साहित्य

  • जन की बात न दबेगी, न छिपेगी, अब छपेगी, लोकतंत्र के सच्चे सिपाही बनिए अपने लिए नहीं, अपने आने वाले कल के लिए, आपका अपना भविष्य जहाँ गर्व से कह सके आप थे तो हम हैं।
  • लखीमपुर-खीरी उ०प्र०
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Friday, December 10, 2021

बलमा-लेखाकृति

कहानी

            बलमा आज से पांच बरिस पहिले गांव के रमेसर चा के साथे बहरा कमाने गया था।रमेसर चा पेपर मील में काम करते थे त बलमा को भी वहीं काम पर रखवा दियें। 
घरे अनकर खेत में बनिहारी करे वाला बलमा, बाबूजी के साथ सालो भर देह झोंके के बाद भी घर की हालत में कोई सुधार न कर पाया था । जी तोड़ मेहनत करे वाला बलमा कभी दु कलम पढ़े पर ध्यान ही न दिया।उ त अब जब गांव से निकल के यहाँ आया है त देख रहा कि और सब लोग तो ओकरे जइसन है बाकी कुछ लोग अलगे झलक रहे।पहनावा,ओढावा, बोली सब कुछ उन्हें भीड़ से अलग कर रहा।
मतलब कौआ के झुंड में हंस जैसा सब झलक रहें।
रमेसर चा भी पढ़ल लिखल न हैं बाकी उनको दूसरा से जादे मतलब न हैं।
ईमानदारी से अपन काम करते हैं जे तनखा मिलता ओकरा में से अपन खर्चा रख के बाकी के पैसा घरे मनी ऑर्डर लगा देते।रमेसर चा को देखके बलमा के मन हुआ कि उ भी कुछ पैसा घरे लगा दें।फिर कुछ सोच के पोस्ट ऑफिस न गया।
उसको तो पढ़े लिखे बाबुओं जैसा बनना था।मतलब उसी तरह के कपड़े,उनके जैसी चाल ढाल आदि।
बस यही सोच वो अपनी कमाई खुद पर खर्च करने लगा।
देखते देखते बलमा एकदम से शहरी बाबू बन गया।हां पैसे से सब कुछ खरीद तो लिया बस एक ही चीज वो न कर सका।
वो था करिवा अक्षर से दोस्ती।
अब मील मजदूर को न तो उतनी फुर्सत ही कि पढ़ाई लिखाई कर सके और न ही घण्टों कमर पीठ सोझ और गर्दन टेढ़ करके पढ़े में बलमा की कभी कोई रुचि ही रही।न तो ई बाइस बरिस तक का ई अइसहीं रहता?
खैर साल भर में तो बलमा अपना हुलिया ही बदल लिया।
जब कभी पहन ओढ़ के निकलता तो अनचके तो उसे कोई पहचान ही न सकता।
झक सफेद कुर्ता,ब्रासलेट की धोती जिसकी खूंट कुर्ता के दायीं जेब में।
भींगे बालों में एक अंजुरी चमेली के तेल डाल जब रगड़ के बाल झटकता तो लगता कि इंद्र भगवान आज इत्र लगाके बरसे वाले हैं।
बालों में तेल अच्छे से जज्ब हो जाने पर दीवार पर टँगी छोटकी ऐनक में देख के कंघी से टेढ़की मांग फाड़ बालों को सटीयाता।कभी कभी तो पानी व तेल के मेल मिलाप के बाद भी चांदी पर के दु चार केश विद्रोह कर उठ खड़ा होता तो ऐसे में बलमा कंघी एक किनारे रख हाथों से ही खड़े बालों को सटीयाने लगता।
धूप रहे चाहे न , बदरी बुनी के आसार भी न हो तब भी बलमा बिन छाता के घर से न निकलता।
आंख पर चश्मा और दायीं कलाई की एच एम टी घड़ी में तो जैसे उसकी जान बसती थी।
अबकी तनखा में चमड़ा के एगो बैग भी खरीदा ई सोच के कि अबकी फगुआ घरे जाएंगे।
फगुआ में घरे जाए में कोई दिक्कत न हो यही से महीना भर पहिलहीं से सब तैयारी में लगल था।माई ला साड़ी, त बाबूजी ला धोती,कुर्ता के कपड़ा,गमछी और एक सुंदर सी साड़ी अपनी अनदेखी पत्नी के लिए जो बियाह में त न आई थी बाकी पांच बरिस पर बाबूजी फगुआ में गौना करा के घरे ले आये हैं।
रमेसर चा के घरे से आवे वाला चिठ्ठी में बलमा के लिए भी ई सन्देश था,
" बाबू बालम को मालूम हो कि समधी साहेब के बेर बेर कहे पर हम कनिया के गौना करा के ले आयल ही ।एहि से बाबू तोरा कहित ही कि फगुआ में जरूर से जरूर घरे चल अइह।"
              मील में छुट्टी तो अभी न हुआ है बाकी बलमा सप्ताह दिन पहिलही से सबके कह दिया था कि अबकी फगुआ उ घरे जा रहा। चार रोज दिन अछते बलमा घरे जायला गाड़ी धर लिया।रेल के सफर में ही दु रोज कट गया। जब टीसन पर उतरा त वहीं नहा धो के तैयार हुआ।परदेश से अपन जगह आयते बलमा का मन भर आया।यहाँ चहुं ओर होली की सुगबुगाहट थी।
अब इहाँ से घरे के बस पकड़ेगा त सांझ-सांझ ला घरे चहुँप ही जायेगा। उबड़ खाबड़ कच्ची राह और बस का सफर दु घण्टा के राह में छः घण्टा लगाएगा।
       बलमा बढ़िया से तैयार होके टीसन से निकला त राह चलते लोग ठहर से गये।
घीया रंग के सिल्क के कुर्ता, सुपर फाइन धोती,उसकी खूंट को दाहिनी जेब के हवाले किये ,दाहिनी कलाई में एच एम टी स्विस घड़ी बांध आंखों पर बिन पावर का चश्मा चढ़ाये एक हाथ में चमड़ा के करिया बैग त दूसरे में छाता थामे बस स्टैंड की ओर बढ़ा।
बस का टिकट ले निश्चिन्त होता तभी अखबार वाला दिखा।कुछ सोच अठन्नी जेब से निकाल एक अखबार खरीदा।
अखबार वाला बलमा के रूप रंग से इतना मोहित हुआ कि वो अंग्रेजी अखबार पकड़ा दिया।
वैसे भी बलमा के लिए का हिन्दी का अंग्रेजी?
सब धन तो बाइस पसेरी तो निर्विकार भाव से अंग्रेजी अखबार लिए बस में सवार हुआ।
अपनी सीट पर अब आराम से बैठ
बैग, छाता सब अच्छे से रख अखबार हाथ में लिया तो भरी बस की नजरें बलमा पर जा टिकी।
कम से कम ई बस जहां तक जाती है उसमें बैठे वाला कभी कोई किसी को अंग्रेजी अखबार पढ़ते तो अब तक न देखा।
बलमा के हाव भाव से लोग स्वतः दूरी बरत रहें।
बलमा में आत्मविश्वास तो बहुत है पर ....
बलमा अखबार खरीद तो लिया बाकी खोलकर पढ़ न रहा,पढ़ना तो वैसे भी न आता बाकी अखबार सीधा पकड़ाया है या उल्टा आखिर ई भी तो कोई बात है?
एक व्यक्ति थोड़ी मित्रता के ख्याल से आगे बढ़ कर पूछा.....
भाई जी कोई खास समाचार?
बलमा चश्मा के अंदर से झांक देखा,बिना प्रत्युत्तर अखबार उसकी ओर बढ़ा दिया।
पूछने वाला बिना अखबार लिए वापिस अपनी जगह जा बैठा।
बस हिचकोले खाती अपनी सफर पूरा की।सब लोग बस से उतर अपनी अपनी राह चले।बलमा को घर तक पहुंचने में करीब पांच कोस की दूरी तय करनी अब भी शेष थी। कलई में बंधी घड़ी से ज्यादा भरोसा बलमा ढलती दिन से अंदाजा लगा रहा कि शाम के चार बजे गए होंगे।
गांव तक जाने का रास्ता तो दो, तीन है।एक रास्ता नदी के किनारे किनारे से होकर है बलमा घर पहुंचने की जल्दी में आज उसे ही चुना।
हाँ रास्ते में छोटा मोटा बाजार भी मिला।जहां होली के सर सौदा लेते लोग बाग से बाजार गुलजार दिखा।कहीं बच्चा पिचकारी के लिए दादा से जिद कर रहा, तो कोई अपन पसन्द के कमीज न खरीदाय पर माई के अंगूरी छोड़ वहीं लोट पोट हो रहा । कहीं दुकान पर रेडियो बज रहा जिसमें होली के गीत सुन बलमा का मन मिजाज भी रंगीन हो रहा।
        भीड़ भरे बाजार से बलमा निकल पाता तभी पास के गांव की रघुआ की नजर उस पर पड़ी।
रघुआ कुछ सोच, भाग कर अपने मालिक के पास पहुंचा।उसको इस तरह हाँफते देख .....
का रे !!
हाँफइत काहेला हे?
रघुआ सुख चुके गले से थूक घोटते हुए....
मालिक !!
मालिक!!
उ पहुना !!!
मालिक घुड़कते हुए....
का कहित हे रे?
आजे से का चढ़ गेलउ?
रघुआ अपने गले में पड़ी कंठी पकड़ ....
ना मालिक सच्चो!!
पहुना आवित हथन!!
अभी त बाजरे में हथन!!
मालिक राम जतन बाबू जो अपनी बेटी का ब्याह चार बरिस पहिले तो किये हैं बाकी अभी गौना न किये हैं,यही अगहन करेला सोच रहे थे।
अब पहुना फगुआ में बिन गौने आ जाएंगे ई त कभी सोचबे न किये थे।
बिन गौने ससुरारी में कोई पहुना आवे त ई भारी शिकायत के बात हे।उ भी राम जतन बाबू जइसन रसूख वाला ही।
राम जतन बाबू....
देख रघुआ अभी कोई से हल्ला न करीहें न त तोरा....
रघुआ मुड़ी नीचे किये...
न मालिक!
रामजतन बाबू हलकान परेशान से जनानी किता में गयें।
असमय घर आये रामजतन बाबू को देख पत्नी गौरी भी हड़बड़ाई सी सम्मुख हुई।
गौरी......
का होएल?
रामजतन बाबू ड्योढ़ी लांघ अंदर कमरे में आये।पीछे पीछे गौरी भी कपार पर आँचरा सम्हारती आई।

रामजतन बाबू.....
सुन!!
पहुना आवित हथन!!
अभी रघुवा देख के आवित हे!!
गौरी को भी कुछ न समझ आ रहा।
इज्जत के बात हे ,का कयल जाय।
फिर दोनों पति-पत्नी आपसी मन्त्रणा के बाद पहुना के स्वागत की तैयारी में जुट जाते हैं।
हाँ ख्याल इस बात का भी है कि बात बाहर न जाय इसलिए तय किया गया कि, जब पहुना बाजार पार करके आगे बढ़े और तनी धुंधलका हो जाय त दु आदमी भेजके बोलवा लेंगे आउर उ इहहिं जनानी किता में ही रहेंगे।
फगुआ का गहमागहमी था ही इसलिए थोड़ा और बदलाव ज्यादा किसी का ध्यान न खींचा।यहाँ तक कि रामजतन बाबू की इकलौती बेटी चन्द्रज्योति भी ई सब से अनजान थी।
वो तो सखियों संग होली के हुड़दंग की तैयारी में लगी थी।
इधर बलमा को भीड़ भरे बाजार से निकलते निकलते शाम का धुंधलका बढ़ने लगा।बलमा बैग में रखा टॉर्च निकालने सोच ही रहा था तभी पीछे से टॉर्च की रौशनी और किसी के कदमों की आहट से वो पीछे मुड़ा तो देखा कि,
दो आदमी हाथ में लाठी व टॉर्च लिए 
करीब आ रहे है।
बलमा कोई निर्णय ले पाता तब तक दोनों करीब आ उसके हाथ से छाता व बैग ले लिया।बलमा की घिघ्घी बन्ध गई।
वो गूंगा सा उनके पीछे पीछे चलने लगा।
थोड़ी देर के बाद बलमा किसी हवेलीनुमा घर के बाहर खड़ा था।पहले से तय योजनानुसार बलमा को हवेली के पीछे वाले दरवाजे से जनानी कित्ता में पहुंचा दिया गया।जहाँ पहले से ही कुछ महिलाएं पहुना के स्वागत में थी।
बलमा किससे क्या कहे तय न कर पा रहा?
जब तक मुंह खोलने सोचता कोई न कोई हंस कर उसे चुप करा देता।
अब तक चन्द्रज्योति को भी माँ से पता चल गया कि वो बिन गौने आ गए हैं....
चन्द्रज्योति के गुस्से का ठिकाना नहीं पर माँ उसे समझा बुझा के शांत की।
होली के रंग की खुशी जो उसके चेहरे पर चढ़ी भी न थी पल भर में उतर गई। 
उधर बलमा का स्वागत घर की पहुना की तरह हुआ।
कोई जूता खोलने में मदद कर रहा तो कोई परात में गोड़ धो रहा।
चन्द्रज्योति के कमरे को बढ़िया से बर बिछौना लगा के बलमा को वहीं पहुंचा दिया गया।
फागुन बीत रहा था दिन में गर्मी त रात थोड़ी ठंढी सिहरन भरी।बलमा को अब डर लगने लगा।कुछ बोलने की हिम्मत ही न जुटा पा रहा कि का पता असलियत जनला पर सब का करेगा?
बस मने मन गोरिया बाबा को मनौती भख रहा कि यहाँ से सही सलामत घरे चहुँप जाएंगे त ई होली में कबूतर चढ़ाएंगे।
बलमा के स्वागत सत्कार में कोई कमी न रखी गई।एक से बढ़कर एक मर मिठाई परोसा गया।बलमा तो डरे किसी चीज को हाथ भी न लगा रहा। जब तक नाश्ता को बलमा भर नजर देखता तब ला अगजा का बरी, बचका, कचरी पकौड़ी सब बलमा के सामने धरा गया।
बलमा को न खाते देख रिश्ते की सरहजें चुटकी भी ली....
खा ला पहुना!!
चन्द्रज्योति खियात्थु तब्बे का खयबअ?
अब ई नाम सुनकर बलमा का तो खून ही सुख गया।
डर के मारे उ क्या खाया उसे कुछ न पता न स्वाद न रंग।बस गटागट गिलास भर पानी पी गया।
सब हंसने लगीं।बलमा को कोई हाथ धोने तक न उठने दिया।सब कुछ सामने हाजिर।
बलमा का छाता व बैग कमरे में पहुंचा दिया गया। सरहजें बलमा को खाना पीना करवा आराम करने कह किवाड़ भिड़ा चली गई।
अभी तक बलमा जो कुर्सी पर बैठा था उसको हिम्मत न हो रही कि वो इस राजसी पलँग पर जाकर लेट जाय।
बहुत देर तक यूँ ही बैठा यहाँ से निकलने की जुगत भिड़ाता रहा।तत्काल तो कोई रास्ता न सूझ रहा ऊपर से सफर की थकान।नींद से हार वो पलँग के एक किनारे सहम कर पड़ गया।पड़े पड़े आहटों से अंदाजा लगाता रहा कि लोग अभी जगे हैं।
उधर चन्द्रज्योति को कितना कहने पर भी वो उस कमरे में जाने को तैयार नहीं।
गौरी को खराब भी लग रहा कि पहुना एक तो बिन गौने फगुआ में आयलन हे!
आउर ई लड़की बात न समझइत हे!
आखिर पहुना का सोचतन?
चन्द्रज्योति की रिश्ते की भौजाइयाँ जो अब तक बलमा की खातिरदारी में लगी थी....
वो चुहलबाजी कर करके रोती, ठुनकती चन्द्रज्योति को हंसा कर ही दम ली।
घर के पुरुष सब आगजा में शामिल होने गए थे। 
इधर बलमा सब से बेखबर नींद की पहलू में।
भौजाइयाँ चुहल करती चन्द्रज्योति को तैयार करने में लगी थी।
चन्द्रज्योति के नखरे उसके श्रृंगार को और भी निखार रहे।
अंततः पूनम की रात और चन्द्रज्योति का श्रृंगार।
चाँदनी भी उसकी खिड़की से झाँक उफ!! बोल गई।
दूर बजती डफ के बोल....

"डफ काहे के बजाय,
ललचाये जियरा ,
डफ काहे के....
डफवा के बोली,
महलिया तक जाय...."

चन्द्रज्योति का मन तो गुस्से से भरा ही था पर अब दिल की धड़कन बढ़ गई।
भौजाइयाँ कुछ जबरन सी उसे उसके कमरे तक पहुंचा ही दीं।
चन्द्रज्योति अब भी दरवाजे पर खड़ी थी तभी भौजी हल्के धक्के से उसके कमरे में धकेल दी। इस अचानक हरकत से चन्द्रज्योति तो गिरते गिरते बची पर बलमा का नींद खुल गया।कमरे में लालटेन की मध्यम रौशनी और दरवाजे पर खड़ी रूपसी को देख बलमा का कलेजा रेल (जिससे आज भोरे भोरे उतरा) से भी तेज धड़कने लगा।
चन्द्रज्योति अपने कमरे में ही सहमी सी खड़ी रही इधर बलमा हड़बड़ा कर आंखे और जोर से बंद कर लिया।मन ही मन गोरिया बाबा और फगुआ में कबूतर की भखौती को दुहराता रहा।
चन्द्रज्योति भी कोई पहल न कर वहीं दीवार की ओट लिए बैठ रही।
बाहर ,ढोल,मंजीरा झाल की गूंज और फगुआ के बोल में चन्द्रज्योति डूबती उतराती रही...
" सेजिया फूलों से कुम्हलानी.....
सेजिया.....
पच्छिम दिशा मोरे जइह नाहीं बालम,
पच्छिम की हवा ना जानी...
घुट-मुट,घुट-मुट बात करत हैं,
एको बात न जानी.....
सेजिया फूलों से कुम्हलानी...

पुरुब दिशा मत जइह मोरे बालम,
पुरुब की नारी स्यानी......
रात सुलाये रंग महल में,
दिन भराये पानी....
सेजिया फूलों से कुम्हलानी....

दक्षिण दिशा मत जइह मोरे बालम,
दक्षिण की हवा न जानी....
दाख, मुनाका, गड़ी छुहाड़ा
ई चारो धर जानी.....
सेजिया फूलों से कुम्हलानी.....

उत्तर दिशा तू जइह मोरे बालम,
उत्तर बहे गंगा धारा....
करी स्नानी,लौट घर अइह..
तीनों लोक तर जानी.....
सेजिया फूलों से कुम्हलानी...

फगुआ के बोल में डूबती उतराती चन्द्रज्योति ई न समझ पाई कि ई जब अइबे किये त अइसे मुंह काहे मोड़ रहें।
खैर कुछो हो उ त न जाएगी।
हाँ यदि उ पास आएं त आज खरी खोटी सुनाने से भी न चुकेगी।
अइसहीं बैठी सोचती उसकी भी आंख लग गई।
बलमा की नींद तो कब की उड़ गई।बहुत देर तक यूँ ही पड़ा रहा। जब उसे किसी की कोई आहट न मिली तब धीरे से आंखे खोला। कमरे में बस किसी की सांसो की आहट ही अब शेष थी।खिड़की से उतरती चांद रात बीतने के संकेत कर गया।बलमा धीरे से बिस्तर से उठा, मेज पर रखा फुलही लोटा उठा दरवाजे की ओर बढ़ा।
दीवार से लग कर बैठी निर्विघ्न सोई चन्द्रज्योति पर भर नजर डालने की हिम्मत भी उसमें न हुई। यहाँ तक कि उसकी धानी गोटेदार साड़ी पर पैर न पड़ जाए इतना बच बचा के डेग बढ़ाता किसी तरह भिड़े दरवाजे को हल्का सा खोल बाहर निकला व दरवाजे को पुनः भिड़ा, नंगे कदमों, दबे पांव, आंगन पार किया।
जैसा उसे अंदाजा था कि कोई न कोई तो जरूर भेटायेगा बस इसलिए फुलही लोटा साथ रख लिया था।
ज्योंहि ड्योढ़ी लांघता घर के बाहर पहरेदारी में लगा आदमी .....
जी मालिक एती घड़ी?
बलमा पेट पकड़ इशारा किया।
वो समझा कि, पहुना के पेट खराब हई ।
बस वो आगे बढ़ कर उसे हवेली नुमा घर से बाहर निकलने में मदद कर दिया।
जब वो सुरक्षित वहाँ से निकल गया तब सर पर पांव रख कर अनजानी दिशा में भागा। घण्टों बदहवाश भागने के बाद फूटती किरण के साथ गांव का सीमाना देख हारे सैनिक सा पछाड़ खाके गिर पड़ा।
सुबह सुबह मर मैदान को निकले लोग इस तरह गिरे पड़े राहगीर को देख पानी का छींटा दे होश में लाये।
बलमा बोलने की स्थिति में न है पर अपने गांव के लोग वर्षो बाद भी अपने लोग को पहचान ही लेते हैं।
बस सब बलमा को उसके घर ले गए ,सबने अंदाजा लगाया कि ई राहजनी का शिकार हुआ है।
घर पर फगुआ के आस में बलमा के घरवाले बेसब्री से इंतजार कर रहे थे।
इस तरह थके हारे बलमा को देख बाबूजी सीने से लगा कलप उठे। अइसे बदहवास घर आये बेटा को देख मइया भी रोवे लगी।नयकी कनिया बस मन ही मन खुश है कि उ घरे आ गयें।
वहाँ सुबह होली के हुड़दंग से चन्द्रज्योति की नींद टूटी तो कमरे में कोई न था।बैग व छाता वैसे ही पड़ा था।
रामजतन बाबू,गौरी कोई भी न समझ पाएं कि पहुना कहाँ चल गयें।
गौरी तो चन्द्रज्योति को ही घूर कर देखी कि यही कुछ कहलक हे पहुना के।
खैर पहुना का बैग खुला ,जिसमें सबके पसन्द के कपड़े थे।जिसे सबने सहज स्वीकार किया।बस मलाल रहा कि पहुना बिन कहले काहे चल गयें।।
-लेखा कृति

पढ़िये आज की रचना

चर्चा में झूठी-सुरेश सौरभ

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