साहित्य

  • जन की बात न दबेगी, न छिपेगी, अब छपेगी, लोकतंत्र के सच्चे सिपाही बनिए अपने लिए नहीं, अपने आने वाले कल के लिए, आपका अपना भविष्य जहाँ गर्व से कह सके आप थे तो हम हैं।
  • लखीमपुर-खीरी उ०प्र०

Saturday, January 06, 2024

देह व्यापार की गुलाबी गलियां-सत्य प्रकाश 'शिक्षक'

(पुस्तक चर्चा)
समीक्षक-सत्य प्रकाश 'शिक्षक'
लखीमपुर-खीरी उत्तर प्रदेश
नारी विमर्श पर केंद्रित 'गुलाबी गलियां' कृति में संकलित लघुकथाएं  साहित्य के अभिजन वर्ग द्वारा वर्जित विषयों पर तन्मयता के साथ अंकित की गई हैं। इन लघुकथाओं  में समाज की सच्चाई का बोध कराने का स्तुत्य प्रयास किया गया है। कहीं जीवन के स्याहपक्ष को सहजता से स्वीकार किया गया है, तो कहीं जीवन के अनकहे, अनछुये पहलुओं के यथार्थ कटु चित्रों को प्रस्तुत किया है। दूरवर्ती लेखकों से संपर्क करके उनकी रचनाओं का संकलन-परिमार्जन एक दुरूह कार्य है जिसे संपादक ने अपने तन, मन-धन से कुशलता पूर्वक संपन्न किया है। संकलन में  दायित्वबोध के क्रम में सच्ची लघु, कथाएं ग्रीष्म की  तपन के साथ चांदनी शीतल छांव भी प्रदान करतीं हैं जिनसे पाठक अपने अंर्तमन में झांककर देख सकता है कि‌ सभ्यता के विकास क्रम में वे अग्रसर हो रहे हैं या समाज के साथ पतनोन्मुख हो रहे हैं। चर्चित लघुकथाकार सुरेश सौरभ जी ने प्रस्तुत संग्रह की अपनी भूमिका में सही कहा है कि कभी छल से या कभी बल से नारी अनादि काल से शोषित रही है । प्रस्तुत संकलन वेश्याओं के जीवन संघर्ष, को पढ़ते हुए आत्मसात करने वाले किसी भी पाठक के मन में संवेदना जगाने में पूर्ण सक्षम है। प्रसिद्ध साहित्यकार संजीव जायसवाल 'संजय व उदीयमान युवा साहित्यकार देवेंद्र कश्यप "निडर'' जी ने संग्रह पर अपनी अमूल्य टिप्पणियां लिख कर किताब को कालजयी बना दिया है। इससे पहले सुरेश जी की इस दुनिया में तीसरी दुनिया, तालाबंदी, बेरंग, वर्चुअल रैली, एक कवयित्री की प्रेमकथा, पक्की दोस्ती, निर्भया आदि रचनाएँ अपार ख्याति पा चुकीं हैं। इनकी रचनाएँ गरीबों किसानों महिलाओं एवं मध्यम वर्ग की संवेदनाओं भावनाओं के इर्द-गिर्द विचरण करती रहती हैं। गुलाबी गलियां साझा संग्रह में देशभर के 63 लघुकथाकारों को संकलित किया है। बधाई सौरभ जी। 

पुस्तक- गुलाबी गलियां
संपादक-सुरेश सौरभ
प्रकाशन- श्वेत वर्णा प्रकाशन नई दिल्ली
मूल्य-249 (हार्ड बाउंड) 

Friday, November 17, 2023

करो कम ,फैलाओ ज्यादा-सुरेश सौरभ

(हास्य-व्यंग्य) 
  सुरेश सौरभ
निर्मल नगर लखीमपुर-खीरी
उत्तर प्रदेश पिन-262701
मो-7376236066


   पुराने दिनों बात है। उन दिनों 'कर्म ही पूजा है’ के सिद्धांत को मजबूती से अपनी गांठ में बांधकर बड़ी कर्मठता, ईमानदारी से, मैं अपना कार्य किया करता था। लेकिन फिर भी लोगों की मेरे प्रति, यह गलत धारणाएँ बनी हुईं थीं कि मैं अपने कर्म के प्रति उदासीन रहता  हूं, हीलाहवाली करता हूं, ऐसी रोज अनेक मेरी शिकायतें बॉस से हुआ करती थीं। आए दिन बॉस की डांट मुझ पर पड़तीं रहती थी। मैं बहुत परेशान रहता था। क्षुब्ध रहता था। 
  घर में पत्नी बच्चों की किचकिच से बचकर जब ऑफिस आओ, तो बेवजह बॉस की झांड़ सुनो, मेरी जिंदगी किसी बड़ी पार्टी से निकाले गये, उस नेता जैसी हो गई थी, जिसे लाख कोशिशों के बाद भी उसे कोई मंजिल न मिल रही हो,कोई सही ठौर-ठिकाना न मिल रहा हो, कोई  पुरसाहाल न हो। क्या करूँ ? क्या न करूँ ? मेरी दशा चिड़ियाघर में कैद बेचारे निरीह निरुपाय जीव जैसी हो गई थी। हमेशा सोचता रहता था, कैसे अपनी जहन्नुम हो चुकी जिंदगी को जन्नत बनाऊं।
     फिर एक दिन अचानक परमात्मा की मुझ पर असीम कृपा हुई। हर समस्या का समाधान चुटकियों में हल करने वाले, एक संत जी सोशल मीडिया के दरवाजे पर दिखे, उनसे फोन पर रो-गाकर अपनी सारी व्यथा बताई ,तब उन्होंने मिलने के लिए, परामर्श से समाधान के लिए, अपनी ऑनलाइन फीस बताई। मैंने तुरत-फुरत उनकी फीस जमा कर दी। उनसे मिलने का ऑपाइंटमेंट लिया। फिर ढेर सारे फल, मेवा, मिष्ठान आदि लेकर, नियत स्थान, नियत तिथि, नियत समय, संत जी के आश्रम पहुंच गया। संत जी उर्फ बाबा जी ने मुझे अपने एकांत केबिन बुलवाया। मेरी समस्या ध्यान से सुनी। फिर मुझे खूब समझाया। काउंसिलिंग की। फिर मुझे परमार्थ करने के अनेक पुण्य बताते हुए, मेरे कान में कुछ मंत्र फूंकें। जिन्हें अपने तक ही सीमित रखने का आदेश दिया। मैं उनके बताए नेक मार्ग पर चलने लगा। फिर मुझे संत जी के मंत्रों और टोटकों से बहुत लाभ होने लगा। घर से लेकर ऑफिस तक, अपनी फुल बॉडी के अंदर से लेकर बाहर तक, मुझे गुड फील होने लगा। जिंदगी मंगलमय आनंदमय में बीतने लगी। अगर अन्य लोगों से संत जी के मंत्रों की चर्चा करूंगा, तो उन मंत्रों का असर मेरे जीवन से जाता रहेगा। लिहाजा फिर भी मेरा मन नहीं मान रहा है। अपने दिल पर बड़ा सा पत्थर रखकर, एक मंत्र मैं आप से शेअर किए ले रहा हूँ। ...काम करो कम फैलाओ ज्यादा, जी हां इसके आगे और न बताऊंगा। यूँ समझो बॉस की चापलूसी करते हुए ...करो कम फैलाओ ज्यादा तथा संत जी के अन्य टोटकों से अपना जीवन सुखमय और शांतिपूर्वक बीता रहा हूँ। खुशी और मस्ती से राग मल्हार गाते हुए अब अपने दिन सोने जैसे सुनहरे, रातें चांदी जैसी, चांदनी जैसी चम-चम चमकाने लगी हैं।

ग़ज़ल- नन्दी लाल निराश

गजल
नन्दी लाल निराश
गोला गोकर्ण नाथ (खीरी)


 बाजरे के खेत से     बाहर निकलने का समय।
 आ गया है अब चिड़ी के घर बदलने का समय।।

 कुछ दिखाई दी नई  उम्मीद की चढ़ती किरण,
 जो लगा उनको तुम्हारे साथ चलने का समय।।

 गर्दिशी में दिन गुजारे हैं     कई सालों से अब,
 बीत आया बैठ खाली  हाथ मलने का समय।।

 चेतना के स्वर जहन में    यार के मुखरित हुए ,
 मिल गया सरकार से जो फिर सँभलने का समय।।

 गर्म जोशी से हवाएँ     चल रही मद मस्त अब,
 क्या फिजा में लग रहा पर्वत पिघलने का समय।।

 तेल, बाती, दीप ,झालर    से सजा दीवाल, घर,
 आ गया दीपावली के  दीप   जलने का समय।।

 फिर लगायेंगे हवा में    गाँठ करतब बाज, है
 पूड़ियाँ सुखी कढ़ाई     बीच तलने का समय।।

नीरू की पांडुलिपि हिंदी संस्थान ने की चयनित

साहित्यिकं समाचार

    लखीमपुर उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा अनुदान से पांडुलिपि चयन प्रक्रिया के अन्तर्गत गोला गोकर्णनाथ की युवा कवयित्री नीरजा विष्णु 'नीरू' की पांडुलिपि 'लिखेंगी इतिहास चिरैया' का चयन हुआ है। यह जानकारी संस्थान की संपादक अमिता दूबे ने पत्र द्वारा दी। नीरजा की कविताएँ निरंतर प्रकाशित होती रहती हैं। इनकी मार्मिक कविताएँ सोशल मीडिया पर वायरल भी होती रहीं हैं। कविता वाचन एवं प्रकाशन में नीरू ने साहित्य जगत में विशिष्ट पहचान बनाई है। हिंदी संस्थान से कविता संग्रह की पांडुलिपि चयनित होने के लिए नंदी लाल, द्वारिका प्रसाद रस्तोगी, लघु कथाकार  सुरेश सौरभ, विकास सहाय अखिलेश कुमार अरुण, रमाकांत चौधरी, श्याम किशोर बेचैन ,आदि साहित्यकारों ने नीरजा को बधाई दी है। 
प्रेषक-अंजू

Tuesday, November 07, 2023

लिक्खेगी इतिहास चिरैया-नीरजा विष्णु 'नीरू'

नीरजा विष्णु 'नीरू'
कविता 
नन्हें पंखों से नापेगी 
यह पूरा आकाश चिरैया 
नहीं सुनेगी किसी बाज की 
अब कोई बकवास चिरैया।।

उसको है मालूम घरौंदा 
अपना स्वयं बनाना होगा,
फिर सारे झंझावातों से भी 
खुद   उसे   बचाना  होगा 
सुख-दुःख से आगे जाने का 
कर लेगी अभ्यास चिरैया।

नहीं सुनेगी किसी बाज की 
अब कोई बकवास चिरैया।।

जब दुनिया नफरत बोयेगी 
तब भी वह बस प्यार रचेगी,
नीले अम्बर की फुनगी पर 
सपनों का संसार रचेगी
हारों के भीतर भर देगी 
जीवन का उल्लास चिरैया।

नहीं सुनेगी किसी बाज की 
अब कोई बकवास चिरैया।।

आज भले ही कैद करो तुम 
या फिर उसके पर काटो,
ऊँच-नीच और लिंग भेद का 
कितना ही कचरा पाटो,
जगवालों! इक रोज गगन पर 
लिक्खेगी इतिहास चिरैया ।

नहीं सुनेगी किसी बाज की 
अब कोई बकवास चिरैया।।

जब तक चुप है; तब चुप है,
पर जब शौर्य  दिखाएगी..
हार नहीं मानेगी; जिस दिन 
जिद पर वो आ जाएगी..
बोल उठेगा तिनका-तिनका 
वाह! वाह! शाबाश चिरैया
नन्हें    पंखों    से   नापेगी 
यह  पूरा  आकाश  चिरैया।

नहीं सुनेगी किसी बाज की 
अब कोई बकवास चिरैया।

बुद्ध स्तुति-डॉ० कैलाश नाथ

डॉ० कैलाश नाथ
 (प्राचार्य) 
डॉ० भीमराव अम्बेडकर पी०जी० कॉलेज, 
मुराद नगर (पतरासी) लखीमपुर खीरी। 
मो- 9452107832 



!! बुद्ध स्तुति !!

हे बुद्ध ! हे बुद्ध ! हे बुद्ध ! हे बुद्ध ! 
जैसे जगे आप हमको जगा दो, 
महाज्ञानी हो ही मुझे ज्ञान दे दो ।
एक बार फिर से आ जाओ भगवन्, 
वट छाँव में ज्ञान- सुरसरि बहा दो ।

हे बुद्ध ! हे बुद्ध ! हे बुद्ध ! हे बुद्ध ! 
दुख ही दुख है पूरे जगत में, 
सुधामय वाणी का मंत्र दे दो ।
ज्ञान-ज्योति दिखा दो भटकते मनुज को,
पंचशील का मर्म हमको बता दो।

हे बुद्ध ! हे बुद्ध ! हे बुद्ध ! हे बुद्ध ! 
दुनिया ने जाना सबने है माना,
तथागत के बोल अमृत समाना। 
कला जीवन की जीना सिखाया,
अष्टम् मार्ग क्या है हमें भी बता दो ।

 हे बुद्ध ! हे बुद्ध ! हे बुद्ध !हे बुद्ध ! 
मेरी आज विनती तुमसे यही है,
पड़ी भीर भारी मनुज के है ऊपर । 
विपदा हरौ है व्यथित आज जन-जन, 
कर दो दया राह भटके जनों पर ।

हे बुद्ध ! हे बुद्ध ! हे बुद्ध ! हे बुद्ध !



Tuesday, October 31, 2023

सोशल मीडिया पर नंगे होने की होड़ - रमाकान्त चौधरी


           रमाकान्त चौधरी           
ग्राम -झाऊपुर, लन्दनपुर ग्रंट, 
जनपद लखीमपुर खीरी उप्र।
सम्पर्क -  9415881883

    
    जैसे ही मनुष्य के हाथ में मोबाइल आया तो यूं लगा की सारी दुनिया उसकी मुट्ठी में आ गई। मोबाइल क्रांति ने मनुष्य के जीवन में बहुत बड़ा परिवर्तन कर दिया, जो कार्य करने में काफी लंबा सफर तय करना पड़ता था वही काम कुछ पलों में होने लगा।  सोने पर सुहागा तब हुआ जब सोशल मीडिया ने दस्तक दी , यू ट्यूब, फेसबुक, व्हाट्सएप, ईमेल, ट्विटर, इंस्टाग्राम जैसे दर्जनों प्लेटफार्म आ गए जहां मनुष्य अपने विचारों का एक दूसरे से आदान-प्रदान करने लगा।  गरीब से गरीब व्यक्ति जो सीधे-सीधे शासन प्रशासन से अपनी बात, अपना दुख दर्द नहीं  कह पाता था वह इन सोशल मीडिया के तमाम प्लेटफार्म के माध्यम से अपनी बात शासन प्रशासन तक पहुंचाकर अपना मन हल्का  करने का रास्ता खोज निकाला। और तो और वर्षों बिछड़े पुराने मित्र जिनसे शायद दोबारा कभी मिलने की उम्मीद न थी सोशल मीडिया के माध्यम से वह सभी लोग मिलने लगे और मनुष्य अपनी जिंदगी का पूर्ण आनंद सोशल मीडिया पर ढूंढने लगा। जीवन में अपने सगे संबंधी से ज्यादा सगेपन की जगह इस अदने से प्लास्टिक के टुकड़े ने ले ली। वर्तमान समय में समाजनीति से लेकर राजनीति  व धर्मनीति का प्रचार प्रसार करने का माध्यम सोशल मीडिया से बेहतर दूसरा कोई नहीं है।  जैसे-जैसे देश दुनिया ने प्रगति की वैसे-वैसे छोटे बड़े हर हाथ में मोबाइल पहुंचने लगा।  फिर एक दौर ऐसा भी आया कि बड़ों से ज्यादा बच्चे एवं किशोर मोबाइल का उपयोग करने लगे, जो जानकारी चाहो मोबाइल से पूछो तुरंत हाजिर, किंतु सबसे ज्यादा आश्चर्यजनक चीज यह हुई कि एक प्रश्न पूछने पर दस उत्तर हाजिर हो गए।  साथ साथ सोशल मीडिया के उपरोक्त तमाम प्लेटफार्म  वीडियो रील्स आदि बनाकर अपलोड करने के बदले अपने नियम शर्तों के मुताबिक अच्छा खासा  एमाउंट भी दे रहे हैं । मोबाइल फोन सोशल मीडिया लोगों के पैसा कमाने का एक बेहतरीन जरिया भी साबित हुआ। जहां एक और हर आदमी अखबार खरीद कर नहीं पढ़ पा रहा था और घर पर बैठकर टीवी पर समाचार देखने का समय नहीं था वहीं  व्यक्ति को अपने कार्य करते हुए भी  युटुब चैनलों के माध्यम से क्षेत्र से लेकर देश-विदेश तक की खबरें देखने का जानने का बेहतर प्लेट फार्म मिल गया।
 किन्तु  इन तमाम फायदों के साथ  अप्रत्याशित कार्य यह भी हुआ कि बहुत सारी वह भी चीजें मोबाइल पर खुलकर सामने आने लगी जिन्हें किशोर एवं बच्चों को नहीं देखना चाहिए।  किंतु जब सामने आई है तो फिर देखने व जानने की जिज्ञासा बढ़ जाना लाजिमी है।  इसी जिज्ञासा ने  पढ़ने वाले हाथों को अनावश्यक चीजे सर्च करने पर मजबूर कर दिया परिणाम स्वरूप जिन चीजों को जानने की अभी बिल्कुल आवश्यकता नहीं थी वह भी जानने लगे।  इसका प्रभाव यह रहा कि किशोरों द्वारा यौन अपराधों में अकल्पनीय वृद्धि हो गई । जिस कोरी स्लेट पर मानवता की इबारत लिखी जानी चाहिए थी उस स्लेट पर उम्र से पहले वे चीजें लिख गईं जो उनके जीवन के लिए अहितकर साबित हो रही हैं। आज  जो बच्चे व किशोर यौन अपराधी बन रहे हैं देखा जाए तो  मोबाइल एवं सोशल मीडिया की इस बिगड़ती सामाजिक व्यवस्था में महत्वपूर्ण भूमिका साबित हो रही है। किन्तु सबसे अहम परिवर्तन जो हुआ उसके विषय में सोच कर ही रूह कांप जाती है, पढ़ाई करने वाले, कैरियर बनाने वाले, कैरियर की फिक्र करने वाले युवा व किशोर  जिस तरह से रील्स बना बनाकर मोबाइल पर अपलोड करने में व्यस्त हैं वह भविष्य के लिए ठीक नहीं साबित होगा। जहां एक ओर फिल्मी गानों पर युवक युवतियां अर्धनग्न होकर वीडियो रील्स बना रहे हैं तो वहीं  दूसरी ओर आजकल  स्तनपान कराने वाली माताएं बच्चों को स्तनपान कराते हुए अर्द्धनग्न होकर रील्स बनाकर अपलोड कर रही हैं, जहां मातृत्व होना चाहिए वहां अश्लील तरीके से स्वयं को माताएं परोस रही हैं। जैसे ही सोशल मीडिया का कोई भी प्लेटफॉर्म खोला जाए कोई न कोई वीडियो रील्स जो फूहड़ता से लवरेज होगी, सामने खुलकर आ जाएगी। ऐसा लग रहा है कि मोबाइल सिर्फ इसी कार्य के लिए बनाया गया है। बच्चे, किशोर, युवा सभी नंगे होने की होड़ में लगे हुए हैं। इन्हीं नंगी पुंगी रील्स बनाने वाले हाथों में कल देश दुनिया का भविष्य  होगा, यह एक चिंतनीय व विचारणीय विषय है।

Thursday, October 26, 2023

बलत्कृत रूहें-सुरेश सौरभ

 (कविता)
  सुरेश सौरभ
निर्मल नगर लखीमपुर-खीरी
उत्तर प्रदेश पिन-262701
मो-7376236066


कुछ लोग कहते हैं
कि युद्ध थल पर
जल पर
नभ पर 
और साइबर पर होते हैं
पर ऐसा नहीं? कदापि नहीं?
युद्ध तो होते हैं, 
हम औरतों की छातियों की विस्तृत परिधियों पर
हमारे मासूम बच्चों के पेटों 
और उनकी रीढ़ों के भूगोलों पर 
जब तमाम बम, मिसाइलें गिरतीं हैं 
ऊंची-ऊंची इमारतों पर
रिहायशी इलाकों पर
रसद और आयुध पर
तब मातमी धुएं और घनी धुंध में,
चारों दिशाओं में हाहाकार-चीत्कार उठता है
लोग मरते हैं,घायल होकर तड़पते हैं 
लाशों चीथड़ों से सनी-पटी धरती का      
 कलेजा लाल-लाल हो 
घोर करूणा से चिंघाड़ता-कराहता है।
तब उन्हीं लाशों चीथड़ों के बीच तड़पड़ते हुए 
लोगों के बीच से
परकटे परिन्दों सी बची हुई घायल-चोटिल लड़कियों को, 
औरतों को मांसखोर आदमखोर गिद्ध उन्हें नोंच-नोंच कर तिल-तिल खाने लगते हैं।
आदमखोर वहशी गिद्ध बच्चों को भी नहीं बख्शते 
उनकी मासूमियत को नोंच डालते हैं
 हिटलरों के वहशीपन की तरह
जार-जार रोती उन स्त्रियों की, बच्चों की, 
रोती तड़पती रूहों की, 
कातर आवाजें आकाश तक गूंजती रहती हैं, 
पर अंधे बहरे लोभी धर्मांध सियासतदां
 उन्हें नहीं सुन पाते, नहीं देख पाते।
अगर न यकीं हों तो इस्राइल फलस्तीन के
युद्ध को देख समझ सकते हैं 
जहां धूं धूं कर जलती इमारतों के बीच से वहशियों से लुटती, पिटती, घिसटती
स्त्रियों के घोर करूण दारूण चीखों को सुन सकते हैं। 
कोई जीते कोई हारे, 
पर हम स्त्रियां की रूहें युद्ध में बलत्कृत होती रहेंगी, 
हमेशा लहूलुहान होती रहीं हैं 
और होती रहेंगी।

Thursday, October 05, 2023

विशेष सत्र केवल महिला आरक्षण बिल तक सिमट जाना,कई अहम सवाल खड़े कर गया:नन्दलाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)

विशेष सत्र का एजेंडा अभी भी गुप्त
नन्दलाल वर्मा
(सेवानिवृत्त एसोसिएट प्रोफेसर)
युवराज दत्त महाविद्यालय
लखीमपुर-खीरी 
                प्रधानमंत्री मोदी जी द्वारा संसद का विशेष सत्र बुलाने का हिडेन एजेंडा क्या था,वह आज भी मीडिया, विपक्ष,राजनीतिक विश्लेषकों और एकेडेमिक्स से जुड़े लोगों के लिए एक रहस्य के तौर पर देखा जा रहा है। विशेष सत्र केवल महिला आरक्षण बिल पारित कराने के लिए बुलाया गया, यह बात सहज रूप से स्वीकार नहीं हो रही है। महिला आरक्षण बिल जो जातिगत जनगणना और परिसीमन की लम्बी प्रक्रिया के बाद लागू होना है और इस पूरी प्रक्रिया में कम से कम दस साल का समय लग सकता है, मात्र उस बिल को पास कराने के लिए मोदी जी द्वारा विशेष सत्र के बुलाये जाने की बात राजनीतिक गलियारों में गले नहीं उतर रही है। मीडिया,विपक्ष,राजनीतिक विश्लेषकों और एकेडेमिक्स में इस बात पर गहन अध्ययन और चिंतन चल रहा है और कई तरह की आशंकाओं को रेखांकित कर केवल महिला आरक्षण बिल पास करने के नाम पर बुलाये गए विशेष सत्र के लिये मोदी जी द्वारा तय किये गए गुप्त एजेंडों पर भी गहन अध्ययन जारी है,क्योंकि बिल के लागू होने के समय के हिसाब से यह बिल आगामी शीतकालीन सत्र में भी आसानी से पास हो सकता था।  तो फिर बिल को लेकर इतनी छटपटाहट क्यों थी। मीडिया,विपक्ष,राजनीतिक विश्लेषकों और एकेडेमिक्स में गुप्त एजेंडों को लेकर माथापच्ची जारी है। यह अनुमान लगाया जा रहा है कि मोदी जी इस विशेष सत्र में कुछ बड़ा करने वाले थे,लेकिन पांच राज्यों के विधानसभाओं के आसन्न चुनावों का राजनैतिक माहौल अनुकूल महसूस न होने/ हार की आहट और घबराहट या जातिगत जनगणना की मांग और उसके अनुरूप आरक्षण विस्तार जैसी राजनीतिक परिस्थितियों को भांपते हुए अपने मूल एजेंडे पर फ़ोकस न कर देश की पचास प्रतिशत आबादी नारी शक्ति का वंदन  के नाम पर उनके साथ राजनीतिक रूप से भावनात्मक रूप से जोड़ने की नीयत से  33% राजनैतिक आरक्षण देने के बिल तक सिमटना पड़ा। बौद्धिक क्षेत्र में यह भी चर्चा है कि मोदी जी इस बिल पर विपक्ष की ओर से ना नुकुर या विरोध या हो -हल्ला की उम्मीद लगाए बैठे थे। यदि बिल के पास कराने पर विपक्ष कोई हंगामा या बखेड़ा खड़ा कर देता तो मोदी जी विपक्ष पर नारी या महिला विरोधी होने की मोहर और मानसिकता का आगामी लोके सभा चुनाव प्रचार के दौरान प्रचार- प्रसार कर देश की महिलाओं का वोट बैंक अपने पक्ष में करने की कवायद में सफल होने की रणनीति तय करते दिखाई देते, लेकिन विपक्ष की ओर से बिल पर किसी तरह का विरोध न आने से मोदी जी की सारी रणनीति और योजना धराशायी होती दिखी। महिला आरक्षण बिल जो पारित हुआ है, उसमें एससी-एसटी महिलाओं के आरक्षण की स्थिति स्पष्ट नहीं बताई जा रही है। चर्चा यहां तक है कि इस बिल में एससी-एसटी का राजनैतिक आरक्षण यथावत जारी रहने की बात कही गयी है,लेकिन ओबीसी और ओबीसी की महिलाओं के लिए आरक्षण की व्यवस्था  नहीं की गई है, यह शत प्रतिशत सही है। यदि बिल में एससी-एसटी वर्ग की महिलाओं का क्षैतिज आरक्षण होता तो ओबीसी की महिलाओं को भी क्षैतिज आरक्षण देना पड़ता,यह तभी सम्भव होता जब ओबीसी को एससी-एसटी की तरह पहले सही आरक्षण व्यवस्था चली आ रही होती या इस बिल में नई व्यवस्था होती,जो कि दोनों  नहीं है। ऐसी स्थिति में ओबीसी की महिलाओं को आरक्षण मिलने की कोई सम्भावना नही लग रही है।

Wednesday, September 27, 2023

महिला आरक्षण बिल के पीछे छिपे राजनीतिक षडयंत्र और चुनावी राजनीति के गूढ़ निहितार्थ:नन्दलाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)

महिला आरक्षण बिल:पार्ट 2
नन्दलाल वर्मा
(सेवानिवृत्त एसोसिएट प्रोफेसर)
युवराज दत्त महाविद्यालय
लखीमपुर-खीरी 
                डॉ.भीमराव आंबेडकर के संविधान की दुहाई देकर एक पिछड़े परिवार से पीएम बनने के अवसर को बड़े फक्र के साथ दावा ठोकने वाले नरेन्द्र मोदी की सरकार में पारित महिला आरक्षण बिल में ओबीसी महिलाओं के लिए लोकसभा में एक सीट भी आरक्षित नहीं की गई हैं,जबकि डॉ.आंबेडकर किसी समाज की प्रगति या विकास का मानदंड उस समाज की महिलाओं के विकास के साथ जोड़कर देखते थे। महिला आरक्षण बिल एक खास वर्ग की महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी और सशक्तिकरण की दिशा में उठाया गया राजनीतिक कदम आरएसएस और बीजेपी सरकार की सवर्ण मानसिकता/वर्ण व्यवस्था/मनुवादी सोच को दर्शाता है। ओबीसी आरक्षण के मामले में आरएसएस और बीजेपी का राजनीतिक चरित्र शुरू से ही विरोधी रहा है। इसलिए ओबीसी महिलाओं के आरक्षण के सम्बंध में भी आरएसएस और बीजेपी से यही उम्मीद थी। 1977 में जब जनता पार्टी की सरकार बनी थी जिसमें बीजेपी भी शामिल थी। एकीकृत जनता पार्टी के चुनावी घोषणा पत्र में सरकार बनने पर कालेलकर आयोग की सिफारिशें लागू करने का वादा किया गया था। चुनाव बाद मोरारजी देसाई के नेतृत्व में बनी सरकार ने कालेलकर आयोग की सिफारिशों को लागू करने से इस आधार पर मना कर दिया था कि इसकी रिपोर्ट काफी पुरानी हो चुकी है और ओबीसी की सामाजिक और शैक्षणिक स्तर काफी बदल चुका है। इसे बहाना बनाकर मोरारजी देसाई की सरकार ने एक नया मंडल आयोग गठित कर बड़ी चालाकी से टाल दिया था। वीपी सिंह के नेतृत्व में जब 1989 में जनता दल की सरकार बनी तो बिगड़ते राजनीतिक माहौल की वजह से 1990 में वीपी सिंह द्वारा ओबीसी के लिए केवल सरकारी नौकरियों में 27% आरक्षण की घोषणा करते ही बीजेपी ने समर्थन वापस लेकर उनकी सरकार गिरा दी थी और दूसरी तरफ ओबीसी का आरक्षण जैसे महत्वपूर्ण मुद्दे से ध्यान हटाने के लिए लाल कृष्ण आडवाणी ने ओबीसी की जातियों को लेकर राम मंदिर आंदोलन की रथयात्रा शुरू कर दी जिसमें वर्तमान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया था। ओबीसी के आरक्षण के परिप्रेक्ष्य में यदि बीजेपी के चरित्र और कृत्य का अवलोकन और आकलन किया जाए तो वह पूरी तरह ओबीसी विरोधी दिखाई देता रहा है,इसमें कोई संदेह नहीं है। 

एससी-एसटी की महिलाओं को उनके वर्ग के लिए पूर्व प्रदत्त संवैधानिक राजनैतिक आरक्षण का 33% आरक्षण का रास्ता तो साफ है,लेकिन ओबीसी महिलाओं को लोकसभा में आरक्षण के माध्यम से प्रवेश करने का रास्ता नहीं बनाया गया है। ओबीसी को यह अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि महिलाओं के नाम जो 33% राजनैतिक आरक्षण दिया गया है, वो वास्तव में केवल सवर्ण महिलाओं के लिए आरक्षण की व्यवस्था है,जैसा कि सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थाओं में 10% ईडब्ल्यूएस आरक्षण के सम्बंध में हुआ था। लोकसभा में महिलाओं के लिए 543 की 33% कुल 181 सीटें आरक्षित होंगी,जिनमें एससी और एसटी की कुल आरक्षित 131सीटों का 33% यानी 47 सीटें (अनुमानित) इस वर्ग की महिलाओं के लिए क्षैतिज आरक्षण मिल जायेगा। अब 181- 47=134 बची सीटों पर सामान्य वर्ग की सशक्त और संसाधन युक्त परिवार की महिलाओं के लिये चुनाव लड़कर लोकसभा जाने का रास्ता साफ कर दिया गया है क्योंकि सशक्त परिवार की इन महिलाओं का मुकाबला करने वाली आरक्षित वर्ग (एससी-एसटी और ओबीसी,ओबीसी के विशेष संदर्भ में ) की महिलाएं बहुत कम मिल पाएगी। इसलिए इन सीटों पर सामान्य वर्ग की सशक्त और समृद्ध परिवारों की महिलाओं के चुनाव जीतने की सबसे ज्यादा संभावना है। मेरे विचार से सामान्य वर्ग की महिलाओं के लिए वे सीटें आरक्षित की जाएंगी जहां से ओबीसी के पुरुष लंबे अरसे से चुनाव जीतकर आ रहे हैं। यदि ऐसा होता है तो ओबीसी के लोकसभा में जाने की सम्भावना और संख्या न्यूनतम हो जाएगी जिससे संसद में उनका प्रभावशाली और निर्णायक प्रतिनिधित्व नहीं रह जाएगा और आरएसएस नियंत्रित बीजेपी का यही हिडेन राजनीतिक एजेंडा है। भाजपा-आरएसएस ओबीसी सांंसद और विधायक देने वाली संसदीय और विधानसभा सीटों पर महिला आरक्षण बिल के बहाने कब्ज़ा कर ओबीसी को राजनीतिक नुकसान पहुंचाने की एक अदृश्य दूरगामी साज़िश से इनकार नहीं किया जा सकता है। जब संसद में ओबीसी का पर्याप्त प्रतिनिधित्व ही नहीं बचेगा तो जातिगत जनगणना और आरक्षण विस्तार का मुद्दा ही नहीं उठेगा,अर्थात " न नौ मन तेल होगा और न राधा नाचेंगी " की कहावत चरितार्थ होती नजर आएगी। मनुवादी सोच पर अमल करने वाली बीजेपी के महिला आरक्षण बिल का यही असली निहितार्थ है, जिसे ओबीसी को समझने की बहुत जरूरी है। उल्लेखनीय है कि पंचायत राज अधिनियम में एससी- एसटी और ओबीसी को लंबवत(वर्टिकल) और क्षैतिज(होरिजेंटल) दोनों तरह का आरक्षण दिया जा रहा है। क्या पारित महिला आरक्षण बिल और पंचायत राज अधिनियम में महिलाओं के संदर्भ में असंगति या असमानता नहीं होगी?

संविधान और आरक्षण पर सवाल एससी-एसटी और ओबीसी के वे सांसद उठाते हैं जो विपक्ष में होते हैं। यदि वे सत्तारूढ़ दल से हैं तो उस दल और उसके शीर्ष नेतृत्व की वजह से चुप्पी साधे रहने को मजबूर होते हैं। सत्तारूढ़ दल और सरकार का समर्थन कर रहे दलों के सांसद कई तरह के अदृश्य और दृश्य भयों के डर से सरकार की लाइन से हटकर बोलने का साहस नहीं कर सकते और यदि बोलते भी हैं तो 'जितनी चाबी भरी राम ने ,उतना चले खिलौना"जैसी स्थिति दिखाई देती है। चूंकि एससी-एसटी के आरक्षण की संवैधानिक व्यवस्था है, इसलिए उनके आनुपातिक आरक्षण या प्रतिनिधित्व पर कैंची चल नहीं सकती है। जातिगत जनगणना के आंकड़े उपलब्ध न होने के कारण ओबीसी का आरक्षण या प्रतिनिधित्व अधर में लटका हुआ है। 10%ईडब्ल्यूएस आरक्षण के बाद ओबीसी की ओर से जातिगत जनगणना और प्रतिनिधित्व विस्तार का मुद्दा लगातार उठाये जाने की संभावना बन गयी है जिससे आरएसएस और बीजेपी हमेशा दूर भागना चाहती है। ओबीसी की जातिगत जनगणना और उसके आरक्षण विस्तार की भावी मांग से आरएसएस और बीजेपी बुरी तरह डरी हुई नज़र आती है। इसलिए बीजेपी ओबीसी के प्रतिनिधित्व को यथासंभव कम करने की कोई कोशिश या प्रयास छोड़ना नहीं चाहती है। महिला आरक्षण बिल इसी दिशा में उसकी एक सोची समझी दूरदर्शी राजनीति और रणनीति का हिस्सा है। महिला आरक्षण बिल के ज़रिए महिला वोटों के साथ सवर्णों के वोट साधने की रणनीति की दिशा में भी माना जा रहा है,जैसा 2019 के लोकसभा चुनाव से ठीक पहले सामान्य वर्ग के बच्चों के लिए सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में प्रवेश के लिए लाए गए ईडब्ल्यूएस (आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग) के माध्यम से किया गया एक चुनावी राजनीतिक प्रयास सफल रहा। महिला आरक्षण बिल उसी दिशा में उठाया गया अगला कदम है। आरएसएस और बीजेपी अपने एससी-एसटी और ओबीसी के आरक्षण विरोधी चरित्र के माध्यम से सवर्णों का वोट बैंक अपने साथ स्थायी रूप से टिकाए रखने की दिशा में लगातार काम करती रहती है,लेकिन एससी एसटी और ओबीसी चंद चुनावी प्रलोभनों,धर्म और हिंदुत्व के प्रभाव की वजह से बीजेपी की इन दूरदर्शी चालों से बेख़बर है।

आरएसएस और बीजेपी के इस महिला आरक्षण बिल के पीछे छिपे जिस राजनीतिक षडयंत्र और चुनावी राजनीति के गूढ़ निहितार्थ को गम्भीरतापूर्वक समझने की जरूरत है,उस पर अभी ओबीसी का फोकस ही नही है। आरएसएस और बीजेपी ने ओबीसी को मंदिर-मस्जिद,हिन्दू-मुस्लिम,छद्म राष्ट्रवाद और चंद चुनावी लालच में अच्छी तरह फंसाकर रखा है। ज्यादातर क्षेत्रीय दल सामाजिक न्याय का नारा देकर उभरे हैं। इसलिए उनका आधार वोट बैंक सामाजिक,शैक्षणिक और राजनीतिक रूप से शोषित,वंचित और पिछड़ा समाज ही है। इस समाज के लोग राजनीति के लिए उतने सक्षम, सशक्त और तिकड़मी नहीं हैं, जितना कि सवर्ण लोग सक्षम, संसाधन युक्त और तिकड़मबाज है। चुनाव में संसाधनों और राजनीतिक परिपक्वता के संदर्भ में सवर्ण समाज के लोगों के सामने ओबीसी प्रत्याशी कॉन्फिडेंस के स्तर पर कमजोर साबित होते हैं और महिला आरक्षण हो जाने के बाद उनके समाज की महिला प्रत्याशी के सामने ओबीसी महिला प्रत्याशी कितनी मजबूती और कॉन्फिडेंस के साथ लड़ पाएगी,उसका सहज अनुमान लगाया जा सकता है,क्योंकि ओबीसी की महिलाएं अभी व्यक्तिगत तौर पर सवर्ण महिलाओं की तुलना में उतनी राजनीतिक रूप से स्वतंत्र,सक्षम और कॉन्फिडेंट नही दिखती हैं। ओबीसी की अधिकांश पढ़ी-लिखी महिलाएं या तो छोटी-छोटी नौकरी कर रही हैं या घर-परिवार की देखभाल कर रही हैं। सामाजिक परिवेश की वजह से राजनीतिक रूप से ओबीसी महिलाएं सवर्ण महिलाओं की तुलना में अभी भी बहुत पीछे हैं। बातचीत करने के मामले में सवर्ण महिलाएं ओबीसी महिलाओं की अपेक्षा ज्यादा प्रभावशाली और वाकपटु होती हैं,ऐसा उनके सामाजिक परिवेश में खुलेपन की वजह से होता है। ओबीसी महिलाओं में राजनीति के वांछित गुणों और तत्वों के अभाव की वजह से ओबीसी की महिला प्रत्याशी सवर्ण महिला प्रत्याशी के सामने मतदाताओं को प्रभावित करने के मामले में पूरी दमदारी के साथ लड़ नहीं पाती है। बीजेपी सरकार द्वारा पारित महिला आरक्षण से ओबीसी का अधिकतम राजनीतिक नुकसान होने के बावजूद पिछड़े वर्गों के उत्थान और भागीदारी की राजनीति करने का दावा करने वाले दलों (अपना दल-एस,सुभासपा, निषाद समाज पार्टी ) का बीजेपी के साथ सरकार में भागीदार बनकर इस बिल के समर्थन में पूरी दमदारी के साथ खड़ा होना उनके सामाजिक और राजनीतिक एजेंडे और राजनीतिक वैचारिकी और चाल-चरित्र पर बड़ा सवालिया निशान लगाता हुआ दिखाई देता है। इन दलों को याद रखना चाहिए कि पिछड़ों के उत्थान और प्रतिनिधित्व की झूठी राजनीतिक वकालत कर सत्ता की मलाई चाटने का यह राजनीतिक चरित्र और उपक्रम लंबे समय तक नहीं चल पाएगा। बहुजन समाज के बल पर सत्ता के शिखर तक पहुंची बीएसपी की सामाजिक और राजनीतिक दुर्गति किसी से छुपी नहीं है। ऐसे दलों और उनके आधार वोट बैंक को इन सबसे सबक सीखने की जरूरत है।

Wednesday, September 20, 2023

मोदी सरकार का आधा-अधूरा और विसंगतिपूर्ण " नारी शक्ति वंदन बिल"-नन्दलाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)


            "इस बिल को महिला आरक्षण बिल या सवर्ण महिला आरक्षण बिल कहें .....पढ़िए इस पुरे लेख में आखिर क्या है यह महिला आरक्षण बिल ?....महिला आरक्षण बिल के आधे-अधूरे और विसंगतियों को लेकर विरोधियों के पास भी अपने ठोस तर्क हैं जिनके आधार पर वे चर्चा के दौरान सरकार को घेर सकते हैं........बीजेपी गठबंधन सरकार के लिए गले की हड्डी बन सकता है और सामाजिक न्याय की पक्षधर पार्टियों में एक नई तरह की एकजुटता के लिए नए अवसर पैदा हो सकते हैं"
नन्दलाल वर्मा
(सेवानिवृत्त एसोसिएट प्रोफेसर)
युवराज दत्त महाविद्यालय
लखीमपुर-खीरी 

    ✍️महिला आरक्षण बिल एक संविधान संशोधन विधेयक है, जो भारत में लोकसभा और सभी राज्य विधान सभाओं में महिलाओं के लिए 33% आरक्षण देने की बात करता है। यह बिल 1996 में पहली बार पेश किया गया था, लेकिन अब तक पारित नहीं हो पाया है। महिला आरक्षण बिल भारतीय राजनीति में महिलाओं की भागीदारी और सशक्तिकरण की दिशा में उठाया जाने वाला एक महत्वपूर्ण कदम है। भारत में, महिलाओं की लोकसभा में 2023 में भागीदारी केवल 14.5% है, जो विश्व में सबसे कम में से एक है। महिला आरक्षण बिल के पारित होने से उम्मीद है कि महिलाओं की प्रतिनिधित्व में वृद्धि होगी और वे नीति निर्माण में अधिक प्रभावी भूमिका निभा सकेंगी। हालांकि, सोमवार को चली कैबिनेट बैठक को लेकर कोई आधिकारिक जानकारी सामने नहीं आई है,लेकिन इस बात की चर्चा तेज है कि केंद्रीय कैबिनेट ने महिला आरक्षण बिल को मंजूर कर दिया है।विपक्ष कई बिन्दुओं को लेकर इस महिला आरक्षण बिल पर सरकार को घेरने की रणनीति बना रहा है। वह सवाल उठा रहा है कि जब सभी पार्टियां बिल के समर्थन में थीं, तो फिर 10 साल तक इंतजार करने की क्या जरूरत पड़ी और ओबीसी महिलाओं के आरक्षण पर सरकार अपनी मंशा क्यों नही जता रही है? उनका कहना है कि ऐसा कुछ राज्यों के सन्निकट चुनावों और 2024 के लोकसभा चुनाव को ध्यान में रखकर महिला वोट बैंक तैयार करने की दिशा में यह उपक्रम किया जा रहा है। 
✍️इस महिला आरक्षण बिल के समर्थकों का तर्क है कि यह महिलाओं के सशक्तिकरण और समानता स्थापित करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम साबित होगा। उनका मानना है कि इस आरक्षण से महिलाओं को राजनीति में प्रवेश करने और अपनी नेतृत्व क्षमता की भूमिकाओं को हासिल करने के लिए एक समान अवसर उपलब्ध होगा,जबकि इस बिल में एससी-एसटी महिलाओं के लिए क्षैतिज (होरिजेंटल) आरक्षण की बात कही जा रही है और ओबीसी महिलाओं के बारे में इस बिल में कोई जगह नहीं दी गयी है, तो फिर ऐसी स्थिति में यह बिल सशक्तिकरण और समानता की दिशा में महत्वपूर्ण कदम कैसे साबित होगा? तुलनात्मक रूप से सामान्य वर्ग की महिलाएं एससी-एसटी और ओबीसी की महिलाओं से प्रत्येक क्षेत्र में आगे हैं और वर्तमान में महिला राजनीति की भागीदारी की बात की जाए तो सामान्य वर्ग की महिलाओं की ही अधिकतम भागीदारी दिखाई देती है,एससी -एसटी और ओबीसी महिलाओं की भागीदारी नाममात्र की दिखती है। महिला आरक्षण बिल के आधे-अधूरे और विसंगतियों को लेकर विरोधियों के पास भी अपने ठोस तर्क हैं जिनके आधार पर वे चर्चा के दौरान सरकार को घेर सकते हैं। फिलहाल, सरकार लोकसभा में दो तिहाई बहुमत से और राज्यसभा में राजनीतिक प्रबंधन से बिल पास कराने की स्थिति में सक्षम दिखती है। बिल पास होने के बाद इसकी विसंगतियों को लेकर विपक्ष या सामाजिक न्याय का कोई संगठन सुप्रीम कोर्ट जा सकता है। विधि विशेषज्ञों का मानना है कि सुप्रीम कोर्ट ओबीसी महिला आरक्षण के बिंदु पर सरकार के निर्णय से परे राय देते हुए निर्णय दे सकती है।
✍️नए संसद भवन में देश की आधी आबादी नारी शक्ति को राजनैतिक रूप से सशक्तिकरण की दिशा में लोकसभा और विधान सभा में 33 प्रतिशत आरक्षण देने के लिए विगत दो दशकों से अधिक समय से लंबित महिला आरक्षण विधेयक मोदी सरकार राज्यों और लोकसभा चुनाव से पहले एक बार फिर लेकर लायी है। इस बिल की विषय सामग्री का अध्ययन करने के बाद ही पता चल पाएगा कि बिल की वास्तविक विषयवस्तु क्या है। कहा जा रहा है कि यदि यह बिल पारित होकर कानून बन जाता है तो भी उसके लागू होने की संभावना 2029 तक पक्के तौर पर नहीं कही जा सकती है। परिसीमन और जनगणना एक जटिल प्रक्रिया मानी जाती है। इस बिल की विसंगतियों और संभावना पर शुरुआती दौर में ही तरह- तरह की उंगलियां उठने लगी हैं। बताया जा रहा है कि एससी-एसटी की तरह लोकसभा और राज्य की विधान सभाओं में महिलाओं को 33% आरक्षण दिए जाने की बात कही गई है। एससी और एसटी वर्ग की महिलाओं को उनको मिलते आ रहे 15 % और 7.5 % राजनीतिक आरक्षण के भीतर ही आरक्षण दिया जाएगा,यह भी सुनने में रहा है। तो इसका सीधा अर्थ यह हुआ कि बाकी आरक्षण अन्य एक विशिष्ट वर्ग (सामान्य वर्ग) की महिलाओं को 33% आरक्षण का लाभ दिए जाने की बात है। ओबीसी की महिलाओं के राजनैतिक आरक्षण की बात इस बिल में कहीं नहीं है, ऐसा तथ्य सामने निकलकर आ रहा है। एससी और एसटी वर्ग की महिलाओं को तो क्षैतिज (होरिजेंटल) आरक्षण का लाभ मिल जाएगा क्योंकि उनके वर्ग को पहले से ही राजनैतिक आरक्षण मिलता आ रहा है, लेकिन ओबीसी महिलाओं को आरक्षण कैसे मिल पायेगा, ओबीसी को तो राजनैतिक आरक्षण नहीं मिल रहा है जबकि 1953 में गठित काका कालेलकर आयोग और 1979 में गठित मंडल आयोग की सिफारिशों में ओबीसी को राजनैतिक आरक्षण की भी सिफारिश है। चूंकि एससी और एसटी को केवल लोकसभा और राज्य की विधान सभाओं में ही आरक्षण मिल रहा है, उनके लिए राज्यसभा तथा राज्यों की विधान परिषदों में आरक्षण की व्यवस्था अभी भी नहीं है। अब सवाल यह उठता है कि क्या इस बिल में एससी और एसटी की महिलाओं को राज्यसभा और राज्यों की विधान परिषदों में आरक्षण देने की बात कही गयी है,कि नही ? और यदि ऐसा नहीं है तो अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के संगठनों ,राजनीतिक दलों और उनके बौद्धिक मंचों से लंबित इस अधूरे राजनैतिक आरक्षण की मांग नए सिरे से उठना लाज़मी होगा। 
✍️चूंकि ओबीसी को वर्तमान में राजनैतिक आरक्षण नहीं मिल रहा है, इस आधार पर अनुमान लगाया जा रहा है कि उनकी महिलाओं को एससी-एसटी की महिलाओं की तरह क्षैतिज आरक्षण कैसे मिल सकता है? यदि ओबीसी की महिलाओं के लिए आरक्षण की बात इस बिल में है तो फिर उन्हें एससी-एसटी वर्ग की महिलाओं की तरह क्षैतिज आरक्षण नहीं मिल पायेगा। ऐसी स्थिति में महिलाओं में दो भिन्न कैटेगिरी हो जाने से उनके बीच एक नई तरह की खाई पैदा होती दिखेगी जो कि नैसर्गिक न्याय के खिलाफ़ होगी। परिस्थितियों से यह सम्भव लग रहा है कि पहले एससी-एसटी की तर्ज पर ओबीसी के नए राजनैतिक आरक्षण की बात नए सिरे से उठे। अभी तक ओबीसी को सरकारी नौकरी और शिक्षण संस्थाओं में 27% आरक्षण सीमा और क्रीमीलेयर की शर्त के साथ ही आरक्षण मिल रहा है। 10% ईडब्ल्यूएस आरक्षण के बाद ओबीसी को मिल रहे 27% आरक्षण सीमा की शर्त को लगातार खारिज किया जा रहा है, क्योंकि ओबीसी आरक्षण पर निर्णय देते समय सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण की कुल सीमा 50% निर्धारित की थी। ईडब्ल्यूएस पर 2023 में आये सुप्रीम कोर्ट के निर्णय से यह सीमा टूट गई है,ऐसा माना जा रहा है। अब एक बड़ा सवाल यह उठता है कि महिला आरक्षण में यदि ओबीसी महिलाओं को शामिल नही किया जाता है तो मोदी जी के " नारी शक्ति वंदन " नारे और बिल की व्यावहारिकता और सार्थकता कैसे सिद्ध होगी? सामाजिक, राजनीतिक और बौद्धिक मंचों से इस बिल को कई तरह की विसंगतियों से भरा हुआ बताया जा रहा है और यह भी कहा जा रहा है कि सन्निकट राज्य विधासभाओं और 2024 के लोकसभा चुनाव के भविष्य को लेकर जल्दबाजी में लाया गया यह बिल मोदी जी का एक और जुमला साबित हो सकता है।
✍️2019 में जब सामान्य वर्ग के आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्ग के लिए सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थाओं में 10% आरक्षण के लिए संविधान संशोधन बिल पास हुआ था तो उसके बाद से ही ओबीसी आरक्षण की सीमा बढ़ाने और जातिगत जनगणना की मांग जोर शोर से उठ रही है। महिलाओं को 33% राजनैतिक आरक्षण देने के लिए लाए गए इस बिल के बाद जातिगत जनगणना और उसके हिसाब से आरक्षण दिए जाने की एक सामाजिक और राजनीतिक मांग उठने का एक और माक़ूल मौका मिलता हुआ दिख रहा है। यदि सामाजिक न्याय की पक्षधर पार्टियां इस बिल पर बहस के दौरान यह मांग उठाती हैं और विसंगतियों के कारण बिल के पास होने या लागू होने में कोई अड़चन पैदा होती है तो यह स्थिति बीजेपी गठबंधन सरकार के लिए गले की हड्डी बन सकता है और सामाजिक न्याय की पक्षधर पार्टियों में एक नई तरह की एकजुटता के लिए नए अवसर पैदा हो सकते हैं, अर्थात विपक्ष की राजनैतिक एकता के गठबंधन का दायरा और बड़ा होने के साथ पहले से अधिक मजबूत बन सकता है। इस बिल से विपक्ष को सामाजिक न्याय और जातिगत जनगणना कराने का एक और सुअवसर मिलने की संभावना जताई जा रही है। यदि ओबीसी महिलाओं को आरक्षण की परिधि में नहीं लाया गया तो 2024 के लोकसभा चुनाव सरकार के लिए भारी पड़ सकता है। जरा इस पर गम्भीरतापूर्वक सोचिएगा!

Tuesday, September 12, 2023

लिखा नहीं जाता और कलम है कि मानती नहीं-डॉ० हरिवंश शर्मा


      नजरिया
डॉ हरिवंश शर्मा (प्राचार्य)
आदर्श जनता महाविद्यालय
देवकली, लखीमपुर-खीरी 
        यात्रा की थकान अभी उतर नही पाई थी । अचानक याद आया कि जरूरी काम एक बाकी है । मैंने मोबाइल उठाया और हमारे सहयोगी कम्प्यूटर सहायक डी के जी से पूछा, " आज आफिस आओगे क्या ? 
    "सर जी, वैसे तो मुझे दवा लेने जाना है हॉ अगर कोई जरूरी काम हो तो आ जाते है। 
    "किस समय बता दो" मैने पूछा। बोले," कहिए अभी आ जाऊं ।" 
    "तब ठीक है, मैं बस कपड़े बदलकर तुरन्त आता हू ।"
    मैने पत्नी से कहा ,"आफिस कुछ जरूरी काम है थोड़ा वक्त लगेगा ।"
    "खाना कब खाओगे ? पत्नी ने पूछा । 
    "दो - ढाई तो बज ही जाएगा ।"
    वैसे भी इस समय बच्चों के हास्टल जाने के बाद घर आधा सन्नाटा ही रहता है । ऐसे में अगर मोबाइल भी साथ छोड़ दे तो संसार ही अधूरा हो जाये । खैर छोडिए बात ये नही है कुछ और है ।
    स्कूटी लेकर मै घर से निकला था । जल्दी भी थी क्यों किसी को इन्तजार कराना मेरी आदत नही । ख्यालों में था कि कुछ बैंक का काम भी निपटा ही लेते है । बच्चों को कुछ पैसे भेजने है पर ये क्या बैक खुली भी है बन्द भी है सबसे सरल उपाय - सर्वर नही आ रहा । चेक तो जमा हो जाएगी मैंने पूछा तो हिकारत भरे स्वर में बोला नही आज वह भी नही हो पाएगा । मै मन ही बुदबुदाया सीधे मेन्टीनेन्स की बन्दी नही बोल रहे । फिर याद आया कि डाकघर में भी एक खाता है वहां चलते है । वैसे तो अमूमन यहाॅ के कर्मचारी तो बैंक से ज्यादा बेढंगे है । कभी सीधे मुह बात छोडिये जनाब चाल भी तिरछी रहती है । शायद मेरे साथ ही ऐसा हो क्योंकि न पान पुड़िया खाकर बतियाते है और न ही भौकाल बनाने के लिए धत् तेरी करते है । खैर मै पहुचा तो जमा निकासी वाले राना बाबू नही थे । मिश्रा जी भी नही दिखे । एक बैठा था उससे पूछा तो बताया . मिश्रा जी बीमार है । उनकी जगह एक नये सज्जन बैठे थे । उनसे मालूम किया तो बोले - मिश्रा जी बीमार है ऐसे जमा निकासी सब कुछ बन्द । पास में बैठे एक एजेन्ट महाशय मुझे तरह तरह के ज्ञान देने लगे । पिण्ड छुड़ाकर मै बाहर आया । मन में गुस्से का गुब्बार जरूर था । यह मनोदशा लेकर मैं स्कूटी से आगे बढ़ा तो बायें साइड की तरफ पड़ने वाली कोतवाली से एक्टिवा पर सवार एक नौजवान पुलिस वाला जिसकी पीठ पर आज के चलन का पिट्ठू बैग था । वह सरपट चौरहे की तरफ बढ़ा । जन्माष्टमी के चलते शहर के चौराहों पर लगने वाली पटरी थी दुकानों के चलते सदा सर्वदा कहने को ही फुटपाथ है । पुलिस वाले के पीछे उसकी बगल एक साइकिल वाला चल रहा था । उसकी उम्र कुछ अधेड होगी । यह क्या अचानक वह पुलिसवाला - साले हरामखोर आदि सहित मा बहन की दो चार गालियां उस साइकिल वाले देने लगा | साले मारुगा थप्पड़ । भीड थी । ऐसे किसी से साइकिल मोटर साइकिल लड़ जाना स्वाभाविक था । इसी के फलस्वरूप वह गालियां खा रहा था चुपचाप बड़े प्रेम से । कसूर था कि साइकिल उस महापुरुष से कैसे छू गई तो इतना प्रसाद जरूरी था । थोड़ा पीछे मै था । मुझे लगा कहीं मेरी स्कूटी उसकी स्कूटी से लड गई होती तो क्या होता? खैर उनको वर्दी ऐसी ही जनरक्षा सुरक्षा के मद्देनजर मिली है । भीड की धक्कम धक्का के चलते सब इधर उधर जा रहे थे । में भी अपने रास्ते चला गया 1 मन सिफ रह गया अफसोस कि हर जगह मनुष्य के ये कौन कौन से रुप देखने को मिल रहे । वाह री ये दुनिया ।  चाहते हुये भी कलम नही रुकी ।

Saturday, September 02, 2023

यदि संविधान बदला तो एससी-एसटी और ओबीसी की गति उस लोहार जैसी ही होगी जिसे भेंट में मिले चंदन के बाग-नन्द लाल वर्मा (सेवानिवृत्त एसोसिएट प्रोफेसर)

चिंतनीय_आलेख
नन्दलाल वर्मा
(सेवानिवृत्त एसोसिएट प्रोफेसर)
युवराज दत्त महाविद्यालय
लखीमपुर-खीरी 

         एक बार एक राजा ने एक लोहार की कारीगरी से खुश होकर उसे चंदन का बाग इसलिए भेंट कर दिया कि वह चंदन की बेशकीमती लकड़ी बेचकर धनवान बन जाये।
उस लोहार को चंदन के पेड़ की कीमत और उपयोगिता का कोई अंदाजा नहीं था। इसलिए उसने अपने पेशे की उपयोगिता के हिसाब से चंदन के पेड़ो को काटकर उन्हें भट्टी में जलाकर कोयला बनाकर अपने काम में और अपने पेशेवर साथियों को बेचना शुरू कर दिया। ऐसा करते-करते, धीरे-धीरे एक दिन बेशकीमती चंदन का पूरा बाग कोयला के रूप में तब्दील होकर बिक और उसकी भट्टी में जल गया।
          एक दिन राजा घूमते हुए उस लोहार के घर के बाहर से गुजर रहे थे तो राजा ने सोचा अब तो लोहार चंदन की लकड़ी बेच-बेचकर बहुत अमीर हो गया होगा। सामने देखने पर लोहार की स्थिति जैसे की तैसी ही बनी हुई नजर आई। यह देखकर राजा को बहुत आश्चर्य हुआ। अनायास राजा के मुँह से निकला यह कैसे हो सकता है! राजा ने अपने जासूसों से सच का पता लगावाया तो पाया चंदन के बाग की बेशकीमती लकडी को तो उसने कोयला बनाकर बेच दिया और अपनी भट्टी में प्रयोग कर लिया है। यह सुनकर राजा ने अपना माथा पीटते हुए कहा कि उपहार,भेंट और दान किसी पात्र व्यक्ति को ही देना चाहिए। तब राजा ने लोहार को बुलाकर पूछा,तुम्हारे पास चंदन की एकाध लकडी बची है या सबका कोयला बनाकर बेच दिया? लोहार के पास कुल्हाडी में लगे चंदन के बेंट के अलावा कुछ भी नहीं था,उसने वह लाकर राजा को दे दिया।
          राजा ने लोहार की कुल्हाड़ी का बेंट लेकर लोहार को चंदन के व्यापारी के पास भेज दिया, वहाँ जाकर लोहार को कुल्हाड़ी के बेंट के बदले अच्छे खासे पैसे मिल गये। यह देखकर लोहार भौचक रह गया, उसकी आंखो में आंसू आ गये। उसकी स्थिति " अब पछताये होत क्या,जब चिड़ियां चुंग गयी खेत " जैसी हो गयी थी। वह बहुत पछताया और फिर उसने रोते हुए आँसू पोछकर राजा से एक और बाग देने की विनती की। तब राजा ने उससे कहा कि " ऐसी भेंट जीवन में बार-बार नहीं मिलती हैं बल्कि, एक बार ही मिलती है।"
         अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग को संविधान प्रदत्त अधिकार विशेषकर मतदान का अधिकार चंदन के बाग की भेंट की तरह मिले हुए हैं। इन्हें पांच किलो मुफ्त राशन, सब्सिडी पर मिल रही घरेलू गैस,शौचालय एवं किसान सम्मान निधि के नाम पर मिल रही चन्द आर्थिक सहायता के लालच में बेचा जा रहा है। अगर संविधान प्रदत्त अधिकारों के संरक्षण के लिए एकजुट होकर सड़क से लेकर संसद तक विरोध-प्रदर्शन नहीं किया गया तो एससी-एसटी और ओबीसी की हालत उस लोहार जैसी होने में देर नहीं लगेगी। लोकतंत्र के आवरण में छुपी वर्तमान तानाशाह प्रवृत्ति की सत्ता की नीयत साफ नहीं लग रही है। यदि 2024 के लोकसभा चुनाव में आरएसएस से निकले मनुवादी भाजपाई एक बार फिर संसद में कब्जा करने में सफल हो जाते हैं तो डॉ आंबेडकर का न्याय पर आधारित संविधान बदलना तय है। डॉ.भीमराव आंबेडकर जी के अथक प्रयासों से पिछड़े समाज को जो सांविधानिक अधिकार मिले हैं जिनकी वजह से उसका एक बड़ा हिस्सा सामाजिक,राजनीतिक और आर्थिक रूप से एक सशक्त मध्यम वर्ग बनकर उभरा है। यह वर्ग अच्छा खा रहा है, उनके बच्चे देश विदेश की प्रतिष्ठित संस्थाओं में पढ़ और रिसर्च कर रहे हैं, सूट,बूट और टाई पहनकर मूछों पर ताव देकर आज़ादी से घूम रहा है, घोड़ी पर चढ़कर बारात निकाल रहा है, अच्छे मकानों और हवेलियों में रह रहा है, बड़ी बड़ी कारों में घूम रहा है, शिक्षित होकर बौद्धिक वर्ग विभिन विषयों और मुद्दों पर सड़क से लेकर उच्च संस्थाओं में सरकार की गलत नीतियों के खिलाफ सीना तानकर लिख और दहाड़ रहा है, जिन्हें आज़ादी से पहले चारपाई पर बैठने का अधिकार नहीं था, वे आरक्षण की वजह से बड़े-बड़े अधिकारी बन रहे हैं, ऐसा होने से मनुवादियों को लग रहा है कि वे उनके सिर पर बैठ रहे हैं, ये सब मनुवादियों को अच्छा नहीं लग रहा है। संविधान बदलने के बाद वही पुरानी मनुस्मृति की व्यवस्था लागू होने की पूरी सम्भावना है जो सामाजिक व्यवस्था में ऊंच-नीच और भेदभाव से भरी जाति व्यवस्था फिर से कायम होने की पूरी सम्भावना दिख रही है। डॉ.आंबेडकर की सोच की दूरदर्शिता की वजह से राजनैतिक आरक्षण के माध्यम से जो एससी और एसटी के 131 सांसद हर लोकसभा में पहुंच रहे हैं, संविधान बदलने के बाद एससी और एसटी एक भी सांसद बनाने के लिए तरस जाएगा। बहुजन समाज को मिल रहे चुनावी प्रलोभनों से निजात पानी होगी। बहुजन समाज (एससी- एसटी और ओबीसी) की सामूहिक जिम्मेदारी बनती है कि सारे सामाजिक और राजनीतिक द्वेष और दुराग्रह दरकिनार कर 2024 के लोकसभा चुनाव में संविधान,लोकतंत्र और उसके सामाजिक न्याय की पक्षधर पार्टियों के गठबंधन को ही जिताने में अपनी सारी राजनीतिक ऊर्जा लगाएं और समाज को भी प्रेरित व जागरूक करें।
        जब डॉ.आंबेडकर ने भारतीय संविधान की रचना की थी,वह मनुवाद पर आंबेडकर द्वारा किया गया करारा प्रहार था। इसलिए मनुवादी आंबेडकर और उनके संविधान से घोर नफ़रत करते हैं और उन्होंने ऐलानिया तौर पर भारतीय संविधान को स्वीकार करने से मना भी कर दिया था। सांविधानिक व्यवस्थाओं को देखकर मनुवादियों को सांप सूंघ गया था। संविधान ने एससी -एसटी और ओबीसी को केवल आरक्षण ही नहीं दिया,उसने बहुजन समाज को बहुत कुछ दिया है, जैसे आठ घण्टे का कार्य दिवस, महिलाओं को मातृत्व अवकाश और महिलाओं को तो डॉ आंबेडकर ने इतना दिया है, जितना उन्हें देश के सारे समाज सुधारक नहीं दे पाए। इसके बावजूद देश की 50प्रतिशत आबादी को डॉ.आंबेडकर के योगदान का एहसास नहीं है। देश के वंचित वर्ग के जीवन में जो भी बदलाव आया है वह सिर्फ डॉ.आंबेडकर और उनकी सांविधानिक व्यवस्थाओं से ही सम्भव हो पाया है। जिन्हें डॉ.आंबेडकर और उनके संविधान से प्रेम या लगाव नहीं है,अर्थात उससे नफ़रत करते हैं तो वे संविधान के माध्यम से डॉ.आंबेडकर द्वारा दी गयी सारी सुविधाओं और लाभों को त्याग दें,तब उन्हें संविधान की अहमियत पता चल जाएगी। इसलिए वर्तमान सत्ता द्वारा संविधान के बदलाव की संभावना से उपजने वाले गम्भीर दुष्प्रभावों को भांपते हुए बहुजन समाज को समय रहते ही सावधान और सजग हो जाना चाहिए और उस लोहार को मिली चंदन की लकड़ी की कीमत की तरह अपने सांविधानिक अधिकारों की कीमत पहचान कर संविधान की रक्षा करने की दिशा में आज से ही गम्भीर विचार-विमर्श के माध्यम से सामाजिक व राजनीतिक स्तर पर सार्थक प्रयास शुरू कर देना चाहिए अन्यथा लोहार की तरह बेशकीमती चीज खो जाने के बाद पछतावे और हाथ मलने के सिवा कुछ हासिल नहीं होने वाला। भारतीय संविधान की अनमोल विरासत देश के हर वर्ग और नागरिक के हित में है। इसलिए इसके सरंक्षण की जिम्मेदारी भी सभी नागरिकों की बनती है। वर्तमान सत्त्तारुढ़ दल द्वारा बिना एजेंडे के संसद का विशेष सत्र बुलाने के गूढ़ निहितार्थ को समझने की जरूरत है। राजनीतिक और बौद्धिक गलियारों में संभावित बिंदुओं पर प्रकाश डालने की प्रक्रिया शुरू हो गयी है, लेकिन इस सत्र के एजेंडों की असलियत सत्र शुरू होने के बाद ही सामने आ पाएगी।

अपना-अपना अहसास-डॉ हरिवंश शर्मा

डॉ हरिवंश शर्मा (प्राचार्य)
आदर्श जनता महाविद्यालय
देवकली, लखीमपुर-खीरी 
यात्रा-वृतांत

       आज मुझे 6:50 की ट्रेन से लखनऊ जाना था । स्लीपर का टिकट बेटे ने यह कहते हुए ऑनलाइन बुक कर दिया कि गर्मी का सीजन है साधारण कम्पार्टमेन्ट में यात्रा करना कठिन है । ऊपर से भीड़ का अपना आलम । हालांकि खुद की पढ़ाई के दिनों र्में खूब यात्रा की है वह भी साधारण रेल के डिब्बे में ही । तब कोयले वाला इंजन हुआ करता था जो अक्सर जेम्सवाट की  केतली वाला किस्सा खूब याद दिलाता था । ग्रेजुएशन पूरा करते . करते छोटी लाइन पर पर एक सुबह की ट्रेन डीजल वाले इन्जन से दौडने लगी थी । वकालत की पढ़ाई के दौरान भी खूब आना - जाना ट्रेनो से ही हुआ । आज की यह यात्रा कुछ अलग सा अहसास कराने वाली थी । मुझे इसका कतई अन्दाजा नही था । स्टेशन पर पहुंचा तो जी आर पी वाला बोला कहा जाना है ? मैने उससे पूछा कि एस . 2 किधर लगेगा । उसने कहा बस यही खड़े रहिये इधर ही लगेगा । छोटी लाइन  को अब बड़ी लाइन में तब्दील कर  दिया गया है ।  लेकिन स्टेशन वही जिन्दगी जी रही है । कहने को भर कि नई बिल्डिंगें बन गई है पर लोग तो वैसे ही ख्यालों से लबरेज  छोटी लाइन जैसे I कोई जानकारी नही रहती कौन सा कम्पार्टमेन्ट किधर लगेगा । यात्रियों को अपना डिब्बा दूंढने में खूब इधर से उधर कसरत करनी पड़ती है । यह रोज बरोज होता है । ट्रेन आई मेरा डिब्बा आगे के बजाय  बिल्कुल पीछे था । यदि दौड़कर न जाता तो ट्रेन का छूटना तय था । खैर डिब्बे तक पहुचने में इतना वक्त नही लगा जितना उसके अन्दर घुसने में | खचाखच भरी ट्रेन में बड़ी मसक्कत करके गेट पर ही बडी मुश्किल से खड़े होने की जगह मिल पायी । लोग चिल्ला रहे थे । औरतें चीख रही थी । बच्चे रो रहे थे । कुछ खो गए थे और कुछ खोज रहे थे । तभी एक ग्रामीण औरत चिल्लाती - रोती  भीड को चीरती हुई गेट की तरफ आती दिखाई दी । हाय ! मेरा बेटा  बाहर रह गया है । मेरे आदमी ( हसबैण्ड ) भी बाहर है ट्रेन चल दी है । कोई मेरे बेटे को ला दो । कोई उन्हें बता दो । हाय हम क्या करे ! अरे ! वह तो धीरे धीरे चलती ट्रेन से कूदने ही जा रही थी तभी एक महिला ने बाहर  से  उसके बेटे को गेट थी तरफ बढ़ाया । लोगों ने झट से खीचकर उस महिला के हवाले कर दिया । बेटे को पाकर उसके चेहरे पर शान्ति के भाव थे । वह फिर जोर जोर से चिल्लाने लगी । इनके पापा स्टेशन पर ही रह गये । अब हम का करी । ऐसे में कुछ की हैसी भी छूट गई। कुछ ने उसे ढाँढ़स बंधाया।
        साधारण डिब्बे की भीड को मात देता हुआ स्लीपर कोच की खीसे निकल रही थी । कई बार मन हुआ यह स्लीपर कोच कोई पुरुष होता तो मैं इसकी बतीसी तोड देता ।
        बगल में खड़ी एक  महिला का बच्चा भूख से व्याकुल था । वह उसे दूध पिलाने के लिए आंचल की तरक हाथ ले जाती फिर संकोच वश रुक जाती । लोग सिर्फ देख रहे  थे । बीच गलियारे में खड़ी वह महिला परेशान थी कि क्या करे और कैसे अपने बच्चे को दूध पिलाये । इस पर भी सामने बैठे 40 साला आदमी की नजर नही हट रही थी । उसकी नजर सिर्फ दो जगह पर अटकी थी एक तो अपनी दोनों टांगे इस कदर चौड़ी करके बैठा था कि कोई वहाँ बैठ न जाये | दूसरे कि वह अपने बच्चे को कब और कैसे दूध पिलाएगी | मेरी रिजर्व 71 नम्बर वाली बर्थ पर भी कुछ ऐसे ही दुष्ट कब्जा किये बैठे थे । उसके पति भी मजबूर वही मेरे पास खड़े थे । मैने पूछा कि क्या आप इन सबको धक्का मारते हुये भीड को चीरकर मेरी वाली बर्थ तक जा सकते हो । बच्चे का रोना उनसे भी देखा न जा रहा था | बोले और क्या कर सकते है । मैने उन्हे टिकट दिपा कहा जाकर उनको खड़ा कर दो और कहो मेरी सीट बुक है हटो यहाँ से | बस फिर क्या एक बाप अपने बच्चे के लिए जो कर सकता है किया और लड - झगड़ कर मेरी बताई सीट पर जा बैठा । लोग उसे धक्का दे रहे थे उसे जोरो से चिल्लाकर कहा ये मेरी सीट है 71 नम्बर वाली यहाँ से हटिए । उन दोनों ने अपने बैठने भर की जगह बना ली थी। मै भीड मे दबा कसमसा रहा था । लेकिन सन्तुष्टि थी मेरे स्लीपर के टिकट का पैसा अब वसूल हो गया था । टांगे फैलाये बैठे उस आदमी को पीटने का मन हो रहा था । आसपास के लोग भी खफा थे । तभी उस महिला ने मेरी तरफ हाथ हिलाकर बुलाया । भैया जगह है आप भी आकर बैठ लो काफी देर से खड़े हो । भीड में बडी मुश्किल से मै वहाँ पहुचा तो दोनो बहुत प्रसन्न थे । मुझे उनकी दुआ का  अहसास हो रहा था ।
वही  बगल थी सीट पर बैठे एक सिख युवक व युवती पर मेरी नजर पड़ी युवक ने बताया वह मेरे ही शहर के एक विद्यालय का छात्र रहा है और दिल्ली में नौकरी करता है । जिसे वह दीदी -दीदी कह रहा था । मैने पहचाना वह कोई और नही उन्नीस वर्ष पहले वह कक्षा दो की मेरी स्टूडेन्ट सिमरन कौर बजाज थी जो दिल्ली में ही जॉब करती है । एक शिक्षक के लिए इससे बड़ा कुछ नही । मुझे ऐसे में कई प्रकार के अहसास हो रहे थे जो मुझे रोमांचित कर रहे थे जो अकथनीय है।

Wednesday, August 23, 2023

आज़ादी की यात्रा बेहद रोमांचक-नन्दलाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)


"आजादी महज एक सियासी और रंगारंग महोत्सव का विषय नहीं है। आजादी तभी सच्ची और खूबसूरत लगती है,जब आम आदमी सम्मानजनक जीवन जी सके और महोत्सव, जनोत्सव का रूप ले सके।'’
     
नंदलाल वर्मा (सेवानिवृत्त ए0 प्रो0)
युवराज दत्त महाविद्यालय, खीरी
phone-9415461224
    भारत अपनी आजादी के 76 साल पूरे करने जा रहा है। इन 76 सालों को दो हिस्सों में बांटकर आज़ादी का अवलोकन और मूल्यांकन किया जा सकता है। पहले 50 साल, यानी कि 1947 से लेकर 1996 तक और बाकी के 26 साल, यानी कि 1997 से 2023 तक। इस अवधि में भारत की आज़ादी की यात्रा बेहद रोमांचक रही है, लेकिन इस यात्रा में कहीं-कहीं इतने गहरे धब्बे भी लगे जिसे कोई भी देश दोहराना नहीं चाहेगा। इस यात्रा में समाजवाद से लेकर बाजारवाद की तरफ तेज़ी से बढ़ते कदमों की दस्तक है और समाज के राजनीतिक होने की कहानी भी। आज एक सवाल जो सबसे जरूरी लगता है कि नागरिकों के लिए आजादी के मायने क्या हैं,क्या जिम्मेदार आज़ादी का मतलब लोगों के बीच ठीक ढंग से ले जा पाए और क्या लोगों ने इसे ठीक तरह से समझा और उसका पालन किया? इसे भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के उस संबोधन से समझने का प्रयास करते हैं जो उन्होंने 15 अगस्त 1947 को दिया था।

           नेहरू जी ने कहा था कि "हमारा मुल्क आजाद हुआ, सियासी तौर पर एक बोझा जो बाहरी हुकूमत का था, वह तो हट गया है,लेकिन आजादी भी अजीब-अजीब जिम्मेदारियां लाती है और बोझे लाती है। अब उन जिम्मेदारियों का सामना हमें करना है और एक आजाद हैसियत से हमें आगे बढ़ना है और अपने बड़े-बड़े सवालों को हल करना है। सवाल हमारी जनता का उद्धार करने का है, हमें गुरबत को दूर करना है,बीमारी दूर करनी है। आजादी महज एक सियासी विषय नहीं है। आजादी तभी सच्ची,ईमानदार और खूबसूरत लगती है,जब आम जनता को उसका फायदा मिले।'’
           नेहरू जी के पूर्वोक्त कहे शब्दों पर यदि आज के दौर में गौर करें तो एक मुल्क के तौर पर हम काफी आगे बढ़ चुके हैं, लेकिन कहीं न कहीं जिम्मेदारियों को लेकर आज भी लोगों के मन में झिझक और संशय बना हुआ है। नेहरू ने जिस भारत का सपना देखा था ,वह आज एक महत्वपूर्ण मुहाने पर दिखता है, जहाँ आर्थिक रूप से कुछ संपन्नता और समृध्दि तो जरूर आई है,लेकिन सामाजिक, राजनीतिक और लोकतांत्रिक स्तर पर जो विफलता या कमी दिखाई दे रही है, वह एक आजाद मुल्क के लिए तो कतई अच्छा नहीं कहा जा सकता है। यह सबसे बेहतर समय है कि सामाजिक-राजनीतिक सांप्रदायिकता और वैमनस्यता के जहर से देश को मुक्त कर सही राह पर ले जाया जाए।
           नेहरू ने भारत में सामाजिक,आर्थिक और राजनीतिक प्रतिबद्धता और समृद्धता की बुनियाद डाली थी। बुनियादी ढांचे से लेकर देश के लिए महत्वपूर्ण संस्थाओं को बनाने का काम किया। इसरो,आईआईटी, एम्स, आईआईएम आदि जैसी उच्च स्तरीय बुनियादी संस्थाएं आज भारत के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं, देश ने कला, संस्कृति, साहित्य और खेल जगत में उपलब्धि की बुलंदियों को छुआ है,लेकिन इसके उलट अभी भी देश का एक बड़ा तबका बेरोजगारी,भुखमरी और गरीबी की चपेट में है और समाज में आर्थिक विषमता की खाई लगातार गहराती जा रही है। बेलगाम बेरोजगारी ने देश को बुरी तरह घेर रखा है जिसकी वजह से समय-समय पर युवाओं का उबाल और तनाव सड़कों तक पहुंच जाता है। दूसरी तरफ कोविड महामारी के दौरान भारत के स्वास्थ्य ढांचे की जो असल तस्वीर सामने आई, वह एक स्वस्थ देश के लिए तो बिल्कुल अच्छा नहीं कहा जा सकता। आज़ादी के इतने सालों बाद भी अगर लाशें गंगा किनारे पड़ी हुई दिखाई देती हैं तो इससे सत्ता की मानवीय संवेदनाओं पर सवाल उठना लाज़िमी है।
          आजादी को लेकर आज तक जो विश्लेषण हो रहे हैं उनमें एक बुनियादी चीज़ जो सबसे ज्यादा खतरे में है, वह है "आजादी"। बीते कुछ समय में यह शब्द ही इतना विवादास्पद बन या बनाया गया है, एक ऐसा माहौल बना या बनाया गया है कि आज़ाद भारत में संवैधानिक व्यवस्था के बावजूद अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए संसद से लेकर सड़क तक स्पेस लगभग खत्म सा होता जा रहा है। नेहरू जी भारत को आडंबरों से छुटकारा और वैज्ञानिक तौर-तरीकों से जीने की बात किया करते थे, लेकिन आज के राजनीतिक दायरों से ही ‘काला जादू’ और 'नींबू-मिर्च-काले धागे ' की बात खुलकर की जाती है। इसलिए डॉ.आंबेडकर ने संविधान में वैज्ञानिक सोच विकसित करने की व्यवस्था दी है। धर्म और जाति के राजनीतिक घोल ने इस देश की संविधान में वर्णित धर्मनिरपेक्षता की बुनियाद को खोखला कर दिया है और अगर आज़ादी के इतने सालों बाद भी इसे दुरुस्त नहीं किया गया तो फिर आजादी के कोई मायने रह नहीं जाएंगे।
        भारत की यह यात्रा आज जिस पड़ाव पर है वहां सबसे ज्यादा विवादास्पद और झूठ चीज़ ‘आजादी’ शब्द ही है। इस पर बीते कुछ सालों से सुनियोजित तरीके से लगातार राजनीतिक हमले हो रहे हैं। कहीं किसी को अपनी बात रखने पर मारा-पीटा जा रहा है तो कहीं असहमति या अभिव्यक्ति की आज़ादी को राष्ट्र विरोध या द्रोह से जोड़कर कानूनी कार्रवाई की जा रही है। बीते कुछ सालों में दर्जनों सामाजिक कार्यकर्ताओं,स्वतंत्र पत्रकारों,बुद्धिजीवियों,अकडेमीशियन्स और सभ्य समाज से जुड़े लोगों को अपनी बात मुखरता से रखने पर जेल भेजा गया। सरकार की नीतियों और फैसलों पर असहमति को लेकर सत्ता में बैठे लोग आजकल जितना नाक-भौं सिकोड़ रहे हैं,उतना आजाद भारत के इतिहास में कभी नहीं देखा गया। बुद्धिजीवियों ने भारत के समृद्ध इतिहास को विस्तार से बताया है जहां एक दूसरे से संवाद की परंपरा काफी मजबूत रही है, लेकिन जैसे-जैसे आजादी मिले साल दर साल गुजरते जा रहे हैं, वैसे-वैसे संवाद और साझी विरासत और परंपरा भी कमजोर होती जा रही है और ऐसा मौजूदा भारतीय राजनीति में स्पष्ट तौर पर दिख भी रहा है। 

   आजादी के 76 साल पूरे होने पर जहां देश को अपनी विविधता के सहारे खुद को ज्यादा मजबूत करने की दिशा में काम करना चाहिए था, वहीं चीज़ें इसके उलट होती दिख रही हैं। समाज में विभाजन की खाई इतनी गहरी बन चुकी है कि लंबे समय से आस पास रहने वाले लोग रातोंरात एक दूसरे को शक और संशय की नज़र से देखने लगे हैं। कोई भी देश जब तक अपनी विविधता को नहीं अपनाता है तो आगे बढ़ने की उसकी सारी संभावनाएं धूमिल होती नज़र आती हैं। भारत अपनी सामाजिक,सांस्कृतिक और भौगोलिक विविधता के साथ विकास और लोकतंत्र को लेकर विदेशों में तो जोरदार तरीके से पेश करता है, लेकिन उसके भीतर लोकतंत्र की जो स्थितियां बनती जा रही हैं,उसे लेकर कुछ नहीं कर पा रहा है। 76 सालों में जो आम आदमी ने जो खोया है वह यह है कि राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पटल पर यह दर्ज हो चुका है कि भारत में डॉ.भीमराव आंबेडकर का संवैधानिक धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र कमजोर हुआ है। संविधान की रक्षक सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठ जजों द्वारा सार्वजनिक मंच पर आकर यह चिंता जताना कि भारत में लोकतंत्र खतरे में है,देश के बहुजन समाज के लिए एक बड़ी क्षति है।
           आज़ादी के पहले कुछ साल काफी अहम रहे हैं। उस दौरान बुनियादी संरचनाओं के जरिए देश को आगे तो बढ़ाया गया,लेकिन उसके बाद राजनीति इतनी हावी होती चली गई कि सामाजिक और आर्थिक विकास उसी में उलझकर रह गया। आपातकाल में इंदिरा गांधी ने खुद को असाधारण शक्तियां प्रदान कर नागरिक अधिकारों और राजनीतिक विरोध पर अधिकांश विरोधियों को जेल में डाल दिया और प्रेस पर सेंसर लगा दिया था। उस समय कई अन्य मानवाधिकारों का उल्लंघन हुआ था, जिसमें उनके बेटे संजय गांधी के नेतृत्व में पुरुष नसबंदी के लिए चलाया गया अभियान भी शामिल था। भारतीय इतिहास की आजादी के बाद आपातकाल सबसे विवादास्पद घटनाओं में से एक है, लेकिन संविधान की लोकतांत्रिक बुनियाद मजबूत होने के कारण देश उस स्थिति से जल्दी बाहर निकला और अगले कुछ ही दशकों में उदारवादी अर्थव्यवस्था के सिद्धातों को अपनाते हुए विकास की ओर एक बार फिर चल पड़ा।
          भारत सरकार द्वारा आजादी के 76वें साल में हर घर तिरंगा के साथ  "मिट्टी को नमन-वीरों का वंदन” और "मेरी माटी-मेरा देश" अभियान का नारा दिया गया है। राष्ट्रवाद की नई सोच और समझ विकसित करने का प्रयास किया जा रहा है। इन दिनों जहां देखो वहां सिर्फ 'मेरी माटी-मेरा देश ' और तिरंगे की ही बात हो रही है। हालांकि, बीते सालों में दो ऐसे मौके भी आए जब तिरंगे के मायने को सही तरह से प्रदर्शित किया गया। पहला मौका सीएए-एनआरसी को लेकर हुए लंबे आंदोलन में आया जब बड़ी संख्या में एक समाज के लोगों ने हाथों में तिरंगा थामा वहीं दूसरा मौका एक साल से अधिक चले किसान आंदोलन में आया जब किसानों ने तिरंगे को हाथों में लेकर मोदी सरकार से सवाल करते रहे और अपने अधिकारों की मांग करते रहे। 
           यह अच्छी बात है कि सरकार आजादी के 76वें साल का जश्न एक साथ मिलकर मनाने की बात कर रही है, लेकिन क्या देश के लोग आजादी की साझी परंपरा या विरासत का भी जश्न मना रहे हैं, क्या तिरंगे में निहित 'आइडिया ऑफ इंडिया' की जो बात है, उसे लोग समझ रहे हैं या क्या सरकार इस दिशा में लोगों के बीच जागरूकता ला पाई है? 76वें साल में घरों पर सिर्फ़ तिरंगा लहराने और भारत माता की जय बोलने से ही देशभक्ति सिध्द नहीं होती, इसके लिए जरूरी है कि तिरंगे और भारत माता में छिपे व्यापक संदेश को आत्मसात किया जाए। आजादी के 76वें साल में भारत के हर नागरिक को इस संदेश को समझाने की जरूरत है कि सिर्फ तिरंगा फहराने से आज़ादी के असल मतलब को नहीं समझा जा सकता। यह जरूरी है कि जश्न मनाते हुए हम पुरानी गलतियों से सबक लेते हुए आने वाले भविष्य की बेहतरी के लिए काम करें। हम एक ऐसा राष्ट्र बनकर उभरे जहां किसी भी तरह का सामाजिक और राजनीतिक वैरभाव न हो,सांप्रदायिक कटुता के लिए कोई जगह न हो और वैचारिक संकीर्णता न हो।
           विश्व-बंधुत्व का संदेश जब हम अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर देते हैं, तो उससे पहले यह जरूरी है कि अपने देश के भीतर रहने वाले सभी जाति, धर्म और समाज के लोग मिलकर रहें,क्योंकि सभी को एक साथ लेकर आगे बढ़ने में ही देश की तरक्की और बेहतरी है। आज़ादी का अमृत महोत्सव मनाने के बाद भी देश में जाति,धर्म,लिंग और क्षेत्र के आधार पर भेदभाव और उत्पीड़न की घटनाएं थमने का नाम नही ले रही है। गुजरात, मध्यप्रदेश और मणिपुर के मानवता को शर्मसार करने वाले दृश्यों के बाद यह तय करना मुश्किल हो रहा है कि देश के नागरिक गुलामी से मुक्त होने के बाद आज़ादी या कुंठा के दौर से गुजर रहे हैं?
          आजादी हासिल करने का संघर्ष जितना शानदार और समावेशी था उसे कायम रखने में देश के जिम्मेदार एक सीमा तक नाकाम रहे हैं। छोटी-छोटी घटनाओं और प्रयासों से कहीं न कहीं हमारी आजादी पर हमले जारी हैं और देश की बड़ी आबादी मौजूदा खतरों को भांप नहीं पा रही है, क्योंकि उसे तरह-तरह के गैरजरूरी बहसों,मुद्दों और प्रलोभनों में उलझाया जा रहा है और इसके पीछे एक बड़ी साज़िश अंजाम ले रही है जो कई मौकों पर उभरकर सामने आ जाती है। यह प्रवृत्ति देश के लिए,नागरिकों के लिए और हमारी मेहनत से अर्जित की गई बेशकीमती आजादी के लिये बेहद खतरनाक है।
          आज़ादी के 76 वर्ष पूर्ण होने पर हम किस चीज का जश्न मनाएं?.... घटते नागरिक उत्तरदायित्व बोध का, संवैधानिक संस्थाओं और पदों की गिरती मर्यादा और विश्वसनीयता का, छिनती अभिव्यक्ति की आजादी का,बढ़ती सामाजिक- राजनीतिक वैमनस्यता से उपजती मॉब लिंचिंग का या संसद के भीतर और बाहर तानाशाह,असंवेदनशील और निर्लज्ज होती लोकतांत्रिक सत्ता का चरित्र का या देश के ऊपर बढ़ते कर्ज़ का या कृषि और किसानों की बदहाली और आत्म हत्याओं का या बेरोजगार युवाओं की त्रासदी का, सरकार के प्रवक्ता बन चुके लोकतंत्र के चौथे स्तंभ (पूंजीपतियों की बाज़ारवादी समाचार और विचारविहीन टीवी और प्रिंट मीडिया) का, तीन कृषि क़ानूनों की वापसी के लिए आंदोलनरत अन्नदाताओं की राहों में कीले गाड़ने का,यौन उत्पीड़न के खिलाफ आवाज़ उठाने पर सड़क पर घसीटी गईं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देश का मान बढ़ाने वाली पहलवान बेटियों का,लगभग तीस करोड़ बीपीएल आबादी का, हर महीने पांच किलो राशन की बाट जोहती अस्सी करोड़ जनता का, खत्म कर दिया गया बुढ़ापे का आर्थिक सहारा पुरानी पेंशन का ? मेरे विचार से आजादी का असल जश्न मनाने के लिए नागरिक उत्तरदायित्व बोध पैदा करने की जरूरत है। भारत के उन वीर सपूतों को शत-शत नमन जिनके अथाह बलिदानों और संघर्षों की वजह से आज़ादी मिली।

पढ़िये आज की रचना

संविधान बनाम सनातन" की दुबारा जंग छिड़ने की आशंका-नन्दलाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)

नन्दलाल वर्मा (सेवानिवृत्त एसोसिएट प्रोफेसर) युवराज दत्त महाविद्यालय लखीमपुर-खीरी 9415461224. आगामी बिहार,पश्चिम बंगाल और 2027 के शुरुआत में...

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