साहित्य

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  • लखीमपुर-खीरी उ०प्र०

Tuesday, August 16, 2022

सम्पूर्ण विपक्ष की सामाजिक - राजनीतिक भूमिका पर उठता एक बेहद स्वाभाविक सवाल-नन्दलाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)

एन०एल० वर्मा (असो.प्रोफ़ेसर)
वाणिज्य विभाग
वाईडीपीजी कॉलेज,लखीमपुर खीरी

            सामाजिक न्याय के पक्षधर और विचारक लगभग सभी लोग यह जान चुके हैं कि देश मे जातिगत जनगणना वर्ण व्यवस्था के जातीय वर्चस्व और सामाजिक अन्याय की खड़ी सनातनी इमारत को ढहाने का एक मजबूत ढांचा मुहैया करा सकता है। जातिगत जनगणना डॉ.आंबेडकर के सामाजिक न्याय,समता,स्वतंत्रता और बंधुता आधारित लोकतांत्रिक भारत के निर्माण में मील का पत्थर साबित हो सकता है,एक ऐसे राष्ट्र निर्माण में कारगर सिद्ध होगा जिसकी समृद्धि और विकास में सभी नागरिकों का अधिकार और सहभाग होगा। भारत में सबके लिए न्याय और विशेष रूप से ऐतिहासिक सामाजिक अन्याय और शोषण के शिकार बहुजन समाज के एक विशेष तबके जिसे शूद्र और अछूत समझा जाता है, के सामाजिक न्याय का प्रबल समर्थक और पक्षधर देश का हर नागरिक जातिगत जनगणना के निहितार्थ को अच्छी तरह समझता है, क्योकि इससे सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थाओं में समान अवसर और संसाधनों में समान भागीदारी का मार्ग प्रशस्त होता है। इसलिए आज़ादी के बाद सामाजिक और राजनीतिक बहुजन चिन्तक समय-समय पर जातिगत जनगणना के पक्ष में ठोस तर्क और तथ्य देते रहे हैं।

            देश मे यह भ्रम फैलाया जा रहा है कि देश में ओबीसी की जातिगत जनगणना की मांग की जा रही है,जबकि ऐसा नही है। सच्चाई यह है कि जो जातिगत जनगणना की मांग कर रहे हैं, वे देश मे सभी जातियों की जनगणना की मांग कर रहे हैं जिसमें कथित उच्च जातियों के साथ मुस्लिम, ईसाई और अन्य सभी धर्मावलंबियों के बीच की जातियों की जनगणना भी शामिल है। वर्तमान राजनीतिक सत्ता पर काबिज एक विशेष संस्कृति से संचालित और नियंत्रित केंद्र सरकार ने देश की सबसे बड़ी अदालत में शपथपत्र देकर जातिगत जनगणना कराने से साफ मना कर दिया है। इसमें केंद्र सरकार ने जानबूझकर जातिगत जनगणना के सवाल को ओबीसी की जातिगत जनगणना तक सीमित करते हुए  ओबीसी की जातिगत जनगणना कराने को एक लंबा और कठिन काम बताते हुए जातिगत जनगणना के अहम और आबश्यक मुद्दे से छुटकारा पाने का प्रयास किया है। हर दस साल बाद देश मे जनगणना की व्यवस्था है और आज की डिजिटल इंडिया में तो उसमें केवल जाति का एक अतिरिक्त कॉलम ही तो जोड़ना होगा। मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि मोदी जी की डिजिटल इंडिया और युग में जातिगत जनगणना कठिन कार्य कैसे हो गया और देश का यदि कोई कार्य कठिन है तो क्या वह कठिनाइयों की वजह से किया ही नही जाएगा? यह तो बड़ी विडंबना का विषय है। यह देश विभिन्न जातियों और समाजों से भरा देश है और देश के आंतरिक ढाँचे को समझने और उनके अनुकूल नीतियों के निर्माण के लिए जातिगत जनगणना एक अपरिहार्य विषय या मुद्दा है।

             वर्तमान राजनीतिक सत्ता के दौर में बीजेपी को छोड़कर अन्य कोई भी राष्ट्रीय या क्षेत्रीय राजनीतिक दल जातिगत जनगणना के खिलाफ दिखाई नही दे रहा है।इसके बावजूद जातिगत जनगणना के पक्ष में सड़क पर उतरकर एक बड़ा जनांदोलन करने की हिम्मत किसी भी विपक्षी दल में दिखाई नहीं दे रही है। उन्हें मुट्ठीभर कथित उच्च जातियों के नाराज़ होने का राजनीतिक भय सदैव सताता रहता है। इस देश मे शासक वर्ग सदैव उच्च जातियों से ही रहा है और आज भी है। 2014 के बाद एक बड़ा बदलाव जरूर देखने को मिल रहा है कि मुस्लिम समाज की उच्च जातियों को शासन सत्ता या व्यवस्था से लगभग बाहर का रास्ता दिखा दिया गया है। आज के दौर के शासक वर्ग में केवल उच्च जाति और उच्च वर्ग के ज्यादातर हिन्दू पुरूष ही दिखाई देते हैं।

             आज अधिकांश लिबरल बुद्धिजीवी वर्ग छिपे तौर पर और हाँ -हूँ-ना के साथ जातिगत जनगणना के विरोध में दिखाई देते हैं। वाममपंथी राजनीतिक विचारधारा के दल औपचारिक तौर पर तो जातिगत जनगणना के पक्ष में दिखाई देते हैं ,लेकिन वे भी इसे इतना बड़ा सामाजिक- राजनीतिक मुद्दा नही मानते हैं जिसके लिए जनांदोलन या जनसंघर्ष का रास्ता चुना जाए!इनमें भी कुछ तो भीतर ही भीतर मन से जातिगत जनगणना के खिलाफ ही हैं,भले ही उसे सार्वजनिक तौर पर ज़ाहिर नही कर पाएं। कांग्रेस तो सैद्धांतिक रूप से जातिगत जनगणना के पक्ष में दिखती है, लेकिन वह भी अदृश्य राजनीतिक नुकसान की बजह से इसे एक व्यापक और राष्ट्रीय सामाजिक- राजनीतिक मुद्दा बनाने का साहस नही जुटा पा रही है।

              उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज के सामाजिक न्याय की राजनीति करने वाले समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी दो प्रमुख दल हैं। ये दोनों दल भी  सवर्णों में मुट्ठीभर ब्राम्हणों को पटाने में ही अपनी पूरी राजनीतिक शक्ति झोंकते हुए दिखाई देते हैं। ये दोनों दल जातिगत जनगणना के मुद्दे को लेकर सड़क पर उतरकर जनांदोलन करने के लिए शायद सोच भी नही रहे हैं।

             इन परिस्थितियों में एक विकल्प यह दिखाई देता है कि सामाजिक कार्यकर्ता, बुद्धिजीवी वर्ग और सामाजिक न्याय या लोकतंत्र के लिए कार्य करने वाले सामाजिक संगठन एक बैनर तले राष्ट्रव्यापी एकजुटता कायम कर एक बड़ा जनांदोलन और संघर्ष खड़ा कर सकते हैं और सरकार पर जातिगत जनगणना का सामाजिक - राजनीतिक दबाव बनाने की दिशा में सार्थक प्रयास किए जा सकते हैं। इससे देश के राजनीतिक दलों पर सकारात्मक या अनुकूल प्रभाव पड़ने की संभावना हो सकती है। हो सकता है कि इससे राजनीतिक पार्टियां भी साथ आने के लिए सोचने के लिए विवश हों। अब यही एकमात्र रास्ता दिखाई देता है। यदि डॉ.आंबेडकर के संवैधानिक लोकतांत्रिक देश में देश का पचासी प्रतिशत बहुजन समाज जातिगत जनगणना के मुद्दे पर सफलता प्राप्त करने में सक्षम नही हो पाता है तो बहुजन समाज की एक और बहुत बड़ी ऐतिहासिक सामाजिक - राजनीतिक पराजय मानी जाएगी।


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