साहित्य

  • जन की बात न दबेगी, न छिपेगी, अब छपेगी, लोकतंत्र के सच्चे सिपाही बनिए अपने लिए नहीं, अपने आने वाले कल के लिए, आपका अपना भविष्य जहाँ गर्व से कह सके आप थे तो हम हैं।
  • लखीमपुर-खीरी उ०प्र०

Thursday, September 16, 2021

हिन्दी को दिवस की जगह व्यवहारिक और व्यवसायिक बनाईए-अखिलेश कुमार अरुण

ए०के० अरुण
आज के समय में हिन्दी को जिन्दा रखने में सबसे अहम भूमिका कोई निभा रहा है तो वह है सोशल मीडिया वह भी ट्वीटर को छोड़कर, ट्वीटर जहां अंग्रेजियत का पर्याय है वहीं फेसबुक हिन्दी का वैश्विक पटल बना हुआ है। नामचीन लेखकों में सुमार एक से एक हस्तियां अपने पाठकों की टोह में फेसबुक के शरणागत हुए अपनी कविता, कहानी, समसामयिक विषयों पर आलेख संस्मरण आदि चिपका रहे हैं वह अलग बात है कि उनके लेख की सार्थकता स्वरूप कमेन्ट के रूप में बधाई, बहुत अच्छे, सुन्दर रचना, नाईस आदि से ही संतोष करना पड़ रहा पर इतना जरूर है वह अपनी लेखकीय धमक को जमाने में कामयाब रहे हैं।

हिंदी जनसामान्य की आवाज बनी हुई है कहीं इसलिए भी इसकी अनदेखी तो नहीं की जा रही कि हिंदी विश्व स्तर की भाषा न बन सके। भारत देश में वंचितों, शोषित, गरीब, मजदूर, मजलूमों के साथ क्या हो रहा है इसकी भनक दूसरे अन्य देशों को ना लगे। आप देखेंगे तो अंग्रेजी के अखबार से ऐसे-ऐसे न्यूज़ निकल कर आते हैं जिनका सरोकार जमीनी स्तर से बिल्कुल नहीं है किंतु विश्व पटल पर वाहवाही लूटी जा रही है।

बीते इतिहास के दिनों में जाएं तो हम देखते हैं कि संस्कृति शासक, सामंत या सवर्ण उच्च जातियों की भाषा रही है जो 'खग ही जाने खग की भाषा' के नक्शे कदम पर चल कर अपनी सामंत शाही सत्ता को बनाए रखने में इसे साधन के रूप में प्रयोग किया है। जहां इस प्रकार के ग्रंथों का निर्माण किया गया जो शोषण पर आधारित थे वही हुबहू आज के दौर में हो रहा है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में नौकरशाही, सामंत शाही का पर्याय बनी हुई है जिसकी अपनी भाषा है अंग्रेजी। संघ लोक सेवा आयोग से लेकर राज्य लोक सेवा आयोग तक अंग्रेजी को महत्व देने के चलते हम एक शासकवर्ग का निर्माण कर रहे हैं जो आने वाले समय में ऐसे नीति नियमों को लेकर आ रहे हैं जो केवल और केवल नौकरशाही को पुष्ट कर रहा है तथा एक बड़े तबके को हाशिए पर धकेल रहा है।

अंग्रेजी माध्यम से पढ़े लिखे युवाओं का भविष्य उन्नत है क्योंकि आज के वर्तमान स्वरूप में योग्यता की जगह अंको को अधिक महत्व दिए जाने के कारण हिंदी माध्यम के  स्कूलों की अपेक्षा अंग्रेजी माध्यम के स्कूल छात्रों को अंक प्रदान करने में कहीं आगे हैं वह अलग बात है आईआईटी जैसी परीक्षा में सफलता प्राप्त करने में राज्य बोर्ड के बच्चे आगे आ रहे हैं।

कुछ अजीब सा नहीं लगता है कि हम अपनी मातृभाषा के कुशल मंगल के लिए १४ सितम्बर से १५ दिन पखवाड़ा मनाते हैं। जगह-जगह सभाएं की जाती हैं, स्कूल-कालेजों में हिंदी पढ़ना, लिखना और बोलने का संकल्प दिलवाते हैं। रेलवे, बस स्टेशन और सरकारी कार्यालयों में “हिंदी में काम करना राष्ट्रीयता का घोतक है।” तख्ती टंगवाते हैं। इन कर्तव्य निर्वहनों द्वारा हम कितना न्याय कर पा रहें हैं। अपनी भाषा के विकास के लिए बाद हम अपने लड़के को इंग्लिश बोर्डिंग के स्कूल में ही पढ़ने को भेजते हैं। उसकी गिटर-पिटर के इंग्लिश पर पुलकित होकर असीम सुख पाते हैं। तोतले मुंह बच्चे को वाटर, ब्रेड, नुडल्स, कहना सिखाते हैं। और यही सब हम आप को अपनी सोसायटी से अलग करती है और अपनी इस पहचान को मिटा कर समान्य लोगों से अलग होने का दंभ भरते हैं। विलायती भाषा को सीखना गर्व की बात है किन्तु अपनी भाषा को भूल जाना शर्म की बात भी तो है। भारतेंदु जी भी लिखते है-

निज भाषा उन्नति अहै, सब भाषा को मूल।
बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटें न हिय को शूल।।

 अंग्रेजी माध्यम से पढ़ने वाला छात्र बड़े सलीके से कहता है कि उसकी हिंदी कमजोर है। लज्जित होने की अपेक्षा अपने को गौरवान्वित महसूस करता है 'वाह जी वाह तुमको हिंदी नहीं आती और झेंपना हमको पड़ता है । अस्सी-नब्बे नब्बे दशक के हिरो फिल्मों में अंग्रेजी के चार शब्द विलायत से पढ़कर आने वाली मैम(हिरोइन) के सामने चबा जाए तो दर्शकों की तालियों की गड़गड़ाहट से हिंदी प्रेमियों पर क्या बीतती है पुछिए मत, किसी के योग्यता का परिचायक केवल अंग्रेजी ही हो सकती है क्या? ऐसा है तब तो होटल का बैरा, टूरिस्ट गाइड आदि जो अंग्रेजी अच्छी तरीके से बोल लेते हैं, समझ लेते हैं। उन्हें अन्य विषयों में प्राप्त डाक्टरेड मानद उपाधि के समकक्ष बिठाया जाना चाहिए। हम मातृभाषा के इतर किसी अन्य भाषा को बोलने में कौशल प्राप्त कर लेते हैं तो यह हमारी भाषाई-कौशल होगी न कि योग्यता का परिचायक है।

हम अपनी भाषा को विदेशी भाषाओं से कमतर आंकते हैं। हमारे यहाँ का डॉक्टर ,वकील, अधिकारी, वैज्ञानिक हिंदी में बात करने पर गिल्टी फील करते हैं। वहीं अन्य देशों चीन, जापान, अमेरिका,  फिलिपिन्स, आदि देशों के डाक्टर, वैज्ञानिक आदि अपनी भाषाओं को बोलने में गर्व महसूस करते है। इसलिए उनकी भाषा फल-फूल रही है। चीनी  मन्दारिन विश्व में बोली जाने वाली पहले नम्बर की भाषा है, दूसरे नंबर पर अंग्रेजी आती है और तीसरे नम्बर की भाषा हिन्दी है, सबसे दिलचस्प बात यह है कि हम भारतीय ब्रिटेन की अंग्रेजी बोलते हैं, अमेरिकन्स अंग्रेजी बोलने वालों को अंग्रेजी भाषा से बाहर कर दें तो हिंदी दूसरे नम्बर की भाषा बन जाएगी यह अंग्रेजियत पर सबसे बड़ा प्रहार होगा। 

हम भारतीय (आज के छात्र) तो देवनागरी में अंको के लेखन जानते ही नहीं १,२,३,४,५...... और तो और ७८, ६९, ५९ आदि नम्बर लिखने को बोल दीजिए तो पढ़े-लिखे मूर्ख बन बैठते हैं सेवेन्टी एट, सिक्सटी  नाइन समझ में आता है पर हिन्दी में गिनती लिखना नहीं आता, वह कौन सी बला है? 

अंग्रेजी स्कूल में नौनिहाल जिस दिन गलती से हिंदी के एक शब्द का प्रयोग कर लेते हैं। उस दिन उन्हें दण्डित होना पड़ता है। अपनी भाषा का इससे बड़ा अनादर और क्या हो सकता हैं। जिस बच्चे को बचपन में हिन्दी बोलने पर दंड का भागीदार बनना पड़े उसे क्या हिंदी से घृणा न होगी। वह हिंदी का सम्मान क्यों करेगा? हिंदी के अजीज प्रेमी जो अपनी गाड़ी पर हिंदी में नम्बर प्लेट का लेखन करवाते हैं। उनके सम्मान में राजधानी क्षेत्र दिल्ली में ही नहीं बल्कि सभी राज्यों में (मोटर व्हीकल अधिनियम 1988 के अंतर्गत धारा 50 डी संदर्भित है कि गाड़ी के नम्बर-पट्टी पर हिंदी में नंबर लिखवाना कानूनन अपराध है।) का उपहार दिया जाता है, अब हिंदी के सम्मान में कौन खड़ा होगा? जिसके गाड़ी का चालान हो रहा है वह या जो बचपन में अपने यार-दोस्तों में हिंदी बोलने के कारण अपमानित हुआ है वह। 

हम अपनी भाषा से अगर वास्तव में प्यार करते हैं। और उसका सम्मान करते हैं तो हिंदी के लिए साल का एक दिन न होकर वल्कि वर्ष के पूरे ३६५ दिन हिंदी के ही नाम होना चाहिए। हमें जहाँ कहीं जब भी मौका मिले हिंदी के उत्थान की ही बात करें। तभी हमारी हिंदी हमारी न होकर बल्कि विश्व की हो सकेगी और इसका भी मान-सम्मान देश-विदेश में होगा। अपने आस्तित्व को लेकर हिंदी आँसू नहीं बहायेगी और न ही उसे इंग्लिश के सामने अपमानित ही होना पड़ेगा। जब तक हम हिन्दी को व्यवसायिक भाषा के रूप में स्वीकार नहीं करते हैं तब तक हिंदी उत्थान नहीं हो सकता लाख कोशिश कर लीजिए, सम्मेलन कर लीजिए या भी हिन्दी दिवस, पखवाड़ा नहीं सालाना मना लीजिए या तो स्वीकार कर लीजिए कि हम अहिन्दी ही सही हमें हिंदी से कुछ नहीं सरोकार...इस दिखावे से हिंदी को मुक्ति तो मिलेगी।
प्रकशित-प्रवासी सन्देश (मुम्बई) महाराष्ट्र से १४ सितम्बर २०२१ के अंक में

ग्राम-हजरतपुर, पोस्ट-मगदापुर
लखीमपुर खीरी २६२८०४
मोबाइल-८१२७६९८१४७

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