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  • लखीमपुर-खीरी उ०प्र०

Wednesday, June 05, 2024

बीएसपी की राजनीति के भविष्य पर लगातार मंडराता गहरा संकट-नन्दलाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर),

   राजनीतिक चर्चा     

"गठबंधन के दौर की राजनीति में "एकला चलो" का निर्णय बेहद आत्मघाती साबित हुआ"
नन्दलाल वर्मा
(सेवानिवृत्त एसोसिएट प्रोफेसर)
युवराज दत्त महाविद्यालय
लखीमपुर-खीरी
✍️गठबंधन की राजनीति के दौर में बीएसपी का अकेले चुनाव लड़ने का निर्णय इस लोकसभा चुनाव में बेहद घातक साबित हुआ। संविधान और लोकतंत्र के ख़ातिर इंडिया गठबंधन का घटक बनकर बहुजन समाज पार्टी को इस बार गत लोकसभा चुनाव से अधिक संसदीय प्रतिनिधित्व मिलने की संभावना जताई जा रही थी। पिछले चुनाव में सपा+बसपा गठबंधन से हासिल दस सीटों के स्थान पर आज वह 2014 की तरह एक बार फिर शून्य पर आकर टिक गई है और गत लोकसभा चुनाव की तुलना में वोट शेयरिंग में भारी गिरावट आई है। बताया जा रहा है कि बीएसपी को इस चुनाव में दस प्रतिशत से भी कम वोट हासिल हुए हैं,जबकि 2019 के चुनाव में उसे लगभग 20% वोट मिले थे। इस राजनीतिक शून्यता और वोट प्रतिशत में आई भारी गिरावट से बीएसपी की भावी राजनीति बुरी तरह प्रभावित होती दिख रही है। नगीना लोकसभा सीट पर आज़ाद समाज पार्टी(कांशी राम) के संस्थापक चंद्र शेखर रावण की ऐतिहासिक जीत बीएसपी और मायावती की राजनीति का भविष्य का अनुमान लगाने  और उसके निहितार्थ समझने के लिए पर्याप्त है। यहां बीएसपी की पराजय नहीं हुई है,अपितु उसे मायावती की पराजय के रूप में देखा जा रहा है। सुनने में आ रहा है कि इस सीट पर बीएसपी और बीजेपी प्रत्याशी की जमानत तक ज़ब्त हो गयी है। रामराज्य में चंद्र शेखर आज़ाद की जीत के बड़े मायने निकाले जा रहे हैं।


✍️केंद्र की सत्ता में विगत दस साल से काबिज़ देश की सबसे बड़ी कही जाने वाली पार्टी बीजेपी जब तीस से अधिक दलों से मिलकर गठबंधन की राजनीति कर रही या कर सकती है तो बीएसपी सुप्रीमो का अकेले चुनाव लड़ने का निर्णय किस चुनावी राजनीति और रणनीति का हिस्सा माना जाए? यह बात राजनीति की थोड़ी भी जानकारी रखने वाले किसी व्यक्ति के गले नहीं उतर रही है। इस चुनाव में बीएसपी का कोर वोट बैंक जो कतिपय सामाजिक- राजनीतिक कारणों से कभी सपा के साथ जाना पसंद नहीं करता था,उसने इस बार डॉ.आंबेडकर के संविधान और लोकतंत्र के खतरों को भांपते हुए बीएसपी छोड़ इंडिया गठबंधन के घटक समाजवादी पार्टी के साथ जाने का निर्णय लेने को मजबूर हुआ और संविधान व लोकतंत्र को खत्म करने का सपना पालने वाली बीजेपी को यूपी में मुंहतोड़ माकूल जवाब देने का काम किया है। सामाजिक और राजनीतिक वजहों के चलते दलित समाज का एक बड़ा धड़ा अभी भी बीजेपी से जुड़ा हुआ है,या यह माना जा सकता है कि गैर जाटव दलित जातियों का बहुत बड़ा हिस्सा बीजेपी के साथ खड़ा दिखाई देता है। नेशनल कोऑर्डिनेटर और बीएसपी की राजनीति के वारिस मायावती के भतीजे आकाश आनंद को चुनाव के बीच में सभी पदों से हटाने का आनन-फानन में लिए गए निर्णय से बहुजन समाज हतप्रभ रह गया। आकाश आनन्द द्वारा चुनावी सभाओं में बीजेपी की नीतियों और निर्णयों का विद्रोही तेवर के साथ आलोचनात्मक विश्लेषण किया जा रहा था। सीतापुर में हुई चुनावी सभा में आकाश आनंद द्वारा अतिरेक भाव से बीजेपी पर चुनाव आचार संहिता के हिसाब से कुछ गलत शब्दों का प्रयोग हो गया। मायावती ने उन्हें बिना देरी किये यह कहते हुए सभी पदों और चुनावी सभाओं को संबोधित न करने से किनारे कर दिया कि आकाश आनन्द अभी चुनावी राजनीति के हिसाब से परिपक्व नहीं है। इस निर्णय से बहुजन समाज का कोर  धड़ा एकदम हतप्रभ है अर्थात वह मायावती के इस निर्णय से बेहद दुखी और क्षुब्ध है। उसका मानना है कि मायावती यह सब बीजेपी के अदृश्य भयवश करने को मजबूर हैं। शासन और प्रशासन से जुड़े लोगों का कहना है और राजनीति के विरोधी खेमों में भी ऐसी चर्चा है कि मायावती किसी घोटाले/भ्रष्टाचार में उनकी लिप्तता की फ़ाइल खुलने से भयभीत हैं और वह जो भी निर्णय लेती हैं, उसके पीछे कहीं न कहीं बीजेपी सरकार और उसकी जांच एजेंसियों का हाथ है।
✍️बहुजन समाज के चिंतकों और एकेडमिक संस्थाओं से जुड़े बौध्दिक वर्ग का मानना है कि यदि बीएसपी इंडिया गठबंधन का घटक बनकर चुनाव लड़ती तो आज उसकी राजनीतिक हैसियत सपा से कम नहीं होती,क्योंकि इंडिया गठबंधन बीएसपी को यूपी सहित अन्य राज्यों जैसे पंजाब, राजस्थान, मध्यप्रदेश और बिहार जहां बीएसपी का अच्छा खासा जनाधार है,में सपा से अधिक सीटें देने को तैयार थी। यदि मायावती इंडिया गठबंधन के साथ चुनाव लड़ती तो सामाजिक और राजनीतिक गलियारों में वह बीजेपी की "बी" टीम होने के आरोप से बच जाती और दूसरी तरफ संविधान और लोकतंत्र बचाने की राजनीतिक लड़ाई में वह इतिहास में दर्ज हो जातीं और पार्टी भी राजनीतिक दुर्गति होने से बच जाती। राजनीतिक विश्लेषकों और विशेषज्ञों का मानना है कि इस बार चुनाव परिणामों की स्थिति से मायावती एनडीए और इंडिया गठबंधन दोनों के लिए किंग मेकर की भूमिका के रूप में साबित होती नज़र आती और डॉ.आंबेडकर के संविधान और लोकतंत्र को खत्म करने का ऐलान करने वालों को मुंहतोड़ जवाब देनी की स्थिति में होती। बसपा सुप्रीमो के इस लोकसभा चुनाव में अकेले लड़ने के निर्णय से उसने अपनी सीटें ही नहीं खोई,बल्कि सामाजिक-राजनीतिक स्तर पर बहुत कुछ खोया है जिसका अनुमान-आंकलन करना आसान नहीं। "एकला चलो" के एक कदम से होने वाले अदृश्य नुकसानों का आने वाले भविष्य में धीरे-धीरे एहसास होगा।एकेडमिक संस्थाओं और बहुजन राजनीति की समझ रखने वाले मायावती के इस कदम को एक आत्मघाती कदम मानकर बेहद हतप्रभ और चिंतित हैं। देश के सबसे बड़े सूबे की चार बार की मुख्यमंत्री (गठबंधन और पूर्ण बहुमत) रहने वाली मायावती जिसके बारे में कहा जाता है कि उनकी राजनीतिक रणनीति को भांपना और पूर्वानुमान लगाने में बड़े-बड़े राजनीतिक पंडित चकरा जाते हों,वह इस बार चुनावी निर्णय लेने में चूक कैसे कर बैठी! उनके सामने कौन सी अपरिहार्य परिस्थितियाँ और मजबूरियां रहीं होंगी,इसको लेकर बहुजन समाज और राजनीतिक गलियारों में कई तरह की चर्चाएं हैं,लेकिन असल वजह तो मायावती ही जानती होंगी।फ़िलहाल, इस चुनाव में बीएसपी के ख़राब प्रदर्शन को लेकर बहुजन समाज का हर व्यक्ति दुखी है,भले ही वह उसे ज़ाहिर नहीं कर पा रहा है। मायावती की एकला चलो की रणनीति का दांव गलत साबित हुआ और इस चूक या गलती से उसका आधार वोट बैंक भी संविधान और लोकतंत्र जैसे गम्भीर मुद्दे की वजह से खिसक कर बीजेपी के खिलाफ लड़ रहे इंडिया गठबंधन में शिफ्ट कर गया।
✍️ इंडिया गठबंधन के साथ जाने का बहुजन समाज पार्टी के कोर वोट बैंक का यह टैक्टिकल (चातुर्यपूर्ण) चुनावी निर्णय या कदम बेहद सराहा जा रहा है और बीएसपी के भीतर उसे कोसा भी जा रहा है। बीएसपी द्वारा बहुजन समाज के इस निर्णय के लिए कुछ बहुजन चिंतकों और बुद्धिजीवियों को दोषी ठहराने का प्रयास कर उनके सिर पर ठीकरा भोड़ने जैसा काम किया जा रहा है। बीजेपी को शायद यह भ्रम था कि बहुजन समाज का एक वंचित वर्ग पांच किलो गेंहू-चावल और पांच सौ रुपए किसान सम्मान निधि के लालच में उसे लंबे अरसे तक वोट देने का काम करता रहेगा और उसे संविधान और लोकतंत्र को भूल जाएगा,लेकिन बहुजन समाज ने राशन और सम्मान निधि की चिंता छोड़ संविधान और लोकतंत्र बचाने को प्राथमिकता दी।बीएसपी के कोर वोट बैंक के इस निर्णय ने बीजेपी और बीएसपी दोनों को एक सख़्त राजनीतिक संदेश देने का काम किया है। उम्मीद है कि बीएसपी सुप्रीमो पार्टी के बड़े ओहदे वाले पदाधिकारियों से अलग-अपने जमीनी स्तर के स्थानीय कार्यकर्ताओं, सामाजिक एक्टिविस्टों और बहुजन विचारधारा से जुड़े शीर्ष और स्थानीय बुद्धिजीवियों के साथ इस चुनाव में प्रत्याशी चयन से लेकर उनके कोर वोट बैंक की भूमिका और बीएसपी के हाथ आये शून्य परिणाम पर पूरी शिद्दत, निष्पक्षता,पारदर्शिता और ईमानदारी से गम्भीर चिंतन-मनन कर बदलते चुनावी परिवेश की परिस्थितियों के हिसाब से अपनी भावी राजनीति और रणनीति की दिशा-दशा तय करने की दिशा में कुछ न कुछ तो सीख लेंगी। बीएसपी सुप्रीमो मायावती को अब एक सरंक्षिका कि भूमिका में रहकर किसी पुराने समर्पित और तपे हुए बहुजन समाज के व्यक्ति या किसी प्रशिक्षित नए युवा को "बीएसपी का उत्तराधिकारी" घोषित कर नए सिरे से एक ऐसा सामाजिक-राजनीतिक उपक्रम/ढांचा तैयार करना होगा जिससे वह अपने कोर वोट के शिक्षित युवा पीढ़ी के साथ स्थायी रूप से कनेक्टिविटी स्थापित कर सके।
मान्यवर कांशीराम की सोशल इंजीनियरिंग/केमिस्ट्री और उनकी सामाजिक-राजनीतिक विचारधारा पर लौटकर ही बहुजन समाज की राजनीति को नए सिरे से पुनर्स्थापित किये जाने की ईमानदार क़वायद ही एकमात्र विकल्प बचता हुआ दिखाई देता है।

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