साहित्य

  • जन की बात न दबेगी, न छिपेगी, अब छपेगी, लोकतंत्र के सच्चे सिपाही बनिए अपने लिए नहीं, अपने आने वाले कल के लिए, आपका अपना भविष्य जहाँ गर्व से कह सके आप थे तो हम हैं।
  • लखीमपुर-खीरी उ०प्र०

Wednesday, April 21, 2021

स्मृतिओं के झरोखे से मेरा बचपन


स्मृतिओं के झरोखे से मेरा बचपन

(तबका सुकून आज का क्षोभ)

पिछली बार लॉकडाउन में घर गया तो घर की साफ-सफाई करते/करवाते हुए मेरे द्वारा #काष्ठ_निर्मित_ट्रेक्टर हाथ लगा जिसको बड़े मनोयोग से बनाया था. जितनी रचनात्मकता लगा सकता था लगया. तब हम 6 या 7 वें दर्जे में होगें. खिलौनों की रचनात्मकता को लेकर रात भर सोचते और दिन में लग जाते, दिन-भर खुटुर-पुटुर दुकान के बाँट ज्यादातर हथौड़ी-छेनी के निचे ही रहते थे. #ट्रेक्टर के साथ-साथ #कल्टीवेटर, #तवे_का_हैरो, #कराहा, #ट्राली सब हुबहू नक़ल थे जो लड़की और लोहे के बनाये गए थे. उनमें से अब केवल ट्रेक्टर ही बचा हुआ है वह भी अगला पहिया (ट्रेक्टर के माफिक ही स्टेरिंग के साथ मुड़ता था) विहीन, लोहे के खिलौने (कराहा, कल्टीवेटर, हैरो, ट्राली) जो ट्रेक्टर के साथ उपयोग में लाये जाते थे हमारे शहर में पढ़ने आने के कुछ साल बाद पापा ने किसी कबाड़ी वाले को बेच दिए. आज होता तो उसे अपने बचपन के ऐतिहासिक धरोहरों में संजो के रखता. उससे बचपन की बहुत सारी यादें जुड़ी हुई हैं, याद है कि गर्मी की दुपहरी में घर के कामों से निवृत होकर माता जी के आराम में खट्ट-पट्ट ध्वनि और खेल-खिलौनों को लेकर भाईयों से मारा-पिटी चें-पों/चिल्ल-पों से बिघ्न डालना और फिर माता जी के द्वारा कूटे जाना...मन भर रो लेने के बाद नींद बहुत अच्छी आती थी. शाम को नींद खुलने पर सुबह का भ्रम हो आता था कुछ क्षण ऐसे निकल जाता था सुबह है कि शाम.

मेरे बचपन का खिलौना

हमारे बचपन के दिनों में (90 का दशक) खेल-खिलौनों के नाम पर मेले-ठेले में 2 रुपये से लेकर 20 रूपये तक के अच्छे-खासे खिलौने क्या? टिकिया वाली बन्दुक,चाबी वाली कार हाथी-घोड़ा बस यही मिलता था. तकनिकी रूप से खिलौनों में हम ज्यादा तरक्की नहीं किये थे या यूँ कहें कि हम खिलौनों की अच्छी दुकान पर पहुँच ही नहीं पाते होंगे. तब घर की आर्थिक स्थिति फ़िलहाल ठीक थी किराने की दुकान के साथ-साथ साईकिल की दुकान थी, फर्निचरी का भी काम होता था. पिता जी मेठगिरी (ठेकेदारी) भी करते थे, मने कुल मिला के दाल-रोटी का इंतजाम हो जाता था. बचपन में हमारा पढ़ाई लिखाई से ज्यादा मन दुकान-दौरी के साथ ही साथ रचनात्मकता में रमा रहता था. छः बधिया से लेकर छोटे-छोटे कियारीदार चारपाई की बुनाई (नाना को बुनते देख कर सीख लिया था.), बांस/शहतूत की टोकरी और अल्युमिनियम तार की टोकरी बर्तन रखने के लिए  (जिसको हमारे तरफ खांची बोलते हैं) रेडियो रिपेयरिंग पंखे की वाईन्डिंग/रिपेयरिंग, सिलाई मशीन रिपेयरिंग थोड़ी-बहुत दर्जीगिरी, फर्निचरी का काम पापा को करते देख कर सीख लिया था, दरवाजे, कुर्सी-मेज, चारपाई, तख्ता आदि बनाने में निपुड हो गया था. सबसे बड़ी मजे की बात यह थी कि शादी व्याह में दुल्हे-दुल्हन की पाटी (बैठने का पीढ़ा) पुजाई या बारात के वापस आने पर बेड/दहेज़ के तख्ते को फिट करने की लिए जाता तो 151 रुपये से कम न लेता, हमारे चक्कर में दुसरे छोटे भाईयों को माता जी गुस्से में आकार खरी-खोटी सुनती थी, “इसका जीवन तो कट जायेगा तुम्हारे लोगों का क्या होगा न पढ़ने में हो  न कुछ गुण ढंग में.....मने बहुत कुछ सुना देतीं थीं.

हाईस्कूल के बाद (पापा जी का कहना था फेल हो गए तो पढ़ाई छोड़ा देंगे .....अपना भी कुछ ऐसा ही था पर हुआ कुछ और हम दोनों भाई नवल किशोर और मैं गुड सेकेण्ड डिवीजन से पास हो गए पूरे गाँव में पास होने वाले पहले थे) इंटर के बाद पढ़ाई का ऐसा चस्का लगा कि आज डिग्रियों की भरमार है और गुलाम (सरकारी नौकर) बनने की जद्दोजहद जारी है. बचपन का सब हुनर छूट गया आज पढ़ाई-लिखाई तक सिमित होकर रह गया हूँ. बेकार और बेरोजगार/प्राइवेट विद्यालय की प्रोफेसरी है, मझला भाई दुबई में डोमेस्टिक इलेक्ट्रीशियन का काम करता है और दो भाई एक बहन पढ़ाई-लिखाई में लगे हुए हैं.

(स्मृतियों के झरोखे से)


-अखिलेश कुमार अरुण
लखीमपुर खीरी उ०प्र०
मो०न०-८१२७६९८१४७

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