साहित्य

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Wednesday, July 07, 2021

ओबीसी और दलितों की सामाजिक वैचारिकी में संघर्ष-नन्द लाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)

एक विमर्श एससी, एसटी बनाम ओबीसी

"ऊंची कुर्सियों पर मात्र काबिज बने रहने के लिए वे राजनेता आंबेडकर को याद करते हैं जो वास्तव में उनकी वैचारिकी/सैद्धांतिकी की घोर खिलाफत में हमेशा खड़े नजर आते हैं।यह विडम्बना ही है कि वे आज उनके नाम में उनके पिता जी के नाम के "राम" को देखकर/जोड़कर अलग किस्म की धार्मिक सियासत करना चाहते हैं।"

✍️ दलित और ओबीसी की अधिकांश जातियां ग्रामीण क्षेत्रों में रहती हैं और अपने परंपरागत पेशे से ही जीविका चलाती हैं। वैज्ञानिक व तकनीकी शिक्षा पूरी तरह उन तक आज भी नहीं पहुंची है और सामाजिक स्तर पर छोटी-बड़ी (निम्न-उच्च) जातियों की मान्यता के साथ जाति व्यवस्था अच्छी तरह से अपने पैर जमाए हुए है। सामाजिक स्तर पर अनुसूचित और ओबीसी की जातियों के बीच आज के दौर में भी सामान्य रूप से खान-पान और उठने-बैठने का माहौल नहीं दिखता है। सामाजिक,राजनैतिक और सांस्कृतिक आंदोलनों की वजह से दलितों की सामाजिक और धार्मिक मान्यताओंं/परंपराओ/रीति-रिवाज़ों में परिवर्तन आना स्वाभाविक है। आंदोलनों से पूर्व दलित और ओबीसी हिन्दू धर्म,त्यौहारों,परम्पराओं और रीति-रिवाज़ों को एक ही तरह से मानते/मनाते थे। बौद्घ धर्म और आंबेडकरवादी विचारधारा के प्रवाह से अब अनुसूचित और ओबीसी की जातियों की धार्मिक और सामाजिक रीति-रिवाज़ों में काफी बदलाव/भिन्नता आ गयी है। शिक्षा की कमी के कारण ओबीसी के उत्थान के लिए आंबेडकर द्वारा बनाई गई संवैधानिक व्यवस्था को ओबीसी अभी भी नहीं समझ पा रहा है। जातीय श्रेष्ठता की झूठी शान और सामाजिक/धार्मिक रीति-रिवाज़ों में अंतर/भिन्नता के कारण दोनों में सामाजिक और राजनैतिक सामंजस्य की भी कमी दिखती है। सदैव सत्ता में बने रहने वाले जाति आधारित व्यवस्था के पोषक तत्वों/मनुवादियों द्वारा आग में घी डालकर इस दूरी को बनाए रखने का कार्य बखूबी किया गया और आज भी...। ओबीसी इन मनुवादियों की साज़िशों और आंबेडकर की वैचारिकी का अपने हित में अवलोकन-आंकलन नहीं कर पाया और न ही कर पा रहा है,क्योंकि वह आंबेडकर के व्यक्तित्व व कृतित्व को जाति विशेष होने के पूर्वाग्रह के कारण उनकी वैचारिकी और योगदान को पढ़ने से परहेज करता रहा और उसे आज भी पढ़ने में हीनभावना/संकोच जैसा लगता है। यहां तक कि,आंबेडकर की वैचारिकी के सार्वजनिक मंचों को साझा करने में भी उसे शर्म आती है। देश के सत्ता प्रतिष्ठान आंबेडकर के सम्पूर्ण व्यक्तित्व को एक जाति/समाज विशेष के खांचे में बन्द कर,इस क़दर प्रचार-प्रसार करते रहे जिससे अनुसूचित और ओबीसी जातियों में सामाजिक/राजनीतिक एकता कायम न हो सके।आज यदि ओबीसी का कोई व्यक्ति आंबेडकर को कोसता है या अन्य की तुलना में कमतर समझता है,तो समझ जाइए कि उसने ओबीसी के उत्थान के लिए आंबेडकर की सामाजिक,राजनैतिक और आर्थिक मॉडल पर आधारित वैचारिकी को अभी तक पढ़ने/समझने का रंच मात्र प्रयास भी नहीं किया है। वह भूल जाता है कि वर्णव्यवस्था में अनुसूचित और ओबीसी की समस्त जातियां "शूद्र" वर्ण में ही समाहित हैं। अशिक्षा और अज्ञानता के कारण ओबीसी अपनी श्रेष्ठता के अहंकार में केवल अनुसूचित जाति को ही शूद्र और नीच समझकर जगह-जगह पर अपनी अज्ञानता/मूर्खता का परिचय देता नजर आता है जिससे उनमें एकता के बजाय वैमनस्यता ही बनी हुई है।
✍️ओबीसी का बहुसंख्यक धर्म-ग्रंथ जैसे रामायण,रामचरित मानस,सत्यनारायण की कथा,भागवत,महाभारत,मंदिरों में स्थापित पत्थरों/धातुओ की जेवरात/हीरे/मोतियों से सुसुज्जित मूर्तियों के रूप में करोड़ों देवी-देवताओंं के चक्रव्यूह में फंसा रहता है। जबकि 85% शोषितों व वंचितों के कल्याण के लिए आंबेडकर की संवैधानिक व्यवस्थाएं एनीहिलेशन ऑफ कास्ट (जाति का विनाश) पुस्तक,साइमन कमीशन और गोल मेज कॉन्फ्रेंस के मुद्दे/विषय वस्तु और उद्देश्य,हिन्दू कोड बिल,काका कालेलकर और वीपी मंडल आयोग की सिफारिशें है जिनका अध्ययन और समझना आवश्यक है। शिक्षा,धन,धरती और राजपाट दलितों व ओबीसी की लड़ाई के असल मुद्दे हैं जहां से आपके और आपकी भावी पीढ़ी के उज्ज्वल भविष्य के निर्माण के लिए रास्ते खुलते और प्रशस्त होते है। सत्ता के उच्च प्रतिष्ठान जैसे सरकार,कार्यपालिका,न्यायपालिका और मीडिया में शीर्ष पर काबिज कथित रूप से ब्रम्हमुख उत्पन्न प्रभु लोगो ने आपके लिए अभी तक क्या किया है?
✍️ डॉ आंबेडकर की बहुपटीय वैचारिकी को ईमानदारी से न तो देखा गया और न ही सार्वजनिक पटल पर लिखित/मौखिक रूप से प्रस्तुत किया गया। आज़ाद भारत की कई प्रकार की सत्ता संस्थाएं जैसे उच्च शिक्षण और अकादमिक संस्थाओ में ज्ञान की सत्ता,मीडिया और न्यायपालिका की सत्ता,संसद में राजपाट की सत्ता और समाज में धर्म या ब्राम्हणवाद की सत्ता काम करती हैं। क्या ये सारी सत्ताएं आंबेडकर की वैचारिकी को समग्रता में देखने व समझने में हमारी मददगार साबित होती है या फिर किन्हीं पूर्वाग्रहों का शिकार है?आंबेडकर की विचारधारा की परंपरा के अंतरराष्ट्रीय दलित चिंतक,दार्शनिक,साहित्यकार,आलोचक,गहन विश्लेषक,आईआईटी और आईआई एम जैसी प्रतिष्ठित संस्थाओं से शिक्षा ग्रहण और अध्यापन कर चुके प्रो.आनन्द तेलतुंबडे को 14 अप्रैल,2020 को आंबेडकर की 129वीं जयंती पर भीमा कोरे गांव की घटना में एक आरोपी के पत्र/डायरी में "आनन्द" लिखा मिल जाने को आधार बनाकर बिना किसी जांच-पड़ताल के गिरफ्तार कर उस समय जेल जाने के लिए विवश किया जाता है जब कोविड- 19 के कारण जेलों में बन्द हजारों बंदियों/कैदियों को पैरोल पर रिहा किया जा रहा था। उनके साथ उनके साथी गौतम नौलखा को भी आत्मसमर्पण करना पड़ा था।कोविड -19 के कालखंड में सरकार, प्रशासन और स्वास्थ्य विभाग द्वारा जारी एडवाइजरी का पूरी तरह पालन करते हुए अपने घरों में आंबेडकर जयंती मनाने पर सरकार द्वारा राजनैतिक विद्वेष वश उनके खिलाफ एफआईआर दर्ज कर कार्रवाई किया जाना दुखद घटना थी,जबकि 22 मार्च और 5अप्रैल को एडवाइजरी की धज्जियां उड़ाते सड़क पर उतरे लोगों के खिलाफ स्थानीय प्रशासन द्वारा कोई कार्रवाई न किया जाना सरकार के दोहरे चरित्र की निशानी है।
✍️ दरअसल,आधुनिक दलित चिंतक सरकार पर यह सवाल उठाने लगे हैं,कि आखिर वे कौन है,जिनकी वजह से आजादी के सत्तर सालों में आंबेडकर के सपनो का भारत का निर्माण नहीं हो पाया है या नहीं हो पा रहा है?अर्थात आंबेडकर की राष्ट्र निर्माण की विचारधारा के हत्यारे कौन हैं?अध्ययन करने से पता चलता है कि आज देश का झूठ/फसाद की बुनियाद पर खड़ा आरएसएस जो कि दक्षिणपंथी विचारधारा का कट्टर समर्थक है,देश के सत्ता प्रतिष्ठानों की महत्वपूर्ण/ऊंची कुर्सियों पर मात्र काबिज बने रहने के लिए वे राजनेता आंबेडकर को याद करते हैं जो वास्तव में उनकी वैचारिकी/सैद्धांतिकी की घोर खिलाफत में हमेशा खड़े नजर आते हैं।यह विडम्बना ही है कि वे आज उनके नाम में उनके पिता जी के नाम के "राम" को देखकर/जोड़कर अलग किस्म की धार्मिक सियासत करना चाहते हैं।"सामाजिक न्याय के स्थान पर सामाजिक समरसता की वैचारिकी का आपस में घालमेल किया जा रहा है।" यह कार्य ओबीसी के लोग आरएसएस की प्रयोगशाला में प्रशक्षित होकर गांवों और शहरो में शाखाएं लगाकर बखूबी कर रहे हैं।संघ की विचारधारा का सबसे बड़ा और मज़बूत संवाहक आज ओबीसी ही बना हुआ है।संघ के लोग आंबेडकर के आरएसएस से राजनैतिक संबंधो की तरह-तरह की अफवाहें फैलाकर उनकी राजनीतिक विरासत को हड़पना/नष्ट करना चाहते हैं। गोलवलकर की पुस्तक "बंच ऑफ थाट्स" के हिंदी संस्करण "विचार नवनीत" में आंतरिक संकटों का जिक्र किया गया है जिसमें देश के मुसलमानों को पहला, ईसाईयों को दूसरा और कम्युनिस्टों को तीसरे संकट के रूप में रेखांकित किया गया है।
एन एल वर्मा 


पता-लखीमपुर-खीरी  (यूपी)
9415461224, 8858656000

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