साहित्य

  • जन की बात न दबेगी, न छिपेगी, अब छपेगी, लोकतंत्र के सच्चे सिपाही बनिए अपने लिए नहीं, अपने आने वाले कल के लिए, आपका अपना भविष्य जहाँ गर्व से कह सके आप थे तो हम हैं।
  • लखीमपुर-खीरी उ०प्र०

Tuesday, February 08, 2022

खत नहीं आते-रमाकान्त चौधरी

संस्मरण के बहाने
रमाकांत चौधरी
"क्या हुआ है आजकल खत का आना बंद है, डाकिया मर गया या डाकखाना बंद है" आशिकों की ये शायरियां या पंकज उधास का "गीत चिट्ठी आई है, आई है चिट्ठी आई है"  यह सब बातें गुजरे जमाने की लगती हैं।  एक समय होता था, जब दूर गए साजन की चिट्ठी का सजनी  या फिर सजनी के मायके जाने पर साजन उस तरफ निगाहें रखता था जिधर से डाकिया खाकी वर्दी में कंधे पर झोला लटकाए, साइकिल की घंटी टनटनाता हुआ आता दिखाई पड़ता था। जैसे ही डाकिया सामने से गुजरता और आवाज तक न देता था, तो फिर मन में बहुत गुस्सा आता  कि क्या उन्हें एक चिट्ठी भी लिखने की फुर्सत नहीं है ।  कई-कई दिन इंतजार में गुजर जाते थे और तब डाकिए से पूछना पड़ता था, काका अबकी मेरी चिट्ठी नहीं आई क्या? और अचानक डाकिया झोले से निकाल कर जब चिट्ठी देता तो फिर खुशी का ठिकाना नहीं रहता था। आंखों में खुशी के आंसू छल छला पड़ते थे और फिर वह चिट्ठी साजन या सजनी की होती तो बात ही कुछ अलग होती, पढ़ने का आनंद ही कुछ अलग होता, एक-एक शब्द इत्मिनान से कई-कई बार पढ़ा जाता और हर एक शब्द पर होठों की मुहर लगाई जाती, फिर सीने से लिपटाया जाता। उसके बाद उठती कलम और कागज ,खत का जवाब लिखने के लिए। प्रेमियों का तो अंदाज ही सबसे जुदा होता था, उनकी चिट्ठी ले जाने के लिए तो उनका डाकिया भी अलग यानी निजी होता था। और उनकी चिट्ठी के ऊपर लिखा होता था 'चला जा पत्र चमकते-चमकते, मेरे महबूब से कहना नमस्ते-नमस्ते' या फिर 'पढ़ने वाले पत्र छुपा के पढ़ना, तुझे कसम है मेरी जरा मुस्कुरा के पढ़ना, वह खत वाकई प्रेमी-प्रेमिका छुपा के पढ़ते थे, अपने महबूब की निशानी समझकर किताबों में छुपा कर रखते थे। जब प्रेमियों का बिछोह होता तो आशिकों की जुबां पर यह शायरी 'जवाबे खत नहीं आता लहू आंखों से जारी है, न जीते हैं न मरते हैं अजब किस्मत हमारी है'  मचलने लगती थी। कई-कई बार तो ऐसा भी होता था कि खत के सहारे ही सारी जिंदगी प्रेम अथवा दोस्ती चलती रहती थी दो दोस्त या प्रेमी कभी एक दूसरे की शक्ल से ताउम्र परिचित नहीं हो पाते थे किंतु विचारों का आदान-प्रदान खतों के जरिए ही होता था। खत पाने का या फिर खत भेजने का जो आनंद था वह जुबान से बयां कर पाना संभव ही नहीं है। 

जब किसी मां का बेटा या फिर सजनी का साजन देश की रक्षा के लिए सीमा पर लड़ने जाता था और वहां से जब चिट्ठी लिखता था,  वह दृश्य जब शाम गोधूलि के वक्त डाकिया चिट्ठी लेकर आता था। जब मोहल्ले वाले सुनते की फौजी की चिट्ठी आई है तो सभी उसका हाल पता जानने के लिए इकट्ठे हो जाते कि क्या लिखा है? कैसा है फौजी? फिर डाकिया बाबू उस चिट्ठी को खोलकर पढ़ता तो सबसे पहले ही लिखा होता 'पूजनीय माता-पिता को सादर चरण स्पर्श' उस वक्त माता-पिता की आंखें खुशी से भर जाती, सीना फूलकर गदगद हो जाता। तत्पश्चात तमाम बातें लिखी होती, फिर मोहल्ले में बच्चों से लेकर बूढ़ी ताई तक का हाल-चाल अगले जवाबी खत में लिखने के लिए लिखा होता। उस वक्त सभी मोहल्ले वाले खुशी से फूले नहीं समाते थे। और फिर खतों का सिलसिला न थमने की गति से चलता रहता था।

नई तकनीकी के विकास से जहां पर हालचाल जानने के लिए इंतजार नहीं करना पड़ता है, वहीं पर सम्मानजनक शब्दों का विलोपन होता चला गया है। खतों में जहाँ पुत्र अपने माता-पिता को 'पूजनीय सादर चरण स्पर्श'  व अपनी पत्नी को 'मेरी प्यारी प्राण प्रिया' इत्यादि शब्दों को प्यार के साथ लिखता था, उसकी  जगह अब सिर्फ नमस्ते और हाय-हेलो ने ग्रहण कर ली है। नई तकनीक ने वह प्यार, मोहब्बत, बेचैनी, बेकरारी, इंतजार सब का विलोपन कर दिया अब किसी को फुर्सत कहां है जो चिट्ठी लिखने वाला झंझट का काम करें। बेटा फौज में है तो माता-पिता से बात करने की आवश्यकता ही नहीं है, पत्नी के पास ही सारी जानकारियां पहुंच जाती हैं और फिर माता-पिता बहू से ही बेटे का हाल मालूम कर लेते हैं। भाई बहनों का प्यार भी चिट्ठी में बंद होता था, बहन के घर जब चिट्ठी भाई की पहुंचती तो वह फूले नहीं समाती थी।अब नई तकनीक ने वह भी रीति खत्म कर दी।  अब तो प्रेमी प्रेमिकाओं का रूठना  मनाना मोबाइलों के सहारे होता है। पहले जो बात लबों से नहीं हो पाती थी वह खतों के जरिए हो जाती थी, किंतु अब उसकी जगह एसएमएस यानी शॉर्ट मैसेज संदेश ने ले ली है। शॉर्ट होने के कारण उस पर दिल के हालात पूर्णतया बयां नहीं किये जा सकते। इसका परिणाम यह होता है कि शॉर्ट मैसेज संदेश के चक्कर में प्यार भी शॉर्ट होता चला गया  और एक दिन ऐसा भी आता है कि मोबाइल पर ही प्यार की आहूति चढ़ जाती है ।  नए सिम की तरह नया प्रेमी भी आ जाता है । रही डाकिया बाबू की बात तो वह सिर्फ सरकारी चिट्ठियां ढोते हैं जो किसी बैंक से कर्ज जमा करने हेतु भेजी जाती हैं या फिर किसी मोहकमे  में रिक्त पदों हेतु फार्म भरे जाते हैं, उनकी रजिस्ट्री रिटर्न इत्यादि ।  अब किसी को किसी की चिट्ठी का इंतजार नहीं होता है। अब तो बस इतना है कि कब किसकी घंटी बज जाए और जेब से निकलकर छोटा सा इंस्ट्रूमेंट किस समय कान से चिपक जाए और कब कोई भयानक दुर्घटना घटित हो जाए किसी को कुछ नहीं पता। इस छोटे से इंस्ट्रूमेंट ने जहां एक और लंबे इंतजार को खत्म करके फेस टू फेस बात करने जैसी सुविधा प्रदान की है वहीं पर वह खत पढ़ने का, लिखने का, सीने से छुपाने का आनंद खत्म कर दिया है। अब पत्नी अपने  जाते हुए पति से ये शायद कभी ना कहेगी कि 'जाते हो परदेस पिया, जाते ही खत लिखना।'
पता- गोला गोकर्णनाथ, लखीमपुर खीरी
उत्तर प्रदेश 2622701

Tuesday, February 01, 2022

यादों के गुलाब-सुरेश सौरभ

लघुकथा

-सुरेश सौरभ 
कुछ पुरानी किताबों को हटाते-संभालते हुए, एक डायरी उसके हाथ में आ गई । ताजे गुलाबों की खुशबू पूरे कमरे में फैल गई।कालेज के दिनों की यादों से उसका अंग-अंग थिरक उठा। बूढ़ी रगो में रक्त का संचार बढ़ गया। तभी अपनी बेटी पर उसकी नजर गई, वह इठलाते-बलखाते हुए किसी से फोन पर बातें कर रही थी, उसके गालों पर बढ़ती गुलाबी रंगत को देख, मुंह बिसूर कर वह दहाड़ा-किसका फोन है?
बेटी ने फौरन फोन काट दिया। उसे होश न रहा ,पापा जी कब सामने है आ गए।
कि... कि किसी का नहीं... हकलाते हुए, संभलते हुए।
वह डायरी पटक कर बोला -तेरे गुलाबी गाल बता रहे हैं किसका फोन था। बेटी सहम गई।... टिन्न.. एक लवली गुलाबी इमोजी मैसेंजर पर आई। वह देख पाती, इससे पहले पापा बोले-मुझे गुलाबी रंग और गुलाबों से सख्त नफरत है समझी ...
चट-चट-चट.. तेजी से चप्पलें चटकाते हुए चल पड़े। ‌बेटी हैरत से उन्हें जाते देख रही थी, गालों पर उगी, अपनी गुलाबी रंगत तो समझ में आ रही थी, पर गुलाबों से सख्त नफरत.. के मर्म को वह न समझ पा रही थी।

मो०निर्मल नगर
लखीमपुर खीरी  पिन-262701
मो,-7376236066




भूल -सुरेश सौरभ

  (लघु कथा)
सुरेश सौरभ 
"मम्मी तुम्हें  कितनी बार समझाया है कि दो परांठे ही बांधा करो, पर तुम हो कि तीन-चार ठूंस-ठूंस कर बांध देती हो",जल्दी-जल्दी टिफिन बस्ते में रखते हुए, खींजते हुए, मोहित बोला। फिर सामने खड़े स्कूल रिक्शे में बैठ कर, मम्मी से बाय-बाय करने लगा। रिक्शा चल पड़ा। जाते रिक्शे को देख, मम्मी मुस्कुराई फिर बुदबुदाई-क्योंकि मेरी भी मां अनपढ़ थी, और तेरी पढ़ी-लिखी मां भी अनपढ़ है, इसलिए गलती से परांठे गिन नहीं पाती।

निर्मल नगर लखीमपुर-खीरी
उत्तर प्रदेश
मो-7376236066
पिन-262701

चोट-सुरेश सौरभ

(लघुकथा)

सुरेश सौरभ
‘‘चटाक! चटाक!...
‘‘साले दिखाई नहीं पड़ता।’’
‘‘चटाक! चटाक!..
‘‘तेरी माँ की..... देख कर नहीं मोड़ता।’’
‘‘चटाक! चटाक!...
‘‘साले जब इधर भीड़ थी तो क्यों लेकर आया इधर?’’
‘‘चटाक! चटाक! चटाक!...
‘‘कितना भी मारो गरियाओ, पर तुम लोग बाज नहीं आते?’’
शाम। टूटा-थका-हारा घर आकर वह बैठा गया। 
‘‘चटाक! चटाक!चटाक... कोई तमीज नहीं? जब कह दिया, पैसे नहीं, फिर भी इतने पैसे इनको दो, ये चाहिए वो चाहिए।...उं उं...उं..ऽ..ऽ.ऽ छोटा बच्चा रोये जा रहा था।
 ‘‘क्या बात है, क्यों मार रहीं है इसे?’’ 
‘‘कोई काम सुनता नहीं ऊपर से जो भी कोई ठेली खोमचा वाला निकले, तो जिद, ये चाहिए वो चाहिए।...बच्चा रोये जा रहा था।.... चुपता है या नहीं चुपता है... हुंह ये ले..ये ले..चटाक चटाक...
अब वह अपने गाल सहलाने लगा, पत्नी को करूण नेत्रों से देख, बेहद मायूसी और नर्मी से बोला-अब न मार बच्चे को, चोट मुझे भी लग रही है रे! लग रहा हम रिक्शे वालों की पीढ़ी दर पीढ़ी ऐसे ही मार खाती बतेगी।
अब पत्नी, अपने पति रिक्शे वाले को हैरत से एकटक देख रही थी। रो तो बच्चा रहा था, पर उसकी आँखों में आँसू न थे। लेकिन उसकी और उसके रिक्शे वाले पति की आँखों में आँसू डबडबा आए थे।

निर्मल नगर लखीमपुर-खीरी
मो-7376236066

Sunday, January 30, 2022

यूपी की सियासत : चुनावी दौड़ में बसपा की स्थिति का विश्लेषण-नन्द लाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)

राजनितिक गलियारे से चुनावी चर्चा
अजय बोस ने अपनी किताब "बहन जी" के तीसरे और आखिरी संस्करण में इसके उपशीर्षक " द पॉलिटिकल बॉयोग्राफी ऑफ मायावती" (मायावती की राजनीतिक जीवनी) को बदलकर " द राइज ऐंड फॉल ऑफ मायावती" (मायावती का उत्थान और पतन) कर जब उनके राजनीतिक सफर के अंत की भविष्यवाणी की थी.............बीएसपी के पास आज भी सबसे ज्यादा अपना ठोस आधार वोट बैंक है ,बस जरूत है तो सिर्फ ,मा. कांशीराम जी जैसा सामाजिक संपर्क, समर्पण और त्याग जिसके बल पर बीएसपी को अपनी पुरानी वाली राजनीतिक शक्ति को हासिल करने में देर नही लगेगी।
नन्द लाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)
         पिछले कुछ वर्षों में उत्तर प्रदेश की राजनीति में चार बार मुख्यमंत्री रहीं मायावती की आधी-अधूरी भागीदारी और सक्रियता, यहां तक कि प्रदेश में दलितों के उत्पीड़न की घटनाओं पर उनकी चुप्पी से यही महसूस किया गया है कि एक समय की प्रबल मुखर दलित नेता ने या तो अपना प्रभाव खो दिया है या फिर केंद्र और राज्य की सत्ता के आगे अदृश्य भय या कारण के चलते समर्पण कर दिया है। राज्य सभा मे दलित समाज के मुद्दों पर अपनी बात रखने के लिए पर्याप्त समय न देने पर बिना किसी देरी के सदन से इस्तीफा दे देना उनकी राजनीति करने की बेमिसाल पहचान और उदाहरण सबके सामने है। बहुत से वयोवृद्ध दलित कार्यकर्ता, जिन्होंने पिछले कई दशकों में बसपा के लिए दिन रात कार्य किया है, बसपा की वर्तमान राजनीतिक हालत से आज बेहद मायूसी के साथ कहते हुए बताते हैं कि बहन जी हमें हर जटिल परिस्थिति से लड़ने के लिए प्रेरित करती थीं, चाहे चुनौती कितनी ही बड़ी क्यों न हो!

         लगभग पांच वर्ष पूर्व अजय बोस ने अपनी किताब "बहन जी" के तीसरे और आखिरी संस्करण में इसके उपशीर्षक " द पॉलिटिकल बॉयोग्राफी ऑफ मायावती" (मायावती की राजनीतिक जीवनी) को बदलकर " द राइज ऐंड फॉल ऑफ मायावती" (मायावती का उत्थान और पतन) कर जब उनके राजनीतिक सफर के अंत की भविष्यवाणी की थी। तब वह और उनके सहयोगी उनसे बेहद नाराज हो गए थे, लेकिन उत्तर प्रदेश की राजनीति के कई जानकारों ने भी महसूस किया था कि अजय बोस ने एक ऐसी नेता के राजनीतिक सफर के अंत की भविष्यवाणी कर जोखिम उठाया है जिन्होंने अतीत में कई बार हार के जबड़ों से जीत छीनकर निकाली थी। हालांकि, लेखक न केवल राज्य और संसदीय चुनावों में उनकी बार-बार की हार, बल्कि पिछले पांच वर्षों में उत्तर प्रदेश के तेजी से बदलते सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य को देखते हुए आश्वस्त था कि बीएसपी सुप्रीमो और उनकी पार्टी निर्णायक रूप से गिरावट की ओर लगातार फिसलती जा रही है और अब उनका राजनीतिक पुनरुत्थान किसी चमत्कार से कम नहीं होगा। बीजेपी की डॉ आंबेडकर की वैचारिकी - दर्शन और संविधान विरोधी नीतियों - रीतियों से क्षुब्ध होकर और अपने सामने ढहते हुए लोकतंत्र को बचाने की जिम्मेदारी समझते हुए बीएसपी से दलित समाज का एक चिंतक और जागरूक वर्ग वर्तमान राजनीतिक परिस्थितिवश बीएसपी की राजनीतिक धारा से अलग होकर चुनाव में तात्कालिक रूप से बीजेपी के मजबूत विपक्ष के साथ खड़ा होने का मन बनाता हुआ दिख रहा है। इस प्रकार की उपजी राजनैतिक मनःस्थिति बीएसपी की राजनीति पर चिंतन करने वालों के लिए एक गहन अध्ययन का विषय बनना चाहिए।

        यह सच है कि 2019 के लोकसभा चुनाव में बसपा सुप्रीमो अपने चुनावी सहयोगी समाजवादी पार्टी से दोगुनी (दस) सीटें हासिल करने में सफल रही थीं। पिछले लोकसभा चुनाव के आंकलन के लिहाज से यह एक बड़ी सफलता और उपलब्धि थी, क्योंकि 2014 में उन्हें एक भी सीट नहीं मिली थी। यह संभव हुआ था समाजवादी पार्टी के मुस्लिम वोटों के बसपा उम्मीदवारों के पक्ष में हस्तांतरण से। तब राजनीतिक हताशा से घिरी मायावती और यादव परिवार के झगड़े की वजह से संकट में घिरे अखिलेश यादव  ने बेहद हड़बड़ी में यह गठबंधन किया था।
        इस गठबंधन से नुकसान तो समाजवादी पार्टी को हुआ था, लेकिन बीएसपी सुप्रीमो ने अचानक गठबंधन तोड़ दिया था। उस समय राजनीतिक गलियारों में यह चर्चा थी कि उन्होंने कथित तौर पर भाजपा के ताकतवर गृह मंत्री अमित शाह के दबाव में ऐसा किया था। इस लोकसभा चुनाव के बाद से मायावती राजनीतिक रूप से लगभग उदासीन होती चली गयीं। वह बेबसी के साथ देखती रहीं कि कैसे विधान सभा में उनके 19 विधायकों में से 13 समाजवादी पार्टी में चले गए। एक समय उनके बेहद करीबी राजनीतिक सहयोगी रहे स्वामी प्रसाद मौर्य, दारा सिंह चौहान और नसीमुद्दीन सिद्धिकी ने तो पहले ही उनका साथ छोड़ दिया था।

        लेकिन पिछले कुछ वर्षों से ऐसा लगता है कि उन्होंने सक्रिय राजनीति में रुचि खो दी है। यहां तक सुना जाता है कि भाजपा में शामिल हुए पूर्व बसपा सदस्यों में पिछले लगभग छह महीनों से बीएसपी में वापस आने की बेचैनी देखी जा रही थी। उस समय यदि मायावती ने स्वामी प्रसाद मौर्य जैसे नेता को पार्टी में वापस आने के लिए राजी कर लिया होता, तो यह संदेश जाता कि वह सही मायनों में भाजपा से लड़ना चाहती हैं। मगर उसके बजाय अखिलेश यादव पूर्व बसपा नेताओं को अपने साथ जोड़ने में सफल हो गए। मायावती की ज्यादातर मुश्किलें जमीन पर मौजूद राजनीतिक सच्चाईयों से संवाद और संपर्क तोड़ने से उपजी हैं। ऐसा इसलिए है, क्योंकि वह अब जमीनी स्तर के दलित कार्यकर्ताओं के संपर्क में न होकर एरिस्टोक्रेट बने कोऑर्डिनेटरों की एक लंबी फेहरिस्त के माध्यम से दी जा रही ज़मीनी हक़ीक़त पर ज्यादा टिकी नज़र आती हैं।

         बसपा की राजनीति के उत्थान और पतन के लिए एक तथ्य और जिम्मेदार बताया जा रहा है, वह है ब्राह्मणों से मिला समर्थन और उसकी वजह से हुआ सामाजिक -राजनीतिक नुकसान। तथ्य यह है कि इसकी वजह से बसपा से जुड़ी वे अति पिछड़ी जातियां और गैर जाटव दलित दूर होते चले गए हैं, जिन्हें कांशीराम ने बहुजन समाज पार्टी के जमीनी कार्यकर्ताओं के रूप में बड़ी मेहनत और विश्वास से जोड़ा था और उन्हें सरकार बनने पर उचित सम्मान के साथ सहभागिता भी दी थी। उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव के ऐन वक्त पर बीएसपी की राजनीतिक चमक और खनक कांग्रेस की तरह सामान्य जनमानस में धुंधली और फीकी पड़ती नज़र आने लगी है। विपक्षियों, ख़ासकर समाजवादी पार्टी और उसके स्थानीय नेताओं और कार्यकर्ताओं द्वारा इस मुहिम को हवा देते हुए चुनाव में फायदा ले जाते हुए नज़र आ रहे हैं। यहाँ यह कहना अब अतिशयोक्ति नही होगी, कहीं ऐसा तो नही लगता है कि बसपा और कांग्रेस में राजनीतिक होड़ इस बात की लगी है कि तीसरे स्थान के लिए कौन लड़ रहा है, क्योंकि विधान सभा चुनाव में अब बीजेपी को सीधी चुनौती समाजवादी पार्टी के नेतृत्व वाले गठबंधन से मिलती दिख रही है,ऐसा माना जा रहा है। मेरे विचार से अन्य दलों की अपेक्षा  बीएसपी के पास आज भी सबसे ज्यादा अपना ठोस आधार वोट बैंक है ,बस जरूत है तो सिर्फ ,मा. कांशीराम जी जैसा सामाजिक संपर्क, समर्पण और त्याग जिसके बल पर बीएसपी को अपनी पुरानी वाली राजनीतिक शक्ति को हासिल करने में देर नही लगेगी।

पता-लखीमपुर-खीरी उत्तर प्रदेश

Tuesday, January 25, 2022

गले मिलकर गला काटने वाला ये नापाक चीनी मांझा-अजय बोकिल

Ajay Bokil
जिस पतंग को उमंगों का प्रतीक माना जाता रहा हो, आज उसी उन्मुक्त उड़ने वाली पतंग की डोर जानलेवा होती जा रही है। इस संक्रांति पर उज्जैन में स्कूटी पर जा रही एक युवती की जान ऐसी ही एक पतंग के चीनी मांझे ने ले ली। उस बदनसीब की जिंदगी की पतंग उड़ने से पहले ही कट गई। जिसने भी सुना, ‍िजसने भी पढ़ा, कटती पतंग की तरह भीतर से दहल गया। हालांकि शहर में चीनी मांझा बेचने वालों को सबक सिखाने की नीयत से जिला प्रशासन ने उनकी दुकाने ढहा दीं।  लेकिन इससे कोई खास फर्क शायद ही पड़े। चीनी मांझे की वजह से जानलेवा हादसे की यह घटना पहली नहीं है। पहले भी कई लोग चीनी डोर के इस अप्रत्याशित ‘हमले’ से लहूलुहान हो चुके हैं या फिर गले की नस कटने से प्राण भी गंवा चुके  हैं। पिछले साल सिकंदराबाद में चीनी मांझे की वजह से 36 पक्षियों ने अपनी जानें गंवा दीं। मजबूत चीनी मांझे में उलझे ये मूक प्राणी अपना दर्द किसी से कह भी नहीं सके। अब आलम यह है कि किसी जमाने में आकाश में उड़ती जिन  रंगबिरंगी पतंगों को देखकर मन भी रंगारंग हो जाता था। उसी पतंग को देखकर अब डर सा लगने लगा है कि कहीं उस पतंग की जालिम डोर आपके गले की फांस न बन जाए। 
खुशनुमा पंतगों की दुनिया ‘खूनी’ बने बहुत ज्यादा वक्त नहीं हुआ। पहले भी कटी पतंग को लूटने के चक्कर में यदा-कदा हादसे हो जाया करते थे। लड़ाई झगड़े भी होते थे। लेकिन पतंग को बांधे रखने वाली डोर ही आपकी जिंदगी की डोर काट दे, ऐसा शायद ही सुना गया। चीनी माल के बहिष्कार के तमाम सतही दावे और राजनीतिक मुहिम के बाद भी आलम यह है कि भारत में चीन से निर्यात बढ़ता जा रहा है। यूं भारत में कई जगह चीनी मांझा उसकी घातकता के कारण बैन है, लेकिन ये हर कहीं उपलब्ध है।
यहां सवाल यह कि ये चीनी मांझा है क्या ? जब कई राज्यों में इस पर प्रतिबंध है तो यह आ कहां से रहा है? और यह भी कि जानलेवा होने के बावजूद पतंगबाजों में इसकी दीवानगी क्यों है? हमारे देश में पतंगबाजी का इतिहास बहुत पुराना है। यूं तो यह अरमानों को आकाश में उड़ाने का खेल है, लेकिन बात जब प्रतिस्पर्द्धा की आती है तो पतंग उड़ाने के साथ साथ प्रतिस्पर्द्धी की पतंग काटना और फिर कटी पतंग को लूटना भी नाक का सवाल बन जाता है। पतंग की खूबी यह है कि वह जब तक डोर की ढील मिलती है तब तक आसमान की बुलंदियों को छूती रहती है। लेकिन डोर कटते ही वह घायल हिरनी की तरह धीरे-धीरे धरती पर आकर दम तोड़ देती है या फिर की ऊंची इमारत या पेड़ पर फंसकर फड़फड़ाती रह जाती है। कुछ साल पहले तक मांझे (डोर) के रूप में देशी मांझे का ही इस्तेमाल होता था। देश में पंतग उद्योग का प्रमुख केन्द्र उत्तर प्रदेश का बरेली है ( यह बात अलग है कि फिल्म वालों ने उसे झुमके वाले शहर के रूप में ख्यात कर दिया है)। बरेली में बड़े पैमाने पर तरह-तरह की पतंगें बनती हैं। साथ ही इसका मांझा भी तैयार होता है। देसी मांझा सूत के धागे और सरेस आदि से ‍िमलकर बनता है। ये मांझा अलग-अलग तार यानी कई धागों से मिलकर बनता है। सबसे मजबूत 12 तार का मांझा माना जाता है। लेकिन यह घातक नहीं होता। नौ साल पहले इस देश में  दूसरे चीनी सामानो की तरह चीनी मांझे ने भी दस्तक दी। जानकारों के मुताबिक चीनी मांझा नायलाॅन का बना होता है और इसे ज्यादा मजबूती देने के लिए कांच की परत चढ़ाई जाती है। ऐसे में यह धागा बहुत मुश्किल से टूटता है और धारदार भी हो जाता है। पंतगबाजों में इसकी मांग इसलिए है कि क्योंकि यह देशी मांझे की तुलना में बहुत सस्ता और कई गुना ज्यादा मजबूत है। पतंगबाजी की भाषा में कहें तो इस मांझे से पतंग कटना बहुत ही मुश्किल है, क्योंकि जब डोर ही नहीं कटेगी तो पंतग कैसे नीचे आएगी। लिहाजा चीनी मांझे के इस्तेमाल में ‘अजेयता’ का आग्रह भी छुपा है, वो भी बेहद सस्ती कीमत में। 
कुछ जानकारों का मानना है कि इस मांझे का नाम भले चीनी हो, लेकिन देश में बढ़ती मांग के चलते भारतीय कारीगर भी इसे यहीं बनाने लगे हैं। ऐसे में आयात न भी हो तो भी चीनी मांझा आसानी से देश में उपलब्ध है। इस बारे में मांझा बनाने वाला तर्क है कि यह उनकी रोजी का सवाल है। जो बिकेगा, वही तो न  बनाएंगे। मांग चीन मांझे की है तो वो भी क्या करें। 
चीनी मांझे से पतंग की अकड़ भले कायम रहती हो, लेकिन वो इंसानों और पक्षियों का गला बेरहमी से काट रहा है, इसमें शक नहीं। पंतगबाजी खेल की एक खूबी यह भी है कि इसे उड़ाने वाले और पंतग को लूटने वाले अपनी ही दुनिया में मगन रहते हैं। उन्हें सिर्फ और सिर्फ पतंग दिखती है। दूसरी तरफ जो जो इंसान इस तरह उड़ती गिरती पतंग की डोर का शिकार होता है, उसने सपने में भी नहीं सोचा होता है कि कोई  मांझा सरे राह उसके लिए मौत का फंदा बन जाएगा।  
इस जानलेवा खतरनाक मांझे के खिलाफ आवाजें उठती रही हैं। यह मामला नेशनल ग्रीन ट्रिब्युनल में भी गया। जहां ट्रिब्युनल ने 2016 में अपने एक फैसले में चीनी मांझे पर पूरी तरह रोक लगाने तथा इसे बेचने या इस्तेमाल करने वालों को पांच साल की जेल और 1 लाख रू. जुर्माना करने का आदेश दिया था। लेकिन पांच साल बाद भी ऐसा कोई कानून नहीं बन पाया है। और चीनी मांझा हमारे गले काटे जा रहा है। 
खुद चीन में इस चीनी मांझे का कितना इस्तेमाल होता है, इसकी ज्यादा जानकारी नहीं है। लेकिन दुनिया का सबसे बड़ा पतंग उत्सव ( काइट फेस्टिवल) चीन के शानदोंग प्रांत के वेईफेंग शहर में अप्रैल के महीने में होता है। वेईफेंग को दुनिया की ‘पतंग राजधानी’ माना जाता है। क्योंकि चीनी मानते हैं कि पतंग का जन्म वेईफेंग में ही हुआ था। चीनी लोग बहुत सुंदर और अनोखी पतंगे बनाने में माहिर हैं, इसमें शक नहीं। अलबत्ता भारत में ‘चीनी’ अपने आप में एक नकारात्मक मुहावरा बन गया है। जिसका भावार्थ, सस्ता, चलताऊ और घातक होने से भी है। 
यूं पतंगबाजी अपने आप में एक अनूठी कला, उन्मुक्तता का प्रतीक और मीठी मारकाट भी है। इस बार की संक्रांति पर यही मीठी मारकाट गहरा दर्द दे गई है। अगर पतंगों को इसी तरह चीनी मांझे से उड़ान मिलती रही तो आगे हमे और कई हादसों का सामना करना पड़ सकता है। अब वसंत पंचमी आने वाली है, वासंती हवाअों में पतंगे उड़ेंगी, मस्ती भरी बैसाखी आने वाली है, पतंगें तब भी आसमान में इठलाएंगीं, लेकिन चीनी मांझे का खुटका बदस्तूर रहेगा। वो मांझा, जो अपने में चाकू की धार और प्राणघातक वार की फितरत लिए हुए है, वो मांझा, जिसमें पतंग के प्राण भले बसते हों, लेकिन जिसमें किसी निरीह के प्राण हर लेने की नापाक ताकत हो, वो मांझा जो बिंदास पतंगाई से ज्यादा कसाई की तरह निर्मम हो, उस पर तो सख्ती से रोक लगनी  ही चाहिए। कम से कम इस शेर की आबरू रखने के लिए तो लगनी ही चाहिए कि ‘मुझे मालूम है उड़ती पतंगों की रिवायत, गले मिलकर गला काटूं मैं वो मांझा तो नहीं’ !
वरिष्ठ संपादक 
‘राइट क्लिक’
( ‘सुबह सवेरे’ में दि. 20 जनवरी 2021 को प्रकाशित)

Thursday, January 13, 2022

स्वामी विवेकानंद जयन्ती-कवि श्याम किशोर बेचैन

स्वामी विवेकानंद जयन्ती
जन्म 12.01.1863                                         मृत्यु 04.07.1902
 

कुछ  भी ना  पूछना पड़ेगा  हमसे  बार बार।
स्वामी  विवेकानंद  को  पढ़िए तो  एक बार।।
 
बोले  थे  शिकागो  में  अपने  धर्म  के  लिए।
दुनिया  के  युवाओं  के  श्रेष्ठ  कर्म  के लिए।।
 
बचपन से इनमे हो रहा था ज्ञान का विस्तार।
स्वामी  विवेकानंद  को  पढ़िए तो  एक बार।।
 
दुनिया के  हर  युवा के  वो  आधार  बने  थे।
स्वामी    विवेकानंद     सूत्रधार    बने थे।।
 
तेजी  देश  में   बढ़ा   था   इनका जनाधार।
स्वामी  विवेकानंद  को  पढ़िए तो  एक बार।।
 
थी  आत्मा  परमात्मा   में  आस्था  अखण्ड।
लेकिन  इन्हें  पसंद  नहीं था  कोई  पाखण्ड।।
 
हर  एक  युवा  कर  रहा  था  इनपे  ऐतबार।
स्वामी  विवेकानंद  को  पढ़िए  तो एक बार।।
 
स्वामी   विवेकानंद   के   आदेश   के  लिए।
बेचैन  युवा   चल   पड़े   थे  देश  के लिए।।
 
हर  एक पे  स्वतंत्रता  का  जोश  था  सवार।
स्वामी  विवेकानंद  को  पढ़िए  तो एक बार।।

पता-
संकटा देवी बैंड मार्केट लखीमपुर खीरी

Saturday, January 08, 2022

पंचशील ध्वज दिवस : 8 जनवरी-लेखक - राजेश चन्द्रा

पंचशील ध्वज दिवस : 8 जनवरी
"जो बौद्ध अस्मिता व गौरव का प्रतीक हो। कहा जाता है कि प्रस्ताव कर्नल हेनरी की ओर से था, जिस पर पूरी कमेटी की सहमति थी। तय यह हुआ कि वह ध्वज आगामी बुद्ध पूर्णिमा 28 मई , 1885 को फहराया जाएगा........."

नीला, पीला, लाल, सफेद और कासाय- इन पांच रंगों के क्षैतिज (Horizontal) और उर्ध्व (Vertical) पट्टियों से निर्मित ध्वज को बौद्ध ध्वज (Buddhist flag) कहते हैं, जो कि पंचशील ध्वज के रूप में अधिक लोकप्रिय है। इस ध्वज की भी अपनी एक कहानी है। 


थियोसोफिकल सोसाइटी के संस्थापक कर्नल हेनरी स्टीले ऑलकट और मैडम ब्लावत्सकी थे। हेनरी अमेरिकी सेना से अवकाश प्राप्त कर्नल थे। थियोसोफिकल सोसाइटी किसी एक धर्म अथवा सम्प्रदाय की पोषक या प्रचारक संस्था नहीं थी, बल्कि सभी धर्मों व सम्प्रदायों के आध्यात्मिक मूल्यों के समन्वय की पोषक थी, इसलिए इस संस्था में बिना पूर्वाग्रह के सभी धार्मिक विचारधाराओं का अध्ययन, शोध एवं तद्नुसार अनुपालन होता था। 

अध्ययन व अभ्यास करते- करते कर्नल हेनरी बुद्ध के धम्म की ओर आकर्षित होने लगे और अन्ततः वर्ष 1880 में श्रीलंका में उन्होंने बुद्ध धम्म आत्मसात कर लिया और श्रीलंका में बुद्ध धम्म के उत्थान की गतिविधियों के सक्रिय अंग बन गये। वहाँ उन्होंने 400 के आसपास बौद्ध विद्यालय एवं महाविद्यालयों की स्थापना की जिनमें से कुछ बहुत ही प्रसिद्ध हुए जैसे आनन्द, नालन्दा, महिन्द, धम्मराजा इत्यादि। ये उनके द्वारा स्थापित विद्यालयों के नाम हैं। 

अपने शान्तिमय लोकतांत्रिक आन्दोलनों के जरिये श्रीलंका के बौद्धों को 1884 में एक बड़ी सफलता मिली। सफलता यह कि वह ब्रिटिश सरकार से वेसाक डे अर्थात बुद्ध पूर्णिमा के सार्वजनिक अवकाश की घोषणा करा सके, जो कि 1885 की बुद्ध पूर्णिमा से क्रियान्वित हुआ। 

इस सफलता के बाद श्रीलंका के बौद्धों ने 'कोलम्बो कमेटी' नाम से एक संस्था बनायी, जिसमें कर्नल हेनरी स्टीले ऑलकट भी एक सदस्य थे। इस कमेटी में एक प्रस्ताव आया कि बौद्धों का एक ध्वज होना चाहिए, जो बौद्ध अस्मिता व गौरव का प्रतीक हो। कहा जाता है कि प्रस्ताव कर्नल हेनरी की ओर से था, जिस पर पूरी कमेटी की सहमति थी। तय यह हुआ कि वह ध्वज आगामी बुद्ध पूर्णिमा 28 मई , 1885 को फहराया जाएगा। इस प्रकार 'कोलम्बो कमेटी' द्वारा निर्मित वह ध्वज अस्तित्व में आया, जिसे आज पंचशील ध्वज कहते हैं। 

बुद्ध पूर्णिमा पर फहराए जाने से पूर्व 17 अप्रैल, 1885 को 'कोलम्बो कमेटी' द्वारा यह ध्वज सार्वजनिक किया गया तथा सार्वजनिक अनुमोदन व सहमाति प्राप्त की गयी। यह पंचशील ध्वज श्रीलंका में कोटाहेना के दीपदुथ्थरमया बुद्ध विहार में 1885 की बुद्ध पूर्णिमा, 28 मई को पहली बार पूज्य भिक्खु मिगेत्तुवन्ते गुणानन्द थेर द्वारा विशाल बौद्ध समूह के समक्ष फहराया गया। 

कालान्तर में कर्नल हेनरी स्टीले ऑलकट के परार्मश पर इस ध्वज का आकार राष्ट्र ध्वज के आकार का तय किया गया। इसमें कतिपय परिवर्तन किये गये और उसे अन्तिम रूप दिया गया। इसे आगामी वर्ष 1886 की बुद्ध पूर्णिमा को फहराया गया। तब से आज की तारीख तक यही ध्वज यथावत है और पूरे विश्व के बौद्धों की अस्मिता व गौरव का प्रतीक है। 

इस ध्वज की वैश्विक स्वीकृति की भी एक कहानी है। इसका मुख्य श्रेय प्रोफेसर जी.पी. मलालसेकर को जाता है, जिनकी अध्यक्षता एवं पहल से कोलम्बो में श्रीलंका की पहली वर्ल्ड बुद्धिस्ट फेलोशिप आयोजित हुई। 25 मई, 1950 को, दाढ़ा धातु बुद्ध विहार के सभागार में। इस विहार में भगवान बुद्ध के पावन दन्त धातु स्थापित हैं। 

पूज्य भदन्त गलगेदर प्रज्ञानंन्द का कहना है, "प्रोफेसर जी.पी. मलालसेकर मूलतः श्रीलंका के थे। वह सिंहली, पालि, संस्कृत, अंग्रेजी, लैटिन, ग्रीक, फ्रांसीसी भाषाओं के प्रकाण्ड विद्वान थे। वर्ल्ड बुद्धिस्ट फेलोशिप के वह संस्थापक अध्यक्ष थे। वह बोधिसत्व बाबा साहब से अत्यधिक प्रभावित थे। उन्होंने बाबा साहब को बुद्ध पूर्णिमा 25 मई , 1950 को आयोजित होने वाले वर्ल्ड बुद्धिस्ट फेलोशिप में कोलम्बो आमंत्रित किया। 

"इस आयोजन में जाने से पहले बाबा साहब ने महाबोधि बुद्ध विहार, दिल्ली में डॉ. एच. सद्धातिस्स की उपस्थिति में पू. भन्ते आर्यवंश से 2 मई, 1950 को बुद्ध धम्म की दीक्षा ली थी, यानी कि वर्ल्ड बुद्धिस्ट फेलोशिप में बाबा साहब एक बौद्ध के रूप में सम्मिलित हुए थे। 

"25 मई, 1950 को श्रीलंका के इस कार्यक्रम में विश्व-भर के बौद्ध संघ के सम्मुख प्रोफेसर डॉ. जी.पी. मलालसेकर ने बाबा साहब को 'लिविंग बोधिसत्व' कह कर सम्बोधित किया था, एक जीवन्त बोधिसत्व।" 

सम्यक प्रकाशन प्रमुख श्री शान्ति स्वरूप जी बताते हैं, "02 मई, 1950 को दिल्ली में बुद्ध धम्म की दीक्षा लेते समय बाबा साहब के साथ समता सैनिक दल के 101 नवयुवकों ने भी धम्म-दीक्षा ली थी, जिसके साक्षी के रूप में करोलबाग में श्री किशोरी लाल गौतम जी अभी भी वर्तमान हैं।" 

प्रोफेसर डॉ. गुणपाल पियासेन (जी.पी.) मलालसेकर बुद्धिस्ट इन्साइक्लोपीडिया के प्रधान सम्पादक थे। अलावा इसके ‘पालि-सिंहली-अंग्रेजी शब्दकोश' तथा 'गुणपाल सिंहली-अंग्रेजी शब्दकोश' उनके कालजयी ग्रंथ हैं। 

यह प्रोफेसर डॉ. जी.पी. मलालसेकर को श्रेय है कि 25 मई, 1950 को वर्ल्ड बुद्धिस्ट फलोशिप में वैश्विक बौद्ध संघ के सम्मुख,जिसमें बाबा साहब भी उपस्थित थे, जापान के ज़ेन विद्वान डॉ. डी. टी. सुजुकी भी उपस्थित थे, उन्होंने उस बौद्ध ध्वज को समस्त बौद्ध जगत के द्वारा स्वीकृत करने का प्रस्ताव रखा, जो कि साधुवाद के साथ अनुमोदित हो गया। कह सकता हूँ कि भारत के राष्ट्रीय ध्वज में धम्मचक्र समावेशित कर उसे बौद्ध स्वरूप देने का श्रेय बाबा साहब को है और धम्म ध्वजा को वैश्विक मान्यता दिये जाने की घटना में भी उनकी उपस्थिति है। आधिकारिक रूप से इस ध्वज को अन्तराष्ट्रीय बौद्ध ध्वज की मान्यता 1952 में वर्ल्ड बुद्धिस्ट कांग्रेस में मिली। 

प्रकटतः इस धम्म ध्वज में पांच रंग की खड़ी पट्टियाँ होती हैं। इस कारण लोग इसे पंचशील ध्वज कहते हैं। जबकि वास्तव में इसमें पांच पट्टियाँ नहीं वरन छः पट्टियाँ होती हैं, छठी खड़ी पट्टी में पाचों रंगों का संयुक्त रूप होता है। तथापि इस ध्वज को पंचशील ध्वज कहकर सम्बोधित करना इस बात की ओर भी संकेत करता है कि बौद्ध पंचशीलों को कितना महत्व देते हैं। यदि रंगो की संख्या की भाषा में ही कहा जाये, तो इसे पंचशील न कह कर षडायतन ध्वज कहना अधिक उपयुक्त होगा, लेकिन 'धम्म ध्वजा' के रूप में इसकी वैश्विक मान्यता तथा स्वीकार्यता है। पंचशील या षडायतन बोलचाल में प्रयोग किये जा सकते हैं, मगर 'धम्म ध्वजा' या 'बुद्धिस्ट फ्लैग' इसकी सार्वभौमिक संज्ञा है। 

'धम्म ध्वजा' के छः रंगों का भी विशेष अर्थ है। बौद्ध ग्रंथों में ऐसा उल्लेख मिलता है कि भगवान बुद्ध के शरीर से छ: रंगों का आभामण्डल (Aura) प्रस्फुटित होता रहता था, नीला, पीला, लाल, धवल, कासाय और छः रंगों का मिश्रित रूप जिसे प्रभास्वर कहते हैं। यह छः रंग बुद्धत्व व धम्म की परिपूर्णता के प्रतीक हैं। बौद्धों के स्मरण रखने के लिए अनुस्मारक अर्थात् रिमाइण्डर जैसे हैं। इस ध्वज के छः रंगों का प्रतीकार्थ निम्नवत व्याख्यायित हैं: 

नीला: कहा जाता है कि नीले रंग का आभा मण्डल भगवान बुद्ध के सिर के चारों ओर रहता था, जो कि प्राणि मात्र के प्रति उनकी अखण्डित करुणा का प्रतीक है। इस प्रकार नीला रंग मैत्री, करुणा व शान्ति का प्रतीक है। आसमान और सागर के नीले रंग की तरह व्यापकता का संदेश देता है। 

पीला: पीले रंग की आभा भगवान बुद्ध के निकटतम रहती थी। पीला रंग रूप-अरूप की अनुपस्थिति, शून्यता और मध्यम मार्ग का प्रतीक है। मध्यम मार्ग अर्थात अतियों से परे बीच का रास्ता। 

लाल: लाल रंग बुद्ध त्वचा की आभा है। यह रंग धम्माभ्यास की जीवन्तता व मंगलमयता का प्रतीक है। यह प्रज्ञा, सौभाग्य, गरिमा, सद्गुण व उपलब्धि का भी संकेत है। 

धवल या सफेद: बुद्ध के दांतों, नाखूनों व अस्थि धातुओं से धवल आभा प्रस्फुटित होती रहती थी। यह रंग शुद्धता व पावनता का प्रतीक है और बुद्ध की शिक्षाओं की अकालिकता का भी। अकालिकता अर्थात बुद्ध की देशनाएं समय के साथ पुरानी नहीं पड़ती, वरन नित नवीन बनी रहती हैं, वे जितनी सच कल थीं, उतनी आज भी हैं और आगे भी रहेंगी। 

कासाय या केसरिया: बुद्ध की हथेलियों, एड़ियों, होंठों पर केसरिया आभा दमकती रहती थी। यह रंग बुद्ध की अकम्प प्रज्ञा का प्रतीक है। यह वीर्य अर्थात उत्साह व गरिमा का संकेत भी करता है। 

पाचों रंग-प्रभास्वर: पाचों रंगों की मिश्रित आभा अर्थात प्रभास्वर बुद्ध की देशनाओं की विभेदता, क्षमता का प्रतीक है। यह मिश्रित आभा दर्शाती है कि बुद्ध की शिक्षाएं जाति, सम्प्रदाय, नस्ल, राष्ट्रीयता, विभाजन-विभेद से परे न केवल मानवमात्र के लिए हैं वरन प्राणिमात्र के लिए हैं। 

इस प्रकार यह ध्वजा मानवीय मूल्यों व गरिमा का एक सार्वभौमिक प्रतीक है। यह ध्वज किसी एक राष्ट्र का नहीं वरन सकल विश्व का है। यद्यपि इसे बौद्ध ध्वजा की अन्तर्राष्ट्रीय मान्यता है तथापि यह सम्पूर्ण मानवता का ध्वज है। 

संदर्भ-
पुस्तक - मैत्री सम्पूर्ण धम्म है


विश्व बौद्ध धम्म ध्वज-कवि श्याम किशोर बेचैन

कवि
श्याम किशोर बेचैन
विश्व बौद्ध धम्म ध्वज दिवस  पर विशेष    
08 जनवरी 1880


बौद्घ  धम्म ध्वज  के बारे में  आओ जरा  विचार करें ।
नजर अगर आए  सच्चाई  तो  सादर   स्वीकार  करें ।।

आओ तथागत के ध्वज का आदर और सतकार करें ।
नजर  अगर आए सच्चाई तो सादर स्वीकार करें ।।

बौद्ध धम्म का  ध्वज दुनिया  को देता है  संदेश बड़ा ।
पंच शील का इस ध्वज में है छुपा हुआ उपदेश बड़ा ।।

बौद्ध  धम्म  के  उपदेशों   आओ  हम  विस्तार  करें ।
नजर  अगर आए  सच्चाई तो  सादर  स्वीकार  करें ।।

नीला रंग ये आसमान का कहता हृदय विशाल करो ।
पीला रंग ये बता रहा है  जन जीवन  खुशहाल करो ।।

आओ  इन  रंगो को  अपने  जीवन का  आधार करें ।
नजर  अगर आए  सच्चाई तो  सादर  स्वीकार  करें ।।

लाल  रंग  गतिशील  बनाकर   उर्जावान  बनाता  है ।
स्वेत रंग है शांति का सूचकऔर समृद्धि का दाता है ।।

रंगो के भावार्थ समझ कर खुद पर एक उपकार करें ।
नजर  अगर आए  सच्चाई तो  सादर  स्वीकार  करें ।।

केसरिया  रंग  त्याग और  बलिदान  पाठ  पढ़ाता है ।
बौद्ध धम्म का ध्वज मानव में मानवता भर जाता है ।।

चैन  बेचैन को  देने वाले  धम्म का आओ प्रचार करें ।
नजर  अगर आए  सच्चाई  तो  सादर  स्वीकार  करें ।

पता-संकटा देवी बैंड मार्केट लखीमपुर खीरी

Tuesday, January 04, 2022

नीट में ईडब्ल्यूएस के 10% आरक्षण के प्रति केंद्र की कही जाने वाली ओबीसी सरकार की तत्परता और उदारता की एक झलक-नन्द लाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)

एक विमर्श जिस पर आप भी विचार कीजिये ........ 

ओबीसी और एससी-एसटी वर्ग के जागरूक लोग इसका निहितार्थ समझकर सामाजिक जागरूकता फैलाने का प्रयास करें.... बता दें कि केंद्र सरकार ने 25 नवंबर 2021 को सुप्रीम कोर्ट को बताया था कि आठ लाख रुपये तक सालाना आय की सीमा तय करने पर उठाए गए सवालों को लेकर वह एक एक्सपर्ट कमेटी बनाएगी जो एक महीने में सिफारिश देगी........................!
एन.एल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)
      केंद्र सरकार ने आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (ईडब्ल्यूएस) की पहचान के लिए पूर्वनिर्धारित मौजूदा वार्षिक आय सीमा आठ लाख रुपये के साथ उनका आरक्षण जारी रखने का फैसला किया है। सुप्रीम कोर्ट के समक्ष दायर एक हलफनामे में केंद्र सरकार ने बताया है कि मानदंडों के पुनर्मूल्यांकन के लिए सरकार द्वारा गठित समिति ने सुझाव दिया है कि मौजूदा मानदंडों को इस साल की काउंसलिंग और प्रवेश के लिए आरक्षण जारी रखा जा सकता है। इसके साथ ही केंद्र सरकार ने बताया है कि आठ लाख रुपए वार्षिक तक की आय वर्ग वाले सवर्ण अभ्यर्थियों को मेडिकल कोर्स में NEET(नीट) की हुई परीक्षा में 10% आरक्षण देते हुए दाखिला देना चाहती है। उल्लेखनीय है कि संविधान के सामाजिक न्याय के लिए सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े ओबीसी के आरक्षण के लिए भी यही आठ लाख की सीमा निर्धारित है।

       दरअसल, सुप्रीम कोर्ट में शनिवार को दायर एक हलफनामे में केंद्र सरकार ने समिति की एक रिपोर्ट की एक प्रति भी संलग्न की है। इसके साथ ही बताया गया है कि केंद्र सरकार ने समिति की सिफारिशों को स्वीकार करने का निर्णय लिया है, जिसमें नए मानदंडों को संभावित रूप से लागू करने की सिफारिश भी शामिल है। पूर्व वित्त सचिव अजय भूषण पांडे, सदस्य सचिव आईसीएसएसआर वीके मल्होत्रा ​​और प्रधान आर्थिक सलाहकार संजीव सान्याल की तीन सदस्यीय समिति ने 31 दिसंबर को केंद्र को रिपोर्ट सौंपी थी।

       हालांकि, इस समिति द्वारा केंद्र सरकार को सौंपी गई अपनी रिपोर्ट में बताया गया है कि समिति इस निष्कर्ष पर पहुंची है कि मौजूदा वार्षिक आय आठ लाख रुपये का मानदंड अधिक समावेशी नहीं है। केंद्र सरकार ने इसी कमेटी की रिपोर्ट का हवाला देते हुए सुप्रीम कोर्ट को बताया है कि कोर्ट इसे कम से कम इस साल के लिए मंजूरी दे तो मेडिकल में दाखिले के लिए काउंसिलिंग शुरू की जाए। साथ ही केंद्र सरकार ने यह भी कहा है कि अगले सत्र से ईडब्ल्यूएस के मापदंडों में बदलाव किया जा सकता है। इस मामले पर 6 जनवरी को सुनवाई होनी है।
       सरकार ने जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की अगुआई वाली पीठ को बताया है कि याचिकाएं दाखिल होने के बाद कोर्ट ने उन पर सुनवाई करते हुए काउंसिलिंग पर रोक लगा रखी है, इसलिए अब मौजूदा नियम शर्तों और मापदंडों पर काउंसलिंग की इजाजत दी जाए। अगले सत्र के लिए इनमे कमेटी समुचित व्यावहारिक बदलाव कर देगी। यानी ईडब्ल्यूएस आरक्षण के लिए बुनियादी शर्तों में निजी मकान, घरेलू संपत्ति आदि के मुद्दों पर भी एक्सपर्ट कमेटी समुचित अध्ययन कर अपनी सिफारिशें देगी।

       बता दें कि केंद्र सरकार ने 25 नवंबर 2021 को सुप्रीम कोर्ट को बताया था कि आठ लाख रुपये तक सालाना आय की सीमा तय करने पर उठाए गए सवालों को लेकर वह एक एक्सपर्ट कमेटी बनाएगी जो एक महीने में सिफारिश देगी और फिर काउंसिलिंग की जाएगी। केंद्र ने 30 नवंबर को वित्त सचिव अजय भूषण पांडे की अगुआई में कमेटी बनाई। इसमें अन्य सदस्य ICSSR (इंडियन कॉउंसिल ऑफ सोसियल साइंस रिसर्च) के सदस्य सचिव प्रोफेसर वीके मल्होत्रा और सरकार के प्रमुख वित्तीय सलाहकार संजीव सान्याल हैं।

        ओबीसी और एससी-एसटी के सामाजिक न्याय के प्रति जागरूक शिक्षित साथियों से अनुरोध है कि बार बार ओबीसी कही जाने वाली केंद्र सरकार में बैठाए गए ओबीसी और एससी-एसटी के मुखौटों की वस्तु और मनःस्थिति समझने का प्रयास करें और उसके हिसाब से भविष्य में राजनैतिक/सरकार बनाने के निर्णय लेने के लिए सामाजिक  और राजनीतिक जागरूकता अभियान में यथा संभव सक्रियता बढ़ाएं जिससे मनुवादी मानसिकता से संचालित सरकार और उसमें लगाए या चिपकाए गए ओबीसी और एससी-एसटी के मुखौटों की असलियत समाज के सामने आ सके। यहाँ एक बार पुनः उल्लेखनीय है कि संसद द्वारा ओबीसी के कल्याण के लिए बनी संसदीय समिति के पूर्व चेयरमैन सतना,मध्यप्रदेश से बीजेपी के सांसद श्री गणेश सिंह पटेल जी द्वारा ओबीसी के क्रीमी लेयर के निर्धारण के लिए दी गयी 15लाख रुपए की वार्षिक आय की सीमा (जिसमे कृषि और वेतन की आय शामिल न करने की भी सिफारिश सम्मिलित थी) की सिफारिशें आज भी समिति और सरकार की अलमारियों में कैद है। पिछले वर्ष उनका समिति के चेयरमैन का कार्यकाल खत्म हो जाने के बावजूद किसी सक्षम और योग्य ओबीसी सांसद मुखौटे की तलाश में कई महीनों तक कुर्सी खाली पड़ी रही। लगभग पौन साल बाद ओबीसी के कल्याण के लिए समय समय पर सिफारिश देने वाली इस संसदीय समिति के अध्यक्ष पद पर सीतापुर के सांसद श्री राजेश वर्मा जी को कुर्मी समाज को राजनैतिक रूप से आकर्षित करने के लिए पदस्थापित किया गया। श्री गणेश सिंह पटेल जी के कार्यकाल की सिफारिशें वर्तमान अध्यक्ष जी के सरंक्षण में अलमारियों में बंद आज भी बाहर आने के लिए शायद छटपटा रही होंगी।
पता-लखीमपुर-खीरी उत्तर प्रदेश

ओबीसी-एससी-एसटी वर्ग को समिति की सिफारिश के निहितार्थ को बेहद सावधानी और गहनतापूर्वक अध्ययन करना और सरकार की मंशा समझना बहुत जरूरी है-नन्द लाल वर्मा (असोसिएट प्रोफेसर)

एक विमर्श जिस पर आप भी विचार कीजिये ........
"इस तरह, गरीब सवर्णों के लिए 8 लाख की पारिवारिक सालाना आय का निर्धारण टैक्स फ्री इनकम  की सीमा को दृष्टिगत किया गया है। हालांकि, इसमें परिवार के सदस्यों और कृषि आय को जोड़ते ही सारा माजरा बदल जाता है।" मकान की शर्त खत्म, 5 एकड़ जमीन की शर्त बरकरार:"
एन.एल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)
ईडब्ल्यूएस और ओबीसी आरक्षण की आय सीमा : गरीब अगड़ों (ईडब्ल्यूएस) और सामाजिक - शैक्षणिक रूप से पिछड़ा- ओबीसी, दोनों के लिए 8 लाख की सीमा, लेकिन उसकी गणना का तरीका बिल्कुल अलग। आइए,इसे विस्तार से समझते हैं:
      केंद्र की बीजेपी सरकार ने 2019 में लोकसभा चुनावों से ठीक पहले सवर्ण गरीबों (ईडब्ल्यूएस) के लिए भी 10% आरक्षण की व्यवस्था की थी। 8 लाख रुपये तक की सालाना आमदनी वाले सवर्ण परिवार को गरीब और आरक्षण योग्य माना गया है। ओबीसी में भी क्रीमी लेयर तय करने के लिए 8 लाख रुपये तक की आमदनी का दायरा है। अब केंद्र सरकार द्वारा गठित एक समिति ने बताया है कि दोनों के लिए 8 लाख रुपये की गणना में निम्नलिखित अंतर है:
      केंद्र सरकार ने 2019 में आर्थिक रूप से पिछड़े सवर्णों को भी आरक्षण देने का फैसला किया तो गरबी का आधार 8 लाख रुपये की सालाना आय को तय किया गया। इस नियम के तहत जिस सवर्ण "परिवार" की सालाना आमदनी 8 लाख रुपये तक है, उसके अभ्यर्थियों को ही शैक्षणिक संस्थानों में प्रवेश और नौकरियों में आरक्षण की सुविधा मिलती है। उधर, अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) में क्रीमी लेयर का निर्धारण भी 8 लाख रुपये की सालाना आय के आधार पर ही होता है। यानी, अगर ओबीसी कैंडिडेट के "माता-पिता" की विगत तीन वर्षों औसत वार्षिक आय 8 लाख रुपये से अधिक है तो उसे आरक्षण का लाभ नहीं मिलेगा।
बाहर से दोनों में समानता, लेकिन वास्तविकता बिल्कुल अलग:
      इस तरह, ईडब्ल्यूएस और ओबीसी, दोनों में क्रीमी लेयर तय करने का ''समान आर्थिक मापदंड'' रखे जाने पर आपत्तियां जताई जाने लगीं। सुप्रीम कोर्ट ने भी सरकार से पूछ दिया कि इसे कैसे स्वीकार किया जा सकता है? इसका हल ढूंढने के लिए केंद्र सरकार ने एक समिति का गठन किया जिसने अपनी रिपोर्ट में स्पष्ट कर दिया कि 8 लाख रुपये का मानदंड बाहर से तो दोनों वर्गों-ओबीसी और ईडब्ल्यूएस के लिए बराबर दिखता है, लेकिन सच्चाई बिल्कुल अलग है। उसने बताया  है कि दोनों के लिए भले ही मानदंड 8 लाख रुपये हो, लेकिन इसकी गणना में जमीन-आसमान का अंतर है।
आइए,पहले जानते हैं कि वह अंतर क्या-क्या हैं...
(1) ईडब्ल्यूएस के लिए 8 लाख रुपये के कट ऑफ के मानदंड ओबीसी क्रीमी लेयर की तुलना में बहुत अधिक कठोर हैं।
(2) ईडब्ल्यूएस की आय की सीमा तय करते वक्त परिवार के दायरे में उसकी "तीन पुश्तें" आती हैं जबकि ओबीसी के मामले में सिर्फ "माता-पिता" की आय को ही देखा जाता है।
(3) ओबीसी की आमदनी का आकलन करते वक्त वेतन, खेती या कृषि और पारंपरिक कारीगरी के व्यवसायों से होने वाली आय नहीं जोड़ी जाती है जबकि ईडब्ल्यूएस के लिए     कृषि या खेती सहित "सभी स्रोतों" से होने वाली आयों को शामिल किया जाता है।
(4) ओबीसी अभ्यर्थी के सिर्फ माता-पिता की विगत तीन वर्षों की औसत वार्षिक आय 8 लाख रुपये से ज्यादा की हो रही हो तब वह क्रीमी लेयर कहलाता है जबकि ईडब्ल्यूएस के तीन पुश्तों की पिछले वर्ष की कुल आय मिलाकर 8 लाख रुपये से ज्यादा हो जाए तो उसे आरक्षण नहीं मिलेगा।
आइए, अब इन सभी बिंदुओं को विस्तार से समझते हैं...
पहला बिंदु : केंद्र ने सुप्रीम कोर्ट से कहा है कि आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (ईडब्ल्यूएस) के निर्धारण के लिए 8 लाख रुपये आय का मापदंड ओबीसी क्रीमी लेयर की तुलना में कहीं अधिक सख्त है।
दूसरा बिंदु : गरीब सवर्णों के लिए पारिवारिक आय के तहत खुद उम्मीदवार, उसके माता-पिता, 18 वर्ष से कम उम्र के उसके भाई-बहन, उसका जीवनसाथी और 18 वर्ष से कम उम्र के उसके बच्चों की आय, सभी शामिल हैं। मतलब, आर्थिक पिछड़ों (ईडब्ल्यूएस) की पारिवारिक आय में तीन पुश्तों की समस्त स्रोतों की आमदनी शामिल है। इसमें खेती-किसानी से होने वाली आयकर मुक्त आमदनी भी जोड़ी जाती है। इनकम टैक्स स्लैब्स के नजरिए से आर्थिक पिछड़े वर्ग की आय की गणना करते वक्त इनका ध्यान रखना ही होगा। वहीं, ओबीसी के पारिवारिक आय की गणना में सिर्फ कैंडिडेट के माता-पिता की आमदनी शामिल होती है। उसमें भी माता-पिता की सैलरी, खेती और परंपरागत व्यवसाय से हुई आमदनी को नहीं जोड़ा जाता है। खुद कैंडिडेट, उसके भाई-बहन, जीवन साथी और बच्चों की आमदनी को तो जोड़ने की चर्चा तक नहीं है।
तीसरा बिंदु : सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से कहा कि सबसे पहले ईडब्ल्यूएस की शर्त आवेदन के वर्ष से पहले के वित्तीय वर्ष से संबंधित है जबकि अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) में क्रीमी लेयर के लिए आय मानकों की शर्तें विगत तीन वर्षों के लिए औसत सकल वार्षिक आय (Average Gross Annual Income) पर लागू होती है।
सुप्रीम कोर्ट का सवाल क्या है..........
     दरअसल, जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने 7 अक्टूबर, 2021 को कहा था कि "आर्थिक पिछड़ापन एक सच्चाई है। इसमें कोई संदेह नहीं कि लोगों के पास किताबें खरीदने और यहां तक कि खाने के पैसे भी नहीं हैं। लेकिन, जहां तक बात आर्थिक पिछड़ों का है तो वह अगड़ा वर्ग हैं और उनमें सामाजिक या शैक्षणिक पिछड़ापन नहीं है। तो क्या आप क्रीमी लेयर तय करने के लिए 8 लाख रुपये की सालाना आय का पैमाना आर्थिक पिछड़ों के लिए भी रख सकते हैं? याद रखिए कि जहां तक बात आर्थिक पिछड़ों की है तो हम सामाजिक या शैक्षणिक पिछड़ों की बात नहीं कर रहे हैं। सीमा तय करने का आधार क्या है या आपने आर्थिक पिछड़ों (ईडब्ल्यूएस) के लिए भी बस क्रीमी लेयर का पैमाना उठाकर रख दिया।"
केंद्र सरकार ने मानी समिति की सिफारिश:
     सुप्रीम कोर्ट की उपर्युक्त टिप्पणी पर सरकार ने 30 नवंबर, 2021 को पूर्व वित्त सचिव अजय भूषण पाण्डेय, भारतीय सामाजिक विज्ञान अनुसंधान परिषद (ICSSR) के प्रोफेसर वीके मल्होत्रा और केंद्र सरकार के प्रधान आर्थिक सलाहकार संजीव सान्याल की एक समिति बना दी थी। इस समिति को गरीब सवर्णों की आय सीमा निर्धारित करने के लिए 2019 में बनाए गए नियमों की समीक्षा और "मेरे हिसाब से उसमें ढिलाई वरतने का दायित्व सौंपा गया था।" इस समिति ने 31 दिसंबर ,2021 को अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंप दी  है जिसे स्वीकार भी कर लिया गया है।
इस समिति ने समझाया कि आय की गणना में कितना अंतर है:
     समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि सुनने में भले ही ओबीसी और आर्थिक पिछड़े, दोनों के लिए 8 लाख रुपये की सीमा में समानता जान पड़ती हो, लेकिन सच्चाई बिल्कुल अलग है। ओबीसी का क्रीमी लेयर सिर्फ उम्मीदवार की आय के आधार पर तय होता है जबकि आर्थिक पिछड़ों की आय सीमा में उम्मीदवार के साथ-साथ उसकी पारिवारिक और कृषि आय भी भी शामिल हैं। समिति ने कहा कि सिर्फ उन्हीं परिवारों के उम्मीदवारों को आर्थिक पिछड़ा श्रेणी के आरक्षण का लाभ दिया जा सकता है जिनकी सालाना आमदनी 8 लाख रुपये तक है। उसने कहा कि 17 जनवरी, 2019 को जारी ऑफिस मेमोरेंडम में दर्ज आर्थिक रूप से पिछड़े सवर्ण परिवार की परिभाषा को ही आगे भी लागू रखा जाए।
     समिति ने इसे और भी स्पष्ट करते हुए कहा कि " मौजूदा आयकर नियमों के तहत पांच लाख रुपये तक की करयोग्य आय पर कोई टैक्स नहीं लगता है। फिर कटौतियों,बचत, बीमा आदि सभी का लाभ उठा लिया जाए तो 7-8 लाख रुपये तक की सालाना आय टैक्स फ्री हो जाती है। इस तरह, गरीब सवर्णों के लिए 8 लाख की पारिवारिक सालाना आय का निर्धारण टैक्स फ्री इनकम  की सीमा को दृष्टिगत किया गया है। हालांकि, इसमें परिवार के सदस्यों और कृषि आय को जोड़ते ही सारा माजरा बदल जाता है।"
मकान की शर्त खत्म, 5 एकड़ जमीन की शर्त बरकरार:
      वर्ष 2019 में बने नियमों के तहत मकान को आय सीमा से बाहर रखने की सिफारिश की गई है। समिति ने कहा है कि आय सीमा की गणना को सरल बनाए रखने के लिए आवासीय संपत्ति क्षेत्र यानी मकान के पैमाने को बाहर ही रखा जाए, क्योंकि इससे किसी की असल आर्थिक स्थिति का जायजा नहीं मिलता है। ऊपर से गरीब सवर्ण परिवारों पर इसका गंभीर दुष्परिणाम और बेवजह बोझ देखने को मिलेगा। हालांकि, परिवार के पास 5 एकड़ कृषि योग्य भूमि होने पर आर्थिक पिछड़ा नहीं माने जाने का पैमाना बरकरार रखे जाने की सिफारिश की गई है।
      रिपोर्ट में कहा गया है कि " विभिन्न भौगोलिक क्षेत्रों- ग्रामीण, शहरी, मेट्रो या राज्यों के लिए अलग-अलग आय सीमाएं होने से जटिलताएं पैदा होंगी, विशेष रूप से यह देखते हुए कि लोग नौकरियों, पढ़ाई, बिजनस आदि के लिए देश के एक हिस्से से दूसरे हिस्से में तेजी से बढ़ रहे हैं। अलग-अलग क्षेत्रों के लिए आय की भिन्न-भिन्न सीमाएं सरकारी अधिकारियों और आवेदकों दोनों के लिए एक दु:स्वप्न के समान होगा।" मकान वाली पूर्व में लगाई गई शर्त को खत्म करने के पीछे सरकार और सवर्ण अधिकारियों की मानसिकता के निहितार्थ को ओबीसी- एससी-एसटी वर्ग के शिक्षित-चिंतकों-राजनीतिज्ञों को समझना- चिंतन-विश्लेषण करना बहुत जरूरी है )

      सुप्रीम कोर्ट ने भी आर्थिक पिछड़े उम्मीदवारों (ईडब्ल्यूएस) की आय सीमा में आवासीय संपत्तियों को जोड़ने पर घोर आपत्ति जाहिर की है। शीर्ष अदालत ने कहा है कि शहरी और ग्रामीण इलाकों के आधार पर आवासीय संपत्ति की कीमत में भारी अंतर हो जाता है। ऐसे में यदि इस संपत्ति को भी आय के दायरे में ला दिया गया तो गरीब सवर्णों को आरक्षण का लाभ उठाने के लिए नाकों चने चबाने पड़ेंगे।

पता-लखीमपुर-खीरी (यूपी )

Monday, January 03, 2022

भारत की प्रथम प्रशिक्षित महिला शिक्षिका क्रन्तिज्योती ज्योतिबा फुले......!

राष्ट्रीय शिक्षिका दिवस : 3 जनवरी                                                                                                                 

सावित्री बाई फुले
(3.1.1831-10.3.1897)
[शिक्षा हमारा अधिकार है। हमारे समाज में कई समुदाय इससे लंबे समय तक वंचित रहे हैं। उन्हें इस अधिकार को पाने के लिए लंबा संघर्ष करना पड़ा है। लड़कियों को तो और ज्यादा अवरोध झेलना पड़ता रहा है। प्रस्तुत पाठ इस संघर्ष का नेतृत्व करने वाली सावित्रीबाई फुले के योगदान पर केंद्रित है।]

ऊपर बना चित्र देखो। यह चित्र किसी पाठशाला का लगता है। यह सामान्य पाठशाला नहीं है। यह महाराष्ट्र की प्रथम कन्या पाठशाला है। एक शिक्षिका घर से पुस्तक लिए आ रही है। रास्ते में उसके ऊपर कोई धूल फेंक रहा है तो कोई पत्थर। पर वह अपने दृढ़ निश्चय से विचलित नहीं हो रही है। अपने विद्यालय में हंसी मजाक करती हुई वह अध्यापन में संलग्न हो जाती है। वह अपना अध्ययन भी साथ-साथ करती जाती है। कौन है यह महिला? क्या आप इस महिला को जानते हो? यह महाराष्ट्र की प्रथम महिला शिक्षिका सावित्रीबाई फुले है। 

सावित्रीबाई फुले का जन्म महाराष्ट्र के नायगांव में 3 जनवरी 1831 को हुआ था। इनकी माताजी का नाम लक्ष्मी बाई और पिताजी का नाम खंडोजी था। 9 वर्ष की आयु में इनका विवाह ज्योतिबा फुले के साथ हो गया जो कि 13 वर्ष के थे। वे स्त्री शिक्षा के प्रबल समर्थक थे इसलिए सावित्री बाई के मन में स्थित पढ़ने की अभिलाषा पूरी होने लगी। आग्रह पर इन्होंने अंग्रेजी का भी अध्ययन किया।

1848 में सावित्रीबाई ने ज्योतिबा फुले के सहयोग से प्रदेश का प्रथम कन्या विद्यालय खोला। तब वे केवल 17 वर्ष की थी। 1851 में अस्पृश्य एवं तिरस्कृत समुदाय की बालिकाओं के लिए अन्य 
विद्यालय शुरू किया।

सामाजिक कुरीतियों का सावित्रीबाई ने मुखर विरोध किया। विधवाओं के सिर मुंडन प्रथा के निराकरण के लिए वह स्वयं नाइयों से मिली। फलस्वरुप कुछ नाइयों के सहयोग से यह प्रथा खत्म होने लगी। एक बार, रास्ते में जीर्ण वस्त्र धारण तथाकथित निम्न जाति की स्त्री को एक कुएं से जल निकालते देखकर सावित्रीबाई ने पीने के लिए जल मांगा। इस पर उच्चवर्णजातियों ने सावित्रीबाई का उपहास किया और कुएं से जल निकालने से मना कर दिया। सावित्रीबाई से यह अपमान सहन नहीं हुआ। वह उस स्त्री को अपने घर लाई। उसे अपना तालाब दिखाया और कहा, तुम यहाँ से पर्याप्त जल ले सकती हो। अपने घर का तालाब सभी के लिए सार्वजनिक कर दिया और कहा कि यहाँ से जल ग्रहण करने में कोई जाति बंधन नहीं होगा। सावित्रीबाई ने मानव समानता और स्वतंत्रता का हमेशा समर्थन किया।

"महिला सेवा मंडल", "शिशु हत्या प्रतिबंधक गृह" आदि संस्थाओं की स्थापना में फुले दंपति का महत्वपूर्ण योगदान है। सत्यशोधक मंडल की गतिविधि में भी सावित्रीबाई ने बहुत ही सक्रिय सहयोग प्रदान किया। इस मंडल/संगठन का उद्देश्य था, पीड़ित समुदाय को अपने अधिकारों के प्रति जागरूक करना।

सावित्री बाई ने अनेक संस्थाओं के प्रशासन का कुशलता से संचालन किया। वे अकाल, महामारी जैसे प्लेग आदि के समय पीड़ितजनों की बिना विश्राम किए निरंतर सेवा किया करती थी। वे हमेशा ऐसे कार्यों में सहायता एवं संबंधित सामग्री की व्यवस्था का प्रयास किया करती थी। ऐसी ही महामारी के समय सेवा करते-करते उन्हें असाध्य रोग हो गया और 1897 में उनका निधन हो गया।

साहित्य रचना में भी सावित्रीबाई बढ़-चढ़कर है। उनके काव्य संकलन है काव्यफूले, सुबोध रत्नाकर आदि। भारत में महिला उत्थान आंदोलन को गहराई से समझने के लिए सावित्री बाई के जीवन का अवलोकन अपरिहार्य है।

संदर्भ-

1.पुस्तक-रुचिरा तृतीयो भाग: (कक्षा-8 के विद्यार्थियों के लिए संस्कृत भाषा की पाठ्य पुस्तक) प्रकाशक-एनसीईआरटी संस्करण-दिसंबर 2016
2.पुस्तक-भारत के महान व्यक्तित्व भाग-2
कक्षा-7 के विद्यार्थियों के लिए 
संस्करण-2009-10
प्रकाशक-विद्यालयी शिक्षा उत्तराखंड (उत्तराखंड के विद्यालयों के लिए नि:शुल्क वितरण हेतु) प्रथम महिला शिक्षिका ज्योतिबा फुले जी

माँ सावित्री बाई फुले- कवि श्याम किशोर बेचैन

  सावित्री बाई पर विशेष                                                                                             कविता                            
जन्म 03 जनवरी 1831                                                                              मृत्यु 10 मार्च 1897

मां  सावित्री  बाई  फूले  को 
नमन   हजारों   बार   करें |
समझें उनका त्याग और तप 
फिर  उनका  सतकार करें ||

अट्ठारह  सौ  इकत्तीस  की 
तीस  जनवरी  खास  बनी |
जन्मी  सावित्री  बाई  और 
दुनियां  का  इतिहास बनी ||

आओ हम भी सादर उनको 
भेट   पुष्प   उपहार   करें |
समझें उनका त्याग और तप 
फिर  उनका  सतकार करें ||

पिता श्री खांडोजी नेवसे 
पाटिल  एक  किसान  थे |
मांता  पूज्य  लक्ष्मी  बाई 
पति  जोतिबा  महान  थे ||

सहयोगी  फातिमा  शेख का 
याद   सदा   उपकार   करें |
समझें उनका त्याग और तप 
फिर  उनका  सतकार  करें ||

जब भारत में महिलाओं को 
पढ़ने  का  अधिकार ना था |
किसी  क्षेत्र  में  नर  से आगे 
बढ़ने  का अधिकार ना था ||

तब  शिक्षा अपनाई जिन्होंने
उनका प्रकट आभार करें |
समझें उनका त्याग और तप 
फिर उनका सतकार करें ||

शिक्षा से वंचित लोगों को
शिक्षा का अधिकार दिया |
घर से  बेघर होकर के भी 
विद्यालय  उपहार  दिया ||

उनके  विद्यालय  का  सपना 
आओ  हम   साकार   करें |
समझें उनका त्याग और तप 
फिर  उनका  सतकार करें ||

संत  जोतिबा  राव  फुले ने 
सावित्री  को   ज्ञान  दिया |
और  सावित्री  बाई फूले ने 
नारी  को   सम्मान  दिया ||

नारी  के  सम्मान   का  फिर 
आओ  हम   विस्तार   करें |
समझें उनका त्याग और तप 
फिर  उनका  सतकार  करें ||

नेकी के  खातिर  अपनो ने 
घर से जिन्हें निकाल दिया |
सामन्ती  लोगों  ने  जिनके 
ऊपर  कीचड़  डाल दिया ||

प्रथम शिक्षिका का यह सच
आओ  हम  स्वीकार  करें |
कवि श्याम किशोर बेचैन 
बक्सा मार्किट, लखीमपुर-खीरी
मोबाइल न 9125888207
समझें उनका त्याग और तप 
फिर  उनका  सतकार करें ||

जिन्होंने अपना सारा जीवन 
मानवता   के   नाम   किया |
जिन्होंने चैन दिया बेचैन को 
और  राष्ट्रहित  काम  किया ||

ऐसी   विद्या   की   देवी  पर 
आओ  और   विचार   करें |
समझे उनका त्याग और तप 
फिर  उनका  सतकार  करें ||

 

Sunday, January 02, 2022

घुटन-अनुभूति गुप्ता

  कविता  
अनुभूति गुप्ता
लेखक/सम्पादिका
कोई मर रहा होगा
तो उसे बूंद भर जिंदगी दोगे क्या,
सांसें मोहताज है यकीं की, मुझे उम्मीद दोगे क्या..

सोच मेरी इतनी सी नहीं
जो तुमको कत्ल कर दें
क्या सच बोलकर मुझे महफूज़ कर दोगे क्या...

मैंने इक निवाला चुराया था
एक बच्चे के दांतों के बीच.. क्या मुझे माफ़ी दोगे क्या,
सच कहती हूं, इस दौर में
मां को दूर बैठे देखती हूं, क्या क़रीब कर दोगे क्या...!

मैं शरीर नहीं मांगती हूं
मैं वक्त मांगती हूं तुम्हारा
निगाह में, समंदर नहीं
रेत चाहती हूं क्या मुझे इन नेत्रों में बिछने दोगे क्या..!
पता-लखीमपुर खीरी उ०प्र०

Friday, December 31, 2021

तेरा क्या होगा कालीचरण-सुरेश सौरभ

(हास्य-व्यंग्य)
सुरेश सौरभ
   मुझे कायदे से याद है कि बचपन में, मेरे गाँव में, जब भी किसी के यहाँ शादी-ब्याह, मुन्डन या यहाँ दवात-ए-वलीमा होता था, तब इसकी खुशी में लप्पो हरामी की नौटंकी जरूर बंधाई जाती थी।हम सब लौड़ो-लपाड़ो को बड़ा मजा आता था। जब पांच-पांच रूपये देकर हमारे बाप-दादा मनचाहा गाना नचनियों से सुनते थे और नचनिये भी सब के कलमबंद ईनाम पर शुक्रिया ठुमका लगा-लगा कर अदा कर दिया करते थे।

    मेरे युवा अवस्था आते-आते नौटंकी का चलन धीरे-धीरे कम होता चला गया और धीरे-धीरे टीवी हर घर में महामारी की तरह फैलती चली गई और टीवी के बाद फिर यह स्मार्ट फोन की माया का साया घर-घर में ‘फेंकू फोटोजीवी’ की तरह फैलता चला गया। कहते हैं, बचपन का प्यार, बचपन में टीचर से खायी मार, और बचपन के शौक जवानी से लेकर बुढापे तक चर्राते रहते हंै। जब भी मौका मिल जाये तो उसे पूरा करने के लिए मन कुलबुलाने ही लगता है।

    स्मार्ट फोन की दुनिया में टहलते हुए मुझे आभासी दुनिया में लप्पो हरामी के बेटे रम्मन हरामी की नौटंकी जब नजर आ गई तो मेरी बांछंे खिल र्गइं।मुँह से लार टपकने लगी। तभी मेरा हाथ मारे जोश के अपनी जेब पर चला गया। दस रूपैया नचनिये पे लुटाना चाह रहा था। उसका फ्लाइंग किस दिल को घायल कर गया था। अपने दिये जाने वाले कलमबंद ईनाम से शुक्रिया भी चाह रहा था। तभी मेरे दिमाग की बत्ती जली, अरे! ये तो डिजिटल नौटंकी है। यहाँ तो बस लाइक कमेन्ट और सब्सक्राइब से ही ईनाम लुटाया जा सकता है और इस पातेे ही डिजिटल प्लेटफार्म के सारे नचैया फ्लाइंग किस फेंक कर नाजो अदा से शुक्रिया अदा करतंे हैं अथवा करतीं हैं। खैर अब तो डिजिटल प्लेटफार्म पर नौटंकी देखना रोज मेरी दिनचर्या का हिस्सा बन गया था, पर एक दिन मैंने कालीचरण नाम के एक नौटंकी बाज की नौटंकी देखी तो मुझे मजा आने के बजाय बहुत गुस्सा आ गया। दिल में तूफान उठ गया। मन कर रहा था कि जेब से दस रूपैया नहीं बल्कि पाँव से जूता निकालूँ। पर वह  आभासी दुनिया थी, सामने अगर वह होता तो मेरे साथ मेरे जैसे तमाम लोग उसे तमाम जूता दान कर देते। युगपुरूष गाँधी को गाली देने वाला यह कथित नौटंकीबाज उस फेंकू पार्टी से पोषित परजीवी है, जो अपने पैरों में उसी पार्टी के घुघरूँ बांध कर संसद जाने के ऐसे सपने देख रहा है,जैसे बिल्ली सपने में छिछड़े देखती है। अब मुझे किसी भी नौटंकीबाज की नौटंकी अच्छी नहीं लगती जब से एक नौटंकीबाज ने गांधी को अपना घिनौना मुँह फाड़ कर गाली दी है।

मो-निर्मल नगर
लखीमपुर-खीरी
मो-7376236066

पढ़िये आज की रचना

चर्चा में झूठी-सुरेश सौरभ

(फिल्म समीक्षा)      एक मां के लिए उसका बेटा चाहे जैसा हो वह राजा बेटा ही होता है, बच्चे कच्ची मिट्टी की तरह होते हैं, जिन्हें हम अपने विचार...

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