साहित्य

  • जन की बात न दबेगी, न छिपेगी, अब छपेगी, लोकतंत्र के सच्चे सिपाही बनिए अपने लिए नहीं, अपने आने वाले कल के लिए, आपका अपना भविष्य जहाँ गर्व से कह सके आप थे तो हम हैं।
  • लखीमपुर-खीरी उ०प्र०

Sunday, April 25, 2021

लॉकडाउन बचाव है गारंटी नहीं, ठोस कदम उठायें

लॉकडाउन बचाव है गारंटी नहीं, ठोस कदम उठायें

(स्वतंत्र दस्तक के जौनपुर संस्करण में २२ अप्रैल २०२१ को प्रकाशित)

महामारी अपने विकराल रूप को धारण करते जा रही है. कोविड-19 का यह दूसरा दौर है, पहली खेप में हम जीत गए थे लगभग-लगभग सब कुछ ठीक था. पिछले साल जो हुआ सो हुआ कितने अपने मौत की गोद में सोकर परिवार को रोने-धोने को छोड़ गए, जिसके घर से कमाऊ पूत/पति/भाई/बाप/बहन/माँ चले गए उनके घर में अभी भी अँधेरा छाया हुआ है. जो जिन्दा हैं वह अपनी रोजी-रोटी के जुगत में किसी नई जगह पर अपने हुनर का प्रदर्शन करने में जी-जान से लग गए कि बॉस अगले महीने उनकी तरक्की कर देगा तो मुन्ने का दूध और बूढ़े माँ-बाप के दावा दारू में कुछ सहूलियत हो जाएगी, स्कूल/कालेज में लड़के मनोयोग से पढ़ने का मन बनाने लगे थे, शिक्षक पढ़ाने लगे थे. शादी-बारात के मंडप सजने लगे थे. दुकानों पर खरीदारी जारी थी. देश धीरे-धीरे अपने पुराने ढर्रे पर जाने लगा था. होली-दीपावली, ईद, तीज-त्योहार, धार्मिक यात्राओं आदि का चलन पुनः चालू हो गया था. नेताओं का अपना त्यौहार मनने लगा, सभाएं होने लगी, चुनाव के बिगुल बजने लगे एक दुसरे को पटखनी देने के लिए जोर-आजमयिस चालू था. बस यहीं हम गच्चा खा गए. कोरोना को लेकर जितने गाईडलाईन्स जारी किये गए सब धरे के धरे रह गए हम (देश की जनता) लापरवाह हुए ही सरकार सो गई एकदम कुम्भकर्ण वाली नींद.

Your Experiences and Best Practices: How Has COVID-19 Affected Your Work? –  Association for Psychological Science – APS

जब कोरोना की पहली लहर आकर जाने को थी तब हमें इस महामारी से बचने के लिए ठोस कदम उठाने चाहिए थे. खतरा टला नहीं था इसका भान सभी को था चाहे वह आम आदमी हो या खास. पहली गलती को सुधारने का हमें जो मौका हाथ लगा हम बेफिक्र होकर दूसरी लहर के आने का इंतजार कर रहे थे और उसके लिए पूरा खुला मैदान तैयार कर रहे थे. उसके स्वागत में तैयार हम भूल गए थे कि अभी हम कोरोना के कहर से निकल कर आये हैं. जो गलती पूर्व में हो चुकी थी उसको सुधारने का मौका मिला था. मुलभुत चिकत्सकीय सुविधाओं को युद्धस्तर पर विकसित करना था. आक्सीजन के नए प्लांट लगाये जाने चाहिए थे. वेंटिलेटर बेड और कोरोना जाँच उपकरणों को अस्पतालों में बढ़ावा देना चाहिए था, राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हाथ फैलाकर अपनी चिकत्सकीय क्षमता को बढ़ाना चाहिए था किन्तु यह सब हम न कर सके अब तो जन-सामान्य को छोड़िये अपनों को बचाने की गुहार वर्तमान सत्ता के नेता तक लगा रहे हैं विपक्षियों की क्या विसात....समाचार पत्रों के हवाले से खबर आई है कि देश में दो-चार जगह आक्सीजन प्लांट लगाये जाने के लिए भूमि-पूजन किया गया है. देश के प्रतिष्ठित समाचार पत्रों दैनिक जागरण, हिंदुस्तान, अमर उजाला स्वतंत्र प्रभार आदि में प्रमुखता से खबर छपा है कि उत्तर प्रदेश में नई प्रोगशालायें खोलने वालों को सहयोग दिया जाये, 220 सिलेंडर की क्षमता का डीआरडीओ की सहायता से नया आक्सीजन प्लांट स्थापित किया जायेगा जहाँ अगले हफ्ते तक ऑक्सीजन उत्पादित हो सकेगा तथा नए मेडिकल कालेज खोलने के लिए आक्सीजन प्लांट की अनिवार्य शर्त रखी गई है. कुछ स्टील फैक्ट्रियां अपने यहाँ मेडिकल ऑक्सीजन का उत्पादन करेंगी. यह राज्य सरकार का स्वागत योग्य सराहनीय फैसला है.

How Many People in the United States Actually Have COVID-19?पिछली सरकारों ने क्या किया क्या नहीं किया उसका रोना रोने से ज्यादा बेहतर होगा की वर्तमान सताधारी सरकारें जनता के प्रति उत्तरदायी हों और जनता की सुख-सुविधाओं को ध्यान में रखते हुए भविष्य की योजनाओं में चिकत्सीय सेवाओं को विकसित करने में प्राथमिकता दें तथा कोरोना या कोरोना जैसी आने वाली वैश्विक महामारी से लड़ने के लिए स्वंय को तैयार रखें. जाति-धर्म, क्षेत्रवाद, भाषाई आधार पर राजनैतिक पाशा चलने का तरीका बदलना होगा. तभी हम अपने भविष्य को सजा और सवंरा हुआ पाएंगे तथा मानवीयता को जिन्दा रख पाएंगे

अखिलेश कुमार अरुण

स्वतंत्र टिप्पणीकार/लेखक

ग्राम हजरतपुर,लखीमपुर-खीरी

 

ਕੋਰੋਨਾ ਦਵਾਈ ਸਾਕਾਰਾਤਮਕ ਅਤੇ ਤੁਹਾਡੀ ਸਵੈ-ਸ਼ਕਤੀ

ਕੋਰੋਨਾ ਦਵਾਈ ਸਾਕਾਰਾਤਮਕ ਅਤੇ ਤੁਹਾਡੀ ਸਵੈ-ਸ਼ਕਤੀ

 ਅਖਿਲੇਸ਼ ਕੁਮਾਰ 'ਅਰੁਣ'

ਲਾਲ ਬੁਖਾਰ, ਚਿਕਨਗੁਨੀਆ ਅਤੇ ਇਥੋਂ ਤਕ ਕਿ ਪਿਛਲੀ ਲਾਗ ਵਾਲੀਆਂ ਬਿਮਾਰੀਆਂ ਦੀ ਭਿਆਨਕਤਾ ਕੁਝ ਅਜਿਹੀ ਹੋਵੇਗੀ ਜੋ ਅੱਜ ਕੋਰੋਨਾ ਵਜੋਂ ਵੇਖੀ ਜਾ ਰਹੀ ਹੈ. ਲਾਗ ਤੇਜ਼ੀ ਨਾਲ ਫੈਲ ਰਹੀ ਹੈ, ਇਕ ਤੋਂ ਬਾਅਦ ਇਕ ਲੋਕ ਕੋਰੋਨਾ ਦੀ ਪਕੜ ਵਿਚ ਰਹੇ ਹਨ, ਕਿਤੇ, ਪੂਰਾ ਪਰਿਵਾਰ ਕੋਰੋਨਾ ਦੀ ਪਕੜ ਦੁਆਰਾ ਕੋਰੋਨਾ ਦੇ ਗਲ੍ਹਿਆਂ ਦਾ ਸਾਹਮਣਾ ਕਰਨ ਲਈ ਤਿਆਰ ਹੈ, ਇਸ ਤਰ੍ਹਾਂ, ਛੁਟਕਾਰਾ ਪਾਉਣ ਲਈ ਹੱਲ. ਕੋਰੋਨਾ ਦੇ ਹੁਣ ਸਿਰਫ ਅਤੇ ਕੇਵਲ ਸਕਾਰਾਤਮਕ ਵਿਚਾਰ, ਸੋਚ, ਸੰਦੇਸ਼, ਸਵੈ-ਸ਼ਕਤੀ ਸ਼ਾਮਲ ਹਨ. ਲੱਖ ਕੋਸ਼ਿਸ਼ ਕਰਨ ਦੇ ਬਾਵਜੂਦ ਵੀ ਲੋਕ ਕੋਰੋਨਾ ਦੀ ਪਕੜ ਵਿਚ ਆ ਰਹੇ ਹਨ, ਤੁਹਾਨੂੰ ਪਰਿਵਾਰ ਵਿਚ ਦਵਾਈ ਅਤੇ ਸ਼ਰਾਬ ਅਤੇ ਖਾਣ ਪੀਣ ਦੀਆਂ ਚੀਜ਼ਾਂ ਲੈਣ ਲਈ ਬਾਹਰ ਜਾਣਾ ਪਏਗਾ, ਤੁਸੀਂ ਪਰਿਵਾਰ ਵਿਚ ਉਦੋਂ ਤਕ ਨਹੀਂ ਰਹਿ ਸਕਦੇ ਜਦੋਂ ਤਕ ਤੁਸੀਂ ਪਰਿਵਾਰ ਵਿਚ ਭੁੱਖ ਨਾਲ ਮਰ ਨਹੀਂ ਜਾਂਦੇ. ਅਜਿਹੀ ਸਥਿਤੀ ਵਿੱਚ, ਤੁਹਾਨੂੰ ਆਪਣੇ ਆਪ ਨੂੰ ਅਤੇ ਆਪਣੇ ਪਰਿਵਾਰ ਨੂੰ ਕੋਰੋਨਾ ਦੀ ਖ਼ਬਰ ਤੋਂ ਦੂਰ ਰੱਖਣਾ ਚਾਹੀਦਾ ਹੈ ਜੋ ਤੁਹਾਨੂੰ ਮਾਨਸਿਕ ਤੌਰ ਤੇ ਕਮਜ਼ੋਰ ਬਣਾਉਂਦਾ ਹੈ.Photos: Life in the Time of Coronavirus - The Atlantic

 

ਸੋਸ਼ਲ ਮੀਡੀਆ 'ਤੇ ਚਲ ਰਹੀ ਖ਼ਬਰਾਂ ਤੁਹਾਨੂੰ ਅਣਜਾਣੇ ਵਿਚ ਕੋਰੋਨਾ ਦੇ ਮੂੰਹ ਵਿਚ ਧੱਕ ਰਹੀ ਹੈ. ਸੋਸ਼ਲ ਮੀਡੀਆ ਉਪਭੋਗਤਾ ਖਬਰਾਂ ਨੂੰ ਸਾਂਝਾ ਕਰਨ ਤੋਂ ਪਹਿਲਾਂ ਉਨ੍ਹਾਂ ਦੀ ਸੱਚਾਈ ਦੀ ਤਹਿ ਤੱਕ ਨਹੀਂ ਜਾਣਾ ਚਾਹੁੰਦੇ, ਅਜਿਹਾ ਨਹੀਂ ਹੈ ਕਿ ਸੋਸ਼ਲ ਮੀਡੀਆ ਦੀਆਂ ਸਾਰੀਆਂ ਖਬਰਾਂ ਅਫਵਾਹ ਹੋਣ. ਕੁਝ ਸਚਾਈਆਂ ਵੀ ਆਪਣੇ ਆਪ ਵਿੱਚ ਸ਼ਾਮਲ ਕੀਤੀਆਂ ਜਾਂਦੀਆਂ ਹਨ, ਹੋਰ ਬਿਮਾਰੀਆਂ ਤੋਂ ਹੋਣ ਵਾਲੀਆਂ ਮੌਤਾਂ ਦੀ ਗਿਣਤੀ ਵੀ ਅੱਜ ਕੋਰੋਨਾ ਵਿੱਚ ਗਿਣੀ ਜਾ ਰਹੀ ਹੈ, ਇਸ ਲਈ ਕੋਰੋਨਾ ਨੇ ਆਪਣਾ ਭਿਆਨਕ ਰੂਪ ਧਾਰ ਲਿਆ ਹੈ। ਜੇ ਕੋਈ ਸਾਡੇ ਦੋਸਤਾਂ ਨਾਲ ਮਗਨ ਹੋ ਗਿਆ ਹੈ, ਤਾਂ ਇਸ ਨੂੰ ਆਪਣੇ ਕੋਲ ਰੱਖੋ ਸੋਸ਼ਲ ਮੀਡੀਆ 'ਤੇ ਇਸ ਨੂੰ ਸਾਂਝਾ ਕਰਨ ਤੋਂ ਬਚੋ ਇਸ ਤਰ੍ਹਾਂ ਕਰਨ ਨਾਲ, ਅਸੀਂ ਆਪਣੇ ਆਪ ਨੂੰ ਅਤੇ ਆਪਣੇ ਲੋਕਾਂ ਨੂੰ ਮਾਨਸਿਕ ਤਣਾਅ ਤੋਂ ਬਚਾ ਸਕਦੇ ਹਾਂ.

 Coronavirus: How are patients treated? - BBC News

ਅੱਜ, ਜੋ ਲੋਕ ਇਸ ਮਹਾਂਮਾਰੀ ਦੇ ਪ੍ਰਕੋਪ ਤੋਂ ਪੀੜਤ ਹਨ, ਆਪਣਾ ਵਿਸ਼ਵਾਸ ਘੱਟਣ ਨਹੀਂ ਦਿੰਦੇ, ਸਿਹਤਮੰਦ ਪਰਿਵਾਰਕ ਮੈਂਬਰ ਅਫਵਾਹਾਂ ਤੋਂ ਦੂਰ ਰਹਿਣ ਅਤੇ ਆਪਣੇ ਪਰਿਵਾਰ ਦੇ ਪੀੜਤਾਂ ਦੀ ਸਹਾਇਤਾ ਨਾਲ ਆਪਣੀ ਸਾਰੀ ਰਜਾ ਲੈਣ, ਜਦ ਤੱਕ ਉਹ ਠੀਕ ਨਹੀਂ ਹੋ ਸਕਦੇ ਅਤੇ ਤੰਦਰੁਸਤ ਹੋ ਸਕਦੇ ਹਨ. ਜਿਵੇਂ ਕਿ ਇਕ ਸਾਵਧਾਨੀ ਦੇ ਤੌਰ ਤੇ, ਆਤਮ-ਵਿਸ਼ਵਾਸ ਅਤੇ ਵਿਸ਼ਵਾਸ ਬਣਾਈ ਰੱਖਣ ਦੀ ਜ਼ਰੂਰਤ ਹੈ ਕਿਉਂਕਿ ਤੁਹਾਡੇ ਦੇਸ਼ ਦਾ ਨਿਜ਼ਾਮ ਤੁਹਾਨੂੰ ਅਤੇ ਤੁਹਾਡੇ ਸਮਾਨ ਨੂੰ ਛੱਡ ਕੇ ਅਤੇ ਸ਼ਕਤੀ ਦੀ ਤਾਕਤ ਦਾ ਅਨੰਦ ਲੈਣ ਵਿਚ ਰੁੱਝਿਆ ਹੋਇਆ ਹੈ. ਕੋਰੋਨਾ ਦੇ ਨਾਮ ਤੇ, ਸਰਕਾਰ ਵੱਲੋਂ ਵਧੇਰੇ ਸਹਾਇਤਾ ਦਿਖਾਈ ਜਾ ਰਹੀ ਹੈ, ਪਰ ਹੁਣ ਇਹ ਸੁਨਿਸ਼ਚਿਤ ਹੋ ਗਿਆ ਹੈ ਕਿ ਸਰਕਾਰ ਨੀਂਦ ਤੋਂ ਕੁੰਭਕਰਨੀ ਵੱਲ ਚਲੀ ਗਈ ਹੈ।ਜਿਸ ਕਿਹਾ ਜਾ ਰਿਹਾ ਹੈ ਕਿ ਰਾਜ ਸਰਕਾਰਾਂ ਉੱਤੇ ਦੋਸ਼ ਲਗਾਏ ਜਾ ਰਹੇ ਹਨ। ਅਜਿਹੀ ਸਥਿਤੀ ਵਿੱਚ, ਕੋਰੋਨਾ ਨਾਲ ਨਜਿੱਠਣ ਦੀ ਜ਼ਿੰਮੇਵਾਰੀ ਹੁਣ ਸਾਡੀ ਆਪਣੀ ਹੈ.

 

ਅਖਿਲੇਸ਼ ਕੁਮਾਰ 'ਅਰੁਣ'

ਫ੍ਰੀਲਾਂਸ ਟਿੱਪਣੀਕਾਰ / ਲੇਖਕ

ਪਿੰਡ ਹਜ਼ਰਤਪੁਰ, ਜੀਲਾ ਲਖੀਮਪੁਰ-ਖੇੜੀ


Wednesday, April 21, 2021

स्मृतिओं के झरोखे से मेरा बचपन


स्मृतिओं के झरोखे से मेरा बचपन

(तबका सुकून आज का क्षोभ)

पिछली बार लॉकडाउन में घर गया तो घर की साफ-सफाई करते/करवाते हुए मेरे द्वारा #काष्ठ_निर्मित_ट्रेक्टर हाथ लगा जिसको बड़े मनोयोग से बनाया था. जितनी रचनात्मकता लगा सकता था लगया. तब हम 6 या 7 वें दर्जे में होगें. खिलौनों की रचनात्मकता को लेकर रात भर सोचते और दिन में लग जाते, दिन-भर खुटुर-पुटुर दुकान के बाँट ज्यादातर हथौड़ी-छेनी के निचे ही रहते थे. #ट्रेक्टर के साथ-साथ #कल्टीवेटर, #तवे_का_हैरो, #कराहा, #ट्राली सब हुबहू नक़ल थे जो लड़की और लोहे के बनाये गए थे. उनमें से अब केवल ट्रेक्टर ही बचा हुआ है वह भी अगला पहिया (ट्रेक्टर के माफिक ही स्टेरिंग के साथ मुड़ता था) विहीन, लोहे के खिलौने (कराहा, कल्टीवेटर, हैरो, ट्राली) जो ट्रेक्टर के साथ उपयोग में लाये जाते थे हमारे शहर में पढ़ने आने के कुछ साल बाद पापा ने किसी कबाड़ी वाले को बेच दिए. आज होता तो उसे अपने बचपन के ऐतिहासिक धरोहरों में संजो के रखता. उससे बचपन की बहुत सारी यादें जुड़ी हुई हैं, याद है कि गर्मी की दुपहरी में घर के कामों से निवृत होकर माता जी के आराम में खट्ट-पट्ट ध्वनि और खेल-खिलौनों को लेकर भाईयों से मारा-पिटी चें-पों/चिल्ल-पों से बिघ्न डालना और फिर माता जी के द्वारा कूटे जाना...मन भर रो लेने के बाद नींद बहुत अच्छी आती थी. शाम को नींद खुलने पर सुबह का भ्रम हो आता था कुछ क्षण ऐसे निकल जाता था सुबह है कि शाम.

मेरे बचपन का खिलौना

हमारे बचपन के दिनों में (90 का दशक) खेल-खिलौनों के नाम पर मेले-ठेले में 2 रुपये से लेकर 20 रूपये तक के अच्छे-खासे खिलौने क्या? टिकिया वाली बन्दुक,चाबी वाली कार हाथी-घोड़ा बस यही मिलता था. तकनिकी रूप से खिलौनों में हम ज्यादा तरक्की नहीं किये थे या यूँ कहें कि हम खिलौनों की अच्छी दुकान पर पहुँच ही नहीं पाते होंगे. तब घर की आर्थिक स्थिति फ़िलहाल ठीक थी किराने की दुकान के साथ-साथ साईकिल की दुकान थी, फर्निचरी का भी काम होता था. पिता जी मेठगिरी (ठेकेदारी) भी करते थे, मने कुल मिला के दाल-रोटी का इंतजाम हो जाता था. बचपन में हमारा पढ़ाई लिखाई से ज्यादा मन दुकान-दौरी के साथ ही साथ रचनात्मकता में रमा रहता था. छः बधिया से लेकर छोटे-छोटे कियारीदार चारपाई की बुनाई (नाना को बुनते देख कर सीख लिया था.), बांस/शहतूत की टोकरी और अल्युमिनियम तार की टोकरी बर्तन रखने के लिए  (जिसको हमारे तरफ खांची बोलते हैं) रेडियो रिपेयरिंग पंखे की वाईन्डिंग/रिपेयरिंग, सिलाई मशीन रिपेयरिंग थोड़ी-बहुत दर्जीगिरी, फर्निचरी का काम पापा को करते देख कर सीख लिया था, दरवाजे, कुर्सी-मेज, चारपाई, तख्ता आदि बनाने में निपुड हो गया था. सबसे बड़ी मजे की बात यह थी कि शादी व्याह में दुल्हे-दुल्हन की पाटी (बैठने का पीढ़ा) पुजाई या बारात के वापस आने पर बेड/दहेज़ के तख्ते को फिट करने की लिए जाता तो 151 रुपये से कम न लेता, हमारे चक्कर में दुसरे छोटे भाईयों को माता जी गुस्से में आकार खरी-खोटी सुनती थी, “इसका जीवन तो कट जायेगा तुम्हारे लोगों का क्या होगा न पढ़ने में हो  न कुछ गुण ढंग में.....मने बहुत कुछ सुना देतीं थीं.

हाईस्कूल के बाद (पापा जी का कहना था फेल हो गए तो पढ़ाई छोड़ा देंगे .....अपना भी कुछ ऐसा ही था पर हुआ कुछ और हम दोनों भाई नवल किशोर और मैं गुड सेकेण्ड डिवीजन से पास हो गए पूरे गाँव में पास होने वाले पहले थे) इंटर के बाद पढ़ाई का ऐसा चस्का लगा कि आज डिग्रियों की भरमार है और गुलाम (सरकारी नौकर) बनने की जद्दोजहद जारी है. बचपन का सब हुनर छूट गया आज पढ़ाई-लिखाई तक सिमित होकर रह गया हूँ. बेकार और बेरोजगार/प्राइवेट विद्यालय की प्रोफेसरी है, मझला भाई दुबई में डोमेस्टिक इलेक्ट्रीशियन का काम करता है और दो भाई एक बहन पढ़ाई-लिखाई में लगे हुए हैं.

(स्मृतियों के झरोखे से)


-अखिलेश कुमार अरुण
लखीमपुर खीरी उ०प्र०
मो०न०-८१२७६९८१४७

Monday, April 19, 2021

क्षमा करना जीजी का अनंत में अंत


फेसबुक के वाल पर अबाध गति से दौड़ती उंगलिया यकायक थम सी गयीं, मानो बज्रपात हो गया. साहित्यजगत का एक और तारा जीवन के अंतिम पटल पर जाकर शून्य में विलीन हो गया. पिछले वर्ष से लेकर आज तक हमने साहित्य के क्षेत्र से अनेक शब्द-साधकों को खो दिया है. कोरोनाकाल का बरपा कहर अभी थमने का नाम नहीं ले रहा है. अनेक नामचीन साहित्यकारों गिरिराज किशोर, राहत इन्दोरी, शांति स्वरुप बौद्ध आदि को हमने खोया है और खोते जा रहे हैं, साहित्यकारों की इस श्रंखला में बीते का 17 अप्रेल को एक और नाम जुड़ गया. जाने-माने साहित्यकार पदमश्री सम्मान के साथ-साथ दर्जनों साहित्यिक सम्मान से सम्मानित नरेन्द्र कोहली जी कोरोना के चपेट में आने से काल-कवलित हो गए. साहित्य जगत के लिए यह एक अपूर्णीय क्षति है.


 

नरेन्द्र कोहली जी कोई रचना हमारे हाथ लगी तो वह थी ‘क्षमा करना जीजी’ जो एक  सामाजिक उपन्यास है जिसकी रचना कर पाठकों के अंतर्मन में अपनी पैठ बना लिए थे. मैं इस उपन्यास को पढ़ता ही चला गया अंतिम पृष्ठ तक, इस उपन्यास का चित्रण परिवार के सम्बन्धों के भावुक वातावरण को लेकर चित्रित किया गया है, किन्तु इसकी मूल व्यथा पारिवारिक सम्बन्धों तक ही सीमित न होकर निम्न मध्य वर्ग की नारी के जीवन में, विकास पथ के विघ्नों के रूप में उसके सामने आती अनेक समस्याएं हैं। परिवारजनों का स्नेह बंधन भी एक बाधा हो सकता है। इस उपन्यास की नायिका जिजीविषा से भरी एक जुझारू महिला है जो अपने सामर्थ्य, श्रम तथा साहस के बल पर जीवन का निर्माण करना चाहती है। वह वैसा कर पाती है या नहीं इसमें मतभेद हो सकता है, लेकिन वह अपने सम्मान की रक्षा में सफल होती है, इसमें कहीं कोई संदेह नहीं कि यह एक कालजयी रचना नहीं है । नरेन्द्र कोहली के इस सामाजिक उपन्यास को हिन्दी पाठक समाज द्वारा खूब सराहा गया है। एक और उपन्यास है  ‘न भूतो न भविष्यति’ स्वामी विवेकानंद के जीवन पर आधारित उपन्यास है जिसमें लेखक ने बड़े मनोयोग से अपनी रचनाशीलता का परिचय दिया है, आदि से अंत तक इस उपन्यास से स्वामी विवेकान्द जी के कर्म, लक्ष्य और उनकी उपलब्धियों की स्पष्ट झलक मिलती है एक बार पुनः स्वामी जी जीवित हो जाते हैं .

 

कोहली जी की रचनाओं में 'परिणति', 'नमक का कैदी', 'संचित भूख', 'किरचे', 'निचले फ्लैट में' और 'नींद आने तक' जैसी कहानियाँ, पाठकों द्वारा न भुलाई गयीं न भुलाई जाएँगी। अपनी वेजोड़ रचनाकरिता के लिए आप सदैव साहित्य जगत में ध्रुव तारे की तरह टिमटिमाते रहेंगें.

-अखिलेश कुमार अरुण

कोरोना का दूसरा दौर और हम

कोरोना का दूसरा दौर और हम

-अखिलेश कुमार ‘अरुण’

(स्वतंत्र दस्तक, जौनपुर से प्रकाशित 19 अप्रैल 2021)

मेरे इस लेख लिखे जाने तक भारत में कोरोना मरीजो की संख्या पुरे भारत में 1,42,91,917 है, प्रदेशों की बात करें तो महाराष्ट्र अपने यहाँ कोरोना मरीजों की संख्या 36,39,855 के साथ पहले स्थान पर है। हम जिस प्रेदश में रहते हैं वहां मतलब अपने उत्तर प्रदेश में कोरोना मरीजों की संख्या 7,66,360 के साथ ७ वें स्थान पर है। अच्छी बात यह है कि अपने देश में कोरोना से मरने वालों की संख्या काफी कम है। भारत में कुल कोरोना मरीजों की संख्या 1,42,91,917 के सापेक्ष मरने वालों की संख्या- 1,74,308 है जो 1।26 प्रतिशत है।


इस वैश्विक महामारी की भयावहता को हमारा देश अन्य देशों की अपेक्षा नहीं देख सका है। इटली, फ़्रांस, चीन, अमेरिका में जो देखने को मिला वह काफी डरावना और मानसिक अवसाद का कारण बना, व्यक्ति अपने जीवन को जीने के लिए पल-पल की कुशलता का कामना कर रहा था। उस स्थिति का सरकार ने जमकर फायदा उठाया मंदिर-मस्जिद के मुद्दे को भुनाया गया, किसान निति को लागू करने का बिल लाया गया, धारा 370 हटाया गया आदि जो पेंडिग मुद्दे थे उनको सलटाने में कोई कोर-कसर बाकी नहीं रखा गया परिणामतः लोगों का विश्वाश सरकार की नीतियों से उठता गया और कोरोना से सम्बंधित गाईडलाईस की अवहेलना जनसामान्य के द्वारा की जाने लगी क्योंकि लोगों को यह संदेह हो गया की सरकार कोरोना की आडं में अपने उल्लू सीधा कर रही है जिसके चलते आज हम फिर पुनः कोरोना के मुहँ जा फंसे हैं। पिछली बार कोरोना के चलते जो लाकडाउन किया गया जो नीतियाँ लागू की गयीं उसका पालन हमारे देश के नागरिकों ने बखूबी किया और कर भी रहे थे किन्तु सरकार ऊँघ रही थी। सरकार की तयारी कोरोना को लेकर पहले भी और आज भी नगण्य है। अस्पताल आदि की अत्याधुनिक सुविधाओं पर ध्यान नहीं दिया गया और न दिया जा रहा है।

कोरोना की विश्वसनीयता पर सरकार के कुछ कार्य आज भी प्रश्नचिन्ह का कार्य कर रहे हैं जैसे धार्मिक यात्राओं का निर्वाध अवागमन, कुम्भ मेले का स्नान, राज्य स्तरीय चुनाव की रैलियाँ और स्थानीय चुनावों में लोगों की उमड़ती भींड आदि आखिर क्या है यह? क्या कहेंगे इसे? सरकार की मंशा क्या है? क्या चाहती है सरकार और क्या चाहते हैं हमारे देश के लोग? एक साथ हजारों प्रश्न व्यक्ति को एक ऐसे चौराहे पर ला खड़ा किया है जहाँ उसका जीवन है भी और नहीं भी है,  क्या करे अपने लिए और अपने परिवार के लिए उसकी इस मनःस्थिति का जिम्मेदार हमारी वर्तमान सरकार है।

korona

देश का हर एक व्यक्ति काम-धाम से घर आता है तो परिवार के प्रत्येक सदस्य का मन भायातंकित हो उठता है। हमारे बीच से कौन सुबह का किरण देखेगा और कौन नहीं, एक  माँ-बाप के सामने बच्चों की और बच्चों के सामने माँ-बाप की, भाई-बहन, पति-पत्नी और नाते-रिश्तेदारों की  रोनी सूरत एक साथ हजारों सवाल खड़े कर जाती है आपनो से बिछड़ने का गम हर वक्त साये की तरह हमारे आगे-पीछे मंडरा रही है।

चिकत्सकीय जगत के लोग कोरोना जैसी वैश्विक बीमारी को दुधारू गाय समझ कर खूब दुह रहे हैं। प्राईवेट अस्पताल संचालक सामान्य व्यक्ति के जाँच रिपोर्ट में कोरोना की पुष्टि कर दो-चार दिन इलाज कर अच्छा-खासा रूपये ऐंठ लेते हैं और नेगेटिव कर चलता बनते हैं। बड़े-बड़े महानगरीय शहरों में चिकत्सकीय जगत की काली-करतूतें जग-जाहिर हो रहीं हैं किन्तु उन पर न सरकार का सिकंजा है और नहीं प्रशासनिक कार्यवाही की जा रही है। हस्पतालों के प्रति राज्य और केंद्र सरकार की लापरवाही का नतीजा है कि प्राईवेट अस्पतालों की खेती फल-फूल रही है।

जन-सामान्य की कम होती भागीदारी कोरोना महामारी को फलने-फूलने में सहायता प्रदान कर रही है इसलिए लोगों को स्वंय से स्वयं के प्रति और अपने ईष्ट-मित्रों, परिवार के प्रति जागरूक होने की आवश्यकता  है तभी हम अपने और अपने परिवार को सुरक्षित रख सकते हैं क्योकिं अपनी सुरक्षा अब अपने हाँथों  है और उसे आप जाने मत दें।

*इति*

Monday, February 22, 2021

अंतराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस (मने हमार भोजपुरी भासा भ बोली)-अखिलेश कुमार अरुण

 मातृभाषा दिवस पर विशेष  

 

21 फरवरी, हमार आपन मातृभाषा कऽ दीन हओ 'अंतराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस' हमरा घर-परिवार के आपन लोगिन के बोली जहां सब कुछ भोजपुरिए में बोलल आउर बतीआवल जाला। माई भ पापा, चाचा-चाची आउर भाई-बहिन सभे लोग दादा-दादी के भोजपुरी छोड़ हिंदी में बतियावल अबो याद बा, न शुद्ध हिन्दिए न भोजपुरिए। उदाहरण ला हिन्दी में प्रयास देखिए, १- आही माई! सब पीसान त कुकुर जुठार दिया, आ हाई माई दुआर प बईठ के नजारा मार रहीं है। २- हमरे इहाँ फेंड़ पर कऽ अमरूत  बहुत मीठा होता है पर कीड़ा लग जाता है बाकिर बुझाता नहीं है जब उसको चियार के देखिए तऽ छोटा-छोटा पिलुआ लऊकेगा.....! 3. आज-काल्ह के लईकी लोगिन के नखरा अलगहीं रहता है, काम न धाम के दुश्मन अन्न्जाज....अभी हमारी माता जी भी भोजपुरी से हिंदी में बात करते हुए असहज महसूस करती हैं। हम जान बुझकर अपनी मातृभाषा का पुट अपने दैनिक जीवन की बोल-चाल की भाषा में मिलाकर प्रयोग करते हैं यथा- ऐ सेठ एक ठो डिटॉल साबून और एक ठो ......दू ठो.......मने पूछिये मत इतना बोलना होता कि भीड़ में हम अपनी अलग पहचान बना बैठते हैं।

भोजपुरी हमारी मातृभाषा है जन्म लेने के बाद केवल रोना-हंसना जानते थे, भाषा विकास में बहुत बड़ा सहयोग रहा है तबसे लेकर अब तक हिन्दी, अंग्रेजी, संस्कृत, अवधि, थारु, पंजाबी आदि भाषाएं/बोली लिख-पढ़ और बोल लेते हैं पर आत्मसंतुष्टि हमें अपनी मातृभाषा में ही मिलती है। मां जैसा प्यार और दुलार मिलता है हमें, हमारी मातृभाषा से "कहऽ थोड़ी सऽ बुझालाऽ पूरा।"
जब हमें, हमारे यहां के स्थानीय (खीरी जिले के ) मित्र आपस में भोजपुरी भाईयों के साथ बात करते देखते हैं तो कभी-कभी उनका बचकाना सवाल होता है कि आपके तरफ दूधमुंहे बच्चे भी भोजपुरी में बोलते हैं क्या? बिल्कुल बोलते हैं भाई, उनके तोतले मुंह से  भोजपुरी और सुंदर बन पड़ती है बस मन करता है सुनते ही जाएं।

आज मैं भोजपुरी में लेखन भी करता बहुत से गीत और कविताएं भोजपुरी की पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हैं और होती रहेंगी कुछ हमारे गीत भोजपुरी में यूट्यूब के लिंक पर भी मिल जाएगा भोजपुरी में एक से एक माटी गीत हैं खूब सुनिए और सुनाईए पर टुटपुंजिहे गायकों का गीत सुनकर हमारी मातृभाषा को बदनाम मत कीजिए भोजपुरी को बदनाम करने और बुराई करने वाले लोग कभी भोजपुरी के असल गीत नहीं सुने होंगे। अंतराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस' के फेनु से हारदिक शुभकमना।

-अखिलेश कुमार 'अरुण'

Sunday, January 24, 2021

बालिका दिवस सावित्रीबाई फुले का सामाजिक व शैक्षिक योगदान-अखिलेश कुमार 'अरुण'

बालिका दिवस पर विशेष

बाल गंगाधर बागी की रचना से हम अपने वक्तव्य की शुरुआत करते हैं-

सावित्री हमारी अगर माई न होती
तो अपनी कभी भी पढ़ाई न होती
जानवर सी भटकती मैं इंसान होकर
ज्योति शिक्षा की अगर तूं थमाई न होती

ये देह माँ ने दिया, पर सांस तेरी रही 
ये दिया ही न जलता गर तूं बताई न होती
किसकी अंगुली पकड़ चलती मैं, दिन ब दिन
गर तूं शिक्षा की सरगम सुनाई न होती.

आज हम सब 13 वें बालिका दिवस के उपलक्ष्य में एकत्र हुए हैं, इस राष्ट्रीय बालिका दिवस की शुरुआत महिला और बाल-विकास मंत्रालय के तत्वाधान में भारत सरकार ने 2008 में किया था। वर्तमान समय के बदलते परिवेष में बालिकाओं को प्रयाप्त स्वतन्त्रता प्रदान की गई है केन्द्र से लेकर राज्य सरकारों ने अनेक योजनाओं का किर्यान्वयन किया हुआ है किन्तु अबोध बच्चियां आज भी कोख में मार दी जा रही हैं। इतिहास के पन्नों में बालिकाओं के साथ की जाने वाली कु्ररता बरबस ही आंखों में पानी ला देता है, अबोध बच्चियों को तालू में अफीम चिपकाकर मारने की बात हो या देवदसी प्रथा के नाम पर क्रूरता, बालविवाह, सतीप्रथा, आदि-आदि। बदस्तूर यह सब आज भी जस का तस जारी है बस नाम बदलकर यथा-गर्भ में भ्रूण जंाच, बालात्कार-व्यभिचार, अनमेल विवाह, आदि।

इन सब बुराईयों को दूर करने के लिए षिक्षा ही एक ऐसा अस्त्र है जिससे सारे बन्धनों को तोड़ा जा सकता है अतः भारत देष में षिक्षा का अलख जगाने वाली सावित्रि बाई फूले पहली महिला हैं जो स्त्री-षिक्षा के लिए अपने को समर्पित कर दिया था। देश की पहली महिला शिक्षक, समाज सेविका, मराठी की पहली कवयित्री और वंचितों की आवाज बुलंद करने वाली क्रांतिज्योति सावित्रीबाई फुले का जन्म 3 जनवरी, 1831 को महाराष्ट्र के पुणे-सतारा मार्ग पर स्थित नैगांव में एक दलित कृषक परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम खण्डोजी नेवसे और माता का नाम लक्ष्मीबाई था। 1840 में मात्र 9 साल की उम्र में सावित्रीबाई फुले का विवाह 13 साल के ज्योतिराव फुले के साथ हुआ।  उनका सौभाग्य रहा कि उन्हे ज्योतिबा फूले के रुप में उन्हें पति मिला, जिनका पग-पग पर सहयोग मिला। षिक्षा पर जोर देते हुए उन्होनें कहा है कि स्वाभिमान से जीने के लिए पढ़ाई करो।


आप जब व्याह कर आईं थीं तब आप अषिक्षित थीं इस क्रम में सबसे पहले ज्योतिबा जी ने आपको पढ़ाया-लिखाया, इस काबिल बनाया कि आप स्त्री-षिक्षा की मसाल को जला सकें। यह सब फूले परिवार के लिए इतना आसान नहीं था। जब आपको षिक्षित करने का कार्य ज्योतिबा जी कर रहे थे तब भिन्न-भिन्न प्रकार के प्रताड़ना को आपने सहन किया। उस समय तक महिला को षिक्षित किया जाना सामान्य बात नहीं थी। सावित्री जी एक महिला के साथ-साथ शूद्र समुदाय से थीं। यानी एक तो करेला दूसरे नीम चढ़ा वाली स्थिति आस-पास के पितृ-प्रधान समाज के लोग आपके सास-ससुर के कान भरते रहते थे परिणामतः आप दोनों को परिवार से अलग कर दिया गया, यह दम्पति दर-दर की ठोकरे खाने को मजबूर हो गये थे किन्तु हिम्मत नहीं हारे अपने कर्म पर अडिग रहे। सावित्रीबाई फुले जब पढ़ाने के लिए अपने घर से निकलती थी, तब लोग उन पर कीचड़, कूड़ा और गोबर तक फेंकते थे। इसलिए वह एक साड़ी अपने थैले में लेकर चलती थी और स्कूल पहुंचकर गंदी हुई साड़ी को बदल लेती थी।


सावित्रीबाई फुले और उनके पति ज्योतिराव फुले ने वर्ष 1848 में मात्र 9 विद्यार्थियों को लेकर एक स्कूल की शुरुआत की। बाद में उनके मित्र सखाराम यशवंत परांजपे और केशव शिवराम भावलकर ने उनकी शिक्षा की जिम्मेदारी संभाली। उन्होंने महिला शिक्षा और दलित उत्थान को लेकर अपने पति ज्योतिराव के साथ मिलकर छुआछूत, बाल विवाह, सती प्रथा को रोकने व विधवा पुनर्विवाह को प्रारंभ करने की दिशा में कई उल्लेखनीय कार्य किये। उन्होंने शुद्र, अति शुद्र एवं स्त्री शिक्षा का आरंभ करके नये युग की नींव रखने में आपने अदम्य साहस का परिचय दिया है जिसके लिए भारत की प्रत्येक महिला आपकी ऋणी है और रहेगी वह चाहे सवर्ण समाज की हो अथवा शुद्र, अति शुद्र समाज की महिला क्योंकि महिलाओं की गिनती वंचित तबके में की जाती है, यह अपने देष दुर्भाग्य है कि हम सावित्री बाई फूले जी को वह सम्मान नहीं देते जिसकी कि वह हकदार हैं सम्पूर्ण महिला जाति का शैक्षिक उध्दार सावित्री बाई फूले की ही देन है। 

उनके योगदान को लेकर 1852 में तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने उन्हें सम्मानित भी किया। साथ ही केंद्र और महाराष्ट्र सरकार ने सावित्रीबाई फुले की स्मृति में कई पुरस्कारों की स्थापना की और उनके सम्मान में एक डाक टिकट भी जारी किया।

जाओ जाकर पढ़ो-लिखो बनो आत्मनिर्भर, बनो 
मेहनती काम करो-ज्ञान और धन इकट्ठा करो।
ज्ञान के बिना सब खो जाता है,
ज्ञान के बिना हम जानवर बन जाते हैं
इसलिए, खाली न बैठो, जाओ,
जाकर शिक्षा लो

धन्यवाद

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भाषण से अंश-
भगवान दीन आर्य कन्या महाविद्यालय, लखीमपुर खीरी

Tuesday, October 13, 2020

सुंदरियाँ गलत हाथों में हैं

Tamatina Rajasthani Canvas Paintings - Indian Village Women - Miniature  Style - Rajasthani Wall Décor - Traditional Rajasthani Paintings -  Rajasthani Paintings - Paintings for Bed room - Paintings for Living Room -सोशल मिडिया पर कपल चैलेन्ज का हैसटेग ट्रेंड हो रहा है। एक से एक खूबसूरत जोड़े तो नहीं किन्तु इतना कह सकते हैं कि देश की सुंदरियां गलत हाथों में हैं, दिल पर मत लीजियेगा आपके तारीफ में ही यह लेख है। महिलाएं सुकुमार, कोमल होती हैं और साथ ही साथ सौन्दर्यता की प्रतीक भी होती हैं। पुरुष वर्ग सौन्दर्य का आशिक्त होता है एनकेनप्रकरणेन सौंदार्यता पर अपना अधिकार स्थापित करना उसका परमलक्ष्य होता हैकपल चॅलेंज'वर विवाहित जोडप्यांचा फोटोंचा पाऊस | eSakal। गुजरे जमाने में शक्ति और धनबल से सुन्दर स्त्रिओं पर अपना अधिकार स्थापित कर लेता था। जिसका विषद-वर्णन हमें इतिहास और साहित्य से प्राप्त होता है सौन्दर्यविजेताओं ने आम्रपाली, हेलेना, संयुक्ता, रूपमती, मस्तानी, जोधाबाई, नूरजहाँ, मुमताजमहल जैसी सुंदरियों पर अपना अधिकार स्थापित किया और कुछ असफल सौन्दर्य विजेता भी हैं यथा हीर-राँझा, सोनी-महीवाल, लैला-मजनू, अनारकली-सलीम, मिर्जा-साहिबा, ढोला-मारू आदि जिनकी सौन्दर्य युद्ध में हार हुई अपने जीवन का अंत कर लिया उसे मानव ने प्यार का नाम दे दिया यानि सच्चे आशिक जो घुट-घुट कर मरने की बजाय मौत को गले लगया और सदा-सदा के लिए अमर हो गए। आज के सौन्दर्य-विजेता धनबल के प्रभाव से सौन्दर्यता पर हावी हैं जिनके पास सरकारी नौकरी है, रूपया-पैसा है, बंगला है, वे ही सच्चे अर्थों में सौन्दर्यविजेता हैं। गुलाब खूबसूरत पुष्प है जिसको सभी पाने के लिए लालायित रहते हैं किन्तु वह किसके हाथ में हैं इसका उसे मलाल नहीं कुछ ऐसा ही सुन्दर लड़कियों और स्त्रियों का भी है। मानव स्वभाव से अधिकार प्रवृत्ति का होता है उसका सुन्दरता या किसी वस्तु के प्रति खिंचाव तब तक होता है जब तक की वह उसे अपने अधिकार क्षेत्र में नहीं ले लेता, काबिज होते ही फिर उसका मोह भंग होने लगता है, ये तो अपना ही है। कपल चैलेन्ज हैसटेग में ज्यादतर वही जोड़े सहभाग कर रहे हैं जो अभी नये हैं पुराने रूप सौन्दर्य पर अधिकार पा चुकें हैं इसलिए इस दौड़ से बाहर हैं। कपल चैलेन्ज के नाम पर महिलाओं की अपेक्षा पुरुषों ने ज्यादा अपनी पत्नी जोड़े का साथ फोटो शेयर किया है। महिलाओं में कहीं न कहीं इस बात की खुन्नस है कि उनका जोड़ उनके मनमाफिक नहीं है उन्होंने अपने अकाउंट से अपने साथी का फोटो शेयर नहीं की इस बात का पुख्ता प्रमाण है। दिल पर मत लीजियेगा क्योंकि हमारा काम था विश्लेषण करना सो कर दिया।
-अखिलेश कुमार 'अरुण'

Tuesday, August 25, 2020

भोजपुरी गानों में जातीयता के आंड़ में अश्लीलता

भोजपुरी गानों में जातीयता के आंड़ में अश्लीलता

मने पांडे जी के बेटा हैं तो किसियो को उठा के चुम्मा लीजियेगा. मने डर-भय नाम का कुछऊ मन में हयिये नहीं है का? देश कहाँ से कहाँ पहुँच गया अभी आप जातीय श्रेष्टता को साबित करने में लगे हैं. किसी के माँ-बहन बेटी के इज्जत का कोई मूल्य नहीं है. इसका असर समाज पर जानते हैं बहुत बुरा हुआ है अबरी के लड़की लोगन के जबरी पाण्डेय जी का बेटा है.... कह के अश्लील हरकत लोग करता था. अश्लीलता की श्रेणी में इहो आता है. कोई ठकुरईपन को गाने के रूप में परोस रहा है तो कोई बब्भनई के रूप में, आपको शोहरत मिल गया है तो

इसका मतलब आप जातीयता को बढ़ावा देंगे. आ फिर कहते हैं की #जाति_है_की_जाती_नहीं. आपसे पहले भी बहुत लोग गायक कलाकार हुए हैं- भिखारी ठाकूर, रघुवीर नारायण, विद्यापति, कुबेर नाथ मिश्र और धरीक्षण मिश्र नया में शारदा सिन्हा, मनोज तिवारी, विष्णु ओझा, भरत शर्मा, मदन राय और भी बहुत लोग हैं इनके में जातीयता की जगह लोक-समाज की आवाज दिखती विरह है. का ई लोग गायक नहीं है इनके दिमाग में नहीं आया था की ऐसा गाना गया जाये जेवना में ठकुरई-बब्भनई क गुडगान हो.

आपको स्टारडम के शीर्ष पर केवल आपही के जाति वाले पहुंचाए हैं? नहीं न. दूसरी जाति वाले आपको को छोड़ दें तब कहीं का नहीं रहियेगा, स्टारडम सब .....हेल जायेगा. रास्ता आपही देखाते हैं जब छोटा लोग दोहारने लगता तब चिचियाने लगते हैं. मने एक ठो ट्रेंड चल गया था. युटुब मैं पट गया था. बाबु साहब का बेटा...यादव जी का बेटा हूँ....चमार का बेटा हूँ........पासी......धोबी.....



 धानुक आदि-आदि मने न जाने का का. किसी ने तो गाने का जबाब इहाँ तक गा दिया कि पांडे जी बेटी हूँ...चिपक के चुम्मा......अब का करियेगा? मान-सम्मान दीजियेगा तभी न पाईयेगा. फ़िलहाल इसने भी गलत किया पाण्डेय जी की बेटी का क्या दोष है. खार खाए बैठे थे तो पाण्डेय जी को कोर्ट-कचहरी में घसीट देते...थोडा उनको भी बुझा जाता. यही होना भी चाहिए......आप ठाकुर जी हैं त ठकुरई के रोब में परोस रहें हैं #नजर मिलाओ बबुआन से..... इसका असर समाज पर क्या पड़ेगा जानते हैं? हमको तो लगता है कि अपराध बढ़ाने में सबसे जादा आपही लोग हैं. और भी बहुत कुछ लिखेके फ़िलहाल आज इतना ही.

अखिलेश कुमार अरुण


Friday, August 21, 2020

बहुजन समाज की चतुराई उसी पर भारी

आज का बहुजन समाज भटका हुआ नहीं है हद से ज्यादा चतुर हो गया है. उसकी चतुरता का ही परिणाम है वह राजनीतिक रूप से अपना आस्तित्व खो चूका है.
                                        
अम्बेडकर जी अपने लेख में कई जगह जिक्र करते हैं की समाजिक रूप से आप जागरूक नहीं हैं तो राजनातिक सुख केवल क्षणिक ही होगा स्थाई राजनीतिक सुख पाने के लिए सामाजिक रूप से जागरूक होना पड़ेगा.परिणामतः बाबा साहब रिपल्बिकन पार्टी ऑफ़ इंडिया और कांशीराम साहब तो राजनैतिक पार्टी स्थापित करने से पहले सामाजिक उद्धार के लिए अनेक सस्थाओं व संगठनों (बामसेफ 1971, DS-4 1981) को स्थापित किया किन्तु राजनैतिक सत्ता प्राप्त करने में जल्दीबाजी नहीं किये १४ अप्रैल 1984 को बहुजन समाज पार्टी का गठन किये.* यह वह समय था जब सामाजिक रूप से उत्तर प्रदेश का बहुजन समाज जागरूक हो चूका था. अब उसे आवश्यकता थी बाबा साहब वाली राजनीतिक चाबी को प्राप्त करने की. इस राजनीतिक परिवर्तन को उत्तर प्रदेश की राजनीति में काफी सफलता मिली. इसका शुरुआती स्वरुप अवर्णों की राजनीतिक भागीदारी में भागीदार बनाना था किन्तु उत्तरोत्तर यह सवर्णों और अवर्णों के बीच खिचीं गई खाईं को पाटने पर ध्यान देने लगी इसे हम मौका परस्ती की राजनीति कह सकते हैं जिसका असर यह हुआ की उत्तर प्रदेश में आयरन लेडी सुश्री मायावती जी सूबे की चार बार मुख्यमंत्री रहीं (यहीं ख़त्म करते हैं) हमरा समाज जीते जी अपने नेताओं को महत्त्व नहीं देता. बाबा साहब की बुराई करने वाले उनके समाज के लोग ही बाबा साहब के मरने के बाद सच्चे हितैषी हो गए अगर जीते जी उनके साथ होते तो आपको पूना-पैक्ट में समझैता नहीं करना पड़ता हिन्दू कोडबिल के चलते अपने पद से त्याग नहीं देना पड़ता. शंकरानंद शास्त्री (बाबा साहब के आजीवन सहयोगी) उनकी जीवनी में लिखते हैं की बाबा साहब को कई ऐसे मौकों का सामना करना पड़ा जब अपने ही समाज के लोग उन्हें मारने के लिए घात लगाये बठे रहते थे. कांशीराम जी (अपने भाषण और लेखों में जिक्र करते हैं की लोग मुझे देखकर अपना रास्ता बदल लेते थे. सहयोग और सपोर्ट की तो बात करना ही व्यर्थ है) को भी जीते जी प्रसिद्धि प्राप्त नहीं हुई जो आज के वर्तमान समय में मिली हुई है. आज के समय में काशीराम जी को जो महत्व दिया जा रहा है वह उनके जीते जी मिलता तो शायद राजनितिक परिदृश्य कुछ और होता. वही स्थिति आज बसपा सुप्रीमों मायावती जी की भी अपने समाज का सहयोग न मिलने पर विभिन्न प्रकार के हथकंडों को अपना रही हैं परिणामतः मौका परस्ती की राजनीति में संलिप्त हैं अखिलेश यादव जी परसुराम की मूर्ति लगाकर ब्राह्मणों को अपने पाले में करने के लिए पुरज़ोर कोशिश में लगे हुए हैं तो मायावती जी परशुराम के नाम पर अस्पताल स्कूल आदि खोलकर अपने पाले लेने को तैयार हैं. ब्राहम्ण वर्ग अपनी असुरक्षा (पता नहीं कौन सी असुरक्षा) को लेकर सत्ताधारी पार्टी से खासा नाराज दिख रहे हैं (उनकी नाराजगी अपनी जगह है किन्तु राजनीतिक सपोर्ट अपनी पार्टी को ही करेंगे) और हमारा समाज जागरूक कम चतुर ज्यादा हो गया है. अपने शीर्ष नेता से नाराज होने का मतलब उसका पूर्णतः बॉयकाट हम मौका परस्ती की राजनीति को कब समझेंगे.
-अखिलेश कुमार अरुण

पढ़िये आज की रचना

चर्चा में झूठी-सुरेश सौरभ

(फिल्म समीक्षा)      एक मां के लिए उसका बेटा चाहे जैसा हो वह राजा बेटा ही होता है, बच्चे कच्ची मिट्टी की तरह होते हैं, जिन्हें हम अपने विचार...

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