साहित्य

  • जन की बात न दबेगी, न छिपेगी, अब छपेगी, लोकतंत्र के सच्चे सिपाही बनिए अपने लिए नहीं, अपने आने वाले कल के लिए, आपका अपना भविष्य जहाँ गर्व से कह सके आप थे तो हम हैं।
  • लखीमपुर-खीरी उ०प्र०

Sunday, July 04, 2021

डोली चढ़ के दुल्हन ससुराल-सुरेश सौरभ

परंपरा
        बात पिछले माह 25 जून की है। उत्तर प्रदेश के जिला फतेहपुर हथगाम ब्लॉक के बन्दीपुर गाँव में शिवनारायण सिंह लोधी के घर, भिठौरा ब्लॉक के रहिमापुर सानी से बाबू सिंह लोधी के पुत्र कमलेश कुमार की जब बारात आई , तो जनवासे में सजी-धजी पालकी ( डोली ) रखी हुई थी, जिसे आज के युवा उस पालकी को सिर्फ फिल्मों में ही देखा होगा या फिर बचपन में दादा-दादी की कहानियों में ही सुना होगा। जनवासे में रखी वह पालकी लोगों के लिए आकर्षण और आश्चर्य का केन्द्र थी।
 
        बारात जब दुल्हन के गांव पहुंची, तो द्वारचाल के लिए, दूल्हे  कमलेश कुमार को पालकी में बैठा कर लाया गया। इस मोहक दृश्य ने भी गाँव के तमाम लोगों व रिश्तेदारों का खासा मन मोह लिया। औरतें और बच्चे तो बड़ी हैरत से यह नजारा देख कर अपनी सुखद स्मृतियों में संजो रहे थे।
      सुबह जब बिदाई की बेला आई, तो दुल्हन को पालकी में बिठाकर कर विदाई दी गई। विदाई की इस अद्भुत और भावुक बेला को देखकर,सभी बड़े बुजुर्ग इस लुप्त हो रही परंपरा को दोहराये जाने की मुक्त कंठ से प्रशंसा कर रहे थे।
     आधुनिकता की दौड़-भाग में लोग जहां पुरानी पंरपराओं को भूल चूके हैं, वहाँ ऐसी परंपराओं की पुनः वापसी, लोगों में गये बीते दिनों की यादें ताजा करके मन को रोमांचित और प्रफुल्लित कर देतीं हैं।
   परिजनों के अनुसार जनपद फतेहपुर के युवा लेखक लघु फिल्मों निर्देशक शिव सिंह सागर ने अपनी बहन कविता लोधी का रिश्ता तय होने के बाद, अपने बहनोई कमलेश कुमार लोधी के साथ मिलकर यह अनोखी योजना बनाई।  
      शिव सागर ने बताया, कि जहाँ बहुत से लोग इस दौर में कुछ नया करने के चक्कर में लगे रहते हैं, वहीं हमने कुछ पुराना करके बहन की, शादी को यादगार बना दिया। डोली और पालकी के सुखद समन्वय से हमने पुरानी परंपराओ को जीवंत बनाने का प्रयास किया हैं।
       इस बारे मे कवि रमाकान्त चौधरी का कहना है ऐसी कम खचीर्ली परंपराओं को यदि पुनः वापसी हो जाए तो दिखावा करके शादी-ब्याह में लाखों फूंकने वालों को सीख मिलेगी। जबकि अभिनेता वसीक सनम कहतें हैं, पुरानी परंपरा को शिव सिंह सागर ने दोहरा कर समाज को यह संदेश दिया है नया नौ दिन पुराना सब दिन।



पता-निर्मल नगर लखीमपुर खीरी
मो-7376236066

Thursday, July 01, 2021

सवनवा आईल ना-अखिलेश कुमार अरुण

  भोजपुरी कजरी गीत  

ना आईल बलमुआ, सखी हो सवनवा आईल ना

सवनवा आईल ना हो सवनवा आईल ना-2

 बिरह में देहियाँ जरे,

छन-छन पनियां परे सखी हो कब आई बलमुआ ना

सखी हो सवनवा आईल ना

सवनवा आईल ना हो सवनवा आईल ना-2

 बहे पवन पुरवईया,

कूके बाग़ कोयलिया सखी हो कब आई बलमुआ ना

सखी हो सवनवा आईल ना

सवनवा आईल ना हो सवनवा आईल ना-2

 सवतिन भईल सेजरिया,

धई-धई काटे रतिया सखी हो कब आई बलमुआ ना

सखी हो सवनवा आईल ना

सवनवा आईल ना हो सवनवा आईल ना-2

 अँखियाँ के काजर बहे,

ना कईल सिंगरवा सोहे सखी हो कब आई बलमुआ ना

सखी हो सवनवा आईल ना

सवनवा आईल ना हो सवनवा आईल ना-2

 ना आईल बलमुआ, सखी हो सवनवा आईल ना

सवनवा आईल ना हो सवनवा आईल ना-2

अखिलेश कुमार अरुण




 

पता-ग्राम-हजरतपुर, पोस्ट-मगदापुर

जिला-लखीमपुर(खीरी)

'सम्मान दो-सम्मान लो' के स्लोगन पर कदमताल-डी०के०भास्कर

डी०के०भास्कर
विगत 20 जून, 2021 को हरियाणा के जनपद भिवानी के गाँव गोविन्दपुरा में 300 साल में पहली बार एक दलित युवक विजय कुमार ने अपनी शादी के अवसर पर घुड़चढ़ी करके इतिहास रचा है। विजय कुमार की शादी रोहतक जनपद के गाँव लाखनमाजरा निवासी पूजा के साथ हुई है। हालांकि घुड़चढ़ी करने में इतिहास रचने जैसी कोई विशेष बात नहीं है, सामान्य तौर पर तमाम लोगों की घुड़चढ़ी की रश्म होती रहती हैं। विशेष बात यह है कि एक दलित हेड़ी जाति के व्यक्ति को पहली बार यह मौका हाथ लगा है। इससे पूर्व कोई भी दलित व्यक्ति गाँव में घोड़ी चढ़ने का साहस नहीं कर पाया। दरअसल कोई व्यक्ति पहले साहस इसलिए भी नहीं कर पाया कि हिन्दू समुदाय में दलितों के इस तरह के कृत्यों की मनाही रही है और ऐसा करने से कथित ऊँची जाति के लोगों की नाक कट जाती है, इसलिए यदा-कदा कई अप्रिय घटनाएं देखने को मिल जाती हैं। पिछले दिनों 13 मार्च, 2021 को राजस्थान के जनपद अलवर के थानागाजी क्षेत्र के गाँव बसई अभयराम निवासी तेजाराम पुत्र छोटूराम बलाई ने पुलिस प्रशासन से शिकायत की कि 15 मार्च, 2021 को मेरी बेटी सोनम बाई की शादी है, गाँव में बारात चढ़ने पर कुछ लोग अवरोध उत्पन्न कर सकते हैं। तब पुलिस हरकत में आयी और पुलिस के पहरे में बारात चढ़ी। गत 4 जून, 2021 को उत्तर प्रदेश के जनपद महोबा के गाँव माधवगंज निवासी अलखराम को घुड़चढ़ी के लिए सोशल मीडिया पर गुहार लगानी पड़ी। एक जंग-सी लड़नी पड़ी, तब जाकर वह 18 जून को घोड़ी चढ़ पाया। फिलहाल गोविन्दपुरा मामले में सुखद और राहत की बात है कि गाँव के सरपंच ने इस प्रकरण में भरपूर सहयोग किया है। गाँव के सरपंच वीर सिंह राजपूत का कहना है कि ष्विजय कुमार की हिम्मत के चलते मैं यह परम्परा तोड़ने में कामयाब हुआ हूँ। तीन साल से प्रयास कर रहा था, पर कोई हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था। गाँव में पूरी तरह शांति है। किसी ने भी इस घुड़चढ़ी का कोई विरोध नहीं किया। भविष्य में लोगों के बीच इसी तरह प्यार और सद्भाव बना रहेगा।

देश की आजादी के 74 साल बाद हम सामाजिक स्तर पर खुद को कितना बदल पाये हैं, यह घटना इस बात की तसदीक करती है। एक दलित दूल्हे द्वारा घोड़ी पर चढ़कर निकासी की घटना ऐतिहासिक महत्व की खबर बनी है, जबकि स्वाभाविक तौर पर यह एक सामान्य घटना है। गोविन्दपुरा गाँव के हेड़ी समुदाय के लोगों ने खुशी जाहिर करते हुए कहा कि उनके लिए ये एक ऐतिहासिक पल है, जिसे कभी भुलाया नहीं जा सकता। गौरतलब है कि 300 साल पहले बसे गाँव में राजपूत और हेड़ी समुदाय के लोग रहते हैं। अब तक हेड़ी समुदाय के लोगों को घोड़ी पर चढ़कर बारात या निकासी की अनुमति नहीं थी। इधर दूसरी घटना के सन्दर्भ में अलखराम सवाल उठाते हैं कि ष्बाबा साहब ने संविधान में सबको बराबरी का अवसर दिया है। फिर क्यों दूसरे लोग घोड़ी पर बैठकर बारात में जा सकते हैं और हम नहीं? हम पुरानी परम्पराओं को नहीं मानेंगे। अगर हमारी बारात घोड़ी पर बैठकर नहीं निकलने देंगे, तो हम शादी नहीं करेंगे।ष् वह बताते हैं कि ष्गाँव में उनसे ऊँची जाति के दबंग धमकी दे रहे हैं कि वे बारात पर हमला कर देंगे।ष् सवाल है कि कथित ऊँची जाति के लोगों को दलितों के घोड़ी चढ़ने से क्या दिक्कत है? क्या दलितों का घोड़ी चढ़ना गुनाह है? वह हमलावर क्यों हो जाते हैं? कथित सवर्ण लोग अपने पुराने खोल से बाहर क्यों नहीं निकल पा रहे हैं? आखिर क्यों दलितों को आम इंसान मानने को तैयार नहीं हैं? कहाँ तो हिन्दू धर्म और समाज सहिष्णु है, सहृदयी है और कहाँ अपने ही धर्म और समाज का दलित व्यक्ति अपने जीवन के महत्वपूर्ण पल शादी के अवसर पर घोड़ी पर नहीं बैठ सकता है, जबकि इससे कथित उच्चवर्णीय हिन्दुओं को किसी तरह की कोई हानि नहीं है। 

देखा गया है कि समाज और राजनीति में प्रगतिशील लोग दलितोत्थान की बात करते हैं। वह दलितों में सुधार की गुंजाइश तलाशते हैं, जबकि सामाजिक स्तर पर जातीय भेदभाव कौन करता है, बिल्कुल स्पष्ट है। कथित प्रगतिशील लोग उस सवर्ण मानसिकता के विरुद्ध कोई सार्थक पहल नहीं करते हैं, जो कि भेदभाव का कारण है। वास्तविकता यह है कि जातीय भेदभाव के मामले में जहाँ अन्याय हुआ है या हो रहा है, वहाँ न तो अन्याय के खिलाफ खड़े होते हैं और न न्याय की मांग करते हैं। वास्तव में समाज सुधार और सामाजिक विकृति के समूल नाश के लिए उन लोगों को सुधारने की अधिक जरूरत है, जिनके दिलोदिमाग में विकृति है, जिन्हें दलितों के प्रति भेदभाव के मामले में सामाजिकता और आपराधिकता में कोई अन्तर नहीं दिखाई देता है। यहाँ तक कि दलितों के खिलाफ अमानवीय व्यवहार और जातीय भेदभाव करने में उन्हें कोई बुराई नजर नहीं आती है और बड़ी ढीठता के साथ उस अन्यायपूर्ण व्यवहार को न्यायोचित ठहराने की कोशिश करते हैं। जब तक भेदभावपूर्ण व्यवहार को गलत नहीं माना जाएगा और उसका विरोध नहीं किया जाएगा, तब तक यह माना जाएगा कि हम सभ्य समाज बनना ही नहीं चाहते। जब अमेरिका में नस्लीय भेदभाव के कारण अश्वेत नागरिक जॉर्ज फ्लॉयड की श्वेत पुलिस अधिकारी डेरेक चाउविन ने घुटने से गर्दन दबाकर हत्या की, तो उस जघन्य हत्याकांड के विरोध में अमेरिकी समाज उठ खड़ा हुआ था। आरोपी पुलिस अधिकारी की पत्नी ने तत्काल तलाक लेने का निर्णय लिया था। अमेरिकी पुलिस चीफ ने घुटनों पर झुककर माफी मांगी थी। तब राष्ट्रपति पद के प्रत्याशी जो बाइडेन ने अपने घर से प्रसारित वक्तव्य में कहा था, ‘इस देश का मूल पाप आज भी हमारे राष्ट्र पर दाग है।

वास्तव में, किसी भी सभ्य समाज और राष्ट्र में किसी भी तरह का भेदभाव, चाहे वह जातिभेद या नश्लभेद या लिंगभेद हो, एक कलंक है। हमारे यहाँ व्याप्त जातीय भेदभाव रूपी इस कलंक को मिटाने की जिम्मेदारी किसी एक समुदाय की नहीं है, बल्कि समाज के सभी समुदायों की है और यह सामूहिक जिम्मेदारी है, क्योंकि यह देश सभी का है। सबसे ज्यादा अहम जिम्मेदारी उस सवर्ण समुदाय की है, जो इस तरह का कलंकित व्यवहार करने का आदी है, अपराधी है। सवर्णों को दिल से यह स्वीकार करना पड़ेगा कि दलित भी उन्हीं की तरह हाड़-मांस के प्राणी हैं। उनके भी अपने सपने हैं, अरमान हैं। उनका भी स्वाभिमान है। उन्हें भी मानवोचित सम्मान और गरिमामय जीवन जीने की चाह है। दलितों के साथ मानवीय व्यवहार करने से उन्हें कोई भी घाटा होने वाला नहीं है। बाबा साहेब डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने कहा है कि ष्सभी मनुष्य एक ही मिट्टी के बने हुए हैं और उन्हें यह अधिकार भी है कि वे अपने साथ अच्छे व्यवहार की मांग करें।ष् अब समय आ गया है कि हम समय के साथ कदमताल करें और ष्सम्मान दो-सम्मान लो!ष् के स्लोगन पर आगे बढ़ें। हजारों साल पहले जो हो गया, सो हो गया, लेकिन आज वह अमानवीय व्यवहार किसी भी सूरत में सहन नहीं किया जा सकता है। अब दलितों का स्वाभिमान जाग गया है, वह बराबरी के व्यवहार के आकांक्षी हैं और उसमें कुछ गलत भी नहीं है। हरियाणा के एक छोटे-से गाँव गोविन्दपुरा ने सामाजिक सद्भाव की जो मिसाल कायम की है, उसे राष्ट्रीय फलक पर भी कायम करने की जरूरत है।

सम्पादक, डिप्रेस्ड एक्स्प्रेस पत्रिका
मथुरा उत्तर प्रदेश
(जुलाई अंक में प्रकाशित)

टीकाकरण अभियान की सुस्त चाल और कुछ जायज सवाल-अजय बोकिल

अजय बोकिल
देश में कोविड 19 टीकाकरण महाभियान फिर हिचकोले खाने लगा है। इसके तीन कारण हैं। पहला तो मप्र सहित कई राज्यों में वैक्सीन का फिर टोटा पड़ गया है। भोपाल जैसे शहर में तीन दिनो से ज्यादातर सेंटरों पर लोग बिना वैक्सीन लगवाए ही लौट रहे हैं। क्योंकि कोई-सी भी वैक्सीन उपलब्ध नहीं है। दूसरे, राज्य में एक दिन में सर्वाधिक वैक्सीन लगवाने का जो रिकाॅर्ड बना, उसके फर्जीवाड़े भी उजागर होने लगे हैं। तीसरे, टीकाकरण रिकाॅर्ड बनवाने क्या लोगों को जबर्दस्ती टीका लगवाना सही है? यह सवाल इसलिए क्यों‍िक मेघालय हाई कोर्ट ने हाल में कहा कि जबरन टीकाकरण करना भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (जी) के तहत प्रदत्त मौलिक अधिकारों का हनन है। आशय यह कि आप किसी को जबरन टीका नहीं लगा सकते, अगर वह इसके लिए सहमत नहीं है। 
पूरे मामले में संतोष की बात इतनी है कि जैसे भी हो, टीकाकरण अभियान पूरी तरह ठप नहीं हुआ है। असली समस्या समय पर टीका उपलब्ध कराने की है, जिसको लेकर मोदी सरकार की नीति-रीति पर पहले भी सवाल उठा है। वही सवाल अब भी है कि जब देश में टीकाकरण महाभियान छेड़ा गया तो जरूरत के मुताबिक और समय पर वैक्सीन उपलब्ध कराने की क्या कार्ययोजना थी? वैक्सीनेशन के पक्ष में सरकार ने खूब प्रचार किया। मीडिया और सामाजिक संगठनों ने भी इसमें अहम भूमिका निभाई। क्योंकि अभी भी कोरोना से बचने का वैक्सीन ही एक मा‍त्र उपाय है। शुरू में लोग वैक्सीन लगवाने से हिचक रहे थे, लेकिन जब व्यापक जागरूकता अभियान और कोरोना की तीसरी संभावित लहर के भय के चलते लोग वैक्सीन लगवाने सेंटरों पर पहुंचने लगे तो टीकों की कमी के कारण उन्हें खाली हाथ लौटना पड़ रहा है। हालांकि इसे अस्थायी दिक्कत मानना चाहिए, लेकिन टीकाकरण को लेकर जोश का जो एक माहौल बना था, उस पर पानी पड़ गया है। इस मामले में राज्य सरकारें भी असहाय हैं। उन्होंने टीकाकरण की व्यापक व्यवस्थाएं कीं, लेकिन टीका उत्पादन और वितरण का जिम्मा केन्द्र सरकार के पास ही है। अभी भी केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री डाॅ. हर्षवर्द्धन राज्यो के पास पड़े कोविड डोज के आंकड़े दे रहे हैं, लेकिन हकीकत में ज्यादातर सेंटरों पर वैक्सीन खत्म हो जाने की चर्चा से बच रहे हैं। 
दूसरी बात देश में रिकाॅर्ड टीकाकरण के आंकड़ों की है। विश्व योग दिवस पर मप्र सर्वाधिक 87 लाख टीके लगाने का दावा कर देश में अव्वल रहा। लेकिन यह रिकाॅर्ड कैसे और किस कीमत पर बना, इसकी हकीकत भी सामने आने लगी है। मीडिया रिपोर्टों में उजागर हुआ ‍िक कई फर्जी नामों से टीके लगे दिखा दिए गए हैं। कुछ लोगों को पता ही नहीं है कि उनके नाम से टीका लगाया जा चुका है। कहते हैं कोरोना वायरस हमारे इम्युन सिस्टम को चकमा देकर हमे संक्रमित कर देता है, लेकिन सरकारी तंत्र ने रिकाॅर्ड बनाने के चक्कर में पूरे‍ सिस्टम को जो चमका दिया  है, उसके आगे तो कोरोना भी हाथ जोड़ लेगा। वैसे सरकार ने कोविन के रूप में एक अच्छा ऐप तैयार किया है। लेकिन लोगों ने उसमें भी कलाकारी कर वैक्सीनेशन का रिकाॅर्ड बनवा दिया। इसका अर्थ यह नहीं है ‍िक पूरा ही फर्जीवाड़ा है। सही काम भी काफी हुआ है। लेकिन ऐसी घटनाएं पूरे महाभियान की विश्वसनीयता पर प्रश्नचिन्ह जरूर लगाती हैं। यह भी सही है कि मप्र ने एक दिन में सर्वाधिक वैक्सीन का रिकाॅर्ड जरूर कायम किया, लेकिन उसके बाद इस काम में सुस्ती आ गई है। अगर 28 जून 2021 के राष्ट्रीय आंकड़े देखें तो पूरे देश में कुल 32 करोड़ 90 लाख से अधिक लोगों को वैक्सीन लगाई गई है। राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में मप्र का नंबर अभी भी 7 वां है। जबकि महाराष्ट्र 3 करोड़ 17 लाख टीकों के साथ पहले और यूपी 3 करोड़ 10 लाख टीकों के साथ दूसरे नंबर पर है। यूं तो इन राज्यों के वैक्सीनेशन आंकड़ों की प्रामाणिकता पर भी सवाल उठाए जा सकते हैं। लेकिन फिलहाल हमे इसी पर भरोसा करना होगा। ऐसा नहीं है कि वैक्सीन की कमी से मोदी सरकार बेखबर है, लिहाजा दूसरी विदेशी वैक्सीनों  के आयात और भारत में ‍िनर्माण के लिए कोशिशें जारी है। स्पूतनिक वी के बाद अब माडर्ना कंपनी की वैक्सीन को अनुमति दे दी गई है। उधर सीरम इंस्टीट्यूट ने भी जुलाई से कोविशील्ड वैक्सीन उत्पादन बढ़ाकर 10 करोड़ डोज प्रतिमाह करने का काम शुरू कर ‍िदया है। इन सबके बावजूद देश में कोरोना की तीसरी लहर के संभावित आगमन के पहले देश की 80 फीसदी आबादी का वैक्सीनेशन पूरा होने की संभावना बहुत कम है। क्योंकि 32 करोड़ टीकों तक पहुंचने में ही हमे 164 दिन लगे हैं। अभी भी करीब सौ करोड़ आबादी को टीके लगना बाकी है। देश में वैक्सीन ड्राइव का हल्ला बनवाने हाल में सरकार ने एक प्रचार यह ‍िकया कि भारत में अमेरिका से ज्यादा टीके लगे। यह तुलना बेमानी है क्योंकि अमेरिका की कुल आबादी ही करीब 33 करोड़ है। वहां 46 फीसदी आबादी को दोनो डोज लग चुके हैं, हमारे यहां दोनो डोज का आंकड़ा महज 4 फीसदी है। 
वैक्सीनेशन महाभियान के बीच एक विचारणीय मुद्दा जबरन टीका लगाने या न लगवाने का है। इसमें जहां अंधविश्वास की बड़ी भूमिका है, वहीं यह व्यक्ति के मौलिक अधिकारों के हनन का सवाल भी बन गया है। मेघालय सरकार ने सभी व्यवसायियों को अपना कारोबार दोबारा शुरू करने के लिए कोविड टीकाकरण अनिवार्य कर ‍िदया था। हाई कोर्ट ने इसका संज्ञान लेते हुए अपने फैसले में कहा कि कहा कि टीकाकरण आज की जरूरत है और कोरोना के प्रसार को फैलने से रोकने के लिए आवश्यक कदम है, लेकिन राज्य सरकार ऐसी कोई कार्रवाई नहीं कर सकती, जो संविधान के अनुच्छेद 19 (1) के तहत निहित आजीविका के मौलिक अधिकार का उल्लंघन हो। यह संविधान में कल्याण के मूल उद्देश्य को प्रभावित करता है। बेहतर है कि सरकार वैक्सीन की उपयोगिता लोगों को समझाए। हालांकि कोर्ट ने वैक्सीन को लेकर भ्रम फैलाने की कड़ी आलोचना की। यह मामला मेघालय तक ही सीमित नहीं है। ऐसे ही एक मामले में गुजरात हाईकोर्ट ने जामनगर में तैनात भारतीय वायुसेना के एक कनिष्ठ अधिकारी को अस्थाई राहत दी थी। वायुसेना ने कोरोना टीका नहीं लगवाने पर कारपोरल योगेन्द्र कुमार को कारण बताअो नोटिस जारी कहा था कि क्यों न उन्हें नौकरी से बर्खास्त कर दिया जाए? जबकि योगेन्द्र का कहना था कि उसकी अंतरात्मा टीका लगाने  की अनुमतिक नहीं देती। उसका यह भी कहना था कि चूंकि वह कोरोना से बचने और इम्युनिटी बढ़ाने आयुर्वेदिक दवाएं ले रहा है, इसलिए टीका क्यों लगवाए? उधर उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी में यूपी रोडवेज के अधिकारी ने आदेश निकाला कि वैक्सीन न लगवाने वाले कर्मचारियों को वेतन नहीं‍ मिलेगा। जिससे कर्मचारियों में हड़कंप मच गया। अमेरिका के ह्यूस्टन में वैक्सीन न लगवाने के कारण एक अस्पताल के 153 कर्मचारियों की नौकरी चली गई। 
अब सवाल यह कि क्या सरकार को महामारी रोकने के लिए उसका टीका लगाना अनिवार्य करने का कानूनी अधिकार है? जानकारों का कहना है कि 1897 के महामारी रोग अधिनियम की धारा 2 राज्य सरकारों को किसी भी महामारी को फैलने से रोकने के लिए वैक्सीन अनिवार्यता जैसे कड़े नियम बनाने के अधिकार देती है। साथ ही 2005 से लागू राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन क़ानून भी आपदा या महामारी के दौरान केंद्र सरकार को उसे रोकने की अथाह शक्ति प्रदान करता है। हालांकि सभी को टीका लगाने की कानूनन अनिवार्यता को लेकर बहुत स्पष्टता नहीं है। कुछ कानूनी विशेषज्ञों का मानना है कि  कोरोना जैसी घातक महामारी के मामले में व्यक्ति के मौलिक और निजता के अधिकार और स्वास्थ्य के अधिकार के बीच सामंजस्य बनाना जरूरी है। क्योंकि अगर किसी को टीकाकरण के लिए बाध्य करना भले सही न हो, लेकिन उस व्यक्ति के टीका न लगवाने  से दूसरे किसी व्यक्ति के संक्रमित होने का खतरा है। जबकि उस दूसरे व्यक्ति को भी स्वस्थ रहने का पूरा अधिकार है। हालांकि टीका लगवाना भी कोरोना से बचने की सौ फीसदी गारंटी नहीं है। फिर भी वो हमे एक मानसिक आश्वस्ति तो देता ही है और मानसिक आश्वस्ति भी शारीरिक स्वास्थ्य का महत्वपूर्ण कारक है। सरकार को भी समझना होगा कि कोविड टीकाकरण जैसे महाभियान हर स्तर पर चुस्ती जरूरी है, तभी इसका अनुकूल नतीजा निकलेगा। महामारियों से लड़ना कोई राजनीतिक युद्ध नहीं होता। 
वरिष्ठ संपादक दैनिक सुबह सवेरे मध्य प्रदेश

सोशल साइट्स पर नकेल क्यों नहीं डाल पा रही सरकार-अजय बोकिल

अजय बोकिल 
विचारणीय स्थिति है। मोदी सरकार सोशल मीडिया खासकर ट्विटर जैसी सोशल साइट्स पर लगाम लगाने की कोशिश कर रही है, वही सत्तारूढ़ भाजपा में इस बात को लेकर चिंता है कि ट्विटर पर प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस के फालोअर्स क्यों बढ़ रहे हैं। इस बीच सरकार ट्विटर पर भारतीय कानून मानने के लिए दबाव बढ़ा रही है, लेकिन ट्विटर पर उसका कोई खास असर होता नहीं दिख रहा है। चार दिन पहले उसने हमारे देश के सूचना प्रसारण मंत्री रविशंकर प्रसाद का ही ट्विटर अकाउंट घंटे भर के लिए बंद करने दुस्साहस किया। हालांकि बाद में कंपनी ने अपनी सफाई में कहा कि ‘माननीय मंत्री का एकाउंट डीएमसीए की एक नोटिस की वजह से कुछ देर बाधित रहा और उस ट्वीट को रोक लिया गया। इस पर मंत्री रविशंकर प्रसाद का कहना था "ट्विटर की कार्रवाई इन्फॉर्मेशन टेक्नॉलॉजी रूल्स, 2021 के नियम 4(8) का खुला उल्लंघन है।‘ लेकिन इस नाराजी का भी ट्विटर पर खास असर दिखाई नहीं दिया। उल्टे उसने हमारेनए आईटी कानून को ठेंगा दिखाते हुए एक अमेरिका निवासी व्यक्ति की भारत में ‘शिकायत निवारण अधिकारी’ के पद पर तैनाती कर दी। जबकि‍ नियम के मुताबिक उसे किसी भारतनिवासी व्यक्ति को ही इस पद पर नियुक्त करना था। और तो और उसने भारत के दो केन्द्र शासित प्रदेशों लद्दाख एवं जम्मू तथा कश्मीर को अलग देश और लेह को चीन का हिस्सा बता दिया। भारत सरकार द्वारा कड़ी चेतावनी के बाद उसे सुधारा गया। सवाल यह है कि जब ट्विटर बार-बार भारतीय कानूनों की अवहेलना और भारत सरकार की चेतावनियों को भी हल्के में ले रही है, तब सरकार उस पर पूर्ण प्रतिबंध लगाने से क्यों हिचक रही है? कौन से आंतरिक दबाव या आग्रह हैं, जो सरकार को सख्त कदम उठाने से रोक रहे हैं? क्या खुद सरकार और सत्तारूढ़ भाजपा ट्विटर पर नमूदार होने का मोह रोक नहीं पा रहे हैं? या फिर कोई और कारण है? क्योंकि जब नाइजीरिया जैसा अफ्रीकी देश ट्विटर को चलता कर सकता है तो हमारी सरकार किस बात का इंतजार कर रही है?
इस बात में दो राय नहीं कि सोशल मीडिया साइट्स को भारतीय कानूनों को मानना ही चाहिए, क्योंकि बकौल सरकार यह हमारी ‘डिजीटल संप्रुभता’ का सवाल है। बावजूद इस आशंका के कि सोशल मीडिया पर नकेल से अभिव्यक्ति की आजादी के लोकतांत्रिक अधिकार पर खतरा है। इसी में यह सवाल भी ‍निहित है कि क्या ऐसे कानूनों को मनवाने की इच्छाशक्ति और ताकत हममे है या नहीं? अगर नहीं है तो फिर बेकार की हवाबाजी करने का कोई अर्थ नहीं है। 
यह सही है कि सोशल मीडिया साइट्स की नसबंदी के लिए भारत सरकार ने जो कानूनी प्रावधान किए हैं, वैसी कानूनी कोशिशें कई देशों में हो रही हैं। क्योंकि दुनिया भर में सोशल मीडिया एक समांतर सत्ता के रूप में खड़ा हो और देशों की सम्प्रभुता के लिए चुनौती बने, इसे कोई भी स्वीकार नहीं करेगा। ऐसे कानून दुनिया के कई लोकतां‍त्रिक देशों में पहले से लागू हैं। सोशल मीडिया साइट्स की निरंकुशता को खतरा मानते हुए भारत सरकार ने भी नए सूचना प्रौद्योगिकी कानून 26 मई 2021 से लागू किए। इससे सोशल मीडिया कंपनियां थोड़ी परेशानी में जरूर आई हैं। उन्हें को डर है कि नए कानून के तहत प्रशासन जब चाहे तब उनकी नकेल कस सकता है, जैसे कि अशांत क्षेत्रों अथवा कानून व्यवस्था बिगड़ने पर इंटरनेट बंद करने के रूप  में होता है। दूसरी तरफ एक वर्ग इसे सोशल मीडिया यूजर्स की निजता पर चोट और ऐसी टेक कंपनियों के खिलाफ आपराधिक मुकदमों के बढ़ते खतरे के रूप में देखता है।  
पिछले दिनो बीबीसी हिंदी में छपी एक रिपोर्ट में बताया गया कि कई देशों में ट्विटर जैसी साइट्स पर पक्षपात के आरोप लगे हैं। जर्मनी, तुर्की, ब्राजील और यहां तक कि लोकतंत्र के सबसे बड़े झंडाबरदार अमेरिका में भी ट्विटर व अन्य सोशल साइट्स पर शिकंजा कसा जा रहा है। क्योंकि कई लोकतांत्रिक देशों में नेताअो ने यह ‍िशकायत की थी कि सोशल मीडिया प्लेटफार्म जरूरत से ज्यादा ताकतवर होते जा रहे हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो ये प्लेटफार्म जनमत को प्रभावित या संचालित करने की जबर्दस्त ताकत हासिल कर चुके हैं, जिससे राजनीतिक सत्ताएं हिलने लगी हैं। जर्मनी ने 2017 में नेटवर्क इंफोर्स्मेंट लॉ कानून लागू किया। कट्टर लोकतंत्रवादियों ने इसे ‘कुख्यात कानून’ की संज्ञा दी। इस कानून के तहत 20 लाख से अधिक पंजीकृत जर्मन यूज़र्स वाले सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म को कंटेंट पोस्ट किए जाने के 24 घंटों के भीतर अवैध सामग्री की समीक्षा करनी होगी और उसे हटाना होगा या 5 करोड़ यूरो तक का जुर्माना भरना होगा। उधर यूरोपीय आयोग भी वर्तमान में एक डिजिटल सेवा अधिनियम पैकेज के लिए एक बिल तैयार कर रहा है। 
यहां मुद्दा यह है कि क्या विभिन्न देशों में  सोशल मीडिया प्लेटफार्म के खिलाफ लागू कड़े कानून वास्तव में प्रभावी हो पाते हैं या नहीं? या यह केवल बेकार की या अधूरे मन से की जानी वाली कवायद है? अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने ‍ट्विटर जैसे प्लेटफार्म्स पर निष्पक्ष न होने का खुला आरोप लगाते हुए एक कार्यकारी आदेश जारी किया था। ट्रंप ने कहा था, "ट्विटर जब संपादन, ब्लैकलिस्ट, शैडो बैन करने की भूमिका निभाता है, तो वो साफ़ तौर पर संपादकीय निर्णय होते हैं। ऐसे में ट्विटर एक निष्पक्ष सार्वजनिक प्लेटफार्म नहीं रह जाता और वे एक दृष्टिकोण के साथ संपादक बन जाते हैं। ट्विटर ने इस आदेश को ‘प्रतिक्रियावादी और राजनीतिक दृष्टिकोण बताते हुए कहा कि अमेरिका में पहले से लागू #Section 230 अमेरिकी नवाचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा करता है, और यह लोकतांत्रिक मूल्यों पर आधारित है। इसे एकतरफा रूप से मिटाने का प्रयास ऑनलाइन स्पीच और इंटरनेट स्वतंत्रता के भविष्य के लिए खतरा है। बाद में ट्रंप राष्ट्रपति पद का चुनाव हार गए और ट्विटर और फेसबुक ने ट्रंप के अकाउंट बंद कर ‍िदए। दोनो कंपनियां का कुछ खास नहीं‍ बिगड़ा। ब्रिटेन की सरकार ने पिछले साल दिसंबर में मीडिया की रेगुलेटरी अथॉरिटी ऑफ़कॉम को सोशल मीडिया का भी रेगुलेटर नियुक्त किया। लेकिन उसने भी  सोशल मीडिया या इंटरनेट को सेंसर करने से इंकार कर दिया। आॅफकाॅम ने कहा कि अभिव्यक्ति की आज़ादी इंटरनेट की जान है और हमारा लोकतंत्र, हमारा आदर्श और हमारा आधुनिक समाज इसी पर टिका है।
ध्यान रहे कि भारत में नए आईटी कानून के तहत अब नियमों का उल्लंघन करने पर सोशल मीडिया कंपनियों पर आपराधिक प्रकरण कायम किया जा सकेगा। उसे धारा 79 के तहत मिली सुरक्षा नहीं मिलेगी। यूपी में एक मामले में एक प्रकरण दर्ज भी हो चुका है। इसके बाद भी ट्विटर जैसी माइक्रो‍ब्लाॅगिंग साइट्स पर कोई खास असर होता नहीं दिख रहा। भारत में कंपनी के‍ ‍िशकायत निवारण अधिकारी के पद पर गैर भारतीय को नियुक्त कर उसने टकराव का नया मोर्चा खोल दिया है। भारत सरकार  इस पर क्या कार्रवाई करती है, यह देखने की बात है। जबकि ट्विटर की कार्रवाई में यह संदेश निहित है कि वह भारतीय कानूनो का पालन करने के बजाए अपने ही नियम कायदों  को मानने में ज्यादा भरोसा रखती है।  
प्रश्न यह है कि ये सोशल मीडिया कंपनियां इतनी ताकतवर कैसे हो जाती हैं, उन्हें यह शक्ति कहां से मिलती है? इसका उत्तर यही है कि यह ताकत उन्हे जनता यानी अपने यूजरों से ‍िमलती है। यही कारण है कि दुनिया में कई जगह जनआंदोलन खड़ा करने, विरोध प्रदर्शन और हिंसा में इस साइट्स का बड़ा योगदान रहा है। इस बारे में विशेषज्ञों का कहना है कि स्मार्ट फोन्स की वजह से दुनिया में अब ऐसी पीढ़ी सक्रिय है, जो इंटरनेट के माध्यबम से एक दूसरे से जुड़ी है तथा इसी के जरिए अपनी बात कहने में भरोसा करती है। उस पर विश्वास करती है। हालांकि यह भी एक तरह का अंधविश्वास ही है। इसीलिए हाल में अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने साफ कहा कि नई टैक्नाॅलाजी का मतलब यह नहीं हो सकता कि दूसरे यह तय करें कि हमे हमारी जिंदगी कैसे जीनी है।‘   
जानकारों के मुताबिक ये डिजीटल पावर कंपनियां विभिन्न देशों में सत्ताअों को तीन प्रकार से नियंत्रित करती हैं। यानी आर्थिक पावर, प्रौद्योगिकी पावर और राजनीतिक पावर। ये तीनो सत्ताएं भी एक दूसरे से सम्बन्धित और परस्पर आश्रित होती हैं। यानी टैक्नोलाॅजी की सत्ता के दम पर आर्थिक व राजनीतिक सत्ता पर कब्जा किया जा सकता है, ये कंपनियां यही करने की कोशिश कर रही हैं। यानी जिसके पास जितने ज्यादा यूजर्स जनमत बनाने, बिगाड़ने की उसकी उतनी ज्यादा पावर। शायद यही प्रलोभन राजनीतिक दलों और नेताअों को ललचाता है। हमारे देश में वो सोशल मीडिया का विरोध करते हुए भी इसका मोह नहीं छोड़ पाते। दरअसल वो इसका सिलेक्टिव इस्तेमाल चाहते हैं। यानी उनके पक्ष में या उन्हें मजबूत करने वाली बातें तो सोशल मीडिया में खूब उछलें लेकिन उन पर उंगली उठाने वाली या बदनाम करने वाली बातों को ‘अनैतिक’ अथवा दुर्भावना से प्रेरित कहकर ब्लाॅक या डिलीट कर दी जाएं। अर्थात यहां व्यक्ति, दल या विचारधारा के विरोध और देश के विरोध में बहुत महीन फर्क है। ‘इन्फर्मेशन’ और ‘मिसइन्फर्मेशन’ की व्याख्या भी अपनी सुविधा से होना है। जब तक यह चालाकी चलेगी, तब तक सरकार ट्विटर जैसी साइट्स का कुछ खास बिगाड़ पाएगी, ऐसा नहीं लगता। 
वरिष्ठ संपादक दैनिक सुबह सवेरे मध्य प्रदेश

Monday, June 28, 2021

ज़िम्मेदारी-डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'

  लघुकथा  

डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
अभी श्याम ऑफ़िस से लौटा ही था कि उसकी पत्नी रेनू उस पर बिलबिला उठी- "सुनो जी! आज मैंने तुम्हारी पासबुक देखी है। पिछले एक साल से हर महीने दस हज़ार रुपये किसे ट्रान्सफर कर रहे हो? सच-सच बता दो।" "अरे वो मम्मी-पापा आजकल काफ़ी परेशान रहते हैं। दोनो बीमार चल रहे हैं और इधर कुछ मकान का भी लफड़ा है।" रेनू ने झगड़ने के अंदाज़ में कहा- "यह बकवास मुझे नहीं सुननी। तुम्हीं ने ठेका ले रखा है क्या इन बुड्ढों का। और दूसरे बेटों की कोई ज़िम्मेदारी नहीं है क्या!" "हा, जब उनके बेटे अपनी ज़िम्मेदारी से मुकर गये हैं, तो मेरी ही ज़िम्मेदारी बनती है।" "मतलब", "मतलब यह कि मैं तुम्हारे मम्मी-पापा की बात कर रहा हू। मेरे पापा तो पेंशनर हैं। हर महीने मुझे ही कुछ न कुछ देते रहते हैं। रेनू का चेहरा खिलखिला उठा और एक साँस में बोल गयी- "ओह श्याम! मेरे जानू! कितने अच्छे हो तुम! बैठो न! बहुत थके लग रहे हो। मैं अभी कॉफ़ी बनाकर लाती हूँ।"

सम्पर्क:
18/17, राधा नगर, फतेहपुर (उ.प्र.)
पिनकोड- 212601
वार्तासूत्र : 9839942005
ई-मेल : doctor_shailesh@rediffmail.com


मनचला-डॉ. शैलेष गुप्त ‘वीर’

 लघुकथा  

-डॉ. शैलेष गुप्त ‘वीर’
ट्रेन अभी फतेहपुर से छूटी ही थी कि एक पचीस-छब्बीस वर्षीय नवयुवक ने हाँफते हुए अन्दर प्रवेश किया। वह गेट पर ही कुछ पलों के लिए ठिठका और इधर-उधर नज़रें दौड़ने के पश्चात् समीप की ही एक सीट, जिस पर तीन महिलाएँ विराजमान थीं, से सटकर खड़ा हो गया। उन तीनों महिलाओं ने उसे हिकारत भरी नज़रों से घूरा, किन्तु इसका उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। उन महिलाओं में से एक प्रौढ़ा थी, किन्तु बाक़ी दो...बला की ख़ूबसूरत जवान युवतियाँ। ख़ैर ट्रेन धीरे-धीरे स्पीड पकड़ रही थी..."क्यों भाई तेरे को और कहीं जगह नहीं मिली, यहीं हमारे सर पे ही खड़ा होना था। माँ-बाप जाने कैसे संस्कार देते हैं इन युवकों को...लड़कियाँ देखी और निहारने लगे...ए...ओ...मनचले, तुझसे ही कह रही हूँ, अपना ठौर कहीं और ढूँढ़ ले।" प्रौढ़ा ने अपना आक्रोश ज़ाहिर करते हुए हट जाने की चेतावनी दी...पर वह बंदा मानो कसम खाकर आया था। ख़ामोशी की चादर ओढ़े निर्विकार भाव से वहीं खड़ा रहा। माँ जी के इतना कहने के बाद भी यहीं पर...अंगद की तरह पैर...बेशर्म यहीं पर...मेरा वश चले तो...चप्पलों से...।" वे दोनों युवतियाँ आपस में बतियाए जा रही थीं।

 

अब ट्रेन पूरी स्पीड में थी। कानपुर चंद मिनटों की बात थी कि टीटीई ने एस-फोर कोच में प्रवेश किया और सात नम्बर की बर्थ से सटे उस नवयुवक को टोका- साबजादे, टिकट...उसने शायद उसकी बात सुनी नहीं या जानबूझकर अनसुनी कर दी। "अबे ओ मनचले, उधर मत निहार, टिकट दिखा।" इस बार आवेश भरे स्वर में टीटीई ने उससे टिकट की माँग की...अच्छा-अच्छा टि-टिकट...इस ज़ेब-उस ज़ेब में हाथ डालने लगा। तीनों महिलाएँ और आस-पास बैठे लोग मुस्कुराने लगे- "...अब स्साले को पता चलेगा। बहुत स्मार्ट...", "एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा जैसे...", बगल में एक सज्जन गीत गुनगुना रहे थे कि तभी हर ज़ेब खँगालने के बाद आख़िर में शर्ट की ज़ेब में हाथ डाला। सर, यह टिकट...एस-फोर, सेवन। तब तुम खड़े क्यों हो? टीटीई ने प्रश्न किया...साब, मेरे अम्मा-बाबू ने मुझे ऐसे ही संस्कार दिये हैं।

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Saturday, June 26, 2021

हम बच्चे-मधुर कुलश्रेष्ठ

मधुर कुलश्रेष्ठ
हम नन्हें मुन्ने बच्चे प्यारे प्यारे
कंचे गोली गिल्ली डंडा खेल हमारे
भागम-भाग, छिपन छिपाई
इक्कड़ दुक्कड़ हमको लगते प्यारे 

धौल धपट कर लड़ते झगड़ते
पल में गलबहियाँ डाले फिरते
हम नासमझों की दुनियां में
झट मिट जाते गिले हमारे

लड़के लड़की का भेद नहीं
जात पाँत की दीवार न आती
मिल जुलकर सब खेल खेलते
इस घर से उस घर के द्वारे

हम नन्हें मुन्ने बच्चे प्यारे प्यारे

ठानी थी बगावत करने की- कपिलेश प्रसाद

कपिलेश प्रसाद


भेंड़-बकरियों के झुंड हैं हम 
और लक़ीर के फ़क़ीर भी ,
एक ने जो राह पकड़ ली-
चल पड़े हम भी उस ओर।
यह सोंच कर कि सब जा रहे जिस उस ओर
ठीक ही जा रहे होंगे ,
मैं भी कुछ रूक-रूक कर चलता रहा उस ओर
ठानी थी बग़ावत करने की , 
पर ठहर सा गया कुछ सोंच कर?
नहीं चाहते हुए भी चल पड़ा 
इनके ही नक्श-ए-कदम पर
क्योंकि हम चल रहे थे किसी के समानान्तर 
जो खड़ी उस तरफ वैसी ही एक भीड़ थी !
और खड़ा होना था हमें भी उसके मुकाबिल

जिला पंचायत अध्यक्ष पद के चुनाव में बीजेपी ने झोंकी पूरी ताकत, मैदान में उतरे योगी सरकार के मंत्री और प्रशासनिक अधिकारी-नन्द लाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)

  राजनैतिक चर्चा  

नन्द लाल वर्मा

बीजेपी की तैयारी ज्यादातर सीटों पर येनकेन प्रकारेण कब्ज़ा करने की है तो दूसरी तरफ समाजवादी पार्टी भी इस चुनाव में पूरे जोर-शोर से अपनी ताल ठोक रही है। अब इंतजार 26 जून और 3 जुलाई का है जब  जिला पंचायत अध्यक्ष पद के लिए नामांकन और वोट डाले जाएंगे और नतीजे भी उसी दिन घोषित हो जाएंगे।

यूपी विधानसभा चुनाव 2022 से पहले अब जिला पंचायत अध्यक्ष पद पर होने वाले चुनाव में सियासी दल अपना दम खम ठोक रहे हैं।75 जिलों में होने वाले इस जिला पंचायत अध्यक्ष पद के चुनाव के लिए आज यानी 26 जून को नामांकन होना है। ऐसे में बीजेपी की तैयारी है कि इन चुनावों में साम,दाम, दंड, भेद से ज्यादा से ज्यादा सीटें हासिल की जाए। यही वजह है कि अब सरकार के मंत्री भी अपने-अपने क्षेत्र में नामांकन के दौरान मौजूद रहेंगे। पार्टी के उम्मीदवार का हौसला बढ़ाने के साथ ही साथ किस तरीके से लॉबिंग करके उम्मीदवार को जिताया जाए इस पर रणनीति भी तय करेंगे।कई जिलों से खबरें आ रही हैं कि जहां गैर बीजेपी दल मजबूत है, वहां के सपा, बीएसपी और निर्दलीय सदस्यों को स्थानीय जिला प्रशासन के माध्यम से कानूनी दांवपेंच प्रयोग कर या तो हिरासत में लिया जा रहा या फिर उनको सुरक्षित जगह रखा जा रहा है।


प्रदेश में होने वाले 75 जिलों में जिला पंचायत अध्यक्ष पद का चुनाव खासतौर से सत्ताधारी बीजेपी के लिए नाक का सवाल बना हुआ है क्योंकि इस बार बीजेपी ने जिस आक्रामक ढंग से पंचायत चुनाव लड़ा था नतीजे उसके पक्ष में नहीं आए थे।बीजेपी से ज्यादा निर्दलीय जीते थे और बीजेपी तीसरे नंबर पर सपा के बाद चली गई थी। ऐसे में अब जब 3 जुलाई को जिला पंचायत अध्यक्ष पद के लिए वोट डाले जाने हैं तो पार्टी की तैयारी है कि 75 में से तकरीबन 60 जिलों में अपना जिला पंचायत अध्यक्ष बनवाया जाए और इसके लिए बीजेपी हर पैंतरा अपना रही है। पार्टी ने निर्दलीयों को साथ जोड़ने के नाम पर कानूनी शिकंजा या अन्य तरह का दबाव बनाना शुरू कर दिया है और कहीं कहीं पार्टी ऐसे लोगों को उम्मीदवार बना रही है जिन्हें कुछ समय पहले अनुशासनहीनता/गुंडागर्दी के चलते पार्टी से निष्कासित कर दिया था।


आज 26 जून को यानी शनिवार को जिला अध्यक्ष पद के लिए नामांकन होना है।यह नामांकन दोपहर 3 बजे तक होगा ऐसे में सरकार के मंत्री अपने-अपने क्षेत्र में नामांकन के दौरान मौजूद रहेंगे और उम्मीदवारों का हौसला बढ़ाएंगे और विपक्षियों पर.......।  बीजेपी के उम्मीदवार को जिला पंचायत अध्यक्ष कैसे बनाया जाए इस रणनीति पर भी पार्टी पदाधिकारियों और स्थानीय प्रशासन से बात चल रही है।


दरअसल, बीएल संतोष जब 2 दिन लखनऊ में थे तब भी पंचायत चुनाव को लेकर चर्चा हुई थी और तब मंत्रियों को अपने-अपने जिलों में जिला अध्यक्ष बनवाने की जिम्मेदारी सौंपी गई थी। उसके बाद यह तय हुआ कि नामांकन के दौरान भी मंत्री वहां मौजूद रहेंगे। दरअसल, ऐसा माना जा रहा है कि जब पंचायत के चुनाव हुए तब कोरोना की दूसरी लहर की वजह से सरकार के मंत्री पार्टी के उम्मीदवारों के पक्ष में प्रचार के लिए नहीं उतर पाए थे जिसका खामियाजा बीजेपी को भुगतना पड़ा और नतीजे उसके अनुकूल नहीं रहे। इससे सबक लेते हुए इस बार मंत्रियों को ही मैदान में उतार दिया है। ज्यादातर मंत्री कल नामांकन के दिन प्रत्याशियों के नामांकन में शामिल होंगे।


हालांकि कोविड के चलते नामांकन जुलूस पर तो सभी जगहों पर रोक है लेकिन कोविड प्रोटोकॉल को फॉलो करते हुए नामांकन किया जाएगा। 27 जून को सरकार के सभी मंत्री पूरे प्रदेश में तीसरी लहर के मद्देनजर बच्चों को जो मेडिसिन किट उपलब्ध कराई गई है उसका वितरण भी अपने-अपने क्षेत्रों में करेंगे और इसके बाद मंत्रियों का ब्लॉक स्तर पर दौरा भी होना है यानी 2022 के विधानसभा चुनाव से पहले अब बचे हुए 8 महीनों में सरकार के मंत्री आपको लखनऊ में कम और अपने विधानसभा क्षेतत्रों में, प्रभार वाले जिले में और ब्लॉक में प्रवास करते ज्यादा नजर आएंगे।क्योंकि आंतरिक कलह की वजह से यूपी का विधानसभा चुनाव बीजेपी के लिए राजनैतिक रूप से जीवन-मरण का विषय बन चुका है


बीजेपी ने इस बार उम्मीदवारों के नाम घोषित करने में भी अपनी रणनीति में बदलाव किया. दरअसल, पहले 3050 जिला पंचायत वार्ड के सदस्यों के नाम की घोषणा लखनऊ मुख्यालय से की गई लेकिन नतीजे पक्ष में नहीं आये. उसके बाद यह तय किया गया कि जिला पंचायत अध्यक्ष पद के उम्मीदवारों के नाम की घोषणा जिला स्तर पर ही की जाएगी. इसके पीछे मंशा यह थी कि किसी नाम पर अगर बवाल हो तो उससे सीधे-सीधे आलाकमान पर सवाल ना उठे, लेकिन इतनी सावधानी बरतने के बाद और कई स्तर पर स्क्रीनिंग करने के बावजूद  उन्नाव में पार्टी को दोबारा बैकफुट पर आना पड़ा।


एक तरफ बीजेपी की तैयारी ज्यादातर सीटों पर कब्जा करने की है तो दूसरी तरफ इस चुनाव को विधानसभा चुनाव का सेमीफाइनल मानकर समाजवादी पार्टी भी इस चुनाव में जोर-शोर से अपनी ताल ठोक रही है। हालांकि, लगातार समाजवादी पार्टी इस चुनाव में शासन सत्ता के दुरुपयोग का भी आरोप लगा रही है। लेकिन बीजेपी भी समाजवादी पार्टी को 2015 की याद दिला रही है। अब इंतजार आज यानी 26 जून और 3 जुलाई का है जब पंचायत चुनाव में जिला पंचायत अध्यक्ष पद के लिए नामांकन हर वोट डाले जाएंगे और नतीजे भी उसी दिन घोषित हो जाएंगे।जो खबरें मिल रही हैं उससे ज़ाहिर होता है कि बीजेपी सरकार ने विपक्षियों पर नामांकन प्रक्रिया से पहले ही कानूनी शिकंजा कसना शुरू कर दिया है। क्योंकि मोदी के नेतृत्व में बीजेपी के लिए लोकतंत्र का मतलब मात्र चुनाव जीतना ही शगल बन चुका है। यह सर्वविदित है कि इस तरह के चुनावों में सत्ता का हमेशा दखल रहा है।लेकिन विपक्ष के सदस्यों को थोक भाव मे बिना किसी अपराध के हिरासत में लेने के पीछे की मंशा बहुत कुछ बयां करती है जिसका खुलासा आज के नामांकन दाखिल होने और मतदान की तारीख को हो जाएगा।

पता-लखीमपुर खीरी उ०प्र०

Friday, June 25, 2021

एक लोकतंत्रवादी अखबार की मौत पर दो आंसू-अजय बोकिल

  राजनैतिक चर्चा  
अजय बोकिल
किसी अखबार की मौत पर विदाई हो तो ऐसी, जैसी कि हांगकांग के ‍अखबार ‘एप्पल डेली’ को उसके चाहने वालों ने दी। इस अखबार की रोजाना 80 हजार प्रतियां छपती थीं, लेकिन समाचार पत्र का आखिरी अंक खरीदने सुबह से लोग टूट पड़े और देखते ही देखते उसकी 10 लाख प्रतियां बिक र्गईं। लोकतंत्र की खातिर ‘शहीद’ होने वाले इस अखबार की अंतिम प्रति को सहेजे रखने शहर की सड़कों पर भीड़ उमड़ पड़ी। उन्होंने अखबार के समर्थन में अपने मोबाइल की फ्लैश लाइटें चमकाईं। क्योंकि यह अखबार कोविड, आर्थिक संकट या किसी काले धंधे के कारण बंद नहीं हुआ था, बल्कि देश में लोकतंत्र कायमी की लड़ाई लड़ते और सरकार की प्रताड़ना झेलते हुए ‘वीरमरण’ को प्राप्त हुआ था। अखबार के संचालकों ने 24 जून को अपने ग्राहकों, विज्ञापनदाताओं को अपने आखिरी मेल में उनके सहयोग के लिए धन्यवाद देते हुए ‘शोक सूचना’ दी कि अब अखबार का प्रिंट और डिजीटल एडीशन उन्हें नहीं ‍मिल पाएगा। अखबार के अंतिम अंक में एक तस्वीर प्रकाशित की गई, जिसमें ‘एप्पल डेली’ के कर्मचारी इमारत के आसपास बारिश के बावजूद एकत्रित हुए समर्थकों का कार्यालय से हाथ हिलाकर अभिवादन कर रहे हैं। इसे शीर्षक दिया गया- श्हांगकांग वासियों ने बारिश में दुखद विदाई दी, हम एप्पल डेली का समर्थन करते हैं।

एक लोकतंत्रवादी अखबार की इस तरह मौत पर शायद ही कोई वामपंथी आंसू बहाना चाहे, क्योंकि जो चीनी कम्युनिस्ट सरकार की प्रताड़ना का ‍िशकार हुआ और शायद ही कोई वामपंथी इस पर लिखना चाहे और शायद कोई दक्षिणपंथी इस पर आंसू बहाना चाहे, क्योंकि मीडिया को लेकर उसकी आंतरिक भावना भी इससे बहुत अलग नहीं है। फर्क केवल दमन के तरीकों और जुमलों का है। चाहत मीडिया को ‘कोल्हू का बैल’ बनाने की ही है क्योंकि कई खामियों के बावजूद प्रेस लोकतंत्र का सबसे बड़ा झंडाबरदार रहा है। 

दुर्योग देखिए कि कल ही मैंने अपने इस स्तम्भ में भारत सहित पूरी दुनिया में प्रिंट मीडिया की चलाचली की बेला की चर्चा की थी और दूसरे ही ‍िदन हांगकांग के प्रमुख और दमदार अखबार का सरकारी ठोकशाही के चलते उठावना हो गया। कहा जा सकता है कि यह मामला हांगकांग का है, जहां लोग बीते 24 सालो से देश में लोकतंत्र को बचाए रखने के लिए लंबी लड़ाई लड़ रहे हैं, उसका भारत से क्या सीधा सम्बन्ध है? यकीनन सीधा सम्बन्ध नहीं है, लेकिन सत्ता की मानसिकता में बहुत फर्क नहीं है। मकसद वही है, किसी न ‍िकसी रूप में अभिव्यक्ति पर नकेल डालना और इसे जायज ठहराने के लिए अपने हिसाब से जुमले और तर्क गढ़ना। यह भी संयोग है कि हमारे देश में आपातकाल लगाने की आज 45 वीं बरसी पर मीडिया या तो दम तोड़ रहा है या फिर ‘बैंड पार्टी’ में तब्दील हो रहा है। वही आपातकाल, जिसे अभिव्यक्ति की आजादी और लोकतंत्र का काल माना गया और जिसकी समाप्ति को लोकतं‍त्र की जीत के रूप में पारिभाषित किया गया। तब भी प्रेस का एक बड़ा वर्ग सत्ता के आगे दंडवत कर रहा था। लेकिन उस अंधेरे में भी कुछ दीए बोलने की आजादी और लोकतंत्र की मशाल बाले हुए थे। उन्हीं दीयों को आज हम पत्रकारिता के प्रकाश स्तम्भ मानकर नमन करते हैं, आदर्श मानते हैं।
 
‘एप्पल डेली’की कहानी भी कुछ ऐसी ही है। एप्पल डेली का प्रकाशन 20 जून 1995 को एक कपड़ा व्यापारी जिमी लाई ने टैबलायड अखबार के रूप में शुरू किया था। पहले यह पत्रिका के रूप में ‍निकलता था। ‘एप्पल’ नाम इसे जान बूझ कर दिया गया था, क्योंकि आदम और हौव्वा की कहानी में इसे एक वर्जित फल माना गया है। शुरू में इस पत्रक की प्रसार संख्या बढ़ाने के लिए सभी तरीके अपनाए गए। लेकिन इस अखबार को सही पहचान तब मिली, जब 2015 में चान पुई मान इसकी पहली महिला प्रधान संपादक बनीं। उन्होंने इसे मानवाधिकार और लोकतंत्र की लड़ाई लड़ने वाले अखबार में तब्दील कर ‍िदया। मानव‍ाधिकार और लोकतं‍त्र ऐेसे शब्द हैं, जिसे चीनी सत्ता को सबसे ज्यादा चिढ़ रही है। अखबार ने अपने डिजीटल एडीशन के साथ हांगकांग में लोकतंत्र कायमी के लिए जारी संघर्ष का खुला समर्थन दिया। लोकतंत्र समर्थक प्रदर्शनों, सरकार के प्रति लोगों के असंतोष और राजनीतिक गतिविधियों को भरपूर कवरेज दिया, जो सरकार की निगाहें टेढ़ी होने के लिए काफी था। सरकार के दबाव में बहुत से बड़े विज्ञापनदाताओ ने ‘एप्पल डेली’ को विज्ञापन देने से हाथ खींच लिए। चीन समर्थित हांगकांग प्रशासन और पुलिस ने पिछले साल ‘राष्ट्रीय सुरक्षा कानून’ की आड़ में अखबार के दफ्तटर पर छापा मारा। यह कानून हांगकांग में पिछले साल ही लागू किया गया है। छापे के बाद अखबार के खाते सील कर ‍िदए। 23 लाख डालर की सम्पत्ति जब्त कर ली गई। अखबार के संपादक रेयान लाॅ सहित पांच शीर्ष संपादकों और सीईओ चेंउंग किम हंग को गिरफ्तांर कर लिया गया। अखबार ने उसके खिलाफ की गई सरकारी कार्रवाइयों की भी पूरी ताकत से रिपोर्टिंग की। छापे के दूसरे दिन के अंक में अखबार की हेड लाइन थी-‘ एप्पल डेली लड़ता रहेगा।‘ इस बात को जनता तक इसे डिजीटल माध्यम से पहुंचाया गया। गौरतलब है कि सरकारी दमन के चलते अखबार के सामने विकल्प था कि वह संघर्ष की अपनी टेक छोड़कर सरकार की भजन मंडली में शामिल हो जाता। लेकिन ‘ऐप्पल डेली’ ने ऐसा करने की बजाए प्रकाशन बंद करने का ‍िनर्णय लिया। इन भावुक क्षणों में एप्पल डेली के ग्राफिक डिजाइनर डिकसन ने कहा, श्श्यह हमारा आखिरी दिन और आखिरी संस्करण है, क्या यह सच्चाई दिखाता है कि हांगकांग ने अपनी प्रेस की आजादी और अभिव्यक्ति की आजादी को खोना शुरू कर दिया है ? इससे अखबार के पाठकों और प्रशंसकों में उसकी इज्जत और बढ़ गई। जबकि चीनी सरकार की मीडिया का गला घोंटने की कार्रवाई की पूरी दुनिया में कड़ी आलोचना हुई। हाल में 17 जून को हांगकांग पुलिस ने एप्पल डेली के मुख्यालय पर फिर छापा मारा तथा कई लोगो को गिरफ्तार किया। अखबार पर आरोप लगाया गया कि वो विदेशी शक्तियो से मिलकर राष्ट्रीय सुरक्षा को खतरे में डाल रहा है। खास बात है कि पिछले साल अमेरिकी राष्ट्पति के चुनाव में एप्पल डेली ने ट्रंप का समर्थन किया था, जो चीनी सरकार को नागवार गुजरा था। 

हांगकांग में लोकतं त्र की विरासत इसके ब्रिटिश उपनिवेश होने के जमाने से है। ब्रिटेन ने हांगकांग को चीन के राजा से लीज पर लिया था और एक प्रमुख व्यापारिक बंदरगाह के रूप में विकसित किया। सौ साल बाद इसे चीन ने वापस मांगा, क्योंकि चीन की वैश्विक हैसियत बदल गई थी। ब्रिटेन ने हांगकांग को चीन इस शर्त पर लौटाया था कि चीन का हिस्सा बनने के बाद भी वहां पूंजीवादी व्यवस्था, पुरानी परंपराओं और लोकतंत्र को कायम रखा जाएगा। और अखबार इस लोकतंत्रवादी विचार के प्रमुख संवाहक हैं। लेकिन चीनी नेतृत्व इस लोकतंत्र में भी अपने लिए खतरा देखता है। इसलिए उसका गला घोंटने की पूरी कोशिश की जा रही है। 

एक बात और। हमारे यहां सोशल मीडिया की भूमिका जैसी भी हो, लेकिन हांगकांग में उसने लोकतं‍त्र के हक में दमदार भूमिका निभाई है। 75 लाख की आबादी वाले इस छोटे से देश में लोकतंत्र बचाओ प्रदर्शनों तथा लोकतंत्रवादियों को एकजुट करने और लोकतंत्र के पक्ष में जनमत बनाने में सोशल मीडिया ने संघर्ष के टूल का काम किया है। इसका महत्व इसलिए भी है कि हांगकांग में पिछले दिनो हुए लोकतंत्र समर्थक प्रदर्शनों में शामिल होने वाले ज्यादातर अनाम लोग थे। बल्कि उनमें से बहुत से लोग सरकारी दमन से बचने के लिए अपनी पहचान छुपाकर लोकतंत्र बचाने के लिए लड़ रहे थे। इसके बावजूद कई लोगों को गिरफ्ता रियां हुईें। इस लोकतंत्रवादी आंदोलन का प्रतीक चिन्ह एक ‘पीली छत्री’ को बनाया गया। इसकी शुरूआत 2014 में ‘छत्री आंदोलन’ के रूप में हुई थी।  

हांगकांग में प्रेस की स्वतंत्रता को कानूनी संरक्षण मिला हुआ है। लेकिन चीनी सरकार धीरे-धीरे प्रेस पर ‍शिकंजा कसती जा रही है। इसका एक कारण यह भी है कि चीन में छुपाई जाने वाली बहुत जानकारियां हांगकांग के मीडिया में आकर पूरी दुनिया को पता चल जाती हैं। बहुत सी किताबें और अन्य सामग्री जो साम्यवादी चीन में प्रतिबंधित है, हांगकांग में प्रकाशित हो जाती है। जैसे कि चीनी कम्युनिस्ट नेता जाओ ‍िजयांग के संस्मरण, जिन्हें 1989 में पद से इस्तीफा देना पड़ा था।

बहरहाल, लोकतंत्र की इस अनथक लड़ाई में ‘एप्पल डेली’ ने अपनी आहुति दे दी है। इस अखबार ने मूल्यनिष्ठ पत्रकारिता क्या होती है और उसका क्या मूल्य चुकाना पड़ता है, इसका आदर्श प्रस्तुत‍ किया है। इसी के साथ एक सवाल यह भी कि क्या आज हमारे देश में कोई अखबार मूल्यों के लिए ऐसी आहुति देगा? और देगा तो कितने लोग उसके पक्ष में सड़कों पर उतरेंगे ? कितने लोग उस पत्र के लिए आंसू बहाएंगे? आखिर हांगकांग वासियों की लोकतंत्र की लड़ाई और लोकतं‍त्र के प्रति हमारी प्रतिबद्धता में गुणात्मक फर्क क्या है? जरा सोचें। और उस अखबार के अवसान पर पत्रका‍रीय श्रद्धांजलि तो बनती ही है। 
(लेखक दैनिक सुबह सवेरे के वरिष्ठ संपादक हैं) 

Thursday, June 24, 2021

सिमटते अखबार और सोशल मीडिया में ‘सूचनाओ का लंगर’-अजय बोकिल

अजय बोकिल

कोरोना की पहली लहर ने अखबारों को एनीमिक बनाया तो दूसरी लहर ने उनकी बची खुची कमर भी तोड़ दी है। बावजूद अपनी बेहतर विश्वसनीयता के अखबार एक-एक कर बंद होते जा रहे हैं। उनमें काम करने वाले मीडियाकर्मी भी सड़क पर आते जा रहे हैं। वो खुद अपनी आवाज उठाने के लायक भी नहीं रहे हैं, क्योंकि मीडिया अब खेमों में इतना विभाजित हो चुका है कि अपनों की मौत भी उसे ज्यादा विचलित नहीं करती। नौकरियां गंवाने के साथ बीते सवा साल में कोरोना से करीब 500 पत्रकारों ने अपनी जानें गंवा दी हैं। दूसरी तरफ सोशल मीडिया में अखबार अब पीडीएफ के रूप में जिंदा रहने की कोशिश में हैं। यह अखबारों का वामनावतार है। इस बात पर तो चर्चा बहुत होती है कि मीडिया को क्या छापनाध्दिखाना चाहिए, क्या नहीं छापनाध्दिखाना चाहिए, लेकिन मीडिया और मीडिया के अपने हालात क्या हैं, इस पर तो खुद मीडिया वाले भी चर्चा से बचते हैं।

कोविड-1 के समय मीडिया डेंजर जोन में चला गया था, अब कोविड-2 में मीडिया में दो तरह के बदलाव नमूदार हुए और हो रहे हैं। पहला तो जनता की आवाजसमझे जाते रहे ज्यादातर अखबार अब अपने वजूद की संध्या छाया से जूझ रहे हैं। इस देश में अखबारों 240 साल की महान परंपरा मिटने की कगार पर है। वो पत्रकारिता, जिसने तमाम खामियों के बावजूद आजादी के आंदोलन से लेकर स्वतं‍त्र भारत में भी कई दूसरे आंदोलन और समाज सुधार के अभियान चलाए, भंडा फोड़ किए अब खुद पाठकों को तलाश रही है। आश्चर्य नहीं कि दो दशक बाद आने वाली नस्ल अखबार की दुनिया को इतिहास के एक अध्याय के रूप में पढ़े। बड़े अखबारों का आकार सिमट रहा है, तो ज्यादातर छोटे अखबार छपना बंद होकर डिजीटल एडीशन पर चले गए हैं। दूसरी तरफ सोशल मीडिया में अखबारों का पीडीएफ और खबरों का लिंक कल्चर तेजी से उभर रहा है। अपनी खबर पढ़वाने के लिए भी हाथ-पैर जोड़ना पड़ रहे हैं कि मेहरबानी कर फलां लिंक को खोलें, लाइक या कमेंट करें। यानी आप का एक लाइक अथवा कमेंट किसी खबर नवीस के लिए जिंदगी की खुराक हो सकता है।

यहां तर्क दिया जा सकता है ‍कि परिवर्तन प्रकृति का नियम है, इससे मीडिया अपवाद कैसे हो सकता है? अखबारों ने अपनी जिंदगी जी ली, जी भर कर खेल लिया। अब बदले वक्त में इंटरनेट ने सब कुछ बदल कर रख दिया है। मिलेनियल पीढ़ी नेट को ही भगवान मानती है। हाथ में अखबार लेकर पढ़ना, उसके स्पर्श से रोमांचित होना, उसे सुबह की चाय का अनिवार्य साथी समझना, बिना अखबार के दिन सूना-सूना महसूस करना, यह सब 20 सदी के एहसास हैं। या यूं कहें कि यह विचार और सूचना की भूख कम, आदत की लाचारी ज्यादा है। अब जब सूचना के तमाम साधन मौजूद हैं, तब अखबार की जरूरत ही क्या है ? मोबाइल पर हर सूचना हर क्षण मौजूद है।

मुझे याद है कि 2011 में एक प्रतिष्ठित पत्र में लेख छपा था कि भारत में प्रिंट उद्योग के इतने अच्छे दिनक्यों चल रहे हैं, जब कि बाकी दुनिया में इंटरनेट धीरे-धीरे अखबारों को लील रहा है। ये वो दिन थे, जब अखबारों में नए-नए संस्करण निकालने की होड़ सी मची थी। हमारे इतने संस्करणयह गर्व के साथ कहा जाता था। अब यही बात दबी जबान से भी करने को लोग तैयार नहीं है। नोटबंदी के बाद दूसरा बड़ा झटका कोविड ने पिछले साल दिया, जब लोगों ने बड़ी तादाद में संक्रमण के डर के मारे अखबार बंद कर दिए। विज्ञापन राजस्व 67 फीसदी तक घट गया। हजारों पत्रकारों और मीडिया ‍कर्मियों की नौकरियां चली गईं। अखबार में काम करना दुरूस्वप्न बन गया। कुछ ऐसी ही हालत इलेक्ट्राॅनिक मीडिया की भी है। मीडिया जगत ने सरकार से बेलआउट पैकेज भी मांगा। लेकिन सरकार के लिए दूसरी चिन्ताएं ज्यादा महत्वपूर्ण थीं और जागरूक मीडिया कोई भी सरकार नहीं चाहती। बीते सवा साल में कितने अखबार या चैनल बंद हुए अथवा वेंटीलेटर पर जिंदा हैं, इसका कोई निश्चित आंकड़ा उपलब्ध नहीं है, लेकिन यह सैकड़ों में है। अखबार बंद होने से बेरोजगार हुए अनेक पत्रकार अब डिजीटल मीडिया या दूसरे नए मीडिया में अपना भविष्य तलाश रहे हैं। कई पत्रकार खुद प्रकाशक बन गए हैं। हालांकि वहां भी अपनी पहचान बनाने और पहचान बचाने की मारा-मारी है। इस बीच कई नवाचार भी देखने को मिल रहे हैं। मसलन नई न्यूज साइट्स, फैक्ट चैक पत्रकारिता, डाटा विश्लेषण पत्रकारिता, सनसनीखेज बहसें आदि। इनमें से कई तो लोगों से चंदा करके अपने वेंचर चला रहे हैं। हर खबर को मसालेदार बनाने का चलन आम होता जा रहा है। उधर यू ट्यूब आदि पर तो ऐसे पत्रकारों का सैलाब-सा आया हुआ है और मौलिकता दांव पर लगी हुई है। सोशल मीडिया में जो दिखाया, बताया जा रहा है, वो कितना सही, कितना गलत है, कितना ज्ञान और कितना एजेंडा है, समझना मुश्किल है।

दूसरी तरफ देश में छपने वाले अखबारों की संख्या सिकुड़ने से सोशल मीडिया और खासकर व्हाॅट्स एप पर हम एक नया पीडीएफ कल्चरपनपते देख रहे हैं। अपने ग्रुप में यथाशीघ्र जमाने भर के अखबारों की पीडीएफ उपलब्ध कराना भी अब एक नई समाज सेवाहै। यह बात अलग है कि इन्हें मुहैया कराने वाले ज्यादातर पीडीएफ सेवकों और पीडीएफ पाठकों को भी पीडीएफका फुल फार्म ( पोर्टेबल डाॅक्युमेंट फार्मेट ) और अर्थ भी शायद ही मालूम होता हो। लोग इतना ही जानते हैं कि व्हाट्स एप पर झलकने वाला अखबार ही पीडीएफ है। आंखों पर जोर डालने वाले ये आॅन लाइन ‍अखबार कितनी गंभीरता से पढ़े जाते हैं, कहना मुश्किल है। अलबत्ता लेकिन किसी खास लेख या खबर को पढ़वाने के लिए भी लेखक या रिपोर्टर को पूरा दम लगाना पड़ता है। यानी समग्रता में अखबार पढ़ना और उस पर मनन का युग भी समाप्ति की ओर है। यह पीडीएफ पत्रकारिता भी बच्चों को रात में तारे दिखाने जैसी है। लेकिन इससे इतना फायदा जरूर हुआ है कि वो तमाम अखबार, जिनके शीर्षक भी आपके लिए मनोरंजन का कारण हो सकते हैं, खूब आॅन लाइन हो रहे हैं।

इसी के साथ एक नई डिजीटल पत्रकारिता संस्कृति भी फल-फूल रही है। गुजरे जमाने में लोग अखबार मांग कर पढ़ते थे, अब डिजीटल में अपनी खबर या लेख लोगों को पढ़वाने गुहार करती पड़ती है। एक ही खबर या सूचना पचासों ग्रुपों में अलग-अलग लिंक के रूप में पोस्ट होती रहती है। हर लिंक आप से लाइक और कमेंट मांगती है ताकि उसके हिट्स बढ़ें। कुलमिलाकर माहौल किसी धार्मिक स्थल पर जमे भिक्षुओं की माफिक होता है। यानी एक लाइकया एक हिटका सवाल है बाबा ! इस लिंक सैलाबके चलते डिजीटल मीडिया में विविधता का भारी का अकाल है। मौलिकता का घोर टोटा है। संपादन की कंगाली है। ऊपर से एक ग्रुप से बचो तो वही खबर दूसरे ग्रुप में लिंक के रूप में आपको चुनौती देती लगती है। संतोष की बात केवल इतनी है कि आप सोशल मीडिया पर जो चाहो, जैसा चाहो, कह सकते हैं, पोस्ट और फारवर्ड कर सकते हैं। क्योंकि किसी के पास सोचने, समझने और मेहनत के साथ उसे अभिव्यक्त करने का न तो वक्त है और न ही ऐसी कोई इच्छा है। दरअसल सोशल मीडिया खबरों का लंगरहै। जिसको जो मिले, जैसा बने, परोसता रहता है। लोग भी उसे पूरा पढ़े या समझे बगैर फारवर्ड करते रहते हैं। यानी यहां उद्देश्य सूचना की जिज्ञासा के शमन से ज्यादा उसकी चिंगारी सुलगाते रहना होता है। सोशल मीडिया के गुलाम हो चुके, लोगों की मजबूरी यह है कि उन्हें भी हर पल कुछ नया चाहिए। वो सही है या गलत है, इससे किसी को कोई खास मतलब नहीं होता।

सोशल मीडिया की यह अराजकताभी अब एक बड़ी ताकत बन चुकी है, जो सत्ताओं को भी हिला देती है। भविष्य का मीडिया यही है। अखबार चाटकर उससे दिमागी भूख मिटाने का दौर खत्म हुआ समझो। सोशल मीडिया पर हर पल आने और फारवर्ड होने वाली सूचनाएं चैंकाने, भड़काने या फिर डराने वाली ज्यादा होती है। इन पर अविश्वास के साथ विश्वास करते जाने का एक नया सामाजिक संस्कार हिलोरें ले रहा है। ऐसा संस्कार जिसकी कोई जवाबदेही नहीं है। हालांकि सरकार सोशल मीडिया पर कानूनी नकेल डालने की कोशिश कर रही है, लेकिन वह बहुत ज्यादा कामयाब नहीं होगी ( उससे राजनीतिक प्रतिशोध का मकसद भले पूरा हो जाए)। क्योंकि यह मूलतरू बिगडैल या स्वच्छंद सांड का बस्ती में घूमना है। लोग उससे डरते भी हैं, साथ में उसे देखते और छेड़ते भी हैं।

किसी ने कहा था कि ये दुनिया अब कोविड पूर्वऔर कोविड पश्चातमें विभक्त हो जाएगी। अखबारों की थमती सांसें, मीडियाकर्मियों की बेकारी-लाचारी और सोशल मीडिया की बेखौफ लंगोट घुमाने की अदा यही साबित करती है कि तकनीक के साथ सूचनाओं की बमबारी और बढ़ेगी। लोग उससे घायल भी होंगे। लेकिन सूचनाओं की विश्वसनीयता वेंटीलेटर पर पड़ी दिखेगी। इसका आगाज हो चुका है। 

वरिष्ठ संपादक दैनिक सुबह सवेरे मध्य प्रदेश

पढ़िये आज की रचना

चर्चा में झूठी-सुरेश सौरभ

(फिल्म समीक्षा)      एक मां के लिए उसका बेटा चाहे जैसा हो वह राजा बेटा ही होता है, बच्चे कच्ची मिट्टी की तरह होते हैं, जिन्हें हम अपने विचार...

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