साहित्य

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  • लखीमपुर-खीरी उ०प्र०

Thursday, June 06, 2024

गांधी किसी फ़िल्म(रील) के नायक नहीं,अपितु एक असल (रियल) जिंदगी के प्रेरक-नायक हैं-नन्दलाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)

नन्दलाल वर्मा
(सेवानिवृत्त एसोसिएट प्रोफेसर)
युवराज दत्त महाविद्यालय
लखीमपुर-खीरी
✍️विगत कुछ वर्षों से हमारे देश की इतिहास को फिल्मों के माध्यम से देखने और समझने वाली एक खास पीढ़ी बनकर तैयार हो चुकी है। उसको लगता है कि जो फिल्मों के माध्यम से इतिहास दिखाया जा रहा है,वही देश का असली इतिहास है। अभी कुछ दिनों से एक विशिष्ट राजनीतिक धड़े के प्रमुख और देश के लोकप्रिय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी द्वारा चुनिंदा पत्रकारों को दिए गए साक्षात्कार में गांधी जी की बायोग्राफी पर 1982 में बनी फिल्म आने के बाद गांधी जी की पहचान या उनको जानने का दावा किया गया। देश की नई पीढ़ी को यह बताने का प्रयास किया गया कि महात्मा गांधी को उन पर बनी फिल्म के आने के बाद ही देश के लोग जान पाए हैं। देश की जनता को दिग्भ्रमित करने की नीयत से उनके महान व्यक्तित्व-कृतित्व की राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पहचान या ख्याति को जानबूझकर अनदेखी करने की कोशिश की गयी,क्योंकि उनका नाम एक विपक्षी राजनीतिक दल के साथ जुड़ा हुआ है।
✍️28 मई, 2024 को एबीपी के तीन पत्रकार:एबीपी की न्यूज एंकर,रोमाना ईसार खान,एबीपी न्यूज की आउटपुट एडिटर रोहित सिंह सावल और एबीपी आनंद के वरिष्ठ उपाध्यक्ष सुमन डे ने प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी का साक्षात्कार लिया था जिसमें मोदी से राम मंदिर प्राण प्रतिष्ठा समारोह में विपक्ष की अनुपस्थिति के बारे में पूछा और क्या उनके फैसले का चुनाव परिणामों पर असर पड़ेगा? जवाब में प्रधान मंत्री ने विपक्ष की तीखी आलोचना करते हुए कहा कि वे गुलामी की मानसिकता से बाहर नहीं आ सके हैं। इसके बाद उन्होंने आगे कहा कि “महात्मा गांधी एक महान व्यक्ति थे। क्या इन 75 वर्षों में यह हमारी जिम्मेदारी नहीं थी कि हम यह सुनिश्चित करें कि दुनिया महात्मा गांधी को जाने? महात्मा गांधी को कोई नहीं जानता है। जब 'गांधी' फिल्म बनी थी तब दुनिया यह जानने को उत्सुक थी कि यह आदमी कौन है! हमने ऐसा नहीं किया है,यह हमारी जिम्मेदारी थी। अगर दुनिया दक्षिण अफ्रीकी नेता नेल्सन मंडेला और मार्टिन लूथर किंग को जानती है, तो गांधी उनसे कम नहीं थे। आपको यह स्वीकार करना होगा। मैं दुनिया भर में यात्रा करने के बाद यह कह रहा हूं…समझा जा सकता है कि प्रधानमंत्री ने 1982 में ब्रिटिश फिल्म निर्माता रिचर्ड एटनबरो की गांधी की बायोपिक रिलीज हुई फ़िल्म का जिक्र किया, जिसमें बेन किंग्सले ने गांधी जी का किरदार निभाया था। अगले वर्ष "गांधी" फ़िल्म को 11 अकादमी पुरस्कार नामांकन प्राप्त हुए थे और उनमें से 8 उसके हिस्से में आए थे,जिसमें सर्वश्रेष्ठ चित्र,सर्वश्रेष्ठ निर्देशक और प्रमुख भूमिका में सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के लिए अकादमी पुरस्कार शामिल थे।
✍️इस सांस्कृतिक और राजनीतिक धड़े के लोगों को शायद यह जानकारी नहीं है कि सन 1982 में आई इस फिल्म से कई वर्ष पहले 1930 में साबरमती आश्रम से दांडी तक नमक सत्याग्रह का आयोजन कर महात्मा गांधी पूरी दुनिया में एक बड़े सामाजिक और राजनीतिक नायक बनकर उभर चुके थे। इस मार्च में महात्‍मा गांधी ने देश के आम नागरिकों को एक मंच पर लाकर अंग्रेजी सत्‍ता के सामने बड़ी चुनौती खड़ी कर दी थी। वह हर काम बड़ी ही शांति और सादगी से करते थे, यहां तक क‍ि आजादी की लड़ाई भी उन्होंने बिना किसी तलवार और बंदूक के लड़ी। उनके द्वारा नेतृत्व दिया गया दांडी मार्च,नमक मार्च या दांडी सत्याग्रह के रूप में इतिहास में दर्ज़ है। उनके जीवनकाल में ही उनकी प्रसिद्धि दुनिया भर में फैल गई थी और उनकी मृत्यु के बाद इसमें और वृद्धि ही हुई है। उनकी सामाजिक-राजनीतिक विचारधारा और स्वतंत्रता आंदोलन में उनकी बहुआयामी भूमिका और व्यक्तित्व पर देश और विदेश की नामी गिरामी शिक्षण संस्थाओं/विश्वविद्यालयों में अध्ययन और शोध कार्य हो चुके और आज भी हो रहे हैं। महात्मा गांधी एक व्यक्ति नहीं,बल्कि उसमें एक पूरी संस्था समाहित है। महात्मा गांधी का नाम अब पृथ्वी पर सर्वाधिक मान्यता प्राप्त नामों में से एक है।
✍️भारत में अंग्रेजों के शासन काल के वक्‍त नमक उत्पादन और उसके विक्रय पर भारी मात्रा में कर लगा दिया गया था। नमक जीवन के लिए जरूरी चीज होने के कारण भारतवासियों को इस कानून से मुक्त करने और अपना अधिकार दिलवाने हेतु यह सविनय अवज्ञा का कार्यक्रम आयोजित किया गया था। कानून भंग करने पर सत्याग्रहियों ने अंग्रेजों की लाठियां खाई थीं,लेकिन पीछे नहीं मुड़े थे। इस आंदोलन में लोगों ने गांधी के साथ कई सौ किलोमीटर पैदल यात्रा की और जो नमक पर कर लगाया था उसका विरोध किया। इस आंदोलन में कई नेताओं को गिरफ्तार भी किया गया जिसमें सी.राजगोपालचारी, पं.जवाहर लाल नेहरू, सरोजनी नायडू जैसे आंदोलनकारी शामिल थे। यह आंदोलन लगभग एक साल तक चला और 1931में गांधी-इरविन के बीच हुए समझौते से खत्म हुआ। इसी आन्दोलन से सविनय अवज्ञा आंदोलन की शुरुआत हुई। इस आंदोलन ने संपूर्ण देश में अंग्रेजों के खिलाफ व्यापक जन-संघर्ष को जन्म दिया था।  
✍️महात्मा गांधी के बारे में यहां तक बताया जाता है कि लंदन में जब चार्ली चैपलिन(सुविख्यात अंग्रेजी हास्य अभिनेता और फिल्म निर्देशक) उनसे मिलने आए तो वहां के लोग चैपलिन की जगह गांधी जी को देखने के लिए बेतहाशा टूट पड़े थे। अमेरिकी अखबारों के शीर्ष पत्रकार गांधी जी के राजनीतिक दर्शन को समझने में हफ्तों लगाया करते थे। गांधी जी मशहूर अमेरिकी समाचार पत्रिका "टाइम" के मुख पृष्ठ पर दिखाई देते थे,यह था दुनिया में गांधी जी की लोकप्रियता का आलम। आज के दौर की छिछली और सत्तापरक राजनीति में गांधी जी को कमतर आंकने की एक सुनियोजित साजिश और षडयंत्र रचा जा रहा है। जिस इंसान ने अपने जीवन के अतिमहत्वपूर्ण 40 साल देश की आजादी की लड़ाई में झोंक दिए और महज अपनी लाठी के बल पर हिंदुस्तान को आजाद कर दिखाया। लंदन से "बार ऐट लॉ" की पढ़ाई कर कोट-पैंट और टाई को छोड़कर कर जिसने अपनी वेशभूषा में महज़ एक धोती रखी हो।राजनीति और सत्ता के लिए उस महान व्यक्ति की इस तरह पहचान करवाने की तुच्छ कवायद बेहद निंदनीय है। कहा गया कि मार्टिन लूथर किंग और नेल्सन मंडेला को लोग गांधी से ज्यादा मानते हैं,जबकि वास्तविकता यह है कि ये दोनों गांधी जी को अपना आदर्श मानते थे। इसी तरह महान भौतिक वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन भी महात्मा गांधी के व्यक्तित्व से काफी प्रभावित थे। कहना गलत नहीं होगा कि रविंद्र नाथ टैगोर का वह महात्मा जो अपने आखिरी दिनों में इस दुनिया में हिंसा से निराश था,मौत के बाद पूरी दुनिया का महात्मा बन गया। 
✍️जब लोग आजादी और नई मिली सत्ता का स्वागत कर रहे थे तब महात्मा गांधी ने उससे खुद को बिल्कुल अलग कर लिया था और नोआखली से दिल्ली भाग-भाग कर वह मानवता को बचाने की कोशिश कर रहे थे। जिस देश के लिए गांधी जी ने अंग्रेजों से लड़कर आज़ादी दिलाई,आज उसी देश के लोग राजनीतिक विचारधारा,चेतना और संवेदना के स्तर पर इतने विपन्न,खोखले और दिवालिया दिखने लगे हैं,जहाँ कभी गांधी की मूर्ति में लगी लाठी तोड़ दी जाती हैं,ऐनक तोड़ दिया जाता है और कभी-कभी तो उनकी प्रतिमा ही खंडित कर दी जाती है। हमें यह कभी भी नहीं भूलना चाहिए कि गांधी जी किसी व्यक्ति का नाम नहीं है,बल्कि वह एक सामाजिक- राजनीतिक विचारधारा,चेतना,आंदोलन-संघर्ष का नाम है,वह सामाजिक विज्ञान के विद्यार्थियों और शोधार्थियों के लिए एक बहुआयामी और वृहद विषयवस्तु हैं। वह हमारे देश के महात्मा हैं,हम उन्हें राष्ट्रपिता का सम्मान देते हैं और आज के दौर के राजनेता यदि सीखना चाहें तो उनसे हर दिन कुछ न कुछ नया सीख सकते हैं। इसलिए गांधी जी को उन पर बनी फ़िल्म तक सीमित कर देखना, समझना और समझाना सर्वथा गलत होगा!
✍️गांधी जी के दर्शन,व्यक्तित्व और कृतित्व के कतिपय पहलुओं उनसे जुड़े घटनाक्रमों से सहमत या असहमत होना किसी भी नागरिक का निजी विचार हो सकता है। यदि कोई उनके विचारों के कुछ अंशों से सहमत नहीं है तो उसको संपूर्णता में ख़ारिज किया जाना जायज़ नहीं,लेकिन किसी महापुरुष के विचार या दर्शन के सूक्ष्म अंश से असहमति का यह तो मतलब नहीं है कि उसके सम्पूर्ण जीवन या व्यक्तित्व पर एक ऐसा सवाल खड़ा कर दिया जाए जो उसकी पहचान और अस्तित्व के लिए आम आदमी के बीच संकट खड़ा होता हुआ दिखाई दे। किसी भी व्यक्ति की विचारधारा संपूर्णता में समावेशी नहीं हो सकती है और कोई भी व्यक्ति संपूर्णता में दोषों से मुक्त नहीं हो सकता है, तो फिर एक इतिहास पुरुष की पहचान उनकी जीवनी पर बनी एक फ़िल्म के बाद होने का वक्तव्य कितना जायज़ और नैतिक? हमारा संविधान आलोचना करने और असहमत होने का अधिकार देता है। गांधी जी भी आलोचना -असहमति से परे नहीं हो सकते। गांधी जी के व्यक्तित्व-कृतित्व की आलोचना करिए,लेकिन सही मूल्यांकन के साथ। हमारे प्रधान मंत्री जी तो "एंटायर पोलिटिकल साइंस" में परास्नातक हैं,निश्चित रूप से इस विषय के पाठ्यक्रम में गांधी जी के राजनीतिक दर्शन का थोड़ा-बहुत तो समावेश रहा होगा! गांधी जी की पहचान सीमित-धूमिल करने के प्रयास या साजिश या षडयंत्र से उनके पैतृक संगठन के सावरकर और नाथूराम गोडसे उनके समकक्ष या उनसे ऊपर स्थापित तो हो नहीं जाएंगे, क्योंकि सबके चरित्र भारतीय राजनीति के इतिहास के पन्नों में दर्ज हैं। एक गांधी बनने में कई दशक लगते हैं और एक गोडसे बनने के लिए एक सनक और एक छोटा सा शस्त्र ही काफ़ी है। गांधी जी और उनका दर्शन पूरी दुनिया के लिए था,है और रहेगा,ऐसा मेरा विश्वास है।

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