साहित्य

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  • लखीमपुर-खीरी उ०प्र०

Sunday, May 05, 2024

यूपी के विशेष संदर्भ में: टैक्टिकल वोटिंग से चुनावी राजनीति के पंडितों के सारे पूर्वानुमान और आंकड़े धराशायी होने के साथ बीजेपी का भारी भरकम चुनावी तंत्र भी बौना साबित हो सकता है-प्रो.नन्द लाल वर्मा (सेवानिवृत्त)


   चुनावी चर्चा 2024   
नन्दलाल वर्मा
(सेवानिवृत्त एसोसिएट प्रोफेसर)
युवराज दत्त महाविद्यालय
लखीमपुर-खीरी
✍️2019 लोकसभा चुनाव परिणाम आने के बाद बहुजन समाज पार्टी के निजी चुनावी विश्लेषण में यह निष्कर्ष निकाला गया था  कि इस लोकसभा चुनाव में उसे समाजवादी पार्टी का कोर वोट बैंक ट्रांसफर नहीं हुआ, लेकिन चुनाव आयोग के अंतरिम आंकड़ों के विश्लेषण से पता चलता है कि बसपा को सपा के साथ हुए गठबंधन से उसके परंपरागत सामाजिक वोट का आंशिक लाभ तो मिला ही है। इसके इतर सपा को बसपा का कथित ट्रांस्फरेबल कोर वोट बैंक पूरी तरह ट्रांसफर होता नहीं दिखाई देता है। विश्लेषण से निष्कर्ष निकलता है कि उसके कोर वोट बैंक में बीजेपी एक लाभार्थी वर्ग पैदाकर उसमें अच्छी खासी सेंधमारी करने में सफल हुई है।
✍️यूपी में 2019 लोकसभा चुनाव बसपा-सपा ने मिलकर चुनाव लड़ा था, लेकिन अपेक्षित नतीजे नहीं मिलने की वजह से बीएसपी द्वारा परिणाम घोषित होते ही यह आरोप लगाकर गठबंधन तोड़ दिया था कि सपा का कोर वोट बैंक उसे ट्रांसफर नहीं हुआ। 2014 में बसपा ने अकेले दम पर 80 सीटों पर चुनाव लड़ा था और उसे 19.77% वोट मिले थे और एक भी सीट पर सफलता नहीं मिली थी। 2019 में उसने सपा के साथ गठबंधन कर 36 सीटों पर चुनाव लड़कर उसे 19.36% वोट मिले। सिर्फ 36 सीटों पर लड़ने के बावजूद बसपा को लगभग पिछले चुनाव के बराबर ही वोट प्रतिशत हासिल हुआ। इससे साबित होता है कि बसपा को सपा का कुछ न कुछ वोट अबश्य ट्रांसफर हुआ है। वहीं, सपा को 2014 के लोकसभा चुनाव में 80 सीटों पर लड़कर 22.35% वोट मिला था ,लेकिन 2019 में बसपा से गठबंधन कर 36 सीटों पर लड़कर मत प्रतिशत 18% के करीब रहा। साफ है कि सपा को बसपा का वोट बैंक कम ट्रांसफर हुआ वरना उसके मतों का प्रतिशत और कम हो जाता। गठबंधन के बावजूद सपा का वोट प्रतिशत गिरा है।
✍️2019 लोकसभा चुनाव में भाजपा ने प्रदेश की 80 सीटों में से 62 सीटें जीती थी,बसपा ने 10,सपा ने पांच,अपना दल(एस) ने दो और कांग्रेस ने एक सीट जीती थी। वहीं, नतीजों के चंद दिनों बाद ही सपा-बसपा गठबंधन को लेकर मायावती ने एक प्रेस कांफ्रेंस कर सपा से गठबंधन के बारे कहा था कि हमारे और अखिलेश-डिंपल के रिश्ते बने रहेंगे। मायावती ने कहा था कि लोकसभा चुनाव 2019 के गठबंधन में यादव वोट बसपा को शिफ्ट नहीं हुए और अभी वर्तमान स्थिति में हम उत्तर प्रदेश में कुछ सीटों पर होने वाले उपचुनाव अब अकेले लड़ेंगे। सपा-बसपा गठबंधन तोड़ने पर मायावती ने कहा कि यह कोई हमेशा के लिए ब्रेक नहीं है। अगर हमें लगा कि भविष्य में सपा अध्यक्ष अपने राजनीतिक काम में सफल होते हैं तो हम फिर से साथ मिल सकते हैं,लेकिन अगर वह सफल नहीं होते हैं तो फिर हमारे लिए अकेले ही चुनाव लड़ना बेहतर होगा। लगता है कि बीएसपी सुप्रीमो की नज़र में सपा मुखिया सफल नहीं हुए हैं। इसलिए बीएसपी ने उपचुनाव अकेले ही लड़ना तय किया। आज़मगढ़ लोकसभा उपचुनाव में बीएसपी ने मुस्लिम समाज के गुड्डू जमाली को प्रत्याशी बनाया जिससे मुस्लिम समुदाय का वोट बंटने से न सपा जीत सकी और न ही बसपा। मुस्लिम वोट बैंक के बिखराव का लाभ बीजेपी को मिल गया। 
✍️2024 लोकसभा चुनाव में भी बसपा यदि इसी पैटर्न पर प्रत्याशियों का चयन करती है तो इसका लाभ सपा और बसपा की बजाय सीधे बीजेपी को मिलने की पूरी सम्भावना लगती है,क्योंकि भारत का कोई भी समाज अभी तक टैक्टिकल वोटिंग (चातुर्यपूर्ण मतदान) करने का निर्णय लेने में सक्षम नहीं हो पाया है,लेकिन यदि मुस्लिम और दलित समाज टैक्टिकल वोटिंग प्रबन्धन में सफल होता है तो चुनावी राजनीतिक पंडितों के सारे पूर्वानुमान और आंकड़े धराशायी होते देर नहीं लगेगी। यदि मुस्लिम और दलित समाज सपा,बसपा और कांग्रेस के क्षेत्रवार प्रत्याशियों के पक्ष में किसी भी तरह टैक्टिकल वोटिंग प्रबन्धन में सफल हो जाता है तो विपक्ष को अधिकतम लाभ मिलने से कोई रोक नहीं पायेगा और एनडीए को सर्वाधिक चुनावी क्षति होने से उनका भारी भरकम चुनावी तंत्र भी बचाने में सफल नहीं हो सकता। टैक्टिकल वोटिंग प्रबन्धन की कुशलता से सपा,बसपा और कांग्रेस को अपेक्षा से कई गुना चुनावी लाभ मिल सकता है, लेकिन सामाजिक,राजनीतिक,आर्थिक,धार्मिक,भौगोलिक,सांस्कृतिक और शैक्षणिक रूप से विविधता युक्त भारत के विशाल लोकतंत्र में डिफरेंट,रिएक्शनरी और पारस्परिक विरोधी वोटिंग मानसिकता की वजह से टैक्टिकल वोटिंग एक असंभव और बेहद जटिल और अव्यावहारिक स्थिति मानी जाती है।
✍️2024 लोकसभा चुनाव में बीएसपी के अकेले चुनाव लड़ने की राजनीति से सीट के हिसाब से भले ही उसे अतिरिक्त लाभ न मिले,लेकिन उसकी चुनावी बिसात से बीजेपी और समाजवादी पार्टी की राजनीति के लिए वोट विभाजन या बिखराव से अनिश्चितता की स्थिति जरूर पैदा होती दिख रही है। बीएसपी के अकेले चुनाव लड़ने का निर्णय और टिकट वितरण में प्रयोग की गई सामाजिक केमिस्ट्री से बीजेपी को (कम) और सपा को (अधिक) जितना नुकसान होने का अनुमान लगाया जा रहा है, उतना लाभ बसपा को भले ही न मिले,लेकिन दोनों पार्टियों के लिए एक असमंजस या अनिश्चितता की स्थिति पैदा करती हुई जरूर दिख रही है। बसपा के 2014 में अकेले चुनाव लड़ने और 2019 में सपा के साथ गठबंधन से निकले चुनावी परिणामों के विश्लेषण से 2024 के चुनाव में बसपा को अधिकतम नुकसान होने का अनुमान लगाया जा रहा है। सपा के साथ चुनावी गठबंधन की वजह से 2019 में बीएसपी शून्य से दस सीट हासिल करने में सफल हो गयी थी और समाजवादी पार्टी अपनई पुरानी संख्या को बमुश्किल बचा पाई थी। राजनीतिक गलियारों में अवसरवादी कही जाने वाली बीएसपी को गठबंधन का समाजवादी पार्टी से कई गुना चुनावी लाभ मिलने के तुरंत बाद बीएसपी सुप्रीमो द्वारा यह कहते हुए गठबंधन तोड़ना कि बसपा को समाजवादी पार्टी का वोट बैंक ट्रांसफर नहीं हुआ,उनकी किस तरह की सियासत का हिस्सा है, यह आज तक राजनीतिक विशेषज्ञों और विश्लेषकों के लिए एक यक्ष प्रश्न बना हुआ है। चुनावी राजनीति की मोटी-मोटी समझ रखने वाला भी जान गया था कि 2019 के लोकसभा चुनाव में किसका वोट किसको ट्रांसफर हुआ था अथवा नहीं। सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने मायावती द्वारा एकतरफा तोड़े गए गठबंधन पर बेहद राजनीतिक सौम्यता और शालीनता का परिचय देते हुए न तो तात्कालिक कोई प्रतिक्रिया व्यक्त की थी और तब से लेकर आज तक चुनाव घोषित होने के बावजूद बीएसपी सुप्रीमो मायावती के उस एकतरफा निर्णय पर किसी भी तरह की टिप्पणी से दूर रहना, उनकी चुनावी राजनीतिक परिपक्वता और दूरदर्शिता को दर्शाती है और बहुजन समाज(एससी-एसटी,ओबीसी और अल्पसंख्यक) की भावी गठबंधन की राजनीति के लिए एक सुखद संकेत के रूप में परिभाषित और देखी जा रही है।
✍️2019 के लोकसभा चुनाव परिणामों का विश्लेषण में विश्लेषकों द्वारा यह अनुमान और आंकलन किया गया था कि दलित समाज का एक हिस्सा मुफ़्त राशन और किसान सम्मान निधि से आकर्षित होकर बीजेपी के साथ गया था। विगत 2019 की तुलना में 2024 लोकसभा चुनाव में कुछ ऐसा होता नहीं दिखाई दे रहा है जिससे बीएसपी कुछ बेहतर स्थिति में लग रही हो। 2019 में सपा से गठबंधन होने की वजह से बीएसपी को ओबीसी की कुछ जातियों का थोड़ा बहुत वोट मिल गया था, ऐसा विश्लेषकों का अनुमान और आंकलन बताता है। कांग्रेस के साथ सपा का चुनावी गठबंधन होने के बावजूद 2019 की तुलना में वोट बैंक में इज़ाफ़ा होता हुआ नहीं दिखाई देता है,क्योंकि कांग्रेस कार्यकर्ताओं और संगठन के मामले में जमीनी स्तर पर बीएसपी से तो बहुत गरीब हीहै। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि बीएसपी जहाँ मुस्लिम प्रत्याशी उतारेगी वहां बीजेपी को सीधा लाभ मिलने की पूरी सम्भावना है। 2024 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी के दस साल के कामकाज से उपजी नाराजगी(एन्टी इनकंबेंसी) से जो थोड़ा बहुत नुकसान होने की संभावना प्रतीत होती है,उसकी तुलना में सपा और बसपा का अलग-अलग चुनाव लड़ना बीजेपी के लिए ज्यादा फायदेमंद होता दिख रहा है।
✍️हो सकता है कि 2024 लोकसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी 2014 की तरह अपनी परंपरागत सीटों के साथ कुछ अतिरिक्त सीटें हासिल करने में सफल हो जाए, लेकिन बीएसपी द्वारा अपनी चुनावी विरासत को बचाना मुश्किल क्या असंभव जैसी स्थिति बनती हुई दिख रही है।सांविधानिक और लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं की खुली धज्जियां उड़ाकर काम करने वाली आरएसएस पोषित सत्तारूढ़ पार्टी के गठबंधन के खिलाफ बीएसपी का अकेले चुनाव लड़ने के निर्णय से संविधान और लोकतंत्र के खतरों को लेकर बहुजन चिंतकों,बुद्धिजीवियों,सामाजिक एक्टिविस्ट और एकैडमिक संस्थाओं से जुड़े लोगों में चिंता और भय की गहरी लकीरें साफ तौर पर देखी जा सकती हैं और सांविधानिक लोकतंत्र की रक्षा के लिए वे यथासंभव वैचारिक विमर्श, धरना-प्रदर्शन के माध्यम सामाजिक जनजागरण और जनांदोलन करने के साथ न्यायिक कार्यवाही भी कर रहे हैं। इसके बावजूद संघ परिवार, सत्तारूढ़ पार्टी और सरकार के चहेते लोग संविधान को अप्रासंगिक और विसंगतिपूर्ण बताने से बाज नहीं आ रहे हैं और समय समय पर उसे बदलने की बात करते रहते हैं। राजनीतिक विश्लेषकों का स्पष्ट मानना है कि ऐसी स्थिति में विपक्ष का अलग-अलग चुनाव लड़ना बीजेपी और उसके गठबंधन के लिए एक तरह का अप्रत्यक्ष रूप से वॉकओवर देने जैसा ही है। इसी वजह से चुनावी माहौल में बीएसपी और सपा दोनों दल भिन्न-भिन्न समय पर बीजेपी की "बी" टीम होने के अलंकार या उपाधि से नवाज़े जाते रहते हैं। 

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