छोटी कहानी
चार-पाँच किन्नर उसे घेर लिये थे। एक किन्नर सन्नो तैश में उसका गिरेबान खींच, बड़े गुस्से से बोली-आज बता, तू रोज-रोज मेरा पीछा क्यों करता है? मुझे घूर-घूर कर क्यों देखता है?..
लेकिन वह युवक बेखौफ एकटक सन्नो को बस घूरे ही जा रहा था।
‘‘मैं पूछती हूँ, कुछ बोलता क्यों नहीं।’’
युवक निर्विकार भाव से सन्नों को घूरता ही रहा।
‘‘लग रहा मार का भूखा है।..अरे! इसे तो पुलिस के हवाले कर दो। ..तालियाँ पीटते हुए उसे घेरे सब किन्नर एक स्वर में बोले।
‘‘क्योंकि तेरी शक्ल मेरी बहन से मिलती है।" सन्नो को बराबर घूरते हुए, उस युवक ने अपना मौन तोड़ा।
‘‘बहन ऽऽऽ...सन्नो का मुँह हैरत से खुला का खुला रहा है। बहन बहन बहन..दोहराते हुए, उसे घेरे सारे किन्नर, किसी अज्ञात संशय से, आपस में, एक-दूसरे का मुँह ताकने लगे।
सन्नो नेे गिरेबान छोड़ दिया उसका। सबका क्रोधावेश जाता रहा।
सन्नो-"कुछ समझी नहीं? अरे! कैसी बहन? कौन बहन? किसकी बहन मैं? ताली पीट, उसे विस्मय और नजाकत से निहारने लगी।
‘‘बरसों पहले बिलकुल तुम्हारे शक्ल-ओ-सूरत जैसी मेरी भी एक बहन थीं, यह मेरी माँ बताती हैं, बचपन में हम दोनों भाई-बहन को, मेरे माँ-बाप किसी हमें बड़े मेले में घूमाने ले गये थे। फिर वहीं कहीं हमारी बहन गुम हो गई। बहुत तलाशा, पर आज तक नहीं मिली। तब मैं बिलकुल अबोध था। मेरी बहन कुछ समझदार थी। बहन का चित्र घर में रखा है, उसे हमेशा मैं निहारा करता हूँ। और जब रक्षाबंधन आता है, उसे याद करके अपनी सूनी कलाई को देख-देख, मेरे दिल में ऐसी हूक मचती है, दिमाग में ऐसी हलचल मचती है कि बस पूछो मत? कई शहर ढूढ़ा? कहाँ-कहाँ ढूंढ़ा, बताना मुश्किल है। इस शहर में जब ट्रान्सफर होकर आया, तो तुम्हें देखा, तुम्हारी शक्ल मेरी बहन से मिलती-जुलती सी लगी। पीछा इसलिए कर रहा था, सोचा, किसी दिन मौका लगा तो आप से बात करके अपने दिल का बोझ, हल्का कर लूंगा।
‘‘क्या तुम्हारे पापा का जग्गू और माता का नाम शीतल है-सन्नो हैरत से बोली
‘हाँ।’
‘‘क्या तुम्हारा जिला सीतापुर तहसील बिसवाँ है।’’
‘‘जी हाँ।’’
‘‘क्या गाँव का नाम रूद्रपुर है।’’
‘‘जी जी।’’
अब तो सन्नो फफक पड़ी। लपक का युवक को गले से लगा लिया.. बिल्कुल फूट पड़ी.... हाय! मेरा भाई, हाय! मेरा भैया, मेरा लाला! मेरा गोलू!
भैया भी सुबकने लगा।...मैं किसी मेले में नहीं? किसी भीड़ में नहीं?बल्कि रूढ़ियों के मेले में, गरीबी के झमेले में, माँ-बाप की बदनामी के डर वाले बड़े सैलाब में बहकर तुझ से दूर चली गई थी।.. तुझ से बिछड़ गई थी... अब वहाँ सबकी आँखों में समन्दर तूफान के आवेग में मचल रहा था। ....राखी का त्योहार नजदीक था। सामने दुकानों में टंगी राखियां भी अब मायूसी से उनके रुदन को देख रही थीं। और दुःखी हो, अंतर्मन से कह रहीं थीं-मैं भी बरसों से बिछड़े इस भाई-बहन का इंतजार कर रही थी।"
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