साहित्य

  • जन की बात न दबेगी, न छिपेगी, अब छपेगी, लोकतंत्र के सच्चे सिपाही बनिए अपने लिए नहीं, अपने आने वाले कल के लिए, आपका अपना भविष्य जहाँ गर्व से कह सके आप थे तो हम हैं।
  • लखीमपुर-खीरी उ०प्र०

Monday, March 20, 2023

झोला उठाकर जाने की जिद-सुरेश सौरभ


हास्य-व्यंग्य
  सुरेश सौरभ
निर्मल नगर लखीमपुर-खीरी
उत्तर प्रदेश पिन-262701
मो-7376236066

अक्सर जब मैं अपनी कोई बात, अपनी पत्नी से मनवाना चाहता हूं, तो गुस्से में आकर कह देता हूं, मेरी बात मानना हो तो मानो वर्ना मैं अपना झोला उठाकर अभी चल दूंगा। पत्नी डर जाती है, फौरन मेरी बात किसी आज्ञाकारी भक्त की तरह मान लेती है। यानी मैं अपनी पूरी स्वातंत्रता में जीते हुए, पत्नी को हर बार इमोशनल ब्लैकमेल करके मौज से, अपने दिन काटता जा रहा हूं। अब मेरे बड़े सुकून से अच्छे दिन चल रहे थे, पर उस दिन जब मैंने यह बात दोहराई, तब वे पलट कर बोलीं-तू जो हरजाई है, तो कोई और सही और नहीं तो कोई और सही।’  
मैंने मुंह बना कर कहा-लग रहा आजकल टीवी सीरियल कुछ ज्यादा ही देखने लगी हो। वो नजाकत से जुल्फें लहरा कर बोली-हां आजकल देख रहीं हूं ‘भाभी जी घर पर हैं, भैया जी छत पर हैं।’ 
मैंने तैश में कहा-इसी लिए आजकल तुम कुछ ज्यादा ही चपड़-चपड़ करने लगी हो। तुम नहीं जानती हो, मैं जो कहता हूं, वो कर के भी दिखा सकता हूं। मुझे कोई लंबी-लंबी फेंकने वाला जोकर न समझना।’ 
वह भी नाक-भौं सिकोड़ कर गुस्से से बोली-हुंह! तुम भी नहीं जानते मैं, जो कह सकती हूं, वह कर भी सकती हूं, जब स्त्रियां सरकारें चला सकती हैं। गिरा सकती हैं, तो उन्हें सरकारें बदलने में ज्यादा टाइम नहीं लगता।’ 
मेरी सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई। अपना गियर बदल कर मरियल आवाज में मैं बोला-झोला खूंटी पर टंगा है, अब वह वहीं टंगा रहेगा। मेरी इस अधेड़ अवस्था में सरकार न बदलना। मेरा साथ न छोड़ना, वरना मैं कहीं मुंह दिखाने के लायक न रहूंगा। मेरी खटिया खड़ी बिस्तरा गोल हो जायेगा। खट-पट किसके घर में नहीं होती भाग्यवान! मुझ पर तरस खाओ! तुम मेरी जिंदगी हो! तुम मेरी बंदगी हो! मेरी सब कुछ हो!
तब वे मुस्कुराकर बोलीं-बस.. बस ज्यादा ताड़ के झाड़ पर न चढ़ो! ठीक है.. ठीक है, चाय बनाकर लाइए शर्मा जी। आप की बात पर विचार किया जायेगा। मेरा निर्णय अभी विचाराधीन है।
चाय बनाने के लिए रसोई की ओर मैं चल पड़ा। सामने टंगा झोला मुझे मुंह चिढ़ा रहा है। 
बेटी बचाओ अभियान में अब तन-मन से जुट पड़ा हूं। झोला उठाकर जाने वाली मेरी अकड़ जा रही है। भले ही अब हमें कोई पत्नी भक्त कहें, पर कोई गम नहीं, लेकिन पत्नी के वियोग में एक पल रहना मुझे गंवारा नहीं साथ ही पत्नी के छोड़कर जाने पर जगहंसाई झेल पाना भी मेरे बस की बात नहीं।


Sunday, March 19, 2023

बोलना होगा-अखिलेश कुमार अरुण

अखिलेश कुमार अरुण
ग्राम हजरतपुर परगना मगदापुर
जिला लखीमपुर खीरी, उत्तर प्रदेश
मोबाइल 8127698147

कविता

आज भी हमें, बराबरी करने देते नहीं हो और सोचते हो कि हम कुछ न बोलें।

संविधान एक सहारा था उस पर भी हाबी हो और सोचते हो कि हम कुछ न बोलें।।


बोल ही तो नहीं रहे थे-

आदि-अनादि काल के हम शासक न जाने कब हम गुलाम बन गए,

तूती बोलती थी कभी हमारी और  न जाने हम कब नाकाम हो गए

राज-पाट सब सौंप दिए या हड़प लिया गया हो और सोचते हो कि हम कुछ न बोलें।


बोल ही तो नहीं रहे थे-

शिक्षा के द्वार बंद कर दिए, किये हमें हमारे अधिकार से वंचित,

हम कामगार लोग जीने को मजबूर थे, हो समाज में कलंकित।

गुणहीन न थे हम, हमको अज्ञानी बना दिए और सोचते हो कि हम कुछ न बोलें।


बोल ही तो नहीं रहे थे-

जब तुमने हम पर अत्याचार किया, जातीय प्रताड़ना किये,

गले में मटकी कमर में झाड़ू और पानी को मोहताज किये,

छूने पर घड़ा आज भी जहाँ मार देते हो और सोचते हो कि हम कुछ न बोलें।


बोल ही तो नहीं रहे थे-

अपनी बहन-बेटी की आबरू को तुम्हारी विलासिता के लिए,

है, नांगोली का स्तन काटना आज भी इस बात का प्रमाण लिए,

हाथरस की उस लड़की का कुनबा तबाह किए और सोचते हो कि हम कुछ न बोलें।


बोल ही तो नहीं रहे थे-

अमनिवियता को समर्पित भरे-पड़े तुम्हारे साहित्य पर,

जहाँ लिखते हो पुजिये गुणहीन, मूर्ख सम विप्र चरण,

जहाँ, मानवीयता को सोचना ही पाप लिए हो और सोचते हो कि हम कुछ न बोलें।


बोल ही तो नहीं रहे थे-

तुमने पशु को माता कहा और एक वर्ण विशेष को अछूत,

गोबर को गणेश कहा और तर्क करने को कहा बेतूक,

हम बने रहे मूर्ख, बेतुकी बातों को मानते गए और सोचते हो कि हम कुछ न बोलें।


बोल ही तो नहीं रहे थे-

मंदिर कौन जाता है किन्तु हमारे राष्ट्रपति को जाने नहीं दिए,

सत्ता क्या गयी, बाद एक मुख्यमंत्री के जो कुर्सी धुलवा दिए,

बाद हमारे विधानसभा को शुद्ध  करवाते हो और सोचते हो कि हम कुछ न बोलें ।।


बोल ही तो नहीं रहे थे- 

लेकिन अब बोलेंगे तुम्हारे गलत को ग़लत और सही को सच्च से,

मिडिया तुम्हारी है फिर डरते हो तुम हमारी अनकही एक सच्च से

क्योंकि तुम्हारे लाखों झूठ पर हमारा एक सच्च काफी है,

हम, इस रोलेक्टसाही में लोकतंत्र के मुखर आवाज हैं और सोचते हो कि हम कुछ न बोलें।


 


Friday, March 17, 2023

69000 शिक्षक भर्ती प्रक्रिया में आरक्षण घोटाले की खुलती परत दर परत-नन्दलाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)

मुद्दा 69000 शिक्षक भारती 

हाई कोर्ट के फैसले के बाद यदि सरकार की ईमानदारी से ओबीसी और एससी-एसटी वर्ग के पीड़ितों के साथ आरक्षण पर न्याय करने की मंशा है तो संशोधित चयन सूची तैयार करने वाली कमेटी में ओबीसी और एससी-एसटी वर्ग का समुचित प्रतिनिधित्व होना बहुत जरूरी है। पीड़ित अभ्यर्थियों और विपक्ष को एकजुट होकर इस दिशा में जोरदार तरीके से सड़क से लेकर सदन तक अड़े रहना चाहिए।
एन०एल० वर्मा (असो.प्रोफ़ेसर) सेवा निवृत
वाणिज्य विभाग
वाईडीपीजी कॉलेज,लखीमपुर खीरी

         आरक्षित वर्ग के अभ्यर्थियों को संवैधानिक आरक्षण के लाभ से वंचित होने पर उन्होंने सरकार के खिलाफ शांतिपूर्ण लोकतांत्रिक आंदोलन और धरना-प्रदर्शन कर सरकार का कई बार ध्यानाकर्षण करने के विफल प्रयासों के बाद वे प्रकरण को राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग तक ले जाने के लिए विवश हुए। राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग द्वारा आरक्षण विसंगतियों को स्वीकार करने और उनके सुधारने की सिफारिश के बावजूद राज्य सरकार की ओर से जानबूझकर आरक्षण की विसंगतियों को दूर करने का कोई प्रयास नही किया गया। इससे क्षुब्ध,निराश, हताश और पीड़ित अभ्यर्थियों को न्यायालय की शरण लेनी पड़ी जिसमें समय और धन की बर्बादी हुई और असहनीय शारीरिक-मानसिक पीड़ा और दुश्वारियों के कठिन दौर से सपरिवार गुजरना पड़ा। इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच ने सोमवार को अपने एक आदेश में 69000 की मौजूदा चयन लिस्ट को याचिकाकर्ताओं द्वारा पेश किए गए साक्ष्यों और दस्तावेजों के आधार पर गलत माना है और कहा है कि सरकार लिस्ट में अभ्यर्थियों के गुणांक,कैटेगरी (सामान्य/अनारक्षित,ओबीसी और एससी-एसटी) और उनकी सब कैटेगरी सहित ओबीसी का 27% और एससी-एसटी का 23% आरक्षण पूरा करते हुए संशोधित सूची तैयार करे। आरक्षण घोटाले से चयन से बाहर हुए आरक्षित वर्ग के अभ्यर्थी सरकार पर लगातार आरोप लगाकर अपने हक के लिए तीन साल से विभिन्न संस्थाओं और जिम्मेदारों के खिलाफ धरना- प्रदर्शन कर रहे थे। बाद में इस शिक्षक भर्ती में अनुमानित 19 हजार से अधिक आरक्षण घोटाले के मुकाबले सरकार ने  5 जनवरी 2022 को घोटाला स्वीकार करते हुए 6800 सीटों पर अतिरिक्त आरक्षण दिया था,उसे भी हाई कोर्ट ने पूरी तरह खारिज़ कर दिया है। याचिकाकर्ताओं का कहना है कि इस भर्ती प्रक्रिया में अनुमानित 19000 आरक्षित पदों पर घोटाला कर उनके स्थान पर अनारक्षित वर्ग के अभ्यर्थियों की भर्ती कर एक बड़ा घोटाला हुआ है। हाई कोर्ट ने सरकार को 69000 शिक्षकों की नए सिरे से चयन सूची को तीन महीने में श्रेणीवार (अनारक्षित, ओबीसी और एससी - एसटी) तैयार करने के लिए निर्देश दिए हैं और यह भी कहा है कि तब तक सभी चयनित कार्यरत शिक्षक अपने पदों पर कार्य करते रहेंगे। उल्लेखनीय है कि आरक्षण से वंचित हुए अभ्यर्थियों की दलीलों को न्यायालय ने सही मानते हुए 8 दिसंबर 2022 को आरक्षण घोटाले पर आर्डर रिजर्व किया था। असली घोटाला तो संशोधित सूची बनने के बाद ही सामने आ पाएगा।
           कोर्ट का यह निर्णय यूपी सरकार के लिए बड़ा झटका माना जा रहा है। बड़ी बात यह है कि जीरो भ्रष्टाचार की दुहाई देने वाली यूपी सरकार के सुशासनकाल में राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग और हाई कोर्ट ने पहले ही मान लिया था कि भर्ती प्रक्रिया के आरक्षण में कई तरह की विसंगतियां हुई हैं। जो विसंगतियां सुनी जा रही हैं उनमें प्रमुख रूप से एक यह है कि आरक्षित वर्ग की उच्च मेरिट को दरकिनार करते हुए उनको अनारक्षित वर्ग में चयनित नहीं किया गया है,अर्थात उनको उनके आरक्षण प्रतिशत की सीमा तक समेट दिया गया है। दूसरा जो महत्वपूर्ण हुई अनियमितता बताई जा रही है कि बहुत से सामान्य/सवर्ण वर्ग के अभ्यर्थियों ने आरक्षित वर्ग (ओबीसी/एससी) का जाति प्रमाणपत्र बनवाकर आरक्षित श्रेणी में चयन पाने में सफल हो गए है। इसी तरह ओबीसी के अभ्यर्थियों द्वारा एससी-एसटी का जाति प्रमाणपत्र बनवाकर एससी-एसटी का आरक्षण डकारने की बात भी सुनी जा रही है।
           कोर्ट के निर्णय के कुछेक बिन्दुओं पर मीडिया के माध्यम से आ रही खबरों से भ्रम या अस्पष्टता की स्थिति नज़र आ रही है। बताया जा रहा है कि कोर्ट ने अपने आदेश में कहा है कि आरक्षण 50% से ज्यादा नहीं होना चाहिए। जब आरक्षण की 50% की सीमा सुप्रीम कोर्ट पहले ही तय कर चुकी है तो फिर फैसले में इसे उल्लिखित करने का कोई औचित्य प्रतीत नहीं होता है? यदि यह बात सही है तो इसके लागू करने में कहीं कोई बड़ा झोल तो नहीं है? कुछ लोग इस बात को इस तरह परिभाषित-व्याख्यायित कर आशंका व्यक्त कर रहे हैं कि ओबीसी और एससी-एसटी अभ्यर्थियों को उनके निर्धारित आरक्षण प्रतिशत की संख्या तक ही चायनित किये जाने का संकेत तो नहीं है अर्थात उच्च मेरिट और सामान्य वर्ग के बराबर या उनसे अधिक मेरिट अंक होने के बावजूद उन्हें अनारक्षित वर्ग में चयनित नही किये जाने की आशंका व्यक्त की जा रही है। जबकि ऐसा नियम नही है। हां, यह नियम तो है कि यदि कोई अभ्यर्थी आरक्षण की छूटों की वजह से ही आवेदन करने के लिए पात्र बनता है तो उसे अंतिम सूची में आरक्षित वर्ग में ही चयन पाने का अधिकार होगा फिर भले ही उसकी मेरिट अनारक्षित वर्ग की कट ऑफ मेरिट से अधिक क्यों न हो। नियमानुसार 50% अनारक्षित वर्ग की सूची में आरक्षित और अनारक्षित श्रेणी में भेद न करते हुए विशुद्ध रूप से मेरिट के आधार पर सामान्य/अनारक्षित वर्ग की अंतिम चयन सूची तैयार होनी चाहिए। तत्पश्चात अनारक्षित श्रेणी की कट ऑफ से नीचे ही आरक्षित श्रेणी के अभ्यर्थियों की चयन सूची बननी चाहिए जो विशुद्ध रूप से संवैधानिक आरक्षण व्यवस्था के अनुरूप कही जाएगी। हाई कोर्ट के फैसले के बाद यदि सरकार की ईमानदारी से ओबीसी और एससी-एसटी वर्ग के पीड़ितों के साथ आरक्षण पर न्याय करने की मंशा है तो संशोधित चयन सूची तैयार करने वाली कमेटी में ओबीसी और एससी-एसटी वर्ग का समुचित प्रतिनिधित्व होना बहुत जरूरी है। पीड़ित अभ्यर्थियों और विपक्ष को एकजुट होकर इस दिशा में जोरदार तरीके से सड़क से लेकर सदन तक अड़े रहना चाहिए।
         अब सवाल यह उठता है कि आरक्षण में फर्ज़ीवाड़े से जो अपात्र नौकरी कर रहे हैं,क्या उनको नौकरी से हटाया जाएगा और जो विधायिका- कार्यपालिका की मिलीभगत से हुए फर्ज़ीवाड़े या लापरवाही से इतने समय तक सेवा से वंचित रहे हैं, उनके मानसिक और आर्थिक नुकसान की भरपाई कैसे होगी और आन्दोलनरत रहे पीड़ित अभ्यर्थीगण कोर्ट के फैसले से संशोधित सूची में चयनित हो जाते हैं तो उनकी सेवा की वरिष्ठता (सीनियोरिटी) तय होने के नियम क्या होंगे,क्या उन्हें समानता का अधिकार मिलेगा ? हाई कोर्ट के आदेश के बाद चयनित होने वाले नए अभ्यर्थियों के सामने कई तरह की चुनौतियां रहेंगी। जो अभ्यर्थी फ़र्ज़ी प्रमाणपत्र जारी कराकर नौकरी पाने में सफल हो गए थे तो उनके खिलाफ़ और फर्जी प्रमाणपत्र जारी करने वाले सरकारी कर्मचारियों/अधिकारियों के खिलाफ क्या कोई सख्त कानूनी कार्रवाई होगी? इस संदर्भ में योगी नेतृत्व वाले पहले शासनकाल में तत्कालीन उच्च शिक्षा मंत्री के भाई ने ईडब्ल्यूएस का फर्जी दस्तावेज जारी कराकर एक विश्वविद्यालय में ईडब्ल्यूएस आरक्षण का लाभ लेते हुए नियुक्ति पाई थी। बाद में सोशल मीडिया के सक्रिय होने से मंत्री के भाई को नौकरी से इस्तीफा देना पड़ा था, लेकिन फर्जी दस्तावेज जारी कराने और करने वालों के खिलाफ कोई भी कानूनी कार्रवाई नहीं हुई थी। जब तक फर्जी प्रमाण पत्र जारी करने और कराने से लेकर आरक्षण लागू करने वाले जिम्मेदारों के खिलाफ सख्त कानूनी कार्रवाई नही होगी तब तक नियुक्तियों में फर्जीवाड़ा नही रुक सकता है। फ़र्ज़ीवाड़ा करने वाले अभ्यर्थियों और नौकरशाहों के खिलाफ ठोस कार्यवाही करने के लिए कोई नया सख्त कानून बनाना चाहिए जिससे दोनों पक्षों में एक भय का संचार हो सके।
           शासन और प्रशासन में बैठे जिन लोगों की वजह से आरक्षण में जो भयंकर फर्जीवाड़ा हुआ है,वे लापरवाही और कदाचार के शातिर अपराधी हैं। उनके खिलाफ कानूनी कार्रवाई करने के लिए पीड़ितों द्वारा एक और आंदोलन और धरना-प्रदर्शन करना होगा जिसमें सामाजिक - राजनीतिक संगठनों और बुद्धिजीवियों की भी सहभागिता और पहरेदारी सुनिश्चित हो जिससे भविष्य में आरक्षण व्यवस्था कानूनी रूप से शत- प्रतिशत लागू हो सके। कोर्ट के आदेश के बावजूद नई सूची तैयार करने में सरकार आरक्षण व्यवस्था का शत - प्रतिशत अनुपालन कर पाएगी,पीड़ित अभ्यर्थियों और सामाजिक न्याय के संगठनों के जहन में अभी भी एक बड़ा सवाल और संशय बना हुआ है। ओबीसी और एससी- एसटी आरक्षण (सरकारी नौकरियों, शिक्षण संस्थाओं में प्रवेश और राजनैतिक) व्यवस्था के इतिहास और उसके क्रियान्वयन पर सामाजिक और राजनीतिक स्तर पर नए सिरे से गम्भीर चिंतन- विमर्श के साथ अब देश में जातिगत जनगणना होना बहुत जरूरी है। इस दिशा में विपक्षी दलों के आरक्षण व्यवस्था के जानकारों और विशेषज्ञों की भूमिका सार्थक सिद्ध हो सकती है। ओबीसी और एससी-एसटी के सामाजिक, राजनीतिक, अकैडमिक संगठनों को एकजुट होकर वर्तमान सरकार की सामाजिक न्याय के प्रति नकारात्मक रवैये के दूरगामी दुष्परिणामों के दृष्टिगत अब जातिगत जनगणना के मुद्दे की लड़ाई सड़क से लेकर विधायी सदन तक लड़कर अंतिम अंज़ाम देना जरूरी हो गया है, अन्यथा सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थाओं में आरक्षण की वजह से बची खुची सीटों पर हमारे समाज के बच्चों के लिए दरवाजे भी बंद हो जाएंगे जिसके फलस्वरूप समाज की सामाजिक और आर्थिक खाई जो अभी तक थोड़ी बहुत पटती दिख रही थी, उसे अपनी पुरानी अवस्था में जाते देर नहीं लगेगी ।

Monday, March 13, 2023

संवैधानिक लोकतंत्र बचाना है तो एससी-एसटी और ओबीसी को जातिगत राजनीति की जगह जमात की राजनीति पर केंद्रित होना पड़ेगा:नन्दलाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर),

एन०एल० वर्मा (असो.प्रोफ़ेसर) सेवा निवृत
वाणिज्य विभाग
वाईडीपीजी कॉलेज,लखीमपुर खीरी


 "धार्मिक और आर्थिक गुलामी का खतरनाक दौर."
            बीजेपी गठबंधन को हराने के लिए सम्पूर्ण राजनैतिक विपक्षी दलों को अपने-अपने राजनैतिक मनभेद और मतभेद भुलाकर जातिगत राजनीति की लड़ाई से ऊपर उठकर सम्पूर्ण जमात के व्यापक हितों की सुरक्षा की राजनीति पर ध्यान केंद्रित करना होगा। यहां गैरभाजपाई दलों और विपक्षी दलों में अंतर समझना जरूरी है। सामान्यतः भाजपा के अलावा सभी दल गैरभाजपाई माने जाते हैं,लेकिन जो दल बीजेपी सरकार की रीतियों-नीतियों का खुलकर या मौन समर्थन करते हैं या चुनाव से पहले या बाद में सत्ता में हिस्सेदारी के लिए बीजेपी के साथ गठबंधन करते हैं,वे दल गैरभाजपाई तो कहे जा सकते हैं, किंतु विपक्षी दल नहीं। जो दल चुनाव से पहले, चुनाव के दौरान और चुनाव बाद सत्ता में हिस्सेदारी के लिए बीजेपी के साथ गठबंधन नहीं करते हैं और बीजेपी गठबंधन सरकार के संविधान विरोधी अलोकतांत्रिक आचरण और सामाजिक न्याय विरोधी निर्णयों/नीतियों पर सड़क से लेकर सदन तक जोरदार तरीके से आलोचना या असहमति व्यक्त करते हैं और संवैधानिक लोकतंत्र के सम्मान की रक्षा के लिए राजनीतिक लड़ाई लड़ते हुए दिखते हैं,उन्हें ही विशुद्ध विपक्षी दल कहना उचित होगा। कहने का आशय यह है कि ओबीसी और एससी-एसटी वर्ग को अपने-अपने वर्ग के कतिपय नेताओं की जातिगत राजनीति या लाभ को दरकिनार करते हुए पूरी ज़मात के व्यापक हितों (सामाजिक न्याय) की सामूहिक राजनीतिक लड़ाई लड़ने की भावना पैदा कर ही लोकतंत्र के आवरण में छुपी तानाशाही प्रवृत्ति अपनाए बीजेपी को परास्त करने की दिशा में कुछ सफलता हासिल की जा सकती है। जातिगत राजनीति से आपकी जाति का व्यक्ति विधायक/ सांसद/मंत्री तो बन सकता है, लेकिन वह हमारे समाज के व्यापक हितों की रक्षा नही कर सकता है। इसी तरह कोई भी दल आपकी जाति का मंत्री/गवर्नर/ उपराष्ट्रपति/ राष्ट्रपति बनाकर आपकी जाति का वोट लेकर सत्ता तो हासिल कर सकता है ,लेकिन ऐसा पदस्थ व्यक्ति आपकी जाति या वर्ग के हितों की रक्षा के मामले पर खरा उतरता नज़र नहीं आता है या आएगा। दलित समाज के व्यक्ति को इस देश के कितने भी उच्च पद पर बैठ जाने के बावजूद उसकी वास्तविक पहचान दलित/अछूत ही मानी जाती रही है। यहां तक कि देश के राष्ट्रपति जैसे सर्वोच्च पद पर पहुंचने के बावजूद वह मंदिरों में प्रवेश करने के अधिकार से वंचित ही रहता है।  
                  बीजेपी का बार बार यह राजनीतिक रोना कि कांग्रेस के सत्तर साल के शासन में कुछ नहीं हुआ के अनर्गल अलाप को किसी भी विपक्षी दल या सामाजिक संगठन को समर्थन नही करना चाहिए। आज़ादी के बाद देश के विभाजन के फलस्वरूप पैदा हुई खराब स्थितियों के बावज़ूद कॉंग्रेस के सत्तर सालों में बड़ी बड़ी सरकारी/सार्वजनिक संस्थाओं का विशाल इंफ्रास्ट्रक्चर खड़ा हुआ,स्कूल,कॉलेज और विश्वविद्यालय खुले जिसमें आरक्षण की वजह से शिक्षा के अवसर और नौकरियां मिलने पर वंचित और शोषित समाज का एक बहुत बड़ा तबका सामाजिक और आर्थिक रूप से मध्य वर्ग के रूप में मजबूती के साथ उभरा है। वंचित और शोषित समाज के लोग आरक्षण की बदौलत ही सार्वजनिक और सरकारी संस्थाओं में लाखों रुपये की नौकरी पाकर चमचमाता कोट,पैंट और टाई पहनने के लायक बने हैं और घरों में कीमती टाइल्स लगाकर साफ सुथरी जिंदगी जीने का मौका पाए है। अब यह सर्वविदित हो चुका है कि नौ साल के बीजेपी की शासन सत्ता के दौर में बेतहाशा निजीकरण की प्रक्रिया से सार्वजनिक और सरकारी संस्थाओं को खत्म कर आरक्षण की वज़ह से मिलने वाली सस्ती शिक्षा और नौकरियों के अवसर खत्म हो चुके हैं/ रहे हैं। शिक्षा,चिकित्सा और कृषि को राजनैतिक स्वार्थवश मनपंसद कुछ कॉरपोरेट घरानों को सौंपकर ओबीसी और एससी - एसटी  समुदाय की आने वाली पीढ़ियों के भविष्य को बर्बाद करने का बड़ा कार्यक्रम बन चुका है। ओबीसी और एससी-एसटी समुदाय की सरकारी स्कूलों और अस्पतालों तक जो आसानी से पहुंच होती थी/है, निजीकरण के बाद वह अब एक सपना बनती दिखाई देती नज़र आएगी। रेलवे,एलआईसी और राष्ट्रीयकृत बैंक जिनमें अभी तक निम्न और मध्य वर्ग की सहज, विश्वसनीय और निःशुल्क पहुंच होती थी ,वह भी  इस बीजेपी के शासन काल में एक सपना भर रह जायेगा। पूंजीपरस्त बीजेपी की सत्ता में खीरा चोर को सज़ा और हीरा चोर को सिर-आंखों पर बैठाए जाने की संस्कृति देखी जा सकती है। बीजेपी शासन सत्ता ने विपक्ष को बर्बाद या खत्म करने की एक नई संस्कृति पैदा की है जिसमें उसने संवैधानिक संस्थाओं के माध्यम से चुनाव से ठीक पहले उनके यहां इनकम टैक्स, ईडी, सीबीआई, सीवीसी,आइवी द्वारा छापे डालकर उन्हें परेशान और विचलित करने के उपक्रम किये जा रहे हैं। यदि वास्तव में जांच करनी थी तो चुनावी बेला के अलावा किसी समय हो सकती थी। नहीं, चुनाव से भटकाने और जनता को जांच दिखाकर और बेवकूफ बनाकर उनका वोट हथियाना और अपने शासन सत्ता काल की नाकामियों को छुपाना इनका मक़सद रह गया। हिंडन वर्ग की रिपोर्ट और गुजरात दंगों पर बनी डॉक्यूमेंट्री से सत्ता बुरी तरह से डरी या बौखलाई हुई नजर आती है। चुनाव के एन वक्त पर एकजुट होते विपक्ष के नेताओं को राज्यवार परेशान कर और क्षद्म राष्ट्रवाद ,धर्म और हिन्दू बनाम मस्लिम के बल पर येनकेन प्रकारेण चुनाव जीतना और सत्ता पर काबिज़ रहना ही इनके लिए लोकतंत्र की परिभाषा और व्याख्या बन चुकी है।


Wednesday, February 08, 2023

घनीभूत संवेदनाओं का प्रगटीकरण-डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

पुस्तक समीक्षा 


पुस्तक -बेरंग (लघुकथा संग्रह )
लेखक-सुरेश सौरभ
प्रकाशन-श्वेत वर्णा प्रकाशन नई दिल्ली।
मूल्य -२००
प्रकाशन वर्ष-2022
मानव समाज के उत्तम दिशा में उत्थान हेतु स्वस्थ व उत्तम मानवीय संस्कारों की आवश्यकता होती है और ऐसे मानवीय संस्कार हमें संस्कृति से ही प्राप्त हो सकते हैं। संस्कृति को उत्तम रखने में साहित्य की भूमिका महती होती है। उत्तम साहित्य, संस्कृति में मौजूद विषाणुओं को समाप्त कर रोगयुक्त संस्कारों में संजीवनी का संचार करने की क्षमता रखता है।
कहना न होगा कि प्रस्तुत लघुकथा संग्रह "बेरंग" में इसके रचयिता सुरेश सौरभ ने उक्त कथनों को ही मूर्तिमंत किया है। लेखक ने अटूट परिश्रम से सामयिक विविध विषयों की जीवंत झांकी को सरल एवं ओजस्वी भाषा शैली में प्रस्तुत किया है, वह श्लाघनीय है। यह अनुभवजन्य और सन्देशप्रद लघुकथाओं का संग्रह है, जिसमें 77 लघुकथाएँ विद्यमान हैं। ये रचनाएँ जीवन के दर्पण सरीखी हैं। 
साहित्य इन्द्रधनुषीय होता है, जिसमें जीवन के विविध रंग होते हैं, लेकिन इस संग्रह का शीर्षक बेरंग है, जो कि लेखक ने अपनी एक रचना पर रखा है। इस संग्रह की अन्य अग्रणीय व चर्चा योग्य लघुकथाओं में से एक 'बेरंग' लघुकथा ने होली सरीखे उत्तम त्यौहार पर महिलाओं के साथ किए जाने वाले दुर्व्यवहार की वेदना को जो स्वर दिया है, वह विचारने को मजबूर करता है।
'कन्या पूजन' एक स्तब्ध कर देने वाला कथानक है। नवरात्र में कन्या पूजन के बहाने से किसी बालिका के साथ बलात्कार करना अमानवीयता की पराकाष्ठा है और इसी तरह के समाज-कंटक संस्कृति की उत्तमता को अपने घिनौने नकाब से ढक देने में कामयाब हो ही रहे हैं।
अछूती व नई कल्पनाशीलता से पगी रचनाएँ ही अधिकार पूर्वक अपना स्थान बना सकती हैं। 'धंधा' भी इसी तरह की एक लघुकथा है, इसकी भाषा शैली बहुत अच्छी है, इसमें एक मुहावरे का भी निर्माण हो रहा है- 'पचहत्तर आइटमों में छिहत्तर मसाले'। रचना समाज में फैली दिखावे की संस्कृति में छिपे धन की बचत के भाव को दर्शा पाने में पूर्ण सफल है।
'महँगाई में फँसी साइकिल' में चिंतन और मनन के माध्यम से जो ताना-बाना बुना गया, वह काबिले तारीफ है। उसे बिना लाग-लपेट के सरलता से व्यक्त करना उत्कृष्ट रचनाकार की गूढ़ चिन्तनशीलता को दर्शाता है।
लघुकथा संसार ने तो बहुत प्रगति की है, लेकिन लघुकथा संस्कार ने नहीं। इन दिनों कई सामयिक लघुकथाओं में लेखकीय पूर्वाग्रहों के कारण नकारात्मकता का पोषण दृष्टिगत हो रहा है। इस कथन के विपरीत, 'बादाम पक चुका' भारतीय संस्कृति के उस सत्य का समर्थन करती रचना है, जिसमें पति व पत्नी के मध्य विश्वास का रिश्ता होता है। 
'दावत का मज़ा' भूख और ग़रीबी से जूझते तबके की मजबूरियों और विडंबनाओं के सामने दावतों के रंग को बेरंग बना रही है। यह रचना लेखक की गहन-गंभीर चिंतनशीलता को प्रदर्शित करती है। 
'भरी-जेब' एक अलग ही धरातल पर आकार लेती है, जो धन की बजाय प्रेम और संवेदना की एक बारीक़ धुन में बंध कर स्वयं को धन्य समझने को बताती है। बड़ी ही सरलता से प्रेम और मनुष्य के संबंधों की बारीक़ियों को भी रेखांकित करती हैं।
'तेरा-मेरा मज़हब' चूड़ी और कंगन के प्रतीकों के जरिए साम्प्रदायिक सद्भाव का एक ऐसा चित्र खींचती है, जिसका शब्द-शब्द अपने आप में अनूठा है। यह रचना जर्मन संगीतकार बीथोवेन के गीत सरीखी एक नवाचार है।
'पूरा मर्द' में रचनाकार ने सरल और सहज शब्दों में बिना किसी शोशेबाज़ी और दिखावे के सशक्त व रोचक ढंग से अपने विषय को दर्शाया है। यही इसकी मुख्य विशेषता है। यह उम्दा व भावप्रधान रचना है। 
रचनाओं को पढ़कर यह समझ आता है कि, ये लघुकथाएँ महज लेखकीय सुख के लिए नहीं लिखी गई हैं, बल्कि इन्हें रचने का उद्देश्य घनीभूत संवेदना का प्रगटीकरण है। लेखक ने हमारे आसपास की ही दुनिया के कई बिखरे हुए बिंदुओं को जोड़कर एक मुकम्मल तस्वीर उभारने का सफल प्रयास किया है। इस संग्रह में मनुष्य की कमज़ोरियाँ हैं और उसे समझने का प्रयास करता लेखक भी है। यहाँ सपने हैं, तो उनसे पैदा हुई हताशाएँ भी हैं। कटु आलोचनाएँ हैं, तो प्रेम की सुगंध भी है। प्रशस्तियाँ हैं, तो गर्जनाएँ भी हैं। कुछ लघुकथाएँ पाठकों से कठोर प्रश्न करती मनुष्य के मनुष्य के प्रति दुर्व्यवहार को भी बारीक़ी से उकेरती हैं। 
लेखक ने कुछ रचनाओं में प्रतीकों को प्रवीणता-कुशलता के साथ स्पष्ट किया है लेकिन इस बात का ध्यान रखते हुए कि यथार्थपरक तथ्य कहीं ओझल न हो जाए, अपितु उनके महत्व को भी पाठकगण हृदयंगम कर सकें। संग्रह की एक अच्छी बात यह भी है कि लेखक अच्छे-बुरे का ज़्यादा आग्रह नहीं करते, वह सिर्फ़ अपनी बात कहभर देतेहैं, बाक़ी पाठक अपने तरीक़े से विचारते रहें। सहजता से समाज का यथार्थ सामने रख देना और बिना उपदेश के विमर्श इस संग्रह की ख़ूबी है। 
   इस संग्रह के मूल्यांकन का अधिकार तो पाठकों को है ही। मेरे अनुसार, समग्रतः इस संग्रह की रचनाएँ पाठकों को विचार करने के लिए धरातल देती हैं। प्रभावशाली मानवीय संवेदनाओं, उन्नत चिन्तन, सारभूत विषयों को आत्मसात करती जीवंत लघुकथाओं से परिपूर्ण यह संग्रह रोचक-रोमांचक कथ्य के कारण पठनीय और सुरुचिपूर्ण साहित्यिक कृति है। 
लेखक श्री सौरभ को अशेष मंगलकामनाएँ।

3 प 46, प्रभात नगर, सेक्टर-5, हिरण मगरी, उदयपुर – 313 002, राजस्थान
मोबाइल: 9928544749
chandresh.chhatlani@gmail.com

तुलसीदास जी का नारियों के प्रति दृष्टिकोण-लक्ष्मीनारायण गुप्त


पिछली प्रविष्टि में "ढोल, गँवार.." की चर्चा की गई थी और मैंने यह मत व्यक्त किया तहा कि यह तुलसी का नारी विरोधी दृष्टिकोण व्यक्त करता है। लोगों को लगा कि मैंने यह लेख बहुत शीघ्र समाप्त कर दिया। कुछ और कहने की आवश्कता है। पहले मैं पिछले लेख के तर्क को संक्षिप्त में दुहराता हूँ। उपर्युक्त चौपाई समुद्र के द्वारा कही गई है। इस प्रसंग में वाल्मीकि रामायण में समुद्र वही सारी बातें कहता है जो गोस्वामी जी ने उससे कहलवाई हैं किन्तु इस चौपाई के कथन को छोड़ कर। स्पष्ट है कि यह गोस्वामी जी की स्वयं की धारणा है।

अब मैं श्रीरामचरितमानस से कुछ उद्धरण दे रहा हूँ। विद्वान पाठक स्वयं निर्णय करें कि इनसे तुलसी नारी विरोधी लगते हैं या नहीं।

१। बालकाण्ड में सती रामचन्द्र जी की परीक्षा लेने सीता का वेष लेकर जाती हैं। सती राम से कपट करती हैं जिसके वारे में गोस्वामी जी कहते हैः
"सती कीन्ह चह तहउँ दुराऊ। देखहु नारिसुभाउ प्रभाऊ।।"
तो नारी का सहज स्वभाव कपट का है। इसी प्रसंग में जब सती लौट कर शिव जी के पास आती हैं तो वे पूछते हैं कि कैसे परीक्षा ली। सती कहती है कि उन्होंने कोई परीक्षा नहीं ली। शिव जी ध्यान लगा कर जान लेते हैं कि सती ने क्या किया था। शिव जी अपने मन में प्रण करते हैं कि अब सती के इस शरीर से उनका कोई शारीरिक सम्पर्क नहीं होगा। आकाशवाणी के एनाउन्सर को इस प्रण का पता चल जाता है किन्तु सती तो महज़ एक स्त्री हैं, इसलिये उन्हें कुछ पता नहीं चलता। शिव जी पूछने से उत्तर नहीं देते तो गोस्वामी जी उनसे यह सोचवाते हैं:
"सती हृदय अनुमान किय सब जानेउ सर्वग्य।
कीन्ह कपटु मैं शम्भु सन नारि सहज जड़ अग्य।।"
वे स्वयं भी मानती हैं कि नारियाँ तो स्वाभाविक रूप से जड़ और अज्ञानी होती हैं।

२। अयोध्याकाण्ड में जब मन्थरा कैकेई को फुसला रही है, कैकेई पहले यूँ सोचती हैः
" काने, खोरे, कूबरे कुटिल कुचाली जानि।
तिय विसेषि पुनि चेरि कहि भरतमातु मुस्कानि।।"
(रामचन्द्रप्रसाद की टीकाः जो काने, लँगड़े और कुबड़े हैं, उन्हें कुटिल और कुचाली जानना चाहिए। फिर स्त्रियाँ उनसे भी अधिक कुटिल होती हैं और दासी तो सबसे अधिक। इतना कहकर भरत जी की माता मुसकरा दीं।)

३। रामचन्द्र जी के वन चले जाने पर पुरी के लोग कैकेई की ही नहीं, सारी नारियों की निन्दा करते हुए कहते हैं:
" सत्य कहहिं कवि नारि सुभाऊ। सब बिधि अगहु अगाध दुराऊ।।
निज प्रतिबिम्बु बरुकु गहि जाई। जानि न जाइ नारि गति भाई।।"
(कवियों का कहना ठीक ही है कि स्त्री का स्वभाव सब तरह से अग्राह्य, अथाह और भेदभरा है। अपने प्रतिबिम्ब को कोई भले ही पकड़ ले किन्तु स्त्रियों की गति नहीम जानी जाती।)

४। अरण्यकाण्ड में अनसूया सीता को नारी धर्म की शिक्षा देते हुए कहती हैं:
" सहज अपावन नारि पति सेवत शुभ गति लहइ।"
(स्त्री तो सहज ही अपावन होती है...)

५। अरण्यकाणड में शूर्पणखा के प्रणयनिवेदन की भूमिका बाँधते हुए कागभुसुण्डि जी गरुड़ से कहते हैः
"भ्राता, पिता, पुत्र उरगारी। पुरुष मनोहर निरखत नारी।।
होइ विकल सक मनहिं न रोकी। जिमि रविमनि द्रव रबिहि बिलोकी।।"
(हे गरुड़, स्त्री सुन्दर पुरुष को देखते ही, चाहे वह भाई, पिता, पुत्र ही क्यों न हो, विकल हो जाती हैं और अपने मन को रोक नहीं सकती हैं जैसे सूर्य को देखकर सूर्यमणि पिघल जाती है।)
लगता है वलात्कार के सारे केस औरतें ही करती होंगी।

६। किष्किंधाकाण्ड में सीतावियोग में प्रकृतिवर्णन करते हुए रामजी कहते हैं:
"महावृष्टि चलिफूटि किंयारी। जिमि सुतंत्र भए बिगरहिं नारी।।"
(महावृष्टि से क्यारियाँ फूट गई हैं और उनसे ऐसे पानी बह रहा है जैसे स्वतंत्रता मिलने से नारियाँ बिगड़ जाती हैं।)

७। लक्ष्मणशक्ति के मौके पर राम जी विलाप करते हुए कहते हैं:
"जस अपजस सहतेउँ जग माहीं। नारि हानि विसेष दुख नाहीं।"
(मैं संसार मे यश अपयश ले लेता। स्त्री की क्षति कोई खास बात नहीं है।)

८। लंकाकाण्ड में रावण मन्दोदरी की सलाह ठुकराते हुए कहता हैः
"नारि सुभाव सत्य सब कहहीं। अवगुन आठ सदा उर रहहीं।
साहस, अनृत, चपलता माया। भय अविवेक, असौच अदाया।।"
(नारी के स्वभाव के बारे में कवि सत्य ही कहते हैं कि सदा ही उनके हृदय में आठ अवगुण रहते हैं: साहस, असत्य, चपलता, माया (छल कपट), भय, अविवेक, अपवित्रता, और निर्ममता।"

यह सूची पूरी नहीं है अपितु केवल वे प्रसंग दिए हैं जिनके बारे में मैं पहले से कुछ जानता था।
...२७ जनवरी २००७

ओपीएस बनाम एनपीएस: केंद्र सरकार के नकरात्मक रवैये से अधर में लटक सकते हैं,राज्यों की ओपीएस बहाली के निर्णय-नन्दलाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)

एन०एल० वर्मा (असो.प्रोफ़ेसर) सेवा निवृत
वाणिज्य विभाग
वाईडीपीजी कॉलेज,लखीमपुर खीरी
           छत्तीसगढ़ में ओपीएस लागू करने के बाद भी संकट खत्म होता नजर नहीं आ रहा है। भूपेश सरकार ने बहाली की अधिसूचना जरूर जारी कर दी है, लेकिन अभी तक राज्य और केंद्र के बीच रार कायम है। उधर केंद्रीय वित्त राज्यमंत्री ने पुरानी पेंशन योजना लागू करने से साफ इनकार कर दिया है। ऐसे में मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने कहा है कि एनपीएस में जमा पैसा राज्य कर्मचारियों का है, उनका अंशदान है। इसमें भारत सरकार का एक भी पैसा नहीं है। 
           मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने पुरानी पेंशन योजना की बहाली को लेकर किए गए सवाल पर कहा कि एनपीएस में जमा पैसा राज्य कर्मचारियों का है और राज्य का अंशदान है। जो केंद्रीय कर्मचारी हैं, उनका पैसा भारत सरकार के पास है। इसके लिए हम लगातार मांग रहे हैं, लेकिन भारत सरकार नकारात्मक रवैया अपना रही है। उन्होंने बताया कि इसके लिए अधिकारियों को निर्देशित किया गया है कि वे कर्मचारी संगठनों के साथ बैठक करें। मुख्यमंत्री बघेल ने कहा कि बातचीत से क्या रास्ता निकल सकता है,उस पर गौर कर  विचार-विमर्श करें। इसके बाद मेरे पास आएं। फिर जिन कर्मचारियों के लिए ओल्ड पेंशन स्कीम लागू की गई है, उसमें क्या हल निकल सकता है, इसे देखेंगे। मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने कहा कि हम पुरानी पेंशन योजना लागू करने के लिए प्रतिबद्ध हैं। छत्तीसगढ़ के साथ ही राजस्थान, झारखंड और हिमाचल प्रदेश भी पुरानी पेंशन योजना लागू करने की घोषणा कर चुके हैं। 
        दरअसल, सोमवार को लोकसभा में एआईएमआईएम के अध्यक्ष और सांसद असदुद्दीन ओवैसी ने पुरानी पेंशन योजना को लेकर सवाल पूछा था। इस पर वित्त राज्यमंत्री डॉ. भागवत कराड ने लिखित जवाब देकर कहा है कि इसे लागू करने का सरकार का कोई विचार नहीं है। कई राज्यों ने पुरानी पेंशन को लागू करने के लिए अपने स्तर पर नोटीफिकेशन जारी किया है। ऐसे में केंद्र सरकार यह स्पष्ट करना चाहती है कि एनपीएस में जमा धनराशि वापसी का कोई प्रावधान नहीं है। 
        मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने मार्च 2022 को पुरानी पेंशन योजना को फिर से लागू करने की घोषणा की थी। राज्य सरकार ने नोटिफिकेशन जारी कर अपने कर्मचारियों के वेतन से 10% की हो रही कटौती को भी बंद करा दिया है और सामान्य भविष्य निधि (जीपीएफ) नियम के अनुसार उनके वेतन से 12% राशि भी काटी जाने लगी है। राज्य सरकार ने अपने कर्मचारियों के जीपीएफ खाते भी एकॉउंटेंट जनरल (एजी) से लेकर वित्त विभाग को उपलब्ध करा दिए हैं।
         देश के बौद्धिक और राजनीतिक क्षेत्रों में केंद्र की बीजेपी सरकार की इस तरह की हठधर्मिता अन्य राज्य सरकारों के ओपीएस बहाली के निर्णय को कमजोर और हतोत्साहित करने की दिशा में अवलोकन और आंकलन किया जा रहा है। चूंकि ओपीएस खत्म करने का निर्णय भी बीजेपी शासनकाल में लिया गया था। इसलिए सेवानिवृत्त कर्मचारियों की बुढ़ापे में और परिवार के लिए सबसे अधिक भरोसेमंद और गारंटीयुक्त साबित होने वाली ओपीएस की बहाली का मुद्दा वर्तमान केंद्र सरकार के लिए थूककर चाटने और गले की हड्डी जैसा माना जा रहा है। सरकार के निर्णय की पुष्टि करते हुए आरबीआई ने भी राज्यों को वित्तीय प्रबंधन की दिक्कतों का हवाला देते हुए ओपीएस बहाली न करने की सलाह दे डाली है। सरकार और आरबीआई के वक्तव्यों से साफ संकेत मिल रहे हैं कि देश की अर्थव्यवस्था पूरी तरह खोखली हो चुकी है या यूँ कहें कि केंद्र सरकार की सॉल्वेंसी की स्थिति जर्जर हो चुकी है। देश की अर्थव्यवस्था की असलियत तो सत्ता परिवर्तन के बाद ही जनता के सामने आ पाएगी,लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी होगी।

Tuesday, January 17, 2023

प्रभुदा से जुड़े सवाल और जवाब एक साथ तलाशता ‘कथादेश’-अजय बोकिल

कथादेश के बहाने
अजय बोकिल
 वरिष्ठ संपादक, दैनिक सुबह सवेरे म०प्र०

साहित्य, संस्कृति और कला की मासिकी ‘कथादेश’ का कथाकार, चित्रकार, पत्रकार, चिंतक या कहूं कि अपनी मिसाल आप प्रभु जोशी ( जिन्हें मैं प्रभुदा ही कहता आया) पर एकाग्र यह एक यादगार और जरूरी अंक है। यादगार इसलिए कि शायद पहली बार प्रभु जी के जीवन पर हर कोण से प्रकाश डालता यह शाब्दिक कोलाज है तो जरूरी इसलिए कि प्रभुदा जैसे नितांत ‘अस्त व्यस्त’ रचनाकार को समझने के लिए अभी ऐसे और अंकों की गरज है। मुझे इस अंक की जानकारी प्रभुदा के अनुज हरि जोशी के फोन से मिली। हालांकि हरिजी से मेरा भी यह पहला परिचय ही था। उन्होंने मुझसे कहा कि आपने वह अंक देखा कि नहीं? मैं तब गाड़ी ड्राइव कर रहा था। जवाब में इतना ही कहा कि अच्छा..मैं देखता हूं। बाद में मित्रवर कैलाश मंडलेकर से बात हुई तो उसने कहा कि हां, तुम जरूर देखना। इसमें मेरा भी लेख है। काश, तुम भी कुछ भेजते।‘ 
सही है। मैं इस अंक के लिए कुछ नहीं भेज सका। इसलिए सोचा कि अंक ही पढ़ डालूं। पढ़ा तो लगा कि मानो प्रभुदा को ही नए सिरे से पढ़ रहा हूं। खासकर इसलिए कि प्रभुदा से मेरे नईदुनिया में उप संपादक के रूप में जुड़ने के बाद अग्रज-अनुज का जो अटूट रिश्ता बना, वो आखिरी वक्त तक कायम रहा। डेढ़ साल पहले जब क्रूर कोरोना ने प्रभु दा को असमय लील लिया तब मैंने बेहद तनाव प्रभुदा को शाब्दिक श्रद्धांजलि देने का प्रयास किया था।   
बीती 12 दिसंबर प्रभुदा की जन्मतिथि थी। यानी वो आज अगर होते तो 72 के होते। बीते 35 साल में प्रभु जोशी को मैं जितना आंक सका, उसका कुल जोड़ यह है कि उनके भीतर कई व्यक्तित्व और रचनाकार थे। लेकिन वो आपस में गड्ड मड्ड नहीं थे। प्रभु दा में एक बड़े लेखक, अनूठे चित्रकार या चिंतक होने का लेश मात्र भी गुरूर नहीं था। वो कई बार निजी जीवन की बातें भी वैसे ही शेयर करते थे, जैसे वो विश्व साहित्य पर साधिकार बात करते थे । एक बार उन्होंने मुझसे फोन पर कहा भी’ अजय इतने साल बाद भी हम एक दूसरे की पारिवारिक जिंदगी के बारे में कितना कम जानते हैं, यह हमने कभी सोचा ही नहीं।‘ मुझसे कई बार कहते, तुम कहानी लिखना बंद मत करना। जब मैं पत्रकारिता में रमा तो मेरे लेखन को लेकर भी बहुत बारीकी से विश्लेषण कर दिशा निर्देश देते रहे। 

‘कथादेश’ का यह विशेषांक प्रभु जोशी के व्यक्तित्व के विविध और विरोधाभासी आयामो को पूरी ईमानदारी से बयान करता है। बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा कि यह प्रभु जोशी की समूची शख्सियत को लेकर कई सवाल खड़े करता है तो उन सवालों के कई जवाब भी इसी में मिलते हैं। पत्रिका के संपादक ओमा शर्मा ने अपने संपादकीय प्रभु जोशी होने के मायने’ में ठीक ही लिखा है ‘लेखन के शैशवकाल में ही उन्होंने ( प्रभु जोशी) पाठकों लेखको के बीच जो मुकाम हासिल कर लिया था, वह नितांत अभूतपूर्व था। बाद में वे चित्रकला में एकाग्र हो गए, लेकिन वहां भी अपनी शिखर पहचान कायम रखी। एक जनबुद्धिजीवी के बतौर उन्होंने अपनी भाषा, संस्कृति, स्त्रीवाद और भूंडलीकृत व्यवस्था के प्रपंचों, यहां तक कि राजनीति की दुरभिसंधियों समेत दूसरे अनेक समकालीन मसलों की जांच परख में उत्तरोत्तर अपनी सोच निवेशित संप्रेषित की, जो किसी हिंदी लेखक के लिए कतिपय दुस्साहसिक वर्जित इलाका है।‘
इस अंक के पहले खंड में प्रभु दा की अद्भुत और ‘पितृऋण’ जैसी कालजयी कहानियां व लेख हैं। लेकिन उनके चिंतक व्यक्तित्व को सामने लाने वाला अनूप सेठी का प्रभु दा से वह दुर्लभ साक्षात्कार है, जो प्रभु जोशी को प्रथम पंक्ति के कला व साहित्य चिंतको में शुमार करता है। इसमें उन्होंने शब्द, रंग, ध्वनि, कला और साहित्य की भाषा के बारे में बहुत गहरे तथा आत्म चिंतन से उद्भूत विचार रखे हैं। प्रभु जी की विशेषता यही थी कि उनके पास कला की लाजवाब भाषा और भाषा की अनुपम कला एक साथ थी। वो समान अधिकार के साथ रंगों की भाषा से खेल सकते थे और भाषा के रंगों को पूरी ताकत से उछाल सकते थे। इसी साक्षात्कार में एक सवाल के जवाब में प्रभुदा कहते हैं कि ‘हर शब्द का एक स्वप्न होता है कि वह दृश्य बन जाए।‘ अपनी कथा रचना प्रक्रिया ( हालांकि कहानी लेखन उन्होंने बहुत पहले बंद कर ‍िदया था) कहा कि मैं खुद भी कहानी का आरंभ लिखता हूं तो बार-बार बदलता हूं। ऐसा नहीं कि जो कहानी लिखी वह एक बार में ही हो गई।‘ लेकिन रचनाकार-कलाकार प्रभु जोशी के अलावा एक इंसान के रूप में प्रभु जोशी क्या थे, किन अतंर्दवद्वों से जूझ रहे थे, उनकी मानवीय कमजोरियां क्या थीं, जिन्हें उन्होंने अपनी बहुआयामी रचनात्मकता से ढंके रखने की हरदम कोशिश की। इन पहलुओंके बारे में बहुत शिद्दत से रोशनी प्रख्यात व्यंग्यकार और प्रभुदा के अनन्य मित्र ज्ञान चतुर्वेदी ने अपने स्मृति लेख ‘कोरोना ने बचा लिया उसे’ में डाली है। यह समूचा लेख दरअसल प्रभु जी के कुछ विरोधाभासी, अजब लापरवाही भरे और खुद संकटो को न्यौतने के विचित्र आग्रहो और उसके कारण सतत तनावों में जीने की अभिशप्तताओं से भरा हुआ है। इस लेख में ज्ञानजी ने कई ऐसे खुलासे किए हैं, जिससे यह सवाल मन को मथता है कि प्रभु जोशी जैसा एक इतना बड़ा और प्रतिभाशाली रचनाकार एक आम मनुष्य की तरह जिंदगी सरल जिंदगी क्यों नहीं जी पाता? दूसरी तरफ शायद यही बात है जो उसे दूसरों से अलग और अन्यतम बनाती है। उनमें एक अलग तरह का ‘जिद्दीपन’ था, जिसे उनके चाहने वाले कभी अफोर्ड नहीं कर सकते थे। यानी कोरोना दूसरों के लिए भले मौत का कारण बना हो लेकिन अपने ही अंतर्विरोधो से जूझ रहे प्रभुदा के लिए ‘मोक्षदायी’ साबित हुआ, ऐसा कथित मोक्ष जिसके लिए हममे से शायद कोई भी मानसिक रूप से तैयार नहीं था। 
‘कथादेश’ के इस अंक में प्रभु जोशी के अनुज हरि जोशी ने उनके बचपन की यादों को संजोया है तो प्रभुजी के भतीजे अनिरूद्ध जोशी ने अपने काका को अलग अंदाज में सहेजा है। प्रभु जोशी के दो परम ‍मित्रों जीवन सिंह ठाकुर तथा प्रकाश कांत ने भी अपने दोस्त के स्वभाव और दोस्ती की निरंतरता के अजाने पहलुओं पर रोशनी डाली है। आकाशवाणी में उनके सहकर्मी और अभिन्न मित्र रहे कवि लीलाधर मंडलोई ने कहा कि प्रभु जोशी पक्के मालवी थे, इसलिए तमाम प्रलोभनो के बाद भी उन्होंने इंदौर नहीं छोड़ा। कैलाश मंडलेकर ने भी प्रभु जोशी के सहज व्यक्तित्व को अपनी नजर से देखा है। इनके अलावा मुकेश वर्मा, रमेश खत्री, मनमोहन सरल तथा अशोक मिश्र, ईश्वरी रावल, सफदर शामी, जय शंकर, डॉ कला जोशी के संस्मरण भी प्रभु दा की शख्सियत के नए आयाम खोलते हैं। प्रभुदा के सुपुत्र इंजीनियर और कला मर्मज्ञ पुनर्वसु जोशी का समीक्षात्मक लेख अपने पिता की जलरंग चित्रकारी पर है। वो लिखते हैं- ‘प्रभु जोशी ने कवितामय गद्य के अपने लेखन की विशिष्ट भाषा की तरह,पारदर्शी जलरंगों के माध्यम को साधते हुए जलरंगों में भी एक ‍कविता ही रची है।‘ 
यह सही है कि प्रभु जोशी की महासागर-सी प्रतिभा को वो सम्मान और प्रतिसाद नहीं मिला, जिसके वो हकदार थे। इसका एक बड़ा कारण वो खुद भी थे। ‘कॅरियर’ और ‘ग्रोथ’ के लिए किसी किस्म का जोखिम उठाना उनकी फितरत में ही नहीं था। चाहे इसका कितना ही नुकसान क्यों न उठाना पड़े। प्रभु जोशी का समूचा रचनाकर्म उनके अपने कठिन संघर्ष और मनुष्य की पीड़ाओं से उपजा नायाब खजाना है। प्रभु जोशी कथा और उपन्यास लेखन में तो अनुपम थे ही, जल रंगो में काम करने वाले वो ऐसे बिरले चित्रकार थे, जिन्होंने रंगों और रेखाओं से बिल्कुल नया आयाम‍ दिया। ‘कथादेश’ के इस अंक का अंतर्निेहित संदेश यही है कि साहित्य और चित्रकला के क्षेत्र में प्रभु जोशी के अवदान का समुचित मूल्यांकन होना आवश्यक है। ऐसा अब तक क्यों नहीं हुआ, यह चुप सवाल भी यह विशेषांक मन में छोड़ जाता है।

भाग एक : ईडब्ल्यूएस आरक्षण: सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने खींच दी हैं,भविष्य की सामाजिक-राजनीतिक विमर्श और आंदोलन की गहरी रेखाएं-नन्दलाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)

भाग-1
एन०एल० वर्मा (असो.प्रोफ़ेसर) सेवा निवृत
वाणिज्य विभाग
वाईडीपीजी कॉलेज,लखीमपुर खीरी

ईडब्ल्यूएस आरक्षण पर आये सुप्रीम कोर्ट के फैसले से सामाजिक न्याय पर भविष्य की सामाजिक - राजनीतिक रेखाएं खिंचती हुई नजर आ रही हैं। सामान्य वर्ग के लिए आर्थिक आधार पर दिए गए आरक्षण पर 103वें संविधान संशोधन की वैधता ने भविष्य में एससी-एसटी और ओबीसी वर्ग में इसे लागू करने की सामाजिक-राजनीतिक मांग की मजबूत नींव भी रख दी है। सामान्य वर्ग के ईडब्ल्यूएस को सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थाओं में प्रवेश में 10% आरक्षण देश की सर्वोच्च अदालत की पांच सदस्यीय संविधान पीठ द्वारा 3-2 बहुमत से जायज़ ठहराये जाने के बाद अब सामान्य वर्ग के गरीबों को आरक्षण का रास्ता विधिक रूप से साफ हो चुका है,जबकि उन्हें आरक्षण का लाभ जनवरी 2019 में संसद से पारित होने के तुरंत बाद से ही दिया जा रहा था और वह भी पूर्वकालिक व्यवस्था से। संसद में इस आरक्षण का अधिकांश राजनीतिक दलों द्वारा तरह तरह से स्वागत किया गया , लेकिन इस फैसले के बाद ओबीसी और एससी-एसटी के आरक्षण से सम्बंधित कई अन्य अहम सवाल भी पैदा हुए हैं जिनकी सामाजिक,राजनीतिक और एकेडेमिक पटलों पर चिंतन मनन शुरू हो गया है और इस चिंतन मनन की परिणिति निकट भविष्य में दिखाई देना शुरू होगा।
         पहला तो यह है कि क्या आर्थिक आधार पर दिया गया ईडब्ल्यूएस आरक्षण देश में समानता के सिद्धांत का उल्लंघन है, दूसरा, आर्थिक आधार पर आरक्षण केवल सामान्य वर्ग को ही क्यों, तीसरे क्या भविष्य में भारत जैसे देश में आरक्षण का मुख्य आधार आर्थिक पिछड़ापन ही बनेगा, चौथा क्या इससे ओबीसी आरक्षण पर दिए गए सुप्रीम कोर्ट की नौ जज़ों की संविधान पीठ के 1992 के फैसले " देश में आरक्षण 50% से अधिक नहीं हो सकता " का यह उल्लंघन है और पांचवॉ यह कि भारत जैसे देश में जाति आधारित आरक्षण की बैसाखी आखिर कब तक कायम रहेगी?
        इन तमाम सवालों को संविधान की पीठ में शामिल जजों ने भी उठाए हैं, जिनके सटीक उत्तर एससी-एसटी और ओबीसी वर्ग के बुद्धिजीवियों और कानूनविदों को खोजने होंगे और भविष्य में देश का सामाजिक तानाबाना और राजनीतिक दिशा -दशा भी उसी से तय होगी। इस दूरगामी फैसले में विशेष संस्कृति में पैदा हुए,पले-बढ़े और पढ़े पांचो जजों में एक बात पर सहमति दिखी कि आर्थिक आधार पर आरक्षण संविधान के बुनियादी ढांचे का उल्लंघन नहीं है। पीठ में शामिल जस्टिस दिनेश माहेश्वरी ने कहा है: 103वें संविधान संशोधन को संविधान के मूल ढांचे को भंग करने वाला नहीं कहा जा सकता। ईडब्ल्यूएस आरक्षण समानता संहिता या संविधान के मूलभूत तत्वों का उल्लंघन नहीं और 50% से अधिक आरक्षण सीमा का उल्लंघन बुनियादी ढांचे का उल्लंघन भी नहीं करता है, क्योंकि यहां आरक्षण की उच्चतम सीमा केवल 16 (4) और (5) के लिए है जिसे अब अपने वर्ग के हितों के संदर्भ में नए तरीके से परिभाषित किया जा रहा है। फैसले को भारतीय संविधान की फ्लेक्सीबिलटी का अनुचित फायदा उठाने का कुत्सित प्रयास के रूप में देखा जा रहा है! जस्टिस बेला एम.त्रिवेदी की राय में 103वें संविधान संशोधन को भेदभाव के आधार पर रद्द नहीं किया जा सकता। ईडब्लूएस आरक्षण को संसद द्वारा की गई एक सकारात्मक कार्यवाही के रूप में देखा जाना चाहिए। इससे अनुच्छेद 14 या संविधान के मूल ढांचे का कोई उल्लंघन नहीं होता।
       सुप्रीम कोर्ट की पीठ का यह भी कहना है कि पूर्व में आरक्षित वर्गों (ओबीसी और एससी-एसटी) को ईडब्ल्यूएस आरक्षण के दायरे से बाहर रखकर उनके अधिकारों को प्रभावित नहीं करता है। जाति व्यवस्था द्वारा पैदा की गई असमानताओं को दूर करने के लिए आरक्षण लाया गया था। गणतंत्र के 72 वर्षों के बाद हमें परिवर्तनकारी संवैधानिकता के दर्शन को जीने के लिए नीति पर फिर से विचार करने की जरूरत है। जस्टिस जे.बी. पारदीवाला ने भी अपने फैसले में दोनों के विचारों से सहमति जताई और संशोधन की वैधता को बरकरार रखा। आरक्षण व्यवस्था पर अपनी महत्वपूर्ण टिप्पणी में उन्होंने कहा है कि आरक्षण सामाजिक और आर्थिक न्याय को सुरक्षित करने का साधन है,आरक्षण अनिश्चित काल तक जारी नहीं रहना चाहिए और इसे निहित स्वार्थ नहीं बनने देना चाहिए। गौरतलब है कि केंद्र की मोदी सरकार ने दोनों सदनों में 103वें संविधान संशोधन विधेयक को मंजूरी दी थी जिसके तहत सामान्य वर्ग के गरीब लोगों को शैक्षणिक संस्थानों और सरकारी नौकरियों में 10% आरक्षण का प्रावधान किया गया था।
        12 जनवरी 2019 को राष्ट्रपति ने इस कानून को मंजूरी दी, लेकिन इस कानून को सुप्रीम कोर्ट में यह कहकर चुनौती दी गई थी कि इससे संविधान के समानता के अधिकार और संविधान पीठ द्वारा लगाई गई 50% आरक्षण की सीमा का उल्लंघन होता है। अत: इस संशोधन को खारिज़ किया जाए, लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने इस संविधान संशोधन को वैध माना। कानून में सामान्य वर्ग के सालाना 8 लाख रुपये से कम आय वाले परिवारों को इकोनॉमिकली वीकर सेक्शन्स (ईडब्लूएस) मानते हुए सरकारी शैक्षिक संस्थाओं तथा नौकरियों में भी 10% आरक्षण दिया जा रहा है,लेकिन संविधान पीठ के ही जस्टिस एस.रवींद्र भट ने अपने निर्णय में ईडब्ल्यूएस आरक्षण संबंधी संविधान संशोधन पर असहमति जताते हुए उसे रद्द कर दिया। जस्टिस भट ने अन्य तीन न्यायाधीशों के फैसले पर असहमति जताते हुए कहा कि 103 वां संशोधन संवैधानिक रूप से प्रतिबंधित भेदभाव की वकालत करता है। आरक्षण की तय 50% की सीमा के उल्लंघन की अनुमति देने से और अधिक उल्लंघन हो सकते हैं जिसके परिणामस्वरूप विभाजन हो सकता है। जस्टिस रवींद्र भट ने अपने फैसले में आर्थिक आधार पर आरक्षण को खारिज करते हुए कई सवाल उठाए। उन्होंने कहा कि जिस तरह एससी-एसटी और ओबीसी को इस आरक्षण से बाहर रखा गया है, उससे भ्रम होता है कि समाज में उनकी आर्थिक स्थिति काफी बेहतर हो चुकी है, जबकि सबसे ज्यादा गरीब और गरीबी इन्हीं वर्गों में हैं और ग़रीबी आकलन में आठ लाख की आय की क्राईटेरिया कतई उचित नही कहा जा सकता है और यह संविधान के मूल ढांचे के खिलाफ है। हालांकि, उन्होंने यह भी कहा है कि केवल आर्थिक आधार पर दिया गया आरक्षण वैध है। कुल मिलाकर इसका अर्थ यही है कि जस्टिस भट्ट और जस्टिस यू.यू. ललित ने आर्थिक आधार पर आरक्षण को तो सही माना, लेकिन उसके तरीके पर असहमति जताई है।
क्रमशः भाग दो में-

भाग दो : ईडब्ल्यूएस आरक्षण: सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने खींच दी हैं,भविष्य की सामाजिक-राजनीतिक विमर्श और आंदोलन की गहरी रेखाएं-नन्दलाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)

  भाग-2  
एन०एल० वर्मा (असो.प्रोफ़ेसर) सेवा निवृत
वाणिज्य विभाग
वाईडीपीजी कॉलेज,लखीमपुर खीरी

      इस बारे में सरकारी पक्ष का कहना था कि नए प्रावधान से सुप्रीम कोर्ट द्वारा लागू आरक्षण की 50% की सीमा का कहीं से उल्लंघन नहीं हुआ है, क्योंकि यह वास्तव में आरक्षण के भीतर आरक्षण ही है। यह 10% आरक्षण सामान्य वर्ग (जिसमें हिंदुओं की अगड़ी जातियां व गैर हिंदू धर्मावलंबी शामिल हैं) के बाकी 50% कोटे में से ही दिया गया है,अर्थात सरकारी और सवर्ण मानसिकता के लोग 50% अनारक्षित सीटों को सामान्य वर्ग के लिए आरक्षित मानकर चलते आये हैं और आज भी मान रहे हैं, अनारक्षित 50%सीटों  को ओपन टू ऑल अर्थात जिसमें विशुद्ध मेरिट के आधार पर अनारक्षित और आरक्षित वर्ग के अभ्यर्थियों में भेदभाव किये बिना चयनित होने की व्यवस्था होती है। इन 50%सीटों के भर जाने के बाद ही ओबीसी और एससी-एसटी के अभ्यर्थियों का उनके आरक्षण प्रतिशत के हिसाब से चयनित किये जाने की व्यवस्था होती है। इस प्रकार की चयन प्रक्रिया से सामान्य वर्ग की कट ऑफ मेरिट के बराबर या नीचे से ही आरक्षित वर्ग की मेरिट सूची की शुरूआत होती है।
      बेशक, इस ईडब्ल्यूएस आरक्षण से समाज के सामान्य वर्ग के उस गरीब तबके को राहत मिली है, जो केवल गरीब होने के कारण अपने ही वर्ग के सम्पन्न तबके से प्रतिस्पर्द्धा में पिछड़ रहा था। भाजपा और एनडीए में शामिल दलों ने इसे अपनी जीत बताया है। भाजपा को इसका कुछ लाभ आगामी चुनावों में हो सकता है, हालांकि ज्यादातर राज्यों में अगड़ी जातियां भाजपा समर्थक ही हैं।
        इस मामले में कांग्रेस का पूरा रवैया थोड़ा ढुलमुल दिखा। उसने एक तरफ अगड़ों को आर्थिक आरक्षण का समर्थन यह कहकर किया कि संसद में उनकी पार्टी ने संविधान संशोधन के पक्ष में वोट दिया था तो दूसरी तरफ अपने ही एक दलित नेता उदित राज से इसका यह कहकर विरोध करा दिया कि यह संशोधन आरक्षण की सीमा लांघता है और यह भी कि न्यायपालिका की मानसिकता ही मनुवादी है। हालांकि, कांग्रेस महासचिव जयराम रमेश ने स्पष्ट कहा कि उनकी पार्टी शीर्ष अदालत के फैसले का स्वागत करती है। उन्होंने कहा कि यह संविधान संशोधन 2005-06 में डाॅ.मनमोहन सिंह की सरकार द्वारा सिन्हा आयोग के गठन से शुरू की गई प्रक्रिया का ही नतीजा है। सिन्हा आयोग ने जुलाई 2010 में अपनी रिपोर्ट दी थी। केवल तमिलनाडु की सत्तारूढ़ डीएमके के मुख्यमंत्री एम.के.स्टालिन ने फैसले का यह कहकर विरोध किया कि इससे लंबे समय से जारी "सामाजिक न्याय के संघर्ष को झटका" लगा है। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने फैसले का स्वागत करते हुए देश में जातिगत जनगणना की मांग दोहराई है। जाहिर है कि अधिकांश दल राजनीतिक कारणों से फैसले का खुलकर विरोध नहीं कर पा रहे हैं, क्योंकि मुट्ठी भर अगड़ों के वोटों की चिंता सभी को सता रही है।
         बहरहाल, सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से भविष्य की सामाजिक-राजनीतिक विमर्श और आंदोलन की रेखाएं खिंचती नज़र आ रही हैं। ईडब्ल्यूएस आरक्षण की वैधता ने आने वाले समय में एससी-एसटी और ओबीसी वर्ग में भी इसे लागू करने की मांग की नींव रखने का काम किया है (ओबीसी में तो क्रीमी लेयर का नियम लागू है), क्योंकि आरक्षित वर्गों में भी विभिन्न जातियों के बीच आरक्षण का लाभ उठाने को लेकर प्रतिस्पर्द्धा तेज हो गई है। भारत में करीब 3 हजार जातियां और 25 हजार उप जातियां हैं। यह भी बात जोरों से उठने लगी है कि जब एक परिवार का तीन पीढि़यों से आरक्षण का लाभ लेते हुए आर्थिक-सामाजिक उत्थान हो गया फिर उन्हें आरक्षण क्यों मिलते रहना चाहिए तथा देश में सामाजिक और आर्थिक समता का सर्वमान्य पैमाना क्या है, क्या होना चाहिए? विभिन्न जातियों और समाजों में आरक्षण का लाभ उठाकर पनपते और प्रभावी हो रहे नए किस्म के ब्राह्मणवाद को अभी से नियंत्रित करना कितना जरूरी है और यह कैसे होगा? जाति आधारित राजनीति इसे कितना होने देगी? जाहिर है कि बदलते सामाजिक-राजनीतिक समीकरणो के चलते यह मांग आरक्षित वर्गों में से ही उठ सकती है,अर्थात सामाजिक न्याय का संघर्ष या आंदोलन एक नए दौर में प्रवेश कर सकता है। ये बदले सामाजिक समीकरण ही देश की राजनीति की चाल भी बदलेंगे और राजनीति के साथ व्यवस्था भी बदलेगी जिसकी सूक्ष्म रूप में आहट सुनाई भी देने लगी है।

Tuesday, January 10, 2023

डॉ.आंबेडकर द्वारा ओबीसी उत्थान के लिए की गई संवैधानिक व्यवस्था का सामाजिक-राजनीतिक-अकादमिक विमर्श के पटलों/मंचों पर समय पर आकलन और आंकलन न हो पाना ओबीसी के सामाजिक न्याय और बहुजन समाज की राजनीति के लिए बेहद दुर्भाग्यपूर्ण और हानिकारक साबित हुआ और आज भी हो रहा है-नन्दलाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)

 पृष्ठ एक "
एन०एल० वर्मा (असो.प्रोफ़ेसर) सेवा निवृत
वाणिज्य विभाग
वाईडीपीजी कॉलेज,लखीमपुर खीरी

           हिंदू धर्म शास्त्रों का गहनता पूर्वक अध्ययन करने के बाद डॉ.आंबेडकर ने 1946 में "शूद्र कौन थे - हू वेयर शूद्राज़ " नामक एक पुस्तक लिखी जिसमें ब्राह्मणवादी वर्ण व्यवस्था में सबसे नीचे पायदान पर स्थापित किये गए शूद्र वर्ण जिसे बाद में उन्होंने संवैधानिक रूप से ओबीसी नाम से परिभाषित किया। पुस्तक के माध्यम से शूद्रों का सामाजिक व शैक्षणिक इतिहास लोगों के सामने लाने का प्रयास किया गया। इस पुस्तक को लिखने के तुरंत बाद उन्हें उनकी शिक्षा और ज्ञान की वजह से भारत के संविधान लिखने की जिम्मेवारी मिली। संविधान सभा में वह सबसे ज्यादा शिक्षित और विद्वान थे और उनके बाद उनके सलाहकार डॉ.बीएन राव थे। शेष सदस्य डॉ.आंबेडकर की विद्वता के सामने कहीं ठहरते नज़र नहीं आ रहे थे। शूद्रों का इतिहास लिखने के कारण डॉ.आंबेडकर उनकी सामाजिक,राजनीतिक और आर्थिक समस्याओं से भलीभाँति परिचित थे और वह स्वयं भी उन समस्याओं से तपकर निकले थे। डॉ.आंबेडकर को ओबीसी की समस्याएं बेहद महत्वपूर्ण और गंभीर लगती थी। उन्हें मालूम था कि शूद्र वर्ण की समस्याओं का समाधान संवैधानिक व्यवस्था के जरिए ही निकाला जा सकता है। इसलिए संविधान लिखते समय जब सामाजिक न्याय का सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में आरक्षण का मुद्दा आया तो उन्होंने अछूतों (एससी) और आदिवासियों(एसटी) से पहले शूद्र यानी ओबीसी पर विचार किया। ओबीसी के लिए 340वां उसके बाद एससी के लिए 341वां और सबसे बाद एसटी के लिए 342वां अनुच्छेद लिखा। तार्किक और विस्तृत स्पष्टीकरण-विश्लेषण प्रस्तुत कर उन्होंने इन अनुच्छेदों को संविधान सभा में सर्वसम्मति से पारित कराया। संविधान सभा में इन अनुच्छेदों पर बहुत लंबी बहस चली थी। अनु. 341और 342 पर अनु.340 की तुलना में कम विरोध हुआ अर्थात ओबीसी की समस्याओं को लेकर प्रस्तुत 340वें अनु. का सर्वाधिक विरोध हुआ। जब गांधी, नेहरू और पटेल को पता चला कि संविधान में अनु. 340 के अंतर्गत ओबीसी के लिए अलग से विशेष प्रावधान किया गया है तो इनके साथ-साथ अन्य तत्कालीन कद्दावर सदस्य भी नाराज हो गए। यहां तक कि सरदार पटेल जो स्वयं पिछड़ा वर्ग से आते थे,डॉ.आंबेडकर से पूछने लगे कि ये ओबीसी कौन है और इनके पिछड़ेपन के कारण क्या है ? संविधान सभा के अधिकांश सदस्यों ने ओबीसी के इस अनु. के विरुद्ध जमकर आवाज उठाई,लेकिन अपनी योग्यता और सामाजिक विज्ञान पर आधारित अभेद्य तार्किक क्षमता के दम पर डॉ.आंबेडकर ने ज्यादातर सदस्यों को संतुष्ट करते हुए यह मनाने में सफल हुए कि ओबीसी कौन और उनकी समस्याएं क्या हैं अर्थात यह समझाने में सफल हुए कि उनके पिछड़ेपन के कारण क्या है और उनकी समस्याओं के समाधान के लिए अनु. 340 क्यों जरूरी है। लम्बी और मुश्किल भरी जद्दोजहद के बाद डॉ.आंबेडकर ओबीसी के लिए अनुच्छेद 340 पारित करा सके थे। यह सच्चाई मनुवादी शक्तियों की साजिश और जिस जाति से डॉ.आंबेडकर आते थे उससे ओबीसी अपनी जातीय श्रेष्ठता के झूठे दम्भ में चूर उनके इस महान योगदान को न तो ओबीसी समझ पाया और न ही संविधान सभा के ओबीसी सदस्य उसे समझाने की दिशा में अपेक्षित काम कर सके। मनुवादियों द्वारा किये गए इस दुष्प्रचार कि आंबेडकर तो दलितों के मसीहा हैं, ओबीसी उनके दुष्चक्र में फंसकर रह गया और इस तरह देश का एक बहुसंख्य ओबीसी डॉ.आंबेडकर जैसे महान पुरूष के व्यापक और बहुआयामी व्यक्तित्व को एक जाति विशेष के खांचे में कसकर देखने,उसका जोर-शोर से प्रचार-प्रसार करने और राहत व जातीय श्रेष्ठता की सांस लेने में ही आनंद लेता रह गया। डॉ.आंबेडकर को दलितों का मसीहा घोषित और प्रचारित करने की मनुवादियों की साज़िश ओबीसी के लिए बहुत घातक सिध्द हुई,लेकिन ओबीसी वर्ण व्यवस्था की जातीय श्रेष्ठता के नशे में डुबकी लगाने में ही मस्त रहा और सवर्ण उनकी हिस्सेदारी को एक चालाक भेड़िये की तरह छुपकर नोच-नोच कर खाता रहा।
          डॉ.आंबेडकर की वजह से अनु0 340 तो पारित हो गया,लेकिन उच्च वर्गीय कट्टरवादी शक्तियों द्वारा इसका लगातार विरोध जारी रहा। अनु. 340 के अनुसार ओबीसी जातियों की पहचान कर उनकी समस्याओं का पता लगाना, उनके कारणों का जानना तथा उनके उत्थान के लिए रोड मैप तैयार करने के लिए एक आयोग के गठन का प्रावधान किया गया। 26 जनवरी 1950 को जब संविधान पूर्ण रूप से लागू हो गया तो डॉ.आंबेडकर ने ओबीसी आयोग गठित करने की मांग रखी, लेकिन प्रधानमंत्री नेहरू इस विषय को बड़ी चतुराई से टाल गए। उसी दौरान डॉ.आंबेडकर हिंदू कोड बिल पर भी काम कर रहे थे और वह उस बिल को संसद में यथाशीघ्र पारित कराना चाहते थे, लेकिन ओबीसी और महिलाओं के प्रति सरकार के उपेक्षापूर्ण रवैये ने उन्हें बहुत निराश किया। यहां तक कि संसद में उच्च वर्गीय महिलाओं ने भी हिंदू कोड बिल की अंतर्निहित विषय वस्तु जो उनके व्यापक हित में थी,के निहितार्थ को न समझते हुए उसका कड़ा विरोध किया। यही नही, डॉ.आंबेडकर को इस बिल की वजह से संसद के भीतर और संसद के बाहर भी भारी जनाक्रोश का विरोध झेलना पड़ा जिससे दुखी होकर उन्होंने 27 सितंबर 1951 को कानून मंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया। इस्तीफा देने के बाद वह चुपचाप नहीं बैठे उन्होंने संकल्प लिया कि वह अब ओबीसी को जागरूक और संगठित करने का काम करेंगे। पं.नेहरू इस बात को अच्छी तरह समझते थे, क्योंकि उस समय देशमुख और आरएल चंदापुरी जैसे ओबीसी नेता डॉ.आंबेडकर के संपर्क में थे और वे ओबीसी आयोग के गठन को लेकर देशव्यापी आंदोलन करने के लिए एक ठोस योजना का रूप देने की दिशा में प्रयासरत थे। ये ओबीसी नेता उत्तर भारत में ओबीसी की बड़ी-बड़ी जनसभाएं भी करना शुरू कर चुके थे। सन 1952 में जब पहला आम चुनाव होना था तो डॉ.आंबेडकर ने अपनी पार्टी "शेड्यूल्ड कास्ट्स फेडरेशन ऑफ इंडिया" के घोषणा पत्र में अनुच्छेद 340 के अनुसार ओबीसी आयोग के गठन का मुद्दा शामिल किया। नेहरू जी यह अच्छी तरह समझते थे कि पूरे देश का ओबीसी डॉ.आबेडकर के साथ एकजुट हो सकता है। इसलिए उच्च वर्गीय दत्तात्रेय बालकृष्ण उर्फ़ काका कालेलकर की अध्यक्षता में आनन-फानन एक ओबीसी आयोग का गठन कर दिया गया। 30 मार्च 1955 को उन्होंने अपनी रिपोर्ट राष्ट्रपति डॉ.राजेंद्र प्रसाद को सौंप दी। रिपोर्ट की विषय वस्तु पढ़कर वह हतप्रभ थे और तुरंत नेहरू से फोन कर अपनी नाराजगी व्यक्त की। नेहरू ने तुरंत रिपोर्ट मंगवाई और उसकी सिफारिशों का गहनता से अध्ययन किया। भावी राजनीति के दृष्टिगत उन्हें रिपोर्ट की सिफारिशें नागवार गुजरी अर्थात बिल्कुल पसंद नहीं आयी और कालेलकर को बुलाकर खूब फटकार लगाई,फिर उनसे ही रिपोर्ट पर लिखवाया कि " इस रिपोर्ट की सिफारिशें लागू नहीं की जा सकती है,क्योंकि मैं स्वयं इनसे सहमत नहीं हूँ।" इस तरह नेहरू ने कालेलकर आयोग रिपोर्ट की सिफारिशों को लागू करना तो दूर उन्हे संसद में पेश करने लायक भी नहीं छोड़ा। जब रिपोर्ट तैयार करने वाला ही लिख कर दे रहा हो कि वह इस रिपोर्ट से सहमत नहीं है तो फिर उसे संसद में पेश करने और उस पर चर्चा कराने की क्या जरूरत और औचित्य बनता है? इस तरह कालेलकर आयोग की रिपोर्ट को एक दूरगामी सामाजिक और राजनीतिक खतरे को भांपते हुए धीरे से ठंडे बस्ते में डाल दिया गया जिसे ओबीसी नहीं समझ पाया।
         डॉ.आंबेडकर के परिनिर्वाण के बाद कालेलकर आयोग की रिपोर्ट को भी लागू करने की पहल का काम भी थम सा गया था, लेकिन उसकी सुलगती आग की आंच अभी पूरी तरह ठंडी नहीं पड़ी थी। पं.नेहरू की मृत्यु के बाद शास्त्री जी देश के प्रधानमंत्री बने,उनकी भारत-पाक युद्ध के बाद ताशकंद समझौते के दौरान रहस्यमयी मौत हो गयी तो फिर इंदिरा गांधी देश की प्रधानमंत्री बनी। 1975 में उन्होंने देश में आपातकाल की घोषणा कर दी जिसके विरोध में सभी गैर कांग्रेसी दल एकजुट हो गए और एक संयुक्त राजनीतिक दल " जनता पार्टी " का गठन हुआ। 1977 के लोकसभा चुनाव में जनता पार्टी ने अपने चुनावी घोषणा पत्र में कालेलकर आयोग की रिपोर्ट की सिफारिशों को लागू करने का वादा किया। देश में पहली बार मोरार जी देसाई के नेतृत्व में जनता पार्टी की प्रचंड बहुमत की गैर कांग्रेसी सरकार बनी तो कुछ दिनों बाद ओबीसी का एक शिष्टमंडल प्रधानमंत्री से मिलता है और कालेलकर आयोग की रिपोर्ट लागू करने का दबाव बनाता है। प्रधानमंत्री कहते हैं कि चूंकि,आयोग की रिपोर्ट 1931 की जनगणना पर आधारित है जो काफी पुरानी हो चुकी है और तब से ओबीसी के सामाजिक और शैक्षणिक स्तर में काफी बदलाव आ चुका है और आश्वासन दिया कि उसके स्थान पर एक नया आयोग गठित किया जाएगा।......
शेष-पृष्ट दो पर                                                       

डॉ.आंबेडकर द्वारा ओबीसी उत्थान के लिए की गई संवैधानिक व्यवस्था का सामाजिक-राजनीतिक-अकादमिक विमर्श के पटलों/मंचों पर समय पर आकलन और आंकलन न हो पाना ओबीसी के सामाजिक न्याय और बहुजन समाज की राजनीति के लिए बेहद दुर्भाग्यपूर्ण और हानिकारक साबित हुआ और आज भी हो रहा है-नन्दलाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)

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एन०एल० वर्मा (असो.प्रोफ़ेसर) सेवा निवृत
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इस आश्वासन के साथ शिष्ट मंडल को उल्टे पांव वापस आना पड़ा और इस तरह एक बार फ़िर मनुवादियों का ओबीसी को छलने का प्रयास सफल हो गया। 1जनवरी 1979 को बीपी मंडल की अध्यक्षता में एक नया आयोग गठित किया गया जिसने 31 दिसंबर 1980 को अपनी रिपोर्ट सरकार के सामने प्रस्तुत की। देश में सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़ी हुई लगभग 3744 जातियों की ओबीसी के रूप में पहचान की गई और उनकी जनसंख्या 52% आंकते हुए सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में 27% आरक्षण की सिफारिश के साथ एससी-एसटी की तर्ज़ पर प्रोन्नति में आरक्षण और लोक सभा-विधान सभाओं में राजनीतिक आरक्षण की भी सिफारिश की। ओबीसी के उत्थान के लिए जो मंडल आयोग ने सिफारिशें की थी वे अधिकांश कालेलकर आयोग की सिफारिशों जैसी ही थीं। 1980 से 1990 तक अदृश्य सामाजिक-राजनीतिक भयवश किसी भी सरकार ने मंडल कमीशन की सिफारिशें लागू करने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। ओबीसी आयोग की सिफारिशें एक बार फिर 10 साल तक दफ्तरों की फाइलों में धूल फांकती रहीं।
             इसी दौरान देश भर में मंडल आयोग की रिपोर्ट की सिफारिशें लागू करने को लेकर विभिन्न सामाजिक - राजनीतिक मंचों से आवाजें उठती रहीं। उस समय बीएसपी के संस्थापक कांशी राम ने मुलायम सिंह ,लालू प्रसाद यादव, शरद यादव, नीतीश कुमार और रामविलास पासवान जैसे ओबीसी नेताओं से मुलाकात कर अपने संगठन के जरिए सिफारिशें लागू करने के लिए सरकार पर दबाव बनाया और नारा दिया कि "मंडल कमीशन लागू करो वरना कुर्सी खाली करो" और अंततः 7 अगस्त 1990 को तत्कालीन प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने राजनीतिक मजबूरी वश या दबाव में आकर मंडल कमीशन की रिपोर्ट की एक सिफारिश "सरकारी नौकरियों में ओबीसी के लिए 27% आरक्षण " की ऐतिहासिक घोषणा कर कई वर्षों से बोतल में बंद आरक्षण नाम के जिन्न को आज़ाद कर दिया तो आरक्षण विरोधी मनुवादी शक्तियों के विभिन्न संगठनों ने हिंदुत्व की चादर लपेटकर सड़क पर उतरकर देश को अराजकता और हिंसा की आग में झोंकने जैसा कार्य किया और इस अराजकता में देश की संपत्ति को भारी नुकसान हुआ जिसमें कथित हिन्दू संगठनो में विश्व हिन्दू परिषद, बजरंग दल, आरएसएस और बीजेपी का अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद आदि संगठनों की बड़ी भूमिका रही। बड़े पैमाने पर हिंसक आंदोलन शुरू कराए गए, लेकिन वीपी सिंह अपने निर्णय पर अडिग रहे और लेशमात्र टस से मस नही हुए। वीपी सिंह के इस साहसी निर्णय पर आरक्षण समर्थकों ने उन्हें " राजा नही फ़कीर है, देश की तक़दीर है " के बुलंद नारे के साथ सम्मान देने का कार्य किया,वहीं आरक्षण विरोधी शक्तियों ने उन्हें "राजा नहीं रंक है, देश का कलंक है" जैसे नारे देकर उन्हें अपमानित करने का कार्य भी किया। इस घोषणा के बाद वीपी सिंह अपनी जाति से एक तरह से बहिष्कृत से कर दिए गए और राजनीतिक सत्ता भी गंवानी पड़ी, लेकिन ओबीसी की जातियों में जहां वीपी सिंह एक मसीहा के तौर पर स्थापित होना चाहिए था, वह ओबीसी डॉ आंबेडकर के साथ-साथ वीपी सिंह के प्रति उनके जन्म जयंती और पुण्य तिथि पर सार्वजनिक रूप से कृतज्ञतापूर्वक सम्मान देना तो दूर उनको यादों में भी जिंदा नहीं रख सका। ओबीसी की इसी पिछड़ी और ओछी सोच की वजह से ही वह लोगों की नज़र में पिछड़ा माना जाता है।
            हिदुत्व की सबसे बड़ी और मजबूत संवाहक बनीं ओबीसी की जातियों का आरक्षण के मुद्दे से ध्यान हटाने और बंटाने के लिए बीजेपी में हिंदुत्व के बड़े राजनीतिक ठेकेदार लालकृष्ण आडवाणी ने हिन्दू धर्म के नाम पर सभी जातियों को लामबंद करने और ओबीसी आरक्षण के मुद्दे को नेपथ्य में ले जाने की साजिश रचने की दिशा में राम मंदिर आंदोलन को धार देने के उद्देश्य से सारनाथ से " राम रथ यात्रा " शुरू कर दी और इस रथ के सारथी बने थे आज के पीएम नरेन्द्र मोदी जो पीएम बनने के बाद अपने को ओबीसी कहने में गौरवान्वित महसूस करते हैं। जब रथ यात्रा बिहार की सीमा पर पहुंची तो वहाँ के तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव ने राज्य की सीमा में घुसने पर गिरफ्तार करने की घोषणा कर दी। इसका बहाना बनाकर सवर्णों की पार्टी बीजेपी ने वीपी सिंह नेतृत्व वाली सरकार से समर्थन वापस लेकर सरकार तक गिरा दी थी,लेकिन आज भी बड़ी विडंबना यह है कि ओबीसी अपना सामाजिक और राजनीतिक दुश्मन या साजिशकर्ता की पहचान करने में लगातार बड़ी भूल करता जा रहा है। वर्ण व्यवस्था में ओबीसी की जातियों को सबसे नीचे पायदान पर बैठाया गया है। इसके बावजूद वह मनुवादियों की सामाजिक और धार्मिक आडंबरों-पाखंडों की साजिश को नहीं समझ पा रहा है। आधुनिक विज्ञान के दौर में भी ओबीसी हिन्दू बनकर मनुवादी व्यवस्था और कर्मकांडों में गहरी आस्था या अंधभक्ति में डुबकी लगाकर उनके इशारों पर नृत्यकला कर आनंद लेता हुआ अपना मूल कर्म-धर्म समझ रहा है।
           देश की आजादी के बाद केंद्र में कांग्रेस या बीजेपी के नेतृत्व वाली ही सरकारें राज करती रही हैं, लेकिन दोनों पार्टियों ने जानबूझकर जाति आधारित जनगणना पर लम्बी चुप्पी साधे रहीं। 1951 की जनगणना होने बाद सरकार ने फैसला लिया था कि 1961में जनगणना जाति आधारित होगी,लेकिन इस फ़ैसले पर जानबूझकर अमल नहीं किया गया। उसका कारण साफ था कि यदि ओबीसी को अपनी आबादी का पता चल गया तो चुनावी लोकतंत्र के माध्यम से उस शासन-प्रशासन में उनकी उचित हिस्सेदारी देनी पड़ेगी जिस पर 15% कथित सवर्ण अल्पसंख्यक समुदाय हज़ारों वर्षों से कुंडली मार कर बैठा हुआ है जिसने मंडल कमीशन की ओबीसी आरक्षण की एक सिफारिश को कोर्ट में ले जाकर क्रीमी लेयर और आरक्षण की 50% सीमा निर्धारित करवाने जैसा कार्य किया। यही 15% सवर्ण और उनके संगठन मंडल कमीशन की मात्र एक सिफारिश सरकारी नौकरियों में 27% आरक्षण की घोषणा के बाद ओबीसी का ध्यान मंडल से हटाकर कमंडल की ओर ले जाने वाले लोग थे ,क्या वे ओबीसी के हितैषी थे? ओबीसी ने कभी भी इस गम्भीर साज़िश को समझने का प्रयास ही नही किया। दरअसल, इन्हीं मंडल विरोधियों ने डॉ.आंबेडकर के परिनिर्वाण दिवस 6 दिसंबर पर विवादित और न्यायालय में लंबित मंदिर-मस्जिद ढांचा गिराकर देश को सांप्रदायिकता की आग में धकेलने का काम किया और आंबेडकरवाद से बहुजन समाज का ध्यान भटकाने की दिशा में एक गहरी साज़िश भी रच डाली। मनुवादी अच्छी तरह जानते हैं कि उन्हें आंबेडकर और आंबेडकरवाद से लगातार लड़ना होगा। आखिर, क्या बात है कि हमेशा उनके निशाने पर आंबेडकर और आंबेडकरवाद ही क्यों रहता है? मनुवादियों को पता है कि आंबेडकर ने ओबीसी के लिए क्या किया है, लेकिन ओबीसी को आज तक आभास नहीं हो पा रहा है और न ही सामाजिक और राजनीतिक विमर्श के माध्यम से उन्हें समझाने के उचित प्रयास किये जा रहे हैं कि डॉ.आंबेडकर ने उनके लिए क्या किया है! उन्हें तो इसका अनुमान ही नहीं है कि यदि कालेलकर आयोग की दो-चार सिफारिशें ही 1955 में लागू हो गई होती तो अब तक ओबीसी वर्ग के करोड़ों परिवारों का जीवन स्तर ऊंचा उठ गया होता। दुर्भाग्य से तत्कालीन ओबीसी राजनेता और ओबीसी दोनों में सामाजिक-राजनीतिक जागरूकता न होने के कारण या अन्य अज्ञात कारणों से सामाजिक- राजनीतिक रूप से सोते रहे या अदृश्य भयवश चुप्पी साधे रहे और सवर्ण बड़ी चतुराई से इनका हिस्सा डकारता रहा।
          अजीब सी विडंबना है कि आज भी ओबीसी जातियों के अधिकांश लोग नेहरू,तिलक, इंदिरा गांधी आदि को ही अपना नेता मानते हैं जिन्होंने हमेशा सवर्णों के हितों को वरीयता दी और उन्हीं के हितों को ध्यान में रखकर सदैव नीतियां भी बनाई, लेकिन डॉ.आंबेडकर जिन्होंने भारतीयों के लिए ही नहीं ,बल्कि सम्पूर्ण मानवता के लिए आजीवन कड़ा संघर्ष किया,संविधान सभा में मनुवादियों का विरोध झेला और ओबीसी के लिए अनुच्छेद 340 लिखकर उन्हें एक संवैधानिक विशिष्ट पहचान दिलाई, ओबीसी के उत्थान के लिए कमीशन गठित करने के लिए नेहरू जी को विवश किया ,लेकिन वे अपना उन्हें मसीहा या रहनुमा समझने, स्वीकार करने और बताने में संकोच और शर्म महसूस करते रहे और आज भी कर रहे हैं। डॉ.आंबेडकर को मनुवादियों ने मात्र एक दलित नेता के रूप में ही प्रचारित किया और आज भी किया जा रहा है। ओबीसी के लोग भी उनके दुष्प्रचार के झांसे में बहुत आसानी से आ गए जिसके परिणाम स्वरूप वे आज तक मनुवादियों के हाथों लूटे जा रहे हैं और तब तक लुटते रहेंगे जब तक उन्हें अपने वास्तविक चौकीदार/रहनुमा और लुटेरा/दुश्मन की पहचान नहीं हो जाती है। आज़ादी के 75 साल बाद भी ओबीसी मनुवादियों की वर्णव्यवस्था में फंसकर कई तरह के शोषण का शिकार हो रहा है। देश में आज हिंदुत्व-राष्ट्रवाद,हिन्दू बनाम मुस्लिम और भारत -पाकिस्तान का राग अलापकर ओबीसी का वोट लूटकर सत्ता की राजनीति हो रही है। एससी और एसटी भलिभांति समझ चुका है कि उसका उद्धार बहुजन समाज के महापुरुषों की वैचारिकी अपनाने और आत्मसात करने में ही सम्भव है, लेकिन ओबीसी के गले के नीचे यह बात नही उतर पा रही है। जिस दिन ओबीसी बहुजन दर्शन या आंबेडकरवाद को समझकर आत्मसात कर लेगा उसी दिन बहुजन समाज सामाजिक और राजनीतिक रूप से एकजुट होकर इन मुट्ठी भर मनुवादियों की सत्ता को उखाड़कर फेंकने में सफल होते देर नहीं लगेगी और तथागत बुद्ध की " बहुजन हिताय,बहुजन सुखाय " की वैचारिकी/संकल्पना साकार होती और फलती फूलती नज़र आने लगेगी।

Tuesday, January 03, 2023

नये साल में फेसबुक कम, बुक ज्यादा-सुरेश सौरभ

हास्य-व्यंग्य
  सुरेश सौरभ
निर्मल नगर लखीमपुर-खीरी
उत्तर प्रदेश पिन-262701
मो-7376236066

   
नए साल पर मैंने प्रण किया है कि मैं फेसबुक कम चलाऊँगा और बुक पर अपनी निगाहें अधिक खर्च करूंगा। फेसबुक कम चलाने की वजह यह है कि फेसबुक चलाते-चलाते मेरी आंखें कमजोर होने लगीं हैं। 
       बरसों से फेसबुक चलाते-चलाते तमाम नाजनीनों के फेस देखते-देखते यह नौबत मेरे सिर पर साया हुई है, जो समय मैं नाजनीनों के नृत्य, गायन, उनकी कमनीय काया को फेसबुक पर देखते-देखते बिताते रहा, अगर वही समय पैसा कमाने में लगाता तो अडानी अंबानी के लेवल का जरूर बन जाता। फिर तमाम-नेता मंत्री मेरी चरण वंदना या गुणगान करते हुए फिरते और दुनिया भर का यश अपने चौखटे पर लटकता फिरता। और अपने चौखटे की वैलू वैश्विक स्तर की होती। 
     फेसबुक की बहन व्हाट्सएप्प, चचेरा भाई ट्वीटर और इन सबकी अम्मा ऐसी-वैसी तमाम वेबसाइडों का मैं इस कदर दीवाना हुआ कि नौबत यहाँ तक आ गई कि हमेशा ऑफिस में लेट हो जाया करता था। बॉस की झाड़ हमेशा मेरे पीछे किसी जिन्द-पिशाच की तरह पड़ी रहती थी। 
      हमेशा मोबाइल, मैं ऐसे अपनी आँखों से चिपकाए रहता था, जैसे कोई बंदरिया अपने नवजात बच्चे को अपने कलेजे से चिपकाये रहती। मेरी इस नजाकत को देख, अक्सर पत्नी कहती-हमेशा मोबाइल में घुसे रहो। ऐसा लगता है यह मोबाइल नहीं समुद्र मंथन से निकला वह अमृत कलश है जिसे हर समय अपने मुँह पर औंधाए रखते हो। पत्नी कभी-कभी इतनी आग-बगूला हो जाती कि हालात और हमारे रिश्ते भारत-पाक जैसे बेहद तनावपूर्ण, नाजुक और संवेनशील हो जाया करते। फिर नौबत भयानक युद्ध जैसी खतरे की बन जाती। मगर मेरी इमोशन गुलाटियों की वजह़ से द्वन्द्व युद्ध होते-होते टल जाता। फिर इसके लिए मैं ढकवा के जिन्द बाबा और ब्रह्म बाबा को प्रसाद चढ़ा आता। पर बकरे की माँ कब तक तक खैर मनायेगी, मेरी आंखें की जलन और सिर की पीड़ा बढ़ती गयी। तमाम अर्थिक और सामाजिक संबंधों का नुकसान होने लगा और तो और पत्नी को कम समय देने के कारण, वह मोबाइल को अपनी सौत और मुझे उसका गुलाम तक बताने लगी है। मित्रों यह दशा फेसबुक पर समय खपाने के कारण हुआ है।
       मेरे जैसे कई सरकारी भले मनुषों को यह फेसबुक अपना शिकार बनाता जा रहा है। थोड़ा काम, फिर फेसबुक, फिर काम फिर फेसबुक, जो समय पब्लिक के काम का होता है, उस समय, कोई नाच में पड़ा है, कोई नंगई के खेलों में पड़ा है, कोई फालतू की टिप्पणियों में पड़ा है, कोई अपने यूट्यूब के पंचर में पड़ा है, कोई अपने लौड़े के टपोरी मर्का डान्स के प्रमोशन में पड़ा है। कोई लंफगई-लुच्चई के वीडियों पब्लिक का काम छोड़ कर ऐसे देख रहा है, जैसे कुछ समय पहले कुछ माननीय विधानसभा में देख रहे थे। मेरी सरकार से गुजारिश है, बढ़ रहे सोशल मीडिया की इस लती महामारी से निपटने के लिए एक राष्ट्रीय कार्यकारिणी बनाए। इसके समूल उन्मूलन के लिए उस कार्यकारिणी का अध्यक्ष अमित मालवीय को बनाए। जिससे तमाम सरकारी काम बाधित न हो, जनता का काम न रूके। विकास पंख लगाकर फर-फर उड़ता रहे। नाले से गैस धड़-धड़ बनती रहे। दरअसल मेरा बेटा, मेरी बेटी  इस्ट्राग्राम के दीवाने होते जा रहे है। यानी दुनिवायी विषैला प्रदूषण मेरे घर में भी सोशल मीडिया के जरिए घुसने लगा है, इसलिए इसका विरोध करना भी मेरी मजबूरी बन गयी है।

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चर्चा में झूठी-सुरेश सौरभ

(फिल्म समीक्षा)      एक मां के लिए उसका बेटा चाहे जैसा हो वह राजा बेटा ही होता है, बच्चे कच्ची मिट्टी की तरह होते हैं, जिन्हें हम अपने विचार...

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