साहित्य

  • जन की बात न दबेगी, न छिपेगी, अब छपेगी, लोकतंत्र के सच्चे सिपाही बनिए अपने लिए नहीं, अपने आने वाले कल के लिए, आपका अपना भविष्य जहाँ गर्व से कह सके आप थे तो हम हैं।
  • लखीमपुर-खीरी उ०प्र०

Friday, August 21, 2020

बहुजन समाज की चतुराई उसी पर भारी

आज का बहुजन समाज भटका हुआ नहीं है हद से ज्यादा चतुर हो गया है. उसकी चतुरता का ही परिणाम है वह राजनीतिक रूप से अपना आस्तित्व खो चूका है.
                                        
अम्बेडकर जी अपने लेख में कई जगह जिक्र करते हैं की समाजिक रूप से आप जागरूक नहीं हैं तो राजनातिक सुख केवल क्षणिक ही होगा स्थाई राजनीतिक सुख पाने के लिए सामाजिक रूप से जागरूक होना पड़ेगा.परिणामतः बाबा साहब रिपल्बिकन पार्टी ऑफ़ इंडिया और कांशीराम साहब तो राजनैतिक पार्टी स्थापित करने से पहले सामाजिक उद्धार के लिए अनेक सस्थाओं व संगठनों (बामसेफ 1971, DS-4 1981) को स्थापित किया किन्तु राजनैतिक सत्ता प्राप्त करने में जल्दीबाजी नहीं किये १४ अप्रैल 1984 को बहुजन समाज पार्टी का गठन किये.* यह वह समय था जब सामाजिक रूप से उत्तर प्रदेश का बहुजन समाज जागरूक हो चूका था. अब उसे आवश्यकता थी बाबा साहब वाली राजनीतिक चाबी को प्राप्त करने की. इस राजनीतिक परिवर्तन को उत्तर प्रदेश की राजनीति में काफी सफलता मिली. इसका शुरुआती स्वरुप अवर्णों की राजनीतिक भागीदारी में भागीदार बनाना था किन्तु उत्तरोत्तर यह सवर्णों और अवर्णों के बीच खिचीं गई खाईं को पाटने पर ध्यान देने लगी इसे हम मौका परस्ती की राजनीति कह सकते हैं जिसका असर यह हुआ की उत्तर प्रदेश में आयरन लेडी सुश्री मायावती जी सूबे की चार बार मुख्यमंत्री रहीं (यहीं ख़त्म करते हैं) हमरा समाज जीते जी अपने नेताओं को महत्त्व नहीं देता. बाबा साहब की बुराई करने वाले उनके समाज के लोग ही बाबा साहब के मरने के बाद सच्चे हितैषी हो गए अगर जीते जी उनके साथ होते तो आपको पूना-पैक्ट में समझैता नहीं करना पड़ता हिन्दू कोडबिल के चलते अपने पद से त्याग नहीं देना पड़ता. शंकरानंद शास्त्री (बाबा साहब के आजीवन सहयोगी) उनकी जीवनी में लिखते हैं की बाबा साहब को कई ऐसे मौकों का सामना करना पड़ा जब अपने ही समाज के लोग उन्हें मारने के लिए घात लगाये बठे रहते थे. कांशीराम जी (अपने भाषण और लेखों में जिक्र करते हैं की लोग मुझे देखकर अपना रास्ता बदल लेते थे. सहयोग और सपोर्ट की तो बात करना ही व्यर्थ है) को भी जीते जी प्रसिद्धि प्राप्त नहीं हुई जो आज के वर्तमान समय में मिली हुई है. आज के समय में काशीराम जी को जो महत्व दिया जा रहा है वह उनके जीते जी मिलता तो शायद राजनितिक परिदृश्य कुछ और होता. वही स्थिति आज बसपा सुप्रीमों मायावती जी की भी अपने समाज का सहयोग न मिलने पर विभिन्न प्रकार के हथकंडों को अपना रही हैं परिणामतः मौका परस्ती की राजनीति में संलिप्त हैं अखिलेश यादव जी परसुराम की मूर्ति लगाकर ब्राह्मणों को अपने पाले में करने के लिए पुरज़ोर कोशिश में लगे हुए हैं तो मायावती जी परशुराम के नाम पर अस्पताल स्कूल आदि खोलकर अपने पाले लेने को तैयार हैं. ब्राहम्ण वर्ग अपनी असुरक्षा (पता नहीं कौन सी असुरक्षा) को लेकर सत्ताधारी पार्टी से खासा नाराज दिख रहे हैं (उनकी नाराजगी अपनी जगह है किन्तु राजनीतिक सपोर्ट अपनी पार्टी को ही करेंगे) और हमारा समाज जागरूक कम चतुर ज्यादा हो गया है. अपने शीर्ष नेता से नाराज होने का मतलब उसका पूर्णतः बॉयकाट हम मौका परस्ती की राजनीति को कब समझेंगे.
-अखिलेश कुमार अरुण

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