साहित्य

  • जन की बात न दबेगी, न छिपेगी, अब छपेगी, लोकतंत्र के सच्चे सिपाही बनिए अपने लिए नहीं, अपने आने वाले कल के लिए, आपका अपना भविष्य जहाँ गर्व से कह सके आप थे तो हम हैं।
  • लखीमपुर-खीरी उ०प्र०

Sunday, March 19, 2023

बोलना होगा-अखिलेश कुमार अरुण

अखिलेश कुमार अरुण
ग्राम हजरतपुर परगना मगदापुर
जिला लखीमपुर खीरी, उत्तर प्रदेश
मोबाइल 8127698147

कविता

आज भी हमें, बराबरी करने देते नहीं हो और सोचते हो कि हम कुछ न बोलें।

संविधान एक सहारा था उस पर भी हाबी हो और सोचते हो कि हम कुछ न बोलें।।


बोल ही तो नहीं रहे थे-

आदि-अनादि काल के हम शासक न जाने कब हम गुलाम बन गए,

तूती बोलती थी कभी हमारी और  न जाने हम कब नाकाम हो गए

राज-पाट सब सौंप दिए या हड़प लिया गया हो और सोचते हो कि हम कुछ न बोलें।


बोल ही तो नहीं रहे थे-

शिक्षा के द्वार बंद कर दिए, किये हमें हमारे अधिकार से वंचित,

हम कामगार लोग जीने को मजबूर थे, हो समाज में कलंकित।

गुणहीन न थे हम, हमको अज्ञानी बना दिए और सोचते हो कि हम कुछ न बोलें।


बोल ही तो नहीं रहे थे-

जब तुमने हम पर अत्याचार किया, जातीय प्रताड़ना किये,

गले में मटकी कमर में झाड़ू और पानी को मोहताज किये,

छूने पर घड़ा आज भी जहाँ मार देते हो और सोचते हो कि हम कुछ न बोलें।


बोल ही तो नहीं रहे थे-

अपनी बहन-बेटी की आबरू को तुम्हारी विलासिता के लिए,

है, नांगोली का स्तन काटना आज भी इस बात का प्रमाण लिए,

हाथरस की उस लड़की का कुनबा तबाह किए और सोचते हो कि हम कुछ न बोलें।


बोल ही तो नहीं रहे थे-

अमनिवियता को समर्पित भरे-पड़े तुम्हारे साहित्य पर,

जहाँ लिखते हो पुजिये गुणहीन, मूर्ख सम विप्र चरण,

जहाँ, मानवीयता को सोचना ही पाप लिए हो और सोचते हो कि हम कुछ न बोलें।


बोल ही तो नहीं रहे थे-

तुमने पशु को माता कहा और एक वर्ण विशेष को अछूत,

गोबर को गणेश कहा और तर्क करने को कहा बेतूक,

हम बने रहे मूर्ख, बेतुकी बातों को मानते गए और सोचते हो कि हम कुछ न बोलें।


बोल ही तो नहीं रहे थे-

मंदिर कौन जाता है किन्तु हमारे राष्ट्रपति को जाने नहीं दिए,

सत्ता क्या गयी, बाद एक मुख्यमंत्री के जो कुर्सी धुलवा दिए,

बाद हमारे विधानसभा को शुद्ध  करवाते हो और सोचते हो कि हम कुछ न बोलें ।।


बोल ही तो नहीं रहे थे- 

लेकिन अब बोलेंगे तुम्हारे गलत को ग़लत और सही को सच्च से,

मिडिया तुम्हारी है फिर डरते हो तुम हमारी अनकही एक सच्च से

क्योंकि तुम्हारे लाखों झूठ पर हमारा एक सच्च काफी है,

हम, इस रोलेक्टसाही में लोकतंत्र के मुखर आवाज हैं और सोचते हो कि हम कुछ न बोलें।


 


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