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  • लखीमपुर-खीरी उ०प्र०

Monday, May 27, 2024

भारत का संविधान और नक्शा सब बदल जाएगा और जनता इसको समझ या पहचान भी नहीं पाएगी-नन्दलाल वर्मा (सेवानिवृत्त एसोसिएट प्रोफेसर)


(भारत फिर कभी दूसरी चुनाव प्रक्रिया नहीं देख सकेगा)
नन्दलाल वर्मा
(सेवानिवृत्त एसोसिएट प्रोफेसर)
युवराज दत्त महाविद्यालय
लखीमपुर-खीरी


✍️वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण के प्रसिद्ध अर्थशास्त्री पति परकला प्रभाकर ने कहा है कि अगर बीजेपी 2024 का लोकसभा चुनाव जीतकर सत्ता में फिर से वापस आती है तो "भारत का संविधान और नक्शा सब बदल जाएगा और जनता इसको समझ या पहचान या जान भी नहीं पाएगी।" उन्होंने कहा है कि 2024 के लोकसभा चुनाव में अगर नरेंद्र मोदी फिर से पीएम चुने गए तो पूरे देश में लद्दाख और मणिपुर जैसी स्थितियां पैदा हो सकती हैं।
✍️प्रभाकर का अपनी अंतर्दृष्टि साझा करने वाला वीडियो कांग्रेस द्वारा माइक्रोब्लॉगिंग साइट " एक्स" पर साझा किया गया है।वीडियो में परकला प्रभाकर को यह कहते हुए सुना जाता है कि मोदी के 2024 में फिर से प्रधान मंत्री बनने पर,भारत फिर कभी दूसरी चुनाव प्रक्रिया नहीं देख सकेगा अर्थात भविष्य में और चुनाव होने की कोई उम्मीद नहीं दिखती है। उन्होंने कहा है कि "अगर मोदी नेतृत्व बीजेपी सरकार 2024 में फिर बनती है तो उसके बाद कोई चुनाव नहीं होगा अर्थात 2024 का चुनाव अंतिम चुनाव हो सकता है। मोदी एक तानाशाह हैं,उनकी वापसी देश के लिए एक आपदा साबित हो सकती है।"
✍️बीजेपी नेताओं और मोदी के "जिसको पाकिस्तान जाना है,जाने दो" जैसे बयानों का ज़िक्र करते हुए उन्होंने आगाह किया है कि ये नफरत भरे भाषण अब दिल्ली के लाल किले से उठेंगे। साक्षात्कार में प्रभाकर ने कहा कि "मोदी ख़ुद लाल किले से नफरत भरा भाषण देंगे।" उन्होंने कहा है कि यह चुपचाप या सूक्ष्मता से नहीं किया जाएगा। उनके मुताबिक,नफरत भरे भाषण अब "खुला खेल" होंगे। उन्होंने यह भी कहा है कि अगर पीएम मोदी सत्ता में लौटते हैं तो कुकी और मैतेई समुदायों के बीच जातीय संघर्ष के कारण मणिपुर में जो अशांति फैली हुई है,वह पूरे भारत में फैल सकती है। इससे पहले मार्च में, प्रभाकर ने एक टीवी समाचार चैनल से बात करते हुए कहा था कि “चुनावी बांड घोटाला सिर्फ़ भारत का सबसे बड़ा घोटाला नहीं है,बल्कि दुनिया का सबसे बड़ा घोटाला है। चुनावी बांड भ्रष्टाचार सार्वजनिक होने के बाद,अब लड़ाई दो गठबंधनों के बीच नहीं रही है बल्कि,भाजपा और भारत के लोगों के बीच है।"
✍️प्रभाकर का कहना है कि भारत में असमानता, बेरोजगारी और महंगाई चरम पर है। 16 अप्रैल को चेन्नई में "चेन्नई थिंकर्स फोरम" द्वारा वर्तमान राजनीतिक स्थिति पर "द वैल्यूज़ एट स्टेक" शीर्षक से आयोजित एक राष्ट्रीय संगोष्ठी में बोलते हुए " द क्रुक्ड टिम्बर ऑफ न्यू इंडिया "(नए भारत की दीमक लगी शहतीरें) पुस्तक के लेखक श्री प्रभाकर ने कहा कि भारत में बेरोजगारी एक गंभीर समस्या है,विशेषकर 20 से 25 आयु वर्ग के युवाओं में। “उनके बीच बेरोजगारी का प्रतिशत लगभग चालीस है। अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के अनुसार भारत में लगभग 60-65% शिक्षित बेरोजगार हैं।" उन्होंने कहा कि देश में असमानता, युवाओं के बीच बेरोजगारी, विभिन्न वस्तुओं की मुद्रास्फीति और घरेलू ऋण अब तक के उच्चतम स्तर पर हैं।
✍️उन्होंने कहा है कि कम्पनी कर में कटौती,उत्पादन से जुड़े प्रोत्साहन देने और ₹25 लाख करोड़ से अधिक कॉर्पोरेट ऋण को बट्टे खाते में डालने के बावजूद,घरेलू निवेश दर 30% से गिरकर 19% रह गई है। उन्होंने आरोप लगाया कि कंपनियों को उत्पादन से जुड़े प्रोत्साहन और चुनावी बांड के रूप में भाजपा को मिले चंदे के खेल में "कुछ के बदले कुछ"(Quid pro quo:a favour or advantage granted in return for something) जिसको भारतीय अनुबंध अधिनियम में प्रतिफल(Consideration) कहा गया है,की बाबत या नीयत से काम किया गया है। सुप्रीम कोर्ट को दिए गए इलेक्टोरल बांड की डिटेल्स से पूरी तरह स्पष्ट हो चुका है।
✍️उन्होंने यह भी कहा कि तीन कृषि कानून [कृषि उपज वाणिज्य एवं व्यापार -संवर्द्धन एवं सुविधा-अधिनियम-2020, मूल्‍य आश्‍वासन पर किसान समझौता-अधिकार प्रदान करना और सुरक्षा- अधिनियम-2020, आवश्यक वस्तु-संशोधन- अधिनियम- 2020] संसद में बिना किसी चर्चा या बहस के पारित हो गए और व्यापक स्तर पर किसानों का एक साल से अधिक आंदोलन और विरोध-प्रदर्शन के चलते मोदी को इन कानूनों को लागू करने से मजबूरन पीछे हटना पड़ा। इन कानूनों से पीछे हटने में सरकार के अहम को भारी ठेस लगी है। इसीलिए अभी हाल में किसानों को दिल्ली में दुबारा घुसने के सारे रास्ते सील कर दिए गए थे। यह चर्चा है कि इन तीन कानूनों को देश के सरकार पसंद कतिपय पूंजीपतियों को अथाह लाभ पहुंचाने के लिए पारित किया गया था। किसानों के अनवरत आंदोलन और विरोध-प्रदर्शन के चलते सरकार को मुंह की खानी पड़ी। इस घटनाक्रम से सरकार और पूंजीपति बुरी तरह से आहत हुए,राजनीतिक गलियारों और बुद्धिजीवियों में ऐसी चर्चा है। देश के किसान यह अच्छी तरह समझ लें कि ये तीनों कानून अभी पूरी तरह रद्द नहीं हुए हैं,बल्कि स्थगित मात्र हुए हैं। अनुकूल माहौल मिलते ही ये कानून कभी भी लागू हो सकते हैं। यह संभावना व्यक्त की जा रही है कि 2024 में यदि मोदी नेतृत्व सरकार की पूर्ण बहुमत के साथ वापसी होती है तो ये कानून लागू हो सकते हैं। 
✍️वरिष्ठ पत्रकार एन.राम ने नागरिकता संशोधन अधिनियम, राज्यपालों और विपक्षी दलों द्वारा शासित राज्य सरकारों के बीच खींचतान, विभिन्न लोकसभा चुनावों में कांग्रेस और भाजपा के लोकप्रिय वोट शेयर और स्वतंत्र एजेंसियों, विशेष रूप से भारत के सर्वोच्च न्यायालय और चुनाव आयोग के कामकाज पर भी चिंता व्यक्त करते हुए बात की है। उनका यह भी कहना है कि बीजेपी के शासनकाल में भारतीय संविधान के विविधता,बहुलवाद और धर्मनिरपेक्षता जैसे अभिन्न मूल्यों को विकृत कर दिया गया है।चुनाव शुरू होने से पहले बीजेपी की ओर से "अबकी बार-400 पार" का जो नारा दिया गया,वह महज़ एक राजनीतिक जुमला या नारा नहीं था। बीजेपी सांसद अनंत कुमार हेगड़े और लल्लू सिंह ने 400 पार सीटें हासिल करने के पीछे छिपे उद्देश्यों को बाक़ायदा बताया था कि देश का वर्तमान संविधान भारत की सामाजिक,धार्मिक और सांस्कृतिक विरासत के हिसाब से बिल्कुल उपयुक्त और अनुकूल नहीं रह गया है अर्थात देश की तेजी से बदलती परिस्थितियों और काल के हिसाब से वर्तमान संविधान की व्यवस्थाएं लगभग अप्रासंगिक हो चुकी हैं,विशेष रूप से संविधान में वर्णित समाजवाद,सामाजिक न्याय और धर्मनिरपेक्षता जैसे शब्दों का अब कोई अर्थ नहीं रह गया है। इसलिए अब समय आ गया है कि संविधान और लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में व्यापक स्तर पर बदलाव हो। प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के चेयरमैन बिबेक देबराय ने तो आगे के बीस साल से अधिक समय (2047 में आज़ादी का शताब्दी वर्ष) के दृष्टिगत देश के संविधान को पूरी तरह बदलने के संदर्भ में अंग्रेजी अखबार "द मिंट" में बाक़ायदा एक लेख लिखा। जब उस पर चौतरफ़ा राजनीतिक बवाल व आलोचना शुरु हुई तो बीजेपी ने पल्ला झाड़ते हुए कहा कि यह उनका निजी विचार है। परिषद के अध्यक्ष के नाते उन्होंने देश की मुद्रास्फीति, बेरोजगारी,बेतहाशा बढ़ते घरेलू-विदेशी कर्ज़ और डॉलर के सापेक्ष तेजी से नीचे लुढ़कता भारतीय रुपया जैसे गम्भीर विषयों पर न तो कभी चर्चा करना और न ही पीएम को सलाह देना उचित समझा! परिषद के अध्यक्ष द्वारा देश की अर्थव्यवस्था और मौद्रिक नीतियों के बजाय सांविधानिक-लोकतांत्रिक संकटों पर चिंता व्यक्त करना और सरकार को सलाह देना कितना न्यायसंगत और नैतिक समझा जाए!
✍️देश के एकडेमिशियन्स और विपक्षी दलों द्वारा जब 400 पार के नारे के पीछे बीजेपी और आरएसएस की छिपी कलुषित मानसिकता और उद्देश्य पर सार्वजनिक रूप से गम्भीर चिंतन-मनन करना शुरू किया,उससे देश का ओबीसी,एससी-एसटी और सबसे बड़े अल्पसंख्यक मुस्लिम समुदाय अच्छी तरह समझ गया कि इस नारे में तो देश के संविधान और लोकतंत्र को खत्म करने की साज़िश और षडयंत्र की बू आ रही है। संविधान खत्म तो आरक्षण खत्म होने के साथ सरकार चुनने का सशक्त हथियार "मताधिकार" भी खत्म हो जाएगा। संविधान के सामाजिक न्याय, समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता के खतरों की वजह से इन वर्गों का चुनावी राजनीति के हिसाब से तेज गति से होते ध्रुवीकरण से घबराए आरएसएस ने बीजेपी को इस नारे को तुरंत बंद करने की सख्त हिदायत दे डाली। उसके बाद बीजेपी के राजनीतिक मंचों से इस नारे की गूंज आनी बंद हो गयी। विश्व का सबसे बड़ा राजनीतिक दल होने का दावा करने वाली बीजेपी शासित केंद्र से लेकर उत्तर प्रदेश,कर्नाटक और गुजरात जैसे राज्यों के मंत्रिमंडल में भारत के सबसे बड़े धार्मिक अल्पसंख्यक समाज के मुसलमानों के लिए कोई जगह नहीं है। उन्होंने यह भी कहा कि कुछ दिन पहले बिहार में अपने चुनाव प्रचार के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का भाषण, जिसमें कांग्रेस और विपक्षी दलों पर अयोध्या में राम लला की प्राण प्रतिष्ठा का बहिष्कार करने का आरोप लगाया गया था,आदर्श आचार संहिता का खुला उल्लंघन था। उन्होंने आगे कहा कि 2014 के बाद "रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स" द्वारा जारी विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक की रैंकिंग में देश काफी नीचे फिसल गया है।
✍️प्रभाकर परकला ने लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स(लंदन) से पीएचडी और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय,नई दिल्ली से मास्टर ऑफ आर्ट्स और मास्टर ऑफ फिलॉसफी किया है। वह एक भारतीय राजनीतिक अर्थशास्त्री और सामाजिक टिप्पणीकार हैं। वह जुलाई 2014 और जून 2018 के बीच संचार सलाहकार के रूप में आंध्र प्रदेश सरकार में कैबिनेट रैंक के पद की जिम्मेदारी भी निभा चुके हैं।

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