साहित्य

  • जन की बात न दबेगी, न छिपेगी, अब छपेगी, लोकतंत्र के सच्चे सिपाही बनिए अपने लिए नहीं, अपने आने वाले कल के लिए, आपका अपना भविष्य जहाँ गर्व से कह सके आप थे तो हम हैं।
  • लखीमपुर-खीरी उ०प्र०

Friday, December 10, 2021

बलमा-लेखाकृति

कहानी

            बलमा आज से पांच बरिस पहिले गांव के रमेसर चा के साथे बहरा कमाने गया था।रमेसर चा पेपर मील में काम करते थे त बलमा को भी वहीं काम पर रखवा दियें। 
घरे अनकर खेत में बनिहारी करे वाला बलमा, बाबूजी के साथ सालो भर देह झोंके के बाद भी घर की हालत में कोई सुधार न कर पाया था । जी तोड़ मेहनत करे वाला बलमा कभी दु कलम पढ़े पर ध्यान ही न दिया।उ त अब जब गांव से निकल के यहाँ आया है त देख रहा कि और सब लोग तो ओकरे जइसन है बाकी कुछ लोग अलगे झलक रहे।पहनावा,ओढावा, बोली सब कुछ उन्हें भीड़ से अलग कर रहा।
मतलब कौआ के झुंड में हंस जैसा सब झलक रहें।
रमेसर चा भी पढ़ल लिखल न हैं बाकी उनको दूसरा से जादे मतलब न हैं।
ईमानदारी से अपन काम करते हैं जे तनखा मिलता ओकरा में से अपन खर्चा रख के बाकी के पैसा घरे मनी ऑर्डर लगा देते।रमेसर चा को देखके बलमा के मन हुआ कि उ भी कुछ पैसा घरे लगा दें।फिर कुछ सोच के पोस्ट ऑफिस न गया।
उसको तो पढ़े लिखे बाबुओं जैसा बनना था।मतलब उसी तरह के कपड़े,उनके जैसी चाल ढाल आदि।
बस यही सोच वो अपनी कमाई खुद पर खर्च करने लगा।
देखते देखते बलमा एकदम से शहरी बाबू बन गया।हां पैसे से सब कुछ खरीद तो लिया बस एक ही चीज वो न कर सका।
वो था करिवा अक्षर से दोस्ती।
अब मील मजदूर को न तो उतनी फुर्सत ही कि पढ़ाई लिखाई कर सके और न ही घण्टों कमर पीठ सोझ और गर्दन टेढ़ करके पढ़े में बलमा की कभी कोई रुचि ही रही।न तो ई बाइस बरिस तक का ई अइसहीं रहता?
खैर साल भर में तो बलमा अपना हुलिया ही बदल लिया।
जब कभी पहन ओढ़ के निकलता तो अनचके तो उसे कोई पहचान ही न सकता।
झक सफेद कुर्ता,ब्रासलेट की धोती जिसकी खूंट कुर्ता के दायीं जेब में।
भींगे बालों में एक अंजुरी चमेली के तेल डाल जब रगड़ के बाल झटकता तो लगता कि इंद्र भगवान आज इत्र लगाके बरसे वाले हैं।
बालों में तेल अच्छे से जज्ब हो जाने पर दीवार पर टँगी छोटकी ऐनक में देख के कंघी से टेढ़की मांग फाड़ बालों को सटीयाता।कभी कभी तो पानी व तेल के मेल मिलाप के बाद भी चांदी पर के दु चार केश विद्रोह कर उठ खड़ा होता तो ऐसे में बलमा कंघी एक किनारे रख हाथों से ही खड़े बालों को सटीयाने लगता।
धूप रहे चाहे न , बदरी बुनी के आसार भी न हो तब भी बलमा बिन छाता के घर से न निकलता।
आंख पर चश्मा और दायीं कलाई की एच एम टी घड़ी में तो जैसे उसकी जान बसती थी।
अबकी तनखा में चमड़ा के एगो बैग भी खरीदा ई सोच के कि अबकी फगुआ घरे जाएंगे।
फगुआ में घरे जाए में कोई दिक्कत न हो यही से महीना भर पहिलहीं से सब तैयारी में लगल था।माई ला साड़ी, त बाबूजी ला धोती,कुर्ता के कपड़ा,गमछी और एक सुंदर सी साड़ी अपनी अनदेखी पत्नी के लिए जो बियाह में त न आई थी बाकी पांच बरिस पर बाबूजी फगुआ में गौना करा के घरे ले आये हैं।
रमेसर चा के घरे से आवे वाला चिठ्ठी में बलमा के लिए भी ई सन्देश था,
" बाबू बालम को मालूम हो कि समधी साहेब के बेर बेर कहे पर हम कनिया के गौना करा के ले आयल ही ।एहि से बाबू तोरा कहित ही कि फगुआ में जरूर से जरूर घरे चल अइह।"
              मील में छुट्टी तो अभी न हुआ है बाकी बलमा सप्ताह दिन पहिलही से सबके कह दिया था कि अबकी फगुआ उ घरे जा रहा। चार रोज दिन अछते बलमा घरे जायला गाड़ी धर लिया।रेल के सफर में ही दु रोज कट गया। जब टीसन पर उतरा त वहीं नहा धो के तैयार हुआ।परदेश से अपन जगह आयते बलमा का मन भर आया।यहाँ चहुं ओर होली की सुगबुगाहट थी।
अब इहाँ से घरे के बस पकड़ेगा त सांझ-सांझ ला घरे चहुँप ही जायेगा। उबड़ खाबड़ कच्ची राह और बस का सफर दु घण्टा के राह में छः घण्टा लगाएगा।
       बलमा बढ़िया से तैयार होके टीसन से निकला त राह चलते लोग ठहर से गये।
घीया रंग के सिल्क के कुर्ता, सुपर फाइन धोती,उसकी खूंट को दाहिनी जेब के हवाले किये ,दाहिनी कलाई में एच एम टी स्विस घड़ी बांध आंखों पर बिन पावर का चश्मा चढ़ाये एक हाथ में चमड़ा के करिया बैग त दूसरे में छाता थामे बस स्टैंड की ओर बढ़ा।
बस का टिकट ले निश्चिन्त होता तभी अखबार वाला दिखा।कुछ सोच अठन्नी जेब से निकाल एक अखबार खरीदा।
अखबार वाला बलमा के रूप रंग से इतना मोहित हुआ कि वो अंग्रेजी अखबार पकड़ा दिया।
वैसे भी बलमा के लिए का हिन्दी का अंग्रेजी?
सब धन तो बाइस पसेरी तो निर्विकार भाव से अंग्रेजी अखबार लिए बस में सवार हुआ।
अपनी सीट पर अब आराम से बैठ
बैग, छाता सब अच्छे से रख अखबार हाथ में लिया तो भरी बस की नजरें बलमा पर जा टिकी।
कम से कम ई बस जहां तक जाती है उसमें बैठे वाला कभी कोई किसी को अंग्रेजी अखबार पढ़ते तो अब तक न देखा।
बलमा के हाव भाव से लोग स्वतः दूरी बरत रहें।
बलमा में आत्मविश्वास तो बहुत है पर ....
बलमा अखबार खरीद तो लिया बाकी खोलकर पढ़ न रहा,पढ़ना तो वैसे भी न आता बाकी अखबार सीधा पकड़ाया है या उल्टा आखिर ई भी तो कोई बात है?
एक व्यक्ति थोड़ी मित्रता के ख्याल से आगे बढ़ कर पूछा.....
भाई जी कोई खास समाचार?
बलमा चश्मा के अंदर से झांक देखा,बिना प्रत्युत्तर अखबार उसकी ओर बढ़ा दिया।
पूछने वाला बिना अखबार लिए वापिस अपनी जगह जा बैठा।
बस हिचकोले खाती अपनी सफर पूरा की।सब लोग बस से उतर अपनी अपनी राह चले।बलमा को घर तक पहुंचने में करीब पांच कोस की दूरी तय करनी अब भी शेष थी। कलई में बंधी घड़ी से ज्यादा भरोसा बलमा ढलती दिन से अंदाजा लगा रहा कि शाम के चार बजे गए होंगे।
गांव तक जाने का रास्ता तो दो, तीन है।एक रास्ता नदी के किनारे किनारे से होकर है बलमा घर पहुंचने की जल्दी में आज उसे ही चुना।
हाँ रास्ते में छोटा मोटा बाजार भी मिला।जहां होली के सर सौदा लेते लोग बाग से बाजार गुलजार दिखा।कहीं बच्चा पिचकारी के लिए दादा से जिद कर रहा, तो कोई अपन पसन्द के कमीज न खरीदाय पर माई के अंगूरी छोड़ वहीं लोट पोट हो रहा । कहीं दुकान पर रेडियो बज रहा जिसमें होली के गीत सुन बलमा का मन मिजाज भी रंगीन हो रहा।
        भीड़ भरे बाजार से बलमा निकल पाता तभी पास के गांव की रघुआ की नजर उस पर पड़ी।
रघुआ कुछ सोच, भाग कर अपने मालिक के पास पहुंचा।उसको इस तरह हाँफते देख .....
का रे !!
हाँफइत काहेला हे?
रघुआ सुख चुके गले से थूक घोटते हुए....
मालिक !!
मालिक!!
उ पहुना !!!
मालिक घुड़कते हुए....
का कहित हे रे?
आजे से का चढ़ गेलउ?
रघुआ अपने गले में पड़ी कंठी पकड़ ....
ना मालिक सच्चो!!
पहुना आवित हथन!!
अभी त बाजरे में हथन!!
मालिक राम जतन बाबू जो अपनी बेटी का ब्याह चार बरिस पहिले तो किये हैं बाकी अभी गौना न किये हैं,यही अगहन करेला सोच रहे थे।
अब पहुना फगुआ में बिन गौने आ जाएंगे ई त कभी सोचबे न किये थे।
बिन गौने ससुरारी में कोई पहुना आवे त ई भारी शिकायत के बात हे।उ भी राम जतन बाबू जइसन रसूख वाला ही।
राम जतन बाबू....
देख रघुआ अभी कोई से हल्ला न करीहें न त तोरा....
रघुआ मुड़ी नीचे किये...
न मालिक!
रामजतन बाबू हलकान परेशान से जनानी किता में गयें।
असमय घर आये रामजतन बाबू को देख पत्नी गौरी भी हड़बड़ाई सी सम्मुख हुई।
गौरी......
का होएल?
रामजतन बाबू ड्योढ़ी लांघ अंदर कमरे में आये।पीछे पीछे गौरी भी कपार पर आँचरा सम्हारती आई।

रामजतन बाबू.....
सुन!!
पहुना आवित हथन!!
अभी रघुवा देख के आवित हे!!
गौरी को भी कुछ न समझ आ रहा।
इज्जत के बात हे ,का कयल जाय।
फिर दोनों पति-पत्नी आपसी मन्त्रणा के बाद पहुना के स्वागत की तैयारी में जुट जाते हैं।
हाँ ख्याल इस बात का भी है कि बात बाहर न जाय इसलिए तय किया गया कि, जब पहुना बाजार पार करके आगे बढ़े और तनी धुंधलका हो जाय त दु आदमी भेजके बोलवा लेंगे आउर उ इहहिं जनानी किता में ही रहेंगे।
फगुआ का गहमागहमी था ही इसलिए थोड़ा और बदलाव ज्यादा किसी का ध्यान न खींचा।यहाँ तक कि रामजतन बाबू की इकलौती बेटी चन्द्रज्योति भी ई सब से अनजान थी।
वो तो सखियों संग होली के हुड़दंग की तैयारी में लगी थी।
इधर बलमा को भीड़ भरे बाजार से निकलते निकलते शाम का धुंधलका बढ़ने लगा।बलमा बैग में रखा टॉर्च निकालने सोच ही रहा था तभी पीछे से टॉर्च की रौशनी और किसी के कदमों की आहट से वो पीछे मुड़ा तो देखा कि,
दो आदमी हाथ में लाठी व टॉर्च लिए 
करीब आ रहे है।
बलमा कोई निर्णय ले पाता तब तक दोनों करीब आ उसके हाथ से छाता व बैग ले लिया।बलमा की घिघ्घी बन्ध गई।
वो गूंगा सा उनके पीछे पीछे चलने लगा।
थोड़ी देर के बाद बलमा किसी हवेलीनुमा घर के बाहर खड़ा था।पहले से तय योजनानुसार बलमा को हवेली के पीछे वाले दरवाजे से जनानी कित्ता में पहुंचा दिया गया।जहाँ पहले से ही कुछ महिलाएं पहुना के स्वागत में थी।
बलमा किससे क्या कहे तय न कर पा रहा?
जब तक मुंह खोलने सोचता कोई न कोई हंस कर उसे चुप करा देता।
अब तक चन्द्रज्योति को भी माँ से पता चल गया कि वो बिन गौने आ गए हैं....
चन्द्रज्योति के गुस्से का ठिकाना नहीं पर माँ उसे समझा बुझा के शांत की।
होली के रंग की खुशी जो उसके चेहरे पर चढ़ी भी न थी पल भर में उतर गई। 
उधर बलमा का स्वागत घर की पहुना की तरह हुआ।
कोई जूता खोलने में मदद कर रहा तो कोई परात में गोड़ धो रहा।
चन्द्रज्योति के कमरे को बढ़िया से बर बिछौना लगा के बलमा को वहीं पहुंचा दिया गया।
फागुन बीत रहा था दिन में गर्मी त रात थोड़ी ठंढी सिहरन भरी।बलमा को अब डर लगने लगा।कुछ बोलने की हिम्मत ही न जुटा पा रहा कि का पता असलियत जनला पर सब का करेगा?
बस मने मन गोरिया बाबा को मनौती भख रहा कि यहाँ से सही सलामत घरे चहुँप जाएंगे त ई होली में कबूतर चढ़ाएंगे।
बलमा के स्वागत सत्कार में कोई कमी न रखी गई।एक से बढ़कर एक मर मिठाई परोसा गया।बलमा तो डरे किसी चीज को हाथ भी न लगा रहा। जब तक नाश्ता को बलमा भर नजर देखता तब ला अगजा का बरी, बचका, कचरी पकौड़ी सब बलमा के सामने धरा गया।
बलमा को न खाते देख रिश्ते की सरहजें चुटकी भी ली....
खा ला पहुना!!
चन्द्रज्योति खियात्थु तब्बे का खयबअ?
अब ई नाम सुनकर बलमा का तो खून ही सुख गया।
डर के मारे उ क्या खाया उसे कुछ न पता न स्वाद न रंग।बस गटागट गिलास भर पानी पी गया।
सब हंसने लगीं।बलमा को कोई हाथ धोने तक न उठने दिया।सब कुछ सामने हाजिर।
बलमा का छाता व बैग कमरे में पहुंचा दिया गया। सरहजें बलमा को खाना पीना करवा आराम करने कह किवाड़ भिड़ा चली गई।
अभी तक बलमा जो कुर्सी पर बैठा था उसको हिम्मत न हो रही कि वो इस राजसी पलँग पर जाकर लेट जाय।
बहुत देर तक यूँ ही बैठा यहाँ से निकलने की जुगत भिड़ाता रहा।तत्काल तो कोई रास्ता न सूझ रहा ऊपर से सफर की थकान।नींद से हार वो पलँग के एक किनारे सहम कर पड़ गया।पड़े पड़े आहटों से अंदाजा लगाता रहा कि लोग अभी जगे हैं।
उधर चन्द्रज्योति को कितना कहने पर भी वो उस कमरे में जाने को तैयार नहीं।
गौरी को खराब भी लग रहा कि पहुना एक तो बिन गौने फगुआ में आयलन हे!
आउर ई लड़की बात न समझइत हे!
आखिर पहुना का सोचतन?
चन्द्रज्योति की रिश्ते की भौजाइयाँ जो अब तक बलमा की खातिरदारी में लगी थी....
वो चुहलबाजी कर करके रोती, ठुनकती चन्द्रज्योति को हंसा कर ही दम ली।
घर के पुरुष सब आगजा में शामिल होने गए थे। 
इधर बलमा सब से बेखबर नींद की पहलू में।
भौजाइयाँ चुहल करती चन्द्रज्योति को तैयार करने में लगी थी।
चन्द्रज्योति के नखरे उसके श्रृंगार को और भी निखार रहे।
अंततः पूनम की रात और चन्द्रज्योति का श्रृंगार।
चाँदनी भी उसकी खिड़की से झाँक उफ!! बोल गई।
दूर बजती डफ के बोल....

"डफ काहे के बजाय,
ललचाये जियरा ,
डफ काहे के....
डफवा के बोली,
महलिया तक जाय...."

चन्द्रज्योति का मन तो गुस्से से भरा ही था पर अब दिल की धड़कन बढ़ गई।
भौजाइयाँ कुछ जबरन सी उसे उसके कमरे तक पहुंचा ही दीं।
चन्द्रज्योति अब भी दरवाजे पर खड़ी थी तभी भौजी हल्के धक्के से उसके कमरे में धकेल दी। इस अचानक हरकत से चन्द्रज्योति तो गिरते गिरते बची पर बलमा का नींद खुल गया।कमरे में लालटेन की मध्यम रौशनी और दरवाजे पर खड़ी रूपसी को देख बलमा का कलेजा रेल (जिससे आज भोरे भोरे उतरा) से भी तेज धड़कने लगा।
चन्द्रज्योति अपने कमरे में ही सहमी सी खड़ी रही इधर बलमा हड़बड़ा कर आंखे और जोर से बंद कर लिया।मन ही मन गोरिया बाबा और फगुआ में कबूतर की भखौती को दुहराता रहा।
चन्द्रज्योति भी कोई पहल न कर वहीं दीवार की ओट लिए बैठ रही।
बाहर ,ढोल,मंजीरा झाल की गूंज और फगुआ के बोल में चन्द्रज्योति डूबती उतराती रही...
" सेजिया फूलों से कुम्हलानी.....
सेजिया.....
पच्छिम दिशा मोरे जइह नाहीं बालम,
पच्छिम की हवा ना जानी...
घुट-मुट,घुट-मुट बात करत हैं,
एको बात न जानी.....
सेजिया फूलों से कुम्हलानी...

पुरुब दिशा मत जइह मोरे बालम,
पुरुब की नारी स्यानी......
रात सुलाये रंग महल में,
दिन भराये पानी....
सेजिया फूलों से कुम्हलानी....

दक्षिण दिशा मत जइह मोरे बालम,
दक्षिण की हवा न जानी....
दाख, मुनाका, गड़ी छुहाड़ा
ई चारो धर जानी.....
सेजिया फूलों से कुम्हलानी.....

उत्तर दिशा तू जइह मोरे बालम,
उत्तर बहे गंगा धारा....
करी स्नानी,लौट घर अइह..
तीनों लोक तर जानी.....
सेजिया फूलों से कुम्हलानी...

फगुआ के बोल में डूबती उतराती चन्द्रज्योति ई न समझ पाई कि ई जब अइबे किये त अइसे मुंह काहे मोड़ रहें।
खैर कुछो हो उ त न जाएगी।
हाँ यदि उ पास आएं त आज खरी खोटी सुनाने से भी न चुकेगी।
अइसहीं बैठी सोचती उसकी भी आंख लग गई।
बलमा की नींद तो कब की उड़ गई।बहुत देर तक यूँ ही पड़ा रहा। जब उसे किसी की कोई आहट न मिली तब धीरे से आंखे खोला। कमरे में बस किसी की सांसो की आहट ही अब शेष थी।खिड़की से उतरती चांद रात बीतने के संकेत कर गया।बलमा धीरे से बिस्तर से उठा, मेज पर रखा फुलही लोटा उठा दरवाजे की ओर बढ़ा।
दीवार से लग कर बैठी निर्विघ्न सोई चन्द्रज्योति पर भर नजर डालने की हिम्मत भी उसमें न हुई। यहाँ तक कि उसकी धानी गोटेदार साड़ी पर पैर न पड़ जाए इतना बच बचा के डेग बढ़ाता किसी तरह भिड़े दरवाजे को हल्का सा खोल बाहर निकला व दरवाजे को पुनः भिड़ा, नंगे कदमों, दबे पांव, आंगन पार किया।
जैसा उसे अंदाजा था कि कोई न कोई तो जरूर भेटायेगा बस इसलिए फुलही लोटा साथ रख लिया था।
ज्योंहि ड्योढ़ी लांघता घर के बाहर पहरेदारी में लगा आदमी .....
जी मालिक एती घड़ी?
बलमा पेट पकड़ इशारा किया।
वो समझा कि, पहुना के पेट खराब हई ।
बस वो आगे बढ़ कर उसे हवेली नुमा घर से बाहर निकलने में मदद कर दिया।
जब वो सुरक्षित वहाँ से निकल गया तब सर पर पांव रख कर अनजानी दिशा में भागा। घण्टों बदहवाश भागने के बाद फूटती किरण के साथ गांव का सीमाना देख हारे सैनिक सा पछाड़ खाके गिर पड़ा।
सुबह सुबह मर मैदान को निकले लोग इस तरह गिरे पड़े राहगीर को देख पानी का छींटा दे होश में लाये।
बलमा बोलने की स्थिति में न है पर अपने गांव के लोग वर्षो बाद भी अपने लोग को पहचान ही लेते हैं।
बस सब बलमा को उसके घर ले गए ,सबने अंदाजा लगाया कि ई राहजनी का शिकार हुआ है।
घर पर फगुआ के आस में बलमा के घरवाले बेसब्री से इंतजार कर रहे थे।
इस तरह थके हारे बलमा को देख बाबूजी सीने से लगा कलप उठे। अइसे बदहवास घर आये बेटा को देख मइया भी रोवे लगी।नयकी कनिया बस मन ही मन खुश है कि उ घरे आ गयें।
वहाँ सुबह होली के हुड़दंग से चन्द्रज्योति की नींद टूटी तो कमरे में कोई न था।बैग व छाता वैसे ही पड़ा था।
रामजतन बाबू,गौरी कोई भी न समझ पाएं कि पहुना कहाँ चल गयें।
गौरी तो चन्द्रज्योति को ही घूर कर देखी कि यही कुछ कहलक हे पहुना के।
खैर पहुना का बैग खुला ,जिसमें सबके पसन्द के कपड़े थे।जिसे सबने सहज स्वीकार किया।बस मलाल रहा कि पहुना बिन कहले काहे चल गयें।।
-लेखा कृति

Monday, December 06, 2021

ग़ज़ल- ओमप्रकाश गौतम

ओमप्रकाश गौतम
दिल का मैं उद्गगार ,कहूंगा ऐ बाबा ।
बातें मैं दो चार , कहूंगा ऐ बाबा ।

लुट रहा आईन, संसद में चुप बैठे हैं।
ऐसों को गद्दार , कहुंगा ऐ बाबा ।।

पढ़ना था तुमको, करते हैं पूजा सब।
खो रहे सब अधिकार, कहुंगा ऐ बाबा।।

भाषा मेरी बोल रहा, है दुश्मन भी।
हो जाओ होशियार , कहुंगा ऐ बाबा।।

कुर्सी खातिर हाथ, मिलाते दुश्मन से।
बिके रहे सरे बाजार, कहुंगा ऐ बाबा।।

अपनी अपनी डफ़ली,अपनी राग लिए।
कूद रहे मेंढक हजार , कहुंगा ऐ बाबा।।

अपने स्वार्थ में गौतम ,हुए हैं अंधे सब।
काने हैं सरदार , कहुंगा ऐ बाबा ।।

प्रभारी निरीक्षक
उत्तर प्रदेश पुलिस

6 दिसम्बर एक दर्द भरी कहानी जो दुखों के भवसागर में डुबो के चली गयी

सोशल मिडिया से साभार


राजधानी दिल्ली रात के 12 बजे थे।
रात का सन्नाटा और अचानक दिल्ली, मुम्बई, नागपुर मे चारो और फोन की घंटीया बज उठी।
राजभवन मौन था, संसद मौन थी, राष्ट्रपती भवन मौन था, हर कोई कस्म कस्म मे था।
शायद कोई बडा हादसा हुआ था, या किसी बड़े हादसे या आपदा से कम नही था! कोई अचानक हमें छोडकर चला गया था।जिसके जाने से करोडो लोग दुःख भरे आँसुओं से विलाप कर रहे थे, देखते ही देखते मुम्बई की सारे सड़के भीड से भर गयी पैर रखने की भी जगह नही बची थी मुम्बई की सड़को पर क्योंकि पार्थिव शरीर मुम्बई लाया जाना था! और अंतिम संस्कार भी मुम्बई मे ही होना था।
नागपुर, कानपुर, दिल्ली, चेन्नाई, मद्रास, बेंगलौर, पुणे, नाशीक और पुरे देश से मुम्बई आने वाली रैलगाडीयो और बसो मे बैठने को जगह नही थी।सब जल्द से जल्द मुम्बई पहोंचना चाहते थे और देखते ही देखते अरब सागर वाली मुम्बई जनसागर से भर गयी।

कौन था ये शख्स ?

जिसके अंतीम दर्शन की लालचा मे जन शैलाब रोते बिलखते मुम्बईकी ओर बढ़ रहा था। देश मे ये पहला प्रसंग था जब बड़े बुजुर्ग छोटे छोटे बच्चो जैसे छाती पीट पीट कर रो रहे थे।महिलाएँ आक्रोश कर रही थी और कह रही थी मेरे पिता चले गये, मेरा बाप चला गया अब कौन है हमारा यहां ?
चंदन की चीता पर जब उसे रखा गया तो लाखो दील रुदन से जल रहे थे।अरब सागर अपनी लहरों के साथ किनारों पर थपकता और लौट जाता फिर थपकता फिर लौट जाता शायद अंतिम दर्शन के लिये वह भी जोर लगा रहा था।
चीता जली और करोडो लोगो की आंखे बरसने लगी। किसके लिये बरस रही थी ये आंखे ? कौन था ईन सबका पिता ? किसकी जलती चीता को देखकर जल रहे थे करोडो दिलो के अग्निकुन्ड?कौन था यहां जो छोड गया था इनके दिलोमे आंधिया, कौन था वह जिसके नाम मात्र लेने से गरज उठती थी बिजलीया, मन से मस्तिष्क तक दौड जाता था ऊर्जा का प्रवाह, कौन था वह शख्स जिसने छीन लिये थे खाली कासीन के हाथो से और थमा दी थी कलम लिखने के लिये ऐक नया इतिहास! आंखो मे बसादीये थे नये सपने, होठो पे सजा दिये थे नये तराने, धन्यौ से प्रवाहीत किया था स्वाभिमान।अभिमान को दास्यता की ज़ंजीरें तोड़ने के लिये दिया प्रज्ञा का शस्त्र।
चिता जल रही थी अरब सागर के किनारे और देश के हर गांव के किनारे मे जल रहा था एक श्मशान, हर एक शख्स मे और दिल मे भी।जो नही पहोंच सका था अरब सागर के किनारे ऐक टक देख रहा था वह, उसकी प्रतिमा या गांव के उस झंडे को जिसमे नीला चक्र लहरा रहा था, या बैठाथा भुख, प्यास भूलकर अपने समूह के साथ उस जगह जिसे वह बौद्ध विहार कहता था।
क्यों गांव, शहर मे सारे समूह भूखे प्यासे बैठे थे ? उसकी चीता की आग ठंडी होने का इंतजार करते हुये, कौन सी आग थी जो वह लगाकर चला गया था ? क्या विद्रोह की आग थी ? या थी वह संघर्ष की आग भूखे, नंगे बदनो को कपडो से ढकने की थी आग ? आसमानता की धजीया उड़ाकर समानता प्रस्थापित करने की आग ?

चवदार तालाब पर जलाई हुई आग अब बुजने का नाम नही ले रही थी। धू - धू जलती मनुस्मृति धुंवे के साथ खतम हुई थी।
क्या यह वह आग थी ? जो जलाकर चला गया था।
वह सारे ज्ञानपीठ, स्कूल, कोलेज मरभूमी जैसे लग रहे था।युवा, युवतियों की कलकलाहट आज मौन थी जिन्होंने हाथ मे कलम थमाई, शिक्षा का महत्व समजाया, जीने का मकसद दिया, राष्ट्रप्रेम की ओत प्रोत भावना जगाई वह युगंधर, प्रज्ञासूर्य काल के कपाल से ढल गया था।
जिस प्रज्ञातेज ने चहरे पर रोशनीया बिखेरी थी क्या वह अंधेरे मे गुम हो रहा था ?
बडी अजीब कस्म कस थी भारत का महान पत्रकार, अर्थशास्त्री, दुरद्रष्टा क्या द्रष्टि से ओजल हो जायेगा ?

सारे मिलों पर ऐसा लग रहा था जैसे हड़ताल चल रही हो सुबह शाम आवाज़ देकर जगाने वाली धुंवा भरी चीमनीया भी आज चुप चाप थी, खेतों मे हल नही चला पाया किसान क्यों ?सारे ऑफीस, सारे कोर्ट, सारी कचहरीया सुनी हो गयी थी जैसे सुना हो जाता है बेटी के बिदा होने के बाद बाप का आँगन।
सारे खेतीहर, मजदूर, किसान असमंजस मे थे ये क्या हुआ ? उनके सिर का सत्र छीन गया।
वह जो चंदन की चीता पर जल रहा है उसने ही तो जलाई थी जबरान ज्योत, मजदूर आंदोलन का वही तो था आधुनिक भारत मे मसीहा, सारी मिलों पर होती थी जो हड़ताले, आंदोलन अपने अधिकारो के लिये उसकी प्रेरणा भी तो वही था।
जिसने मजदूरो को अपना स्वतंत्र पक्ष दिया और संविधान मे लिख दी वह सभी बाते जिन्होंने किसानो, खेतीहारो, मज़दूरो के जीवन मे खुशियां बिखेरी थी।

इधर नागपुर की दीक्षाभूमी पर मातम बस रहा था, लोगो की चीखे सुनाई दे रही थी "बाबा चले गये" "हमारे बाबा चले गये " आधुनिक भारत का वह सुपुत्र जिसने भारत मे लोकतंत्र का बिजारोपण किया था, जिसने भारत के संविधान को रचकर भारत को लोकतांत्रिक गणराज्य बनाया था। हर नागरीक को समानता, स्वतंत्रता और न्याय का अधिकार दिया था, वोट देने का अधिकार देकर देश का मालिक बनाया था, क्या सचमुच वह शख्स नही रहा ?
कोई भी विश्वास करने को तैयार नही था। लोग कह रहे थे "अभी तो यहां बाबा की सफेद गाडी रुकी थी", "बाबा गाडी से उतरे थे सफेद पोशाक मे", "देखो अभी तो बाबा ने पंचशील दिये थे" "22 प्रतिज्ञाओ की गूंज अभी आसमान मे ही तो गूंज रही थी" वो शांत होने से पहले बाबा शांत नही हो सकते।

भारत के इतिहास ने नयी करवट ली थी जन सैलाब मुम्बई की सड़को पर बह रहा था।
भारतीय संस्क्रुति मे तुच्छ कहलाने वाली नारी जिसे हिन्दु कोड बिल का सहारा बाबा ने देना चाहा और फिर संविधान मे उसके हक आरक्षित किये ऐसी माँ बहने लाखो की तादाद मे श्मशान भूमी पर थी। यह भारतीय सड़ी गली धर्म परम्पराओ पर ऐक जोरदार तमाचा था क्योंकि जिन महिलाओ को श्मशान जाने का अधिकार भी नही था ऐसी "3 लाख" महिलाएँ बाबा के अंतिम दर्शन को पहोंची थी जो अपने आप मे ऐक विक्रम था।

भारत का यह युगंधर, संविधान निर्माता, प्रज्ञातेज, प्रज्ञासूर्य, महासूर्य, कल्प पुरुष नव भारत को नव चेतना देकर चला गया, ऐक ऊर्जा स्त्रोत देकर समानता, स्वतंत्रता, न्याय, बंधुता का पाठ पढाकर।
उस प्रज्ञासूर्य की प्रज्ञा किरणो से रोशन होगा हमारा देश, हमारा समाज और पुरे विश्वास के साथ हम आगे बढ़ेंगे हाथो मे हाथ लिये मानवता के रास्ते पर जहां कभी सूर्यास्त नही होंगा, जहां कभी सूर्यास्त नही होंगा, जहां कभी सूर्यास्त नही होगा।

जय भीम जय भीम और केवल जय भीम 
शत् शत् नमन अर्पित करता हूँ और करता रहुंगा।

गन्ना मूल्य का भुगतान समय पर न होने का अदृश्य अर्थशास्त्र:नन्द लाल वर्मा सोसिएट प्रोफेसर

विमर्श 
नन्द लाल वर्मा सोसिएट प्रोफेसर
    यूपी में किसानों के बकाया गन्ना मूल्य और ब्याज के भुगतान और दिल्ली बॉर्डर पर आन्दोलनरत किसानों की मांगों पर विपक्षी दल क्यों मौन हैं?
सन्निकट विधानसभा चुनाव के बावजूद विपक्षी पार्टियां इन मुद्दों पर अपना राजनैतिक एजेंडा क्यों नही खोल पा रही हैं?
आखिर,कानून और न्यायिक आदेशों का पालन कराने की किसकी जिम्मेदारी....... जब जिम्मेदार अपनी जिम्मेदारी न निभा पाएं तो उनके खिलाफ कार्रवाई कौन करे ?

         लखीमपुर खीरी में बजाज चीनी मिलों पर अभी भी गन्ना भुगतान लगभग ₹800करोड़ बकाया बताया जा रहा है। इस बकाए पर बाज़ार में प्रचलित औसत ब्याज दर पर लगभग ₹8 करोड़ प्रतिमाह ब्याज बनता है। यदि चीनी मिल प्रबंधन को यह राशि बैंक से उधार लेकर भुगतान करना पड़े तो उसे ₹8 करोड़ प्रतिमाह का नुकसान होगा। जब शुरुआती समय में इन्ही चीनी मिलों पर ₹10000(दस हजार करोड़ रुपये) बकाया होता है तो उन्हें ब्याज के कितने करोड़ रुपयों का फ़ायदा होता होगा? मिलों को मोटा फायदा और किसानों को भारी नुकसान। किसान जो गन्ना पैदा करने में बैंक से ऋण लेता है, उस पर उसे ब्याज का अलग भुगतान करना पड़ता है।
          ब्याज की इस अदृश्य अर्थव्यवस्था में स्थानीय/प्रांतीय दलों के नेता और नौकरशाही की हिस्सेदारी से इनकार नही किया जा सकता है, क्योंकि राज्य में 14दिनों के भीतर भुगतान का स्पष्ट कानून और देश की सबसे बड़ी अदालत के फैसले के बावजूद किसानों का ब्याज सहित गन्ना बकाया तो दूर मूलधन तक भुगतान कराने में स्थानीय जिला प्रशासन और सरकार असहाय नज़र आ रही है! चुनावों में स्थानीय राजनीतिक दलों के लोग इन्ही चीनी मिलों के स्थानीय प्रमुखों से अच्छी खासी रकम चंदा के नाम पर वसूलते हैं और चुनाव के नज़दीक आने और हार के डर से सोशल मीडिया पर घड़ियाली आंसू बहाते दिखाई पड़ रहे हैं। विगत कई सरकारों के कार्यकाल में गन्ना मूल्य और ब्याज भुगतान की कमोबेश यही दुर्गति रही है और आगे भी रहने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है अर्थात गन्ना मूल्य और उस पर ब्याज भुगतान के मामले में विगत सरकारों का भी दामन पाक-साफ नही रहा है। नेताओं को केवल चुनावी बेला पर ही किसानों के दुख-दर्द याद आते हैं? चीनी मिल प्रबंधन,राजनीतिक दलों, स्थानीय नेताओं और स्थानीय जिला प्रशासन की मिलीभगत के पीछे यही ब्याज की एक बड़ी अदृश्य अर्थव्यवस्था काम करती है। यह कैसे संभव हो सकता है कि स्पष्ट कानून और सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद सरकार और जिला प्रशासन भुगतान कराने में घुटने टेकती नज़र आये? यदि चीनी मिल प्रबंधन के पर्याप्त पैसा नही है तो किसानों की आर्थिक संकट को दृष्टिगत राज्य सरकार गन्ना मिलों को पैसा उधार दें जिससे किसानों के बकाये का भुगतान हो सके।सरकार जो पैसा उधार देगी वह भी जनता से लिये गए टैक्स का ही पैसा होगा।
           जिस दर से  बाजार में गन्ना के मुख्य उत्पाद- चीनी और उसके उपउत्पादों की कीमतें बढ़ती हैं, उसी अनुपात में हर वर्ष किसानों के गन्ने का मूल्य भी बढ़ना चाहिए। सरकारों द्वारा अपने अंतिम वर्ष के चुनावी मौसम में ही गन्ना मूल्य बढ़ाने की मजबूरी दिखाई देती है। किसानों की गन्ना उत्पादन की बढ़ती लागत दर को ध्यान में रखते हुए हर वर्ष गन्ना मूल्य बढ़ाना चाहिए। राजनीतिक दलों को पूँजीपतियों से मोटी रकम चुनावी चंदा के रूप मिलती है और किसानों से चुनावी वर्ष में वोट की राजनीति के डर से आख़िरी साल में नाममात्र की बढ़ोतरी कर किसानों के आक्रोश को शांत करने का उपक्रम किया जाता है।किसान संगठनों को चीनी मूल्य की बढ़ोतरी पर ध्यान केंद्रित कर उसी अनुपात में गन्ना मूल्य बढ़ोतरी की एक मजबूत पालिसी के लिए सरकारों पर अनवरत दबाव की राजनीति करने की संस्कृति पैदा करना चाहिए। किसानों को इस देश की राजव्यवस्था से एक बार अपने वाज़िब हक के लिए जीवन-मरण/आर पार की लड़ाई लड़नी ही होगी तभी सरकारों के कान पर जूं रेंगेगी। तीन कृषि क़ानूनों के विरोध में हुए लंबे आंदोलन और उसकी ताकत के सामने झुकती निरंकुश सरकारों से सीख या प्रेरणा लेने की जरूरत है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में सैकड़ों वर्षों से हो रहे किसानों के शोषण पर अब लोकतांत्रिक तरीके से किये गए आंदोलनों से ही कुछ राहत की उम्मीदें जगी हैं। लोकतांत्रिक व्यवस्था की मुख्य धुरी किसान ही है, वह जैसा चाहे  वैसे ही लोकतांत्रिक सरकारों की चाल और चरित्र तय हो सकता है।किसानों का जीवन अनगिनत प्राकृतिक अनिश्चितताओं और दुश्वारियों से भरा होता है, इसीलिए कोई किसान अपनी आने वाली पीढ़ी को किसान के रूप में नही देखना चाहता है। जय जवान-जय किसान के साथ आन्दोलनरत किसानों की सफलता के लिए हमारा नैतिक समर्थन और हार्दिक संवेदनाएं- शुभकामनाएं।
-लखीमपुर-खीरी।

विनोद दुआ ...सत्ता की आंखों में आंखे डालकर सवाल पूछने वाला पत्रकार-नन्दलाल वर्मा (एशोसिएट प्रोफेसर)

विनम्र श्रद्धांजलि!
!एक युग का अंत....
नन्दलाल वर्मा 
         प्रख्यात टीवी एंकर विनोद दुआ का जाना टीवी पत्रकारिता के एक युग का अंत कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी। टीवी पर हिंदी पत्रकारिता के ध्रुवतारा थे, वह! दरअसल, विनोद दुआ  का अपना एक विशिष्ट अंदाज़ था। प्रणय रॉय के साथ उनकी पत्रकारिता का जादू सिर चढ़कर बोला और उनके चुनावी जीवंत विश्लेषण ने उनको शोहरत की बुलंदियों तक पहुंचाने का काम किया। अपनी बेबाक,दुस्साहसी और बेलागपन पत्रकारिता के लिए वह हमेशा याद किये जाते रहेंगे। मंत्रियों के साथ अपने कार्यक्रमों में जिस अंदाज में वह सवाल या टिप्पणियां करते थे, तब उनकी कल्पना करना तक संभव नही था और आज की पत्रकारिता में तो वे असंभव सी हो चुकी हैं। सरकार नियंत्रित दूरदर्शन पर सरकार या मंत्री के कामकाज का मूल्यांकन कर दस में तीन अंक देने की बात कह देना, उनके बड़े साहस और निर्भीकता का परिचायक है।
       पत्रकारिता जगत में आये उतार- चढ़ाव के बावजूद विनोद दुआ ने अपना विशिष्ट अंदाज़ कभी नही छोड़ा। आज के दौर में जब पत्रकारिता का एक बहुत बड़ा हिस्सा सत्ता- सरकार की चाटुकारिता और विज्ञापन करती नज़र आती है। दुआ जी सत्ता -सरकार से टकराने में कभी पीछे नही हटे। उन्हें कभी भी सत्ता का डर नही रहा। कोरोना काल मे केंद्र सरकार के फैसलों और नीतियों-कामकाजों की आलोचना करते हुए उन्होंने इसे सरकार का निकम्मापन करार देते हुए टिप्पणी की थी जिससे बौखलाई सत्तारूढ़ बीजेपी सरकार ने उनके ऊपर राजद्रोह का आरोप लगाकर फंसाने की कोशिश की, किंतु उन्होंने  साहस दिखाते हुए अपनी लड़ाई लड़ी और सुप्रीम कोर्ट से जीत हासिल की। सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में यह कहते हुए कि:"सरकार की आलोचना करना राजद्रोह नही है" और सुप्रीम कोर्ट ने 1962 में केदारनाथ सिंह बनाम बिहार सरकार के केस में दिये गए अपने ही आदेश: " सरकार की आलोचना के लिए एक नागरिक के खिलाफ राजद्रोह के आरोप नही लगाए जा सकते हैं, क्योंकि यह भाषण और अभिव्यक्ति  की संवैधानिक आज़ादी के अनुरूप नहीं है। राजद्रोह का केस तभी बनेगा जब कोई भी वक्तव्य ऐसा हो जिसमें हिंसा फैलाने की मंशा हो या हिंसा बढ़ाने का तत्व मौजूद हो " का हवाला देते हुए सरकार द्वारा दायर मुकदमें को खारिज़ कर दिया था। विनोद दुआ का यह कदम सम्पूर्ण मीडिया जगत के लिए भी एक बड़ी राहत देता हुआ दिखाई दिया। वह देश-दुनिया की सभी प्रकार की हलचलों के प्रति बहुत सजग रहते थे। समाचारों की बारीक समझ उनके सवालों में नुकीलापन और तेवरों में साफ दिखाई पड़ता था। उन्हें प्रकाशित खबरों की समीक्षा करने में बेमिसाल महारथ हासिल थी।
      बहरहाल, विनोद दुआ का ऐसे समय जाना पत्रकारिता जगत के लिए ही नही, अपितु देश के संविधान और लोकतंत्र के लिए भी एक बड़ी क्षति के रूप में देखी और आंकी जा रही है। उनकी उपस्थिति मात्र ही बहुत से पत्रकारों के लिए प्रेरणा बनी हुई थी। उन युवा पत्रकारों को सत्ता से लड़ने और टकराने की हिम्मत देती थी जो भारत के लोकतंत्र और उसकी साझी संस्कृति- विरासत को बचाने की जद्दोजहद में लगे हुए हैं।
      आज की पीढ़ी के कितने लोग विनोद दुआ को जानते हैं और किस रूप में पहचानते हैं? व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी के ज्ञान और ट्रॉलिंग के इस दौर में किसी के अपरिमित व्यक्तित्व और योगदान को पल भर में नष्ट-भ्रष्ट कर लांछित और कलंकित करने की प्रवृत्ति  जोरों पर है,लेकिन जब कभी विनोद दुआ के व्यापक व्यक्तित्व का संपूर्णता में मूल्यांकन होगा तो उन्हें एक साहसी पत्रकार योद्धा के रूप में जरूर देखा जाएगा। आने वाली नस्लें तब जान पाएंगी कि विनोद दुआ नाम का भी कोई टीवी एंकर- पत्रकार हुआ था। दुआ जी को मेरा शत-शत नमन!
लखीमपुर -खीरी यू०पी०

Thursday, December 02, 2021

बिहार में बोतल है और बोतल में बिहार है-रवीश कुमार


रविश कुमार (वरिष्ठ पत्रकार)
बिहार एक अदृश्य बोतल के आतंक की गिरफ़्त में है। हर कोई सतर्क है कि कहीं बोतल न दिख जाए। बोतल मिल जाने की आशंका में हर किसी को हर जगह बोतल नज़र आ रहा है। हर कोई एक दूसरे के बग़ल में झांक रहा है कि कहीं उसके पास बोतल तो नहीं है। कोई मिलने आ रहा है तो लोगों की नज़र उसके हाथ और झोले पर है कि कहीं बोतल तो नहीं है। पार्किंग में खड़ी कार देखते ही लोग सहम जा रहे हैं कि डिक्की में बोतल तो नहीं है। स्टेशन से रिश्तेदार अटैची लिए चले आ रहे हैं, लोग डरने लग जा रहे हैं कि कहीं बोतल तो नहीं है। एक ज़माना था जब दिल्ली में बस की सीट के पीछे लिखा था कि आपकी सीट के नीचे बम हो सकता है। बैठने वाला सीट के नीचे झांकने लगता था। बम देखने लगता था। उसी तरह बिहार के लोग बोतल देखने लगे हैं। बोतल का नहीं मिलना अब अच्छा माना जा रहा है। 

विधानसभा के प्रांगण में बोतल मिल गया। इस तरह से हंगामा हुआ, जैसे मंगल ग्रह का एक टुकड़ा आ गिरा हो। सदन के बाहर और भीतर हंगामा मच गया कि बोतल मिल गई है। हालाँकि बोतल कई चीज़ों की होती है लेकिन बिहार में हर बोतल प्रथम दृष्टया शराब की बोतल ही समझी जा रही है। विधानसभा में बोलते मिलते ही तेजस्वी ट्वीट कर देते हैं कि शराबबंदी फेल हो गई है। किसी ने पी ली है। बस बोतल से सरकार को ठेस लग गई।मुख्यमंत्री सबको हड़का रहे हैं कि मामूली बात नहीं है कि यहाँ बोतल मिली है। जाँच होगी।स्पीकर महोदय, इजाज़त दीजिए, जाँच करेंगे कि आपके परिसर में बोतल कैसे मिल गई है। ऐसे पूछने पर तो कोई भी ख़ुद पर ही शक करने लगेगा कि भाई कहीं मेरा ही नाम न आ जाए। सदस्य राम राम जपने लगेंगे कि स्पीकर जी इजाज़त मत दीजिए। बोतल मिल गई है तो मिल गई है। 

बिहार में बोतल मिल रही है लेकिन विधानसभा में बोतल का मिल जाना, सारी कल्पनाओं की पराकाष्ठा है। कवि भी बोतल मिलने पर कविता लिख रहे हैं लेकिन विधानसभा में बोतल मिलेगी उनकी किसी कविता में नहीं आया है। मेरा यह लेख पढ़कर बिहार हंस रहा है। घर-घर चोरी चुपके बोतल पहुँचाने वाले हंस रहे हैं। पीने वाले हंस रहे हैं। बोतल की तरह लुढ़क रहे हैं।लोट-पोट हो रहे हैं। कह रहे हैं कि बिहार में भगवान मिल जाएँ तो मिल जाएँ मगर बोतल नहीं मिलनी चाहिए। 

मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जी का ग़ुस्सा देखकर मैं भी सीरीयस हो गया हूँ। मैंने भी बोतलों से प्रार्थना की है कि भाई तुम कहीं दिखो लेकिन उनके सामने मत दिखो। कुछ भी है हम लोगों के सीएम हैं, बोतल देखकर ग़ुस्सा जा रहे हैं। मुझे आशंका है कि किसी दिन बीजेपी ने जदयू से गठबंधन तोड़ा तो बोतल लेकर नीतीश जी को चिढ़ाने न आ जाए। ऐसा होगा तो मुझे बुरा लगेगा। भाई आप गठबंधन तोड़िए, आपका हक़ है लेकिन बोतल से नीतीश जी का मज़ाक़ मत उड़ाइये। बीजेपी वालों से अनुरोध है कि राजनीति में गठबंधन तो बनते टूटते हैं लेकिन जब भी ऐसा हो बोतल लेकर कोई प्रदर्शन न करें। 

क्या ऐसा हो सकता है कि बीजेपी के नेता ख़ुद बोतल लेकर न चिढ़ाए, किसी और संगठन को आगे कर नीतीश जी के घर के आगे बोतल फेंकवा दें। मन में तरह-तरह की आशंकाएँ पैदा होती रहती हैं।शुभ-शुभ बोलिए रवीश कुमार। ऐसा मत कहिए। बोतल से कहिए कि बिहार में रहे लेकिन मुख्यमंत्री के आस-पास न रहे। अरे ये क्या कह दिया। बोतल से कहिए कि बिहार में भी न रहे। 
 
ख़्याल तो ख़्याल है।पता चला हमारे सीएम दिल्ली में किसी बारात में आए हुए हैं और लोग बोतल लेकर फ़ोटो खिंचाने आ गए हैं। मैं तो सलाह दूँगा कि नीतीश जी साथ में एक हंटर लेकर भी चलें। दिल्ली की शादी में जो भी बोतल लेकर फ़ोटो खिंचाने आए, मार हंटर, मार हंटर वहीं पर उसका हाथ बेहाल कर दें। दरअसल, राजनीति में बोतल इस तरह उपस्थित है कि उसकी अनुपस्थिति को लेकर आप आश्वस्त नहीं हो सकते हैं। बोतल ही है, कहीं से आ सकती है। किसी के पास से मिल सकती है।

मुझे आशा है कि आप बोतल का मतलब शराब की बोतल ही समझ रहे हैं। वैसे बिहार में बोतल का एक और मतलब होता है। बेवकूफ होता है। बिहार में लोग किसी को बोतल बुला दें तो उसे बुरा लग जाता है। दोस्तों के बीच बोतल समझा जाना बहुत बुरा माना जाता है। उस बिहार में जहां बोतल से इतनी विरक्ति हो, बोतल मिल जाए तो लोग बोतल हो जा रहे हैं। उछल-कूद मचाने लगे हैं। 

बोतल दिखते ही मेरा बिहार बोतल हो जा रहा है। सहम जाता है। आप किसी चलती-फिरती सड़क पर जाइये। बीच सड़क पर बोतल रख दीजिए, देखिए अफ़रा-तफरी मचने लगेगी। लोग कार से कूद कर भाग जाएँगे कि कहीं पुलिस न देख ले कि उनकी कार के सामने बोतल रखी हुई है। इससे शक हो सकता है कि कार वाले ने पीने के बाद बीच सड़क पर बोतल रख दी हो। लोग रात भर जाग रहे हैं कि कोई अहाते में बोतल न फेंक जाए। सुबह होते ही पता चला कि जेल चले गए। शादियों में जो लोग छिप कर बोतल पीते थे, वे अब बोतल देखते ही छिप जा रहे हैं। हर कोई बोतल से छिप रहा है जबकि लोग पहले इस बोतल को बाज़ू में रखकर छिपा लेते थे। 

नशा शराब में होता तो नाचती बोतल। बिहार में उल्टा हो रहा है। बोतल नाच नहीं रही है। बोतल के पीछे बिहार नाच रहा है। शराब का नशा तो सीमा से लगे राज्यों में है। केवल बोतल है जो बिहार में है। जहां बोतल नहीं है वहाँ भी लो
ग बोतल देख रहे हैं। बिहार में बोतल आ गया है और बोतल में बिहार समा गया है। नीतीश जी को बोतलों से बचाना है। हमने तो अब यही ठाना है। 

अंत में, आदरणीय नीतीश जी, प्लीज़। अब आगे कुछ नहीं कहूँगा।

Wednesday, December 01, 2021

जादूगर आया-सुरेश सौरभ

  लघुकथा  

सुरेश सौरभ 

   जादूगर एक शहर में आया , झोला खोला सामान निकाला । बांसुरी बजाई , डमरू बजाया लोगों को इकट्ठा किया । जादू शुरू किया । कभी रसगुल्ला , कभी जलेबी , कभी कूकर , कभी घी , कभी लैपटॉप कभी पुराने नोट , कभी नये नोट कभी खनखनाते सोने-चांदी के सिक्के , जादू से बना-बनाकर सबको चौंकाता । लोग लालच भरी , हैरत भरी नज़रों से देखते हुए हतप्रभ थे । 
       काफी देर बाद खेल खत्म हुआ । तमाशबीनों ने उसे पैसे दिए , किसी ने अनाज दिया तो कई कंगले खाली दुआएं देते हुए अगली बार कुछ देने का वादा करके अपनी राह हो लिए ।  जादूगर ने सारे पैसे बटोरे अनाज आदि सब अपना सामान झोले में भरा और चल पड़ा दूसरे शहर में जादू दिखाने । 
      यह जादूगर हर पांच साल बाद शहर-शहर गाँव-गाँव सबको ठगता फिर रहा है ।


निर्मल नगर लखीमपुर-खीरी उत्तर प्रदेश
मो-7376236066

Friday, November 26, 2021

मैं भी एक वादी हूं-कपिलेश प्रसाद

कपिलेश प्रसाद
मेरी भी एक हसरत थी 
विचारों की श्रंखला में ,
मेरा भी " वाद " चले 
मैं महज़ मेरे नाम के 
" ज़िन्दाबाद " से कुछ अलग
लक़ीरे ख़ीचना चाहता था ।
सो खिच गई , 
ऐसा लगता है ... । 

दुनिया की सैर पर ,
मैं निरन्तर यों नहीं निकल पड़ा था ।
कई -कई " वाद " देखे हैं मैने ,
मैं भी तो एक " वादी " हूँ ... 
एक अपने " वाद " का होना 
ही कुछ अलग बात है , 
यह दिगर बात है कि 
मैं जनवादी नहीं ।
अभिलाषाओं , महत्वाकाँक्षाओं की वादी मेरी , 
निर्विवाद नहीं , 
शून्य से शिखर तक का 
यह सफर मेरा ,
सदा-सदा आबाद रहे ।
मैं रहूँ , ना रहूँ ...
मेरा " वाद " रहे ।
यों ही कोई सिकंदर महान 
और एडोल्फ हिटलर नहीं बन जाता !

डॉ.अंबेडकर के लोकतांत्रिक समाजवाद से क्यों असहमत थी संविधान सभा-कंवल भारती

संविधान दिवस 26 नवंबर पर विशेष
15.3.1947 को डॉ.अंबेडकर ने संविधान में कानून के द्वारा ‘राज्य समाजवाद’ को लागू करने के लिए संविधान सभा को ज्ञापन दिया। उन्होंने मांग की थी कि भारत के संविधान में यह घोषित किया जाए कि उद्योग, कृषि, भूमि और बीमा का राष्ट्रीयकरण होगा तथा खेती का सामूहिकीकरण। लेकिन संविधान सभा ने ऐसा होने नहीं दिया।

डॉ.अंबेडकर दुनिया भर के संविधान के ज्ञाता थे और मानते थे कि किसी भी देश की प्रगति में उस देश के संविधान की बड़ी भूमिका होती है। संविधान की भूमिका को रेखांकित करते हुए वे एक जगह लिखते हैं-“सारी सामाजिक बुराईयां धर्म-आधारित होती हैं।

एक हिन्दू स्त्री या पुरुष, वह जो कुछ भी करता है, अपने धर्म का पालन करने के रूप में करता है। एक हिन्दू का खाना, पीना, नहाना, वस्त्र पहिनना, जन्म, विवाह और मरना सब धर्म के अनुसार होता है। उसके सारे कार्य धार्मिक हैं। हालांकि धर्मनिरपेक्ष दृष्टिकोण से वे बुराइयां हैं, पर हिन्दू के लिए वे बुराइयां नहीं हैं, क्योंकि उन्हें उसके धर्म की स्वीकृति मिली हुई है। यदि कोई हिन्दू पर पाप करने का आरोप लगाता है, तो उसका उत्तर होता है, ‘यदि मैं पाप कर रहा हूं, तो धर्म के अनुसार कर रहा हूं’।”

“समाज हमेशा अनुदार और रूढ़िवादी होता है। यह तब तक नहीं बदलता है, जब तक कि इसे बदलने के लिए बाध्य नहीं किया जाता है और वह भी धीरे–धीरे। जब भी परिवर्तन शुरू होता है, तो हमेशा पुराने और नये के बीच संघर्ष होता है, और इस संघर्ष में अगर नए को बचाने के लिए उसका समर्थन न किया जाय तो नये के खत्म होने का हमेशा खतरा बना रहता है। सुधार के माध्यम से एक निश्चित तरीका उसे कानून द्वारा समर्थन देना है। कानून की सहायता के बिना, कभी भी किसी बुराई को नहीं सुधारा जा सकता। और जब बुराई धर्म पर आधारित हो, तो कानून की भूमिका बहुत बड़ी होती है।”

हिन्दू समाज की बहुत सी बुराइयां बेहद अमानवीय थीं, जो ब्रिटिश काल में कानून के दबाव से धीरे-धीरे समाप्त हुईं। परन्तु क्या कारण है कि दलितों के प्रति अस्पृश्यता और भेदभाव की बुराई खत्म नहीं हुई। डॉ. आंबेडकर ने इसका कारण यह बताया कि जो बुराइयां दूर हुईं, उन्हें हिन्दू स्वयं दूर करना चाहते थे, क्योंकि वे हिन्दू परिवार की बुराइयां थीं, जिनमें सती प्रथा, विधवा पुनर्विवाह, स्त्री शिक्षा आदि थीं। किन्तु अस्पृश्यता की बुराई हिन्दू समाज की संरचनात्मक व्यवस्था है, जिसे हिन्दू आज भी सही मानते हैं और खत्म करना नहीं चाहते।

डॉ.अंबेडकर ने महसूस कर लिया था कि हिन्दू अपनी जाति व्यवस्था का त्याग नहीं कर सकते, और कानून बन जाने के बावजूद वे दलित वर्गों की प्रगति में बाधक बने रहेंगे। इसलिए, वे कानून की, ऐसी अवधारणा पर विचार कर रहे थे, जहां अल्पसंख्यक वर्ग स्वतंत्र भारत के संविधान में अपने अधिकारों को सहजता से प्राप्त कर सकें। भारत स्वतंत्र हो चुका था और स्वतंत्र भारत के संविधान का निर्माण होने जा रहा था। ऐसी स्थिति में डॉ. आंबेडकर की चिन्ता बढ़ गई थी, क्योंकि शासन सत्ता कांग्रेस के हाथों में आई थी, जिसमें ब्राह्मणों का वर्चस्व था। वे महसूस कर रहे थे कि ‘भारत सम्पूर्ण रूप से हिन्दुओं की मुट्ठी में है, उस पर उनका एकाधिकार है। ऊपर से नीचे तक सब उन्हीं के नियन्त्रण में है। ऐसा कोई विभाग नहीं है, जिस पर वे हावी न हों। पुलिस, अदालत तथा सरकार सेवाएं, दरअसल प्रशासन की प्रत्येक शाखा उनके कब्जे में है। परिणाम यह है कि अछूत लोग एक ओर हिन्दू जनता, तो दूसरी ओर हिन्दू बहुल प्रशासन नामक दो पाटों के बीच में पिस रहे हैं, एक उन पर अत्याचार करता है, तो दूसरा उनकी मदद करने के बजाए, अत्याचार करने वालों को सुरक्षा और संरक्षण प्रदान करता है।’

ऐसी स्थिति में डॉ.अंबेडकर ने संविधान के एक ऐसे माॅडल पर विचार किया, जो समाजवादी था। उनका विश्वास था कि समाजवादी माॅडल को स्वीकार किए बिना भारत के अछूतों की दशा को नहीं सुधारा जा सकता, क्योंकि किसी का भी सामाजिक स्तर तभी ऊंचा उठता है, जब उनका आर्थिक स्तर सुधरता है। आर्थिक स्तर सरकार के नियन्त्रण वाली व्यवस्था से ही सुधर सकता है, निजीकरण की व्यवस्था से नहीं। इसलिए वे समाज कल्याण के यूरोपीय माडल को पसन्द नहीं करते थे, जिसके तहत सरकारें यह मानकर चलती हैं कि अधिकांश लोगों को सरकारी सुविधाओं की जरूरत नहीं है, बस थोड़े से गरीब लोग हैं, जिन्हें सुविधाएं चाहिए। सरकारों की लोकलुभावन योजनायें इसी माॅडल के तहत आती हैं। यह माॅडल दलित वर्गों का भला नहीं कर सकता, हालांकि आज की सरकारें इसी माडल पर काम कर रही हैं, और गरीबों की स्थिति जस की तस बनी हुई है। यह पूंजीवादी माॅडल है। इसलिए डॉ.अंबेडकर ने यह मानते हुए कि पूंजीवाद अमीरों का दर्शन है, गरीबों के हित में और देश के औद्योगिक विकास के हित में समाजवाद को आवश्यक माना। 17 दिसम्बर 1946 को उन्होंने संविधान सभा में पंडित नेहरू के प्रस्ताव पर बोलते हुए साफ-साफ शब्दों में कहा था कि ‘भारत को लोकतान्त्रिक गणराज्य बनाने के लिए संविधान में कैसे प्राविधान किए जायें, इसका कोई जिक्र पंडित नेहरू के प्रस्ताव में नहीं है। इसलिए मैं कुछ ऐसे प्राविधानों को रखना चाहूंगा, जो वास्तव में भारत में आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक न्याय स्थापित करेंगे। इस दृष्टि से यह तभी सम्भव होगा, जब देश में उद्योग और भूमि का राष्ट्रीयकरण किया जायेगा। मैं नहीं समझता कि किसी भी भावी सरकार के लिए अपनी अर्थव्यवस्था को समाजवादी बनाए बगैर सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय में विश्वास करना सम्भव हो सकता है?’

डॉ. आंबेडकर ने 15 मार्च 1947 को संविधान में कानून के द्वारा ‘राज्य समाजवाद’ को लागू करने के लिए संविधान सभा को ज्ञापन दिया। इस ज्ञापन में उन्होंने मांग की कि भारत अपने संविधान के कानून के अंग के रूप में यह घोषित करे कि उद्योग, कृषि, भूमि और बीमा का राष्ट्रीयकरण तथा खेती का सामूहिकीकरण हो।

इस ज्ञापन को पढ़कर कांग्रेस को लगा कि यदि संविधान के निर्माण में डाॅ. आंबेडकर की सेवाएं नहीं ली गईं, तो यह व्यक्ति भारत में क्रान्ति पैदा कर देगा, जिसे संभालना मुश्किल हो जायगा। अतः कांग्रेस और गांधी जी ने डॉ. आंबेडकर को, जिन्हें वे सदन में देखना नहीं चाहते थे, और जिन्हें बंगाल से चुनकर आना पड़ा था, बम्बई से तुरन्त चुनकर भेजने के लिए 30 जून 1947 को डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने बम्बई के प्रधानमंत्री बी. जी. खेर को पत्र लिखा। फलतः वे बम्बई से चुनकर सदन में पहुंचे, क्योंकि विभाजन के बाद बंगाल की उनकी सीट समाप्त हो गई थी। अतः तुरंत ही पंडित नेहरू ने उन्हें 15 अगस्त 1947 को स्वतंत्र भारत का प्रथम कानून मंत्री और संविधान की प्रारूप समिति का अध्यक्ष बना दिया। संविधान सभा में 296 सदस्य थे, जिन्होंने विभिन्न समितियों के माध्यम से तैयार किए गए, संविधान के प्रारूप को संविधान सभा में भारी वाद-विवाद के बाद पास किया था। अतः दलित वर्गों के लोग ऐसा सोचते हैं कि वर्तमान संविधान डॉ. आंबेडकर के मनमाफिक संविधान हैं. तो गलत सोचते हैं। अगर संविधान डॉ. आंबेडकर मनमाफिक बना होता तो उसमें ‘राज्य समाजवाद’ की व्यवस्था को संविधान में कानूनी प्रावधान के रूप में जरूर शामिल करते, जिसे उन्होंने ज्ञापन में प्रस्तुत किया था। पर, संविधान में राज्य समाजवाद का कहीं भी प्राविधान नहीं है। इसके विपरीत, जैसा कि डॉ. राजाराम कहते हैं, ‘भारतीय संविधान में मूल अधिकारों में संपत्ति का व्यक्तिगत स्वामित्व जोड़कर वर्ण–व्यवस्था को ही कायम किया गया, जिससे संपत्ति का न बंटवारा हो, और न उस पर किसी तरह का अंकुश हो। ये मूल अधिकार अनुच्छेद 12 से 35 में आते हैं। संपत्ति के अधिकार को कड़ाई से स्थापित करने के लिए मूल अधिकारों में अनुच्छेद 19 च, छ और अनुच्छेद 31 यानी दो अनुच्छेद भी इसमें जोड़े गए। अनुच्छेद 19 च और छ में अपनी संपत्ति को इकट्ठा करने, उसका व्यापार आदि कुछ भी करने की पूर्ण स्वत्रन्त्रता दी गई है। धन खर्च करने की कोई सीमा नहीं, कोई कितना भी खर्च कर सकता है। अनुच्छेद 31 एक स्वतन्त्र अनुच्छेद है, जिसमें संपत्ति का व्यक्तिगत स्वामित्व रखा गया है। सार्वजनिक उद्देश्य के लिए सरकार किसी की भी संपत्ति को ले सकती है, परन्तु उसका मुआवजा दिए बिना नहीं। मूल अधिकारों को पवित्र और अपरिवर्तनीय बना दिया गया, ताकि उससे छेड़छाड़ न हो। इसलिए अलग से एक अनुच्छेद 13 मूल अधिकारों में रखा गया है। मूल अधिकारों के हनन पर अनुच्छेद 32 रखा गया है, जिसके द्वारा मूल अधिकार के हनन के विरुद्ध न्यायालय में शिकायत दर्ज हो सकती है। ये मूल अधिकार संविधान की तीसरी सूची में दर्ज है।’

क्या यह डाॅ. आंबेडकर की इच्छा से हुआ था। राज्य समाजवाद की वकालत करने वाले डाक्टर क्या निजी संपत्ति का कानून बना सकते थे? उत्तर है, कदापि नहीं। स्वयं भी संपत्ति को मूल अधिकार बनाने के पक्ष में नहीं थे। पर, सदन में बहुमत उन्हीं लोगों का था, जिनके पास भारी संपत्तियां थीं। वे अपनी संपत्ति को खोना नहीं चाहते थे। इसलिए उन्होंने समाजवाद को अपने पास तक नहीं फटकने दिया। उन्होंने न उद्योगों का राष्ट्रीयकरण होने दिया और न भूमि का। उन दिनों बालिग मताधिकार नहीं था। केवल वही लोग वोटर हुआ करते थे, जो शिक्षित होते थे या जिनके पास इतनी कर योग्य संपत्ति होती थीI जाहिर है कि ऐसे लोगों से, जिनमें ज्यादातर राजे-महाराजे, नवाब और जमींदार ही थे, समाजवाद के समर्थन की आशा नहीं की जा सकती थी. इसलिए भूस्वामियों को मुआवजा देकर उनसे जमीन लेने के सवाल पर जब संविधान सभा में अनुच्छेद 31 पर बहस चल रही थी, तो सदन में अकेले डॉ. आंबेडकर ही उसके विरोध में बालने वाले थे। डॉ. आंबेडकर ने कहा था कि यह उनका ड्राफ्ट नहीं है। उनके अनुसार, जब अनुच्छेद 31 बनाया जा रहा था, तो उसको लेकर कांग्रेस में तीन गुट हो गए थे। जवाहर लाल नेहरू, सरदार पटेल और जी. बी. पन्त में गहरे मतभेद थे। किन्तु, इस विवाद का निपटारा भूमि सुधारों की हत्या पर हुआ। तब डॉ. आंबेडकर ने कहा था कि यह अनुच्छेद इतना बदसूरत है कि ‘मैं उसकी तरफ देखना भी पसन्द नहीं करता।’

डॉ. आंबेडकर पूंजीवादी संसदीय लोकतंत्र को आदर्श व्यवस्था नहीं मानते थे। राज्य के नीति-निर्देशक तत्व भी, जो संविधान की चौथी सूची में हैं, डॉ. आंबेडकर के विचारों के अनुरूप नहीं है। ये अनुच्छेद 36 से 51 के अंतर्गत आते हैं। ये सिद्धांत राज्यों को कल्याणकारी राज्य बनाने के लिए राज्यों को कानून बनाने का निर्देश देते हैं, परन्तु अनुच्छेद 37 में यह प्राविधान है कि राज्य द्वारा बनाए गए कानून को न्यायालय में मान्यता प्राप्त नहीं है। ये वैसे ही हैं, जैसे बिना दांत और नाखून वाला शेर। ये तत्व समाजवाद का दिखावा हैं, जबकि असल में ये पूंजीवाद के ही उपक्रम हैं।

इसीलिए डाॅ. आंबेडकर ने 25 नवम्बर 1949 को संविधान सभा में संविधान पर अपने ऐतिहासिक भाषण में कहा था कि जिस व्यक्ति को वास्तव में इस संविधान का ड्राफ्ट तैयार करने का श्रेय दिया जाना चाहिए, वह बी. एन. राव हैं। इसके बाद जिसे सबसे ज्यादा श्रेय मिलना चाहिए, वह संविधान के मुख्य शिल्पी एस. एन. मुखर्जी है। इससे यह बेहतर समझा जा सकता है कि अकेले डाॅ. आंबेडकर ने संविधान नहीं लिखा था, बल्कि उसके तैयार करने में ब्राह्मणों का हाथ और हित सर्वोपरि था। इसलिए इसी भाषण में उन्होंने कहा था-

‘26 जनवरी को हम विरोधाभासी जीवन में प्रवेश कर रहे हैं। राजनीति में हमें समानता प्राप्त होगी, परन्तु सामाजिक और आर्थिक जीवन मे हम असमानता से होंगे। राजनीति में हमारी पहिचान एक व्यक्ति एक वोट और एक वोट एक मूल्य की होगी, परन्तु हम अपने सामाजिक और आर्थिक जीवन में एक व्यक्ति एक मूल्य के सिद्धांत को अस्वीकार करते रहेंगे, जिसका मुख्य कारण संविधान का सामाजिक और आर्थिक ढांचा है। अग़र हमने इस विरोधाभास को लम्बे समय तक बनाए रखा, तो राजनीतिक लोकतन्त्र खतरे में पड़ जायेगा।’


दरअसल, डाॅ. आंबेडकर अपने राज्य समाजवाद की क्रान्ति को संविधान में शामिल नहीं कर सके थे। हम इसके पीछे की राजनीतिक परिस्थितियों को समझते हैं। डाॅ. आंबेडकर के साथ बहुमत नहीं था। उस समय बहुजन समाज शिक्षित और जागरूक भी नहीं था। किन्तु आज बहुजन समाज शिक्षित भी है और जागरूक भी है। क्या ही अच्छा होगा कि वह राज्य समाजवाद की मांग के लिए आन्दोलन करे और उसे संविधान का अंग बनाने के लिए संसद पर दबाव बनाए।

संदर्भ 26.11.2018
कॉपी संपादन : सिद्धार्थ/एफपी डेस्क
लेखन : कंवल भारती
https://www.forwardpress.in/2018/11/buy-forward-press-books-86/

Thursday, November 25, 2021

वर्तमान दौर की लोकतांत्रिक व्यवस्था में असहमति की स्थिति-नन्दलाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)

संविधान दिवस की पूर्व संध्या पर
N.L.Verma
(Associate professor)

     किसी भी देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था एक ऐसी खूबसूरत और सर्वोत्तम राज्य व्यवस्था मानी जाती है जिसमें सभी वर्गों या पक्षों की असहमति के लिए ना सिर्फ सम्मान और स्वागत के लिए पर्याप्त जगह होती है, बल्कि वह कई राजनीतिक दलों के अस्तित्व और उसकी राजनीतिक सक्रियता के रूप में उसकी राजनैतिक संस्कृति में विद्यमान होती है अर्थात् असहमति की आवाज़ देश के लोकतंत्र, विपक्ष और प्रबुद्ध नागरिकों के जीवंत होने का लक्षण माना जाता है। असहमति की गुंजाइश के बिना कोई लोकतांत्रिक व्यवस्था स्वस्थ और सशक्त नहीं बन सकती है। आज के दौर में संविधान द्वारा संचालित और नियंत्रित भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था बहुसंख्यकवाद/ हिंदुत्व /कथित नव राष्ट्रवाद व धर्मवाद की सांस्कृतिक चपेट में है और असहमति व्यक्त करने वालों को बाधित और दंडित करने की एक नयी संस्कृति का वर्चस्व और भय स्थापित होता हुआ दिखाई देता है। 

आज बहुत से नए कानून और सरकारी कार्रवाईयों की बाढ़ सी आई हुई है जो रोजमर्रा की व्यक्त की जाने वाली असहमितियों की लोकतांत्रिक आवाज़ को दबाने,कुचलने और चुप कराने का सरकार या राज्य द्वारा लगातार उपक्रम या षड्यंत्र किया जा रहा है। आज आम आदमी की रोजमर्रा की जिंदगी में राजनीति,धर्म और मीडिया के असर की वजह से बेवजह आक्रामकता, नागरिक व्यवहार में सौम्यता,सहजता और परस्पर आदर के बजाय आहत होने, लड़ने और झगड़ने के मुहावरे बढ़ते जा रहे हैं। देश में एक प्रकार से नागरिक लय भंग होता नजर आ रहा है। आज लगभग हर दिन राज्य व्यवस्था अपनी और संवैधानिक-लोकतांत्रिक मर्यादाओं- मूल्यों का उल्लंघन करता हुआ नजर आ रही है जिसका समाज बुरी तरह से शिकार बना हुआ है। आज देश में लोकतांत्रिक व्यवस्था होने के बावजूद सरकार के प्रति किसी भी प्रकार की व्यक्त असहमति या विरोध को सख्त दंडनीय रूप लेती जा रही है अर्थात वर्तमान लोकतांत्रिक व्यवस्था में असहमति, जो लोकतंत्र के लिए एक सबसे बड़ी खूबसूरती मानी जाती है,अत्यंत जोखिम और साहस भरा काम हो गया है और असहमति व्यक्त करने वाले कई प्रकार की कानूनी अड़चनों और मुश्किलों में पड़ते दिखाई दे रहे हैं। 

आज संविधान से संचालित और नियंत्रित लोकतांत्रिक या गणतांत्रिक व्यवस्था की सभी संस्थाओं की स्वात्तायता व निष्पक्षता ही समाप्त नहीं हो चुकी है बल्कि, देश के संविधान की व्यवस्थाओं को विफल या निष्प्रयोज्य कर देश के ओबीसी, एससी, एसटी और अल्पसंख्यकों की प्रगति के रास्ते अवरुद्ध कर नफ़रत और आशंकाओं से युक्त माहौल पैदा किया जा रहा है। बार- बार संविधान की समीक्षा के नाम पर एक विशेष संस्कृति से पोषित और नियंत्रित व्यवस्था द्वारा कुछ वर्गों के मन में घोर आशंकाएं और अनिश्चितताएं पैदा कर समाज में साम्प्रदायिक वैमनस्यता के बीज बोकर एक तरह से भय का माहौल पैदा किया जा रहा है। आज देश की संवैधानिक लोकतांत्रिक व्यवस्था एक नए प्रकार की अदृश्य और अपरिभाषित तानाशाही या अराजकता की चपेट में है,अर्थात् देश का संविधान खतरे के दौर में है।

पता- मो० राजगढ़ जिला लखीमपुर-खीरी 262701

Sunday, November 21, 2021

वैचारिक आतंकवाद-सिद्धार्थ (संपादक-फारवर्ड प्रेस)


इवी पेरियार रामास्वामी : भारतीय आधुनिकता के प्रस्तावक (सिद्धार्थ)
ईवीआर पेरियार का जन्म 17 सितंबर 1879 में हुआ था. 
उन्होंने उत्तर भारत के द्विजों की आर्य श्रेष्ठता, मर्दवादी दंभ, राष्ट्रवाद और शोषण-अन्याय के सभी रूपों को चुनौती दी.

भारतीय समाज और व्यक्ति का मुकम्मल आधुनिकीकरण जिन चिंतकों के विचारों के आधार पर होना है, उनमें ई.वी. रामासामी पेरियार अग्रणी हैं. पेरियार ने उन सभी बिंदुओं को चिह्नित और रेखांकित किया है जिनका खात्मा भारतीय समाज के आधुनिकीकरण की अनिवार्य शर्त है.

ई.वी. रामासामी नायकर ‘पेरियार’ भारत की प्रगतिशील श्रमण बहुजन-परंपरा के ऐसे लेखक हैं जिन्होंने उत्तर भारत के द्विजों की आर्य श्रेष्ठता और मर्दवादी दंभ, राष्ट्रवाद, ब्राह्मणवाद, वर्ण-जाति व्यवस्था, ब्राह्मणवादी पितृसत्ता और शोषण-अन्याय के सभी रूपों को चुनौती दी. वर्चस्व, अन्याय, असमानता और दासता का कोई रूप उन्हें स्वीकार नहीं था. उनकी आवेगात्मक अभिव्यक्ति पढ़ने वालों को हिला देती है. तर्क-पद्धति, तेवर और अभिव्यक्ति की शैली के चलते उन्हें यूनेस्को ने 1970 में “दक्षिणी एशिया का सुकरात” कहा था.

पेरियार 1920 से 1925 तक कांग्रेस पार्टी के साथ जुड़े रहे. वह औपचारिक तौर पर 1920 में कांग्रेस पार्टी में शामिल हुए और 1920 और 1924 में वह तत्कालीन मद्रास प्रेसीडेंसी के कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष और 1921 और 1922 में उसके सचिव रहे. इस दौरान उन्होंने गांधी के सशक्त सहयोगी के रूप में काम किया लेकिन कांग्रेस और गांधी के साथ काम करते हुए बहुत जल्दी उन्हें अहसास हो गया कि यह पार्टी और गांधी उत्तर भारतीय आर्य-द्विज मर्दों के वर्चस्व को कायम रखने का उपकरण हैं. उन्होंने कांग्रेसी पार्टी के भीतर काम करने के अपने अनुभवों के बारे में लिखा :

जब मैं तमिलनाडु कांग्रेस पार्टी का अध्यक्ष था, तो मैंने 1925 के सम्मेलन में एक प्रस्ताव प्रस्तुत किया था. उस प्रस्ताव में मैंने जातिविहीन समाज के निर्माण का प्रस्ताव किया था. मेरे मित्र चक्रवर्ती राजगोपालाचारी (राजाजी) ने इसे अस्वीकृत कर दिया था. मैंने यह भी अनुरोध किया था कि कांग्रेस के विभिन्न पक्षों और क्षेत्रों में सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व (वंचित एवं अल्पसंख्यक तबकों के लिए आरक्षण) का पालन किया जाना चाहिए. लेकिन यह प्रस्ताव भी विषय समिति में थिरु वि. का. (एक सम्मानित तमिल विद्वान कल्यानासुन्दरानर) के द्वारा अस्वीकृत कर दिया गया. तब मुझे अपने प्रस्ताव के समर्थन में 30 प्रतिनिधियों के हस्ताक्षर प्राप्त करने के लिए कहा गया था. श्री एस. रामानाथन ने 50 प्रतिनिधियों से हस्ताक्षर प्राप्त कर लिए. तब सर्वश्री सी. राजगोपालाचारी, श्रीनिवास आयंगर, सत्यमूर्ति और अन्य लोगों ने अपना प्रतिरोध दर्ज कराया. उन्हें डर था कि अगर मेरा प्रस्ताव स्वीकार कर लिया गया, तो कांग्रेस खत्म हो जाएगी. बाद में यह प्रस्ताव थिरु वि. का. और डॉ. पी. वरदाराजुलू के द्वारा रोक दिया गया. ब्राह्मण बहुत खुश हुए. इतना ही नहीं, उन्होंने मुझे सम्मेलन में बोलने की इजाजत भी नहीं दी.

पेरियार ने बाद में कांग्रेस के बारे में लिखा, “कांग्रेस पार्टी से अकेले ब्राह्मण और धनी लोग ही लाभ उठा रहे हैं. यह आम आदमी, गरीब आदमी और श्रमिक वर्गों के लिए अच्छा काम नहीं करेगी. यह बात मैं काफी लम्बे समय से कह रहा था.”

कांग्रेस के अध्यक्ष या सचिव के रूप में तमिलनाडु में ब्राह्मणवाद और ब्राह्मणों के वर्चस्व को तोड़ने की हर कोशिश को कांग्रेस पार्टी पर अपना वर्चस्व कायम रखने वाले द्विज मर्दों ने नाकाम कर दिया. इतना ही नहीं, गांधी ने स्पष्ट शब्दों में तमिलनाडु में सार्वजनिक तौर पर वर्ण-व्यवस्था की महानता और ब्राह्मणों की श्रेष्ठता की घोषणा की. भीखू पारेख ने अपनी किताब कोलेनिज्म, ट्रेडिशन एंड रिफॉर्म : एनालिसिस ऑफ गांधी पोलिटिकल डिस्कोर्स में गांधी को उद्धृत करते हुए बताया है कि गांधी ने कहा था, “वर्णाश्रण धर्म अभिशाप नहीं है; बल्कि यह उन बुनियादों में से एक है, जिन पर हिंदू धर्म टिका हुआ है और यह (वर्णाश्रम धर्म) बताता है कि धरती पर जन्म लेने का इंसान का उद्देश्य क्या है? गांधी आगे कहते हैं, “ब्राह्मण हिंदू-धर्म और मानवता के सबसे खूबसूरत फूल हैं.’ वह आगे अपनी बात पर जोर देते हुए कहते हैं, “मुझे इनके (ब्राह्मणों) लिए कुछ करने की जरूरत नहीं है. ये अपनी हिफाजत खुद ही अच्छी तरह कर सकते हैं. ये पहले भी बहुत सारे तूफानों का सामना कर चुके हैं. मुझे गैर-ब्राह्मणों से सिर्फ इतना कहना है कि वे इन फूलों ( ब्राह्मणों) को उनकी खुशबू और चमक के साथ रौंद देने की कोशिश कर रहे हैं.”

पेरियार ने वामपंथियों के साथ मिलकर भी काम किया लेकिन उन्होंने देखा कि वामपंथियों द्वारा जाति, पितृसत्ता और धर्म के गठजोड़ की उपेक्षा की जा रही है. वामपंथियों की वर्ग की यांत्रिक यूरोपीय धारणा, इतिहास की एक रेखीय आर्थिक व्याख्या और जाति, पितृसत्ता, धर्म, राष्ट्रवाद और वर्ग के गठजोड़ को समझ पाने में नाकामी के चलते पेरियार को उनसे भी अपना रास्ता अलग करना पड़ा. पेरियार ने भारत के वामपंथियों के बारे में लिखा, “हमारे देश में साम्यवाद की जितनी भी बातें हो रही हैं, वे बकवास हैं... वे जातिवाद की दुष्टता और प्रतिक्रियावादी गांधी के दुष्प्रचार के कुप्रभावों के प्रति चिंतित नहीं लगते. वे उस राजाजी के प्रति चिंतित नहीं हैं जिनकी चिंता सिर्फ यह है कि ब्राह्मण कैसे सुख से जीवित रहेंगे. वे उस कांग्रेस पार्टी के बारे में चिंतित नहीं हैं, जो वर्णाश्रम धर्म को सही ठहराती है.” बाद में पेरियार ने तमिलनाडु में गैर-ब्राह्मणवाद की अगुवा जस्टिस पार्टी के साथ भी मिलकर काम किया.

जस्टिस पार्टी की स्थापना सन 1916 में (आधुनिक चेन्नई) में हुई थी. तमिलनाडु में द्रविड़ आंदोलन की औपचारिक शुरुआत 1916 में तब हुई, जब जस्टिस पार्टी ने गैर-ब्राह्मण घोषणा-पत्र जारी किया. ब्राह्मणवाद बनाम गैर-ब्राह्मणवाद का संघर्ष ही इस घोषणा-पत्र का मूल स्वर था. मद्रास प्रेसीडेंसी में ब्राह्मणों का वर्चस्व किस कदर था, इसका अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि 1912 में वहां ब्राह्मणों की आबादी सिर्फ 3.2 प्रतिशत थी, जबकि 55 प्रतिशत जिला अधिकारी और 72.2 प्रतिशत जिला जज ब्राह्मण थे. मंदिरों और मठों पर ब्राह्मणों का कब्जा तो था ही जमीन की मिल्कियत भी उन्हीं लोगों के पास थी. 

इस प्रकार तमिल समाज के जीवन के सभी क्षेत्रों में ब्राह्मणों का वर्चस्व था. इस वर्चस्व को तोड़ने के लिेए ब्राह्मण विरोधी आंदोलन शुरू हुआ. 1915-1916 के आस-पास मंझोली जातियों की ओर से सी.एन. मुलियार, टी. एन. नायर और पी. त्यागराज चेट्टी ने जस्टिस आंदोलन की स्थापना की थी. इन मंझोली जातियों में तमिल वल्लाल, मुदलियाल और चेट्टियार प्रमुख थे. इनके साथ ही इसमें तेलुगु रेड्डी, कम्मा, बलीचा नायडू और मलयाली नायर भी शामिल थे. 1920 में मोंटेग-चेम्सफोर्ड सुधारों के अनुसार मद्रास प्रेसीडेंसी में एक द्विशासन प्रणाली बनायी गई जिसमें प्रेसीडेंसी में चुनाव कराने के प्रावधान किए गए. इस चुनाव में जस्टिस पार्टी ने भाग लिया और एक गैर-ब्राह्मणों के नेतृत्व और प्रभुत्व वाली जस्टिस पार्टी सत्ता में आई. इस पार्टी के नेतृत्व में पहली बार तमिलनाडु में 1921 में सरकारी नौकरियों में गैर ब्राह्मणों के लिए आरक्षण लागू हुआ.

लेकिन पेरियार ने देखा कि जस्टिस पार्टी तमिलनाडु में ब्राह्मणों के राजनीतिक वर्चस्व को तोड़कर गैर-ब्राह्मणों के राजनीतिक वर्चस्व को तो कायम करना चाहती है, मगर वर्चस्व और अन्याय के अन्य रूपों के खिलाफ वह चुप रहती है जबकि वह एक ऐसे क्रांतिकारी बदलाव के लिए संघर्ष कर रहे थे जिसमें वर्चस्व और अन्याय के सभी रूपों का खात्मा हो जाए और ऐसी दुनिया का निर्माण हो जहां किसी तरह का अन्याय और शोषण न हो. उन्होंने अपने आंदोलन को आत्मसम्मान-आंदोलन ( सेल्फ रिस्पेक्ट मूवमेंट) नाम दिया. पेरियार ने अपनी पत्रिका ‘कुदी आरसू’ में 20 अक्टूबर 1945 को लिखा कि “देश में बहुत सारे आंदोलन चल रहे हैं... कांग्रेस पार्टी ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ संघर्ष कर रही है. जस्टिस पार्टी ब्राह्मणों के राजनीतिक वर्चस्व के खिलाफ संघर्ष कर रही है. आदि द्रविड़ पार्टी उच्च जातीय हिंदुओं के वर्चस्व के खिलाफ संघर्ष कर रही है और वर्कर्स पार्टी पूंजीपतियों के वर्चस्व के खिलाफ संघर्ष कर रही है. इस तरह हर एक पार्टी का उद्देश्य वर्चस्व के किसी एक रूप का खात्मा करना है. लेकिन, यदि कोई पार्टी वर्चस्व के सभी रूपों के खिलाफ एक साथ संघर्षरत है, तो वह आत्मसम्मान-आंदोलन है.”

पेरियार भारत में चल रहे स्वराज आंदोलन के उद्देश्य के संदर्भ में प्रश्न करते हैं :
हम जोर-शोर से स्वराज की बात कर रहे हैं. क्या स्वराज आप तमिलों के लिए है या उत्तर भारतीयों के लिए है? क्या यह आपके लिए है या पूंजीवादियों के लिए है? क्या स्वराज आपके लिए है या कालाबाजारियों के लिए है? क्या यह मजदूरों के लिए है या उनका खून चूसने वालों के लिए है? अपने आत्मसम्मान-आंदोलन के उद्देश्यों को स्पष्ट करते हुए पेरियार लिखते हैं, “आत्मसम्मान आंदोलन का मकसद उन ताकतों का पता लगाना है, जो हमारी प्रगति में बाधक बनी हुई हैं. यह उन ताकतों का मुकाबला करेगा, जो समाजवाद के खिलाफ काम करती हैं. यह समस्त धार्मिक प्रतिक्रियावादी ताकतों का विरोध करेगा.”

पेरियार का भविष्य की दुनिया का सपना मार्क्स-एंगेल्स के साम्यवाद के सपने से मेल खाता है. अपने लेख ‘भविष्य की दुनिया’ में अपने आदर्श समाज की परिकल्पना प्रस्तुत करते हुए उन्होंने तमिल पुस्तक इनि वारुम उल्लगम में लिखा :

नए विश्व में किसी को कुछ भी चुराने या हड़पने की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी. पवित्र नदियों जैसे कि गंगा के किनारे रहने वाले लोग उसके पानी की चोरी नहीं करेंगे. वे केवल उतना ही पानी लेंगे, जितना उनके लिए आवश्यक है. भविष्य के उपयोग के लिए वे पानी को दूसरों से छिपाकर नहीं रखेंगे. यदि किसी के पास उसकी आवश्यकता की वस्तुएं प्रचुर मात्रा में होंगी, तो वह चोरी के बारे में सोचेगा तक नहीं. इसी प्रकार किसी को झूठ बोलने, धोखा देने या मक्कारी करने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी. क्योंकि, उससे उसे कोई प्राप्ति नहीं हो सकेगी. नशीले पेय किसी को नुकसान नहीं पहुंचाएंगे. न कोई किसी की हत्या करने का ख्याल दिल में लाएगा. वक्त बिताने के नाम पर जुआ खेलने, शर्त लगाने जैसे दुर्व्यसन समाप्त हो जाएंगे. उनके कारण किसी को आर्थिक बरबादी नहीं झेलनी पड़ेगी.’’

इसी किताब में वह आगे लिखते हैं, ‘‘पैसे की खातिर अथवा मजबूरी में किसी को वेश्यावृत्ति के लिए विवश नहीं होना पड़ेगा. स्वाभिमानी समाज में कोई भी दूसरे पर शासन नहीं कर पाएगा. कोई किसी से पक्षपात की उम्मीद नहीं करेगा. ऐसे समाज में जीवन और काम-संबंधों को लेकर लोगों का दृष्टिकोण उदार एवं मानवीय होगा. वे अपने स्वास्थ्य की देखभाल करेंगे. प्रत्येक व्यक्ति में आत्मसम्मान की भावना होगी. स्त्री-पुरुष दोनों एक-दूसरे की भावनाओं का सम्मान करेंगे और किसी का प्रेम बलात् (जबरन) हासिल करने की कोशिश नहीं की जाएगी. स्त्री-दासता के लिए कोई जगह नहीं होगी. पुरुष सत्तात्मकता मिटेगी. दोनों में कोई भी एक-दूसरे पर बल-प्रयोग नहीं करेगा. आने वाले समाज में कहीं कोई वेश्यावृत्ति नहीं रहेगी. “

भविष्य के जिस समाज का सपना पेरियार देखते हैं, उसकी भारत में स्थापना की पहली शर्त वह अंबेडकर की तरह जाति के विनाश को मानते थे. उनका मानना था कि वर्ण-जाति की रक्षा के लिए हिंदू-धर्म की स्थापना की गई. वर्ण-जाति की रक्षा के लिए जन्म लेने वाले ईश्वरों को गढ़ा गया है और मनुस्मृति, रामायण, गीता और पुराणों की रचना की गई है. उन्होंने लिखा, “इस जाति-व्यवस्था ने भारतीय समाज को जड़ और बर्बर समाज में तब्दील कर दिया है.” 1959 में उन्होंने लिखा, “हमारे देश में जाति के विनाश का मतलब है- भगवान, धर्म, शास्त्र और ब्राह्मणों (ब्राह्मणवाद) का विनाश. जाति तभी खत्म हो सकती है, जब ये चारों भी खत्म हो जाएं. यदि इसमें से एक भी बना रहता है, तो जाति का विनाश नहीं हो सकता.”

लेकिन ब्राह्मणों के खात्मे से उनका सीधा मतलब ब्राह्मणवाद के खात्मे से है. इस संदर्भ में वह लिखते हैं कि उन्हें “ब्राह्मण-प्रेस द्वारा ब्राह्मण-विरोधी के रूप में चित्रित किया गया है. किन्तु, मैं व्यक्तिगत रूप से किसी भी ब्राह्मण का दुश्मन नहीं हूं. एकमात्र तथ्य यह है कि मैं ब्राहमणवाद का धुर-विरोधी हूं. मैंने कभी नहीं कहा कि ब्राह्मणों को खत्म किया जाना चाहिए.”

पेरियार ने गैर-द्विजों और महिलाओं से आह्वान किया कि वे “उस ईश्वर को नष्ट कर दें, जो तुम्हें शूद्र कहता है. उन पुराणों और महाकाव्यों को नष्ट कर दो, जो हिंदू ईश्वर को सशक्त बनाते हैं”.
पेरियार धर्म को प्रभुत्व और अन्याय का पोषक मानते हैं. वह सभी धर्मों को खारिज करते हुए विज्ञान और बुद्धिवाद का समर्थन करते. वह धर्माचार्यों और विज्ञान के समर्थक बुद्धिवादियों की तुलना करते हुए लिखते हैं, “धर्माचार्य सोचते हैं कि परंपरा-प्रदत्त ज्ञान ही एकमात्र ज्ञान है; उसमें कोई भी सुधार संभव नहीं है. अतीत को लेकर जो पूर्वाग्रह और धारणाएं प्रचलित हैं, वे उसमें किसी भी प्रकार के बदलाव के लिए तैयार नहीं होते.”

पेरियार ने गैर-द्विजों और महिलाओं से आह्वान किया कि वे “उस ईश्वर को नष्ट कर दें, जो तुम्हें शूद्र कहता है. उन पुराणों और महाकाव्यों को नष्ट कर दो, जो हिंदू ईश्वर को सशक्त बनाते हैं.” उनका मानना था कि “हिंदू-धर्म और जाति-व्यवस्था नौकर और मालिक का सिद्धांत स्थापित करते हैं.”

पेरियार ने ऐसा केवल कहा नहीं, बल्कि अपने अनुयायियों के साथ ऐसा किया भी. उन्होंने मनुस्मृति और रामायण को जलाया. रामायण की हकीकत को सामने लाने के लिए उन्होंने रामायण का एक मुकम्मल पाठ ‘रामायण पादीरंगल’ प्रस्तुत किया जो 1959 में अंग्रेजी भाषा में में ‘द रामायण : अ ट्रू रीडिंग’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ. इसका हिंदी अनुवाद 1968 में ‘सच्ची रामायण’ के नाम से ललई सिंह यादव ‘पेरियार’ ने प्रकाशित किया; जिसका अनुवाद राम आधार ने किया था.

पेरियार की नजर में रामायण कोई धार्मिक किताब नहीं है. यह एक राजनीतिक ग्रंथ है; जिसका उद्देश्य आर्यों का अनार्यों पर, ब्राह्मणों का गैर-ब्राह्मणों पर, पुरुषों का महिलाओं पर वर्चस्व और वर्चस्व के अन्य रूपों को न्यायसंगत ठहराना है. सच्ची रामायण की भूमिका में पेरियार लिखते हैं, “इनके मूल आख्यानों का सावधानी से विश्लेषणात्मक अध्ययन किया जाए, तो पता चलता है कि जो भी घटनाएं हुईं, वे असभ्य और बर्बर थीं  _” और इनकी कथाओं को इस तरह से लिखा गया है कि ब्राह्मण दूसरों की नजर में महान दिखें; महिलाओं को दबाया जा सके और उनको दासी बनाया जा सके. इनका उद्देश्य उनकी रूढ़ियों और मनु की संहिता को समाज में लागू कराना है.”

पेरियार पितृसत्ता के मूल ढांचे को सीधी चुनौती देते हैं. पेरियार की क्रांतिकारी प्रगतिशील सोच सबसे ज्यादा उनके स्त्री संबंधी चिंतन में सामने आती है. पेरियार महिलाओं की ‘पवित्रता’ या स्त्रीत्व की दमनकारी अवधारणा के कटु-विरोधी थे. उनका कहना था कि “यह मान्यता कि केवल महिलाओं के लिए पवित्रता आवश्यक है, पुरुषों के लिए नहीं; इस विचार पर आधारित है कि महिलाएं पुरुषों की संपत्ति हैं. यह मान्यता वर्तमान में महिलाओं को निकृष्ट दर्जे का साबित करने की द्योतक है.” पेरियार महिलाओं के शिक्षा प्राप्त करने, काम करने, अपने ढंग से जीने और प्यार करने के अधिकार के जबरदस्त समर्थक थे.

इस मुद्दे पर उनके विचार इतने क्रांतिकारी थे कि द्रविड़ कड़गम के उनके कई घोर समर्थकों को भी वे रास नहीं आए और इसलिए पार्टी ने न तो उनका प्रचार किया और न ही उनके अनुरूप आचरण. जैसा कि स्त्रीवादी व पेरियार के विचारों की अध्येता वी. गीता ने हाल में 19वीं सदी की समाज-सुधारक सावित्रीबाई फुले की स्मृति में आयोजित एक परिचर्चा में भाग लेते हुए कहा- ‘‘पेरियार के क्रांतिकारी विचारों को दरकिनार कर उन्हें केवल आरक्षण, भौंडे नास्तिकवाद और कटु ब्राह्मण-विरोध के प्रतिपादक के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है और जाति, ऊंच-नीच, लिंग व सेक्स आदि से जुड़े प्रश्नों पर उनके विचारों को मानो किसी अलमारी में बंद करके भुला दिया गया है.”

श्रम और पूंजी के संघर्ष में पेरियार श्रमिक वर्ग के साथ खड़े होते हैं. वह साफ शब्दों में लिखते हैं कि “यह श्रमिक ही है, जो विश्व में सब कुछ बनाता है. लेकिन, यह श्रमिक ही चिंताओं, कठिनाइयों और दुःखों से गुजरता है.” पेरियार ने एक ऐसे समाज की कल्पना की जिसमें शोषण और अन्याय का नामो-निशान नहीं होगा. उस दुनिया का खाका खींचते हुए वह लिखते हैं, “एक समय ऐसा आएगा, जब धन-संपदा को सिक्कों में नहीं आंका जाएगा. न सरकार की जरूरत रहेगी. किसी भी मनुष्य को जीने के लिए कठोर परिश्रम नहीं करना पड़ेगा. ऐसा कोई काम नहीं होगा, जिसे ओछा माना जाए या जिसके कारण व्यक्ति को हेय दृष्टि से देखा जाए.”

बर्बर माध्यकालीन मूल्यों और विचारों में जी रहे भारत को पेरियार के दर्शन, चिंतन और विचारों की सख्त जरूरत हैं.

(सिद्धार्थ हिंदी साहित्य में पीएचडी और फारवर्ड प्रेस हिंदी के संपादक हैं.)
जय भीम जय मान्यवर कांशीराम जी

वीरांगना रानी लक्ष्मी बाई-श्याम किशोर बेचैन

रोक सके रानी को रण में ऐसा कोई दिखा नही |
झांसी की रानी के आगे योद्धा कोई टिका नही ||

काशी में जन्मी मर्दानी नाम पड़ा लक्ष्मी बाई |
मोरेपंत पिता कहलाए माता भागीरथी बाई ||
जीते जी दुश्मन के आगे रानी का सर झुका नही |
झांसी की रानी के आगे योद्धा कोई टिका नही ||

बचपन सेवो नानाके संग पढ़ी लिखी खेली खाई |
ब्याह हुआ गंगा धर से तो गंगा धर के घर आई ||
युद्ध कला का कौशल कोई रानी से था बचा नही |
झांसी की रानी के आगे योद्धा कोई टिका नही ||

बचपन मे मां को खोया पति और पुत्र जवानी मे |
फिर भी साहस और पराक्रम बना रहा मर्दानी मे ||
दामोदर को गोद लिया है दीप आस का बुझा नही |
झांसी की रानी के आगे योद्धा कोई टिका नही ||

वारिस को वारिस ना माना राज पाट से दूर किया |
अंग्रेजों ने महल छोड़ कर जाने पे मजबूर किया ||
दूरहुआ मजबूर हुआ पर अटल कारवां रुका नही |
झांसी की रानी के आगे योद्धा कोई टिका नही ||

रणचंडी बन खड़ी हुई तो गद्दारों को भी मारा |
अंग्रेजों से खूब लड़ी और हत्यारों को भी मारा ||
जिसपे तेग उठी रानी की वोतो फिर है उठा नही |
झांसी की रानी के आगे योद्धा कोई टिका नही ||

एक जगाह जब रानी का घोडा आके ठहर गया |
तभी जोर का एक वार रानी के सरपे उतर गया ||
वैसे वो हत्यारा जिंदा कहीं किसी को दिखा नही |
झांसी की रानी के आगे योद्धा कोई टिका नही ||

लेआए हैं साथी घायल झांसी वाली रानी को |
लेकिन बचा नही पाए बेचैन वीर मर्दानी को ||
जैसे वो मिट गई देश पर ऐसे कोई मिटा नही |
झांसी की रानी के आगे योद्धा कोई टिका नही ||

कवि श्याम किशोर बेचैन 
संकटा देवी बैंड मार्केट लखीमपुर खीरी

नन्दी लाल की ग़ज़ल

ग़ज़ल


गया जो कुछ गया   ईमानदारी में गया बाबा।
बचा जो इश्क की  दूकानदारी में गया बाबा।।

चुकानी पड़ रही है एक बोसे की बड़ी कीमत,
हमारा माल लाखों का  उधारी में गया बाबा।।

मिला था प्रेम से जो कुछ उसे मिल बाँट खाना था,
भतीजा तो चचा की  होशियारी में गया बाबा।।

हमेशा रात में महबूब      की सूरत नजर आई ,
बचा जो दिन सितारों की शुमारी में गया बाबा।।

बताकर हक मोहब्बत माँगने फिर घर चले आए,
मिला था वक्त खुद की ताजदारी में गया बाबा।।

अँधेरों में बहकता इसलिए  इतना उजाला जो,
बड़ों का तेल छोटो की   दियारी में गया बाबा।।

   नन्दी लाल 
गोला गोकर्णनाथ खीरी

Saturday, November 20, 2021

एक सपना जो सच नहीं था पर सच था- हर्ष अवस्थी

उस दिन तो हद् ही हो गयी भई ! मैं स्कूल से घर लौट रहा था अचानक बारिश हो गयी तो मैं भीग गया , घर आया। " अरे बेटा भीग गए ? कपड़े बदल लो नही तो ठंड लग जाएगी" आप भी समझ गए होंगे यह माँ की आवाज़ होगी । "बेटे रिजल्ट कैसा आया" यह बात तो पापा ही पूछते हैं । मैंने जवाब दिया " अरे हाँ आज तो रिजल्ट मिला था , बैग में हैं अभी देता हूं ये लीजिये "।" तुम इतने कम नंबर लाये हो कमभखत , क्या सपना है तुम्हारा, क्या करोगे जीवन में कोई नौकरी नही देगा " ।
क्या यार कल पापा ने डांट दिया " उफ ! मेरा जीवन है , मुझे कोई नही समझता मम्मी पापा भी नही "। खुद से कहा मैंने।
आज जब स्कूल की छुट्टी हुई तो घर जाते वक़्त सोच रहा था कि मेरा सपना क्या है बनने का सोचा कवि बन जाऊं , उफ ।
अगले दिन सुबह पापा बोले " बेटा क्या सपना है तेरा कुछ बनने का या बिगड़ने का'। मैंने मस्त अंदाज़ में जवाब देते हुए कहा " पापा मैंने कुछ सोचा नही हैं मेरा सपना क्या है पर हाँ रोज़ पैदल जाता हूं एक साईकल ही दिला दीजिए "। "ओके  कल दिला दूंगा , अपना सपना चुनो बेटा " पापा ने कहा ।
अगले दिन मैं स्कूल से लौट रहा था । सोचा कि आज अपना सपना बता दू पापा मम्मी को शायद  गुस्सा हो जाएंगे। अपने मुहल्ले में घुसते ही लोग मुझसे पूछने लगे " भाई बहुत बुरा हुआ तुम्हारे साथ "। मैंने सोचा कि अभी तक तो सपना बताया नही उनको कैसे पता चल गया " क्यों क्या हो गया ? "  मैं घर मे गया और जो मैंने देखा वो बहोत खौफनाक था , मैंने दो लाशें देखी  जिनमे सफेद कपड़ा ढका था । मैं खड़ा था वही ओर बाकी परिजन मेरी ओर देख रहे थे , हवा की गूंज बुलंद थी , मोहल्ले में सन्नाटा था । तभी हवा के झोंके से सफेद कपडे उड़े और वो मेरे माता पिता थे , परिजनों ने बताया सड़क हादसे में मृतियु हो गई। 
" हे राम , हे ईश्वर , ये क्या हो गया मेरे साथ , अब मैं क्या करूँगा इनके बगैर जी के "।
  
फिर एक आवाज़ आई जैसे ट्रैन की गूंज धीमे धीमे करीब अति है " बेटा उठो ! बेटा उठो ! पौने सात बज गया है स्कूल नही जाना क्या " हाँ वो मेरी माँ ही थी जो मुझे आवाज़ लगा रही थी । " अरे ये सब सपना था ? "। हाँ ये सपना है था , एक गहरी नींद। मैं पापा मम्मी के गले लग के स्कूल गया उस दिन और अब न मुझे साईकल चाहिए थी और न हेलीकॉप्टर।
यह तो बहोत अच्छी बात है सपना सच नही होता , पर सच में सच्ची चीज़े सच में होती हैं। एक एक गहरी नींद के सपने ने मेरी आँख खोल दी। मेरा सपना जो कवि बनने का था वो अभी तक बरकरार है।  मुझे याद रहेगा यह , एक सपना ।

                                                           -हर्ष अवस्थी

पढ़िये आज की रचना

चर्चा में झूठी-सुरेश सौरभ

(फिल्म समीक्षा)      एक मां के लिए उसका बेटा चाहे जैसा हो वह राजा बेटा ही होता है, बच्चे कच्ची मिट्टी की तरह होते हैं, जिन्हें हम अपने विचार...

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