साहित्य

  • जन की बात न दबेगी, न छिपेगी, अब छपेगी, लोकतंत्र के सच्चे सिपाही बनिए अपने लिए नहीं, अपने आने वाले कल के लिए, आपका अपना भविष्य जहाँ गर्व से कह सके आप थे तो हम हैं।
  • लखीमपुर-खीरी उ०प्र०

Friday, September 12, 2025

शेर का परिवार-अखिलेश कुमार अरुण


  व्यंग्य  

(दिनांक ११ सितम्बर २०२५ को मध्यप्रदेश से प्रकाशित इंदौर समाचार पत्र पृष्ठ संख्या-१०)

अखिलेश कुमार 'अरुण' 
ग्राम- हज़रतपुर जिला-लखीमपुर खीरी 
मोबाईल-8127698147


घर के बाहर बैठे कादिर मियां से हमारी नजर क्या मिली सलाम अलैकुम के साथ बात ही बातों में चर्चा-ए-आवाम होने लगी। बोले, भई क्या कहें? देश की हालत उस दुल्हन जैसी हो गई है जो सुहागरात की एक रात  नेता आकर घूंघट उठाई का रस्म अदा कर उसकी अस्मिता से खेलता है और फिर उसकी हाल पर छोड़कर कहीं खो जाता है, अब उसे न विधवा की जिन्दगी मयस्सर होती है और नहीं सधवा की! उस पर भसुरों-देवरो की ठट्ठेबाजी अलग।

भसुरों-देवरों! कुछ समझा नही।

अरे! भईया भसुर माने जेठ (अमेरिका), देवर (चीन-जापान) का समझे?

ओ! बात तो सही है। कितना सटीक बात कह गये मानसपटल पर दर्ज हो गई है, सच ही तो है  देश की अस्मिता ही तो एक के बाद एक लूटी जा रही है। उसके बच्चे (जनता) इस आस में है कि कोई फ़रिश्ता ऐसा तो होगा या आयेगा जो देश की हालत और जनता के दर्द को कम करेगा।

कहां खो गये मिंया?

कहीं नहीं, एक गहरी सांस अदंर खींचते हुये थोड़ी देर रुककर, मन को तसल्ली देते हुये बोला, और कर ही क्या सकते हैं?

पूरे दार्शनिक होते हुये एक गम्भीर मुद्रा अख्तियार कर कहने लगे, करने को तो जनता, बहुत कुछ कर ले बरखुर्दार किन्तु एकजाई नहीं हैं, जनता हिरनों का झुण्ड जो ठहरी, उसे मालूम है कि अगले दिन शेर का निवाला हमारे ही बीच से कोई और बनेगा? बस ऐसे ही चलता रहेगा। हम घास-फूंस खाकर शरीर में ऊर्जा, अपने लिये नहीं शेर के परिवार और उसके सगे-सम्बन्धियों के लिये संचित करते हैं और यह बदस्तूर चलता रहेगा।


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