साहित्य

  • जन की बात न दबेगी, न छिपेगी, अब छपेगी, लोकतंत्र के सच्चे सिपाही बनिए अपने लिए नहीं, अपने आने वाले कल के लिए, आपका अपना भविष्य जहाँ गर्व से कह सके आप थे तो हम हैं।
  • लखीमपुर-खीरी उ०प्र०

Monday, November 24, 2014

पाटों के बीच में-अखिलेश के० अरुण

   लिंग-विभेद विमर्श  

ए०के०अरुण


सौतेले बेटा-बेटी तो  खाली बदनाम बदनाम भर हैं. उससे कहीं ज्यादा जहालियत की मारी है तो वह केवल एक लड़की है चाहे वह सगी ही क्यों न हो। इसका सहज अनुमान केवल वही लड़की लगा सकती है. जिसके परिवार में तीन-चार लड़कियाँ हों और माता पिता को एक बेटे की लालसा हो; आश लगाये परिवार नियोजन को ताख पर रखकर बस हर साल बच्चे पर बच्चे पैदा करते जाएँ वह बात अलग है कि परिवार को एक जून का निवाले का एक कौर भी नसीब न हो पा रहा हो, लड़के की जगह पर लड़कियां धड़ा-धड़ पैदा हो रही हों.वहां एक लड़के की टीस तो बनी ही रहेगी. यह मानव व्यवहार का अंग बन गया है बेटा होना ही चाहिये और हो भी क्यों नहीं बेटी बाप के घर तो रह नहीं सकती उसे तो पिया घर जाना ही है. जिनके घर जा रही हैं वे महाशय किस आचार-विचार के होगें दूसरे के माता पिता को छोड़ो अपने ही माता-पिता का दुख दरद बाटेगें कि नहीं कहा नहीं जा सकता ऐसे में किसी लड़की का क्या दोष है? वह तो अपने जान की बाजी लगा देती एक दूसरे के सुख-दुख को बाँटने के लिये कुछ ही ऐसी होगीं जो अपने कर्तव्य मार्ग से भटक जाती हैं।

 

बड़े ही दुखों में दिन काटे हैं एक एक चीज के लिये तरस जाया करती थी, खुशी के दो पल गुजारना मुश्किल हो जाता था, यह भी कोई जिन्दगी है। पर जन्म मिला है तो निर्वाह करना ही है, क्यों? किसलिये? क्यों नहीं, ढेर सारे सवाल मेरे मन को कचोट जाते थे. छोटी सी उम्र में इनका उत्तर ढूढ़ पाना मुश्किल था. जैसे-जैसे बड़ी होती गयी कुछ सच्चाईयों से तो पर्दा खुद-ब-खुद ही उठ गया, कुछ आज भी अज्ञात हैं. यह हमारी लापरवाही भी हो सकती है और भलमनसाहत भी कि जान बुझकर भी पर्दा पड़ा रहने दिया। जब मैं 4 साल की (शायद में) होऊँगी तब हम तीन बहनों के अभिशापित बाप-महतारी के घर में खुशहाली की रौनक आयी थी नहीं तो कभी बाप के मुँह पर एक प्रसन्नता के लकीर तक को न देख सकी थी. हर वक्त भृकुटी तनी रहती, बात-बात पर झिड़क देते, ‘उठा के पटक दूँगा......,मार डालूँगा........,गला घोट दूँगा न जाने और क्या क्या ......।कुछ ही याद हैं और बहुत कुछ भूल चुकी हूँ नही तो भूला भी देती हूँ। उनकी आँखें हमेशा लाल रहती थीं याद नहीं आता कि कभी दुलार से एक प्यार के लब्ज भी बोले होगें पर अब उस छोटे बच्चे के साथ बहुत खुश रहते हैं इसका अन्दाजा उनकी कनपटी तक फैलती दंतपँक्ति से ही लगाया जा सकता है। मैं चाहती भी हूँ कि वे हमेशा इसी तरह खुश रहें दुख की वह काली घटा न छाये, नहीं तो कभी उनके चेहरे की सारी रेखायें मुँह में घुसती सी जान पड़ती थी. बड़ा ही विभत्स विकराल चेहरा अचानक कोई देख ले तो डरे बिना नहीं रह सकता था, आँखे साँझ के डूबते सूरज जैसी लाल और उस पर गर्मी भी, हम तीनों बहनों को हसंते-खेलते देखते तो सूर्यग्रहण के कोरोना बन बैठते थे। इसके विपरीत माता जी से प्रेम की कुछ आँकाक्षा रहती थी किन्तु वह भी तपती धरती पर आकाशीय बादल के छाया मात्र ही, क्षण भर में एक स्थान से दूसरे स्थान पर स्थानान्तरित होने वाली, खड़ी दोपहरी में देखते रहो ज्येठ माह का वह छाया किस तरह राह चलते पथिक को छोड़ कर भागा जा रहा हैं। पिता के अनुपस्थिति में ही यह मौका कभी-कभी हांथ लगता था नहीं तो महीनों बीत जाते थे, मन की चीज खाने को न मिलता था। रबड़ी, मलाई, बरफी तो केवल-केवल सुनने के लिये ही थे, मुये सपने में भी नहीं आते कि देखकर संतुष्टि प्राप्त कर लें। स्वप्न भी हमारे निराले होते थे उसमें भी बाप पीछा नहीं छोड़ते थे, कहाँ है?..... मर गयी क्या?.......,बैठे-बैठे.....,कुछ नहीं सुझता..........।रातों की नींद हराम हो जाती थी. उनके डाँट-फटकार से नींन उचट जाती, कलेजा जोरो का धड़कने लगता साँसे लोहार की धौकनी सी चलती, सीना जोर से फूलता-पचकता, मारे डर के पसीना से तर-बतर। मन में विचार कौंध जाता सोते हुये बाप की सूरत को देखकर भी डर लगा करता था,‘ कितनी चैन की नींद सो रहें हैं भला दिन में भी डांटते -फटकारते ही रहते हैं. स्वप्न में तों न आया करो, रोज राते को एक नहीं दो-दो ,तीन-तीन बार ऐसा हुआ करता था। सो कर उठो तो सुबह वही हाल जिस प्रकार से छोटी चिडि़या को अपने घोसले में बाज को देखकर....., भय और सिकन की रेखायें हमारे चेहरे पर हमेशा के लिये डेरा जमा चुकी थी, चाह कर भी हंस नहीं सकते थे। देह और मस्तिष्क को प्रगति के लिये शुभ अवसर ही प्राप्त न हुआ सो सवा तीन सेर के रह गये, चार किमी0 प्रतिघंटा  के रफ्तार से गति करती पुरुवा बयार में छत पर जाने से डरती थी कि पता नहीं कब बिना जीना की सीढ़ी उतरे नीचे आ जाऊँ और फिर........भगवान जाने।

 

,,,घ से दू....र का रिस्ता था. स्कूल का नाम भर ही सुने थे कैसा होता है पता नही, शायद होता भी है या नहीं किसी दूसरे लोक की बात जान पड़ती थी। घर के सामने से दो-चार,छः बच्चों की टोली बड़ी अजीब लगती थी. एक ही रंग की वेष-भुषा गले में लाल-पीली धारियों वाली रस्सी (टाई) मन में हलचल होती बाँधे जाते होंगें.........। गधें हैं सब के सब पीठ पर बोझ लादे, हमें क्या पता कि वे दुनिया की नयी युक्ति सीखने जाते हैं। हमें कभी मौका ही नहीं मिला बस हम तो खउराहा पिल्लों जैसे घर में ही दूबके रहते थे, दीवार के हर एक छोटे-बड़े चिन्हों से बाकिब जरूर थे. कहाँ गोल, कहाँ चैकोर और आड़ी तिरछी रेखायें हैं और हो भी क्यों नहीं वही तो बचपन से लेकर 16-17 वर्ष तक के उमर की साथी थीं, घण्टों कहीं खोये-खोये निहारा करते थे, रूखा-सूखा खाने-पीने के बाद यही दिन भर का काम था।

 

खाने-पीने की कमी नहीं थी नसीब में ही नही था। बाप लाखों के मालिक थे पर हम बहनों को नून ही चटाते कहते कौन ये घर को संभालेगीं, हैं तो दूसरे के घर की बसना ही, लाना तो है नहीं इनको लेके ही जाना है सो जो कुछ बच जाये वही बहुत है। वहीं छोटे भाई के लिये किसिम-किसिम के फल फलहार, मेवा-मिष्ठान और ना जाने क्या-क्या आते रहते थे (ज्यादा खिलाने-पीलाने के फेर में बिमार ही रहता था उसका दोष भी हम लोगों के मत्थे ही मढ़ा जाता, देखा नहीं जाता है न उन सबको नजर लगा दिये होगें) सुगधं भर ही नसीब होता था. बच्चे को नजर न लगे सो हम सब से चुराकर खिलाया जाता था. कभी मौका हांथ लगा था ठीक-ठीक याद नहीं केले के छिलके को उठाकर चखने का क्या गजब का मधुर स्वाद था सुगधं तो तन-मन दोनों को संतर्पित कर गया था. बाद  छिपा के रख लिया था हफ्तों सूंघती रही जब-तब वह दुर्गन्ध न देने लगा था, एक दिन चोरी पकड़ी गयी मार पड़ी सो अलग, ‘चुराकर खाती है..... यही सब सीखेगी.....जहाँ जायेगी वहाँ भी नाम रोशन.........।मार-पीट सब कुछ भूल गयी, कहाँ जाना है यही दिमाग में बैठ गया, बाप के हाथों मारी-पीटी जाना तो रोज का हमारे लिये खेल ही था चाहे जो भी कुछ हो अपना अधिकार तो हम पर जताते थे. यही बाप-बेटी का रिस्ता क्या कम था।

 

बीते उन्ही दिनों की बात है पापा किसी रिस्तेदार के घर गये थे, जब कभी ऐसा मौका हांथ लगता तो हम भी खूब मस्ती करते थे. बिना खाये-पीये ही गाल उग जाते थे. मारे खुशी के दिन भर चहकते रहते थे, मम्मी भी नहीं टोकती थी. उनमे यह परिवर्तन अच्छा लगता था, ‘कर लो आज ही भर कल से मरना बे-मौत। उस दिन खेलते-खेलते सो रहे बाबू के पास जाने का मौका मिला था। क्या खूब रंग पाया है बिल्कुल आंटे की गुथी लोई की तरह होंठ गुलाब की पँखुड़ी जैसे फूल से लाल रस चूने को हो। पहली बार तो उसे छूने को मन नही किया एक टक निहारती रही कहीं गन्दा न हो जाये. इसिलिये तो बाबूजी पास फटकने नहीं देते मन में विचार आया था। महिनों बाद आज मौका मिला था कैसे चूक जाती मारे वात्सल्य प्रेम के मैने झट से सोते उस बच्चे को चूम लिया उसके पूरे शरीर को छूआ आहिस्ता -आहिस्ता हांथ फिराया, पर उसके एक जगह के छूअन से हमे कुछ अजीब सा लगा, यह  क्या है? सोचे कुछ सूझ नहीं रहा था. मस्तिष्क अस्थिर भाव शून्य हो गया, किसी परिणाम पर नहीं जा सका, दुनिया की ढेर सारी उलझने दिमाग में कौंधने लगे फिर मैने शंका समाधान हेतु अपने पाटों के बीच में हांथ रखा खाली-खली सा आभास हुआ, मन जोरों का धड़क उठा नहीं ऐसा नहीं हो सकता अपना ही मन अपने से कई सवाल करने लगा। अतिसुक्ष्म निरीक्षण करने हेतु मैने बारी -बारी से उसको और अपने को स्पर्श किया पर परिणाम वही रहा ढाक के तीन पात उभार और खाली.....? मैं चुपचाप वहाँ से उठकर चली गयी घण्टों सोचती रही, क्या? कहीं यही तो नहीं बाप के गुस्से का कारण है। इससे उनके गुस्सा होने से क्या मतलब, अगले क्षण मैने सोचा केवल मेरे साथ ही ऐसा है या फिर दोनों बहनों के पास भी........। अन्ततोगत्वा दोपहर की नींद में सो रही उन दोनों बहनों को भी मैनें स्पर्श किया. वे भी दोनों खाली-खाली अब तो एक बात निश्चित थी कि हम लोगों के जहालत का प्रमुख करण यही था जो अब तक हमारे लिये राज.......एक... गहरा राज था जिसे अब तक मैं न जान पायी थी. अब मैं सब कुछ समझ चुकी थी  और देख भी...। हु-ब-हू तो था सब कुछ उस बच्चे जैसा ...हम बहनों के पास कुछ नहीं है तो उभार और उसके पास खाली......वह भी पाटों के बीच में....यही एक अंतर था. हम बहनों और भाई के बीच जिसका पूरा लाभ भाई को मिला खाने-पिने से लेकर पापा के लाड़-दुलार तक पर इसका मतलब यह तो नहीं कि हम और हमारी जैसी बहनों को जीने का हक़ नहीं है लडको की तरह आजादी नहीं है. हम भी  उनके आधी आबादी के हकदार हैं फिर वह मान-सम्मान क्यों नहीं....यह सवाल आज भी हमारे जेहन में गूँजता रहता है।

-इति-

ग्राम-हजरतपुर,पोस्ट-मगदापुर

जिला-लखीमपुर-खीरी,उ०प्र०

Kherinorth6@gmail.com

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