साहित्य

  • जन की बात न दबेगी, न छिपेगी, अब छपेगी, लोकतंत्र के सच्चे सिपाही बनिए अपने लिए नहीं, अपने आने वाले कल के लिए, आपका अपना भविष्य जहाँ गर्व से कह सके आप थे तो हम हैं।
  • लखीमपुर-खीरी उ०प्र०

Monday, January 01, 2018

भोजपुरी लोक-समाज के गायक

भोजपुरी लोक-समाज के गायक- रविन्द्र कुमार 'राजू' के निधन से एगो भोजपुरी के निमन अध्याय क पटाक्षेप हो गईल। उनके निधन पर हम सब भोजपुरिया लोगिन साथे-साथे ऊ सबे दुःखी बा जे उनकर गीत-संगीत से असीम सुख के अनुभति करत रहल हा।
परसों की रात हमरा देर रात क नींद ना आवत रहे तब मोबाईल से हेडफोन लगा के एगो गीत बजवनी अउर पाँच-छः बेर से अधिका ले सुनते-सुनत सूत कईलीं, ऊ गीत कवन रहे जानताड़ीं जा-"ए बलम जी"।
हमके का मालूम रहे कि उ गीत उनका अन्तिम समय की बेला में सुनत तारीं, जेकरा निधन के सनेश हमरा फेसबुक पर, मसहूर गीतकार/संगीतकार-अशोक कुमार 'दीप' जी के फेसबुक वॉल से पता चलल। अचके एगो झटका लागल उनके करीब से हम ना जानत रहलीं हं बकीर उनकर गीत-गवनई से परिवार जइसन रिस्ता रहल ह। उनकरा गीत में समाज के दरद रहल ह। एगो नवही कनिया के दुख क सुन्दर प्रस्तुति " ए बलम जी.........!" त परिवारिक प्रेम और त्याग क साक्षात दर्शन "खेत बारी बटीं जाई वीरना......।
अश्रुपूर्ण भावभीनी श्रध्दाजंलि।
गीतकार/साहित्यकार-अखिलेश कुमार अरुण

Friday, September 01, 2017

महात्मा ज्योतिबा फुले -अखिलेश कुमार अरुण

ज्योतिराव फुले पुण्यतिथि: दलित उत्थान के महात्मा, समाज के लिए किये अनेक  कार्य | NewsTrack
दलित समाज के प्रथम शिक्षक महात्मा ज्योतिबा फुले जी के जीवन का संक्षिप्त इतिहास
जन्म- 11 अप्रैल सन् 1827,पुणे मुम्बई
माता-पिता- चिमड़ाबाई,गोबिन्दराव
माता के बचपन में निधन हो जाने के बाद इनका लालन-पालन पिता की मौसेरी बहन सगुणाबाई ने किया।
14 वर्ष की उम्र में इनका विवाह सावित्रीबाई (8 वर्ष) के साथ सम्पन्न करा दिया गया।
काशीबाई विधवा स्त्री के अवैध संतान को गोद लिया था जिसका नाम यशवंत राव था।
शस्त्र की शिक्षा लाहुजी भाऊ से प्राप्त किया साथ में दो और छात्र थे-बाल गंगाधर तिलक,बलवंत फड़के
14 जनवरी 1848 को भिड़ के मकान में बालिका शिक्षा की प्रथम पठशाला की स्थापना की गयी,जिसकी मुख्य अध्यापिका थी सावित्रीबाई (15 वर्ष)।
अछूत बच्चों की शिक्षा के लिये 01 मई 1852 को प्रथम पठशाला की स्थापना की गयी।
मुम्बई सरकार द्वारा 16 नवम्बर 1852 को सम्मानित किया गया।
विधवा स्त्रियों की दयनीय दशा पर 28 जन. 1953 को बाल हत्या प्रतिबन्धक गृह की स्थापना की गयी।
पहली पुस्तक -तृतीय रत्न का प्रकाशन 1855 में किया गया,शिवाजी-जा-पंवाणा 1869,ब्राह्मणांचे कसब,किसान का कोणा, अछूतों की कैफियत, गुलामगीरी,अन्तिम पुस्तक-सार्वजनिक सत्यधर्म पुस्तक 1889
संपादन-सतधार पत्रिका
दलितों की मुक्ति का घोशणा-पत्र कहा गया उनकी पुस्तक गुलामगीरी को।
संगठन- महिला सेवा मण्डल,सत्य शोधक समाज
पुणे नगरपालिका के सदस्य रहे 1876-1882 तक
11 मई 1888 को नागरिक अभिनन्दन कर महात्मा की उपाधि दी गयी, सयाजीराव गायकबाण ने इन्हें बुकर टी वाशिगंटन के नाम से सम्बोधित किया है।
1888 में लकवा रोग से ग्रस्त हो गये और 28 नव.1890 को 63 वर्ष की आयु में निर्वाण को प्राप्त हुये।

                                                          

Friday, August 04, 2017

चोटी-कटवा का भ्रम, मास-हिस्टीरिया




Image result for hysteriaदेश के उत्तरवर्ती क्षेत्र में पिछले कुछ दिनों से सुनी-सुनाई अफ़वाह का सिलसिला लगातार जारी है। इसमें वे धूर्त मक्कार बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रहे हैं जो सत्य से कोशों दूर रहते हैं। लोगों को भ्रमित करना ही उनका पेशा है। मैं अपने बचपन के दिनों में मुँहनोचवा के आतंक का असर लोगों पर देख चुका हूँ जहाँ हमारे गाँव के ज्यादातर लोग रात को घर के अन्दर सोते थे, वहीं हमारे घर में परिवार के सभी लोग यहाँ तक कि हम बच्चे भी बाहर ही सोते थे इस अफ़वाह से आमना-सामना के लिये परन्तु दुर्भाग्य कहिये उस मुँहनोचवा का या मेरे परिवार का कभी आस-पास नहीं हु ये।

                       चोटी-कटवा का भ्रम, मास-हिस्टीरिया


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समय-समय पर विविध प्रकार के अभवाह लोगों के बीच आते रहे हैं। ये अफ़वाह विश्वास करने वालों के लिये काल हो जाते हैं और न मानने वालों के लिये मुर्खतापूर्ण धूर्त मक्कारी बस यही सत्य है। भारत की जनता आज भी अन्धविश्वास के चंगुल से मुक्त नहीं हो पाई है या यों कहें कि आज भी पोंगा-पंथी अपनी दुकान चलाने के लिये लोगों के बीच ऐसे अफवाह फैलाकर सत्यता की जाँच करते रहते हैं कि उनका और उनके द्वारा बनाये गये जादू-टोना, गण्डा-ताबीज, भूत, पिचाश, चुड़ैल आदि का कितना असर लोगों के दिलों-दिमाग पर है।


आज महिलायें ज्यादातर चोटी-कटवा से भयभीत हैं, गाँव तो गाँव इससे शहर की महिलायें भी अछूती नहीं हैं। यह कोई नई घटना नहीं है इससे पहले भी कई अफ़वाह लोगों के बीच आ चुका है। यथा-गणेश का दूध पीना, मंकीचोर, मुँहनोचवा, शंकर के त्रिनेत्र से आंसू आना, पेड़ में गणेश की आकृति उभरना आदि। कितने का उदाहरण दिया जाय परन्तु दुर्भाग्य रहा कि आज तक इन घटनाओं के साक्ष्य प्राप्त नहीं हुये। इसके तह में जाने का प्रयास करो तो साफ झूठ के अतिरिक्त और कुछ नहीं होता है। लोग सुनी-सुनाई बातों पर यकीन करते चले जाते हैं और पहला व्यक्ति अपने से दूसरे को अतिशयोक्ति में व्यापक वर्णन प्रस्तुत करता है। और यह सामूहिक रूप से लोगों को अपनी गिरफ्त में ले लेता है।

कुछ व्यक्ति इस प्रकार की अफवाहों के शिकार हो जाते हैं। इसमें कसूर उनका नहीं है। मनोवैज्ञानिकों के मतानुसार वे एक बिमारी से पीड़ित होते हैं जिसे हिस्टीरिया के नाम से जाना जाता है। हिस्टीरिया रोग की ज्यादातर शिकार महिलायें होती हैं। व्यापक क्षेत्र में जब इससे लोग पीड़ित हो जाते हैं तो इसे मास-हिस्टीरिया के नाम से जाना जाता है। हिस्टीरिया (HYSTERIA) की कोई निश्चित परिभाषा नहीं है। बहुधा ऐसा कहा जाता है, हिस्टीरिया अवचेतन अभिप्रेरणा का परिणाम है। अवचेतन अंतर्द्वंद्र से चिंता उत्पन्न होती है और यह चिंता विभिन्न शारीरिक, शरीरक्रिया संबंधी एवं मनोवैज्ञानिक लक्षणों में परिवर्तित हो जाती है। अतः इस रोग से पीड़ित महिलायें स्वयं का अफवाहों से सीधा संबन्ध प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से जोड़ लेती हैं जिस कारण वे कभी-कभी अपना जान भी गंवा बैठती हैं। हिस्टीरिया का उपचार मनोवैज्ञानिकों ने संवेदनात्मक व्यवहार, पारिवारिक समायोजन, शामक औषधियों का सेवन, सांत्वना, बहलाने, तथा पुन शिक्षण से किया जाना बताते हैं।

चोटि-कटवा से पीड़ित महिला जो बेहोस हो गयी थी या जो चोटिल हो गई है वे सब इसी रोग से पीड़ित हैं। इसके इतर वे महिलायें जो यात्रा के दौरान या बाजार, सिनेमाहाल, भीड़-भाड़ वाली जगहों पर जहाँ उनकी चोटी कट जाती है, वस्तुतः यह किसी सरारती व्यक्ति का काम है। जब लोगों के जेब कट सकते हैं, कानों के कुण्डल, गले का हार नोचा जा सकता है। तब की स्थिति में किसी महिला की चोटी काट देना तो बहुत सरल है। अफवाहों का बाजार कम पढ़े-लिखे लोगो के बीच ही फैलता है। शिक्षितवर्ग इन सबसे कोसों दूर रहता है।
Image result for hysteriaइसका एक मात्र बचाव जागरूकता है सही तरीके से आम-जन को निर्देशित किया जाना चाहिये कि अफवाहों को तब तक प्राथमिकता न दें जब तक कि उसकी पुष्टि नहीं हो जाती। ऐसा होता नही है मीडिया अपनी टीआरपी के लिये अन्धविश्वासियों के मूँह में माईक लाकर घूसेड़ देता है और तरह-तरह की चमत्कार लीलायें एक के बाद एक आखों देखी परोसता रहता है। अनुमानतः यह भी हो सकता है कि लोगों का ध्यानाकर्षण राजनीतिज्ञ धूर्त मुख्य मुद्दों से लोगों को बरगलाने के लिये इस फिजुल की बातों को हवा दे रहे हों, यह कोई बहुत बड़ी समस्या नहीं किन्तु मीडिया तिल का ताड़ बनाने में लगी है। आईये हम अपने को सतर्क रखें और अपने आस-पास के लोगों का जागरूक 
                -अखिलेश कुमार अरूण


Wednesday, April 12, 2017

बाबा साहब और उनकी जयंती

आज हम बाबा साहब की 126 वीं जयंती मना रहे हैं. उनकी पहली जयंती और आज की जयंती में प्रयाप्त परिवर्तन दृष्टिगोचित हो रहा है. बाबा साहब तब की जयंती में सामाजिक थे, दलितों के मसीहा थे उनको मानने और मनाने वाला उनका अपना एक वर्ग था किन्तु आज परिस्थिति उसके बिल्कुल विपरीत है बाबा साहब का राजनीतिक ध्रुवियकरण कर दिया गया है. आज के समय में वह वोट बैलेंस बन चुके हैं. उनके सिद्धांत, शिक्षा, उपदेश धूमिल होते जा रहें हैं. हमारे कहने का मतलब बाबा साहब को एक वर्ग विशेष से सम्बन्धित नहीं करना है उनको सभी मानों और मनाओ क्योंकि उन्होंने भारत जैसे विशाल विभिन्नताओं वाले देश का संविधान लिखने में महती भूमिका निभाई है. इसलिए प्रत्येक भारतवाशी उनका कर्जदार है परन्तु यह कहाँ शोभा देता है कि जयंती बाबा साहब की मनाये और गुणगान किसी और का करें यह सर्वथा उनके साथ अन्नाय ही है.

बाबा साहब डाW भीमराव रामजी अम्बेडकर सामाजिक रूप से अत्यन्त निम्न समझे जाने वाले वर्ग में जन्म लेकर भी जो ऊँचाई उन्होने प्राप्त की यह बात हम सबके लिये अत्यन्त प्रेरणादायी है।
जो कार्य भगवान बुध्द ने 25,000 वर्ष पूर्व शुरू किया था, वही कार्य बड़ी लगन ईमानदारी व कड़ी मेहनत और विरोधियों का सामना करते हुये बाबा साहब दलित-अतिदलित,महिला-पुरूषों के लिये किया।


बाबा साहब नया भारत चाहते थे जिसमें स्वतंत्रता समता और बन्धुत्व हो जो हमें संविधान के रूप दिया, वह चाहते थे कि जब एक भारतीय दूसरे भारतीय से मिले तो वे उनको अपने भाई-बहन के समान देखें, एक नागरिक दूसरे के लिये प्रेम और मैत्री महसूस करे लेकिन भारतीय समाज आज भी इसके विपरित है, स्वतंत्रता,समता और बधुंत्व जो संविधान में लिखा है इसे जातियाँ आज भी दलित-अतिदलित लोगों तक पहुँचने नहीं देती। जाति विहीन समाज की स्थापना के बिना स्वतंत्रता, समता और बधुंत्व का कोई महत्व नहीं है।  
बाबा साहब ने कहा था, “निःसंदेह हमारा संविधान कागज पर अश्पृश्यता को समाप्त कर देगा किन्तु यह 100 वर्ष तक भारत में वायरस के रूप में बना रहेगा।”
सम्मान और स्वतंत्रता से जीना-मरना प्रत्येक मानव का जन्म सिध्द अधिकार है इसके लिये सतत् सघंर्ष करना महा पुण्य का कार्य है बाबा साहब जाति व्यवस्था को प्रजातंत्र के लिये घातक मानते थे यदि मनुष्य, मनुष्य के साथ अमानवीय व्यवहार करे उसके साथ छुआ-छूत करे वह मनुष्य और इसकी आज्ञा देने वाला समाज सभ्य नहीं हो सकता।

“यदि हिन्दू धर्म अछूतों का धर्म है तो उसको सामाजिक समानता का धर्म बनना होगा चर्तुवर्ण के सिध्दान्तों को समाप्त करना होगा चर्तुवर्ण और जाति भेद दलितों के आत्म सम्मान के विरूध्द हैं ।”
जिन लोगों कि जन-आन्दोलन में रूचि है उन्हे केवल धार्मिक दृश्टिकोण अपनाना छोड़ देना चाहिये तथा उन्हें सामाजिक और आर्थिक दृश्टिकोण अपनाना होगा।
 सामाजिक और आर्थिक पुर्ननिमार्ण के लिये अमूल्य परिवर्तन वादी कार्यक्रम के बिना दलित-अतिदलित लोगों की दषा में सुधार नहीं हो सकता।

भारतीय संविधान में मिले अधिकारों की सुरक्षा और उन्हें प्राप्त करने लिये प्रत्येक समय वचनबध्द रहना होगा इसी में बाबा साहब के जन्म दिन की सच्ची सार्थकता होगी।

Friday, October 28, 2016

चीनी वस्तुओं का बहिष्कार कितना सार्थक

चीनी वस्तुओं का बहिष्कार कितना सार्थक

                                                                 -अखिलेश कुमार अरुण 
देशभक्ति के रंग में सराबोर हम भारतियों ने देश के नाम कुछ करने को ठान बैठे हैं. देश हमारा है हम देश के हैं इसलिए हम अपने दुश्मन देश को मदद पहुँचाने वाले देश का समर्थन नहीं करते हैं. भारत पर पाकिस्तान का उरी हमला २०१६ एक त्रासदी है और इस त्रासदी को प्रतेक भारतीय अनुभव करता है. हम  अपने देश के समर्थन के लिए चीन जैसे देश जिसका वैश्वविक बाजार में प्रयाप्त भागीदारी बनी हुयी है और उसका सबसे बड़ा बाज़ार दक्षिणी एशियाई देश हैं. जिसका कारण भी सर्वविदित है कि दक्षिणी एशियाई देशों के नागरिकों की औसत कमाई अन्य देशों की अपेक्षा निम्न है जिसके चलते चीन निर्मित सस्ते सामानों की मांग सदैव प्रयाप्त मात्रा में बनी रहती है, चाहे वह इलेक्ट्रिक उपकरण हो या कंप्यूटर मोबाइल एसेसीरिज हों LYF 4G Mobile, PC, LAPTOP, झालरें, लेड-बल्ब, चार्जेर, इत्यादि जहाँ कम कमाई वाले व्यक्तियों को इनकी सहज़ उपलब्धता उनके सामान्य से भी कम धनापूर्ती में हो जाती है वे चीनी वस्तुओं का बहिष्कार नहीं कर सकते बहिष्कार का असली मज़ा तब है जब स्वेच्छा से व्यक्ति इसके लिए राज़ी हो और यह तभी संभव है कि जब की कम कीमत में स्वदेशी वस्तुओं की आपूर्ति जनसामान्य के लिए उपलब्ध करायी जाय.
चीनी वस्तुओं के बहिष्कार की आधिकारिक घोषणा भारतीय सरकार के द्वारा नहीं किये जाने के उपरांत इसका परिणाम ठेले, खोंमचे, रोड पटरी के सीमांत दुकानदारों को उठाना पड़ रहा है. दीवाली उनकी फीकी हो रही है नए सामानों कि खरीददारी नहीं कर रहें हैं क्योंकि गतवर्ष में बचे सामानों की बिक्री नहीं हो रही है उसी में उनका सैकड़ो रूपया फंसा पड़ा है, रही बात चीनी सामानों के बिक्री की तो 20 की जगह 19 होकर आज़ भी चीनी वस्तुओं सप्लाई जस की तस बनी हुयी है. अंतर बस इतना है कि उसको खरीदने वाले सामान्य धनिकवर्ग के लोग और बड़े व्यवशायी हैं यथा- कंप्यूटर, मोबाइल, अन्य अस्सेसिरिज़.

चीनी बाज़ार बंदी को भुनाने के लिए हम इसकी अधिकारिक घोषणा करें और सीमांत व्यापारियों की जगह बड़े व्यापारियों, उद्द्योगपतियों की दुकाने बंद करें यही हमारा चीनी वस्तुओं का असली बहिष्कार होगाA केवल फुटकर व्यापारियों की गले की हड्डी न बनें और नहीं उनके पेट पर लात मारे यह सरासर अन्याय है अपने देश के गरीबों के हित में और यह हमें वर्दास्त नहीं आपको भी शायद......


 

Saturday, September 24, 2016

एक सैनिक (कविता)

एक सैनिक 

बागी सैनिक से कुछ यों बोला

हम दोनों छोड़ चले

अपने देश में रोने-धोने को 

बूढी-माता बाप हमारे,

बाट जोहती प्रियतमा अपनी 

आँखों में ले आँसू को.

अब्बा-पापा कहने को,

तरसेंगे तेरे-मेरे, अपने लाल हमारे

अंतर बस इतना होगा-

तेरा पाकिस्तान, तो मेरा हिंदुस्तान होगा.

                                                                     (मेरी कविता के कुछ अंश) -अरुण

Tuesday, September 13, 2016

हमारा हिंदी-प्रेम

अखिलेश कुमार अरुण-

हाय हेल्लो, डियर-सिस्टर एंड ब्रदर, आईये पधारिये एक मंच पर और अंग्रेजी में सम्बोधन के बाद  चीख-पुकार मचाइये अपने लिए नहीं अपनी पहचान, रीती-रिवाज,संस्कृति के लिए जो पल-पल के सफ़र में जिन्दा है, जोर और जबर से, चलना-फिरना तो कब से बंद कर दिया है, मुई मरती भी नहीं कि इस हाय! तोबा से छुट्टी मिले. साल में यह एक ही तो दिन है जब हम सब इकट्ठा होते भी हैं, तो इसलिए कि उसने अपनी अंतिम सांसे गिन चूकी है कि अभी बाकी है.
इस उपरोक्त भूमिका का तात्पर्य सीधा है कि १४ सितम्बर १९४९, यह एक ऐसा दिन है जिस दिन हमें हमारी पहचान बड़ी जद्दो-जेहद के बाद बमुश्किल हाशिल हुई थी. फिर हमारे कुछ भाईयों (दक्षिण भारतीय राज्य) ने इसे ठुकरा दिया था.
कुछ अजीब सा नहीं लगता है कि हम अपनी मातृभाषा के कुशल मंगल के लिए 14 सितम्बर से पखवाड़ा मानते हैं. जगह-जगह सभाएं की जाती हैं, स्कूल-कालेजों में हिंदी पढ़ना, लिखना और बोलने का संकल्प दिलवाते हैं. रेलवे, बस स्टेशन और सरकारी कार्यालयों में “हिंदी में काम करना राष्ट्रीयता का घोतक है.” तख्ती टंगवाते हैं. इन कर्तव्य निर्वहनों द्वारा हम कितना न्याय कर पा रहें हैं अपनी भाषा के विकास के लिए बाद हम अपने लड़के को इंग्लिश बोर्डिंग के स्कूल में ही पढ़ने को भेजते हैं. उसकी गिटर-पिटर के इंग्लिश पर पुलकित होकर असीम सुख पाते हैं. तोतले मुंह बच्चे को वाटर, ब्रेड, नुडल्स, कहना सिखाते हैं. और यही सब हम-आप को अपनी सोसायटी से अलग करती है और अपनी इस पहचान को मिटा कर, समान्य लोगों से अलग होने का दंभ भरते हैं. मातृभाषा प्रेम के नाम पर अर्थ का अनर्थ करने वाले शब्दों (कृप्या, गल्ती, परिक्षा, पुछो आदि) का प्रयोग करते हैं. साल में एक बार लेखक महोदय, महानुभाव लोग भी अपनी लेखनी से कागज को काला करके हिंदी के प्रति अपना प्रेम प्रदर्शित कर लेते हैं. अतः मैं भी अछूता क्यों रहता बहती गंगा में बार-बार हाँथ धोने का मौका तो मिलता नहीं सो हिंदी दिवस की पूर्वसंध्या पर ही इस कार्य को किया जाना हमने उचित समझा है. किसी को शिकायत देने का मौका ही नहीं छोड़ा कि हम हिंदी प्रेमी नहीं है. गद्य तो गद्य, पद्य में भी अगले वर्ष २०१५ में भी हमने कुछ पंक्तियों लिखा था. प्रकाशन हेतु कुछ माह पूर्व भेजे भी थे. वानगी प्रस्तुत है-
“हिंदी के उद्दगार पर,
नतमस्तक बारम्बार हूँ.
हे कल्याणकारी तरण-तारिणी,
जनमानस की संकल्प धारिणी-
तेरा अभिनंदन और वंदन है,
तूं सरल ह्रदय सा स्पंदन है.”
हमारे पड़ोस के अज़ीज़ हिंदी प्रेमी मियां शेख़ साहब हिन्दवी होने का दम्भ भरते हैं. ऐसा नहीं कि मियाँ शेख़ की प्रारम्भिक पढ़ाई हिंदी में ही हुई. हुआ यूँ कि मियां शेख़ इंग्लिश सिखने का कोई कसर बाकी नहीं छोड़े परन्तु बिचारे उच्चारण (c का स,क, t का ट,त) व व्याकरणिक ( I want to eat date. मैं तिथि खाना चाहता हूँ. नहीं नहीं ...खजूर) दोष के चलते उन्हें हिन्दवी होना पड़ा.
हम अपनी हिंदी से अगर वास्तव में प्यार करते हैं. और उसका सम्मान करते हैं तो हिंदी के लिए साल का एक दिन न होकर वल्कि वर्ष के पूरे ३६५ दिन हिंदी के ही नाम होना चाहिए. हमें जहाँ कहीं जब भी मौका मिले हिंदी के उत्थान की ही बात करें. तभी हमारी हिंदी हमारी न होकर बल्कि विश्व की हो सकेगी और इसका भी मान-सम्मान देश-विदेश में होगा. अपने आस्तित्व को लेकर हिंदी आँसू नहीं बहायेगी और न ही उसे इंग्लिश के सामने अपमानित ही होना पड़ेगा.

जय हिंदी                                        जय भारत 

Sunday, July 31, 2016

गोमती नदी वरदान भी अभिशाप भी


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                                                                                                       -अखिलेश कुमार अरुण

आज तक हम भिन्न-भिन्न विषयों पर लिखतें रहे है लेकिन प्रकृति पर लिखने का यह मेरा पहला सौभाग्य है. परन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं है की मैं कभी प्रकृति प्रेमी नहीं रहा हूँ. बचपन मेरा प्रकृति की गोद में ही बीता है. फूल,पत्तियों, पेड़-पौधों तितलियों के साथ खेलते हुए. मेरा पुश्तैनी परिवार खेती-किसानी से जुडा हुआ है. जिसके चलते कृषि कार्य करने का भी अनुभव है. जब-तब यदा-कदा लगे हाथ आजमा भी लेता हूँ. क्योंकि आज के समय में, मैं उच्च ज्ञानार्जन हेतु शहर की शरण में पिछले 15-20  सालों से आया हुआ हूँ. जिसके चलते गाँव की सौंधी सुगंध स्वपन सा हो गया है. वे दिन बहुत याद आते हैं जब बचपन में अठखेलियाँ करते हुए स्कूल जाया करते थे. घर की आँगन से लेकर दरवाजे तक वेल-बुटो को लगाते रहते थे. और उसमें आये फूलों को अपने परिश्रम से उपजाये हुये सम्पति की हैसियत से देखते थे. तोड़ना तो दूर छूने भी नहीं देते किसी को, जब कोई तारीफों के पूल बाँधता तो दिल उछलने लगता मन बाग़-बाग़ हो जाता. उसकी अपेक्षा शहर तो निरे निठल्लो का देश हो गया है. ज्ञान के नाम पर विशाल विद्वता है परन्तु सच्चाई इसके बिलकुल विपरीत प्रकृति-प्रेमी होने का ढिंढोरा पीटने के लिए लाखों खर्च कर देते हैं. काले अक्षरों का अम्बार लगा देते हैं. आये दिन रोज कहीं न कहीं प्रकृति पर बोलने का मजमा लगा रहता. शुद्ध आरो का पानी पी-पी कर पसीना बहाते पर आम-लीची, बबूल-इमली, धान-गेंहू में अंतर करना नहीं आता. रही बात पेड़-पौधे लगाने की तो घर के अहाते में गलती से एक घास भी निकल आये तो उसका समूल ऐसे नष्ट करते जैसे किसी अपने पूराने दुश्मन का सर धड़ से अलग कर रहे हों. वर्ग फीट में खरीदी गयी जमीन का सदुपयोग करना तो शहरवाशियों से सिखाना चाहिए मकान गली के रोड से धंसा देंगें और कूलर, गाड़ी रोड की तरफ ये है शहर.
 

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यका यक प्रकृति पर लिखने का यह विचार मुझे लखनऊ में हो रहे गोमती नदी पर अतिक्रमण को देखकर कौंध उठा मैं अपने आप को लेखनी उठाने से रोक न सका क्योंकि यह वही गोमती है जिसकी आँचल में मैंने अपना बचपन बिताया हुआ है. प्राथमिक की शिक्षा गाँव में पुरी होने के बाद की शिक्षा के लिए इस नदी को पार करना पड़ता था. वह चौमास में नाव से और गर्मी के दिनों में घुटने भर पानी हेलकर आनंद दोनों में ही बराबर था. परन्तु कुछ वर्षों के अंतराल पर जब अबकी बार नदी होकर आने का सौभाग्य प्राप्त हुआ तो, दो सवारी दुपहिया पर बैठे-बैठे पार कर गए उसके पानी के बूंद तक ने हमें न छू सका मेरी आत्मा रो गयी. उस नदी की हालत आज शहरों से केवेल गंदे पानी को ढोकर गंगा में पहुचाने तक रह गया है. शहर वाले अमन चैन की ज़िंदगी विता सकें और तो और लगे हाँथ राजनीति की रोटी भी सेंक सकें. यह गोमती गंगा तो है नहीं कि लोगों के आस्तिकता की बात की जाय परन्तु छिट-पुट भूले भटके लोग भी यदा-कदा फूल-माला अस्थि विसर्जन आदि करते रहते हैं. क्योंकि राजनेताओं की नज़र अभी इस पर नहीं है.
ज्यादातर इससे लाभान्वित होने वाले किसान वर्ग आतें है यह नदी शांत नदी की श्रेणी में आती है. १० साल पहले जहाँ थी आज भी वहीँ है जिसके चलते कृषक वर्ग इसके कनारे तक की भूमि का प्रयोग खेती-बाड़ी के लिए करता है. इस प्रकार जिला पीलीभीत से लेकर जौनपुर तक के लाखों सीमांत किसान अपना जीवन-यापन करते है. इस दृष्टि से देखें तो लखनऊ में नदी को संकरा किया जाना किसी भी तरह उचित नहीं है. क्योंकि इससे नदी के आस्तित्व एवं उससे होने वाले हानि का अनुमान लगा पाना मुस्किल है. जहाँ एक तरफ तो सूखे की हालत और दूसरी तरफ़ जल भराव की समस्या बनी रहेगी. एक तरफ किसान को पानी नहीं मिलेगा वहीँ दूसरी तरफ़ के किसानो की फ़सल का पानी में खड़े-खड़े सड़ जाने की सम्भावना है. ऐसा नहीं है कि इस नदी में कभी बाढ़ नहीं आती है. बाढ़ आती थी किन्तु पानी का ठहराव ज्यादा दिन नहीं रहता था. जिससे फ़सल की ज्यादा क्षति नहीं होती थी.बहते हुए पानी की अपेक्षा ठहरा हुआ पानी फ़सल के लिए ज्यादा हानिकारक होता है.
अब आने वाले समय में ऐसा नहीं होगा नदीं के संकरा हो जाने से पानी का निकास सामान्य से बहुत कम हो जाएगा. और निचले स्तर के क्षेत्र (पीलीभीत, लखीमपुर, सीतापुर आदि) जलमग्न रहेंगे वहीँ उसकी दूसरी तरफ के जिलों (बाराबंकी, गाजीपुर, जौनपुर) को वर्षाकाल में भी पर्याप्त जलापूर्ति नहीं होगी. दोनों तरफ़ के सीमांत किसान इससे प्रभावित होंगे. इस लिहाज से गोमती नदी को शहरी विकास के नाम पर संकरा किया जाना उचित नहीं है. आज नहीं तो कल इसका खामियाजा मानव समाज को भुगतना ही पड़ेगा. इसलिए विकास के सीमा का विस्तार वहीँ तक करे जहाँ तक उचित हो अपने लिए नहीं सबके लिए और आने वाली पीढ़ी के लिए भी.

पढ़िये आज की रचना

चर्चा में झूठी-सुरेश सौरभ

(फिल्म समीक्षा)      एक मां के लिए उसका बेटा चाहे जैसा हो वह राजा बेटा ही होता है, बच्चे कच्ची मिट्टी की तरह होते हैं, जिन्हें हम अपने विचार...

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