साहित्य

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  • लखीमपुर-खीरी उ०प्र०

Sunday, January 24, 2021

बालिका दिवस सावित्रीबाई फुले का सामाजिक व शैक्षिक योगदान-अखिलेश कुमार 'अरुण'

बालिका दिवस पर विशेष

बाल गंगाधर बागी की रचना से हम अपने वक्तव्य की शुरुआत करते हैं-

सावित्री हमारी अगर माई न होती
तो अपनी कभी भी पढ़ाई न होती
जानवर सी भटकती मैं इंसान होकर
ज्योति शिक्षा की अगर तूं थमाई न होती

ये देह माँ ने दिया, पर सांस तेरी रही 
ये दिया ही न जलता गर तूं बताई न होती
किसकी अंगुली पकड़ चलती मैं, दिन ब दिन
गर तूं शिक्षा की सरगम सुनाई न होती.

आज हम सब 13 वें बालिका दिवस के उपलक्ष्य में एकत्र हुए हैं, इस राष्ट्रीय बालिका दिवस की शुरुआत महिला और बाल-विकास मंत्रालय के तत्वाधान में भारत सरकार ने 2008 में किया था। वर्तमान समय के बदलते परिवेष में बालिकाओं को प्रयाप्त स्वतन्त्रता प्रदान की गई है केन्द्र से लेकर राज्य सरकारों ने अनेक योजनाओं का किर्यान्वयन किया हुआ है किन्तु अबोध बच्चियां आज भी कोख में मार दी जा रही हैं। इतिहास के पन्नों में बालिकाओं के साथ की जाने वाली कु्ररता बरबस ही आंखों में पानी ला देता है, अबोध बच्चियों को तालू में अफीम चिपकाकर मारने की बात हो या देवदसी प्रथा के नाम पर क्रूरता, बालविवाह, सतीप्रथा, आदि-आदि। बदस्तूर यह सब आज भी जस का तस जारी है बस नाम बदलकर यथा-गर्भ में भ्रूण जंाच, बालात्कार-व्यभिचार, अनमेल विवाह, आदि।

इन सब बुराईयों को दूर करने के लिए षिक्षा ही एक ऐसा अस्त्र है जिससे सारे बन्धनों को तोड़ा जा सकता है अतः भारत देष में षिक्षा का अलख जगाने वाली सावित्रि बाई फूले पहली महिला हैं जो स्त्री-षिक्षा के लिए अपने को समर्पित कर दिया था। देश की पहली महिला शिक्षक, समाज सेविका, मराठी की पहली कवयित्री और वंचितों की आवाज बुलंद करने वाली क्रांतिज्योति सावित्रीबाई फुले का जन्म 3 जनवरी, 1831 को महाराष्ट्र के पुणे-सतारा मार्ग पर स्थित नैगांव में एक दलित कृषक परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम खण्डोजी नेवसे और माता का नाम लक्ष्मीबाई था। 1840 में मात्र 9 साल की उम्र में सावित्रीबाई फुले का विवाह 13 साल के ज्योतिराव फुले के साथ हुआ।  उनका सौभाग्य रहा कि उन्हे ज्योतिबा फूले के रुप में उन्हें पति मिला, जिनका पग-पग पर सहयोग मिला। षिक्षा पर जोर देते हुए उन्होनें कहा है कि स्वाभिमान से जीने के लिए पढ़ाई करो।


आप जब व्याह कर आईं थीं तब आप अषिक्षित थीं इस क्रम में सबसे पहले ज्योतिबा जी ने आपको पढ़ाया-लिखाया, इस काबिल बनाया कि आप स्त्री-षिक्षा की मसाल को जला सकें। यह सब फूले परिवार के लिए इतना आसान नहीं था। जब आपको षिक्षित करने का कार्य ज्योतिबा जी कर रहे थे तब भिन्न-भिन्न प्रकार के प्रताड़ना को आपने सहन किया। उस समय तक महिला को षिक्षित किया जाना सामान्य बात नहीं थी। सावित्री जी एक महिला के साथ-साथ शूद्र समुदाय से थीं। यानी एक तो करेला दूसरे नीम चढ़ा वाली स्थिति आस-पास के पितृ-प्रधान समाज के लोग आपके सास-ससुर के कान भरते रहते थे परिणामतः आप दोनों को परिवार से अलग कर दिया गया, यह दम्पति दर-दर की ठोकरे खाने को मजबूर हो गये थे किन्तु हिम्मत नहीं हारे अपने कर्म पर अडिग रहे। सावित्रीबाई फुले जब पढ़ाने के लिए अपने घर से निकलती थी, तब लोग उन पर कीचड़, कूड़ा और गोबर तक फेंकते थे। इसलिए वह एक साड़ी अपने थैले में लेकर चलती थी और स्कूल पहुंचकर गंदी हुई साड़ी को बदल लेती थी।


सावित्रीबाई फुले और उनके पति ज्योतिराव फुले ने वर्ष 1848 में मात्र 9 विद्यार्थियों को लेकर एक स्कूल की शुरुआत की। बाद में उनके मित्र सखाराम यशवंत परांजपे और केशव शिवराम भावलकर ने उनकी शिक्षा की जिम्मेदारी संभाली। उन्होंने महिला शिक्षा और दलित उत्थान को लेकर अपने पति ज्योतिराव के साथ मिलकर छुआछूत, बाल विवाह, सती प्रथा को रोकने व विधवा पुनर्विवाह को प्रारंभ करने की दिशा में कई उल्लेखनीय कार्य किये। उन्होंने शुद्र, अति शुद्र एवं स्त्री शिक्षा का आरंभ करके नये युग की नींव रखने में आपने अदम्य साहस का परिचय दिया है जिसके लिए भारत की प्रत्येक महिला आपकी ऋणी है और रहेगी वह चाहे सवर्ण समाज की हो अथवा शुद्र, अति शुद्र समाज की महिला क्योंकि महिलाओं की गिनती वंचित तबके में की जाती है, यह अपने देष दुर्भाग्य है कि हम सावित्री बाई फूले जी को वह सम्मान नहीं देते जिसकी कि वह हकदार हैं सम्पूर्ण महिला जाति का शैक्षिक उध्दार सावित्री बाई फूले की ही देन है। 

उनके योगदान को लेकर 1852 में तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने उन्हें सम्मानित भी किया। साथ ही केंद्र और महाराष्ट्र सरकार ने सावित्रीबाई फुले की स्मृति में कई पुरस्कारों की स्थापना की और उनके सम्मान में एक डाक टिकट भी जारी किया।

जाओ जाकर पढ़ो-लिखो बनो आत्मनिर्भर, बनो 
मेहनती काम करो-ज्ञान और धन इकट्ठा करो।
ज्ञान के बिना सब खो जाता है,
ज्ञान के बिना हम जानवर बन जाते हैं
इसलिए, खाली न बैठो, जाओ,
जाकर शिक्षा लो

धन्यवाद

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भाषण से अंश-
भगवान दीन आर्य कन्या महाविद्यालय, लखीमपुर खीरी

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