साहित्य

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  • लखीमपुर-खीरी उ०प्र०

Tuesday, January 17, 2023

भाग एक : ईडब्ल्यूएस आरक्षण: सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने खींच दी हैं,भविष्य की सामाजिक-राजनीतिक विमर्श और आंदोलन की गहरी रेखाएं-नन्दलाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)

भाग-1
एन०एल० वर्मा (असो.प्रोफ़ेसर) सेवा निवृत
वाणिज्य विभाग
वाईडीपीजी कॉलेज,लखीमपुर खीरी

ईडब्ल्यूएस आरक्षण पर आये सुप्रीम कोर्ट के फैसले से सामाजिक न्याय पर भविष्य की सामाजिक - राजनीतिक रेखाएं खिंचती हुई नजर आ रही हैं। सामान्य वर्ग के लिए आर्थिक आधार पर दिए गए आरक्षण पर 103वें संविधान संशोधन की वैधता ने भविष्य में एससी-एसटी और ओबीसी वर्ग में इसे लागू करने की सामाजिक-राजनीतिक मांग की मजबूत नींव भी रख दी है। सामान्य वर्ग के ईडब्ल्यूएस को सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थाओं में प्रवेश में 10% आरक्षण देश की सर्वोच्च अदालत की पांच सदस्यीय संविधान पीठ द्वारा 3-2 बहुमत से जायज़ ठहराये जाने के बाद अब सामान्य वर्ग के गरीबों को आरक्षण का रास्ता विधिक रूप से साफ हो चुका है,जबकि उन्हें आरक्षण का लाभ जनवरी 2019 में संसद से पारित होने के तुरंत बाद से ही दिया जा रहा था और वह भी पूर्वकालिक व्यवस्था से। संसद में इस आरक्षण का अधिकांश राजनीतिक दलों द्वारा तरह तरह से स्वागत किया गया , लेकिन इस फैसले के बाद ओबीसी और एससी-एसटी के आरक्षण से सम्बंधित कई अन्य अहम सवाल भी पैदा हुए हैं जिनकी सामाजिक,राजनीतिक और एकेडेमिक पटलों पर चिंतन मनन शुरू हो गया है और इस चिंतन मनन की परिणिति निकट भविष्य में दिखाई देना शुरू होगा।
         पहला तो यह है कि क्या आर्थिक आधार पर दिया गया ईडब्ल्यूएस आरक्षण देश में समानता के सिद्धांत का उल्लंघन है, दूसरा, आर्थिक आधार पर आरक्षण केवल सामान्य वर्ग को ही क्यों, तीसरे क्या भविष्य में भारत जैसे देश में आरक्षण का मुख्य आधार आर्थिक पिछड़ापन ही बनेगा, चौथा क्या इससे ओबीसी आरक्षण पर दिए गए सुप्रीम कोर्ट की नौ जज़ों की संविधान पीठ के 1992 के फैसले " देश में आरक्षण 50% से अधिक नहीं हो सकता " का यह उल्लंघन है और पांचवॉ यह कि भारत जैसे देश में जाति आधारित आरक्षण की बैसाखी आखिर कब तक कायम रहेगी?
        इन तमाम सवालों को संविधान की पीठ में शामिल जजों ने भी उठाए हैं, जिनके सटीक उत्तर एससी-एसटी और ओबीसी वर्ग के बुद्धिजीवियों और कानूनविदों को खोजने होंगे और भविष्य में देश का सामाजिक तानाबाना और राजनीतिक दिशा -दशा भी उसी से तय होगी। इस दूरगामी फैसले में विशेष संस्कृति में पैदा हुए,पले-बढ़े और पढ़े पांचो जजों में एक बात पर सहमति दिखी कि आर्थिक आधार पर आरक्षण संविधान के बुनियादी ढांचे का उल्लंघन नहीं है। पीठ में शामिल जस्टिस दिनेश माहेश्वरी ने कहा है: 103वें संविधान संशोधन को संविधान के मूल ढांचे को भंग करने वाला नहीं कहा जा सकता। ईडब्ल्यूएस आरक्षण समानता संहिता या संविधान के मूलभूत तत्वों का उल्लंघन नहीं और 50% से अधिक आरक्षण सीमा का उल्लंघन बुनियादी ढांचे का उल्लंघन भी नहीं करता है, क्योंकि यहां आरक्षण की उच्चतम सीमा केवल 16 (4) और (5) के लिए है जिसे अब अपने वर्ग के हितों के संदर्भ में नए तरीके से परिभाषित किया जा रहा है। फैसले को भारतीय संविधान की फ्लेक्सीबिलटी का अनुचित फायदा उठाने का कुत्सित प्रयास के रूप में देखा जा रहा है! जस्टिस बेला एम.त्रिवेदी की राय में 103वें संविधान संशोधन को भेदभाव के आधार पर रद्द नहीं किया जा सकता। ईडब्लूएस आरक्षण को संसद द्वारा की गई एक सकारात्मक कार्यवाही के रूप में देखा जाना चाहिए। इससे अनुच्छेद 14 या संविधान के मूल ढांचे का कोई उल्लंघन नहीं होता।
       सुप्रीम कोर्ट की पीठ का यह भी कहना है कि पूर्व में आरक्षित वर्गों (ओबीसी और एससी-एसटी) को ईडब्ल्यूएस आरक्षण के दायरे से बाहर रखकर उनके अधिकारों को प्रभावित नहीं करता है। जाति व्यवस्था द्वारा पैदा की गई असमानताओं को दूर करने के लिए आरक्षण लाया गया था। गणतंत्र के 72 वर्षों के बाद हमें परिवर्तनकारी संवैधानिकता के दर्शन को जीने के लिए नीति पर फिर से विचार करने की जरूरत है। जस्टिस जे.बी. पारदीवाला ने भी अपने फैसले में दोनों के विचारों से सहमति जताई और संशोधन की वैधता को बरकरार रखा। आरक्षण व्यवस्था पर अपनी महत्वपूर्ण टिप्पणी में उन्होंने कहा है कि आरक्षण सामाजिक और आर्थिक न्याय को सुरक्षित करने का साधन है,आरक्षण अनिश्चित काल तक जारी नहीं रहना चाहिए और इसे निहित स्वार्थ नहीं बनने देना चाहिए। गौरतलब है कि केंद्र की मोदी सरकार ने दोनों सदनों में 103वें संविधान संशोधन विधेयक को मंजूरी दी थी जिसके तहत सामान्य वर्ग के गरीब लोगों को शैक्षणिक संस्थानों और सरकारी नौकरियों में 10% आरक्षण का प्रावधान किया गया था।
        12 जनवरी 2019 को राष्ट्रपति ने इस कानून को मंजूरी दी, लेकिन इस कानून को सुप्रीम कोर्ट में यह कहकर चुनौती दी गई थी कि इससे संविधान के समानता के अधिकार और संविधान पीठ द्वारा लगाई गई 50% आरक्षण की सीमा का उल्लंघन होता है। अत: इस संशोधन को खारिज़ किया जाए, लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने इस संविधान संशोधन को वैध माना। कानून में सामान्य वर्ग के सालाना 8 लाख रुपये से कम आय वाले परिवारों को इकोनॉमिकली वीकर सेक्शन्स (ईडब्लूएस) मानते हुए सरकारी शैक्षिक संस्थाओं तथा नौकरियों में भी 10% आरक्षण दिया जा रहा है,लेकिन संविधान पीठ के ही जस्टिस एस.रवींद्र भट ने अपने निर्णय में ईडब्ल्यूएस आरक्षण संबंधी संविधान संशोधन पर असहमति जताते हुए उसे रद्द कर दिया। जस्टिस भट ने अन्य तीन न्यायाधीशों के फैसले पर असहमति जताते हुए कहा कि 103 वां संशोधन संवैधानिक रूप से प्रतिबंधित भेदभाव की वकालत करता है। आरक्षण की तय 50% की सीमा के उल्लंघन की अनुमति देने से और अधिक उल्लंघन हो सकते हैं जिसके परिणामस्वरूप विभाजन हो सकता है। जस्टिस रवींद्र भट ने अपने फैसले में आर्थिक आधार पर आरक्षण को खारिज करते हुए कई सवाल उठाए। उन्होंने कहा कि जिस तरह एससी-एसटी और ओबीसी को इस आरक्षण से बाहर रखा गया है, उससे भ्रम होता है कि समाज में उनकी आर्थिक स्थिति काफी बेहतर हो चुकी है, जबकि सबसे ज्यादा गरीब और गरीबी इन्हीं वर्गों में हैं और ग़रीबी आकलन में आठ लाख की आय की क्राईटेरिया कतई उचित नही कहा जा सकता है और यह संविधान के मूल ढांचे के खिलाफ है। हालांकि, उन्होंने यह भी कहा है कि केवल आर्थिक आधार पर दिया गया आरक्षण वैध है। कुल मिलाकर इसका अर्थ यही है कि जस्टिस भट्ट और जस्टिस यू.यू. ललित ने आर्थिक आधार पर आरक्षण को तो सही माना, लेकिन उसके तरीके पर असहमति जताई है।
क्रमशः भाग दो में-

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