त डाक्टरेड मानद उपाधि के समकक्ष बिठाया जाना चाहिए। हम मातृभाषा के इतर किसी अन्य भाषा को बोलने में कौशल प्राप्त कर लेते हैं तो यह हमारी भाषाई-कौशल होगी न कि योग्यता का परिचायक है।

हम अपनी भाषा को विदेशी भाषाओं से कमतर आंकते हैं। हमारे यहाँ का डॉक्टर ,वकील, अधिकारी, वैज्ञानिक हिंदी में बात करने पर गिल्टी फील करते हैं। वहीं अन्य देशों चीन, जापान, अमेरिका,  फिलिपिन्स, आदि देशों के डाक्टर, वैज्ञानिक आदि अपनी भाषाओं को बोलने में गर्व महसूस करते है। इसलिए उनकी भाषा फल-फूल रही है। चीनी  मन्दारिन विश्व में बोली जाने वाली पहले नम्बर की भाषा है, दूसरे नंबर पर अंग्रेजी आती है और तीसरे नम्बर की भाषा हिन्दी है, सबसे दिलचस्प बात यह है कि हम भारतीय ब्रिटेन की अंग्रेजी बोलते हैं, अमेरिकन्स अंग्रेजी बोलने वालों को अंग्रेजी भाषा से बाहर कर दें तो हिंदी दूसरे नम्बर की भाषा बन जाएगी यह अंग्रेजियत पर सबसे बड़ा प्रहार होगा। 

हम भारतीय (आज के छात्र) तो देवनागरी में अंको के लेखन जानते ही नहीं १,२,३,४,५...... और तो और ७८, ६९, ५९ आदि नम्बर लिखने को बोल दीजिए तो पढ़े-लिखे मूर्ख बन बैठते हैं सेवेन्टी एट, सिक्सटी  नाइन समझ में आता है पर हिन्दी में गिनती लिखना नहीं आता, वह कौन सी बला है? 

अंग्रेजी स्कूल में नौनिहाल जिस दिन गलती से हिंदी के एक शब्द का प्रयोग कर लेते हैं। उस दिन उन्हें दण्डित होना पड़ता है। अपनी भाषा का इससे बड़ा अनादर और क्या हो सकता हैं। जिस बच्चे को बचपन में हिन्दी बोलने पर दंड का भागीदार बनना पड़े उसे क्या हिंदी से घृणा न होगी। वह हिंदी का सम्मान क्यों करेगा? हिंदी के अजीज प्रेमी जो अपनी गाड़ी पर हिंदी में नम्बर प्लेट का लेखन करवाते हैं। उनके सम्मान में राजधानी क्षेत्र दिल्ली में ही नहीं बल्कि सभी राज्यों में (मोटर व्हीकल अधिनियम 1988 के अंतर्गत धारा 50 डी संदर्भित है कि गाड़ी के नम्बर-पट्टी पर हिंदी में नंबर लिखवाना कानूनन अपराध है।) का उपहार दिया जाता है, अब हिंदी के सम्मान में कौन खड़ा होगा? जिसके गाड़ी का चालान हो रहा है वह या जो बचपन में अपने यार-दोस्तों में हिंदी बोलने के कारण अपमानित हुआ है वह। 

हम अपनी भाषा से अगर वास्तव में प्यार करते हैं। और उसका सम्मान करते हैं तो हिंदी के लिए साल का एक दिन न होकर वल्कि वर्ष के पूरे ३६५ दिन हिंदी के ही नाम होना चाहिए। हमें जहाँ कहीं जब भी मौका मिले हिंदी के उत्थान की ही बात करें। तभी हमारी हिंदी हमारी न होकर बल्कि विश्व की हो सकेगी और इसका भी मान-सम्मान देश-विदेश में होगा। अपने आस्तित्व को लेकर हिंदी आँसू नहीं बहायेगी और न ही उसे इंग्लिश के सामने अपमानित ही होना पड़ेगा। जब तक हम हिन्दी को व्यवसायिक भाषा के रूप में स्वीकार नहीं करते हैं तब तक हिंदी उत्थान नहीं हो सकता लाख कोशिश कर लीजिए, सम्मेलन कर लीजिए या भी हिन्दी दिवस, पखवाड़ा नहीं सालाना मना लीजिए या तो स्वीकार कर लीजिए कि हम अहिन्दी ही सही हमें हिंदी से कुछ नहीं सरोकार...इस दिखावे से हिंदी को मुक्ति तो मिलेगी।
प्रकशित-प्रवासी सन्देश (मुम्बई) महाराष्ट्र से १४ सितम्बर २०२१ के अंक में

ग्राम-हजरतपुर, पोस्ट-मगदापुर
लखीमपुर खीरी २६२८०४
मोबाइल-८१२७६९८१४७

किसान आंदोलन क्यों कर रहे हैं, यह समझने के लिए शिमला के सेब किसानों का एक सटीक और सार्थक उदाहरण दिया जा सकता है- नन्द लाल वर्मा

नन्दलाल वर्मा (प्रोफ़ेसर)
         शिमला (हिमाचल प्रदेश) में सेब के बाग है और वहां के किसानो से छोटे- छोटे स्थानीय व्यापारी सेब ख़रीदकर देश भर में भेजते थे। इन व्यापारियों के छोटे-छोटे गोदाम थे। पूँजीपति अड़ानी की नज़र इस कारोबार पर पड़ी। हिमाचल प्रदेश में भाजपा की सरकार थी तो अड़ानी को वहाँ ज़मीन लेने और बाक़ी काग़ज़ी कार्यवाही में कोई दिक़्क़त नहीं आयी। अड़ानी ने वहाँ पर बड़े- बड़े गोदाम बनाए। सैंज,रोहडू और बिथल में बनाये गए गोदाम स्थानीय व्यापारियों के गोदामों से हज़ारों गुना बड़े हैं।

        जब अड़ानी ने सेब ख़रीदना शुरू किया तो छोटे व्यापारी जो सेब किसानो से 20 रुपए किलो के भाव से ख़रीदते थे, अड़ानी ने वही सेब 25 रुपए किलो ख़रीदना शुरू कर दिया। अगले साल अड़ानी ने रेट बढ़ाकर 28 रुपए किलो कर दिया। अब धीरे - धीरे छोटे व्यापारी वहाँ ख़त्म हो गए, अड़ानी से प्रतिस्पर्धा करना किसी स्थानीय व्यापारी के बस का नहीं था। जब वहाँ अड़ानी का एकाधिपत्य स्थापित हो गया तो तीसरे साल से अड़ानी ने किसान के सेब का भाव कम करना शुरू कर दिया और यदि इसकी असलियत देखना हो तो शिमला जाकर देखी जा सकती है।

         आज वहां एक भी छोटा व्यापारी बचा नहीं है।अब अड़ानी को कम मूल्यों पर सेब बेचना वहां के किसानों की मजबूरी सी बन गयी है। अब अड़ानी किसानों से मनमर्जी कीमत मैं जो सेब ख़रीदता है और उस पर एक-दो पैसे का अड़ानी लिखा अपना स्टिकर चिपका कर उसी सेब को 200-250 रुपए किलो बाज़ार में बेचा जा रहा है। अब बताइए, क्या अड़ानी ने वह सेब उगाए हैं ? सेब किसान उगाए और फसल की कीमत का लाभ कोई दूसरा उठाये,यह कितना तार्किक और न्यायसंगत है? किसानों की हाड़-मांस की कमाई पर दूसरे पूंजीपतियों द्वारा डाले जाने वाले डाके की इस राजनीति और कूटनीति के निहितार्थ को समझने की जरूरत है। अगर सरकार ही इसमें शामिल होती दिख रही है तो इस सरकार को लोकतांत्रिक सरकार कहलाने का नैतिक अधिकार खत्म हो जाता है। यह सरकार पूंजीपतियों की सरकार के रूप में काम करते हुए भारतीय संविधान की सारी स्थापनाओं, मर्यादाओं और मूल्यों का खुला उल्लंघन माना जाना चाहिए और संविधान की सुरक्षा और पालन की संवैधानिक जिम्मेदारी को देश की सर्वोच्च अदालत को स्वतः संज्ञान लेते हुए आम आदमी के हितों और भविष्य की सुरक्षा करनी चाहिए। अभी कुछ समय से देश की न्यायपालिका की न्याय व्यवस्था पर भी तरह तरह के सवालिया निशान लगने लगे थे लेकिन चीफ जस्टिस रमना के आने और उनकी कार्यसंस्कृति और शैली से एक नई आशा की किरण चमकने की उम्मीदें जगी हैं।

         इसी तरह टेलिकॉम (दूरसंचार) इंडस्ट्री की मिसाल भी आपके सामने हैं। कांग्रेस की सरकार में 25 से ज़्यादा मोबाइल सर्विस प्रवाइडर थे। जिओ ने शुरू के दो-तीन साल फ़्री कॉलिंग, फ़्री डेटा देकर सबको समाप्त कर दिया। आज केवल तीन सर्विस प्रवाइडर ही बचे हैं और बाक़ी दो भी अंतिम साँसे गिन रहे हैं। अब जिओ ने रेट बढ़ा दिए। रिचार्ज पर महीना 24 दिन का कर दिया। पहले आपको फ़्री और सस्ते की लत लगवाई अब जिओ अच्छे से आपकी जेब काट रहा है।

        कृषि बिल अगर लागू हो गये तो गेहूँ ,चावल,सब्जी,दाल,तेल जो एक आम आदमी की दिनचर्या में एक आबश्यकता के रूप में शामिल है और दूसरे कृषि उत्पादों का भी यही हाल होगा। पहले दाम घटाकर बड़े पूंजीपति छोटे व्यापारियों को ख़त्म करेंगे और फिर मनमर्ज़ी रेट पर किसान की उपज ख़रीदेंगे। जब उपज केवल अड़ानी जैसे लोगों के पास ही होगी तो बाज़ार पर इनका एकाधिकार और वर्चस्व होगा और सेब की तरह वे बेचेंगे भ अपने रेट पर। अब सेब की महंगाई तो आम आदमी या उपभोक्ता बर्दाश्त कर सकता है क्योंकि उसको खाए बिना उसका काम चल सकता है लेकिन दाल, रोटी,सब्जी और चावल तो हर आदमी को चाहिए ।

       अभी भी वक्त है, जाग जाइए, आज देश के किसान सरकार से लगभग नौ महीने से लड़ाई केवल अपनी लड़ाई ही नहीं लड़ रहे हैं,बल्कि  देश के 100 करोड़ से अधिक मध्यमवर्गीय / निम्नवर्गीय परिवारों की भी लड़ाई लड़ रहा है।यदि किसान आंदोलन से सरकार प्रभावित या बैक फुट पर नही जाती है तो कृषि कानूनों के लागू हो जाने के बाद एक आम आदमी के परिवार की थाली की रोटी,दाल,सब्जी ,तेल और चावल इतना महंगा हो जाएगा जिसकी कोई कल्पना नही की जा सकती है। इसलिए मैं समझता हूं कि अब किसानों का आंदोलन धर्म,क्षेत्र ,जाति और राजनीति से कहीं ऊपर उठकर एक जनांदोलन का रूप देने का वक्त आ गया है। देश एक बार फिर इन पूँजीपतियों की गुलाम बनने की दिशा में जाता हुआ दिख रहा है। कृषि कानून लागू होने के बाद देश मे खाद्यान्न सुरक्षा कार्यक्रम निकट भविष्य में किस कदर दम तोड़ता नज़र आएगा ,इसकी परिकल्पना भी नही की जा सकती है।देश का आम नागरिक अपनी पेट की भूख शांत करने और जिंदा रहने के लिए इन पूंजीपतियों के रहमोकरम पर होगा। सरकार के तीनों कृषि कानून किसानों के लिए तो फांसी के फंदे हैं ही और साथ ही ये आम आदमी के लिए दूसरी गुलामी की दस्तक भी।

       मुज़फ्फरनगर में हुई किसान मोर्चा की संयुक्त महापंचायत से किसान आंदोलन की दिशा और दशा में एक अभिनव परिवर्तन की आहट दिखाई दी।धर्म,जाति और क्षेत्रीय सीमाओं से परे इस महापंचायत और उसके तुरंत बाद हरियाणा सरकार के कथित मिनी सचिवालय पर किसानों का धरना प्रदर्शन सत्तारूढ़ भाजपा ,उसके पैतृक और आनुषंगिक संगठनों में सन्निकट विधानसभा चुनावों के मद्देनज़र बेचैनी जरूर पैदा करने में सफल होता दिखता है। जमीनी स्तर से भी अब यह आवाज उठती नज़र आ रही है कि जिन समाजों  ने  2014,2017 और 2019 में अपने सामाजिक - राजनैतिक दल को छोड़कर बीजेपी के पक्ष में मतदान कर बड़ी गलती कर दी और अब वह उस गलती की पुनरावृत्ति नही करना चाहता और साथ ही यह भी निकलकर आ रहा है कि जो विपक्षी दल बीजेपी को हराने की स्थिति में दिखाई देखा धर्म और जाति से परे हटकर उसी दल के पक्ष में मतदान करने के मूड में दिखाई दे रहे हैं। स्वास्थ्य, शिक्षा,महामारी और बेरोजगारी से बुरी तरह टूट चुकी आम जनता बीजेपी शासन से इस कदर नाराज़ है कि वह बीजेपी को हराते हुए किसी भी विपक्षी दल के साथ जाने का मन बनाता हुआ दिखने लगा है। इन स्थितियों से एक तस्वीर चाहे वह धुंधली ही क्यों न हो, उभरती नज़र जरूर आ रही है कि राजनैतिक माहौल बीजेपी के लिए सुखद नही है। किसान आंदोलन के प्रति सरकार के अमानवीय,असंवेदनशील, हठधर्मी और उपेक्षापूर्ण रुख से गांव के किसानों और उसके सहयोगी कृषि मजदूरों में सत्तारूढ़ भाजपा के प्रति एक समावेशी आक्रोश उभरता हुआ नजर आ रहा है। संवैधानिक सामाजिक न्याय पर हो रहे अनवरत कुठाराघात और संविधान समीक्षा के नाम पर अप्रत्यक्ष रूप से आरक्षण खत्म करने की साजिश को ओबीसी,एससी और एसटी अच्छी तरह समझने की स्थिति में  है, जिसकी नकारात्मक प्रतिक्रिया भी बीजेपी के लिए आग में घी डालने जैसी स्थिति से निपटना आसान नही होगा। अभी हाल ही में सम्पन्न हुए पंचायत चुनावों के परिणामों से आम जनमानस में यह संदेश जा चुका है कि सत्तारुढ़ बीजेपी के प्रति लोगों का लगाव/झुकाव कम हुआ है,उससे चुनावी टक्कर लेने की स्थिति में यदि कोई दल है तो वह है, समाजवादी पार्टी क्योंकि, समाजवादी पार्टी  जिला पंचायत अध्यक्ष और ब्लॉक प्रमुख के चुनाव में पूरे दमखम के साथ एक मजबूत विपक्ष के रूप में सत्तारूढ़ दल के साथ लड़ता हुआ दिखाई दिया है और अन्य विपक्षी दलों की भूमिका लगभग नगण्य दिखाई दी,बीएसपी ने तो अपने को चुनाव से अलग कर यह लगभग साबित करती दिखी कि वह अप्रत्यक्ष रूप से बीजेपी को लाभ देने उसकी रणनीति का हिस्सा है।इससे पूर्व भी कई राजनैतिक अवसरों पर भी बीएसपी बीजेपी के साथ ही नज़र आती रही। जमीनी स्तर पर और राजनैतिक गलियारों में यह चर्चा जोड़ पकड़ती जा रही है कि बीजेपी के सामने यदि ऊई टिकता नज़र आ रहा है, तो वह है समाजवादी पार्टी और इस अवसर का भरपूर राजनैतिक लाभ समाजवादी पार्टी को मिलने की संभावना हो सकती है।यह सपा की रणनीति पर निर्भर करेगा कि वह इसका कितना राजनैतिक नकदीकरण करने की स्थिति में होगी!

          2014 के चुनाव से पूर्व से आज तक कांग्रेस विरोधी और झूठे प्रचार से देश की भोली-भाली जनता की भावनाओं से खिलवाड़ किया गया है जिसे अब वह अच्छी तरह समझ और ऊब चुकी है। सांविधानिक संस्थाओं को पंगु कर और आम आदमी की आवाज राष्ट्रीय मीडिया के अधिकांश भाग को खरीदकर  सरकार ने अपने लोकतांत्रिक तानाशाही चरित्र की बड़ी मिसाल क़ायम कर लोकतंत्र की निर्मम हत्या जैसा कृत्य किया है। सत्तारूढ़ बीजेपी की कथनी और करनी का रिपोर्ट कार्ड यदि ईमानदारी से तैयार कर उसका विश्लेषण किया जाए तो वह आम आदमी के किसी भी सरोकार पर खरी साबित नही हुई है। मेरा मानना है कि आज जो भी मंदिर- मस्जिद,हिन्दू- मुसलमान,भारत- पाकिस्तान अर्थात अदृश्य,काल्पनिक और झूठी राष्ट्रभक्ति की अंधभक्ति में डूबे हुये हैं और जिनकी आज मानवीय संवेदनाएं किसानों के साथ नहीं है,उन्हें सजग और सतर्क हो जाने की जरूरत है क्योंकि, भविष्य में देश के आम आदमी और उसकी सुरक्षा में रात दिन सरहद पर तैनात सैनिकों के परिवार के साथ होने वाले एक बड़े अन्याय और धोखे की साज़िश को अंधी राष्ट्रभक्ति की भट्टी में झोंकने से बचे ,यही सच्ची राष्ट्रभक्ति की मिसाल होगी।

जय जवान - जय किसान।

लखीमपुर-खीरी

8858656000, 9415461224

Monday, September 06, 2021

तो क्या ‘जातिवार जनगणना’ अब नया गेम चेंजर होगी -अजय बोकिल

अजय बोकिल
देश में जातिवार जनगणना का मानस बनाने जिस सुविचारित ढंग से चालें चली जा रही हैं, उससे साफ है कि आगामी चुनावों का यह कोर मुद्दा होगा। इसकी डुगडुगी घोर जातिवाद में पगे ‍िबहार से बजना स्वाभाविक ही था। एनडीए का हिस्सा रही जद यू और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के नेतृत्व में भाजपा सहित 11 दलों के प्रतिनिधिमंडल ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से भेंटकर उन्हें जातिवार जनगणना की जरूरत से अवगत कराया और पीएम ने भी ‘गंभीरता’ से उनकी बात सुनी। हालांकि प्रतिनिधिमंडल में शामिल ज्यादातर पार्टियां एक-दूसरे की राजनीतिक विरोधी हैं, लेकिन जातिवार जनगणना पर उनमें आम सहमति है, क्योंकि जाति का राजनीतिक स्वीकार ही इन पार्टियों के सियासी अस्तित्व की गारंटी भी है। संकेत यही है कि जातिवार जनगणना के बारे में मोदी सरकार जल्द फैसला लेने वाली है। और यह फैसला जातिवार जनगणना से भाजपा को होने वाले राजनीतिक नफे- नुकसान को ध्यान में रखकर लिया जाएगा। मंथन इसकी ‘टाइमिंग’ को लेकर है ताकि जातिवार जनगणना की घोषणा का अधिकतम राजनीतिक लाभांश भाजपा अपने खाते में दर्ज करा सके। इस जातिवार जनगणना का मुख्य फोकस अन्य पिछड़ा वर्ग में शामिल उन जातियों पर होगा, जिनकी संख्‍या को लेकर हमेशा एक भ्रम का वातावरण रहा है। यूं कहने को नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव ने तर्क दिया है कि एक बार जनगणना हो जाएगी तो सभी जातियों की आबादी की स्थिति स्पष्ट हो जाएगी। इसी आधार पर गरीबों को सरकारी योजनाअों का लाभ मिल सकेगा। सही आंकड़ों के अभाव में अभी कई समूहों को सरकार की नीतियों का लाभ नहीं मिल पा रहा है।  लेकिन खुला रहस्य यह है कि जातिवार जनगणना का मकसद सियासी दलों द्वारा  अोबीसी वोट बैंक अपने लिए सुरक्षित करना है। क्योंकि इन्हीं जातियों के वोटरों की सत्ताधीशों के चुनाव में अहम भूमिका होगी। पार्टियों के साथ जातियों की प्रतिबद्धता और अलगाव भी सु‍िनश्चित हो सकेगा। उन्हें गोलबंद करना ज्यादा आसान होगा।  
इस देश में आखिरी बार जातिवार जनगणना 1931 में अंग्रेजों के जमाने में हुई थी। यही व्यवस्था 1941 की जनगणना में लागू रही, लेकिन सरकार ने जातियों के आंकड़े जारी नहीं किए। 2011 में भी  समाजार्थिक तथा जातीय जनगणना की गई थी, लेकिन जातिवार जनगणना के आंकड़े सरकार ने कभी जारी नहीं किए। लिहाजा आज भी 1931 के डाटा के आधार पर जातिवार जनसंख्या के अनुमान लगाए जाते हैं, जिनमें अोबीसी के साथ-साथ दलित, आदिवासी और सवर्ण  भी शा‍िमल हैं। स्वतंत्र भारत में अनुसूचित जाति और जनजाति की गणना तो हुई, लेकिन बाकी जातियों की जनसंख्या को ‘जनरल’ मान लिया गया। इसके पीछे कारण हिंदू समाज को घोषित रूप में बंटने से रोकना भी हो सकता है। 
लेकिन जमीनी सच्चाई है कि भारत में चुनावी रणनीतियां जातियों के समर्थन और विरोध को ध्यान में रखकर ही बनती आई हैं। अब इसमे धर्म का एंगल भी पूरी ताकत से शामिल हो गया है। शायद ही कोई राज्य होगा, जिसमें जाति का गणित सत्ता की शतरंज पर अहमियत न रखता हो। क्योंकि जातियों की सत्ताकांक्षा चुनाव के माध्यम से प्रस्फुटित होती है। उनकी गोलबंदी और दंबगई सरकारों को अपेक्षित नीतियां और सुविधाएं देने पर विवश करती है। जातीय आधार पर समाज और देश का यह विभाजन वास्तव में ‘एक राष्ट्र’ और धार्मिक एकता की भावना के विपरीत ही है, लेकिन अब इसी को ‘मजबूत राष्ट्र’ के लिए ‘अनिवार्य मजबूरी’ के रूप में पेश किया जा रहा है। मंडल-कमंडल राजनीति ने देश में जाति के आधार पर मतदाताअों की नई गोलबं‍दी को जन्म दिया, उसे पल्लवित किया। अब भाजपा ने भी इसे सत्ता के खेल की अपरिहार्य शर्त के रूप में स्वीकार करते हुए, इसका दोहन अपने पक्ष में करने की पूरी तैयारी कर ली है। 
यहां सवाल उठ सकता है कि जा‍तीय विभाजन और गोलबंदी का लाभ हाल के वर्षों में ‍िकस राजनीतिक पार्टी को सबसे ज्यादा मिला है? सामाजिक समरसता की माला जपते-जपते किस पार्टी ने जाति के मनकों को बड़ी चतुराई से अपने पक्ष में फेरा है तो इसका जवाब भारतीय जनता पार्टी ही है। 90 के दशक में भाजपा ने ‘सवर्णों और ‍बनियों की पार्टी’ होने का चोला उतार फेंका और देश और राज्यों की सत्ता पर काबिज होने के लिए सभी धार्मिक और जातिगत गोलबंदी के नुस्खे आजमाना शुरू किए। जिसका नतीजा है कि आज लगभग एक दर्जन राज्यों और दिल्ली के तख्‍त पर उसका कब्जा है। हालांकि अोबीसी मतदाता का देश और प्रदेश के चुनावों में रूझान हमेशा एक सा नहीं होता। स्थानीय तकाजे इस बदलाव का कारण होते हैं। बावजूद इसके बड़े पैमाने पर पिछडी जातियां धीरे-धीरे कैसे भाजपा के भगवा शामियाने तले एकजुट होने लगीं, इसे लोकनीति-सीएसडीएस के सर्वे के आंकड़ों से समझा जा सकता है। 
‘लोकनीति-सीएसडीएस’ के संजय कुमार की ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ में छपी रिपोर्ट बताती है ‍कि बीते 25 सालो में अोबीसी का भाजपा को समर्थन किस तेजी से बढ़ा है। हालांकि पिछले दो लोकसभा चुनाव ने सिद्ध किया है कि बीजेपी ने पिछड़े वर्ग के साथ साथ दलित, आदिवासी और सवर्णों में भी अपना वोट बैंक विस्तारित किया है। अोबीसी में भाजपा की बढ़ती घुसपैठ के चलते दूसरी जातिकेन्द्रित पार्टियों में गहरी चिंता है। ऐसे में वो जातियों की सही संख्या जानना चाहती हैं ताकि बीजेपी की जातीय गोलबंदी को ‘ब्रेक’ किया जा सके। सीएसडीएस सर्वे बताता है कि किस तरह मंडल आंदोलन के बाद से अोबीसी वोट बैंक कांग्रेस और क्षेत्रीय पार्टियों से किस तरह बीजेपी के पक्ष में शिफ्ट होता गया है। अोबीसी को ‘कर्मवीर जातियां’ भी कहा जाता है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को पिछड़ा वर्ग के चेहरे के रूप में प्रचारित करने से भी भाजपा को फायदा हुआ है। यह सचाई है कि आजादी के बरसों बाद तक राजनीति में सवर्णों के वर्चस्व को चुनौती देने वाला अोबीसी मानस मोदी के रूप में अपना वर्चस्व देखकर मानसिक रूप से भी संतुष्ट होता है। मोटे तौर माना जाता है कि देश में अोबीसी की जनसंख्‍या कुल का आधे से ज्यादा यानी करीब 52 फीसदी है। इसके तहत लगभग 6 हजार जातियां आती हैं। वास्तविक संख्या इससे ज्यादा भी हो सकती है। उसी आधार पर सत्ता और संसाधनों में हिस्सेदारी भी अपेक्षित होगी। 
जातिवार जनगणना का अंतिम लाभांश यदि भाजपा के खाते में जाने की पूरी संभावना हो तो उसे जातिवार जनगणना कराने में कोई ऐतराज न होगा। इसके लिए नए तर्क और जुमले भी गढ़ लिए जाएंगे। जातीय अस्मिता को हिंदुत्व के जयगान की अनिवार्य सरगम के रूप में प्रचारित किया जाएगा और इसकी कोई ठोस काट जाति आधारित क्षे‍त्रीय पार्टियों के पास न होगी। अलबत्ता क्षेत्रीय अस्मिता की राजनीति करने वाली पार्टियों पर इसका ज्यादा असर नहीं होगा। जहां तक सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी कांग्रेस का सवाल है तो उसकी दुविधा और बढ़ेगी कि जातीय आधार पर वह किस वोट बैंक को साधे और किसे छोड़े। 
दरअसल देश के जातीय आधार पर विभाजन का वैधानिक स्वीकार सर्व समावेशिता के सिद्धांत का विलोम ही है। लेकिन यदि यह देश आरक्षण में ही देशहित का रक्षण बूझ रहा हो तो कोई कुछ नहीं कर सकता। तय मानिए कि जातिवार जनसंख्या के आंकड़े सामने आने के बाद धार्मिक से ज्यादा जातीय तुष्टिकरण की राजनीति हमे देखने को मिलेगी, जिसकी जमीन तैयार हो रही है। जिसका अगला लक्ष्य आरक्षण की सीमा 50 फीसदी से ज्यादा बढ़वाना है। आश्चर्य नहीं कि आगामी सालों में बची खुची अनारक्षित जातियां भी खुद को अोबीसी में शामिल कराने के लिए दबाव बनाएं। क्योंकि जब सभी ‘पिछड़े’ हो जाएंगे तो ‘अगड़े’ का झंझट ही खत्म हो जाएगा। वैसे भी कई क्षेत्रों में सामान्य और कुछ अोबीसी में अंतर केवल नाम को रह गया है। ऐसे में पूर्व से स्थापित जातियों को अोवरटेक करने में अोबीसी का ज्यादा वक्त नहीं लगेगा। हम कुछ जातियों को आरक्षण से बाहर करने का आंदोलन भी देख सकते हैं। क्योंकि आरक्षित जातियों की बढ़ती संख्या के कारण संसाधनों के माइक्रो लेवल तक बंटवारे और बढ़ती अपेक्षाअों का नया घमासान मचेगा। हर बात में ‘कोटा सिस्टम’ चलेगा और आगे चलकर ‘कोटे में कोटा’ के लिए भी संघर्ष होगा। बात गरीबी की होगी, दांव अमीरी के चलेंगे। यह भी संभव है कि मोदी सरकार 2011 की जाति जनगणना के आंकड़े जारी कर इसका इस्तेमाल ‘गेम चेंजर’ की तरह करने की कोशिश करे। कुल मिलाकर हम धार्मिक के साथ-साथ नए जातीय ध्रुवीकरण के दौर में प्रवेश करने जा रहे हैं। ये नई दिशा देश की क्या दशा बनाएगी, इस बारे में अभी कल्पना ही की जा सकती है।         
वरिष्ठ संपादक दैनिक सुबह सवेरे मध्य प्रदेश.

सिफारिश लागू हुई तो बदल जाएगा ओबीसी आरक्षण का पुराना ढांचा-नन्द लाल वर्मा

"क्या ओबीसी आरक्षण में बंदरबांट को खत्म कर देगी "रोहिणी आयोग" की सिफारिश, सामाजिक- राजनीतिक दबदबे का बदल सकता है हुलिया या चेहरा,सिफारिश लागू हुई तो बदल जाएगा ओबीसी आरक्षण का पुराना ढांचा"

N.L.Verma (Asso. Pro.)


       केंद्रीय विभागों और बैंकों में होने वाली भर्तियों के डेटा एनालिसिस से आयोग ने पाया है कि 983 जातियों को ओबीसी आरक्षण का कोई लाभ ही नहीं मिल पाया। इससे साफ हो गया है कि ओबीसी की कुछ जातियों का ही आरक्षण में दबदबा रहता है। ऐसे में रोहिणी आयोग ओबीसी की केंद्रीय सूची को बांटने की सिफारिश कर सकता है। आयोग ने ओबीसी को चार खांचों / वर्गों में बांटकर सबको एक निश्चित आरक्षण देने की सिफारिश की है। आयोग का मानना है कि ओबीसी में कुछ दबदबे वाली जातियां ही आरक्षण का ज्यादा फायदा उठा रही हैं, बाकी वंचित रह गए हैं।
        ओबीसी आरक्षण को लेकर तेज होती सियासत के बीच रोहिणी आयोग की सिफारिशें गौर करने लायक हैं। केंद्र सरकार ने ओबीसी समुदाय से आने वाले जस्टिस जी. रोहिणी की अगुवाई में चार सदस्यीय आयोग का गठन 2 अक्टूबर, 2017 को किया था। आयोग ने 11 अक्टूबर, 2017 को कार्यभार संभाला। सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय ने एक सवाल के जवाब में 13 मार्च, 2018 को लोकसभा को बताया था कि ''दिल्ली हाई कोर्ट के पूर्व चीफ जस्टिस जी. रोहिणी की अध्यक्षता में सेंटर फॉर पॉलिसी स्टडीज, नई दिल्ली के डायरेक्टर डॉ. जे.के. बजाज, एंथ्रोपॉलोजिकल सर्वे ऑफ इंडिया, कोलकाता के डायरेक्टर और देश के रजिस्ट्रार जनरल और सेंसस कमिश्नर की सदस्यता वाले आयोग का गठन किया गया है।''
       मंत्रालय ने कहा कि यह आयोग ओबीसी में उप-श्रेणियों का निर्धारण करेगा। उसने इसका उद्देश्य बताते हुए कहा है कि ''जातियों और समुदायों के बीच आरक्षण का लाभ पहुंचने में किस हद तक असमानता और विषमता है, इसका पता लगाया जाएगा। आयोग ओबीसी की जातियों की उप-श्रेणियां तय करने के तरीके और पैमाने तय करेगा।'' आयोग को 27 मार्च, 2018 तक अपनी रिपोर्ट सौंप देनी थी, लेकिन उसे कई बार सेवा विस्तार दिया गया।
       देश में एक जाति के अंतर्गत कई उप-जातियां हैं। केंद्र सरकार की सूची में ही 2,633 जातियों को अन्य पिछड़ा वर्ग में शामिल किया गया है। आयोग ने इस वर्ष सरकार को सुझाव दिया था कि इन्हें चार वर्गों में बांटकर उन्हें क्रमशः 2% 6%, 9% और 10% आरक्षण दे दिया जाए। इस तरह, ओबीसी के 27% का आरक्षण उप-जातियों के चार वर्गों में बंट जाएगा। आंध्र प्रदेश में भी ओबीसी को पांच वर्गों ''A, B, C, D, E '' में बांटा गया है। वहीं, कर्नाटक में ओबीसी के सब-ग्रुप के नाम '' 1, 2A, 2B, 3A, 3B '' हैं।
       दरअसल, आरक्षण लाभ के सामाजिक स्तर पर समान वितरण को सुनिश्चित करने के लिए ओबीसी लिस्ट को समूहों में बांटने की राय दी गई है जिससे 27% आबंटित मंडल आरक्षण में कुल पिछड़ी जाति की आबादी को शामिल किया जा सके। उप-वर्गीकरण के बाद ''बैकवर्ड्स में फॉरवर्ड्स'' 27% में से केवल एक हिस्से के लिए योग्य होंगे जो मौजूदा स्थिति से बिल्कुल उलट है। फिलहाल, इनका शेयर असीमित है। इनके बारे में कहा जाता है कि ये आरक्षण लाभ का एक बड़ा हिस्सा झटक लेते हैं। 27% आरक्षण का बाकी हिस्सा सबसे ज्यादा बैकवर्ड समूहों के लिए होगा और इससे उन्हें ''बैकवर्ड्स में फॉरवर्ड्स'' के साथ प्रतिस्पर्धा से बचने में मदद मिलेगी। क्या जातीय जनगणना से  ओबीसी के उत्थान का मकसद हल जाएगा या फिर कोई अलग वजह से एकजुट हुईं बिहार की सभी पार्टियां,यह एक बड़ा सवाल है जिसका जवाब निकट भविष्य में ही उजागर हो सकता है।
      केंद्रीय विभागों और बैंकों में होने वाली भर्तियों के डेटा एनालिसिस से आयोग ने पाया कि 10 जातियों को आरक्षण का 25% लाभ मिला है जबकि 38 अन्य जातियों ने दूसरे एक चौथाई हिस्से को घेर लिया। करीब 22% आरक्षण का लाभ 506 अन्य जातियों को मिला। इसके विपरीत लगभग 2.68% लाभ 994 जातियों ने आपस में शेयर किया। गौर करने वाली बात यह है कि 983 जातियों को ओबीसी आरक्षण का कोई लाभ ही नहीं मिल पाया। इससे साफ हो गया है कि कुछ जातियों का ही आरक्षण लाभ में दबदबा रहता है। ऐसे में आयोग ओबीसी की केंद्रीय सूची को बांटने की सिफारिश करेगा।
       राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग (NCBC) ने वर्ष 2015 में ओबीसी जातियों या ओबीसी को पिछड़ा वर्ग (बैकवर्ड),ज्यादा पिछड़ा वर्ग (मोर बैकवर्ड ) और अति पिछड़ा वर्ग (मोस्ट बैकवर्ड) में बांटने की सिफारिश की थी। उसने कहा था कि सालों से आरक्षण का लाभ समाज की दबदबे वाली कुछ ओबीसी जातियां ही (पिछड़ों में अगड़े) हड़प ले रही हैं। इसलिए अन्य पिछड़े वर्ग में भी उप-वर्गीकरण करके अति-पिछड़ी जातियों के समूहों की पहचान करना जरूरी हो गया है। ध्यान रहे कि एनसीबीसी को सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों के कल्याण, उनकी शिकायते सुनने और उनके समाधान ढूंढने का संवैधानिक अधिकार प्राप्त है।
मंडल दौर की वापसी के संकेत... 3.0 की आहट से है यह बेचैनी?
       क्या रोहिणी आयोग की सिफारिशें सामाजिक और राजनैतिक स्तर पर हंगामा मचा सकती हैं ? बहरहाल, सब-कैटिगरी बनने से ''बैकवर्ड्स में फॉरवर्ड्स'' नाराज हो सकते हैं क्योंकि वे खुद को लूजर की स्थिति में आते समझ सकते हैं। दरअसल, ये समूह तुलनात्मक रूप से सामाजिक,शैक्षणिक, राजनीतिक और आर्थिक रूप से मजबूत माने जाते हैं।इसलिए इनका दबदबा रहता है। इनकी नाराजगी से बचने के लिए ही आयोग ने ''सबसे ज्यादा पिछड़े'' और ''अति पिछड़े'' जैसे नए सब-ग्रुप को नाम या टाइटल देने की जगह उन्हें कैटिगरी 1, 2, 3, 4 में बांटने की सिफारिश कर दी है। इस तरह के सामाजिक-शैक्षणिक रूप से पिछड़े स्तरों के मानदंड बिहार और तमिलनाडु राज्यों में अपनाए गए हैं।
        जस्टिस रोहिणी कमिशन ने ओबीसी से जुड़े सारे आंकड़ों को डिजिटल मोड में रखने और ओबीसी सर्टिफिकेट जारी करने का स्टैंडर्ड सिस्टम बनाने की भी सिफारिश की है। अगर इन सिफारिशों को लागू कर दिया गया तो देश के कुछ राज्यों विशेषकर यूपी और बिहार की राजनीति पर भी अच्छा खासा असर पड़ने की संभावनाएं नज़र आती हैं। खासकर, इन राज्यों समेत उत्तर भारत के कई राज्यों की राजनीति में नई जातियों के दबदबे का उभार देखा जा सकता है। ध्यान रहे कि मंडल कमिशन के बाद 1990 के दशक से यूपी और बिहार की राजनीति में वहां की यादव जाति बड़ी प्रभावशाली भूमिका में दिखाई देती है।

लखीमपुर-खीरी

8858656000, 9415461224

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