-अखिलेश कुमार अरुण
आज तक हम भिन्न-भिन्न विषयों पर लिखतें रहे है लेकिन प्रकृति पर लिखने का यह मेरा पहला सौभाग्य है. परन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं है की मैं कभी प्रकृति प्रेमी नहीं रहा हूँ. बचपन मेरा प्रकृति की गोद में ही बीता है. फूल,पत्तियों, पेड़-पौधों तितलियों के साथ खेलते हुए. मेरा पुश्तैनी परिवार खेती-किसानी से जुडा हुआ है. जिसके चलते कृषि कार्य करने का भी अनुभव है. जब-तब यदा-कदा लगे हाथ आजमा भी लेता हूँ. क्योंकि आज के समय में, मैं उच्च ज्ञानार्जन हेतु शहर की शरण में पिछले 15-20 सालों से आया हुआ हूँ. जिसके चलते गाँव की सौंधी सुगंध स्वपन सा हो गया है. वे दिन बहुत याद आते हैं जब बचपन में अठखेलियाँ करते हुए स्कूल जाया करते थे. घर की आँगन से लेकर दरवाजे तक वेल-बुटो को लगाते रहते थे. और उसमें आये फूलों को अपने परिश्रम से उपजाये हुये सम्पति की हैसियत से देखते थे. तोड़ना तो दूर छूने भी नहीं देते किसी को, जब कोई तारीफों के पूल बाँधता तो दिल उछलने लगता मन बाग़-बाग़ हो जाता. उसकी अपेक्षा शहर तो निरे निठल्लो का देश हो गया है. ज्ञान के नाम पर विशाल विद्वता है परन्तु सच्चाई इसके बिलकुल विपरीत प्रकृति-प्रेमी होने का ढिंढोरा पीटने के लिए लाखों खर्च कर देते हैं. काले अक्षरों का अम्बार लगा देते हैं. आये दिन रोज कहीं न कहीं प्रकृति पर बोलने का मजमा लगा रहता. शुद्ध आरो का पानी पी-पी कर पसीना बहाते पर आम-लीची, बबूल-इमली, धान-गेंहू में अंतर करना नहीं आता. रही बात पेड़-पौधे लगाने की तो घर के अहाते में गलती से एक घास भी निकल आये तो उसका समूल ऐसे नष्ट करते जैसे किसी अपने पूराने दुश्मन का सर धड़ से अलग कर रहे हों. वर्ग फीट में खरीदी गयी जमीन का सदुपयोग करना तो शहरवाशियों से सिखाना चाहिए मकान गली के रोड से धंसा देंगें और कूलर, गाड़ी रोड की तरफ ये है शहर.
यका यक प्रकृति पर लिखने का यह विचार मुझे लखनऊ में हो रहे गोमती नदी पर अतिक्रमण को देखकर कौंध उठा मैं अपने आप को लेखनी उठाने से रोक न सका क्योंकि यह वही गोमती है जिसकी आँचल में मैंने अपना बचपन बिताया हुआ है. प्राथमिक की शिक्षा गाँव में पुरी होने के बाद की शिक्षा के लिए इस नदी को पार करना पड़ता था. वह चौमास में नाव से और गर्मी के दिनों में घुटने भर पानी हेलकर आनंद दोनों में ही बराबर था. परन्तु कुछ वर्षों के अंतराल पर जब अबकी बार नदी होकर आने का सौभाग्य प्राप्त हुआ तो, दो सवारी दुपहिया पर बैठे-बैठे पार कर गए उसके पानी के बूंद तक ने हमें न छू सका मेरी आत्मा रो गयी. उस नदी की हालत आज शहरों से केवेल गंदे पानी को ढोकर गंगा में पहुचाने तक रह गया है. शहर वाले अमन चैन की ज़िंदगी विता सकें और तो और लगे हाँथ राजनीति की रोटी भी सेंक सकें. यह गोमती गंगा तो है नहीं कि लोगों के आस्तिकता की बात की जाय परन्तु छिट-पुट भूले भटके लोग भी यदा-कदा फूल-माला अस्थि विसर्जन आदि करते रहते हैं. क्योंकि राजनेताओं की नज़र अभी इस पर नहीं है.
ज्यादातर इससे लाभान्वित होने वाले किसान वर्ग आतें है यह नदी शांत नदी की श्रेणी में आती है. १० साल पहले जहाँ थी आज भी वहीँ है जिसके चलते कृषक वर्ग इसके कनारे तक की भूमि का प्रयोग खेती-बाड़ी के लिए करता है. इस प्रकार जिला पीलीभीत से लेकर जौनपुर तक के लाखों सीमांत किसान अपना जीवन-यापन करते है. इस दृष्टि से देखें तो लखनऊ में नदी को संकरा किया जाना किसी भी तरह उचित नहीं है. क्योंकि इससे नदी के आस्तित्व एवं उससे होने वाले हानि का अनुमान लगा पाना मुस्किल है. जहाँ एक तरफ तो सूखे की हालत और दूसरी तरफ़ जल भराव की समस्या बनी रहेगी. एक तरफ किसान को पानी नहीं मिलेगा वहीँ दूसरी तरफ़ के किसानो की फ़सल का पानी में खड़े-खड़े सड़ जाने की सम्भावना है. ऐसा नहीं है कि इस नदी में कभी बाढ़ नहीं आती है. बाढ़ आती थी किन्तु पानी का ठहराव ज्यादा दिन नहीं रहता था. जिससे फ़सल की ज्यादा क्षति नहीं होती थी.बहते हुए पानी की अपेक्षा ठहरा हुआ पानी फ़सल के लिए ज्यादा हानिकारक होता है.
अब आने वाले समय में ऐसा नहीं होगा नदीं के संकरा हो जाने से पानी का निकास सामान्य से बहुत कम हो जाएगा. और निचले स्तर के क्षेत्र (पीलीभीत, लखीमपुर, सीतापुर आदि) जलमग्न रहेंगे वहीँ उसकी दूसरी तरफ के जिलों (बाराबंकी, गाजीपुर, जौनपुर) को वर्षाकाल में भी पर्याप्त जलापूर्ति नहीं होगी. दोनों तरफ़ के सीमांत किसान इससे प्रभावित होंगे. इस लिहाज से गोमती नदी को शहरी विकास के नाम पर संकरा किया जाना उचित नहीं है. आज नहीं तो कल इसका खामियाजा मानव समाज को भुगतना ही पड़ेगा. इसलिए विकास के सीमा का विस्तार वहीँ तक करे जहाँ तक उचित हो अपने लिए नहीं सबके लिए और आने वाली पीढ़ी के लिए भी.
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