साहित्य

  • जन की बात न दबेगी, न छिपेगी, अब छपेगी, लोकतंत्र के सच्चे सिपाही बनिए अपने लिए नहीं, अपने आने वाले कल के लिए, आपका अपना भविष्य जहाँ गर्व से कह सके आप थे तो हम हैं।
  • लखीमपुर-खीरी उ०प्र०

Tuesday, June 15, 2021

भीमराव थे बड़े महान-रमाकान्त चौधरी

 बाल-कविता  

बना गए भारत का संविधान।

भीमराव  थे     बड़े     महान। 

 

दीनजनों   के   थे रखवाले । 

समता का पाठ पढ़ाने वाले। 

शोषित   पीड़ित   वंचित को

उनका अधिकार दिलाने वाले। 

 

करके गए सब का उत्थान। 

भीमराव  थे  बड़े     महान। 

 

खूब  किताबें  पढ़ते  थे   वो। 

कलम से केवल लड़ते थे वो।

झुकना  कभी    सीखा था

ना  ही  किसी से डरते थे वो। 

 

उनको जाने सकल जहान। 

भीमराव  थे  बड़े    महान। 

 

शिक्षा का अधिकार दिलाया। 

नारी  को  सम्मान    दिलाया। 

जाति-पाति का भेद मिटाकर

मिलजुलकर जीना सिखलाया। 

 

सब   मिल करो उन्हें प्रणाम। 

भीमराव  थे     बड़े   महान। 

रमाकान्त चौधरी





पता-गोला गोकर्णनाथ जिला-खीरी

ग़ज़ल-अरविन्द असर

अरविन्द असर
अदालत में चलती है झूठी गवाही,

वहां  काम  आती   नहीं  बेगुनाही।

 अभी आने वाले हैं  ज़िल्लेइलाही,

अभी बंद है इस जगह आवाजाही।

 वो धुन का है पक्का लगन का है सच्चा,

चला जा रहा है अकेले जो राही।

 ज़रा सा ही है वो जरासीम लेकिन,

मचा दी है जिसने जहां में तबाही।

जो ख़ूं बन के बहती है सबकी रगो में,

कभी ख़त्म होती नहीं वो सियाही।

 तुम्हारी ज़बां और कुछ कह रही है,

"नज़र और कुछ दे  रही है गवाही।"

 वज़ीर, ऊंट, हाथी तो रहते हैं पीछे,

कि मरता है पहले हमेशा सिपाही।

 ये देखा है मैंने , है फ्रिज, जिन घरों में,

घड़ा  भी  नहीं  है  नहीं  है  सुराही।

 "असर" मेरे दिल में भी चाहत बसी है,

कि ग़ज़लों को मेरी मिले वाहवाही।

पता-D-2/10 ,रेडियो कालोनी,

किंग्स्वे कैम्पदिल्ली-110009

pH no.9871329522, 8700678915

सचमुच ‘अवतार पुरूष’ ही थे ‘जिओना चाना’-अजय बोकिल

पारिवारिक मशला

अजय बोकिल
किसी के मरने के बाद जीते जी उसकी उपलब्धियों और अच्छे कामों को याद करने का सुंदर लोकाचार है। मिजोरम राज्य के मरहूम जिओना चाना को दुनिया ने इसलिए याद किया कि वो दुनिया के विशालतम परिवार के मुखिया थे और अपने पीछे 38 पत्नियां, 94 बच्चे, 14 बहुएं, 26 दामाद, 33 पोते-पोती व 1 पड़पोते को छोड़ गए हैं। अपनी 76 साला जिंदगी में चाना इतनी बीवियों और बच्चों को सुकून के साथ कैसे मैनेजकरते रहे, यह अपने आप में स्वतंत्र अध्ययन और शोध का विषय है। वरना एक आम इंसान एक बीवी और दो-चार ( आजकल तो एक-दो ही) बच्चों को संभालते- संभालते बाल सफेद कर बैठता है। उसके बाद भी उसके हिस्से में एहसान फरामोशी ही आती है। इस मायने में जिओना चाना को अवतार पुरूषही मानना चाहिए, क्योंकि बिना झगड़े-झांसे और चुगली-चकारी के तीन दर्जन बीवियां एक ही घर में सखी-सहेली की रहती रहीं और बच्चे भी ( जिनकी तादाद आठ क्रिकेट टीमों से भी ज्यादा है) राम लखन की तरह रहते आए हैं तो यह पृथ्वी पर अपने आप में एक चमत्कार ही है। चाना का महाप्रयाण भी किसी पारिवारिक कलह या टेंशन के कारण नहीं बल्कि डायबिटीज और ब्लड प्रेशर जैसी आम बीमारियों से हुआ। चाना व्यवसाय क्या करते थे, यह सवाल अपने आप में गौण है, क्योंकि होम मैनेजमेंटका फुल टाइम जाॅब उनके पास रहा होगा। आज के जमाने में जब मियां-बीवी लंबे समय तक साथ रह लें तो भी गनीमत है, ऐसे में चाना ने साठ दशक इतनी बीवी-बच्चो के साथ नंदनवन की नाई बिताए, यह अहसास भी किसी शादीशुदा पुरूष को ‍आत्मिक आनंद देने वाला है। भले ही यह हिमालयी कामयाबी हासिल करना उसके लिए लगभग नामुमकिन हो। शायद यही कारण रहा कि मिजोरम के सुरम्य प्राकृतिक वादियों में बना चाना का सौ कमरों वाला चार मंजिला घर पर्यटकों के कौतुहल और आश्चर्य का केन्द्र रहा है। गृह कलह के मारों के लिए तो वह तीर्थस्थल जैसा है। हालांकि चाना के जाने के बाद इस महापरिवार जिसकी कुल संख्या कौरवों की तादाद से भी डेढ़ गुनी है, क्या होगा, यह दिलचस्पी का विषय बना हेगा। 

 

पुरूषार्थी जिओना चाना के दुखद निधन और उनकी 38 पत्नियों के एक साथ विधवा होने की खबर पढ़ते ही मन में सवाल उठा कि पृथ्वी पर ऐसा चुनौतीभरा स्वर्ग है कहां? बता दें कि यह चाना परिवार मिजोरम के पहाड़ी गांव बकत्वांग तलंगनुमा में रहता है, जो राजधानी आइजोल से करीब दो घंटे की दूरी पर है। कहते हैं कि जिओना चाना की पहली शादी 17 की उम्र में उनसे तीन साल बड़ी लड़की से हुई थी। इसके बाद दस शादियां तो जिओना ने एक साल में ही निपटा दी थीं। बाकी की 27 शादियां कितने अंतराल से हुईं, यह स्पष्ट नहीं है, लेकिन उनकी 22 बीवियो की उम्र 40 से कम है। जीते जी हर वक्त 6-7 बीवियां जिओना की सेवा मे रहती थीं। दावा है कि इतनी बीवियां एक छत के नीचे रहने के बाद भी कभी सौतिया डाह या गृह कलह नहीं हुआ। जो घर चाना ने बनाया, उसे नाम दिया छौन थार रूनयानी नई पीढ़ी का घर।पूरा चाना महापरिवार खेती-किसानी करता है। रसोई बोले तो इस परिवार में रोजाना 45 किलो चावल, 25 किलो दाल, 20 किलो फल, 30 से 40 मुर्गे और 50 अंडों की खपत होती है। 

 

यहां सवाल उठ सकता है कि क्या पहले की पत्नियों ने चाना की हर नई शादी पर कभी कोई ऐतराज नहीं किया? तो इसका जवाब यह है कि जिओना जिस आदिवासी समुदाय से आते हैं, वहां बहुपत्नी प्रथा समाजमान्य है। चाना परिवार ईसाई धर्म को मानता है। हालांकि ईसाइयत में बहुपत्नी प्रथा को अच्छा नहीं माना जाता। लेकिन इस परंपरा को जायज ठहराने के लिए स्वर्गीय जिओना के दादा खुआंगतुआ ने एक नए सम्प्रदाय की स्थापना की। इसे चाना पाॅलया चाना छौनथरसम्प्रदाय कहा जाता है। अपने समाज की बहुविवाह को धार्मिक मान्यता दिलाने के लिए उन्होंने बाइबल के अध्याय 20 का हवाला दिया। जिसमे जीसस के पृथ्वी पर 1000 वषों के शासन का उल्लेख है। बकत्वांग के गांव के चार सौ परिवार इसी ईसाई सम्प्रदाय के अनुयायी हैं।‍ जिओना इस सम्प्रदाय के मुखिया भी थे। यह सम्प्रदाय हर साल 12 जून को बावक्ते कुत’ ( स्था पना दिवस) मनाता है।  

वैसे भी इतनी पत्नियां और बच्चे एक साथ रखना और उन्हें सुकून के साथ पालना किसी दैवी शक्ति वाले पुरूष का ही काम हो सकता है। इतिहास और पुराणों में ऐसे कुछ उदाहरण मिलते हैं। कहते हैं कि राजा सोलोमन की 700 पत्नियां और 300 रखैलें थीं तो मंगोल शासक चंगेज खान ( बहुत से लोग खानशब्द से उसे मुस्लिम समझ बैठते हैं। वह स्थानीय तेनग्रीज धर्म को मानता था। जिसमे आकाश को देवता के रूप में पूजा जाता है। मंगोल भाषा में खान का अर्थ होता है शासक) की 14 अधिकृत बीवियां थीं और रखैलों का तो कोई हिसाब ही नहीं था। हाल में ‍िकसी खोजी इतिहासकार ने हमे बताया था कि चंगेज के वशंज दुनिया के कई देशों में फैले हुए हैं। हिंदू धर्म में भी कई देवताओं की एक से अधिक पत्नियां बताई गई हैं। लीला पुरूषोत्तम कृष्ण की 16108 हजार पत्नियों की कथा है, लेकिन वो प्रतीकात्मक थीं। कृष्ण की अधिकृत तौर पर आठ पत्नियां ही थीं।

 

खैर, मुद्दा यह है कि आज के जमाने में जब बहुपत्नी प्रथा (कई मुस्लिम देशों में भी अब इस पर कानूनन रोक है) कुछ आदिम समाजों में ही बची है, तब मिजोरम का यह बंदा इतने विशाल परिवार को एक छत के ‍नीचे बिना‍ किसी तनाव के कैसे मैनेजकरता रहा ? यह भी अपने आप में चमत्कार और व्यक्ति के तौर पर चाना की सभी पत्नियों के संयम और सौहार्द की पराकाष्ठा है। वरना कई आदिवासी समाजों में भी दूसरी बीवीलाने पर पहली बगावत कर बैठती है। 

समाजशास्त्र की दृष्टि से देखें तो बहुपत्नी प्रथा के लाभ और नुकसान दोनो हैं। पहला लाभ तो यह है कि इतनी बीवियों के रहते ‘ ‘हर दिन नया दिन, हर रात नई रातहो सकती है। दूसरे, मंगल कार्य के वक्त मेहमानों को बुलाने की गरज नहीं रहती और न ही वक्त काटना कोई समस्या हो सकती है। इतना ही नहीं, चुनाव में वोट मांगने किसी के आगे हाथ फैलाने की जरूरत नहीं है। चाना भी किसी राजनीतिक पार्टी से जुड़े हुए थे। 

 

नुकसान यह है कि अगर परिवार की आमदनी पर्याप्त न हुई तो रोज टंटा होने का खतरा है। घर में एक रेफरी की दरकार हर वक्त हो सकती है। अगर चाना के बीवी-बच्चों ने लड़ना-झगड़ना सीखा ही नहीं है तो यह जंगल के शेर का चिडि़याघर के शेर में ह्रदय परिवर्तन जैसा है। अगर बापू को ऐसे किसी परिवार की जानकारी होती तो वो उसे ही अपना आश्रम घोषित करने में देरी नहीं करते। क्योंकि यह तो वसुधैव कुटुम्बकम्का साक्षात रूप ही है। अलबत्ता दिवंगत चाना घर की इतनी भीड़ में एकांतकैसे खोजते होंगे, इस पर गहन शोध जरूरी है। वैसे जमाने में चाना जैसा महापरिवार किसी जंगल में ही संभव है। वरना आजकल तो किसी टू बीएचके में पांचवां शख्स भी भीड़की माफिक लगने लगता है। अक्सर मंच से बीवियों पर तंज करने वाले हिंदी कवि भी अगर एक बार चाना परिवार की विजिट कर लें तो हास्य कविता के बजाए गोकुल पुराण लिखने बैठ जाएं। इतना बड़ा परिवार सुकून के साथ पालना भी गिनीज बुक आॅफ रिकार्ड्समें जगह पाने का निमित्त बन सकता है, यह चाना ने हमे बताया। या यूं कहें कि आज जब हर मामले में एक देश, एक हर कुछका हर तरफ आग्रह है, तब चाना एक छत-एक महापरिवारका आदर्श बहुत पहले सामने रख चुके थे। यह बात अलग है कि चाना से इतर ज्यादातर परिवारों में ज्यादातर पति अपनी इकलौती बीवी के आगे भी भीगी बिल्ली बने रहते हैं। और अपनी इस दुर्दशा को सार्वजनिक करने से भी डरते हैं। मशहूर शायर अकबर इलाहाबादी बहुत पहले कह गए थे- अकबर दबे नहीं किसी सुल्तां की फौज से, लेकिन शहीद हो गए बीवी की नौज से। ऐसे पतियों के लिए दिवंगत जिओना का चरित्र हमेशा साहस का संबल बना रहेगा!

(वरिष्ठ संपादक दैनिक सुबह सवेरे मप्र-9893699939)

ये जिन्दगी, तूं हौसला दे जरा-प्रीती

साहित्य के नवांकुर

प्रीती

मेरी खामोशी के इस पहलू में,

ये जिन्दगी तूं साथ दे जरा।

इन तानों कि बेड़ियों से,

हर रोज गुजरती हूँ यहां-

होता है खामोसी का मनहूस पल,

ये जिन्दगी, तूं हौसला दे जरा ।

ख्वाहिशें है मेरे में, कुछ कर गुजरने की,

मैं हिम्मत हारी हूं न हारूंगी-

क्योंकि तुझमें मैं हूं, मुझमें तूं

ये जिन्दगी, तूं हौसला दे जरा ।

तुझसे मैं, शिकायत करूँ क्या?

हर रोज गिराकर सम्भालती  है,

मंजिल तक जाने की जिद में-

मैं गिरकर उठती हूँ, बस-

ये जिन्दगी, तूं हौसला दे जरा ।

इन कंटक भरे राहों पर-

मैंने खुद को अकेला पाया है,

पर साथ तेरा जो था-

गिरना, उठना फिर चलना,

तुमसे ही तो सीखा है-

ये जिन्दगी, तूं हौसला दे जरा ।

 पता-ग्राम तिवारीपुर पोस्ट अमसिन

जिला-फैजाबाद (अयोध्या), उ०प्र०

कोई तो बचाओ हम ऑक्सीजन उत्सर्जकों को-मधुर कुलश्रेष्ठ

व्यंग्य
प्राकृतिक ऑक्सीजन उत्सर्जक वृक्ष, घर के बड़े बूढ़ों की तरह निगाहों में खटक रहे थे। आधुनिकता की चमकीली रपटीली सड़क पर अवांछनीय तत्वों की तरह जड़ें जमाए हटने के लिए तैयार ही नहीं थे। ऐसी भी क्या परोपकारिता कि बदले में कुछ नहीं चाहिए। बस देते ही रहना व्यक्तित्व का दुर्लभ गुण। “गिव एंड टेक” वाले युग में ऐसे कुलक्षण वाले सड़क या घरों में नहीं अजायबघरों में ही अच्छे लगते हैं। कम से कम वहां टिकट के नाम पर कुछ तो धनोपार्जन हो जाता है। वृक्ष बचाओ, जंगल बचाओ के कवच में पीठ पर छुरा सहते सहते आखिर वृक्ष और वृद्ध दम तोड़ गए।

अब विकास ने चैन की सांस ली। सारे अवरोधक खत्म। फर्राटे से गाड़ी दौड़ाई जा सकेगी। गाड़ी दौड़ेगी तो न, न करते हुए भी बहुत कुछ लॉकर में समा ही जाएगा। पर हाय रे कोरोना, तुच्छ सी ऑक्सीजन के लिए हाय हाय करवा दी। पर्यावरण संरक्षण वालों, गरीबों की हिमायत वालों, एक्टिविस्टों की दुकानें चमकने लगीं। आपदा में कृत्रिम ऑक्सीजन से फेफड़े भी अघा-अघा कर दम तोड़ गए। लॉकर गले गले तक अफरा गए। लोग 99 को 100 बनाने की ललक में तरह-तरह के मंसूबे पलने लगे। हर अस्पताल में ऑक्सीजन संयत्र पर संयत्र लगाने की गंगा में डुबकियां लगीं। संयत्र बने तब तक कोरोना दम तोड़ चुका।
रात गई बात गई। ऑक्सीजन संयंत्र उपेक्षित होकर अपनी दुर्दशा पर आँसू बहाने को मजबूर। मतलब निकल गया तो पहचानते नहीं। उपेक्षा से तंग आकर वृक्षों और संयत्रों दोनों ने गुहार लगाई कोई तो बचाओ हम ऑक्सीजन उत्सर्जकों को।

Monday, June 14, 2021

शब्द मौन, अर्थ बौने हो गये हैं-अल्का गुप्ता

अल्का गुप्ता
शब्द मौन, अर्थ बौने हो गये हैं 
दृश्य मानव के, घिनौने हों गये हैं!!

वेदना में लिपटी हैं अनुकंपाए
भाव कलह के, डिठौने हो गये हैं!!

स्पर्श,अंकमाल हुए श्राप ज्यों 
वायरल चीनी, किरौने हो गये हैं!!

शांत हैं पुरूषार्थ सर्व पराक्रम
सुषुप्त शांति के, बिछौने हो गये हैं!!

विश्व के निर्धन, मुर्छित हाथ बांधे
बिलखते खाली, भगौने हो गये हैं!!

सभी विकासशील प्रणालियों की
इकाइयों के, औने-पौने हो गये हैं!!

दिनकर की प्रकाशित ज्वाला में भी
ग्रीष्म के सुर, आगि लगौने हो गये हैं!!

पता-लखीमपुर खीरी उ०प्र० २६२७०१

रक्तदान दिवस-श्यामकिशोर बेचैन

14 जून विश्व रक्तदान दिवस पर विशेष

 


रक्तदान से बच सकता है जीवन हर इंसान का ।

सबको अर्थ जानना होगा दुनियां में रक्तदान का ।।

 

रक्तदान करने के अपने नियम कायदे होते हैं ।

रक्तदान करने वालों के बड़े फायदे होते हैं ।।

रक्त का दानी रूप दूसरा होता है भगवान का ।

सबको अर्थ जानना होगा दुनियां में रक्तदान का ।।

 

हार्ट और कैंसर का खतरा रक्तदान से टलता है ।

रक्तदान करते रहने से मिलती बड़ी सफलता है ।।

रक्तदान से भला ही होगा तर्क है ये विज्ञान का ।

सबको अर्थ जानना होगा दुनियां में रक्तदान का ।।

 

उम्र है अट्ठारह से ऊपर तो बेचैन ये दान करो ।

हो पचास केजी के तो फिर पूरा ये अरमान करो ।।

बदला नही चुका सकता है कोई इस अहसान का ।

सबको अर्थ जानना होगा दुनियां में रक्तदान का ।।

पता-संकटा देवी बैंड मार्केट लखीमपुर खीरी

Sunday, June 13, 2021

अस्मिता एक आशा की किरण-अखिलेश अरुण

  सम्पादकीय  
स्मिता (जन की बात) ब्लॉग/पेज का निर्माण अपनी उन रचनाओं के लिए किया था जो समाचार के साहित्यिक कलम और पत्रिकाओं के सम्पादकीय विभाग से अयोग्य करार दे दी जाति थीं. किसी ने कहा है की रचनाये कोई ख़राब नहीं होतीं. साल 2019 या 2020 में  साहित्य का कोई बड़ा पुरस्कार (क्षमा करें याद नहीं आ रहा, याद आते सम्मिलित कर दूंगा) ऐसे को मिला जिसकी रचना (पुस्तक) को एक नहीं कई सम्पादकों ने यह कहते हुए लौटा दिया की यह पुस्तक (पाण्डुलिपि) बेअर्थ और निरर्थक है. इसलिए लिखते रहिये जो मन में आये उस लेख प्रति आपका सकारात्मक दृष्टिकोण होना चाहिए और साथ ही साथ यह भी ध्यान में रखिये जो हम लिख रहे हैं वह अपने आप में कितना सार्थक है उसका मूल्याङ्कन स्वयं के द्वारा किया जाना जरुरी है.

मेरे लेखकीय रूचि को देखते हुए ब्लॉग पर अपने लेखों का प्रकाशन करने का पहला सुझाव मेरे ही मझले भाई नवल किशोर ने दिया था. क्योंकि वह स्नातक की पढ़ाई पूरी कर घर की आर्थिक स्थिति के चलते दुबई चला गया, घर-परिवार और हम लोगों से बात करने के लिए स्मार्ट फोन लेना आवश्यक हो गया था. परिणामतः भाई तकनीकी की दुनिया में पहले ही आ गया. हम अपनी पढ़ाई-लिखाई और निजी समस्याओं तथा आर्थिक स्थिति आदि के चलते देर से जुड़ पाए. मेरे पढ़ने और लिखने का काम जारी था किन्तु पढ़ते हुए स्कूल में पढाने का काम सितम्बर या नवम्बर का महिना होगा, साल 2010 की बात होगी, महीने के अंत में पढ़ाना शुरू किया था तब हमें पढाये गए दिनों के हिसाब से 390 रूपये मेहनताना में मिले थे. मेरे स्वयं की पहली कमाई थी उस रूपये का सदुपयोग एक जाकेट लेने में किया जो शायद 590 रूपये का मिला था. मेरे सिंगल बॉडी होने के चलते उसका साथ हमे 10 या 11 वर्षों तक मिला. ऐसे में स्मार्ट मोबाइल फोन आदि लेना मेरे बस के बहार की बात थी. लेपटॉप (नवल किशोर दुबई से लेकर आया था) के आ जाने से सोशल मिडिया में आने का रास्ता प्रसस्त हुआ, इस दुनिया में मेरा मझला भाई ही मेरा गुरु है. 2014 से फेसबुक, ट्विटर, आदि का उपयोग करने लगा था. किन्तु कभी कभार......यहाँ  निरंतरता 2016 से जारी है, तबसे लेकर आज तक ल्रेखन के क्षेत्र में थोड़ी-बहुत जान-पहचान बना लिया हूँ. लेखन में, मैं कक्षा छः से ही हूँ, उस समय के लेखन में भाव और लय  की प्रधानता अधिक थी और साथ ही साथ वह लेखन दोष-पुंज भी था . पहली रचना कहानी "अज्ञात हमलावर" सरस सलिल २०१० या २०११ के अंक में छपी थी. तबसे लेखन का सिलसिला चल पड़ा, लेखन के क्षेत्र में फेसबुक, ट्विटर अच्छा माध्यम है नए लेखकों के लिए वैश्विक पहचान बनाने के लिए.....उससे भी एक कदम आगे बढ़कर है ब्लॉग/वेबपेज/ वेबसाइट पर लेखन करना देखते ही देखते आप एक अंतराष्ट्रीय पहचान बन जाते हैं, रातोंरात; और क्या चाहिए?

 अस्मिता ब्लॉग पेज इस साल से मेरा स्वयं का न रहकर अब यह आप सभी साहित्यिक साथियों के रचनाओं के लिए एक ऑनलाइन मंच बन गया है. आज से 5 या 6 माह पहले साहित्य को लेकर अपने गुरु जी राजकिशोर जी के यहाँ बैठक हुई. यह वही जगह है, जहाँ सुरेश सौरभ जी से हमारी पहली मुलाकात हुई. आपकी रचनाएँ फेसबुक आदि पर हमें पढ़ने को मिलती रहीं, साहित्यिक परिचय के हम मोहताज़ नहिं थे किन्तु हम दोनों लोगों की पहली मुलाकात आमने-सामने पहले यहीं पर हुई. साहित्यिक रिश्ते में गहराई आती गई. इस  क्षेत्र में ऑनलाइन वेबपेज बनाने का विचार सुरेश सौरभ जी (जिले के अग्रणी साहित्यकार) के मन में आया जिसको लेकर हम लोंगों में चर्चाएँ होने लगी.इस सम्बन्ध में एक बैठक महीने-भर के अन्तराल पर पुनः किया गया जिसमें राजकिशोर जी (प्रवक्ता) , नन्दलाल वर्मा जी (एसोसिएट प्रोफ़ेसर) सुरेश सौरभ जी (साहित्यकार), श्यामकिशोर बेचैन जी (कवि), रमाकांत चौधरी जी (अधिवक्ता/कवि) और अन्य लोग उपस्थित रहे. जिसमें निर्णय लिया गया की इसका सञ्चालन मेरे द्वारा किया जायेगा क्योंकि ऑनलाइन (अंतर्जाल) दुनिया में मेरा कुछ लगाव ज्यादा है...मैंने सहर्ष स्वीकार कर लिया. इस पेज का संचालन महज एक प्रयोग है जिले के साहित्य के क्षेत्र में  और यह प्रयोग  सफल भी रहा है. हमें खुशी हो रही है कि मई के अंतिम महीने से लेकर अब-तक साहित्यिक साथियों और पाठकों का भरपूर सहयोग मिला है. रचनाओं को लगाते समय यह भी देखने को मिला है कि जिले के नवोद्भिद साहित्यकार भी निकलकर आयें हैं, जिनकी रचनाओं को वापस न कर संशोधित करते हुए 'साहित्य के नवांकुर' कालम के तहत प्रकाशित कर दिया गया और जो उन्हें साहित्य से सम्बंधित जिन बारीकियों को बताया गया सहर्ष स्वीकार कर अपनी रचनाएँ जो पुनः प्रेषित किये उसमें काफी सुधार दिखा. हम सम्पादकीय मंडल के तरफ से  इन नवांकुर साहित्यिक साथियों को उनके उज्जवल भविष्य की कामना करते हैं और बधाई देते हैं. साहित्य  के क्षेत्र में निर्वार्ध गति से अपनी लेखनी को धार दें और जन-मानस की आवाज बनें.

इस पेज पर साहित्य के धुरंधर विचारक, लेखक, साहित्यकार, साथिओं (मेरे लिए गुरुओं)  का का सहयोग प्राप्त हो रहा है हम उनके बहुत-बहुत आभारी हैं और आशा करते हैं की साहित्य में आपका सहयोग और मार्गदर्शन सदा मिलता रहेगा. इसी के साथ इस लेखनी को हम यहीं विराम देते हैं.
उपसम्पदाकीय
अस्मिता ब्लॉग/पेज
https://anviraj.blogspot.com  

स्वाद निराला- सतीश चन्द्र भगत

ले लो भैया गरम समोसा

खाओ भैया इडली डोसा ।

 

अजब- गजब संग चटनी वाला,

चटपट- चटपट स्वाद निराला ।

 

बोलो बोलो क्या है लेना,

नहीं अधिक है दाम देना ।

 

मेरी जेब में दस रुपैया,

जो है सस्ता दे दो भैया ।

 

गरम समोसा मीठी चटनी,

खाकर फिर पुस्तक है पढ़नी ।

निदेशक- हिन्दी बाल साहित्य शोध संस्थान

बनौली, दरभंगा ( बिहार) -847428

पढ़िये आज की रचना

चर्चा में झूठी-सुरेश सौरभ

(फिल्म समीक्षा)      एक मां के लिए उसका बेटा चाहे जैसा हो वह राजा बेटा ही होता है, बच्चे कच्ची मिट्टी की तरह होते हैं, जिन्हें हम अपने विचार...

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