साहित्य

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Sunday, January 30, 2022

यूपी की सियासत : चुनावी दौड़ में बसपा की स्थिति का विश्लेषण-नन्द लाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)

राजनितिक गलियारे से चुनावी चर्चा
अजय बोस ने अपनी किताब "बहन जी" के तीसरे और आखिरी संस्करण में इसके उपशीर्षक " द पॉलिटिकल बॉयोग्राफी ऑफ मायावती" (मायावती की राजनीतिक जीवनी) को बदलकर " द राइज ऐंड फॉल ऑफ मायावती" (मायावती का उत्थान और पतन) कर जब उनके राजनीतिक सफर के अंत की भविष्यवाणी की थी.............बीएसपी के पास आज भी सबसे ज्यादा अपना ठोस आधार वोट बैंक है ,बस जरूत है तो सिर्फ ,मा. कांशीराम जी जैसा सामाजिक संपर्क, समर्पण और त्याग जिसके बल पर बीएसपी को अपनी पुरानी वाली राजनीतिक शक्ति को हासिल करने में देर नही लगेगी।
नन्द लाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)
         पिछले कुछ वर्षों में उत्तर प्रदेश की राजनीति में चार बार मुख्यमंत्री रहीं मायावती की आधी-अधूरी भागीदारी और सक्रियता, यहां तक कि प्रदेश में दलितों के उत्पीड़न की घटनाओं पर उनकी चुप्पी से यही महसूस किया गया है कि एक समय की प्रबल मुखर दलित नेता ने या तो अपना प्रभाव खो दिया है या फिर केंद्र और राज्य की सत्ता के आगे अदृश्य भय या कारण के चलते समर्पण कर दिया है। राज्य सभा मे दलित समाज के मुद्दों पर अपनी बात रखने के लिए पर्याप्त समय न देने पर बिना किसी देरी के सदन से इस्तीफा दे देना उनकी राजनीति करने की बेमिसाल पहचान और उदाहरण सबके सामने है। बहुत से वयोवृद्ध दलित कार्यकर्ता, जिन्होंने पिछले कई दशकों में बसपा के लिए दिन रात कार्य किया है, बसपा की वर्तमान राजनीतिक हालत से आज बेहद मायूसी के साथ कहते हुए बताते हैं कि बहन जी हमें हर जटिल परिस्थिति से लड़ने के लिए प्रेरित करती थीं, चाहे चुनौती कितनी ही बड़ी क्यों न हो!

         लगभग पांच वर्ष पूर्व अजय बोस ने अपनी किताब "बहन जी" के तीसरे और आखिरी संस्करण में इसके उपशीर्षक " द पॉलिटिकल बॉयोग्राफी ऑफ मायावती" (मायावती की राजनीतिक जीवनी) को बदलकर " द राइज ऐंड फॉल ऑफ मायावती" (मायावती का उत्थान और पतन) कर जब उनके राजनीतिक सफर के अंत की भविष्यवाणी की थी। तब वह और उनके सहयोगी उनसे बेहद नाराज हो गए थे, लेकिन उत्तर प्रदेश की राजनीति के कई जानकारों ने भी महसूस किया था कि अजय बोस ने एक ऐसी नेता के राजनीतिक सफर के अंत की भविष्यवाणी कर जोखिम उठाया है जिन्होंने अतीत में कई बार हार के जबड़ों से जीत छीनकर निकाली थी। हालांकि, लेखक न केवल राज्य और संसदीय चुनावों में उनकी बार-बार की हार, बल्कि पिछले पांच वर्षों में उत्तर प्रदेश के तेजी से बदलते सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य को देखते हुए आश्वस्त था कि बीएसपी सुप्रीमो और उनकी पार्टी निर्णायक रूप से गिरावट की ओर लगातार फिसलती जा रही है और अब उनका राजनीतिक पुनरुत्थान किसी चमत्कार से कम नहीं होगा। बीजेपी की डॉ आंबेडकर की वैचारिकी - दर्शन और संविधान विरोधी नीतियों - रीतियों से क्षुब्ध होकर और अपने सामने ढहते हुए लोकतंत्र को बचाने की जिम्मेदारी समझते हुए बीएसपी से दलित समाज का एक चिंतक और जागरूक वर्ग वर्तमान राजनीतिक परिस्थितिवश बीएसपी की राजनीतिक धारा से अलग होकर चुनाव में तात्कालिक रूप से बीजेपी के मजबूत विपक्ष के साथ खड़ा होने का मन बनाता हुआ दिख रहा है। इस प्रकार की उपजी राजनैतिक मनःस्थिति बीएसपी की राजनीति पर चिंतन करने वालों के लिए एक गहन अध्ययन का विषय बनना चाहिए।

        यह सच है कि 2019 के लोकसभा चुनाव में बसपा सुप्रीमो अपने चुनावी सहयोगी समाजवादी पार्टी से दोगुनी (दस) सीटें हासिल करने में सफल रही थीं। पिछले लोकसभा चुनाव के आंकलन के लिहाज से यह एक बड़ी सफलता और उपलब्धि थी, क्योंकि 2014 में उन्हें एक भी सीट नहीं मिली थी। यह संभव हुआ था समाजवादी पार्टी के मुस्लिम वोटों के बसपा उम्मीदवारों के पक्ष में हस्तांतरण से। तब राजनीतिक हताशा से घिरी मायावती और यादव परिवार के झगड़े की वजह से संकट में घिरे अखिलेश यादव  ने बेहद हड़बड़ी में यह गठबंधन किया था।
        इस गठबंधन से नुकसान तो समाजवादी पार्टी को हुआ था, लेकिन बीएसपी सुप्रीमो ने अचानक गठबंधन तोड़ दिया था। उस समय राजनीतिक गलियारों में यह चर्चा थी कि उन्होंने कथित तौर पर भाजपा के ताकतवर गृह मंत्री अमित शाह के दबाव में ऐसा किया था। इस लोकसभा चुनाव के बाद से मायावती राजनीतिक रूप से लगभग उदासीन होती चली गयीं। वह बेबसी के साथ देखती रहीं कि कैसे विधान सभा में उनके 19 विधायकों में से 13 समाजवादी पार्टी में चले गए। एक समय उनके बेहद करीबी राजनीतिक सहयोगी रहे स्वामी प्रसाद मौर्य, दारा सिंह चौहान और नसीमुद्दीन सिद्धिकी ने तो पहले ही उनका साथ छोड़ दिया था।

        लेकिन पिछले कुछ वर्षों से ऐसा लगता है कि उन्होंने सक्रिय राजनीति में रुचि खो दी है। यहां तक सुना जाता है कि भाजपा में शामिल हुए पूर्व बसपा सदस्यों में पिछले लगभग छह महीनों से बीएसपी में वापस आने की बेचैनी देखी जा रही थी। उस समय यदि मायावती ने स्वामी प्रसाद मौर्य जैसे नेता को पार्टी में वापस आने के लिए राजी कर लिया होता, तो यह संदेश जाता कि वह सही मायनों में भाजपा से लड़ना चाहती हैं। मगर उसके बजाय अखिलेश यादव पूर्व बसपा नेताओं को अपने साथ जोड़ने में सफल हो गए। मायावती की ज्यादातर मुश्किलें जमीन पर मौजूद राजनीतिक सच्चाईयों से संवाद और संपर्क तोड़ने से उपजी हैं। ऐसा इसलिए है, क्योंकि वह अब जमीनी स्तर के दलित कार्यकर्ताओं के संपर्क में न होकर एरिस्टोक्रेट बने कोऑर्डिनेटरों की एक लंबी फेहरिस्त के माध्यम से दी जा रही ज़मीनी हक़ीक़त पर ज्यादा टिकी नज़र आती हैं।

         बसपा की राजनीति के उत्थान और पतन के लिए एक तथ्य और जिम्मेदार बताया जा रहा है, वह है ब्राह्मणों से मिला समर्थन और उसकी वजह से हुआ सामाजिक -राजनीतिक नुकसान। तथ्य यह है कि इसकी वजह से बसपा से जुड़ी वे अति पिछड़ी जातियां और गैर जाटव दलित दूर होते चले गए हैं, जिन्हें कांशीराम ने बहुजन समाज पार्टी के जमीनी कार्यकर्ताओं के रूप में बड़ी मेहनत और विश्वास से जोड़ा था और उन्हें सरकार बनने पर उचित सम्मान के साथ सहभागिता भी दी थी। उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव के ऐन वक्त पर बीएसपी की राजनीतिक चमक और खनक कांग्रेस की तरह सामान्य जनमानस में धुंधली और फीकी पड़ती नज़र आने लगी है। विपक्षियों, ख़ासकर समाजवादी पार्टी और उसके स्थानीय नेताओं और कार्यकर्ताओं द्वारा इस मुहिम को हवा देते हुए चुनाव में फायदा ले जाते हुए नज़र आ रहे हैं। यहाँ यह कहना अब अतिशयोक्ति नही होगी, कहीं ऐसा तो नही लगता है कि बसपा और कांग्रेस में राजनीतिक होड़ इस बात की लगी है कि तीसरे स्थान के लिए कौन लड़ रहा है, क्योंकि विधान सभा चुनाव में अब बीजेपी को सीधी चुनौती समाजवादी पार्टी के नेतृत्व वाले गठबंधन से मिलती दिख रही है,ऐसा माना जा रहा है। मेरे विचार से अन्य दलों की अपेक्षा  बीएसपी के पास आज भी सबसे ज्यादा अपना ठोस आधार वोट बैंक है ,बस जरूत है तो सिर्फ ,मा. कांशीराम जी जैसा सामाजिक संपर्क, समर्पण और त्याग जिसके बल पर बीएसपी को अपनी पुरानी वाली राजनीतिक शक्ति को हासिल करने में देर नही लगेगी।

पता-लखीमपुर-खीरी उत्तर प्रदेश

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