साहित्य

  • जन की बात न दबेगी, न छिपेगी, अब छपेगी, लोकतंत्र के सच्चे सिपाही बनिए अपने लिए नहीं, अपने आने वाले कल के लिए, आपका अपना भविष्य जहाँ गर्व से कह सके आप थे तो हम हैं।
  • लखीमपुर-खीरी उ०प्र०

Wednesday, June 05, 2024

बीएसपी की राजनीति के भविष्य पर लगातार मंडराता गहरा संकट-नन्दलाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर),

   राजनीतिक चर्चा     

"गठबंधन के दौर की राजनीति में "एकला चलो" का निर्णय बेहद आत्मघाती साबित हुआ"
नन्दलाल वर्मा
(सेवानिवृत्त एसोसिएट प्रोफेसर)
युवराज दत्त महाविद्यालय
लखीमपुर-खीरी
✍️गठबंधन की राजनीति के दौर में बीएसपी का अकेले चुनाव लड़ने का निर्णय इस लोकसभा चुनाव में बेहद घातक साबित हुआ। संविधान और लोकतंत्र के ख़ातिर इंडिया गठबंधन का घटक बनकर बहुजन समाज पार्टी को इस बार गत लोकसभा चुनाव से अधिक संसदीय प्रतिनिधित्व मिलने की संभावना जताई जा रही थी। पिछले चुनाव में सपा+बसपा गठबंधन से हासिल दस सीटों के स्थान पर आज वह 2014 की तरह एक बार फिर शून्य पर आकर टिक गई है और गत लोकसभा चुनाव की तुलना में वोट शेयरिंग में भारी गिरावट आई है। बताया जा रहा है कि बीएसपी को इस चुनाव में दस प्रतिशत से भी कम वोट हासिल हुए हैं,जबकि 2019 के चुनाव में उसे लगभग 20% वोट मिले थे। इस राजनीतिक शून्यता और वोट प्रतिशत में आई भारी गिरावट से बीएसपी की भावी राजनीति बुरी तरह प्रभावित होती दिख रही है। नगीना लोकसभा सीट पर आज़ाद समाज पार्टी(कांशी राम) के संस्थापक चंद्र शेखर रावण की ऐतिहासिक जीत बीएसपी और मायावती की राजनीति का भविष्य का अनुमान लगाने  और उसके निहितार्थ समझने के लिए पर्याप्त है। यहां बीएसपी की पराजय नहीं हुई है,अपितु उसे मायावती की पराजय के रूप में देखा जा रहा है। सुनने में आ रहा है कि इस सीट पर बीएसपी और बीजेपी प्रत्याशी की जमानत तक ज़ब्त हो गयी है। रामराज्य में चंद्र शेखर आज़ाद की जीत के बड़े मायने निकाले जा रहे हैं।


✍️केंद्र की सत्ता में विगत दस साल से काबिज़ देश की सबसे बड़ी कही जाने वाली पार्टी बीजेपी जब तीस से अधिक दलों से मिलकर गठबंधन की राजनीति कर रही या कर सकती है तो बीएसपी सुप्रीमो का अकेले चुनाव लड़ने का निर्णय किस चुनावी राजनीति और रणनीति का हिस्सा माना जाए? यह बात राजनीति की थोड़ी भी जानकारी रखने वाले किसी व्यक्ति के गले नहीं उतर रही है। इस चुनाव में बीएसपी का कोर वोट बैंक जो कतिपय सामाजिक- राजनीतिक कारणों से कभी सपा के साथ जाना पसंद नहीं करता था,उसने इस बार डॉ.आंबेडकर के संविधान और लोकतंत्र के खतरों को भांपते हुए बीएसपी छोड़ इंडिया गठबंधन के घटक समाजवादी पार्टी के साथ जाने का निर्णय लेने को मजबूर हुआ और संविधान व लोकतंत्र को खत्म करने का सपना पालने वाली बीजेपी को यूपी में मुंहतोड़ माकूल जवाब देने का काम किया है। सामाजिक और राजनीतिक वजहों के चलते दलित समाज का एक बड़ा धड़ा अभी भी बीजेपी से जुड़ा हुआ है,या यह माना जा सकता है कि गैर जाटव दलित जातियों का बहुत बड़ा हिस्सा बीजेपी के साथ खड़ा दिखाई देता है। नेशनल कोऑर्डिनेटर और बीएसपी की राजनीति के वारिस मायावती के भतीजे आकाश आनंद को चुनाव के बीच में सभी पदों से हटाने का आनन-फानन में लिए गए निर्णय से बहुजन समाज हतप्रभ रह गया। आकाश आनन्द द्वारा चुनावी सभाओं में बीजेपी की नीतियों और निर्णयों का विद्रोही तेवर के साथ आलोचनात्मक विश्लेषण किया जा रहा था। सीतापुर में हुई चुनावी सभा में आकाश आनंद द्वारा अतिरेक भाव से बीजेपी पर चुनाव आचार संहिता के हिसाब से कुछ गलत शब्दों का प्रयोग हो गया। मायावती ने उन्हें बिना देरी किये यह कहते हुए सभी पदों और चुनावी सभाओं को संबोधित न करने से किनारे कर दिया कि आकाश आनन्द अभी चुनावी राजनीति के हिसाब से परिपक्व नहीं है। इस निर्णय से बहुजन समाज का कोर  धड़ा एकदम हतप्रभ है अर्थात वह मायावती के इस निर्णय से बेहद दुखी और क्षुब्ध है। उसका मानना है कि मायावती यह सब बीजेपी के अदृश्य भयवश करने को मजबूर हैं। शासन और प्रशासन से जुड़े लोगों का कहना है और राजनीति के विरोधी खेमों में भी ऐसी चर्चा है कि मायावती किसी घोटाले/भ्रष्टाचार में उनकी लिप्तता की फ़ाइल खुलने से भयभीत हैं और वह जो भी निर्णय लेती हैं, उसके पीछे कहीं न कहीं बीजेपी सरकार और उसकी जांच एजेंसियों का हाथ है।
✍️बहुजन समाज के चिंतकों और एकेडमिक संस्थाओं से जुड़े बौध्दिक वर्ग का मानना है कि यदि बीएसपी इंडिया गठबंधन का घटक बनकर चुनाव लड़ती तो आज उसकी राजनीतिक हैसियत सपा से कम नहीं होती,क्योंकि इंडिया गठबंधन बीएसपी को यूपी सहित अन्य राज्यों जैसे पंजाब, राजस्थान, मध्यप्रदेश और बिहार जहां बीएसपी का अच्छा खासा जनाधार है,में सपा से अधिक सीटें देने को तैयार थी। यदि मायावती इंडिया गठबंधन के साथ चुनाव लड़ती तो सामाजिक और राजनीतिक गलियारों में वह बीजेपी की "बी" टीम होने के आरोप से बच जाती और दूसरी तरफ संविधान और लोकतंत्र बचाने की राजनीतिक लड़ाई में वह इतिहास में दर्ज हो जातीं और पार्टी भी राजनीतिक दुर्गति होने से बच जाती। राजनीतिक विश्लेषकों और विशेषज्ञों का मानना है कि इस बार चुनाव परिणामों की स्थिति से मायावती एनडीए और इंडिया गठबंधन दोनों के लिए किंग मेकर की भूमिका के रूप में साबित होती नज़र आती और डॉ.आंबेडकर के संविधान और लोकतंत्र को खत्म करने का ऐलान करने वालों को मुंहतोड़ जवाब देनी की स्थिति में होती। बसपा सुप्रीमो के इस लोकसभा चुनाव में अकेले लड़ने के निर्णय से उसने अपनी सीटें ही नहीं खोई,बल्कि सामाजिक-राजनीतिक स्तर पर बहुत कुछ खोया है जिसका अनुमान-आंकलन करना आसान नहीं। "एकला चलो" के एक कदम से होने वाले अदृश्य नुकसानों का आने वाले भविष्य में धीरे-धीरे एहसास होगा।एकेडमिक संस्थाओं और बहुजन राजनीति की समझ रखने वाले मायावती के इस कदम को एक आत्मघाती कदम मानकर बेहद हतप्रभ और चिंतित हैं। देश के सबसे बड़े सूबे की चार बार की मुख्यमंत्री (गठबंधन और पूर्ण बहुमत) रहने वाली मायावती जिसके बारे में कहा जाता है कि उनकी राजनीतिक रणनीति को भांपना और पूर्वानुमान लगाने में बड़े-बड़े राजनीतिक पंडित चकरा जाते हों,वह इस बार चुनावी निर्णय लेने में चूक कैसे कर बैठी! उनके सामने कौन सी अपरिहार्य परिस्थितियाँ और मजबूरियां रहीं होंगी,इसको लेकर बहुजन समाज और राजनीतिक गलियारों में कई तरह की चर्चाएं हैं,लेकिन असल वजह तो मायावती ही जानती होंगी।फ़िलहाल, इस चुनाव में बीएसपी के ख़राब प्रदर्शन को लेकर बहुजन समाज का हर व्यक्ति दुखी है,भले ही वह उसे ज़ाहिर नहीं कर पा रहा है। मायावती की एकला चलो की रणनीति का दांव गलत साबित हुआ और इस चूक या गलती से उसका आधार वोट बैंक भी संविधान और लोकतंत्र जैसे गम्भीर मुद्दे की वजह से खिसक कर बीजेपी के खिलाफ लड़ रहे इंडिया गठबंधन में शिफ्ट कर गया।
✍️ इंडिया गठबंधन के साथ जाने का बहुजन समाज पार्टी के कोर वोट बैंक का यह टैक्टिकल (चातुर्यपूर्ण) चुनावी निर्णय या कदम बेहद सराहा जा रहा है और बीएसपी के भीतर उसे कोसा भी जा रहा है। बीएसपी द्वारा बहुजन समाज के इस निर्णय के लिए कुछ बहुजन चिंतकों और बुद्धिजीवियों को दोषी ठहराने का प्रयास कर उनके सिर पर ठीकरा भोड़ने जैसा काम किया जा रहा है। बीजेपी को शायद यह भ्रम था कि बहुजन समाज का एक वंचित वर्ग पांच किलो गेंहू-चावल और पांच सौ रुपए किसान सम्मान निधि के लालच में उसे लंबे अरसे तक वोट देने का काम करता रहेगा और उसे संविधान और लोकतंत्र को भूल जाएगा,लेकिन बहुजन समाज ने राशन और सम्मान निधि की चिंता छोड़ संविधान और लोकतंत्र बचाने को प्राथमिकता दी।बीएसपी के कोर वोट बैंक के इस निर्णय ने बीजेपी और बीएसपी दोनों को एक सख़्त राजनीतिक संदेश देने का काम किया है। उम्मीद है कि बीएसपी सुप्रीमो पार्टी के बड़े ओहदे वाले पदाधिकारियों से अलग-अपने जमीनी स्तर के स्थानीय कार्यकर्ताओं, सामाजिक एक्टिविस्टों और बहुजन विचारधारा से जुड़े शीर्ष और स्थानीय बुद्धिजीवियों के साथ इस चुनाव में प्रत्याशी चयन से लेकर उनके कोर वोट बैंक की भूमिका और बीएसपी के हाथ आये शून्य परिणाम पर पूरी शिद्दत, निष्पक्षता,पारदर्शिता और ईमानदारी से गम्भीर चिंतन-मनन कर बदलते चुनावी परिवेश की परिस्थितियों के हिसाब से अपनी भावी राजनीति और रणनीति की दिशा-दशा तय करने की दिशा में कुछ न कुछ तो सीख लेंगी। बीएसपी सुप्रीमो मायावती को अब एक सरंक्षिका कि भूमिका में रहकर किसी पुराने समर्पित और तपे हुए बहुजन समाज के व्यक्ति या किसी प्रशिक्षित नए युवा को "बीएसपी का उत्तराधिकारी" घोषित कर नए सिरे से एक ऐसा सामाजिक-राजनीतिक उपक्रम/ढांचा तैयार करना होगा जिससे वह अपने कोर वोट के शिक्षित युवा पीढ़ी के साथ स्थायी रूप से कनेक्टिविटी स्थापित कर सके।
मान्यवर कांशीराम की सोशल इंजीनियरिंग/केमिस्ट्री और उनकी सामाजिक-राजनीतिक विचारधारा पर लौटकर ही बहुजन समाज की राजनीति को नए सिरे से पुनर्स्थापित किये जाने की ईमानदार क़वायद ही एकमात्र विकल्प बचता हुआ दिखाई देता है।

Friday, May 31, 2024

हर परिस्थिति में बीजेपी को ही सरकार बनाने के लिए आमंत्रित करने की संभावना-नन्दलाल वर्मा (सेवानिवृत्त एसोसिएट प्रोफेसर)

  लोकतंत्र की लूट/आशंका/संभावना/हिटलरशाही पर लेख   
नन्दलाल वर्मा
(सेवानिवृत्त एसोसिएट प्रोफेसर)
युवराज दत्त महाविद्यालय
लखीमपुर-खीरी


✍️इस बार चरण दर चरण चुनाव के बाद मोदी की भाषा-शैली लड़खड़ाती और कटुतापूर्ण होती दिख रही है। चुनाव परिणाम के बाद उपजने वाले संकटपूर्ण परिदृश्य पर संविधान और लोकतंत्र के समानता, समता, धर्मनिरपेक्षता और बंधुता जैसे सिद्धांतों में गहन आस्था और विश्वास रखने वाले सामाजिक वर्ग और राजनीति की संस्थाओं से जुड़े चिंतक वर्ग संविधान और लोकतंत्र को लेकर कल्पनातीत सम्भावनाएं और आशंकाएं व्यक्त कर रहे हैं।चुनाव में सत्ता के शीर्ष नेतृत्व के वैमनस्यता पूर्ण वक्तव्यों विशेषकर हिन्दू मुसलमान और पाकिस्तान पर लगातार जनता को दिग्भ्रमित करने की हर सम्भव कोशिश जारी रही है। साम्प्रदायिक वैमनस्यता फैलाते और विषवमन करते भाषणों की लगातार  बौछार से देश के ईमानदार,स्वतंत्र और निष्पक्ष मीडिया वर्ग में चार जून के बाद संविधान और लोकतंत्र के संकट को लेकर गहन विचार-विमर्श जारी है।बीजेपी को बहुमत न मिलने की स्थिति में सरकार गठन के मुद्दे पर नई तरह की तानाशाही के उभरने की आशंका ज़ाहिर कर रहे हैं।इस बार भारत के लोकतांत्रिक इतिहास में वह हो सकता है जिससे देश के संविधान बनाने वाले और लोकतंत्र स्थापित करने वालों की रूह तक कांप उठेगी।बहुमत न मिलने की आशंका से भयभीत दिखते पीएम इंडिया गठबंधन के घोषणा पत्र को साम्प्रदायिक रंग देकर उसकी व्याख्या कर हिंदू-मुस्लिम की दीवार लगातार ऊंची करने में लगे हैं।उनके चुनावी भाषणों,संसद पर अचानक बढ़ाई गयी सुरक्षा व्यवस्था सन्निकट संभावित आशंकाओं और घटनाक्रम को लेकर संवैधानिक-लोकतांत्रिक व्यवस्था में आस्था रखने वाला बौद्धिक वर्ग यथासंभव वैचारिक-विमर्श कर टीवी चैनलों के माध्यम से लोगों को संभावित खतरों से लगातार आगाह कर रहा है। 
✍️मोदी काल में नियुक्त राष्ट्रपतियों और उपराष्ट्रपतियों के आचरण से संवैधानिक और लोकतांत्रिक मर्यादाओं का लगातार हरण-क्षरण हुआ है। देश-विदेश में सार्वजनिक मंचों पर इन प्रमुखों का आचरण कैसा रहेगा,उसे पीएमओ तय करता है जिसके कुछ उदाहरण बतौर सबूत देखे जा सकते हैं। पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद अपने पूरे कार्य काल में मोदी के सामने समर्पण और कृतज्ञता भाव से आचरण करते दिखाई देते रहे और वर्तमान राष्ट्रपति द्रोपदी मुर्मू उन्हीं की विरासत को आगे बढ़ाते हुए पीएमओ से मिले दिशा-निर्देशों की अनुरूपता और अनुकूलता के हिसाब से आचरण करने की हर सम्भव कोशिश करती दिखाई देती हैं।उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ की राष्ट्रपति बनने की चाहत ने मोदी के सामने उनकी शारीरिक भाव-भंगिमा,भाषा और समर्पण मुद्रा से संविधान और लोकतंत्र की व्यवस्थाएं-मर्यादाएं मौके-बेमौके विगत लंबे अरसे से शर्मसार और बेनक़ाब होती रही हैं। द्रोपदी मुर्मू की लोकतंत्र और देश की महिला पहलवानों,मणिपुर में महिलाओं के साथ हुई शर्मनाक घटनाओं पर उनके मुंह से एक लफ्ज़ न निकलना मोदी के सामने उनका निरीह दिखता चरित्र और व्यक्तित्व उनकी संवैधानिक शक्ति के निष्पक्ष और विवेकपूर्ण उपयोग के बारे में बहुत कुछ संशय पैदा करता दिखाई देता है।राष्ट्रपति मुर्मू को नई संसद के शिलान्यास से लेकर उद्घाटन और राम मंदिर के शिलान्यास व प्राण प्रतिष्ठा आयोजन में शामिल न होने या न करने के बावजूद मोदी के प्रति उनके कृतज्ञता भाव में कोई कमी नही आयी है।इन विषयों पर सवाल होने पर मोदी की कार्य-संस्कृति से उन्हें कोई शिकवा शिकायत नहीं है।वो मानती हैं कि मोदी जी जो कर रहे हैं या करेंगे वो सब ठीक ही होगा। मुर्मू की भूमिका के बारे में यह धारणा सी बन चुकी है कि वह संविधान प्रदत्त शक्तियों का विवेकपूर्ण प्रयोग न कर पीएमओ से मिले दिशा-निर्देशों को शीर्ष सत्ता की मर्ज़ी और मंशा के अनुरूप और अनुकूल ही आचरण करती हैं,अर्थात वह पीएमओ की राय के बिना एक शब्द तक नहीं बोल सकती हैं। महिला पहलवान और मणिपुर की महिलाओं की अस्मिता पर उनकी चुप्पी को देखते हुए लोकसभा चुनाव परिणाम आने के बाद सरकार गठन के मुद्दे को लेकर संभावित वीभत्स परिस्थितियों प का सामना करने की कई तरह की आशंकाएं प्रकट की जा रही हैं।2024 के चुनावी परिणाम मोदी और शाह के लिए राजनीतिक रूप से जीवन-मरण और प्रतिष्ठा की लड़ाई दिखाई देती है।बीजेपी यानि कि मोदी-शाह किसी भी परिस्थिति में विपक्ष की विशेष रूप से कांग्रेस नेतृत्व की सरकार न बनने की कोई कोर-कसर बाकी नहीं छोड़ना चाहते हैं,भले ही उन्हें संविधान-लोकतंत्र की सारी हदें पार करनी पड़े और इसमें राष्ट्रपति से पूर्ण सहयोग मिलने की उम्मीद जताई जा रही है।
✍️संविधान-लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं,मर्यादाओं,परंपराओं का तकाज़ा है कि चुनाव परिणाम के बाद राष्ट्रपति को सांविधानिक व्यवस्था के साथ खड़ा होना चाहिए,किसी पार्टी या व्यक्ति विशेष के पक्ष या विपक्षी दलों के विपक्ष में नहीं। इस बार चुनाव परिणाम आने के बाद पैदा होने वाली परिस्थिति से निपटने के लिए भारतीय संसदीय लोकतंत्र में कल्पनातीत ऐतिहासिक उथल-पुथल होने की संभावना जताई जा रही है। मोदी के तानाशाही रवैये के चलते राष्ट्रपति की संवैधानिक भूमिका और प्रदत्त शक्तियों के कसौटी पर कसने का समय आने वाला है। देखना है कि चुनाव परिणाम में यदि एनडीए को स्पष्ट पूर्ण बहुमत नहीं मिलता है तो राष्ट्रपति की संवैधानिक शक्ति और विवेक निष्पक्ष होकर काम करती है या फिर शीर्ष सत्ता संस्थान से मिले संकेतों और दिशा-निर्देशोँ के अनुरूप और अनुकूल निर्णय लेने के लिए मजबूर होती हैं।एनडीए को पूर्ण बहुमत नही मिलने पर मुर्मू विपक्षी इंडिया गठबंधन को गठबंधन की मान्यता देती हैं या नहीं,यह एक बड़ा सवाल उठता दिखाई दे रहा है।ऐसी परिस्थिति में वह संविधान और लोकतंत्र के साथ खडी दिखाई देंगी या पार्टी/व्यक्ति विशेष के साथ जिसने उन्हें राष्ट्रपति जैसे गौरवशाली पद तक पहुंचाया है!संविधान-लोकतंत्र के जानकारों का मानना है कि इस चुनाव परिणाम के बाद बीजेपी के प्रतिकूल बनीं परिस्थितियों में सरकार के गठन पर राष्ट्रपति की निर्णय बेहद महत्त्वपूर्ण और चुनौतीपूर्ण हो सकता है।

ये परिस्थितियां पैदा होने की संभावना जताई जा रही है:
1️⃣यदि एनडीए को पूर्ण बहुमत मिलता है तो सरकार बनाने के आमंत्रण देने में राष्ट्रपति को कोई दुविधा नहीं होगी। बीजेपी को सरकार बनाने का न्योता दिया जाना निश्चित। यह स्थित उनके लिए बेहद सुखद और सुविधाजनक साबित होगी।
2️⃣यदि एनडीए का पूर्ण बहुमत नहीं आता है तो राष्ट्रपति की संवैधानिक भूमिका और महत्वपूर्ण हो जाएगी।बहुमत पाए विपक्ष इंडिया गठबंधन को सरकार बनाने का न्योता नहीं भेजेंगी,ऐसी सम्भावना जताई जा रही है। माना जा रहा है कि मोदी  के इशारे पर इंडिया गठबंधन की प्री पोल गठबंधन की मान्यता न मानते हुए उसे सरकार बनाने का न्योता नहीं देंगी। यदि एनडीए पूर्ण बहुमत की संख्या से थोड़ा पीछे रह जाती है जो मैनेज की जा सकती है तो राष्ट्रपति मुर्मू एनडीए को पूर्ण बहुमत  के लिए समर्थन जुटाने के लिए सरकार गठन में विलंब कर सकती हैं जिसकी पूरी सम्भावना जताई जा रही है। राजनीतिक विशेषज्ञों का मानना है कि इसी बीच बीजेपी अर्थात मोदी को हीरा मंडी से हीरे खरीदने का वक्त मिल जायेगा अर्थात हॉर्स ट्रेडिंग हो जाएगी। ऐसी स्थिति से निपटने के लिए विपक्ष के छोटे-छोटे दलों के सांसदों को अच्छी खासी रकम और मंत्री का आकर्षण दिखाकर बहुमत के लिए न्यूनतम आबश्यक संख्या जुटा ली जाएगी। इस तरह की परिस्थिति की ज्यादा संभावना जताई जा रही है।
3️⃣यदि विपक्ष के इंडिया गठबंधन अर्थात विपक्ष को पूर्ण बहुमत का संख्या बल हासिल हो जाता है तो क्या राष्ट्रपति मुर्मू इंडिया गठबंधन को सरकार बनाने और बहुमत सिद्ध करने का न्योता देंगी? जानकारों का मानना है कि ऐसी परिस्थिति में राष्ट्रपति विपक्ष को सरकार बनाने का न्योता नही देंगी। माना जा रहा है कि ऐसा शीर्ष सत्ता संस्थान से फरमान जारी हो चुका है। लोगों का मानना है कि ऐसी परिस्थिति में राष्ट्रपति विपक्षी दलों को गठबंधन की मान्यता इस आधार पर नहीं देंगी कि एनडीए गठबंधन की तरह विपक्ष का इंडिया गठबंधन प्री-पोल गठबंधन ही नहीं है और इंडिया गठबंधन को सरकार बनाने का मौका नहीं दिया जाएगा,ऐसा प्लान मोदी बना चुके हैं।
4️⃣यदि एनडीए गठबंधन बहुमत से थोड़ी दूर अर्थात बहुमत सिद्ध करने के काफी नजदीक संख्या पर आकर टिकती है तो राजनीतिक विश्लेषकों और बुद्धिजीवियों का मानना है कि इस परिस्थिति में मोदी की इच्छानुसार/संकेतानुसार राष्ट्रपति द्वारा बीजेपी को सरकार बनाने का न्योता देते हुए अपना सदन में बहुमत साबित करने के लिए अनुकूल और सुविधापूर्ण अवसर प्रदान किया जा सकता है। संसद पर बढ़ाई गई सुरक्षा का इसी संदर्भ में अवलोकन और आंकलन किया जा रहा है। उनका मानना है कि सदन में बहुमत सिद्ध करने के लिए कुछ विपक्षी सांसदों को सुरक्षा के कतिपय अदृश्य कारणों का हवाला देते हुए संसद में प्रवेश करने से रोक दिया जाएगा और एनडीए को पूर्ण बहुमत न मिलने पर भी बीजेपी/मोदी के लिए सरकार बनाने की अनुकूल परिस्थिति पैदा की जाएगी।
5️⃣हंग पार्लियामेंट की दशा में राष्ट्रपति द्वारा जानबूझकर ऐसी परिस्थितियां पैदा की जाएंगी जिससे एनडीए गठबंधन की हर हाल में सरकार बन सके। अपरिहार्य परिस्थिति जैसे अपवाद को छोड़कर राष्ट्रपति मुर्मू की यही मंशा और प्रयास रहेगा कि किसी तरह नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में एनडीए गठबंधन की ही सरकार बनने का रास्ता साफ हो सके,भले ही उन्हें इसके लिए संवैधानिक-लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं और परंपराओं को थोड़े समय के लिए दरकिनार करना पड़े।
6️⃣ बीजेपी सरकार बनने की कोई गुंजाइश न दिखने पर पीएम मोदी आपातकाल की घोषणा कर सकते हैं।

Monday, May 27, 2024

भारत का संविधान और नक्शा सब बदल जाएगा और जनता इसको समझ या पहचान भी नहीं पाएगी-नन्दलाल वर्मा (सेवानिवृत्त एसोसिएट प्रोफेसर)


(भारत फिर कभी दूसरी चुनाव प्रक्रिया नहीं देख सकेगा)
नन्दलाल वर्मा
(सेवानिवृत्त एसोसिएट प्रोफेसर)
युवराज दत्त महाविद्यालय
लखीमपुर-खीरी


✍️वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण के प्रसिद्ध अर्थशास्त्री पति परकला प्रभाकर ने कहा है कि अगर बीजेपी 2024 का लोकसभा चुनाव जीतकर सत्ता में फिर से वापस आती है तो "भारत का संविधान और नक्शा सब बदल जाएगा और जनता इसको समझ या पहचान या जान भी नहीं पाएगी।" उन्होंने कहा है कि 2024 के लोकसभा चुनाव में अगर नरेंद्र मोदी फिर से पीएम चुने गए तो पूरे देश में लद्दाख और मणिपुर जैसी स्थितियां पैदा हो सकती हैं।
✍️प्रभाकर का अपनी अंतर्दृष्टि साझा करने वाला वीडियो कांग्रेस द्वारा माइक्रोब्लॉगिंग साइट " एक्स" पर साझा किया गया है।वीडियो में परकला प्रभाकर को यह कहते हुए सुना जाता है कि मोदी के 2024 में फिर से प्रधान मंत्री बनने पर,भारत फिर कभी दूसरी चुनाव प्रक्रिया नहीं देख सकेगा अर्थात भविष्य में और चुनाव होने की कोई उम्मीद नहीं दिखती है। उन्होंने कहा है कि "अगर मोदी नेतृत्व बीजेपी सरकार 2024 में फिर बनती है तो उसके बाद कोई चुनाव नहीं होगा अर्थात 2024 का चुनाव अंतिम चुनाव हो सकता है। मोदी एक तानाशाह हैं,उनकी वापसी देश के लिए एक आपदा साबित हो सकती है।"
✍️बीजेपी नेताओं और मोदी के "जिसको पाकिस्तान जाना है,जाने दो" जैसे बयानों का ज़िक्र करते हुए उन्होंने आगाह किया है कि ये नफरत भरे भाषण अब दिल्ली के लाल किले से उठेंगे। साक्षात्कार में प्रभाकर ने कहा कि "मोदी ख़ुद लाल किले से नफरत भरा भाषण देंगे।" उन्होंने कहा है कि यह चुपचाप या सूक्ष्मता से नहीं किया जाएगा। उनके मुताबिक,नफरत भरे भाषण अब "खुला खेल" होंगे। उन्होंने यह भी कहा है कि अगर पीएम मोदी सत्ता में लौटते हैं तो कुकी और मैतेई समुदायों के बीच जातीय संघर्ष के कारण मणिपुर में जो अशांति फैली हुई है,वह पूरे भारत में फैल सकती है। इससे पहले मार्च में, प्रभाकर ने एक टीवी समाचार चैनल से बात करते हुए कहा था कि “चुनावी बांड घोटाला सिर्फ़ भारत का सबसे बड़ा घोटाला नहीं है,बल्कि दुनिया का सबसे बड़ा घोटाला है। चुनावी बांड भ्रष्टाचार सार्वजनिक होने के बाद,अब लड़ाई दो गठबंधनों के बीच नहीं रही है बल्कि,भाजपा और भारत के लोगों के बीच है।"
✍️प्रभाकर का कहना है कि भारत में असमानता, बेरोजगारी और महंगाई चरम पर है। 16 अप्रैल को चेन्नई में "चेन्नई थिंकर्स फोरम" द्वारा वर्तमान राजनीतिक स्थिति पर "द वैल्यूज़ एट स्टेक" शीर्षक से आयोजित एक राष्ट्रीय संगोष्ठी में बोलते हुए " द क्रुक्ड टिम्बर ऑफ न्यू इंडिया "(नए भारत की दीमक लगी शहतीरें) पुस्तक के लेखक श्री प्रभाकर ने कहा कि भारत में बेरोजगारी एक गंभीर समस्या है,विशेषकर 20 से 25 आयु वर्ग के युवाओं में। “उनके बीच बेरोजगारी का प्रतिशत लगभग चालीस है। अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के अनुसार भारत में लगभग 60-65% शिक्षित बेरोजगार हैं।" उन्होंने कहा कि देश में असमानता, युवाओं के बीच बेरोजगारी, विभिन्न वस्तुओं की मुद्रास्फीति और घरेलू ऋण अब तक के उच्चतम स्तर पर हैं।
✍️उन्होंने कहा है कि कम्पनी कर में कटौती,उत्पादन से जुड़े प्रोत्साहन देने और ₹25 लाख करोड़ से अधिक कॉर्पोरेट ऋण को बट्टे खाते में डालने के बावजूद,घरेलू निवेश दर 30% से गिरकर 19% रह गई है। उन्होंने आरोप लगाया कि कंपनियों को उत्पादन से जुड़े प्रोत्साहन और चुनावी बांड के रूप में भाजपा को मिले चंदे के खेल में "कुछ के बदले कुछ"(Quid pro quo:a favour or advantage granted in return for something) जिसको भारतीय अनुबंध अधिनियम में प्रतिफल(Consideration) कहा गया है,की बाबत या नीयत से काम किया गया है। सुप्रीम कोर्ट को दिए गए इलेक्टोरल बांड की डिटेल्स से पूरी तरह स्पष्ट हो चुका है।
✍️उन्होंने यह भी कहा कि तीन कृषि कानून [कृषि उपज वाणिज्य एवं व्यापार -संवर्द्धन एवं सुविधा-अधिनियम-2020, मूल्‍य आश्‍वासन पर किसान समझौता-अधिकार प्रदान करना और सुरक्षा- अधिनियम-2020, आवश्यक वस्तु-संशोधन- अधिनियम- 2020] संसद में बिना किसी चर्चा या बहस के पारित हो गए और व्यापक स्तर पर किसानों का एक साल से अधिक आंदोलन और विरोध-प्रदर्शन के चलते मोदी को इन कानूनों को लागू करने से मजबूरन पीछे हटना पड़ा। इन कानूनों से पीछे हटने में सरकार के अहम को भारी ठेस लगी है। इसीलिए अभी हाल में किसानों को दिल्ली में दुबारा घुसने के सारे रास्ते सील कर दिए गए थे। यह चर्चा है कि इन तीन कानूनों को देश के सरकार पसंद कतिपय पूंजीपतियों को अथाह लाभ पहुंचाने के लिए पारित किया गया था। किसानों के अनवरत आंदोलन और विरोध-प्रदर्शन के चलते सरकार को मुंह की खानी पड़ी। इस घटनाक्रम से सरकार और पूंजीपति बुरी तरह से आहत हुए,राजनीतिक गलियारों और बुद्धिजीवियों में ऐसी चर्चा है। देश के किसान यह अच्छी तरह समझ लें कि ये तीनों कानून अभी पूरी तरह रद्द नहीं हुए हैं,बल्कि स्थगित मात्र हुए हैं। अनुकूल माहौल मिलते ही ये कानून कभी भी लागू हो सकते हैं। यह संभावना व्यक्त की जा रही है कि 2024 में यदि मोदी नेतृत्व सरकार की पूर्ण बहुमत के साथ वापसी होती है तो ये कानून लागू हो सकते हैं। 
✍️वरिष्ठ पत्रकार एन.राम ने नागरिकता संशोधन अधिनियम, राज्यपालों और विपक्षी दलों द्वारा शासित राज्य सरकारों के बीच खींचतान, विभिन्न लोकसभा चुनावों में कांग्रेस और भाजपा के लोकप्रिय वोट शेयर और स्वतंत्र एजेंसियों, विशेष रूप से भारत के सर्वोच्च न्यायालय और चुनाव आयोग के कामकाज पर भी चिंता व्यक्त करते हुए बात की है। उनका यह भी कहना है कि बीजेपी के शासनकाल में भारतीय संविधान के विविधता,बहुलवाद और धर्मनिरपेक्षता जैसे अभिन्न मूल्यों को विकृत कर दिया गया है।चुनाव शुरू होने से पहले बीजेपी की ओर से "अबकी बार-400 पार" का जो नारा दिया गया,वह महज़ एक राजनीतिक जुमला या नारा नहीं था। बीजेपी सांसद अनंत कुमार हेगड़े और लल्लू सिंह ने 400 पार सीटें हासिल करने के पीछे छिपे उद्देश्यों को बाक़ायदा बताया था कि देश का वर्तमान संविधान भारत की सामाजिक,धार्मिक और सांस्कृतिक विरासत के हिसाब से बिल्कुल उपयुक्त और अनुकूल नहीं रह गया है अर्थात देश की तेजी से बदलती परिस्थितियों और काल के हिसाब से वर्तमान संविधान की व्यवस्थाएं लगभग अप्रासंगिक हो चुकी हैं,विशेष रूप से संविधान में वर्णित समाजवाद,सामाजिक न्याय और धर्मनिरपेक्षता जैसे शब्दों का अब कोई अर्थ नहीं रह गया है। इसलिए अब समय आ गया है कि संविधान और लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में व्यापक स्तर पर बदलाव हो। प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के चेयरमैन बिबेक देबराय ने तो आगे के बीस साल से अधिक समय (2047 में आज़ादी का शताब्दी वर्ष) के दृष्टिगत देश के संविधान को पूरी तरह बदलने के संदर्भ में अंग्रेजी अखबार "द मिंट" में बाक़ायदा एक लेख लिखा। जब उस पर चौतरफ़ा राजनीतिक बवाल व आलोचना शुरु हुई तो बीजेपी ने पल्ला झाड़ते हुए कहा कि यह उनका निजी विचार है। परिषद के अध्यक्ष के नाते उन्होंने देश की मुद्रास्फीति, बेरोजगारी,बेतहाशा बढ़ते घरेलू-विदेशी कर्ज़ और डॉलर के सापेक्ष तेजी से नीचे लुढ़कता भारतीय रुपया जैसे गम्भीर विषयों पर न तो कभी चर्चा करना और न ही पीएम को सलाह देना उचित समझा! परिषद के अध्यक्ष द्वारा देश की अर्थव्यवस्था और मौद्रिक नीतियों के बजाय सांविधानिक-लोकतांत्रिक संकटों पर चिंता व्यक्त करना और सरकार को सलाह देना कितना न्यायसंगत और नैतिक समझा जाए!
✍️देश के एकडेमिशियन्स और विपक्षी दलों द्वारा जब 400 पार के नारे के पीछे बीजेपी और आरएसएस की छिपी कलुषित मानसिकता और उद्देश्य पर सार्वजनिक रूप से गम्भीर चिंतन-मनन करना शुरू किया,उससे देश का ओबीसी,एससी-एसटी और सबसे बड़े अल्पसंख्यक मुस्लिम समुदाय अच्छी तरह समझ गया कि इस नारे में तो देश के संविधान और लोकतंत्र को खत्म करने की साज़िश और षडयंत्र की बू आ रही है। संविधान खत्म तो आरक्षण खत्म होने के साथ सरकार चुनने का सशक्त हथियार "मताधिकार" भी खत्म हो जाएगा। संविधान के सामाजिक न्याय, समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता के खतरों की वजह से इन वर्गों का चुनावी राजनीति के हिसाब से तेज गति से होते ध्रुवीकरण से घबराए आरएसएस ने बीजेपी को इस नारे को तुरंत बंद करने की सख्त हिदायत दे डाली। उसके बाद बीजेपी के राजनीतिक मंचों से इस नारे की गूंज आनी बंद हो गयी। विश्व का सबसे बड़ा राजनीतिक दल होने का दावा करने वाली बीजेपी शासित केंद्र से लेकर उत्तर प्रदेश,कर्नाटक और गुजरात जैसे राज्यों के मंत्रिमंडल में भारत के सबसे बड़े धार्मिक अल्पसंख्यक समाज के मुसलमानों के लिए कोई जगह नहीं है। उन्होंने यह भी कहा कि कुछ दिन पहले बिहार में अपने चुनाव प्रचार के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का भाषण, जिसमें कांग्रेस और विपक्षी दलों पर अयोध्या में राम लला की प्राण प्रतिष्ठा का बहिष्कार करने का आरोप लगाया गया था,आदर्श आचार संहिता का खुला उल्लंघन था। उन्होंने आगे कहा कि 2014 के बाद "रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स" द्वारा जारी विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक की रैंकिंग में देश काफी नीचे फिसल गया है।
✍️प्रभाकर परकला ने लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स(लंदन) से पीएचडी और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय,नई दिल्ली से मास्टर ऑफ आर्ट्स और मास्टर ऑफ फिलॉसफी किया है। वह एक भारतीय राजनीतिक अर्थशास्त्री और सामाजिक टिप्पणीकार हैं। वह जुलाई 2014 और जून 2018 के बीच संचार सलाहकार के रूप में आंध्र प्रदेश सरकार में कैबिनेट रैंक के पद की जिम्मेदारी भी निभा चुके हैं।

Friday, May 10, 2024

मेरी पहली हवाई यात्रा-नयनी डी.वर्मा

   एक यात्रा-वृत्तांत   
"नई धारा " द्वारा आयोजित "यात्रा-वृत्तांत" लेखन प्रतियोगिता:2024 में "मेरी पहली हवाई यात्रा" को वरीयता क्रम में प्रथम स्थान से पुरस्कृत रचना.
नयनी डी० वर्मा
लखीमपुर खीरी उ० प्र०
            ✍️अगर कोई मुझसे बचपन मे पूछता कि यात्रा क्या होती है,तो मेरे पास इसका जवाब नहीं होता और यदि होता भी तो कैसे? क्योंकि हम 90दशक के लोगों के बचपन से ही हम जैसे लोगों की यात्रा उनके घरवाले ही डिसाईड करते हैं, हम लोगों को नहीं बताया जाता है कि यात्रा का मतलब क्या होता है ? खुद की यात्रा तो भूल ही जाइए आप, यह तक पता नहीं होता कि घूमने जा कहां जा रहे और कैसे ? बताया जाता भी है तो बस यह कि कब और कितने बजे निकलने के लिए तैयार रहना है और घूमने के नाम पर तब बस ददिहाल-ननिहाल ही होता अपना बस, तो मेरे साथ भी ऐसा ही रहा है बचपन मेरा लेकिन बचपन से ही जब भी कहीं जाने को कहती तो पापा जी कहते अभी पढ़ाई करो,बारहवीं के बाद जहां भी जाना हो,जाना। मैंने भी बहस नहीं की। आखिर, करती भी तो कैसे और क्यों? क्योंकि यात्रा होती क्या है? यह खुद मुझे नही पता था I अपनी दुनिया घर और उस घर के एक कमरे से दूसरे कमरे टहलना ही आपकी यात्रा होती है। जब भी किसी जगह का नाम सुनती किसी का, तब कहती कब मैं भी जाऊँगी वहां? हमेशा की तरह पापा जी का जवाब होता अभी पढ़ो,उसके बाद घूमना,जहां मन हो, वहाँ जाना। घूमने वाली जगह को Exam.सेंटर फॉर्म मे भर देना,Exam. देने जाना और वहां घूम भी आना। बस, उनके कहे ये शब्द मन और दिमाग के किसी फ़ोल्डर में रह गए। शायद, रिसाईकल बिन वाले फ़ोल्डर में,वहां से डिलीट नहीं हुए। जब बड़े हुए तब याद आए उनके कहे ये शब्द,फिर से एक बार,आते भी तो कैसे नहीं, क्योंकि मन और दिमाग झट से फ्लैश बैक मे चला जाता है,मेरा आज भी। जीवन का पहला प्यार,पहली नौकरी,पहली हवाई यात्रा कैसे कोई भूल सकता है,आख़िर !! मै भी नहीं भूली अपनी पहली हवाई यात्रा,क्योंकि बचपन से हमेशा छत के ऊपर से निकलते हवाई जहाज जो देखती थी,सच बताऊँ तो कभी नहीं सोचा था कि हवाई यात्रा करेंगे,केवल देखती थी,जब हवाई जहाज की आवाज आती कमरे से बाहर निकलकर-भागकर बाहर आती, आसमान में खोजती,कई बार बादल में गुम हुए जहाज को जब नहीं देख पाती,तब बस बादल देखकर खुश हो जाती। बादल को निहारना बचपन से ही पसंद रहा है,मुझे। आज भी घण्टों अकेले मैं बादल और एक पेड़ देख,चेहरे ढूंढा करती हूँ,उसमें।  आज भी ठीक वैसे ही जैसे अभी यह यात्रा वृतांत लिखते समय सरकते बादल को सामने देखकर खो जा रही हूँ। क्या गजब का संयोग है,अभी जहां बैठकर लिख रही हूँ,वहाँ भी सामने बादल है और हर दो-तीन मिनट पर हवाई जहाज निकल रहा है और वो भी सिर के ऊपर से।
✍️साल 2019 का फरवरी का महीना,मैं घर पर ही थी। काम खोज रही थी,तभी गूगल सर्च में Geology jobs खोजते समय दिखा प्रोजेक्ट असिस्टेंट का काम National Institute of Oceanography, गोवा में। पापा जी की कही बात याद आ गई कि जहां घूमना हो उस जगह को एग्जाम या इंटरव्यू का सेंटर बना लो। बस याद आया और झट से टिकट बुक कर दी Paytm से,केवल जाने की। मेरे घर में हवाई जहाज में बैठने का अनुभव बस मेरे भैया नीशू को था। मिडिल क्लास वालों के लिए हवाई यात्रा हमेशा से ही ख़ास रहती है और हमेशा रहेगी भी। भैया को कॉल किया,मैने फोन पर कहा बता दो कि फ्लाइट का कैसे होता है, सब कुछ शार्ट में। मुझे तो यह भी नहीं पता था कि बोर्डिंग पास होता क्या है,आख़िर ? खैर, भैया ने सब बताया कैसे ,कहां क्या करना है। बताया बहुत कुछ था उन्होंने,लेकिन सब कुछ भूल गई मैं। मुझे याद रही तो बस एक लाइन कि जहां जो लिखा हो उसे देखते जाना सामने और उसको पढ़ती रहना और कान खुला रखना बस। इयर फोन तब तक मत लगाना,जब तक फ्लाइट के अंदर अपनी सीट पर न बैठ जाना। बस,फिर क्या,पहुंच गयीं लखनऊ एयर पोर्ट। बिना कोई परेशानी के बैठ गई अपनी सीट पर,सीट थी विंडो वाली नंबर 19. सच बताऊँ, तो मुझे डर बिल्कुल नहीं लग रहा था,क्योंकि मुझे ऐसा लगता है कि बीएचयू में पढ़ाई के दौरान अकेले रहने से और बनारस से घर (लखीमपुर-खीरी) की यात्रा ने मेरा आत्मविश्वास बढ़ा दिया था। डर को भगाने मे सबसे बड़ा हाथ तो मां के हाथ के खाने का भी रहा,जो हर यात्रा में मेरे साथ रहता,हर एक कौर के साथ मेरा डर कब निकल गया, पता ही नहीं लगा और पापा जी का हैप्पी-हैप्पी कहकर सी ऑफ करना। फिर क्या सीट पर बैठकर सीट बेल्ट पहनकर फोन एयरोप्लेन मोड पर लगाकर उड़ान भरने से पहले घर और भैया को बोल दिया बैठ गई हूँ,अपनी सीट पर। अब सोचती हूँ तो अज़ीब लगता है कि वो यात्रा मेरी अकेले की तो थी नहीं ,भले ही टिकट एक लिया था,मैंने। मेरे साथ इस पहली हवाई यात्रा में मेरे घरवाले साथ थे, मेरे दिल और दिमाग में। 
नयनी डी० वर्मा अपने पिता जी के साथ 
        ✍️कितना अच्छा है न, दिल और दिमाग भौतिक रुप से बाहर नहीं दिखता वरना तो उन सब का भी टिकट लेना पड़ता, मुझे भी और आपको भी,वो भी हर एक यात्रा में। मेरी बगल वाली सीट पर थे,एक 50 साल के उम्र के पड़ाव पार कर चुके जिंदादिल इंसान.... नाम मुझे पता नहीं,क्योंकि नाम पूछा नहीं था मैंने उनका और न ही उन्होंने मेरा। खैर,जो भी हो, मैंने उन्हें सर जी बोला,क्योंकि मुझे झट से हर किसी को अंकल जी बोल देना मुझे बिल्कुल ठीक नहीं लगता। मैं हमेशा से ही अपने से उम्र मे बड़े लोगों को सर जी और मैम जी बोलकर ही संबोधित करती रहीं जोकि सामने वाले को हमेशा से अजीब ही लगा होगा, क्योंकि हमारे देश में ज़्यादातर लोगों की आदत नहीं होती सर और मैम सुनने की। 
✍️मेरी सीट के पीछे वाली सीट पर थी एक नव विवाहित महिला और सर की सीट के पीछे था उस महिला का पति। सही शब्दों मे कहें तो एक नव-विवाहिता जोड़ा जोकि हनीमून के लिए गोवा जा रहा था। दोनों सेल्फ़ी ले रहे थे बार-बार,फ्लाइट की उड़ान भरने से पहले ही वे 50 तो सेल्फ़ी ले ही चुके होंगे! लेते भी क्यूं नहीं!आख़िर, उस महिला की पहली हवाई यात्रा जो थी और भी हमसफर के साथ। उड़ान के दौरान जैसे ही हवाई जहाज ऊपर-नीचे होता,वह महिला एक हाथ से मेरी सीट को और दूसरे हाथ से अपने पति का हाथ कसकर पकड़ती,बार-बार तेज चिल्लाती...और मेरी सीट हिला देती। उसका पति बार-बार बोलता कि कुछ नही होगा। प्लीज धीरे बोलो न तुम...। मैं बस चुप-चाप अपनी सीट पर बैठ सुन रही थी उनकी सब बातें। मेरे बगल वाले सर भी सुन ही रहै होंगे उनकी बातें,क्योंकि सो तो वह भी नहीं रहे थे,इतना मुझे अच्छे से याद है। काफ़ी बार महिला के चिल्लाने की आवाज सुनने के बाद सर जी बोले लग रहा पहली हवाई यात्रा है,इनकी। मैं बोलती भी क्या ? आखिर मैं खुद अपनी पहली हवाई यात्रा कर रही थी। सर ने बोला और मैं मुस्कुरा दी,नहीं बोल पाई उनको तब कि सर मेरी भी तो यह पहली हवाई यात्रा है!
✍️मैं किताब पढ रही थी "आजादी मेरा ब्रांड "। हमेशा की तरह दो-तीन किताबें मेरी अकेले की हर यात्रा में मेरे साथ रहती हैं। कितना अजीब है न ,सफर में मिलने वाले लोग उन किताबों से ही आपको जज कर लेते हैं कि कैसे इंसान हैं,आप और आपकी पसंद-नापसंद भी !!! खैर,मुझे लगता है सर ने सामने टेबल पर रखी किताब से मुझे जज कर लिया होगा कि पक्का ही यह लड़की अकेले घूमती रहती होगी !!! सर ने वह किताब मांगकर कुछ देर पढ़ी,जब वह किताब पढ़ रहे थे,मेरी आँख लग गई, जब मैं जागी तो किताब की याद नहीं रही। अंकल ने तो वो किताब लौटाई ही नहीं मुझे! जैसे ही फ्लाइट गोवा में लैंड हुई , सब लोग उतरने लगे I बस और हवाई जहाज में आज भी जब सब उतर जाते हैं,सबसे आख़िरी में मैं उतरती हूँ I मुझे अच्छा लगता है कि फिर से सारी खाली सीटों को यात्रा खत्म होने से पहले देखना। पीछे वाला जोड़ा उतरने से पहले बोला सॉरी,मैंने कहा अरे!कोई बात नहीं। हवाई जहाज की यात्रा में ये सब होता है,इतना चलता है, यही सब तो यादें बनेगी जब कभी आप लोग जीवन में इस हनीमून यात्रा को याद करेंगे और कहा एंजॉय हनी मून। बस इतनी बात हुई तब मेरी उनसे,लेकिन नहीं बोल पाई उनको भी कि मेरी भी यह पहली हवाई यात्रा है और जीवन में पहली बार समुद्र देखूंगी आज...।

✍️सारे यात्रियों में सबसे आखिर में,मैं उतरकर जब लगेज काउंटर पर सामान लेने पहुँची तो देखा वो जिंदादिल इंसान अपना सामान लेने के बाद मेरा इंतजार कर रहे थे,किताब जो उन्हें रिटर्न करनी थी मुझे। वह बोले नयनी जी आपकी किताब,अभी याद आया तो मैं रुक गया कि लौटा देता हूँ आपकी किताब आपको। मैं चौक गई कि आख़िर, इस इंसान को मेरा नाम कैसे पता लग गया?! मैं बोल ही दी कि सर आपको मेरा नाम कैसे पता?वह बोले,इस किताब के पहले पन्ने पर ऊपर कोने में लिखा है न आपका नाम !! पूरी किताब तो पढ़ नहीं पाया अभी,मैंने किताब का नाम नोट कर लिया हैI मैं घर पहुँचकर ऑर्डर कर मँगाऊंगा यह किताब। आप सो रही थीं,इसलिए तब मैंने नहीँ लौटाई थी आपको,क्योंकि नींद बहुत लग्जरी चीज है मेरे हिसाब से,चाहे वह कैसी भी हो..। सच बताऊँ तो मैं कुछ बोल पाने की स्थिति मे नहीं थी,बस देख और सुन रही थी उनको। मैंने कहा कि आप रख लीजिए यह किताब। मेरे पास इस किताब का हार्ड कवर भी है। आप पढ़िएगा इसको आराम से अब और हां, सर मेरी भी यह पहली ही हवाई यात्रा थी। सर बोले,ओह ऐसा क्या! मैंने कहा जी ऐसा ही,मेरी पहली हवाई यात्रा गोवा की। वह बोले कि बेटा यह मेरा कार्ड है रखो,अगर कोई भी दिक्कत हो,यहां आ जाना। मेरे घर मैं अपनी पत्नी और तीन डॉगी के साथ जो मेरे हिसाब से हमारे बच्चे ही हैं,उनके साथ रहता हूँ Dona Paula एरिया में। 
✍️नियति देखिए समय और जगह की। जब मैं इंटरव्यू देने गई तो जो होटल मैंने बुक किया था वो Dona Paula एरिया में ही था और National institute of Oceanography के ठीक पास और वहीं वह नव विवाहित जोड़ा भी खाना खा रहा था। मैं उनके पास गई और बोली मेरी भी वो पहली ही हवाई यात्रा थी। यह सुनते ही वह महिला बहुत खुश हो गई और मैं बस मुस्करायी,ठीक वैसे ही जैसे आप इसे पढ़ते वक्त मुस्करा रहें हैं,क्योंकि मुझे लगता है कि पूरी दुनियां में लोग एक ही भाषा में एक ही तरह से मुस्कराते हैं और वह भाषा हर किसी को आती है। जब भी मैं अपनी पहली हवाई यात्रा याद करती हूँ तो बस, यही लोग आज भी याद आते हैं, मुझे। कितना अज़ीब है न, जब आप टिकट बुक करते हैं किसी यात्रा पर अकेले जाने के लिए,तभी बड़ी सी दुनिया के किसी हिस्से के बीच या किसी कोने मे कहीं कोई और भी अपनी यात्रा के लिए टिकट बुक करा रहा होता है। ट्रैन और बस की यात्रा में हम सभी अपनी यात्रा में होते हैं,सब साथ-साथ यात्रा करते हैं एक साथ और सभी को अलग-अलग जगह उतरना होता है,लेकिन हवाई यात्रा में हम सब एक जगह ही उतरते हैं,बशर्ते आपकी फ्लाइट Connecting फ्लाइट न हो। इसलिए कह सकते हैं,जैसे जीवन में भी सब मृत्यु के बाद आसमान या दूसरी दुनिया में कहीं मिलते ही होंगे, ठीक उसी तरह मैं भी मानती हूँ कि कुछ यात्राएं आप तय नहीं करते,कोई और कहीं दूर आपकी यात्रा की प्लानिंग का वेन्यू और मीटिंग पॉइंट डिसाइड करता है। आप और हम तो बस टिकट बुक करते हैं,पता होता है बस तो Arrival time of flight.भले ही आप अकेले निकलते है किसी यात्रा पर एक टिकट के साथ, लेकिन मैं नहीं मानती वह आपकी अकेले की यात्रा होती है,कहीं न कहीं उसी हवाई जहाज में आपकी किसी अनजान के साथ की यात्रा होती है,सभी ने अपना टिकट लिया हुआ है ...यात्रा साथ करते हैं सब,कुछ मिलते हैं जीवन यात्रा में फिर से कहीं और कुछ के साथ वह आपकी आख़िरी यात्रा होती है। इसलिए कह सकते हैं कि हर एक यात्रा में हर एक इंसान की अपनी एक अलग यात्रा होती है। जितने यात्री उतने ही अलग-अलग यात्रा-वृत्तांत होंगे,भले ही उन्होंने एक ही फ्लाइट में यात्रा क्यूं न की हो! 


Thursday, May 09, 2024

लोकतंत्र में वोटर्स पर " चार दिन की चांदनी,फिर अंधियारी रात" वाली कहावत चरितार्थ होती दिख रही-प्रो.नन्द लाल वर्मा (सेवानिवृत्त)

नन्दलाल वर्मा
(सेवानिवृत्त एसोसिएट प्रोफेसर)
युवराज दत्त महाविद्यालय
लखीमपुर-खीरी
            ✍️बजाज ग्रुप की गोला-गोकर्णनाथ,पलिया और खम्भार खेड़ा चीनी मिलों के क्षेत्र के जागरूक गन्ना किसानों को वर्तमान लोकसभा चुनाव प्रचार-प्रसार में वोट मांगने के लिए गांवों में पधारने वाले सभी स्थानीय सत्ताधारी माननीय जनप्रतिनिधियों अर्थात सत्ताधारी गठबंधन के सभी दलों के माननीय विधायकों,सांसदों और पदाधिकारियों से गन्ना मूल्य भुगतान के लिए निर्धारित क़ानूनी समय सीमा के भीतर भुगतान न होने पर सवाल करना न भूलें। यदि स्थानीय नेतागण संतोषजनक जवाब नहीं दे पाते हैं या गोलमोल जबाव देते हैं या जबाव देने से कतराते हैं तो उन्हें किसानों से वोट माँगने का कोई राजनैतिक अधिकार नहीं रह जाता है और न ही जनता को ऐसे जनप्रतिनिधियों को दुबारा अपना मत और समर्थन देना चाहिए अर्थात ऐसे लोगों को फिर से चुनने की गलती नहीं करनी चाहिए। यूपी के मुख्यमंत्री की अतिमहत्वाकांक्षी योजना के अंतर्गत जिले में अलग-अलग जगहों पर कथित पर्याप्त गौशालाओं की व्यवस्था होने के बावजूद बेतहाशा घूमते आवारा पशुओं से किसानों की बर्बाद होती फसल के लिए उन्होंने और उनकी सरकार की ओर से अब तक कौन-कौन से सार्थक प्रयास किए हैं और किये जा रहे हैं? इन आवारा पशुओं से कई किसानों की मौतें तक हो जाने के बावजूद यूपी की असंवेदनशील सरकार इस मुद्दे पर अपेक्षित मुद्दे पर खरी नहीं उतरी। किसान भाइयों! यही समय है जब आप इनसे अपनी दुश्वारियों या दिक्कतों पर सवाल-जबाव कर सकते हैं,उसके बाद अगले चुनाव तक फिर आप इनसे मिलने और सवाल करने की स्थिति में नहीं रह पाएंगे। चुनाव में नेताओं की भूमिका याचक या भिखारी जैसी होती है और जनता की मालिक या राजा जैसी। चुनाव खत्म हो जाने के बाद जनता की भूमिका याचक या भिखारी जैसी हो जाती है और नेता की मालिक या राजा जैसी। यह हमारे लोकतंत्र की खूबसूरती है कि चुनावी लोकतंत्र में नेताओं को चुनाव के दौरान कुछ दिनों के लिए नकली भिखारी बनकर पांच साल के लिए असली राजा बन जाने के भरपूर अवसर प्रदान करता है और जनता चुनाव दौरान के कुछ दिनों के लिए राजा जैसा अनुभव कराकर या बनकर बाकी समय के लिए नेता के सामने असली याचक या भिखारी जैसा ही बनकर रहने के अवसर देता है। प्रत्येक मतदान से पहले देश के हर जिम्मेदार नागरिक मतदाता का राजनीतिक उत्तरदायित्व हो जाता है कि अगले चुनाव में वोट अपने नेता की कारगुजारियों या दलीय सरकार की नीतियों के क्रियान्वयन का अवलोकन-आंकलन करने के बाद निकले निष्कर्ष के आधार पर ही दे। 
✍️देश के सामाजिक और सांस्कृतिक मंचों से जुड़े एक्टिविस्ट,बुद्धिजीवियों,स्वतंत्र राजनीतिक विश्लेषकों एवं चिंतकों,जन सरोकारों से जुड़े मीडिया वर्ग और अकादमिक संस्थाओं से जुड़े बुद्धिजीवियों द्वारा पिछले कई वर्षों से लगातार यह चिंता व्यक्त की जा रही है कि संविधान और लोकतंत्र भयंकर खतरे की चपेट में है और 2024 का लोकसभा चुनाव देश के संविधान और लोकतंत्र का भविष्य तय होने के संदर्भ में देखा जा रहा है। पिछले कुछ समय से संविधान - लोकतंत्र और उनसे जुड़ी स्वायत्त संस्थाओं की कार्य-संस्कृति पर उमड़ते संकटों को देखते हुए एक अजीब सा माहौल बनता हुआ दिखाई दे रहा है जिससे देश के सामाजिक घटकों में एक तरह की असमंजस,अदृश्य भय,बेचैनी या अनगिनत आशंकाएं पनपती हुई महसूस की जा रही हैं। समता,समानता,न्याय और बन्धुतायुक्त हमारे संविधान और लोकतंत्र ने देश के हर नागरिक और हर वर्ग को बहुत कुछ दिया है,लेकिन देश के हज़ारों साल से सामाजिक-राजनीतिक-शैक्षणिक-आर्थिक रूप से वंचित,शोषित व पिछड़े वर्गों को कुछ अतिरिक्त सकारात्मक व्यवस्था प्रदान की गई है जिससे उन्हें भी समान और सम्मानपूर्वक जीवन जीने के अवसर मिल सकें। इसके लिए संविधान में बाक़ायदा अनुच्छेद दर अनुच्छेद उचित व्यवस्था के साथ राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत भी बनाए गए हैं। संवैधानिक व्यवस्था की निगरानी करने के लिए कुछ विशिष्ट स्वायत्तशासी संस्थानों की भी स्थापित की गयी। एससी-एसटी,ओबीसी और अल्पसंख्यक समुदायों के सम्मान,विकास और सुरक्षा हेतु बनी संवैधानिक व्यवस्था के माध्यम से मिले आरक्षण से ही एससी-एसटी,ओबीसी और अल्पसंख्यक समुदायों को देश की व्यवस्था में उनकी जनसंख्या के अनुपात में उचित प्रतिनिधित्व मिलने की प्रक्रिया शुरू हुई। भले ही यह प्रक्रिया बे-मन,अधूरे मन,देर से और दूषित मानसिकता की वजह से सुस्ती से लागू हो पाई है,लेकिन जैसे-जैसे इन वर्गों में सामाजिक और शैक्षणिक चेतना से पिछड़ापन दूर होता गया उसके अनुरूप उनकी भागीदारी बढ़ने या मिलने का मार्ग प्रशस्त होता गया। आज़ादी के 75 सालों में संवैधानिक व्यवस्था के हिसाब से भले ही इन वर्गों को पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं मिल सका है,लेकिन आरक्षण की वजह से मिली भागीदारी से इन वर्गों से सामाजिक,शैक्षणिक,राजनीतिक व आर्थिक रूप से एक विशाल और सशक्त मध्यम वर्ग के रूप में जरूर उभरा है जो यहां की वर्णवादी व्यवस्था के पोषकों की आंखों में सुई की तरह चुभ रहा है और इनको जब भी कोई मौका मिलता है तो वे ऐसी साजिश या षडयंत्र रचने का अवसर हाथ से जाने नहीं देते जिससे इन पिछड़े वर्गों को मिलने वाले समान अवसरों में यथासंभव कटौतियां की जा सके। 
✍️आरक्षण में ओवरलेपिंग व्यवस्था का खात्मा,एक ही स्तर पर आरक्षण देना,शैक्षणिक संस्थानों में आरक्षण की रोस्टर व्यवस्था,आयु सीमा और शैक्षणिक योग्यता में मिलने वाली छूट के आधार पर आरक्षण खत्म करना,ओबीसी आरक्षण में क्रीमीलेयर लागू करना,वर्ग आधारित जिसे लोग जाति आधारित आरक्षण कहते हैं,उसकी 50% अधिकतम सीमा तय होना,ईडब्ल्यूएस को 10% आरक्षण देते समय आरक्षण की निर्धारित अधिकतम सीमा को जानबूझकर ओवरलुक करना,आरक्षित वर्ग के अभ्यर्थियों की अनुपलब्धता होने पर सामान्य/अनारक्षित वर्ग के अभ्यर्थियों की भर्ती करने की पुरानी व्यवस्था के स्थान पर एन.एफ.एस. की व्यवस्था लांच कर आरक्षित वर्ग के अभ्यर्थियों की योग्यता पूर्ण होने के बावजूद उन्हें नॉट फाउंड सूटेबल घोषित कर बाहर का रास्ता दिखाना और ऐसा तीन बार होने पर आरक्षित सीट पर सवर्ण की नियुक्ति करने का नियम और सबसे बड़ी साजिश तो लेटरल एंट्री(चोर दरवाजे) से विषय विशेषज्ञता के नाम पर 450 से अधिक जॉइंट सेक्रेटरी (यूपीएससी के माध्यम से चयनित और नियुक्त एक आईएएस को लगभग 17 साल लगते हैं, इस पोस्ट पर पहुंचने में अर्थात जिसके अधीन लगभग सत्तरह बैच के आईएएस ऑफिसर् काम करते हैं) की आरक्षण लागू किये बिना भर्ती करना,बेतहाशा निजीकरण करना आदि आरक्षित वर्ग की खुलेआम हकमारी के जीते-जागते उदाहरण देखे और पढ़े जा सकते हैं। सबसे बड़ी विडंबना और दुखद पहलू यह है कि इस तरह की हकमारी पर विधायिका (लेजिस्लेटिव)और कार्यपालिका (एग्जीक्यूटिव) में उसी वर्ग के जनप्रतिनिधियों और प्रशासनिक अधिकारियों में किसी भी तरह की बेचैनी या हलचल नहीं दिखती है। ये सभी लोग डॉ.आंबेडकर जी के "पे बैक टू द सोसाइटी " के दर्शन या सिद्धांत को भूल गए हैं जिनकी बदौलत इन्हें राजनीतिक और सरकारी नौकरियों में आरक्षण मिलने से एक सम्मान पूर्वक खुशहाल और विलासिता पूर्ण जीवन जीने का अवसर मिला है। चुनाव में ऐसे छद्म आंबेडकरवादियों और सामाजवादियों को परखने का अच्छा वक़्त होता है। असली और नकली लोगों की जानकारी हासिल करने के बाद ही डॉ.आंबेडकर के द्वारा दिये गए बहुमूल्य मताधिकार का प्रयोग करना ही उनके प्रति असली सम्मान और सच्ची श्रद्धांजलि मानी जाएगी। मुंह से जय भीम का नारा लगाने या नीले कपड़े पहनने या नीला झंडा पकड़ने से डॉ.आंबेडकर का मिशन/सपना/ पूरा नहीं होने वाला है,इसके लिए प्रदर्शन के स्थान पर उनके दर्शन या वैचारिकी और चित्र की जगह उनके चरित्र और आवरण को हटाकर आचरण में लाना होगा। वह पूंजी परस्त सरकारों के विरोधी थे। आजकल की सरकार पूरी तरह क्रोनी कैपिटलिज़्म की पोषक बनी हुई है। 
✍️पिछड़े और वंचित वर्ग को इस लोकसभा चुनाव में संविधान और लोकतंत्र के ख़ातिर वोट करना है और वह भी चातुर्यपूर्ण तरीके (टैक्टिकली) से। चुनावी राजनीति के लिए आज सरकार जो मुफ़्त सुविधा,सामग्री या सम्मान दे रही है,वह सब संविधान की वजह से ही सम्भव हुआ है। जब संविधान ही नहीं रहेगा तो यह सब जो आज मिल रहा है,वो सब बंद होने में देर नहीं लगेगी। सरकार किसी भी दल की हो,सांविधानिक रूप से जिसे जो मिल रहा है,उसे खत्म करने का साहस नहीं है और यह तभी सम्भव है जब देश में संविधान और लोकतंत्र मजबूती के साथ क़ायम रहेगा। संविधान और लोकतंत्र को बचाना एससी-एसटी,ओबीसी और अल्पसंख्यक समुदायों की " चातुर्यपूर्ण चुनावी राजनीतिक एकजुटता और विवेकशील निर्णय" से ही सम्भव है। विगत चुनावों की तरह इस बार किसी भी तरह के लालच/चुनावी प्रलोभन/मीठे भाषण में यदि फंसे तो यह तय मानिए कि आने वाले भविष्य में न तो संविधान बचेगा और न ही लोकतंत्र बचेगा और ऐसी स्थिति में आपको अपने मताधिकार जैसे एक मजबूत हथियार से भी वंचित होना पड़ सकता है जिसे डॉ.आंबेडकर ने कड़ी मेहनत और त्याग- तपस्या से सामाज और राजनीति के भयंकर विरोधों और संघर्षों को झेलते हुए पिछड़े-वंचित वर्ग के लोगों के लिए हासिल कर पाए थे। 
✍️एससी-एसटी,ओबीसी और अल्पसंख्यक समुदायों को इस लोकसभा चुनाव में बेहद चातुर्यपूर्ण तरीके से वोट देने की जरूरत है जिससे संविधान और लोकतंत्र बदलने और खत्म करने की बात करने का दुस्साहस करने वाले राजनीतिक दल,उनके नेताओं और उसके परामर्शदाताओं की संविधान और लोकतंत्र विरोधी सोच पर एक-एक वोट की करारी चोट कर उनके मंशूबों को चकनाचूर और धराशायी किया जा सके। संविधान है तो लोकतंत्र कायम रहेगा और यदि लोकतंत्र कायम रहेगा तो सामाजिक-सांस्कृतिक-धार्मिक विविधताओं से युक्त हमारा खूबसूरत भारत भी वैश्विक स्तर पर मजबूती के साथ खड़ा रहेगा। 

Sunday, May 05, 2024

यूपी के विशेष संदर्भ में: टैक्टिकल वोटिंग से चुनावी राजनीति के पंडितों के सारे पूर्वानुमान और आंकड़े धराशायी होने के साथ बीजेपी का भारी भरकम चुनावी तंत्र भी बौना साबित हो सकता है-प्रो.नन्द लाल वर्मा (सेवानिवृत्त)


   चुनावी चर्चा 2024   
नन्दलाल वर्मा
(सेवानिवृत्त एसोसिएट प्रोफेसर)
युवराज दत्त महाविद्यालय
लखीमपुर-खीरी
✍️2019 लोकसभा चुनाव परिणाम आने के बाद बहुजन समाज पार्टी के निजी चुनावी विश्लेषण में यह निष्कर्ष निकाला गया था  कि इस लोकसभा चुनाव में उसे समाजवादी पार्टी का कोर वोट बैंक ट्रांसफर नहीं हुआ, लेकिन चुनाव आयोग के अंतरिम आंकड़ों के विश्लेषण से पता चलता है कि बसपा को सपा के साथ हुए गठबंधन से उसके परंपरागत सामाजिक वोट का आंशिक लाभ तो मिला ही है। इसके इतर सपा को बसपा का कथित ट्रांस्फरेबल कोर वोट बैंक पूरी तरह ट्रांसफर होता नहीं दिखाई देता है। विश्लेषण से निष्कर्ष निकलता है कि उसके कोर वोट बैंक में बीजेपी एक लाभार्थी वर्ग पैदाकर उसमें अच्छी खासी सेंधमारी करने में सफल हुई है।
✍️यूपी में 2019 लोकसभा चुनाव बसपा-सपा ने मिलकर चुनाव लड़ा था, लेकिन अपेक्षित नतीजे नहीं मिलने की वजह से बीएसपी द्वारा परिणाम घोषित होते ही यह आरोप लगाकर गठबंधन तोड़ दिया था कि सपा का कोर वोट बैंक उसे ट्रांसफर नहीं हुआ। 2014 में बसपा ने अकेले दम पर 80 सीटों पर चुनाव लड़ा था और उसे 19.77% वोट मिले थे और एक भी सीट पर सफलता नहीं मिली थी। 2019 में उसने सपा के साथ गठबंधन कर 36 सीटों पर चुनाव लड़कर उसे 19.36% वोट मिले। सिर्फ 36 सीटों पर लड़ने के बावजूद बसपा को लगभग पिछले चुनाव के बराबर ही वोट प्रतिशत हासिल हुआ। इससे साबित होता है कि बसपा को सपा का कुछ न कुछ वोट अबश्य ट्रांसफर हुआ है। वहीं, सपा को 2014 के लोकसभा चुनाव में 80 सीटों पर लड़कर 22.35% वोट मिला था ,लेकिन 2019 में बसपा से गठबंधन कर 36 सीटों पर लड़कर मत प्रतिशत 18% के करीब रहा। साफ है कि सपा को बसपा का वोट बैंक कम ट्रांसफर हुआ वरना उसके मतों का प्रतिशत और कम हो जाता। गठबंधन के बावजूद सपा का वोट प्रतिशत गिरा है।
✍️2019 लोकसभा चुनाव में भाजपा ने प्रदेश की 80 सीटों में से 62 सीटें जीती थी,बसपा ने 10,सपा ने पांच,अपना दल(एस) ने दो और कांग्रेस ने एक सीट जीती थी। वहीं, नतीजों के चंद दिनों बाद ही सपा-बसपा गठबंधन को लेकर मायावती ने एक प्रेस कांफ्रेंस कर सपा से गठबंधन के बारे कहा था कि हमारे और अखिलेश-डिंपल के रिश्ते बने रहेंगे। मायावती ने कहा था कि लोकसभा चुनाव 2019 के गठबंधन में यादव वोट बसपा को शिफ्ट नहीं हुए और अभी वर्तमान स्थिति में हम उत्तर प्रदेश में कुछ सीटों पर होने वाले उपचुनाव अब अकेले लड़ेंगे। सपा-बसपा गठबंधन तोड़ने पर मायावती ने कहा कि यह कोई हमेशा के लिए ब्रेक नहीं है। अगर हमें लगा कि भविष्य में सपा अध्यक्ष अपने राजनीतिक काम में सफल होते हैं तो हम फिर से साथ मिल सकते हैं,लेकिन अगर वह सफल नहीं होते हैं तो फिर हमारे लिए अकेले ही चुनाव लड़ना बेहतर होगा। लगता है कि बीएसपी सुप्रीमो की नज़र में सपा मुखिया सफल नहीं हुए हैं। इसलिए बीएसपी ने उपचुनाव अकेले ही लड़ना तय किया। आज़मगढ़ लोकसभा उपचुनाव में बीएसपी ने मुस्लिम समाज के गुड्डू जमाली को प्रत्याशी बनाया जिससे मुस्लिम समुदाय का वोट बंटने से न सपा जीत सकी और न ही बसपा। मुस्लिम वोट बैंक के बिखराव का लाभ बीजेपी को मिल गया। 
✍️2024 लोकसभा चुनाव में भी बसपा यदि इसी पैटर्न पर प्रत्याशियों का चयन करती है तो इसका लाभ सपा और बसपा की बजाय सीधे बीजेपी को मिलने की पूरी सम्भावना लगती है,क्योंकि भारत का कोई भी समाज अभी तक टैक्टिकल वोटिंग (चातुर्यपूर्ण मतदान) करने का निर्णय लेने में सक्षम नहीं हो पाया है,लेकिन यदि मुस्लिम और दलित समाज टैक्टिकल वोटिंग प्रबन्धन में सफल होता है तो चुनावी राजनीतिक पंडितों के सारे पूर्वानुमान और आंकड़े धराशायी होते देर नहीं लगेगी। यदि मुस्लिम और दलित समाज सपा,बसपा और कांग्रेस के क्षेत्रवार प्रत्याशियों के पक्ष में किसी भी तरह टैक्टिकल वोटिंग प्रबन्धन में सफल हो जाता है तो विपक्ष को अधिकतम लाभ मिलने से कोई रोक नहीं पायेगा और एनडीए को सर्वाधिक चुनावी क्षति होने से उनका भारी भरकम चुनावी तंत्र भी बचाने में सफल नहीं हो सकता। टैक्टिकल वोटिंग प्रबन्धन की कुशलता से सपा,बसपा और कांग्रेस को अपेक्षा से कई गुना चुनावी लाभ मिल सकता है, लेकिन सामाजिक,राजनीतिक,आर्थिक,धार्मिक,भौगोलिक,सांस्कृतिक और शैक्षणिक रूप से विविधता युक्त भारत के विशाल लोकतंत्र में डिफरेंट,रिएक्शनरी और पारस्परिक विरोधी वोटिंग मानसिकता की वजह से टैक्टिकल वोटिंग एक असंभव और बेहद जटिल और अव्यावहारिक स्थिति मानी जाती है।
✍️2024 लोकसभा चुनाव में बीएसपी के अकेले चुनाव लड़ने की राजनीति से सीट के हिसाब से भले ही उसे अतिरिक्त लाभ न मिले,लेकिन उसकी चुनावी बिसात से बीजेपी और समाजवादी पार्टी की राजनीति के लिए वोट विभाजन या बिखराव से अनिश्चितता की स्थिति जरूर पैदा होती दिख रही है। बीएसपी के अकेले चुनाव लड़ने का निर्णय और टिकट वितरण में प्रयोग की गई सामाजिक केमिस्ट्री से बीजेपी को (कम) और सपा को (अधिक) जितना नुकसान होने का अनुमान लगाया जा रहा है, उतना लाभ बसपा को भले ही न मिले,लेकिन दोनों पार्टियों के लिए एक असमंजस या अनिश्चितता की स्थिति पैदा करती हुई जरूर दिख रही है। बसपा के 2014 में अकेले चुनाव लड़ने और 2019 में सपा के साथ गठबंधन से निकले चुनावी परिणामों के विश्लेषण से 2024 के चुनाव में बसपा को अधिकतम नुकसान होने का अनुमान लगाया जा रहा है। सपा के साथ चुनावी गठबंधन की वजह से 2019 में बीएसपी शून्य से दस सीट हासिल करने में सफल हो गयी थी और समाजवादी पार्टी अपनई पुरानी संख्या को बमुश्किल बचा पाई थी। राजनीतिक गलियारों में अवसरवादी कही जाने वाली बीएसपी को गठबंधन का समाजवादी पार्टी से कई गुना चुनावी लाभ मिलने के तुरंत बाद बीएसपी सुप्रीमो द्वारा यह कहते हुए गठबंधन तोड़ना कि बसपा को समाजवादी पार्टी का वोट बैंक ट्रांसफर नहीं हुआ,उनकी किस तरह की सियासत का हिस्सा है, यह आज तक राजनीतिक विशेषज्ञों और विश्लेषकों के लिए एक यक्ष प्रश्न बना हुआ है। चुनावी राजनीति की मोटी-मोटी समझ रखने वाला भी जान गया था कि 2019 के लोकसभा चुनाव में किसका वोट किसको ट्रांसफर हुआ था अथवा नहीं। सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने मायावती द्वारा एकतरफा तोड़े गए गठबंधन पर बेहद राजनीतिक सौम्यता और शालीनता का परिचय देते हुए न तो तात्कालिक कोई प्रतिक्रिया व्यक्त की थी और तब से लेकर आज तक चुनाव घोषित होने के बावजूद बीएसपी सुप्रीमो मायावती के उस एकतरफा निर्णय पर किसी भी तरह की टिप्पणी से दूर रहना, उनकी चुनावी राजनीतिक परिपक्वता और दूरदर्शिता को दर्शाती है और बहुजन समाज(एससी-एसटी,ओबीसी और अल्पसंख्यक) की भावी गठबंधन की राजनीति के लिए एक सुखद संकेत के रूप में परिभाषित और देखी जा रही है।
✍️2019 के लोकसभा चुनाव परिणामों का विश्लेषण में विश्लेषकों द्वारा यह अनुमान और आंकलन किया गया था कि दलित समाज का एक हिस्सा मुफ़्त राशन और किसान सम्मान निधि से आकर्षित होकर बीजेपी के साथ गया था। विगत 2019 की तुलना में 2024 लोकसभा चुनाव में कुछ ऐसा होता नहीं दिखाई दे रहा है जिससे बीएसपी कुछ बेहतर स्थिति में लग रही हो। 2019 में सपा से गठबंधन होने की वजह से बीएसपी को ओबीसी की कुछ जातियों का थोड़ा बहुत वोट मिल गया था, ऐसा विश्लेषकों का अनुमान और आंकलन बताता है। कांग्रेस के साथ सपा का चुनावी गठबंधन होने के बावजूद 2019 की तुलना में वोट बैंक में इज़ाफ़ा होता हुआ नहीं दिखाई देता है,क्योंकि कांग्रेस कार्यकर्ताओं और संगठन के मामले में जमीनी स्तर पर बीएसपी से तो बहुत गरीब हीहै। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि बीएसपी जहाँ मुस्लिम प्रत्याशी उतारेगी वहां बीजेपी को सीधा लाभ मिलने की पूरी सम्भावना है। 2024 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी के दस साल के कामकाज से उपजी नाराजगी(एन्टी इनकंबेंसी) से जो थोड़ा बहुत नुकसान होने की संभावना प्रतीत होती है,उसकी तुलना में सपा और बसपा का अलग-अलग चुनाव लड़ना बीजेपी के लिए ज्यादा फायदेमंद होता दिख रहा है।
✍️हो सकता है कि 2024 लोकसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी 2014 की तरह अपनी परंपरागत सीटों के साथ कुछ अतिरिक्त सीटें हासिल करने में सफल हो जाए, लेकिन बीएसपी द्वारा अपनी चुनावी विरासत को बचाना मुश्किल क्या असंभव जैसी स्थिति बनती हुई दिख रही है।सांविधानिक और लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं की खुली धज्जियां उड़ाकर काम करने वाली आरएसएस पोषित सत्तारूढ़ पार्टी के गठबंधन के खिलाफ बीएसपी का अकेले चुनाव लड़ने के निर्णय से संविधान और लोकतंत्र के खतरों को लेकर बहुजन चिंतकों,बुद्धिजीवियों,सामाजिक एक्टिविस्ट और एकैडमिक संस्थाओं से जुड़े लोगों में चिंता और भय की गहरी लकीरें साफ तौर पर देखी जा सकती हैं और सांविधानिक लोकतंत्र की रक्षा के लिए वे यथासंभव वैचारिक विमर्श, धरना-प्रदर्शन के माध्यम सामाजिक जनजागरण और जनांदोलन करने के साथ न्यायिक कार्यवाही भी कर रहे हैं। इसके बावजूद संघ परिवार, सत्तारूढ़ पार्टी और सरकार के चहेते लोग संविधान को अप्रासंगिक और विसंगतिपूर्ण बताने से बाज नहीं आ रहे हैं और समय समय पर उसे बदलने की बात करते रहते हैं। राजनीतिक विश्लेषकों का स्पष्ट मानना है कि ऐसी स्थिति में विपक्ष का अलग-अलग चुनाव लड़ना बीजेपी और उसके गठबंधन के लिए एक तरह का अप्रत्यक्ष रूप से वॉकओवर देने जैसा ही है। इसी वजह से चुनावी माहौल में बीएसपी और सपा दोनों दल भिन्न-भिन्न समय पर बीजेपी की "बी" टीम होने के अलंकार या उपाधि से नवाज़े जाते रहते हैं। 

Thursday, May 02, 2024

संविधान और लोकतंत्र को खत्म करना संघ और बीजेपी का प्रमुख एजेंडा:प्रो.नन्द लाल वर्मा (सेवानिवृत्त)

नन्दलाल वर्मा
(सेवानिवृत्त एसोसिएट प्रोफेसर)
युवराज दत्त महाविद्यालय
लखीमपुर-खीरी
   चुनावी चर्चा 2024   
✍️सत्ताधारी भाजपा के नेता इस लोकसभा चुनाव के शुरूआती दौर में ‘चार सौ पार’ की बात कर रहे थे जिस पर बीजेपी की मातृ संस्था के मुख्यालय से विराम लगाने की सख्त हिदायत दिए जाने के बाद "अबकी बार -चार सौ पार" का नारा लगना बंद हो गया है। उनका मानना है कि इस लोकसभा चुनाव में बीजेपी 370 से ज्यादा सीटें जीतेगी और उसके गठबंधन साथी 30 से ज्यादा। इस प्रकार एनडीए 400 पार हो जायेगा। यह संख्या किसी चुनाव विशेषज्ञ की राय या किसी वैज्ञानिक सर्वेक्षण पर आधारित नहीं है। अचानक यह यह प्रचार अदृश्य तरीकों और तकनीकों से उनके गुप्त एजेंडे का चुनावी राजनीतिक हित साधने की नीयत से किया जा रहा था ।
✍️आख़िर,एनडीए को चार सौ पार करने की जरूरत क्यों है? इसका स्पष्टीकरण देते हुए भाजपा के कर्नाटक से सांसद और पार्टी के वरिष्ठ नेता अनंत कुमार हेगड़े ने बताया कि संविधान को बदलने के लिए पार्टी को 400 सीटों की जरूरत होगी। उनका कहना है कि ‘‘कांग्रेस ने संविधान को विकृत कर दिया है,उसका मूल स्वरूप ही बदल दिया है,उसने संविधान में अनावश्यक चीजें (शायद उनका मतलब धर्मनिरेपक्षेता व समाजवाद से है) ठूंस दी हैं। उनका यह भी कहना है कि बहुत से ऐसे कानून बनाए गए हैं जो हिन्दू समुदाय का दमन करते हैं। ऐसे में अगर इस स्थिति को बदलना है अर्थात संविधान को बदलना है,तो वह उतनी सीटों से संभव नहीं है जितनी अभी बीजेपी के पास हैं।’’ यह तभी सम्भव हो सकता है जब बीजेपी को अकेले न्यूनतम दो तिहाई बहुमत हासिल होगा। भाजपा ने शातिराना अंदाज़ में हेगड़े के इस बयान से दूरी बना ली। उसने कहा कि वह अपने सांसद के वक्तव्य का अनुमोदन नहीं करती। ऐसी खबरें भी हैं कि यह बयान देने के कारण हेगड़े को पार्टी के टिकट से भी वंचित किया जा सकता है। ऐसा होता है या नहीं यह तो समय बतायेगा,लेकिन एक बात पक्की है,वह यह है कि भाजपा के लिए इस तरह के बयान और दावे कोई नई बात नहीं हैं। अनंत कुमार हेगड़े ने यही बात 2017 में भी कही थी जब वह एनडीए की केन्द्र सरकार में मंत्री थे,किंतु फिर भी उन्हें 2019 के चुनाव में टिकट दिया गया था।
✍️सांसद राहुल गांधी और कई अन्य का मानना है कि भाजपा को 400 सीटें उसी उद्देश्य के लिए चाहिए जिसकी बात अनंत हेगड़े कर रहे हैं। राहुल गांधी ने एक्स पर लिखा ‘‘भाजपा सांसद का यह बयान कि पार्टी को संविधान बदलने के लिए 400 सीटों की जरूरत होगी। दरअसल,यह मोदी और उनके संघ परिवार के गुप्त एजेण्डा का अप्रत्यक्ष रूप से सार्वजनिक उदघोष है। मोदी और बीजेपी का अंतिम लक्ष्य येनकेन संविधान को खत्म करना है। आरएसएस सामाजिक न्याय,समानता,नागरिक अधिकार,धर्मनिरपेक्षता,समाजवाद और लोकतंत्र जैसी संवैधानिक संकल्पनाओं से शुरू से ही नफरत करता आ रहा है।’’
✍️राहुल गांधी ने यह आरोप भी लगाया कि बीजेपी का शीर्ष नेतृत्व ‘‘समाज को बांटकर,अभिव्यक्ति की आज़ादी पर रोक लगाकर और स्वतंत्र-स्वायत्त संस्थाओं को पंगु या सरकार की कठपुतली बनाकर संघ परिवार भारत के महान लोकतंत्र को अप्रत्यक्ष रूप से एक लोकतांत्रिक तानाशाही व्यवस्था में बदलना चाहता है और कथित भ्रष्टाचार के नाम पर ईडी,सीबीआई,आयकर जैसी एजेंसियों  के माध्यम से जांच के नाम पर विपक्ष को लगातार कमजोर और समाप्त किये जाने की अनवरत प्रक्रिया जारी रखना उसके षड़यंत्र और साजिश का हिस्सा है।’’ जब भी किसी विपक्षी दल के नेता से राजनीतिक नुकसान या लाभ होने की आशंका या संभावना दिखती है,उसी क्षण किसी जांच एजेंसी की कार्रवाई का डर दिखाकर उसे कमल पुष्प की शीतल छाया में आने के लिए मजबूर कर दिया जाता है और पवित्र कमल के स्पर्श मात्र से वह सभी प्रकार के पापों,विकारों,भ्रष्टाचार और दोषों से मुक्त हो जाता है।
✍️लोकतांत्रिक मूल्यों जिनमें समानता,समता और भाईचारा शामिल है,को कमजोर करने के लिए भाजपा की रणनीति दो स्तर पर है।उसका पितृ/मातृ संगठन आरएसएस संविधान बनने की तारीख से ही सख्त खिलाफत करता रहा है। संविधान लागू होने के बाद उसके गैर-आधिकारिक मुखपत्र ‘द आर्गनाईज़र’ ने लिखा था… ‘‘हमारे संविधान में प्राचीन भारत में हुए अनूठे सांस्कृतिक विकास का कोई उल्लेख नहीं है। मनुस्मृति की व्यवस्था आज की तारीख में भी दुनिया भर के लिए विशेष सम्मान का विषय है। वे लोगों को स्वाभाविक रूप से उनका पालन करने और उनके अनुरूप आचरण करने के लिए प्रेरित करते हैं,लेकिन हमारे संवैधानिक पंडितों के लिए इसका कोई मतलब नहीं है।’’
✍️भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए ने 1998 में सत्ता में आने के बाद संविधान की समीक्षा के लिए एक आयोग का गठन करने का काम किया था। इस वेंकटचलैया आयोग की रिपोर्ट लागू नहीं की जा सकी, क्योंकि संविधान के साथ किसी भी प्रकार की छेड़छाड़ का जबरदस्त विरोध हुआ था। भाजपा अपने बल पर 2014 से सत्ता में है और तब से उसने कई बार संविधान की मूल उद्देशिका का प्रयोग,उसमें से धर्मनिरपेक्ष व समाजवादी शब्द हटाकर किया है।
✍️सन 2000 में सुदर्शन के आरएसएस का प्रमुख बनने के बाद बिना किसी लागलपेट के कहा था कि "भारत का संविधान पश्चिमी मूल्यों पर आधारित है और उसके स्थान पर एक ऐसा संविधान बनाया जाना चाहिए जो भारतीय पवित्र ग्रन्थों पर आधारित हो। सुदर्शन ने कहा कि वर्तमान संविधान भारत के लोगों के लिए किसी काम का नहीं है,क्योंकि वह गवर्नमेंट ऑफ इण्डिया एक्ट-1935 पर आधारित औपनिवेशिकता की निशानी है। उन्होंने यह भी कहा कि हमें संविधान को पूरी तरह से बदल डालने में कोई संकोच नहीं करना चाहिए।"
✍️अभी पिछले साल अगस्त में ‘द मिंट’ में प्रकाशित अपने लेख में पीएम की आर्थिक सलाहकार परिषद के अध्यक्ष बिबेक देब रॉय ने भी संविधान को बदलने की जरूरत बताई थी,लेकिन उन्होंने देश के पीएम को कभी यह बताने की जरूरत नहीं समझी कि देश की अर्थव्यवस्था कैसे सुधारी जा सकती है,बेरोजगारी दूर कैसे हो सकती है,विदेशी मुद्रा के सापेक्ष रुपया क्यों गिरता जा रहा है?जबकि 2014 से पहले मोदी मंचों पर भारतीय रुपये के गिरने की चिंता में सदैव डूबे दिखाई देते थे। बीजेपी संगठन,संघ परिवार और सरकार का शीर्ष नेतृत्व समय-समय पर प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से संविधान को बदलने की बात करते रहें हैं,लेकिन भाजपा और सरकार एक कूटनीति के तहत आधिकारिक रूप से कहती रहती है कि वह इन विचारों का कभी अनुमोदन नहीं करती।
✍️बीते एक दशक के शासनकाल में बीजेपी ने संविधान के मूलभूत मूल्यों को अनवरत नुकसान पहुंचाने का यथासंभव प्रयास किए हैं।लोकतांत्रिक राज्य के सभी स्तम्भों,संवैधानिक स्वायत्त संस्थाओं,जांच एजेंसियों और चुनाव आयोग पर सरकार का नियंत्रण दिखाई देता है। बीजेपी सरकार का मतलब है,एक व्यक्ति। ईडी हो,सीबीआई हो,आयकर विभाग या चुनाव आयोग हो,सभी एक ही व्यक्ति के नियंत्रण और निर्देशन में काम करते दिख रहे हैं। जहां तक न्यायपालिका का सवाल है उसे भी अलग-अलग स्तरों पर अलग-अलग तरीकों से कमजोर करते हुए देखा जा सकता है। आखिर,क्या कारण है कि विपक्ष के नेताओं और सरकार की आलोचना करने वाले बुद्धिजीवियों के वर्षों से जेल में होने के बावजूद कोई अदालत उनकी जमानत की अर्जी पर विचार करने को तैयार नहीं है!
✍️जहां तक अभिव्यक्ति की आज़ादी का सवाल है बीजेपी के शासन काल में वह लगभग खत्म सी हो गयी है। मुख्यधारा का मीडिया सरकार का प्रशंसक,चाटुकार,प्रचार एजेंसी और सरकार पोषित कार्पोरेट घरानों के नियंत्रण में है और लगभग सभी नामीगिरामी टीवी चैनल और अखबार सरकार के भोंपू बन चुके हैं। स्वतंत्र रूप से सोचने वाले और आज़ादी से बोलने वालों के लिए बहुत कम जगह बची है अर्थात आज के दौर में असहमति या आलोचना के लिए कोई जगह नहीं बची है और यह तब जब हम सब जानते हैं कि बोलने की हमारी आज़ादी संवैधानिक लोकतंत्र का हिस्सा है।
✍️अंतर्राष्ट्रीय सूचकांकों के अनुसार भारत में धार्मिक स्वतंत्रता लगातार कमज़ोर होती जा रही है। अमरीका के धार्मिक स्वतंत्रता "वॉचडॉग" के अनुसार भारत ‘‘विशेष चिंता’’ का विषय है। "वी-डेम" के अनुसार प्रजातंत्र के सूचकांक पर भारत का नंबर 104 है। यह गिरावट पिछले दस सालों में ही आई है। वर्तमान सरकार अपनी जांच एजेंसियों और अपने निर्णयों के जरिये सांविधानिक लोकतांत्रिक स्वतंत्रता का लगातार गला घोंटती जा रही है।
✍️बहुत ज्यादा समय नहीं गुजरा है जब लालकृष्ण आडवाणी ने कहा था कि भारत में अघोषित आपातकाल लागू है। देश में हिन्दू राष्ट्रवाद के लड़ाके हर तरह की आज़ादी को कुचल रहे हैं और सरकारी तंत्र भी यही कर रहा है।सरकार दर्शक दीर्घा में है और इन तत्वों को उसका साफ संदेश है कि वे अल्पसंख्यकों और समाज के कमजोर वर्गों के लोकतांत्रिक नागरिक अधिकारों का खुल्लम-खुल्ला उल्लंघन और दमन कर सकते हैं और उनका कुछ नहीं बिगड़ेगा।
✍️ हम अपने आसपास देखते हैं तो मालूम होता है कि प्रत्येक धार्मिक राष्ट्रवादी संस्थाओं को लोकतांत्रिक स्वतंत्रताओं से एलर्जी है। वे सभी संविधान को बदलना चाहते हैं और उनके कार्यकर्ता ज़मीनी स्तर पर बाँटने और दमन करने वाली राजनीति करते हैं। पड़ोसी देश पाकिस्तान और श्रीलंका में यही होता आया है। अब भारत भी लोकतंत्र को कुचलने वाले देशों के उस क्लब में शामिल होने की कोशिश में है। संघ और भाजपा की रणनीति एकदम साफ दिखती है कि " एक तरफ संविधान को बदलने की बात करो और दूसरी तरफ जो वर्तमान संविधान है उसे लगातार यथासंभव कमज़ोर और निष्प्रभावी करने के प्रयास जारी रखो।"

Wednesday, April 17, 2024

सदियों से लाईलाज बीमारी का डॉक्टर-मुकेश वाळके

  कविता   
मुकेश वाळके
बंगाली कैम्प, मूल रोड, 
शांतिनगर, चंद्रपुर(महाराष्ट्र)
442401


डॉक्टर
मै फिर से खोज रहा हु 
तुम्हारा राष्ट्र मन जांचनेवाला टेटस्कोप
तुमने जो इजात किया था
जाति उन्मूलन का टीका-
और उसे लगाने के लिए इस्तेमाल की थी जो सिरिंज.

डॉक्टर
आज फिर से गर्व के साथ संक्रमित हुआ है-
जाति धर्म के द्वेष का चौमुखी वायरस 
कुरेद रहा सौहार्द्र रहित 
संवेदनशील मस्तिष्क का 
मानवतावादी ढांचा 
तुम्हारे मरीज का भटक रहा ध्यान और दिशाहीन,
हो रही तुमने जो सीधी कर दी वो गर्दन 
संविधान की फार्मसी देकर 
जहां तुमने उंगली दिखा कर लिखा था आर एक्स 
उस निरामय संसद की ओर 
दूसरो के कंधो पर जा रहें तुम्हारे 
स्वार्थ भावना से लापरवाह हुए मरीज, 
कोई पागलखाने भर्ती हो रहा हो जैसे!
पढ़ो, संघर्ष करो और संगठित रहो!
यह सब तुम्हारी जालीम टैबलेट्स खोज रहा हूँ, 
मै फिर से-
आजादी, समानता, न्याय और भाईचारे के 
सद्धम्म की स्थाई आराम देनेवाली सलाईन कहा खो गई है डॉक्टर?
चिंता करते करते ही तुमने बुनियाद रख छोड़ी,
दीक्षाभूमि के ग्लोबल मेडिकल कॉलेज की.
तुम्हारा मरीज ज्यादा समय दर्द और मर्ज से तड़पता ना रहें 
इसलिए ...  
लेकिन अब फिर अस्पताल के सामने दिखने लगी है कतार 
मरीजों की किसी महामारी की तरह. 
अब तुम ही बताओ डॉक्टर!
वो तुमने खोजा हुआ टीका कहा है?
तुम्हारा वो टेटस्कोप कहा है?
वो टैबलेट्स, और सलाइन कहा है?

डॉ.आंबेडकर के संगठन और संघर्ष जैसे मन्त्रों की राजनीतिक प्रासंगिकता:प्रो.नन्द लाल वर्मा(सेवानिवृत्त)

नन्दलाल वर्मा
(सेवानिवृत्त एसोसिएट प्रोफेसर)
युवराज दत्त महाविद्यालय
लखीमपुर-खीरी 
✍️एक जमाना था,जब न्यायपालिका और चुनाव आयोग जैसी भारत की स्वायत्त और स्वतंत्र संस्थाओं के सरकार और शक्तिशाली नेताओं के दबाव में न आने के लिए विश्व भर में भारत की प्रशंसा हुआ करती थी,लेकिन आज के दौर में ऐसा नहीं दिखाई दे रहा है। संवैधानिक संस्थानों को सत्त्तारुढ़ दल की सोच के अनुरूप ढालने के लिए लगातार दबाव जारी हैं। आज एक्टिविस्ट और विपक्षी नेताओं को महीनों तक बिना ज़मानत के न्यायिक हिरासत में,जेल या घरों में नज़रबंद कर रखा जा रहा है और लोकतंत्र की रक्षक न्यायपालिका की आज़ादी शंका की नज़र से देखी जाने लगी है। संवैधानिक जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए महत्वपूर्ण तंत्र आज के दौर में ग़ायब से होते दिख रहे हैं। विदेश ही नहीं देश के अंदर भी मोदी सरकार पर संविधान और लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं को किनारे लगाने का आरोप लग रहा है। आर्थिक सलाहकार परिषद के चेयरमैन डॉ.बिबेक देबराय ने अखबार मिंट में एक लेख के माध्यम से 2047 के लिए एक नए संविधान की जोरदार तरीके से वकालत कर चुके हैं और बीजेपी सांसद अनंत हेगड़े भी कई बार बयान दे चुके हैं कि संविधान बदलने के लिए दो तिहाई बहुमत जरूरी है। बीजेपी के नेताओं द्वारा दिया गया नारा "अबकी बार 400 पार" इसी संदर्भ में देखा जा रहा है। संघ,बीजेपी और मोदी का अंतिम लक्ष्य संविधान को नष्ट कर उसके स्थान पर मनुस्मृति की व्यवस्था लागू करना है। उन्हें न्याय,समता,धर्मनिरपेक्षता,नागरिक अधिकारों और लोकतंत्र से सख्त नफ़रत है।
✍️आंबेडकर ने संविधान के माध्यम से लोकतान्त्रिक मूल्यों की स्थापना की है। इसलिए हमारा संविधान हमारे लोकतंत्र का रक्षक है,लेकिन आज जैसे हालात पैदा हो गए हैं और निरंतर जारी हैं,ऐसे में आंबेडकर जी की विचारधारा और अधिक प्रासंगिक हो जाती है। आज चारों तरफ सांविधानिक अभिव्यक्ति की आजादी पर आक्रामक हमले हो रहे हैं। असहमति और विपक्ष लोकतंत्र की खूबसूरती माना जाता है, लेकिन आज विपक्ष,असहमति व्यक्त करने और सवाल करने वाले लोग एक तरह की अघोषित इमरजेंसी जैसे दौर में गुजरने को मजबूर हो रहे हैं। आज प्रजातांत्रिक व्यवस्था में "अहम ब्रह्मश्मि" जैसा दम्भ भरता हुआ एक तानाशाह दिखाई दे रहा है। संवैधानिक व्यवस्था और मूल्यों का खुला हनन हो रहा है। वर्तमान सत्तारूढ़ दल की पैतृक संस्था द्वारा संविधान बदलकर सांविधानिक धर्मनिरपेक्ष देश को “हिन्दू राष्ट्र” बनाने की बात कही जा रही है। लोकतांत्रिक मूल्यों की बात करने वालों को देश द्रोही करार देकर उन्हें जेल भेजा जा रहा है या उन्हें उनके घरों में नज़रबंद किया जा रहा है। चुनावी राजनीति के लिए साम्प्रदायिकता को हवा देने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी जा रही है। मॉबलिंचिंग जैसी वारदातों को अंजाम दिया जा रहा है। जातिगत-धार्मिक भेदभाव और अत्याचार की घटनाएं बढ़ रही हैं। ऐसे संक्रमण काल में डॉ.आंबेडकर की मानवतावादी विचारधारा और संवैधानिक व्यवस्था का महत्व और बढ़ जाता है। अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि संविधान और लोकतंत्र के बग़ैर भारत का कोई भविष्य नहीं है। 
संविधान सभा में दिए आख़िरी संबोधन में डॉ.आंबेडकर ने कहा था कि केवल राजनीतिक लोकतंत्र से काम नहीं चलेगा। राजनीतिक लोकतंत्र को सामाजिक लोकतंत्र में बदलना होगा। जब तक ऐसा नहीं होता है तब तक लोकतंत्र भारत की धरती पर सिर्फ़ आवरण मात्र होगा। हमारा भारत राजनीतिक लोकतंत्र से सामाजिक लोकतंत्र में कितना बदला है?सामाजिक लोकतंत्र का अर्थ है, स्वतंत्रता, समता और बन्धुतायुक्त सामाजिक जीवन पद्धति। लगता है कि हम संवैधानिक और कानूनी माध्यमों से इस दिशा में आगे जरूर बढ़े हैं,लेकिन अभी भी हमें एक लंबा रास्ता तय करना है।
✍️ अमेरिका की एक संस्था ने अपनी वार्षिक रिपोर्ट में कहा है कि पीएम मोदी की सरकार के अंतर्गत ''भारतीय लोकतंत्र अब पूर्ण रूप से आज़ाद के बजाए केवल आंशिक रूप से आज़ाद रह गया है और यह अधिनायकवाद की ओर बढ़ रहा है।" वहीं की एक मानवधिकार संस्था ने अपनी सालाना रिपोर्ट में लिखा है कि "सत्तारूढ़ हिंदू राष्ट्रवादी भारतीय जनता पार्टी की नेतृत्व वाली सरकार की नीतियों ने हाशिए के समुदायों, सरकार की आलोचना करने वालों और धार्मिक अल्पसंख्यकों, विशेष रूप से मुसलमानों पर अधिकाधिक दबाव डाला है।" "संघ की स्वतंत्रता" भारतीय नागरिकों के हाथों से फिसलने के साथ उनके राजनीतिक अधिकार और नागरिक स्वतंत्रता भी कम हो रही है।" हम कह सकते हैं कि आंबेडकर के सपनों का लोकतंत्र बीजेपी के कार्यकाल में गायब होता दिख रहा है। चुनावी तंत्र के भ्रष्ट होने से सम्पूर्ण लोकतंत्र खतरे में आ जाता है। लोकतंत्र में आने वाली हर गिरावट किसी भी देश की राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय साख में गिरावट लाने का संकेत देखे जा रहे हैं। 
✍️उदार लोकतंत्र के लिए जो सबसे महत्वपूर्ण बातें हैं उसमें पहला तो यह है कि क्या सभी नागरिकों को चेतना और धर्म की स्वतंत्रता हासिल है? दूसरा, कोई धार्मिक समूह चुनावी प्रक्रिया पर अनुचित प्रभाव तो नहीं डालते? अगर देश का वर्तमान संविधान,उनकी व्यवस्थाओं और संस्थाओं को नहीं बचाया गया तो पिछड़ों और वंचितों की सामाजिक न्याय के विस्तार की बात तो दूर की कौड़ी बल्कि उस व्यवस्था को जड़ से खत्म किये जाने की साजिश के स्पष्ट संकेत दिखने लगे हैं। प्रेस की आज़ादी जो थोड़ी बहुत बची हुई है, वह पूरी तरह खत्म हो जाएगी। संविधान सभा में डॉ.आंबेडकर के कड़े संघर्ष के बाद मिला आम आदमी का वोट देने का अधिकार भी छिन सकता है, ऐसी स्थिति में तो लोकतंत्र भी ख़त्म होना निश्चित है। इसलिए सन्निकट लोकसभा चुनाव में " संविधान बचाओ-देश बचाओ " का देशव्यापी सामाजिक और राजनीतिक अभियान चलाकर और नारा लगाकर सामाजिक न्याय के दायरे में शामिल वर्गों को जाग्रत करने की जरूरत है।
✍️आंबेडकर जी की जयंती,परिनिर्वाण और संविधान दिवस पर भारत में लोकतंत्र और संविधान में आती गिरावटों पर होती बहसें इस बात का परिचायक हैं कि भारत में लोकतंत्र और आंबेडकर के संविधान के प्रति लोगों की अभी भी आस्था बनी हुई है अर्थात संविधान विरोधी शक्तियों के सतत प्रयास के बावजूद आंबेडकर का संविधान और लोकतंत्र अब भी ज़िंदा है। सबसे उल्लेखनीय पहलू यह है कि भारत में लोकतांत्रिक मूल्यों और मर्यादाओं में आ रही गिरावट की आलोचनाओं को भारत में वह समूह भी उठा रहा है जिन्हें महसूस होता है कि सत्ता संस्थाओं द्वारा उन्हें ख़ामोश किए जाने का कोई मौका नहीं छोड़ा जा रहा है।

Friday, March 29, 2024

मन का फेर (अंधविश्वासों रूढ़ियों एवं कुरीतियों पर केंद्रित साझा लघुकथा संग्रह)-मनोरमा पंत

पुस्तक समीक्षा

मनोरमा पंत 
वरिष्ठ  साहित्यकार
भोपाल (म०प्र०)

पुस्तक-मन का फेर (अंधविश्वासों रूढ़ियों एवं कुरीतियों पर केंद्रित साझा लघुकथा संग्रह) 
प्रकाशन-श्वेत वर्णा प्रकाशन नोयडा
संपादक-सुरेश सौरभ 
मूल्य- 260 /
अनेक महत्वपूर्ण पुस्तकों के संपादक-लेखक सुरेश सौरभ, नवीन लघुकथा का साझा संग्रह ‘मन का फेर‘ लेकर पाठकों के बीच उपस्थित हुए हैं, अंधविश्वासों, रूढ़ियों एवं कुरीतियों पर केंद्रित यह साझा लघुकथा संग्रह अपने आप में बेहद अनूठा है। जिसमें उनकी संपादन कला निखर कर आई है। बलराम अग्रवाल, योगराज प्रभाकर जैसे प्रमुख लघुकथाकारों ने  एक स्वर में कहा है कि लघुकथा का मुख्य उद्देश्य समाज की विसंगतियों को सामने लाना है।’ इस उदेश्य में सुरेश  सौरभ  का नवीनतम  लघुकथा-संग्रह  ‘मन का फेर’ खरा उतरा है। यह एक विडम्बना ही है कि विकसित देशों के समूह  में शामिल होने में अग्रसर  भारत का एक बहुत बड़ा वर्ग आज भी धर्म और परम्परा के नाम  पर ढोंगी महात्माओं और कथित मौलवियों के जाल में फँसा हुआ है। अभी भी स्त्री को डायन करार कर प्रताड़ित  किया जाता है, पिछड़े इलाकों में बीमार  व्यक्ति को, चाहे वह दो महीने का बच्चा ही क्यों न हो, नीम हकीम के द्वारा लोहे के छल्लों से दागा जाता है। ऐसे समाज  को जागरुक करने का बीड़ा  उठाने में यह लघुकथा-संग्रह  सक्षम  है ।
डॉ० राकेश माथुर
'मन का फेर' पुस्तक पढ़ते हुए.


      सुकेश सहानी, मीरा जैन, डॉ.पूरन सिंह, कल्पना भट्ट, डॉ. अंजू दुआ जैमिनी, गुलजार हुसैन, चित्तरंजन गोप 'लुकाठी', डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी, रमाकान्त चौधरी, अखिलेश कुमार ‘अरूण’, डॉ. राजेंद साहिल, डॉ. मिथिलेश दीक्षित, रश्मि लहर, विनोद शर्मा, सहित 60 लघुकथाकारों से सुसज्जित, 144 पृष्ठीय संग्रह में, आडम्बरों को, रूढ़ियों को बेधती मार्मिक लघुकथाएँ सहज, सरल, भाषा शैली में, पाठकों को आकर्षित करने में सफल है। हाल ही में इस संग्रह का विमोचन स्वच्छकार समाज और समाज सेवियों ने किया। सौरभ जी का प्रसास है कि समाज में अंतिम पायदान पर खड़े व्यक्ति तक साहित्य पहुँचे। संग्रह की भूमिका प्रसिद्ध पत्रकार लेखक अजय बोकिल ने लिखी है। संग्रह की लघुकथाएँ शोधपरक एवं पठनीय हैं। सुरेश  सौरभ  को  इस लघुकथा-संग्रह के लिए  बधाई।

Tuesday, February 27, 2024

अमीन सयानी ने मनोरंजन की दुनिया में रेडियो का मधुर व्याकरण रचा-अजय बोकिल

अजय बोकिल
 वरिष्ठ संपादक, दैनिक सुबह सवेरे म०प्र०
अमीन सयानी यानी आवाज की दुनिया के सुपर स्टार। बचपन में जब अमीन सयानी का हर दिल अजीज कार्यक्रम ‘बिनाका गीतमाला’ सुनते तो लगता था कि ये आवाज किसी दूसरी दुनिया से आती है। ऐसी आवाज जो मानो रेडियो के लिए ही बनी है और रेडियो अमीन सयानी के लिए। कल के रेडियो उद्घोषक और आज के रेडियो जाॅकी अमीन सयानी की जानदार आवाज और अदायगी को के प्रति श्रोताअों की जबर्दस्त दीवानगी को शायद ही समझ पाएं। वो जमाना था जब बड़े बड़े फिल्म स्टार भी अमीन सयानी से मिलने को बेताब हुआ करते थे। दरअसल अमीन सयानी ने आजाद भारत में मनोरंजन की दुनिया में रेडियो एक नया और मधुर व्याकरण रचा। शुष्क समाचार, धीर गंभीर सूचनाअों और शास्त्रीय संगीत से परे जाकर आम आदमी की जबान में आम आदमी से सहज और दिलकश संवाद की नींव अमीन सयानी ने अपनी युवावस्था में रखी। उसी नींव पर आज टी.वी. चैनल्स और एफएम रेडियो की दुनिया खड़ी है। यह कहना गलत नहीं होगा कि अमीन सयानी भारतीय रेडियो की दुनिया के ‘पितृ पुरूष’ थे। 
अमीन सयानी को सिर्फ इसलिए याद नहीं किया जाएगा कि उन्होंने बिनाका गीतमाला के रूप में हिंदी फिल्मों की लोकप्रियता का पैमाना तय करने वाला कार्यक्रम 42 साल तक होस्ट किया, बल्कि इसलिए भी याद किया जाएगा कि उन्होंने रेडियो की जनोन्मुखी, संवादात्मक और सहज सम्प्रेषणीय भाषा भी रची। अमीन सयानी जिस भाषा में उद्घोषणा करते थे, इसके माध्यम से रोचकता का संसार रचते थे,  वह हिंदी और उर्दू का मीठा मिश्रण होता था। खास बात यह है कि अमीन सयानी ने अंग्रेजी उद्घोषक के रूप में कॅरियर की शुरूआत की थी। लेकिन बाद में वो हिंदी उद्घोषणा के मील का पत्थर बन गए। अपनी सरल लेकिन प्रभावी शब्द संपदा के साथ हिंदी उर्दू के कठिन शब्दों का शुद्ध और नफासत भरा उच्चारण, स्वराघात, लय और प्रांजल सम्प्रेषणीयता अमीन सयानी की जुबान की ऐसी खूबियां थीं कि लोग उनकी सामान्य बातचीत पर भी मोहित हो जाते थे। बीती सदी में साठ और सत्तर के दशक में हर युवा उद्घोषक अमीन सयानी की नकल करने की कोशिश करता था और वैसा ही बनना चाहता था। अभी भी विविध भारती के नामी उद्घोषक युनूस खान की उद्घोषण शैली में इसकी झलक देखी जा सकती है। उन दिनो हिंदी उद्घोषणा जगत में तीन आवाजें मानक समझी जाती थीं। समाचार वाचन में आकाशवाणी के देवकी नंदन पांडे, हाॅकी कमेंट्री में जसदेवसिंह तथा मनोरंजन के क्षेत्र में अमीन सयानी। इन सभी ने जनसंचार के क्षेत्र में रेडियो माध्यम की महत्ता और चुनौतियों को बखूबी समझा तथा उसे एक नई परिभाषा दी। इन तीनों में भी अमीन सयानी का नाम तो हर घर में पहुंच चुका था। उन्होंने सार्वजनिक संबोधन में भी एक बुनियादी बदलाव किया था। तब तक किसी भी कार्यक्रम में वक्ता आम तौर पर ‘भाइयो और बहनो’ से बोलने की शुरूआत करते थे। लेकिन इससे लैंगिक विषमता की गंध आती थी। अमीन सयानी ने अपने कार्यक्रम में ‘बहनो और भाइयों’ कहना शुरू किया, जो बेहद लोकप्रिय हुआ और स्त्री शक्ति की महत्ता को रेखांकित करता था।
ये सुखद संयोग ही है कि 20 साल की उम्र में अमीन सयानी ने रेडियो सीलोन से भारतीय फिल्म संगीत, जो उस वक्त अपने सुनहरे दौर में कदम रख रहा था, को घर- घर पहुंचाने और उत्कृष्टता की प्रतिस्पर्द्धा में लोकप्रियता को एक मानदंड के रूप में स्थापित करने का सफल प्रयास किया। यही वो दौर था, जब देश की पुरानी पीढ़ी हिंदी फिल्मों के संगीत को बाजारू मानकर उसे खारिज या अनदेखा करने की कोशिश कर रही थी। देश के तत्कालीन सूचना प्रसारण मंत्री बी.वी. केसकर ने तो आकाशवाणी से हिंदी फिल्म संगीत का प्रसारण यह कहकर बंद करवा दिया था कि इससे देश की युवा पीढ़ी बिगड़ रही है। जबकि हकीकत में उसी दौर में हिंदी सिने संगीत के स्वर्णिम काल का द्वार भी खुल रहा था। देश की नई पीढ़ी सुरों की उन्मुक्त दुनिया का आस्वाद ले रही थी। लता मंगेशकर, मोहम्मद रफी, मन्ना डे, गीता दत्त, आशा भोसले, तलत महमूद, मुकेश, किशोर कुमार जैसे महान गायक अपनी कला से सुगम संगीत के नए प्रतिमान रच रहे थे। इन गायकों को महान बनाने का काम असाधारण रूप से प्रतिभाशाली कई संगीतकार कर रहे थे। युवा पीढ़ी इन गायकों की आवाज की दीवानी थी। लेकिन तत्कालीन सरकार की नजर में यह सब बेकार की बातें थीं। (हालांकि बाद में इस गलती को आकाशवाणी से विविध भारती कार्यक्रम शुरू करके सुधारा गया।) लेकिन इसमें निहित संकेत साफ था कि संगीत की स्वर लहरियां अभिजात्य शास्त्रीय संगीत की संकुचित दुनिया से बाहर निकल कर लोक विश्व में तैरने को बेताब थीं। मानो देश के साथ संगीत भी आजाद हो गया था। उधर  रेडियो सीलोन (जो एक श्रीलंकाई कंपनी थी) ने आजादी के बाद बदलती लोक रूचि को ध्यान में रखकर बिनाका गीतमाला कार्यक्रम शुरू किया, जिसके उद्घोषक बने अमीन सयानी। अमीन साहब के सामने ऐसे कार्यक्रम का कोई तयशुदा माॅडल नहीं था। लिहाजा उन्होंने अपना खुद का माॅडल तैयार किया, शैली गढ़ी। हालांकि उन दिनो देश भर में रेडियो स्टेशनो की संख्या एक दर्जन से भी कम थी और रेडियो की पहुंच मुश्किल से 15 फीसदी आबादी तक रही होगी, लेकिन ‘बिनाका गीतमाला’ सुनने के लिए लोग रेडियो खरीदने लगे। रेडियो के प्रसार के साथ ही बिनाका गीतमाला भी लोकप्रिय होता चला गया। हर हफ्ते बुधवार को रात आठ बजे प्रसारित होने वाले इस कार्यक्रम को सुनने वालों में शर्त बदी जाती कि इस हफ्ते कौन सा गाना नंबर एक पर रहने वाला है। ‘पायदान, हिट परेड, सरताज जैसे शब्दों को अमीन साहब ने ही लोकप्रिय बनाया। कौन सा गीत कौन सी पायदान पर रहने वाला है, इसको लेकर देश भर में उत्सुकता रहती। लोग रात आठ बजे सारे काम छोड़कर रेडियो से कान लगाए रहते। 1954 में साल भर में नंबर पर रहने वाला पहला गीत था फिल्म ‘अनारकली’ का स्वर साम्राज्ञी लता मंगेशकर का गाया ‘ ये जिंदगी उसी की है, जो किसी का हो गया।‘ इसी कड़ी में सन 2000 में आखिरी सर्वाधिक लो‍कप्रिय गीत था फिल्म मोहब्बतें का ‘हमको हमी से चुरा लो।‘ संयोग देखिए कि यह गीत भी लता मंगेशकर ने ही गाया था। या यूं कहें ‍कि सिने संगीत के मेलोडी की शुरूआत भी लताजी  से होती है और शायद समापन भी उन्हीं की आवाज से होता है।  
बिनाका गीतमाला में चयनित गीतों का मानदंड क्या था, यह खुद अमीन सयानी ने एक इंटरव्यू में बयान किया था। उन्होंने कहा था कि बिनाका गीतमाला का प्रसारण रेडियो सीलोन से 1952- 53 में शुरू हुआ। आरंभ में गीतों को पायदान के अनुसार क्रम देने का चलन नहीं था। पहली बार 1954 में गीत को उसकी लोकप्रियता के आधार पर क्रम देने की शुरूआत हुई। इसका मुख्य मापदंड उस गीत की लोकप्रियता थी। यह लोकप्रियता उस गीत के रिकाॅर्ड की बिक्री के आंकड़ों तथा श्रोताअों की वोटिंग के आधार पर तय होती थी। हालांकि बाद में वोटिंग सिस्टम बंद कर दिया गया।  

बिनाका गीतमाला की सर्वाधिक लोकप्रियता उसकी रजत जयंती तक रही। हालांकि बाद में भी यह कार्यक्रम प्रसारित होता रहा, लेकिन टीवी के आगमन के बाद कानों की दुनिया की जगह आंखों की दुनिया ने ली। गायको के सामने गीत के भाव को अपनी आवाज के माध्य म से विजुलाइज करने की चुनौती घटने लगी। गाना संगीत के सागर में तैरने की जगह परफार्म करने का विषय बन गया। 
ये अमीन सयानी ही थे, जो रेडियो के उत्तर काल में भी अपनी आवाज के दम पर अपनी पहचान कायम रख सके। इस कार्यक्रम के एक जमाने में 20 लाख से ज्यादा श्रोता हुआ करते थे। अमीन साहब ने रेडियो पर लगभग 54 हजार प्रोग्राम प्रोड्यूस और कम्पेयर किए थे। 19 हजार स्पॉट/जिंगल में भी उनका आवाज सुनाई दी थी। अमीन सयानी कई फिल्मों में भी रेडियो अनाउंसर के तौर पर नजर आए। 2009 में उन्हें रेडियो के क्षेत्र में असाधारण योगदान के लिए भारत सरकार ने पद्मश्री से नवाजा। 
आजकल रेडियो एनांउसर को रेडियो जाॅकी कहा जाता है। एफ एम रेडियो ने इस पेशे को कुछ अलग चमक दी है। लेकिन एक अच्छा और अनोखा रेडियो जाॅकी बनना अभी भी आसान नहीं है। अमीन सयानी कहते थे कि हर रेडियो जाॅकी को अपने आप में अलग होना चाहिए। यह उसकी आवाज के अनोखेपन से ही संभव है। वरना सभी की आवाज और अदायगी एक सी होगी तो कौन सुनेगा। साथ ही रेडियो जाॅकी को लोगों को अपने जैसा महसूस होना चाहिए। अमीन सयानी रेडियो जाॅकी के लिए एक समृद्ध विरासत छोड़ गए हैं।  प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपनी श्रद्धांजलि में कहा कि अमीन सयानी अपने काम के जरिए वे भारतीय ब्रॉडकास्टिंग की दुनिया में क्रांति लाए और अपने श्रोताओं के साथ खास बॉन्ड बनाया। कुछ लोग अमीन सयानी को भारतीय रेडियो का ‘ग्रैंड अोल्ड मैन’ भी कहते हैं। अमीन सशरीर भले जुदा हुए हों, लेकिन उनकी रेशमी आवाज हमेशा हमारे साथ रहेगी। आमीन। 
( ‘सुबह सवेरे’ में दि. 22 फरवरी 2024 को प्रकाशित)

Wednesday, January 24, 2024

राम अयोध्या लौटे हैं- एड. रमाकान्त चौधरी

एड. रमाकान्त चौधरी
गोला गोकर्णनाथ, लखीमपुर खीरी।
उत्तर प्रदेश, मो. 9415881883


जो हाथ लगायेगा सीता को वह रावण मारा जायेगा।
राम अयोध्या लौटे हैं अब राम राज्य आ जायेगा।
सदियों से शोषित पीड़ित जो वह स्वाभिमान पा जायेंगे।
शोषण करने वालों पर कोड़े बरसाए जायेंगे।
दीप जलेंगे खुशियों के गम के बादल छंट जायेंगे।
जातिवाद और ऊंच नीच के सब गड्ढे पट जायेंगे।
अब ना होगा जुल्म किसी पर जुल्मी मारा जायेगा।
राम अयोध्या लौटे हैं अब राम राज्य आ जायेगा।
रिश्वतखोरी और दलाली अब ना होगी थानों पर।
रोक लगेगी भारत भर के मक्कारों बेईमानों पर।
बालाएं अब घूम सकेंगी मेलों में बाजारों में।
दुष्कर्म नहीं हो पाएंगे अब ट्रेन बसों व कारों में।
राहजनी और लूटपाट अब कोई नहीं कर पायेगा।
राम अयोध्या लौटे हैं अब राम राज्य आ जायेगा।
हर मानव अब सच बोलेगा अब सतयुग फिर से लौटेगा ।
झूठ बोलने वाला कोई दूर-दूर तक नहीं दिखेगा।
हर द्वारे पर गाय जनेंगी प्यारे-प्यारे बछड़ों को।
ताले अब लग जाएंगे भारत के बूच़डखानों को।
हर किसान खुशहाल रहेगा अब ना जान गंवाएगा।
राम अयोध्या लौटे हैं अब राम राज्य आ जायेगा।
भात भात कहकर के कोई अब न मरेगी संतोषी।
हर नंगा कपड़ा पायेगा हर भूख पायेगा रोटी।
मुनिया का अपहरण न होगा अब न बिकेगी कोठों पर।
मुजरिम को अब सजा मिलेगी न्याय न होगा नोटों पर।
सबके नाथ सियापति होंगे कोई न अनाथ कहायेगा।
राम अयोध्या लौटे हैं अब राम राज्य आ जायेगा।
आतंकवाद का दूर-दूर तक नामों निशां नहीं होगा।
गद्दारों का धड़ होगा सिर का पता नहीं होगा।
बेरोजगार अब कोई न होगा सबको मिलेगी अब रोजी।
देशद्रोहियों को मारेगा सरहद का इक-इक फौजी।
पुलवामा का किस्सा अब बिल्कुल न दोहराया जायेगा।
राम अयोध्या लौटे हैं अब राम राज्य आ जायेगा।
घर-घर जा साधु सन्यासी अब उपदेश सुनायेंगे ।
राजनीति से दूर रहेंगे अपना फर्ज निभाएंगे।
धोखा देने वालों का निश्चित ही जेल पठाना है।
सच कहता हूं सुनो मित्रों मुझे अयोध्या जाना है।
राम राज्य आ जाने से अब परिवर्तन आयेगा।।
राम अयोध्या लौटे हैं अब राम राज्य आ जायेगा।।


Saturday, January 06, 2024

मोहन यादव सरकार: अपनी लकीर बड़ी करने की पुरजोर कोशिश... अजय बोकिल

राजनीतिक चर्चा
वरिष्ठ  संपादक
सुबह सवेरे, म०प्र०


मध्यप्रदेश में नई भाजपा सरकार में मुख्यमंत्री पद की दौड़ में डाॅ. मोहन यादव को शुरू में भले ही ‘डार्क हाॅर्स’ माना जा रहा हो, लेकिन अपने 20 दिन के कार्यकाल में उन्होंने जिस तेजी से और जिस संकल्प शक्ति के साथ फैसलों की झड़ी लगा दी है, उससे राज्य में साफ संदेश गया है कि कोई उन्हें ‘हल्के’ में न ले। यह अपनी लकीर बड़ी करने की कोशिश भी है। खास बात यह है कि डाॅ.मोहन यादव के कुछ फैसलों में कई छोटी- छोटी लेकिन गंभीर जमीनी समस्याअों की निदान की चिंता भी दिखाई पड़ती है। यानी ये समस्याएं तो बरसों से चली आ रही हैं, लेकिन किसी भी मुख्यमंत्री ने इन्हें अब तक बहुत संजीदगी से नहीं लिया। दूसरे, यादव सरकार के फैसलों में राजनीतिक दूरदर्शिता के साथ- साथ प्रशासनिक कसावट का आग्रह भी साफ नजर आती है। 
मप्र में पूर्व मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान के नेतृत्व में भाजपा की चौथी बार बंपर जीत के बाद बहुतों का कयास था कि अब पार्टी को राज्य में नया चेहरा प्रोजेक्ट करना आसान नहीं होगा। लेकिन भाजपा आलाकमान ने सरकार का चेहरा मोहरा बदलने की ठान ली थी। इसी के तहत बहुत कम चर्चित लेकिन भगवान महाकाल की नगरी के बाशिंदे डाॅ. मोहन यादव को मुख्‍यमंत्री पद की कमान सौंपी गई। हालांकि आला कमान द्वारा सुनियोजित तरीके से दरकिनार ‍िकए गए पूर्व मुख्यमंत्री‍ शिवराजसिंह चौहान ने एक अलग रणनीति अपनाते हुए एक बार फिर से अपनी दावेदारी जताने का कोई मौका नहीं छोड़ा  और वो अभी भी यह बताने में लगे हैं कि भूमिका कोई सी भी हो, वो जन सेवा से पीछे हटने वाले नहीं है। शिवराज की यह कसक समझी जा सकती है, क्योंकि उन्होंने लगभग 17 साल तक देश के इस ह्रदय प्रदेश की कमान संभाली और राजनीति का अपना अलग नरेटिव गढ़ा। लेकिन लगातार सत्ता में बने रहने के अपने दुष्परिणाम भी होते हैं। सरकार में एक काकस और निरंकुशता का भाव बन जाता है। यूं शिवराज भावनात्मक और भौतिक रूप से जनता से जुड़े रहे, लेकिन प्रशासनिक तंत्र जनता से दूर होता चला गया। उसमे मगरूरी का भाव घर कर गया। इसके अलावा खुद शिवराज का बढ़ता कद भी भाजपा आला कमान को असहज करने वाला था। इसलिए माना गया कि अब राज्य में बदलाव का सही समय है। 
नए मुख्‍यमंत्री डाॅ मोहन यादव के सामने वही चुनौतियां थीं, जो किसी भी नए नवेले और अचर्चित मुख्यमंत्री के सामने होती है। उन्हें तय करना था कि वो शिवराज सरकार की छाया और प्रशासनिक शैली से बाहर निकलकर नई पिच पर कैसी बैटिंग करते हैं। जनता देख रही है कि उनमें उनकी अपनी सोच, संघ से तालमेल, भाजपा के एजेंडे को क्रियान्वित करने का संकल्प, नौकरशाही में धमक कायम करने का जज्बा और प्रशासनिक तंत्र को नए नई और सही दिशा में हांकने की क्षमता कितनी है। इस दृष्टि से इतना तो कहा ही जा सकता है कि सीएम डाॅ.मोहन यादव ने इस वन डे मैच के शुरूआती अोवर दमदारी से और सधे हाथों से खेले हैं।
और इस बात के पुष्ट प्रमाण भी हैं। मसलन मुख्‍यमंत्री बनने के तत्काल बाद जारी उनका पहला आदेश प्रदेश में धार्मिक स्थानों पर जोर से लाउड स्पीकर बजाने और खुले में मांस और अंडे की बिक्री पर सख्‍ती से रोक। इस फैसले को यूपी में योगी आदित्यनाथ सरकार के दूसरे कार्यकाल के मंगलाचरण की नकल के रूप में भी देखा गया, लेकिन धार्मिक स्थलों और अन्य कार्यक्रमों में कई बार बहुत ज्यादा शोर और कानफोड़ू लाउड स्पीकर आम जनता की परेशानी का सबब बन गए थे। चूंकि मामला धार्मिक था, इसलिए इसके खिलाफ कोई बोलने की हिम्मत नहीं कर पाता था। विपक्षी कांग्रेस  ने इस आदेश में भाजपा और आरएसएस का साम्प्रदायिक एजेंडा देखा और इस आदेश को परोक्ष रूप से मुसलमानों के खिलाफ बताने की कोशिश भी हुई, लेकिन मोटे तौर पर आम जनता ने इसका स्वागत ही ‍िकया, क्योंकि यह नियम किसी धर्म विशेष के स्थलों के लिए न होकर सभी धार्मिक स्थलों  के लिए था। इसी तरह खुले में मांस व अंडों की बिक्री पर रोक से उन छोटे दुकानदारों और ठेले वालों को जरूर परेशानी हुई है, जो सरेआम सड़क किनारे दुकान लगा कर ये सामग्री बेचकर अपना पेट भरते हैं, लेकिन ज्यादातर लोगों ने इसे इसलिए सही माना, क्योंकि खुले में मांस बिक्री वैसे भी स्वास्थ्य के लिए हानिकर है। ऐसी कुछ अवैध दुकानों को तोड़ा भी गया। यही नहीं सरकार ने ध्वनि प्रदूषण के मामलों की जांच के लिए फ्लाइंग स्क्वॉड भी गठित किया है, जो निर्धारित सीमा से अधिक ध्वनि प्रदूषण की शिकायत मिलने पर क्षेत्र में जाकर कार्रवाई करेगा। धार्मिक स्थलों पर लाउडस्पीकरों से होने वाले ध्वनि प्रदूषण की हर हफ्ते समीक्षा की जाएगी। इसका असर दिखने भी लगा है।  भाजपा नेता उमा भारती यादव सरकार  के इस फैसले से गदगद दिखी। उन्होंने सोशल मीडिया पर इसे ‘यादव सरकार की संवेदनशीलता’ निरूपित किया। 
यादव सरकार का दूसरा अहम फैसला राज्य में विस चुनाव नतीजों के बाद भोपाल में एक भाजपा कार्यकर्ता पर हमला कर उसकी कलाई काटने के आरोपियों के घरों पर बुलडोजर चलाने का था। अल्पसंख्यक समुदाय के आरोपियों के घर बुलडोजर चलवाकर यादव ने यह संदेश दिया कि अपराध नियंत्रण और आरोपी को सबक सिखाने के मामले में वो योगी सरकार की नीति पर चलेंगे। हालांकि बुलडोजर को ‘त्वरित न्याय’ का उपाय मानने और इंसाफ की वैधानिक प्रक्रिया को दरकिनार करने के भाजपाई सोच पर प्रश्नचिन्ह भी लगता रहा है, लेकिन इससे जनाक्रोश को तत्काल कम करने का संदेश भी जाता है। एक और निर्णायक फैसला  प्रदेश की राजधानी भोपाल में विवादित बीआरटीएस ( बस रैपिड ट्रासंपोर्ट सिस्टम) के खात्मे का था। देश के कुछ दूसरे शहरों की नकल पर भोपाल में ‍िनर्मित बीआरटीएस शुरू से विवादों में रहा। करीब 13 पहले शिवराज सरकार के कार्यकाल में बना यह बीआरटीएस 360 करोड़ रू. खर्चने  के बाद भी न तो पूरी तरह बन सका और न ही राजधानी के यातायात को सुगम बनाने का इसका मूल उद्देश्य पूरा हो सका। इसे हटाने की बात बीच में सवा साल के लिए सत्ता में आई कमलनाथ सरकार के कार्यकाल में भी उठी थी, लेकिन अफसरों ने उस सरकार को भी इस बारे में कोई ठोस निर्णय लेने से रोक दिया था। हकीकत में बीआरटीएस जी का जंजाल ज्यादा बन गया था। यह बात अलग है कि इस बीआरटीएस को हटाने में भी अफसर और नेताअों की चांदी होने वाली है, क्योंकि हाथी मरा भी तो सवा लाख का। बताया जा रहा है कि इसे हटाने पर भी 40 करोड़ का खर्च अनुमानित है। 
 लेकिन यादव सरकार के  जिस फैसले ने मोहन यादव सरकार की धमक कायम की वो गुना बस हादसे के समूची नौकरशाही को जिम्मेदार मानते हुए  ‘पूरे घर के बदल डालने’ का था। एक निजी बस और डंपर की टक्कर के बाद लगी आग में 13 यात्रियों की जलकर मौत हो गई थी। जांच में सामने आया कि दोनो ही वाहन अवैध तरीके से चल रहे थे। इसके बाद सीएम मोहन यादव ने गुना जिले के कलेक्टर, एसपी के साथ साथ  ट्रांसपोर्ट कमिश्नर और प्रमुख सचिव परिवहन को भी पद से हटा कर समूची नौकरशाही में कड़ा संदेश ‍िदया।  यह मौका देखकर चौका मारने वाली बात भी थी, क्योंकि आगे पीछे शिवराज सरकार में प्रमुख पदों पर बैठे अफसरों को हटना ही था, लेकिन सड़क हादसा इसका निमित्त बन गया। वैसे भी किसी सड़क हादसे में सरकार द्वारा अब तक की गई यह सबसे बड़ी कार्रवाई है, हालांकि जिस बस के यात्रियों की अकाल मौत हुई, वो एक भाजपा  नेता की है और उसके खिलाफ कार्रवाई का अभी लोगों को इंतजार है।  
जन समस्याअों से जुड़ा एक और मुद्दा जिलों, तहसीलों और थानों की सीमा के पुनर्निधारण का है। इसके लिए एक कमेटी बनाने का फैसला हुआ है, जो इसका अध्ययन कर सरकार को रिपोर्ट देगी। शुरुआत पायलट प्रोजेक्ट के रूप में इंदौर संभाग से की जाएगी। यह सही है कि राज्य में कई तहसीलों और थानों की भौगोलिक सीमाएं ऐसी हैं, जो स्थानीय नागरिकों की पहुंच से प्रशासन को दूर करती हैं। इनके युक्तियुक्तकरण की बेहद आवश्यकता थी। मसलन किसी गांव से जिला मुख्यालय 10 किमी है तो किसी दूरस्थ तहसील से इसकी  दूरी सौ किमी तक है। जबकि पड़ोस का जिला मुख्यालय वहां से बहुत पास है। यही स्थिति थानों  की भी है। किसी गांव से पुलिस थाना बहुत पास है तो किसी गांव से बहुत दूर। इस विसंगति को मिटाने  के लिए तहसील और थानों की सरहदों का पुनर्निधारण बेहद जरूरी था। यादव सरकार ने इस बारे में निर्णय लेकर एक बुनियादी मसले के हल की दिशा में कदम उठाया है। प्रशासन की लोगों तक सुगम पहुंच के इस फैसले पर अगर सही ढंग से अमल हुआ तो इसका सकारात्मक असर जरूर दिखाई देगा। ताजा तरीन फैसला ड्राइवरों की औकात को लेकर की गई घटिया टिप्पणी के बाद शाजापुर कलेक्टर किशोर कन्याल को ताबड़तोड़ पद से हटाना है। संदेश यही कि ड्राइवर जैसे छोटे कर्मियों का भी सरकार की नजर में बड़ा महत्व है। इसके अलावा उच्च शिक्षा में गुणवत्ता के उद्देश्य से हर जिले में प्रधानमंत्री एक्सीलेंस काॅलेज खोलने का निर्णय भी अहम है। लेकिन इसी के साथ राज्य में पहले से चल रहे काॅलेज आॅफ एक्सीलेंस और सीए राइज स्कूलों की दुर्दशा पर भी सरकार को गंभीरता से ध्यान देना चाहिए। कुल मिलाकर नई सरकार का आगाज तो अच्छा है, लेकिन इसके अनुकूल राजनीतिक, सामाजिक और प्रशासनिक परिणाम कैसे और कितने आते हैं, इस पर यादव सरकार का भविष्य काफी कुछ निर्भर करेगा।
( सुबह सवेरे’ में दि. 4 जनवरी 2023 को प्रकाशित)


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