साहित्य

  • जन की बात न दबेगी, न छिपेगी, अब छपेगी, लोकतंत्र के सच्चे सिपाही बनिए अपने लिए नहीं, अपने आने वाले कल के लिए, आपका अपना भविष्य जहाँ गर्व से कह सके आप थे तो हम हैं।
  • लखीमपुर-खीरी उ०प्र०

Tuesday, January 03, 2023

भारत जोड़ो यात्रा: राहुल के इस प्रयास से अब तक क्या हासिल?-अजय बोकिल


अजय बोकिल
 वरिष्ठ संपादक, दैनिक सुबह सवेरे म०प्र०


सार
राहुल की यात्रा अभी भावुकता के दौर में है। असली चुनौतियां तो उसके बाद शुरू होंगी। राहुल ने जिम्मेदारी उठाने की तैयारी दिखाई है, निभाएंगे कैसे, इस सवाल का जवाब तो बाद में मिलेगा।

विस्तार
कांग्रेस के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष और सांसद राहुल गांधी की बहुचर्चित ‘भारत जोड़ो यात्रा’ आधी से ज्यादा पूरी हो चुकी है। राहुल अब मध्यप्रदेश से राजस्थान की सीमा में प्रवेश करने वाले हैं। इस कुल 3 हजार 570 किमी लंबी पैदल यात्रा में से राहुल और उनके सहयात्री 2 हजार किमी से ज्यादा भारत नाप चुके हैं। जिन 13 राज्यों से यह यात्रा गुजर रही है और गुजरेगी, उनमें से 9 राज्य पूरे हो चुके हैं। इस दौरान लोगों ने राहुल की अब तक बना दी गई ‘पप्पू’ छवि से हटकर उनमें एक नए राहुल को देखने और समझने की कोशिश की है।

खुद राहुल ने भी देश के सर्वाधिक प्रभावशाली राजनीतिक परिवार के ‘मनमौजी बेटे’ से हटकर एक अलग राहुल गांधी  के रूप में जनता से संवाद करने की कोशिश की है और इस बात को उनके घोर-विरोधी भी मानने लगे हैं। यही तत्व देश की सत्ता पर काबिज भारतीय जनता पार्टी की चिंता का सबब भी है। 

यहां असल सवाल यह है कि अब तक सुचारू रूप से सम्पन्न इस यात्रा से राहुल गांधी को क्या हासिल हुआ, उन्होंने अपनी स्थापित छवि को बदलने में कितनी कामयाबी पाई और सबसे अहम सवाल कि उनकी पार्टी कांग्रेस के प्रति जनविश्वास किस हद तक लौटा है या लौटेगा? या फिर यह यात्रा भी महज राहुल गांधी की इमेज बिल्डिंग प्रोजेक्ट बनकर रह जाएगी?

बेशक, इन सवालों के जवाब इतनी जल्दी नहीं मिलेंगे, लेकिन कुछ संकेत जरूर मिल रहे हैं, जो एक परिपक्व राजनेता राहुल गांधी को तराशने के लिहाज से अहम हैं। 

पूर्व प्रधानमंत्री स्व. राजीव गांधी के बेटे राहुल गांधी का राजनीति में प्रवेश अपने पिता की तरह अकस्मात नहीं था, लेकिन बतौर सक्रिय राजनीतिज्ञ अपने 18 साल से राजनीतिक कॅरियर में राहुल ज्यादातर समय एक युवा, ईमानदार लेकिन अंगभीर राजनेता के रूप में ही जाने जाते रहे हैं। उनके क्रियाकलापों से यह संदेश बार-बार जा रहा था कि राजनीति तो दूर किसी भी काम के प्रति उनमें कोई संकल्पबद्धता और निरतंरता का अभाव है।

राजनीति ‘स्वांत: सुखाय’ की जपमाला नहीं

राजनीतिक परिवार का वारिस होने के बाद भी वो राजनीति भी मजबूरी या विरासती दबाव के कारण कर रहे हैं। भलामानुस होना निजी तौर पर अच्छी बात है, लेकिन राजनीतिज्ञ बनने के लिए साम, दाम, दंड, भेद की निपुणता भी उतनी ही मायने रखती है। जो यह सब करने का इच्छुक नहीं है, उसे कम से कम सियासत या किसी राजनीतिक तंत्र का नेतृत्व नहीं करना चाहिए, क्योंकि राजनीति केवल ‘स्वांत: सुखाय’ की जपमाला नहीं है। नेता के सुखों, विजन, साहस, निर्णय क्षमता और दूरदृष्टि में करोड़ो लोगों भाग्य भी निहित होता है।

राहुल गांधी अब तक अपेक्षाओं के पहाड़ की तलहटी पर ही टहलते नजर आते थे। जब देश में राजनीतिक घटनाक्रम अपने उरूज पर होता, वो विदेशों में छुट्टियां मनाने चल पड़ते। यूपीए-2 सरकार के समय प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह सरकार द्वारा प्रस्तावित दागी नेताओं और विधायकों को बचाने वाला अध्यादेश सार्वजनिक रूप से फाड़ना राहुल की अगंभीरता की पराकाष्ठा थी।

इस घटनाक्रम से आहत बेचारे तत्कालीन प्रधानमंत्री इस्तीफा देने का साहस भी नहीं जुटा सके थे, जबकि अध्यादेश राहुल गांधी की जानकारी  के बगैर जारी हुआ होगा, इस पर कोई भरोसा नहीं करेगा। राहुल अगर उस अध्यादेश से अहसमत थे तो उसे पहले ही रुकवा सकते थे। लेकिन उन्होंने अपनी ही सरकार को शर्मसार करने का तरीका चुना।

इसके अलावा राहुल की राजनीतिक, सामाजिक और सामान्य ज्ञान की समझ पर भी तंज होते रहे हैं। उनकी भाषण शैली भी ऐसी है कि वो वहां पाॅज देते हैं, जहां उन्हें धारावाहिक बोलना चाहिए। गलत जगह पाॅज से कई बार अर्थ का अनर्थ या बात की गलत व्याख्या होने की पूरी गुंजाइश होती है। भाजपा के प्रचार तंत्र के लिए यह हमेशा दमदार ईंधन ही साबित हुआ है। इन क्रिया कलापों से आम जनता में यही संदेश जाता रहा है कि राहुल नेता बनना ही नहीं चाहते, उन्होंने जबरिया नेता बनाया जा रहा है। इसके पीछे एक मां का पुत्रमोह तो है ही कांग्रेस जैसी सवा सौ साल पुरानी राजनीतिक पार्टी का वैचारिक असमंजस और नेतृत्वविहीनता भी है।   

भारत जोड़ो यात्रा से का प्रभाव

तो फिर राहुल की इस यात्रा का हासिल क्या है? केवल इतनी लंबी पदयात्रा का रिकाॅर्ड बनाना? पहली बार प्रतिष्ठा की ऊंची मीनारों से उतरकर आम भारतीय से रूबरू होना? लोगों के दुख-दर्द में शामिल होने का संदेश देने  की कोशिश करना या फिर नरेन्द्र मोदी जैसे दबंग राजनेता के आभामंडल और राजनीतिक शैली को खुली चुनौती देने का साहस दिखाना?

भावनात्मक मुद्दों से परे जमीनी मुद्दों को चुनाव जिताऊ मुद्दे साबित करने की गंभीर कोशिश करना अथवा ‘नामदार’ से ‘आमदार’ होने का संदेश देना? या फिर यह संदेश देना कि सत्ता की तमाम कोशिशों के बाद भी देश में ‘प्रतिरोध’ के स्वर को दबाना या खारिज करना नामुमकिन है, क्योंकि भारत एक लोकतंत्र है, जो समानता और सौहार्द में विश्वास रखता है। 

यकीनन सवाल बड़े हैं, लेकिन इतना तय है कि इन तीन महीनों में राहुल गांधी ने अपनी स्थापित छवि को काफी हद तक बदलने की कोशिश की है और यह केवल ‘क्लीन शेव्ड राहुल’ से ‘दढि़यल राहुल’ तक सीमित नहीं है। सबसे बड़ी बात यह है कि राहुल ने यात्रा के अपने संकल्प को अब तक पूरी निरतंरता के साथ पूरा किया है।

सावरकर जैसे कतिपय विवादित बयानों को छोड़ दें तो वो बवालों से दूर रहकर समर्पित यात्री की तरह बात कर रहे हैं। गरीबी, बेरोजगारी, सुरक्षा, सर्वसमावेशिता, भय का वातावरण समाप्त करने जैसे मुद्दों को उठा रहे हैं और अपनी ओर से आश्वस्त करने का प्रयास कर रहे हैं कि अगर कांग्रेस लौटी तो देश का माहौल बदलेगा। हालांकि यह कैसे बदलेगा, इसका कोई ठोस रोड मैप उनके पास नहीं है, केवल एक भरोसे की लाठी है। 

राहुल के साथ जुड़े लोग

एक और अहम बात यह है कि राहुल लगातार  पैदल चल रहे हैं। हालांकि अभी भी बहुत से लोगों को भरोसा नहीं हो पा रहा है कि हमेशा ‘जेड’ सिक्योरिटी में घिरा रहने वाला यह शख्स दो हजार किमी का फासला पैदल नाप सकता है? लेकिन यह हो रहा है। इस दौरान वो लोगों के साथ ढोल भी बजा रहे हैं, देव दर्शन के लिए जा रहे हैं, महाकाल को साष्टांग दंडवत कर रहे हैं, लोगों से हाथ मिला रहे हैं, कहीं कहीं सभाओं को सम्बोधित भी कर रहे हैं।

उनकी यात्रा में कई खिलाड़ी (राजनीतिक नहीं), अभिनेता, अमीर-गरीब भी खुद होकर शामिल हो रहे हैं। इससे आम लोगों में एक कौतूहल का माहौल तो यकीनन बना है कि आखिर इस बंदे को यह सब करने की जरूरत क्यों आन पड़ी? 

वैसे भी इस तरह की यात्राएं व्यक्ति की संकल्पनिष्ठा का परिचायक होती हैं। उसे पूरा करने पर एक सकारात्मक संदेश तो जाता ही है। राहुल भी उसके हकदार हैं। हालांकि जिस भारत के टूटने की वो बात कर रहे हैं, उस पर बहस हो सकती है।

बाबा आमटे की भारत जोड़ो यात्रा

ध्यान रहे कि प्रख्यात समाजसेवी बाबा आमटे ने भी 1986 में ‘भारत जोड़ो यात्रा’ निकाली थी। उस वक्त देश की सत्ता कांग्रेस और राजीव गांधी के हाथों में थी। तब पंजाब में खालिस्तानी आतंकवाद सुलग रहा था। हिंदू-सिखों में दरार डालने की पुरजोर कोशिश हो रही थी। उस वक्त बाबा आमटे को लगा था कि देश टूट रहा है, उसे बचाना जरूरी है। सो राष्ट्रीय एकात्मता के नारे के साथ यह यात्रा शुरू हुई थी ( राहुल भी तकरीबन वही बात कर रहे हैं)।

बाबा आमटे की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ राहुल की यात्रा से भी लंबी यानी 5 हजार 42 किमी थी, जो कन्याकुमारी से शुरू होकर कश्मीर तक गई थी। इनमें वृद्ध बाबा आमटे के साथ 116 युवा साथी (जिनमे 16 महिलाएं थीं) भी साइकल  पर चल रहे थे ( राहुल के साथ भी लगभग इतने ही सहयात्री चल रहे हैं)। उस यात्रा को लेकर भी लोगों में कौतूहल था। रास्ते में कई लोग बाबा की यात्रा में अपनी साइकिलें लेकर शामिल होते। 

यात्रा का जगह- जगह स्वागत होता, बाबा के भाषण होते। भारत को जोड़े रखने  की कमसें खाई जातीं। जब तक यात्रा चली, उसकी चर्चा रही। बाद में मुद्दे और राजनीति ही बदल गई। तमिल आंतकवाद ने राजीव गांधी की जान ले ली तो पंजाब में आतंकवाद समाप्त होने में 11 साल लग गए। फिर भी बाबा आमटे की यात्रा को इतना श्रेय जरूर मिला कि उन्होंने टूटे मनों को जोड़ने के लिए एक भागीरथी कोशिश तो की। जबकि बाबा आमटे न तो राजनेता थे और न ही सत्ता पाना उनका उद्देश्य था।

राहुल की महत्वाकांक्षा

राहुल गांधी न तो बाबा आमटे हैं और न ही राजनीतिक फकीर हैं। वो स्वयं जो भी चाहते हों, लेकिन उनकी पार्टी कांग्रेस उनसे बहुत कुछ अपेक्षा रखती है। और किसी भी राजनीतिक दल का अंतिम लक्ष्य सत्ता पाना ही होता है, धूनी रमाना नहीं। क्या राहुल इस अरमान को पूरा कर पाएंगे? क्या वो कांग्रेसनीत यूपीए का वोट बैंक 19.49 प्रतिशत और कांग्रेस की लोकसभा सीटें 52 से आगे बढ़ा पाएंगे या यह आंकड़ा भी बचाना मुश्किल होगा?

बेशक कुटिलता और व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा राजनीति का अनिवार्य तत्व है, लेकिन सियासत अब ज्यादा शातिर और बहुआयामी हो गई है। प्रचार और दुष्प्रचार के साधन अब पहले से ज्यादा और प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं। ऐसे में नेता को स्थापित होने के लिए कई स्तरों पर जूझना होता है, उस पर अपना आधिपत्य सिद्ध करना होता है। उसे समय पर निर्णय लेने होते हैं और उनका औचित्य भी सिद्ध करना होता है।

राहुल की यात्रा अभी भावुकता के दौर में है। असली चुनौतियां तो उसके बाद शुरू होंगी। राहुल ने जिम्मेदारी उठाने की तैयारी दिखाई है, निभाएंगे कैसे, इस सवाल का जवाब तो बाद में मिलेगा।
( अमर उजाला डाॅट काॅम पर दि. 1 ‍िदसंबर 2022 को प्रकाशित)

ईडब्ल्यूएस आरक्षण: सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने खींच दी हैं भविष्य की राजनीतिक रेखाएं-अजय बोकिल

अजय बोकिल
 वरिष्ठ संपादक, दैनिक सुबह सवेरे म०प्र०

सार-
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले ने भविष्य की राजनीतिक रेखाएं भी खींच दी हैं। अनारक्षित वर्ग को आर्थिक आरक्षण की वैधता ने आने वाले समय में एससी, एसटी और ओबीसी वर्ग में भी इसे लागू करने की मांग की नींव रख दी है।

विस्तार-
देश की सर्वोच्च अदालत की पांच सदस्यीय संविधान पीठ द्वारा शैक्षणिक संस्थानों और सरकारी नौकरियों में आर्थिक रूप से कमजोर (ईडब्लूएस) वर्ग को 10 फीसदी आरक्षण देने संबंधी 103वें संविधान संशोधन को बहुमत से सही ठहराए जाने के बाद अनारक्षित वर्ग के गरीबों को आरक्षण का रास्ता साफ हो गया है। अधिकांश राजनीतिक दलों ने इसका स्वागत किया है, लेकिन इस फैसले के साथ कई अहम सवाल भी उठ रहे हैं।

 
पहला तो यह कि क्या आर्थिक आरक्षण देश में समानता के सिद्धांत का विरोधी है, दूसरा, आर्थिक आधार पर आरक्षण अनारक्षित वर्ग को ही क्यों, तीसरे क्या भविष्य में आरक्षण का मुख्य आधार आर्थिक पिछड़ापन ही बनेगा, चौथा क्या इससे सुप्रीम कोर्ट के 1992 के फैसले कि 'देश में आरक्षण 50 फीसदी से अधिक नहीं हो सकता' का यह उल्लंघन है और पांचवा यह कि इस देश में आरक्षण की बैसाखी आखिर कब तक कायम रहेगी?

ये तमाम सवाल संविधान की पीठ में शामिल जजों ने भी उठाए हैं, जिनके उत्तर हमें खोजने होंगे और कल को देश का सामाजिक ताना बाना और राजनीतिक दिशा भी उसी से तय होगी।

इस दूरगामी फैसले में पांचो जजों में एक बात पर सहमति दिखी कि आर्थिक आधार पर आरक्षण संविधान के बुनियादी ढांचे का उल्लंघन नहीं है। पीठ में शामिल जस्टिस दिनेश माहेश्वरी ने अपने निर्णय में कहा-
 
103वें संविधान संशोधन को संविधान के मूल ढांचे को भंग करने वाला नहीं कहा जा सकता। ईडब्ल्यूएस आरक्षण समानता संहिता या संविधान के मूलभूत तत्वों का उल्लंघन नहींऔर 50 प्रतिशत से अधिक आरक्षण सीमा का उल्लंघन बुनियादी ढांचे का उल्लंघन भी नहीं करता है, क्योंकि यहां आरक्षण की उच्चतम सीमा केवल 16 (4) और (5) के लिए है।

जस्टिस बेला एम. त्रिवेदी की राय में 103वें संविधान संशोधन को भेदभाव के आधार पर रद्द नहीं किया जा सकता। ईडब्लूएस कोटे को संसद द्वारा की गई एक सकारात्मक कार्रवाई के रूप में देखा जाना चाहिए। इससे अनुच्छेद 14 या संविधान के मूल ढांचे का कोई उल्लंघन नहीं होता।

ईडब्ल्यूएस कोटा आरक्षित वर्गों को इसके दायरे से बाहर रखकर उनके अधिकारों को प्रभावित नहीं करता है। आरक्षण जाति व्यवस्था द्वारा पैदा की गई असमानताओं को दूर करने के लिए लाया गया था। आजादी के 75 वर्षों के बाद हमें परिवर्तनकारी संवैधानिकता के दर्शन को जीने के लिए नीति पर फिर से विचार करने की जरूरत है।’

जस्टिस जेबी पारदीवाला ने भी अपने फैसले में दोनों के विचारों से सहमति जताई और संशोधन की वैधता को बरकरार रखा। आरक्षण व्यवस्था पर अपनी महत्वपूर्ण टिप्पणी में जस्टिस पारदीवाला ने कहा
आरक्षण अंत नहीं है, बल्कि सामाजिक और आर्थिक न्याय को सुरक्षित करने का साधन है, इसे निहित स्वार्थ नहीं बनने देना चाहिए। आरक्षण अनिश्चित काल तक जारी नहीं रहना चाहिए, जिससे निहित स्वार्थ बन जाए।’

गौरतलब है कि केंद्र की मोदी सरकार ने दोनों सदनो में 103वें संविधान संशोधन विधेयक को मंजूरी दी दी। इसके तहत अनारक्षित वर्ग के लोगों को शैक्षणिक संस्थानों में और सरकारी नौकरियों में 10 फीसदी आरक्षण का प्रावधान किया गया था। 

सर्वोच्च न्यायालय का फैसला महत्वपूर्ण
12 जनवरी 2019 को राष्ट्रपति ने इस कानून को मंजूरी दी, लेकिन इस कानून को सुप्रीम कोर्ट में यह कहकर चुनौती दी गई थी कि इससे संविधान के समानता के अधिकार और पचास प्रतिशत तक आरक्षण की सीमा का उल्लंघन होता है। अत: इस कानून को अवैध माना जाए। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने इस कानून को वैध माना। कानून में सालाना 8 लाख से कम आय वाले परिवारों को इकोनॉमिकली वीकर सेक्शन्स (ईडब्लूएस) मानते हुए सरकारी और निजी शैक्षिक तथा सरकारी नौकरी में भी 10 प्रतिशत आरक्षण दिया जा रहा है।

लेकिन संविधान पीठ के ही जस्टिस एस. रवींद्र भट ने अपने निर्णय में ईडब्ल्यूएस आरक्षण संबंधी संविधान संशोधन पर असहमति जताते हुए उस रद्द कर दिया। जस्टिस भट ने अन्य तीन न्यायाधीशों के फैसले पर असहमति जताते हुए कहा 103 वां संशोधन संवैधानिक रूप से प्रतिबंधित भेदभाव की वकालत करता है। आरक्षण पर निर्धारित 50 प्रतिशत की सीमा के उल्लंघन की अनुमति देने से और अधिक उल्लंघन हो सकते हैं जिसके परिणामस्वरूप विभाजन हो सकता है।

जस्टिस रवींद्र भट ने अपने फैसले में आर्थिक आधार पर आरक्षण को खारिज करते हुए कई सवाल उठाए। उन्होंने कहा कि जिस तरह एससी, एसटी और ओबीसी को इस आरक्षण से बाहर किया गया है, उससे भ्रम होता है कि समाज में उनकी स्थिति काफी बेहतर है, जबकि सबसे ज्यादा गरीब इसी वर्गों में हैं। यह संविधान के मूल ढांचे के खिलाफ है।

हालांकि उन्होंने यह भी कहा कि अकेले आर्थिक आधार पर किया गया आरक्षण वैध है। कुल मिलाकर इसका अर्थ यही है कि जस्टिस भट और जस्टिस यू.यू. ललित ने  आर्थिक आधार पर आरक्षण को तो सही माना, लेकिन उसके तरीके पर असहमति जताई। 

इस बारे में सरकारी पक्ष का कहना है कि नए प्रावधान से सुप्रीम कोर्ट द्वारा लागू आरक्षण की पचास फीसदी की सीमा का कहीं से उल्लंघन नहीं हुआ है, क्योंकि यह वास्तव में कोटे के भीतर कोटा ही है। यह दस प्रतिशत आरक्षण अनारक्षित वर्ग (जिसमें हिंदुओं की अगड़ी जातियां व गैर हिंदू धर्मावलंबी शामिल हैं) के बाकी पचास फीसदी कोटे में से ही दिया गया है। 

राजनीतिक दलों की प्रतिक्रिया
बेशक, इससे समाज के सामान्य वर्ग के उस गरीब तबके को राहत मिली है, जो केवल गरीब होने के कारण अपने ही वर्ग के सम्पन्न तबके से प्रतिस्पर्द्धा में पिछड़ रहा था। भाजपा और एनडीए में शामिल दलों ने इसे अपनी जीत बताया है। भाजपा को इसका कुछ लाभ आगामी चुनावों में हो सकता है, हालांकि ज्यादातर राज्यों में अगड़ी जातियां भाजपा समर्थक ही हैं।

इस मामले में कांग्रेस का रवैया थोड़ा ढुलमुल दिखा। उसने एक तरफ अगड़ों को आर्थिक आरक्षण का समर्थन यह कहकर किया कि संसद में उनकी पार्टी ने संविधान संशोधन के पक्ष में वोट दिया था तो दूसरी तरफ अपने ही एक दलित नेता उदित राज से इसका यह कहकर विरोध करा दिया कि यह संशोधन आरक्षण की सीमा लांघता है और यह भी कि न्यायपालिका की मानसिकता ही मनुवादी है। हालांकि कांग्रेस महासचिव जयराम रमेश ने स्पष्ट कहा कि उनकी पार्टी शीर्ष अदालत के फैसले का स्वागत करती है।

उन्होंने कहा कि यह संविधान संशोधन 2005-06 में डाॅ. मनमोहन सिंह की सरकार द्वारा सिन्हा आयोग के गठन से शुरू की गई प्रक्रिया का ही नतीजा है। सिन्हा आयोग ने जुलाई 2010 में अपनी रिपोर्ट दी थी। केवल तमिलनाडु की सत्तारूढ़ डीएमके के मुख्यमंत्री एम.के.स्टालिन ने फैसले का यहकर विरोध किया कि इससे लंबे समय से जारी ‘सामाजिक न्याय के संघर्ष को झटका’ लगा है।

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने फैसले का स्वागत करते हुए देश में जातीय जनगणना  की मांग दोहराई। जाहिर है कि अधिकांश दल राजनीतिक कारणों से फैसले का खुलकर विरोध नहीं कर रहे हैं, क्योंकि अगड़ों के वोट सभी को चाहिए। 

खिंच गई हैं भविष्य की राजनीतिक रेखाएं
बहरहाल सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले ने भविष्य की राजनीतिक रेखाएं भी खींच दी हैं। अनारक्षित वर्ग को आर्थिक आरक्षण की वैधता ने आने वाले समय में एससी, एसटी और ओबीसी वर्ग में भी इसे लागू करने की मांग की नींव रख दी है ( ओबीसी वर्ग में तो वैसे भी क्रीमी लेयर का नियम लागू है) क्योंकि आरक्षित वर्गों में भी विभिन्न जातियों के बीच आरक्षण का लाभ उठाने को लेकर प्रतिस्पर्द्धा तेज हो गई है। (भारत में करीब 3 जातियां और 25 हजार उप जातियां हैं)।

यह भी बात जोरों से उठ रही है कि जब एक परिवार का तीन पीढि़यों से आरक्षण का लाभ लेते हुए आर्थिक-सामाजिक उत्थान हो गया फिर उन्हें आरक्षण क्यों मिलते रहना चाहिए तथा देश में सामाजिक और आर्थिक समता का सर्वमान्य पैमाना क्या है, क्या होना चाहिए?

विभिन्न जातियों और समाजों में आरक्षण का लाभ उठाकर पनप और प्रभावी हो रहे नए किस्म के ब्राह्मणवाद को अभी से नियंत्रित करना कितना जरूरी है? और यह कैसे होगा? वोट आधारित राजनीति इसे कितना होने देगी?

जाहिर है कि बदलते सामाजिक समीकरणो के चलते यह मांग आरक्षित वर्गों में से ही उठ सकती है। यानी सामाजिक न्याय का संघर्ष एक नए दौर में प्रवेश कर सकता है। ये बदले सामाजिक समीकरण ही राजनीति की चाल भी बदलेंगे और राजनीति के साथ व्यवस्था भी बदलेगी। क्षीण रूप में इसकी आहट सुनाई भी देने लगी है। 

(अमर उजाला डाॅट काॅम  पर 10 नवंबर 2022 को प्रकाशित )

दर्द का जीवंत दस्तावेज--वर्चुअल रैल-विनोद शर्मा ‘सागर’

पुस्तक समीक्षा

पुस्तक --वर्चुअल रैली( लघुकथा संग्रह)
लेखक-- सुरेश सौरभ
प्रकाशक-इण्डिया नेटबुक्स प्राइवेट लिमिटेड नोएडा - 201301
प्रथम संस्करण-2021 
मूल्य --160रु 


   वर्तमान हिंदी साहित्य में लघुकथा एक चर्चित विधा है। जिसका लेखन व्यापक रूप से हो रहा है। लघुकथा उड़ती हुई तितली के परों के रंगों को देख लेने तथा उन्हें गिन लेने की यह कला जैसा है। साहित्य संवेदना,सान्त्वना,सुझाव शिक्षा एवं संदेश का सागर होता है, जिसमें समाज के एक छोटे से छोटे व्यक्ति से लेकर बड़े से बड़े व्यक्ति तक की व्यथा-कथा समाहित होती है। लघुकथा में बहुत बड़ी बात या संदेश को कम शब्दों में कहने की सामर्थ्य होती है। अत्यंत प्रभावी ढंग से महत्वपूर्ण विषय व संदेश को कह पाने की क्षमता के कारण ही लघुकथा पाठकों में अपनी विशेष पहचान पकड़ व पहुँच बनाने में सफल हुई है और सभी को अत्यंत पसंद है।
     विगत वर्षों कोरोना महामारी के दौरान जहाँ एक तरफ हमें अत्यधिक कष्ट व पीड़ा हुई। जिंदगी में तमाम कठिनाइयों को झेलना पड़ा। आम जिंदगी तहस-नहस हो गई। वहीं दूसरी तरफ साहित्य सृजन,आत्ममंथन तथा आत्म विश्लेषण इत्यादि के लिए पर्याप्त अवसर भी प्राप्त हुए। इस दौरान एक तरफ पर्यावरण प्रदूषण कम हुआ तो दूसरी तरफ साहित्य समृद्ध हुआ।
      चर्चित लघुकथाकार सुरेश सौरभ जी का लघुकथा संग्रह ‘वर्चुअल रैली‘ अपने आप में अप्रतिम है, जिसमें कोरोना महामारी के दौरान हमारे समाज तथा जीवन की दशा के सजीव चित्र संग्रहित हैं। आमजन की पीड़ा व परेशानियों का मार्मिक सजीव चित्रण है। सौरभ जी की लघुकथाएँ जीवन से जुड़ी तमाम विसंगतियों व विषमताओं  की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट करातीं हैं। समाज के सबसे निचले पायदान पर गुजर-बसर करने वाले व्यक्ति चाहे वह अखबार वाला हो, कबाड़ी वाला हो, रिक्शावाला हो या मजदूर हो सबकी पीड़ाओं का खाका खींचती  दिखाई देती हैं।
       ये लघुकथाएँ सदैव यह सिखाती हैं कि मानव धर्म ही सर्वोच्च व शाश्वत है। इनकी लघुकथाओं को पढ़ना जीवन के असली रंगों से परिचित होना एवं पीड़ाओं तथा परेशानियों को करीब से पढ़ने जैसा है। इनकी कथाओं के पात्र एवं विषय हमारे आस-पास के समाज व आमजन की जिंदगी से जुड़े हुए लोग हैं। जिनमें जिंदगी की जद्दोजहद, जख्म और जरूरतें साफ देखे जा सकते हैं।
    104 पृष्ठ के इस लघुकथा संग्रह में कुल 71 लघुकथाओं से गुजरने के दौरान आपको विषम परिस्थितियों में कर्तव्य बोध, साहस व समाज की सत्यता का आभास होगा। ये बेबाक लघुकथाएँ हर स्तर पर हमें प्रखरता के साथ समाज की सच्चाई मानवता की सीख तथा परपीड़ा की पहचान कराती हैं। ये लघुकथाएँ प्रकाशकों के मनमाने रवैये पर भी तीखा प्रहार भी करती हैं। किन्नरों की सामाजिक अवहेलना एवं वेश्यावृत्ति की विवशता को उजागर करती हैं । सुरेश सौरभ की कलम यहीं ही नहीं रुकती है बल्कि समाज में सोशल मीडिया की क्रूरता व निजता के वायरल होने के गंभीर मामले को भी उठाती हैं।अव्यवस्था जनित परेशानियों की प्रतिलिपि और आमजन-मन की पीड़ाओं की प्रतिनिधि हैं। वर्तमान युवा पीढ़ी के चाल-चलन चेहरे का सही रूप भी हमें दिखाती हैं। जीवन में अपनों का साया जब हटता है तो अबोध नौनिहाल पौधों का क्या होता है, इसका सोदाहरण दृश्य देखने को इन कथाओं में मिलता है । आत्मीय संबंध की उलझन की तरंगें कभी-कभी त्वरित तनाव के साथ आए तूफान उसके बाद सुखद सन्नाटें से गुनगुनाती खुशी के दर्शन, मन मोह लेते हैं। रिश्तों में बढ़ती अविश्वासनीयता,पतंगों के माध्यम से धरती पर मानव मन में जाति धर्म की झाड़ियों में फँसी मानवता व गरीबी में विवश स्त्री का दर्द और फर्जी मुठभेड़ की असलियत से रूबरू कराती हैं।
      आधुनिक बेतार जिंदगी में संबंधों के धागों की मजबूती व उनकी महक व महत्व को लघुकथाएँ रेखांकित करती हैं। गरीब बेबस विधवा तक को, जुगाड़ की बैसाखी से पहुँचती सुविधाएँ और नोटबंदी से उपजी दुश्वारियों के दृश्य, तालाबंदी से मासूम हृदय की माँग तथा गरीबों का उपहास करती योजनाओं पर तीखे व्यंग्य को उद्घाटित करती हैं। इस लघुकथा संग्रह में आमजन मन शोषित, पीड़ित वंचित व बेसहारा की पीड़ा को जुबान तो दी ही है साथ ही बेजुबान जानवरों की पीड़ा को भी स्वर प्रदान किया है। दहेज जैसी प्राचीन,अर्वाचीन विकराल कुप्रथा पर भी हृदयस्पर्शी प्रहार किया है। भूख प्यास से टूटी एक बच्ची की आत्मा के शब्द लॉकडाउन में घर से दूर-दराज फँसे परिजनों की घर वापसी की गुहार को भी हमारे दिल तक पहुँचाने का प्रयास किया है जो अव्यवस्था व भेदभाव को कोस रही है। लॉकडाउन में बंद वाहनों के साथ बंद मंदिरों व विद्यालयों से जुड़े हर व्यक्ति का ये लघुकथाएँ अनुवाद करती हैं।
      लेखक ने एक तरफ गरीबी भूख जनित अव्यवस्थाओं  को सामने रखा है तो वहीं दूसरी ओर अमीरों की विकृत मानसिकता व सोच पर भी करारा प्रहार किया है ।महानायक के दर्द के जरिए समाज को यह संदेश प्रेषित किया है कि ईश्वरीय सत्ता के अतिरिक्त कोई सर्व शक्तिमान नहीं है। कोरोना के कारण जेलों की व्यवस्था का असली दृश्य भी प्रस्तुत किया है। महामारी की मार खाए पुलिस, वकील, वेश्या, मजदूर भिखारी के साथ-साथ आम जनमानस की चीख तथा  बेबसी को भी लघुकथाओं ने भाव भरे शब्द दिए हैं। इस संग्रह की अधिकाँश लघुकथाएँ देश के विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकीं हैं। जिनका मूल उद्देश्य एक समतामूलक समाज की स्थापना है, जिनके नायक समाज में सबसे निम्न स्तर का जीवन यापन करने वाले लोग जैसे मजदूर, रिक्शावाला, मोची भिखारी, पेपर वाला इत्यादि हैं।
   यह सत्य है कि अंतिम पंक्ति में खड़ा व्यक्ति जब तक समाज की मुख्यधारा से जुड़ कर प्रगतिशील नहीं बनता तब तक एक उन्नत समाज की कल्पना नहीं की जा सकती। साहित्य का मुख्य मकसद सवाल खड़े करना ही नहीं बल्कि समाधान सुझाना भी होता है। इन सबके साथ समाज में व्याप्त ढोंग, आडंबर, छुआछूत भेदभाव जातिवाद एवं विडंबना पर भी ये लघुकथाएँ निःसंकोच चोट करती हुई प्रतीत होती हैं। इस संग्रह में कोरोना जैसी वैश्विक महामारी में विवश मानवता, सड़कों पर असहाय रेंगते जीवन के दीन-हीन दृश्य,भूख प्यास की पराकाष्ठा आदि का जमीनी चित्रण किया गया है।
     वर्चुअल रैली आमजन मन के दर्द का जीवंत दस्तावेज है। कोरोना काल में यह कर्तव्यबोध रिश्तों की विवशता, दुष्कर्म, दुर्दांतता के दर्दनाक दृश्य, ऑनलाइन शिक्षा की दुश्वारियाँ व दुविधाएँ दिखाता है। आपदा की आँड़ में हो रहे शोषण व अत्याचार व दुबक रही जिन्दगी को समेटती ये कथाएँ प्रभावी ढंग से पाठकों से जुड़ने में समर्थ हैं। तालाबंदी के दौरान भूख से तड़पते गरीबों तथा मजदूरों की पीड़ाओं का मार्मिक कोलाज सौरभ जी लघुकथाएँ प्रस्तुत करतीं हैं। इसके साथ ही परंपराओं के पराधीन धागों में बुने रिश्तों की घुटन व दुष्परिणाम का प्रभावी छायांकन भी करती हैं। एक तरफ जहाँ इस संग्रह में तालाबंदी(लाकडाउन)के दौरान दिहाड़ी मजदूरों पर पुलिस की बर्बरता, आवागमन बंद होने से वाहनों के लिए भटकते लोग और उनके रास्ता नापते पाँवों के छालों की कराह को समेटे हुए, सार्वजनिक स्वर प्रदान कर रही हैं तो दूसरी तरफ एक शहीद की माँ के गर्वित आँसू भी छलकते हैं। महामारी के दौरान मनुष्य का बदला जीवन व दुर्गंध मारती व्यवस्था की पोल खोलती हुई ये कथायें लघुकथा साहित्य में बेजोड़ हैं। इसलिए पाठकों के लिए यह लघुकथा संग्रह अतीत के गवाक्ष की तरह है। अतः इसे सभी को अवश्य पढ़ना चाहिए।

             समीक्षक-विनोद शर्मा ‘‘सागर’‘‘
                     हरगाँव -- सीतापुर 
                     उत्तर प्रदेश 
     सम्पर्क सूत्र-- 9415572588

कंझावला क्रूरता: यह तो समूची इंसानियत की बेशर्म हत्या है-अजय बोकिल

अजय बोकिल
 वरिष्ठ संपादक, दैनिक सुबह सवेरे म०प्र०
देश की राजधानी दिल्ली के बाहरी इलाके में नए साल की रात में स्कूटी पर घर लौटती एक युवती की नशे में चूर युवकों की कार में घसीट कर जिस रोंगटे खड़े कर देने वाले ढंग से मौत का मामला हुआ है, वह दरअसल समूची इंसानियत की ही बेशर्म हत्या है। इस मामले में दिल्ली पुलिस की अब तक की कहानी पर भरोसा करना उतना कठिन है, जितना कि यह मान लेना कि ये दुनिया अपने आप से चल रही है। इस प्रकरण में पूरा घटनाक्रम इस बात को काले अक्षरों में रेखांकित करता है कि क्रूरता, नृशंसता और पैशाचिकता में हम दस साल पहले दिल्ली में हुए निर्भया प्रकरण की तुलना में मीलो आगे बढ़ गए हैं और मनुष्यता के पैमाने पर मीलों नीचे गिर गए हैं। इस बात पर भरोसा कैसे करें कि एक कार में एक युवती मय स्कूटी के फंसी और उस कार में सवार नशे में डूबे पांच उच्छ्रंखल युवा उसकी लाश को 15 किमी तक घसीटते रहें, उस युवती का शरीर तार-तार हो जाए, वो युवती बचाने के लिए ठीक से चीख भी न सके और चीखी भी हो तो दिल्ली में किसी ने वो चीख न सुनी हो, सरे आम सड़क पर घिस-घिस कर उसका निर्वस्त्र जिस्म टुकड़े टुकड़े बिखरता किसी ने न देखा हो, एक-दो संवेदनशील राहगीरों ने इस भयानक ‘मोबाइल मर्डर’ की सूचना पुलिस को दी तो पुलिस ने भी उन नराधमो को पकड़ने में दिलचस्पी नहीं दिखाई। वो तो थर्टी फर्स्ट की रात सेलिब्रेशन में जुटे लोगों की निगरानी में व्यस्त थी।  यानी जो हुआ, वो सोचकर भी रोंगटे खड़े कर देता है। उससे भी ज्यादा क्षुब्ध करने वाली दिल्ली पुलिस की यह थ्योरी कि मामला शराब पीकर गाड़ी चलाने और महज एक हादसे का है। 
 दरअसल नए साल की रात दिल्ली की सड़कों पर जो हुआ, वो उस आफताब द्वारा लिव इन में रहने वाली अपनी प्रेमिका की हत्याकर 35 टुकड़े कर जंगल में सुकून के साथ फेंकने, एक पत्नी द्वारा अपने बेटे के साथ मिलकर पति की हत्याकर टुकड़े फ्रीज में रखने, एक नाबालिग बेटी द्वारा अपने प्रेमी के साथ मिलकर अपनी ही मां की तकिए से मुंह दबाकर हत्या करने तथा इसका कोई अफसोस भी होने, एक उदीयमान युवा अभिनेत्री द्वारा सेट पर ही फांसी लगा लेने या फिर काल्पनिक स्वर्ग में जाने के लिए एक परिवार के एक दर्जन सदस्यों द्वारा शांति के साथ खुदकुशी कर लेने से भी भयानक और समूचे समाज के जमीर को झिंझोड़ने वाला है। क्योंकि कांझीवला मामले में जो हुआ है, उसमें कोई निजी खुन्नस, दुराग्रह, प्रतिशोध या राक्षसी सोच भले न थी लेकिन उससे भी कहीं ज्यादा भयावह और चिंताजनक वो अमानवीयता, बेपरवाही तथा आत्मकेन्द्रिकता थी, जहां मनुष्य सिर्फ और सिर्फ अपने सुख, स्वार्थ और भोग के बारे में सोचता है, उसे सर्वोपरि मानता है। बाकी उसे किसी से कोई मतलब नहीं। इतने खुदगर्ज तो शायद पशु भी नहीं होते। 
राजनीतिक पार्टियां इस वीभत्स हादसे पर भी राजनीति भले कर लें, लेकिन इस सवाल का जवाब तो पूरे समाज को, हमारी संस्कृति को और सभ्यता को देना होगा कि आखिर हम जी किस समय में रहे हैं? तकनीकी तौर पर यह केस संभव है कि सिर्फ हादसे का साबित हो, क्योंकि पीकर शराब चलाते हुए उन्होंने घर लौटती युवती को टक्कर मार दी। टक्कर मारने के बाद दारू के नशे में मदहोश कार में सवार युवाअों ने एक क्षण के लिए भी यह न सोचा कि कम से कम गाड़ी की रफ्तार धीमी कर यह तो देख लें कि गाड़ी किससे और कैसे टकराई है। कई बार एक थप्पड़ भी नशा उतार देता है, यहां तो सीधे-सीधे एक गाड़ी दूसरे को कुचल रही थी। लेकिन उन संवेदनहीन युवाअों ने ऐसा कुछ करना तो दूर नए साल की मदहोशी में कार को घुमाना जारी रखा, मानो कुछ हुअा ही नहीं। इक्का दुक्का राहगीरों ने उन्हें रोकने की कोशिश भी की, लेकिन वो युवा मदमस्त अपने में ही व्यस्त थे। कोई मरे, कोई जीए, इससे उन्हें क्या। जिसने अपनी जान इतने वीभत्स तरीके से गंवाई, उसका दोष केवल इतना था कि वो बीते साल की आखिरी रात में अकेले यह सोच कर लौट रही थी कि आने वाले साल की सुबह उसकी जिंदगी में शायद कोई नया सपना या संदेशा लेकर  आएगी। 
इस मामले में कानूनी तौर पर क्या होगा, कैसे होगा, यह आगे  की बात है। पर इस कांड ने देश तो क्या दुनिया को भी झकझोर दिया है। यह सवाल फिर उछाल दिया है कि एक मनुष्य इतना बेरहम और बेपरवाह कैसे हो सकता है? इस बात की पूरी संभावना है कि नशे में चूर युवकों को युवती की मौत की बात पता चल गई हो तो उन्होंने उसे पूरी तरह मिटाने की सोच ली हो। युवती की जान जाने से ज्यादा उन्हें अपनी जान बचाने की ज्यादा चिंता थी। 
ऐसा नहीं कि क्रूरता की मिसालें पहले नहीं थीं। लेकिन उनके पीछे कभी वैचा‍रिक तो कभी निजी कारणों से प्रतिशोध अथवा अवसाद  का तत्व ज्यादा काम करता रहा है। लेकिन कंझावाला में विशुद्ध निर्ममता और संवेदनहीनता थी। ऐसी संवेदनहीनता जो मानवीयता को ही खारिज करती है। दुर्भाग्य से समूची दुनिया में मनुष्य को जानवर से भी ज्यादा क्रूर प्राणी बनाने में आज इंटरनेट का बड़ा हाथ है। आफताब ने अपनी प्रेमिका के टुकड़े-टुकड़े कर सुकून के साथ जंगल में फेंकने और घर में खून के धब्बे मिटाने  के तरीके गूगल से सीखे थे। आज इंटरनेट पर देखकर उस उम्र के बच्चे भी सफाई से फांसी लगाकर जान गंवा रहे है, जिस उम्र में कभी लोगों को फांसी शब्द का सही सही मतलब भी मालूम नहीं होता था, उसे लगाना तो बहुत दूरी की बात है। थोड़ी भी मनमर्जी के खिलाफ बात होने पर लोग उस तरह खुदकुशी कर रहे हैं, मानो आत्महत्या न हुई, रोजमर्रा की सब्जी काटना हो गया। 
ऐसा लगता है कि इंटरनेट हमारे ज्ञान की सीमाएं उस हद तक बढ़ा रहा है, जहां दरअसल कंटीले तारों की बाड़ होनी चाहिए थी। नेट ने दुनिया को करीब ला‍ दिया है, लेकिन मनुष्यता की मूल तत्व को दफनाने में भी कसर नहीं छोड़ी है। वरना कोई कारण नहीं था कि दिल्ली की सर्द रात में भी एक भी शख्स किसी तरह उस मीलो घिसटती जा रही युवती की देह में प्राण ज्योत बचा पाता।
विडंबना तो यह है ‍िक यह हादसा उस रात घटा, जब दिल्ली तो क्या लगभग पूरे देश की पुलिस अलर्ट पर थी।  कैसे थी, यह इस हादसे ने बेनकाब कर दिया है। पुलिस कह रही है कि जो हुआ, वह सेक्सुअल असाॅल्ट (यौनिक हमला) या सुविचारित मर्डर नहीं है। मान लिया, लेकिन जो हुआ है, वह इन अपराधों से भी ज्यादा भयानक और संवेदनाअों को सुन्न करने वाला है। कहीं ऐसा तो नहीं कि आपराधिक मानसिकता ने अब हत्या का एक बिल्कुल नया तरीका ईजाद किया हो, जिसे अदालत में इरादतन हत्या साबित करना भी मुश्किल हो। आरोपियों के मुता‍िबक कार में तेज संगीत बजाने के कारण वह मृतका की चीख नहीं सुन सके। ऐसा संगीत भी किस काम का ? तो क्या हमारी युवा पीढ़ी के लिए संगीत भी मौत का नया नुस्खा है, जिसकी आड़ में कुछ भी किया सकता है?     
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वरिष्ठ संपादक
( 'सुबह सवेरे' में दि 3 जनवरी 2023 को प्रकाशित)

Tuesday, November 15, 2022

बिरसा मुंडा-रमाकांत चौधरी

   कविता   

क्रांति की अमिट कहानी था।
वह वीर बहुत अभिमानी था।
डरा नहीं वह गोरों से,
लहज़ा उसका तूफ़ानी था।

जल जंगल धरती की ख़ातिर,
जिसने सबकुछ वारा था।
क्रांति बसी थी रग-रग में,
वह जलता हुआ अंगारा था।

सन् 1875 में जन्मा,
राँची के उलिहातू ग्राम में।
नाम था बिरसा मुंडा जिसका,
जो हटा न कभी संग्राम में।
रमाकांत चौधरी
लखीमपुर खीरी (उत्तर प्रदेश)

आदिवासियों का महापुरुष,
जो आज भी पूजा जाता है।
जिसकी गाथा सुनने से,
रग-रग में साहस भर जाता है।


मानवता के विरुद्ध ज़ुल्म जब,
बहुत अधिक बढ़ जाता है।
बिरसा जैसा महापुरुष,
तब ज़ुल्म मिटाने आता है।

                

Thursday, November 10, 2022

धरती पुत्र की गैरहाजिरी में समाजवादी पार्टी की बढ़ सकती हैं कई प्रकार की चुनौतियां/मुश्किलें और कठिन परीक्षा से भी गुजरना पड़ सकता है:

राजनीति चर्चा 
एन०एल० वर्मा (असो.प्रोफ़ेसर)
वाणिज्य विभाग
वाईडीपीजी कॉलेज,लखीमपुर खीरी
      
मुलायम सिंह यादव विगत कई सालों से अपनी पार्टी के संरक्षक की भूमिका में थे लेकिन, सामाजिक और राजनीतिक अवसरों पर उनकी उपस्थिति और मौजूदगी अखिलेश यादव और लाखों कार्यकर्ताओं के लिए एक ऐसे वटवृक्ष के समान थी जिसकी छत्रछाया में सपाईयों को " जिसने न कभी झुकना सीखा, उसका नाम मुलायम है" का नारा लगाने में एक अलग तरह की अनुभूति और गर्व महसूस होता था।
         मुलायम सिंह की रिक्तता से सपा की आगे की राजनीतिक राहें कितनी मुश्किल होंगी या सपा की यात्रा कितनी आसान और लम्बी होगी, बहुत कुछ उनके राजनीतिक उत्तराधिकारी अखिलेश यादव के सियासी कौशल पर निर्भर करेगा। अब भविष्य का राजनीतिक सफर उन्हें पिता की छत्रछाया के बिना ही तय करना है जिसकी डगर थोड़ी कठिन जरूर दिखती है जो समाजवादी पार्टी के लिए चुनौती भरी हो सकती है। नेताजी के रहते चाचा शिवपाल सिंह यादव और अखिलेश यादव के बीच 2022 के विधानसभा चुनाव के दौरान दिखी भूमिका और नाराज़गी तथा मुलायम सिंह यादव की छोटी बहू अपर्णा यादव के बीजेपी में चले जाना बहुत कुछ समाजवादी पार्टी की राजनीतिक दिशा और दशा तय होने पर असर डालने की सम्भावना से इनकार नहीं किया जा सकता है।
माननीय मुलायास सिंह शोक-सभा
         
 निकट भविष्य में में अखिलेश यादव को कई बड़े व कड़े राजनीतिक फैसलों और इम्तहानों से गुजरना होगा। उन्हें एक बड़ी सत्ताधारी भाजपा के साथ चाचा शिवपाल सिंह यादव और उनकी पार्टी से भी निपटने के लिए बेहद राजनैतिक कौशल,संयम और दूरदर्शिता के साथ पेश आना पड़ेगा। मुलायम सिंह की मृत्यु से रिक्त हुई मैनपुरी लोकसभा सीट पर उपचुनाव भी होना है। निकाय चुनाव भी निकट है और पार्टी के लिए सबसे बड़ी परीक्षा तो 2024 का लोकसभा चुनाव है। ‘नेता जी’ के न रहने से सपा कार्यकर्ताओं को उनके भीतर उपजे सदमे से भी उबारना है और उन्हें भविष्य में होने वाले चुनावों के लिए नयी ऊर्जा और आत्मविश्वास के साथ तैयार करना सपा के लिए एक बड़ी चुनौती और परीक्षा हो सकती है। अखिलेश यादव के सामने पार्टी के आधार वोट बैंक के साथ ही अपने वृहद राजनीतिक कुनबे को साधना और संभालना बड़ी चुनौती है। उनके चाचा शिवपाल सिंह यादव काफी समय से खफा चल रहे हैं लेकिन, बीच-बीच में मुलायम सिंह यादव उन्हें शांत कर दिया करते थे। इसी कारण वह विधानसभा चुनाव में सपा के साथ तो दिखाई देते थे लेकिन,बेमन जैसी स्थिति से इनकार नहीं किया जा सकता है। फ़िलहाल,मुलायम सिंह के बाद अब परिवार में कोई ऐसा व्यक्ति दिखाई नहीं देता है जो सबको साधकर चल सके,यह बड़ी जिम्मेदारी भी अखिलेश यादव पर ही होगी।
           मुलायम सिंह यादव और अखिलेश यादव की भिन्न राजनीतिक पृष्ठभूमि और सियासी रणनीति के दृष्टिगत एक बहुत ही स्वाभाविक सवाल खड़ा होता है कि ‘नेताजी’ के साथ कार्यकर्ताओं व समर्थकों के लंबे अरसे से कायम उनके भावनात्मक रिश्ते की डोर को अखिलेश यादव कितनी मजबूती के साथ पकड़कर रख पाते हैं? इसके लिए उन्हें नए सिरे से बेहद सावधानी से व्यापक स्तर पर रणनीति तैयार करनी होगी। मुलायम सिंह यादव के साथ लंबे अरसे से काम करते आ रहे बुजुर्ग नेताओं के साथ अखिलेश यादव सामंजस्य स्थापित कर अपने नेतृत्व में समाजवादी पार्टी ‘नेताजी’ की विरासत को आगे बढ़ा सकती है। हालांकि, मुलायम सिंह यादव कई अवसरों पर अखिलेश यादव को आशीर्वाद देकर स्थिति साफ कर चुके हैं जिससे उनके राजनीतिक उत्तराधिकार व विरासत को लेकर कोई संशय नही रह जाता है। इसके बावजूद मुलायम सिंह के न रहने पर ऐसी अप्रत्याशित राजनैतिक घटनाक्रम की संभावना से भी इनकार नही किया जा सकता है,जो मुलायम सिंह की उपस्थिति मात्र से अंकुरित होने का साहस नही जुटा पाती थीं क्योंकि, सत्ता और पैसा की राजनीति में सब सम्भव माना जाता है अर्थात अपनों को छोड़कर दुश्मन से हाथ मिलाने और दुश्मन को आप से हाथ मिलाने की कब और कैसी परिस्थितियां पैदा हो जाएं, वर्तमान राजनीति में ऐसी सम्भावनाएं सदैव बनी रहती है।
           मैनपुरी लोकसभा उपचुनाव से होगी अखिलेश यादव और शिवपाल सिंह की राजनीतिक परिपक्वता और एकता की परीक्षा। एकजुट रहेगी या बंट जाएगी मुलायम सिंह की राजनीतिक विरासत ? इस सीट पर मुलायम सिंह यादव का उत्‍तराधिकारी कौन होगा,यह आने वाले कुछ दिनों में एक ऐसा प्रश्‍न बनने वाला है जिससे अखिलेश यादव और शिवपाल सिंह दोनों की राजनीतिक परिपक्‍वता,दूरदर्शिता और एकता की परीक्षा हो जाएगी। राजनीतिक गलियारों में चर्चा है कि मैनपुरी सीट से मुलायम सिंह के राजनीतिक उत्‍तराधिकारी के चयन में यादव परिवार से कई विकल्प हो सकते,लेकिन सबसे ज्यादा सम्भावना धर्मेंद्र यादव पर जाकर टिकती नज़र आ रही है, क्योंकि सपा के आंदोलनों में वह सबसे अधिक सक्रिय रहते हैं। यह सीट मुलायम खानदान के पास लंबे समय से रही है और वर्तमान में इसी एक सीट की वजह से लोक सभा में यादव परिवार का प्रतिनिधित्व बचा था। इसलिए सपा के लिए यह सीट बचाना उसकी और यादव परिवार की प्रतिष्ठा से जुड़ा हुआ अतिमहत्वपूर्ण विषय माना जाता है है।  गुजरात, हिमाचल आदि राज्य में विधानसभा चुनाव के साथ मैनपुरी लोकसभा सीट पर उपचुनाव होने की उम्मीद है। समाजवादी पार्टी और यादव परिवार की इस रिक्त सीट को बचाने की एक बड़ी जिम्मेदारी है, क्योंकि इससे पहले हुए उपचुनावों में एक मजबूत आधार वोट बैंक के बावजूद रामपुर और आजमगढ़ लोकसभा सीट पर सपा मात खा चुकी है। इसके साथ ही कुछ दिनों बाद होने वाले नगर निकाय चुनाव में पार्टी के जनाधार को बरकरार रखना भी एक बड़ी चुनौती है।
           निःसंदेह, अखिलेश यादव की राजनीतिक तुलना मुलायम सिंह यादव से नहीं हो सकती है ,लेकिन अपनी लम्बी सियासी यात्रा में मुलायम सिंह यादव ने कई राजनीतिक और कूटनीतिक मानक गढ़े और चौंकाने वाले निर्णय भी लिए। मुलायम सिंह यादव जमीनी राजनीति के माहिर खिलाड़ी थे। वह ज़मीनी कार्यकर्ताओं के माध्यम से जनता की नब्ज बखूबी पहचानते थे। कोई नाराज हो गया तो उसे मना लेना उन्हें बखूबी आता था। विरोधी दलों के नेताओं से भी उन्होंने हमेशा निजी रिश्ते बनाकर ही राजनीति की। यही कारण है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह सहित तमाम अन्य बीजेपी और अन्य दलों के नेता मुलायम सिंह यादव से अपने निजी रिश्तों की दुहाई देते दिखाई देते हैं। उम्मीद है कि अखिलेश यादव अपने पिता जी की राजनीतिक विरासत से बहुत कुछ सीखकर उनके नक्शे कदम पर चलकर उनकी राजनीतिक विरासत को आगे ले जाकर उसको अनवरत समृद्ध करने की दिशा में प्रयासरत रहेंगे। बदले राजनीतिक परिवेश में सियासी गलियारों में अखिलेश यादव के सियासी परीक्षा में पास और फेल होने की चर्चाएं होने की संभावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता है।
            हिंदुस्तान में कई नेताओं के दुनिया से जाने के बाद उनके राजनैतिक वारिसों ने विरासत में मिली सियासत को एक नई ऊर्जा और स्फूर्ति के साथ स्थापित और तराशकर बुलंदियों पर ले जाने का काम किया है। मुलायम सिंह यादव के जाने के बाद अखिलेश यादव सपा के लिए नया अवतार होंगे या नहीं, यह तो वक्त बताएगा,लेकिन आंध्र प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री वाईएसआर रेड्डी के जाने के बाद उनके बेटे जगनमोहन रेड्डी की पैदल यात्रा से आंध्र प्रदेश की सियासत बदलने का एक अच्छा उदाहरण भी हमारे सामने है जिससे अखिलेश यादव बहुत कुछ सीख सकते हैं।
इति

'गीत और स्वर सभी तुम्हारे' और 'विचार वीथिका' का विमोचन सम्पन्न

पुस्तक विमोचन

लखीमपुर-खीरी सनातन धर्म सरस्वती विद्या मंदिर बालिका इण्टर कालेज में उमाकान्त त्रिपाठी 'उमेश' की पुस्तक 'गीत और स्वर सभी तुम्हारे' एवं सत्यप्रकाश ''शिक्षक' की पुस्तक 'विचार वीथिका' का विमोचन मुख्य अतिथि पूर्व नगर पालिका अध्यक्षा डॉ. इरा श्रीवास्तव एवं विशिष्ट अतिथि गोला के वरिष्ठ कवि डॉ. द्वारिका प्रसाद रस्तोगी ने किया। पुष्पांजलि जन सेवा समिति एवं परिवर्तन फाउंडेशन द्वारा आयोजित काव्य गोष्ठी एवं पुस्तक विमोचन समारोह का संयोजन श्वेतवर्णा प्रकाशन के प्रदेश प्रतिनिधि सुरेश सौरभ ने किया। कार्यक्रम में समीउल्ला शमी, श्याम किशोर 'बेचैन', विनोद शर्मा 'सागर' (हरगांव) रमाकांत चौधरी, नंदीलाल, अमन पांडेय, विनीत दीक्षित 'बागी', राजेन्द्र तिवारी 'कंटक', अमित कैथवार, आनंद विश्वकर्मा, मानसी भारती, अपूर्वा शाक्य, अनीस अहमद, विकास सहाय ने काव्य पाठ किया‌।कार्यक्रम में
मुख्य वक्ता डॉ. राकेश माथुर ने पुस्तकों की समीक्षा प्रस्तुत करते हुए कहा सत्य प्रकाश शिक्षक की पुस्तक सामाजिक संदर्भों का एक कालजयी दस्तावेज है। उमाकांत त्रिपाठी की पुस्तक 'गीत और स्वर सभी तुम्हारे' की कविताएं जन भावनाओं के गहरे सरोकारों से जुड़ीं हैं। कार्यक्रम में डॉ राम औतार विश्वकर्मा, मूलचंद आर्या, अमित,अतुल, रूपांसी, अजय शर्मा, नीलकमल, राजकिशोर गौतम, डॉ आदित्य रंजन आदि सैकड़ों लोग उपस्थित रहे ‌। संचालन विकास सहाय ने किया।

Wednesday, October 12, 2022

ईडब्ल्यूएस आरक्षण की पृष्ठभूमि कांग्रेस ने तैयार की थी,किंतु सामाजिक-राजनीतिक नुकसान के डर से उसने कदम पीछे खींच लिए थे, लेकिन बीजेपी ने सही वक्त पर फेंका पांसा-प्रोफेसर नन्दलाल वर्मा

   विमर्श   
एन०एल० वर्मा (असो.प्रोफ़ेसर)
वाणिज्य विभाग
वाईडीपीजी कॉलेज,लखीमपुर खीरी
2005 में कांग्रेस नेतृत्व की यूपीए सत्ता में आई तो उसने 10 जुलाई 2006 को  रिटायर्ड मेजर जनरल एसआर सिन्‍हो की अध्यक्षता में तीन सदस्‍यीय आयोग गठित किया। आयोग ने 2010 में अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंप दी, लेकिन इस आयोग की रिपोर्ट पर यूपीए की सरकार ने वोट बैंक के खिसकने के डर से उस पर अमल करने के बारे में निर्णय नही ले स्की। तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने राजनीतिक नुकसान के डर से रिपोर्ट पर मौन साधते हुए इसे ठंडे बस्ते में डाल देना ही उचित समझा, जबकि उनकी यूपीए सरकार के पास अभी कार्यकाल के चार साल बचे थे।

1990 में मंडल कमीशन की सरकारी नौकरियों में ओबीसी के लिए 27% आरक्षण की सिफारिश की घोषणा करने के बाद से ही आर्थिक आधार पर आरक्षण देने की जमीन कांग्रेस द्वारा तैयार कर ली थी, लेकिन उसे कभी अमल में लाने की कोशिश यूपीए शासनकाल के दौरान नहीं हुई जिसे बीजेपी ने 2019 के लोकसभा चुनाव से ठीक पहले एक राजनीतिक हथियार के रूप में प्रयोग कर लिया। 

वर्तमान में क्यों चर्चा में आया  : वैसे तो यह मामला मेडिकल प्रवेश परीक्षा नीट से भी जुड़ा रहा है, लेकिन इसको जानने के लिए 2019 में चलते हैं। इस साल बीजेपी की केंद्र सरकार ने 103वॉ संविधान संशोधन कर आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग को शिक्षा और रोजगार के क्षेत्र में 10% ईडब्ल्यूएस आरक्षण देने की घोषणा की थी। फिर केंद्र सरकार ने 29 जुलाई 2021 को नीट परीक्षा में आरक्षण को लेकर एक फैसला लिया। केंद्र सरकार ने कहा कि अंडर ग्रैजुएट या पोस्ट ग्रैजुएट मेडिकल कोर्सेज में ओबीसी समुदाय को 27% और आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (ईडब्ल्यूएस) के लोगों को 10% आरक्षण का लाभ मिलेगा। इस फैसले के आने के बाद नीट परीक्षा की तैयारी कर रहे तमाम छात्र सुप्रीम कोर्ट पहुंच गए। याचिका लगाकर कहा कि केंद्र सरकार का फैसला सुप्रींम कोर्ट के इंदिरा साहनी बनाम केंद्र सरकार (1992) में दिए गए फैसले के खिलाफ है जिसमें कहा गया है कि आरक्षण की सीमा 50% से ऊपर नहीं होनी चाहिए। यह भी कहा गया कि सरकार ओबीसी वाला इनकम क्राइटेरिया ईडब्ल्यूएस पर कैसे लागू कर सकती है? 21अक्टूबर को सुप्रीम कोर्ट की तीन जजों की बेंच ने केंद्र सरकार से सवाल पूछा कि ईडब्ल्यूएस आरक्षण निर्धारित करने के लिए कोई मानदंड स्थापित किए गए हैं? ईडब्ल्यूएस आरक्षण के निर्धारण में शहरी और ग्रामीण क्षेत्र को ध्यान में रखा गया? जिसको लेकर केंद्र सरकार ने अपना जवाब दाखिल किया। सरकार ने ईडब्ल्यूएस के लिए आठ लाख रुपए की आय सीमा के क्राइटेरिया सेट करने को सही ठहराया है। केंद्र की तरफ से कहा गया है कि सिंहों कमीशन की रिपोर्ट पर यह फैसला लिया गया है। केंद्र सरकार ने यह भी कहा कि आठ लाख रुपये की सीमा बांधना संविधान 14,15 और 16 के अनुरूप है। 

मंडल कमीशन: साल 1990 जिसे भारतीय सामाजिक इतिहास में ‘वाटरशेड मोमेंट’(ऐतिहासिक क्षण) कहा जा सकता है। अंग्रेज़ी के इस शब्द का मतलब है कि वह क्षण जहां से कोई बड़ा परिवर्तन शुरू होता है। हाशिए पर पड़े देश के बहुसंख्यक तबके से इतर जातीय व्यवस्था में राजनीतिक चाशनी जब लपेटी गई तो हंगामा मच गया। समाज में लकीर खींची और जातीय राजनीति के धुरंधरों के पौ बारह हो गए। 7 अगस्त 1990, तत्तकालीन प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करने का ऐलान संसद में किया तो देश जातीय समीकरण के उन्माद से झुलसने लगा। मंडल कमीशन की सिफारिश के मुताबिक पिछड़े वर्ग को सरकारी नौकरी में 27% आरक्षण देने की बात कही गई। जो पहले से चले आ रहे अनुसूचित जाति-जनजाति को मिलने वाले 22.5 % आरक्षण से अलग था। वीपी सिंह के इस फैसले ने देश की पूरी सियासत बदलकर रख दी। सवर्ण जातियों के युवा सड़क पर उतर आए। आरक्षण विरोधी आंदोलन के नेता बने राजीव गोस्वामी ने आत्मदाह कर लिया जो खुद ओबीसी की श्रेणी में आता था। कांग्रेस पार्टी ने वीपी सिंह सरकार के फैसले की पुरजोर मुखालफत की और राजीव गांधी मणिशंकर अय्यर द्वारा तैयार प्रस्ताव लेकर आए, जिसमें मंडल कमीशन की रिपोर्ट को पूरी तरह से खारिज किया गया। जिस मंडल कमीशन लागू करने के बाद बीजेपी और कांग्रेस ने वीपी सिंह सरकार के खिलाफ मतदान किया और उनकी सरकार गिर गई और उसके बाद आई नरसिंह राव सरकार।

इंदिरा साहनी केस : किसी भी प्रकार के आरक्षण पर बहस हो और इस मामले का जिक्र न हो, ऐसा हो नहीं सकता है। इंदिरा साहनी दिल्ली की पत्रकार थी। वीपी सिंह ने मंडल कमीशन को ज्ञापन के जरिये लागू किया था। इंदिरा साहनी इसकी वैधता को लेकर 1 अक्टूबर 1990 को सुप्रीम कोर्ट पहुंच गई। तब तक वीपी सिंह सत्ता से जा चुके थे और चंद्रशेखर नए प्रधानमंत्री बन गए थे, लेकिन उनकी सरकार ज्यादा दिन चली नहीं। 1991 के चुनाव में कांग्रेस की सत्ता में वापसी हुई और पीवी नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री बने। 25 सितंबर 1991 को राव ने सवर्णों के गुस्से को शांत करने के लिए आर्थिक आधार पर 10% आरक्षण का प्रावधान कर दिया। नरसिम्हा राव ने भी आर्थिक आधार पर आरक्षण की व्यवस्था एक ज्ञापन के जरिये ही लागू की थी। इन दोनों ज्ञापनों पर सुनवाई के लिए सुप्रीम कोर्ट की नौ जजों वाली संवैधानिक पीठ बनी। जिसके सामने आरक्षण के आधार, संविधान के अनुच्छेद 16 (4) और 16 (1) और 15 (4) व 16 (1) के पछड़ा वर्ग की समानता जैसे सवाल थे। बता दें कि संविधान के 14 से लेकर 18 तक के अनुच्छेद में जो मजमून लिखा है उसे हम समानता के अधिकार के नाम से जानते हैं। इसमें लिखा गया है कि सरकार जाति, धर्म या लिंग के आधार पर किसी भी किस्म का भेदभाव नहीं कर सकती है। सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने इंद्रा साहनी केस में फैसला देते समय आर्थिक आधार पर दिए जाने वाले आरक्षण को खारिज कर दिया। नौ जजों की बेंच ने कहा था कि आरक्षित स्थानों की संख्या कुल उपलब्ध स्थानों के 50% से अधिक नहीं होना चाहिए अर्थात आरक्षण की सीमा 50% से ज्यादा नही होनी चाहिए। सुप्रीम कोर्ट के इसी ऐतिहासिक फैसले के बाद से कानून बना था कि 50% से ज्यादा आरक्षण नहीं दिया जा सकता।

आयोग बनाने के पीछे मकसद:  जुलाई 2006 में सिंहों आयोग के गठन का बड़ा कारण चार महीना पहले यानी 5 अप्रैल 2006 को तत्कालीन मानव संसाधन विकास मंत्री अर्जुन सिंह द्वारा केंद्र सरकार के उच्च शिक्षा संस्थानों में ओबीसी के लिये 27% आरक्षण लागू करने की घोषणा थी। 2005 में ही संविधान संशोधन को जमीन पर उतारने की घोषणा की थी, लेकिन इसके खिलाफ भारी विरोध खड़ा हो गया। उत्तर भारत के कई शहरों में डॉक्टरों और मेडिकल के छात्र इसको लेकर सड़कों पर उतर आए और यहां तक कि विरोध स्वरूप मरीजों का इलाज भी बंद कर दिया गया था। जिस वजह से दवाब में आकर कांग्रेस की तरफ से सवर्णों के गुस्से पर मरहम लगाने के लिए आयोग बनाने वादा एक राजनीतिक दांव खेला गया, लेकिन इसकी रिपोर्ट और सुझाव वर्षों तक धूल फांकते रहे।

आयोग की रिपोर्ट में क्या कहा गया:    आयोग की रिपोर्ट में आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग  के लिए एक श्रेणी देने की सिफारिश की थी, जिसको ओबीसी या अन्य पिछड़ा वर्ग के समान लाभ मिलेगा। लाभार्थियों की पहचान के लिए जिन आधार को शामिल किया गया उसमें पूछा गया कि क्या वे करों का भुगतान करते हैं, वे एक वर्ष में कितना कमाते हैं और कितनी भूमि के मालिक हैं? आयोग की रिपोर्ट में कहा गया है कि कुछ राज्यों में सामान्य श्रेणी और ओबीसी की निरक्षरता दर 'लगभग समान' है, हालांकि सामान्य जातियों में अशिक्षा की स्थिति एससी/एसटी/ओबीसी की तुलना में कम है। जबकि सामान्‍य वर्ग की सामाजिक-आर्थिक स्थिति एससी-एसटी से बहुत आगे थी और ओबीसी से बेहतर थी। इस कमीशन ने अपनी रिपोर्ट में एक जगह यह भी लिखा है कि सवर्ण (जनरल कैटेगरी) गरीबों की पहचान करने के लिए आय सीमा वही रखी जा सकती है, जो ओबीसी नॉन क्रीमी लेयर की सीमा है। 

सुप्रीम कोर्ट का सरकार से एक गम्भीर सवाल: क्या ईडब्ल्यूएस आरक्षण से मेरिट के 50% की अनारक्षित वर्ग के हिस्से में कटौती नहीं होगी- प्रोफेसर नन्दलाल वर्मा

    विमर्श   
एन०एल० वर्मा (असो.प्रोफ़ेसर)
वाणिज्य विभाग
वाईडीपीजी कॉलेज,लखीमपुर खीरी
        ईडब्ल्यूएस को सरकारी नौकरियों और उच्च शिक्षण संस्थानों में आरक्षण को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को सरकार से कई सवाल पूछे। कोर्ट ने कहा, आरक्षण की अधिकतम 50% की सीमा का मतलब है कि बाकी 50% ओपेन या अनारक्षित कैटेगरी के लिए विशुद्ध रूप से मेरिट के आधार पर होगा जिसमें आरक्षित वर्ग के अभ्यर्थी भी जगह पा सकते हैं। अगर उसमें से 10% ईडब्ल्यूएस के लिए आरक्षित कर दिया जाता है तो क्या इससे मेरिट के हिस्से में कटौती नहीं होगी? सुप्रीम कोर्ट का एक और सवाल था कि ओबीसी की क्रीमीलेयर जिसे 27% आरक्षण का लाभ नहीं मिलता है, वह भी 50% की ओपन कैटेगरी में प्रतिस्पर्धा करता है। अगर उसमें से 10% ईडब्ल्यूएस आरक्षण दे दिया जाता है तो ओपन कैटेगरी के लिए सिर्फ 40% हिस्सा ही बचेगा, ऐसी स्थिति में किसका हिस्सा कटेगा? स्पष्ट है कि ओबीसी के क्रीमी लेयर के हिस्से में ही कटौती के साथ सभी आरक्षित श्रेणी के मेरिटधारियों के हिस्से में कटौती होगी।
ईडब्ल्यूएस आरक्षण के विरुद्ध दलीलें:
          मुख्य न्यायाधीश यूयू ललित, जस्टिस दिनेश महेश्वरी, जस्टिस एस. रविंद्र भट, जस्टिस बेला एम. त्रिवेदी और जस्टिस जेबी पारदीवाला की पांच सदस्यीय संविधान पीठ इस मामले की सुनवाई कर रही है। पीठ ने कहा कि ईडब्ल्यूएस आरक्षण के विरुद्ध दलीलें दी गई हैं कि इससे एससी-एसटी और ओबीसी के गरीबों को जाति के आधार पर ईडब्ल्यूएस आरक्षण से बाहर रखा गया है और इस प्रकार ईडब्ल्यूएस आरक्षण संविधान के बुनियादी ढांचे का उल्लंघन करता है।
          केंद्र सरकार की ओर से पेश सालिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि यहां पर किसी कानून को नहीं, बल्कि संविधान संशोधन को चुनौती दी गई है और संविधान संशोधन को संवैधानिक प्रावधानों पर नहीं, बल्कि संविधान के मूल ढांचे के आधार पर परखा जाएगा। याचिकाकर्ताओं को साबित करना होगा कि ईडब्ल्यूएस आरक्षण संविधान के मूल ढांचे का उल्लंघन करता है।
         कोर्ट ने मेहता से पूछा कि ईडब्ल्यूएस आरक्षण लागू करने का क्या प्रभाव है, सरकार के पास राज्यों के आंकड़े होंगे? उन्होंने कहा कि इतनी जल्दी आंकड़े पेश करना मुश्किल होगा। इस पर पीठ ने कहा कि उन्होंने कुछ राज्यों से आंकड़े मांगे हैं। सुनवाई के दौरान मध्य प्रदेश सरकार की ओर से जब कानून का समर्थन करते हुए दलीलें दी जा रही थीं और यह कहा गया कि राज्य ने गरीबों को 10% आरक्षण लागू कर दिया है तो कोर्ट ने राज्य सरकार के वकील महेश जेठमलानी से कहा कि इसे लागू करने का क्या अनुभव रहा है? ईडब्ल्यूएस आरक्षण का क्या प्रभाव है, उसका असर किस किस पर कैसा और कितना पड़ा है? इस बारे में आंकड़े पेश करिए। याचिकाकर्ताओं की ओर से यह भी दलील दी गयी कि आरक्षण व्यवस्था गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम नहीं है। आर्थिक गरीबी आज है, कल नहीं रह सकती है, अर्थात आर्थिक गरीबी एक अस्थायी विषय है, जबकि सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ापन अरसे से चले आ रहे ऐतिहासिक अन्याय का परिणाम है और सामाजिक पिछड़ापन स्थायी विषय है। आरक्षण व्यवस्था सामाजिक प्रतिनिधित्व की बात करता है। सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़ी और वंचित जातियों के प्रतिनिधित्व का द्योतक माना जाता है, आरक्षण। सरकार के पैरोकार ईडब्ल्यूएस आरक्षण को आर्थिक गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम के संदर्भों में देख रहे है और गरीबों की गरीबी दूर करना सरकार के संवैधानिक उत्तदायित्व की बात करते हैं। व्यवस्था के हर स्तर पर सामान्य वर्ग के प्रतिनिधित्व की कमी का सवाल ही नही है। जनसंख्या के अनुपात के हिसाब से सामान्य वर्ग की जातियां ओवर रिप्रेजेंटेड हैं। इसलिए आर्थिक गरीबी के आधार पर केवल सामान्य वर्ग की कुछ जातियों को 10% ईडब्ल्यूएस आरक्षण की व्यवस्था सामाजिक न्याय के सिद्धांतों के घोर खिलाफ जाती दिख रही हैं।
          केंद्र सरकार की ओर से पेश अटार्नी जनरल केके वेणुगोपाल ने बुधवार को दोहराया कि ईडब्ल्यूएस को आरक्षण देने का प्रावधान करने वाला 103वां संविधान संशोधन संविधान सम्मत है और कोर्ट को इसमें दखल नहीं देना चाहिए। यह संविधान के मूल ढांचे का उल्लंघन नहीं करता। ईडब्ल्यूएस को आरक्षण देकर उन्हें गरीबी से ऊपर उठाने की कोशिश की गई है और यह सरकार का संवैधानिक दायित्व भी है। सरकार का ईडब्ल्यूएस आरक्षण उसी दिशा में उठाया गया एक क्रांतिकारी कदम है।
         उन्होंने कहा कि यह आरक्षण का एक नवीन और भिन्न रूप है जिसमें सामान्य वर्ग के ईडब्ल्यूएस को 10% आरक्षण दिया गया है। यह आरक्षण एससी-एसटी और ओबीसी को दिए जाने वाले आरक्षण से भिन्न है। ईडब्ल्यूएस आरक्षण संविधान के अनुच्छेद-14 (समानता का अधिकार) का उल्लंघन नहीं करता है। गरीबों को गरीबी से ऊपर उठाना सरकार का संवैधानिक दायित्व है। एससी-एसटी और ओबीसी को पहले ही 49.5% आरक्षण मिला हुआ है, उन्हें ईडब्ल्यूएस की श्रेणी में शामिल करने से सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्धारित 50% की सीमा का हनन होगा। ईडब्ल्यूएस को 10% आरक्षण सामान्य वर्ग के 50% आरक्षण से दिया गया है, इसलिए इसमें सीमा का उल्लंघन नहीं होता। संविधान की प्रस्तावना और अनुच्छेद 46 व 47 में गरीबों को गरीबी से ऊपर उठाना सरकार का दायित्व बताया गया है। यहां उल्लेखनीय है कि सामान्य वर्ग के लिए 50% आरक्षण नहीं है, बल्कि यह अनारक्षित या ओपेन टू आल होता है जिसमें सभी कैटेगरी के अभ्यर्थी मेरिट के आधार पर जगह ले सकते हैं। जैसे लोकसभा, विधानसभा और त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव में आरक्षित वर्ग का कैंडिडेट सम्बंधित आरक्षित सीट पर तो चुनाव लड़ ही सकता है और वह यदि चाहे तो अनारक्षित/सामान्य सीट पर भी चुनाव लड़ सकता है, लेकिन सामान्य या अनारक्षित वर्ग का कैंडिडेट सिर्फ सामान्य या अनारक्षित सीट पर ही चुनाव लड़ सकता है,वह किसी आरक्षित सीट पर चुनाव नहीं लड़ सकता है।

Monday, October 10, 2022

चौथे स्तम्भ पर भाजपा क्यों हुई हमलावर-सुरेश सौरभ

   अपराध   

उस दिन दुनिया गांधी जयंती मना रही थी। सत्य अहिंसा के पुजारी गांधी जी को नमन कर रही थी। लखीमपुर नगर के पत्रकार विकास सहाय अपने विज्ञापन व्यवस्थापक दिनेश शुक्ला के  साथ लाल बहादुर शास्त्री पार्क में समाचार संकलन के लिए गये थे। ब
ताते हैं कि वहां लखीमपुर नगर  पालिकाध्यक्षा निरूपमा बजपेई  जेई संजय कुमार, सर्वेयर अमित सोनी के साथ पालिकाध्यक्षा का प्रतिनिधि रिश्तेदार शोभितम मिश्रा भी मौजूद था। भाजपा की चेअरमैन साहिबा की, शास्त्री जी पर माल्यार्पण करते हुए विकास फोटो खींचना चाह रहे थे, तभी गुस्से में चेअरमैन साहिबा ने कहा-मेरे खिलाफ खबर लिखते हो, यह तुम अच्छा नहीं कर रहे हो विकास?  तभी उनका रिश्तेदार  खुद को भाजपा कार्यकर्ता बताने वाला शोभितम मिश्रा अपने मोबाइल की स्क्रीन विकास को दिखाते हुए रोब में बोला-नगर पालिका के बारे में फेसबुक पर अनाप-शनाप कविता लिखते हो? यह कहते-कहते शोभितम ने विकास को जोर से धक्का दे दिया। चटाक....विकास सिर के बल जमीन पर गिर गये,  फिर वह फौरन विकास के सीने पर चढ़, विकास की गर्दन अपने गमछे से कसने लगा, साथ ही विकास को गालियां देने लगा। चंद सेकेंडों में हुए जानलेवा हमले को विकास के साथ आए दिनेश समझ न पाए.. फौरन वह विकास को छुटाने की गरज से शोभितम की ओर दौड़े। इधर धींगामुश्ती  चल रही थी, विकास की जिंदगी बचाने की, उधर चेअर मैन साहिबा और ईओ विकास को तड़पते हुए देखकर मजे ले रहे थे। अहिंसा के पुजारी गांधी जी जयंती पर चेअरमैन के उकसाने पर हिंसक हुए शोभितम के चंगुल से विकास को, दिनेश, बड़ी मुश्किल से छुटा पाए। तब शोभितम वहां से फौरन भाग लिया। इधर विकास की गर्दन कसने  से उन्हें मूर्छा आने लगी, सांसें फूलने लगी, जोर-जोर से खांसी आने लगी। उधर कुटिल मुस्कान चेअरमैन साहिबा  और ईओ के चेहरे पर बिखरती जा रही थी, इधर लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ जमीन पर पड़ा दर्द से छटपटा रहा था। इतनी क्रूर भाजपा की चेयरमैन हो सकती है, यह चिंतनीय है। पिछले वर्ष तीन अक्टूबर को तिकुनियां में केद्रीय राज्यमंत्री अजय मिश्र टैनी के सुपुत्र अशीष मिश्र  ने कई किसानों को रौदते कर मारते हुए एक पत्रकार रमन कश्यप को भी  मार डाला था। भाजपा के द्वारा पत्रकारों पर यह दूसरा हमला है।  
पीड़ित पत्रकार/लेखक विकास सहाय, लखीमपुर-खीरी
       विकास पर आत्मघाती हमले के बाद तमात पत्रकार सदर कोतवाली के लामबंद हुए, तब घटना के करीब के घंटे बाद प्रभारी निरीक्षक चन्द्रशेखर की त्वरित कार्यवाही के बाद आरोपी शोभितम गिरफ्तार हुआ।आई पीसी की धारा'323/504/506/151 सीआरपीसी जैसी धाराएं लगा कर आरोपी को जेल भेज दिया गया। बताते भाजपा के रसूख के दम पर शोभितम दो दिन बाद छूट गया और आजकल अपने गांव में  मस्ती से विचरण कर रहा है।      बकौल विकास, उन्होंने नगरपालिका के बंदरबांट पर कुछ समीक्षात्मक खबरें छापीं थीं जिससे चेअर मैन साहिबा और उनका रिश्तेदार पिछलग्गू शोभितम नाराज चल रहा था। उसके जानलेवा हमले से मैं और मेरा पूरा परिवार काफी भय के साये में जी रहा हैं, मै किस भय और मानसिक पीड़ा में खबर लिख रहा हूं यह बता नहीं सकता। तिस पर चेअर मैन साहिबा के पति तथाकथित समाजसेवी डा. सतीश कौशल बाजपेयी, मुलायम सिंह का सा संवाद  दोहराते हुए मुझसे कहते हैं शोभितम बच्चा है, जाने दो, माफ कर के किस्सा खत्म करो। बच्चों से गलतियां हो जाती हैं। वे कैसे डाक्टर हैं पता नहीं? उन्हें मेरे घाव पर मरहम लगाना चाहिए जबकि वे नमक लगा रहे है। इस संदर्भ में वंचित, शोषित, सामाजिक संगठनों के अखिल भारतीय परिसंघ के राष्ट्रीय कार्यकारी अध्यक्ष, चन्दन लाल वाल्मीकि कहते हैं मैं पत्रकार विकास सहाय को, विगत 18 सालों से जानता हूं, विकास जी जन समस्याओं को  निर्भीक, निडर, सच्चाई के साथ छापते हैं। एक जनप्रतिनिधि के सामने उनके साथी का, विकास पर घातक जानलेवा हमले की सभी ने निंदा की है, घटना की जानकारी होते ही कोतवाली में न्याय के लिए तमाम पत्रकारों के अलावा संभ्रांत व्यक्तियों  का हुजूम, विकास की कलम की लोकप्रियता को दर्शाता है। बरेली के वरिष्ठ पत्रकार गणेश पथिक का कहना है, यह अति निंदनीय, स्तब्धकारी और सर्वथा अस्वीकार्य है हमला है। ऐसे अवांछित व्यक्ति को  लखीमपुर खीरी समेत यूपी के सभी पत्रकारों, पत्रकार संगठनों को संत पुरुष  विकास के विरुद्ध अशिष्ट बर्ताव करने वाले शोभितम पर कठोरतम कार्रवाई सुनिश्चित कराने के लि‌ए सभी पत्रकारों को लामबंद होकर आंदोलन करने की जरूरत है।
शोध छात्र युवा कवि विजय बादल, विकास पर हुए हमले की निंदा करते हुए कहते हैं, "पत्रकार एवं साहित्यकार जनता की आवाज़ होते हैं, वरिष्ठ पत्रकार एवं साहित्यकार विकास चन्द्र सहाय जी के साथ हुई अभद्रता जनता  की आवाज़ दबाने का कुत्सित प्रयास लगती है,  अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार का हनन करते हुए इस असंवैधानिक कृत्य की जितनी भर्त्सना की जाये कम है‌।
   
सामूहिक चित्र, लाल घेरे में आरोपी शोभितम

 बुजुर्ग शिक्षाविद्  सत्य प्रकाश 'शिक्षक' कहते हैं,मीडिया लोकतंत्र का चौथा स्तंभ है। एक मीडिया ही है, जिसके माध्यम से सबको सच्चाई का पता चलता है, अतः मीडिया से जुड़े हर व्यक्ति का सम्मान करना हर नागरिक का प्रथम कर्तव्य है‌।  दैनिक जागरण के लब्ध प्रतिष्ठित पत्रकार एवं शायर विकास सहाय, जो निहायत सीधे और सरल व्यक्तित्व के धनी हैं, हमेशा अपने कर्तव्यों पर अडिग रहने वाले जुझारू व्यक्तित्व हैं। ऐसे व्यक्ति पर 'वार्ड नामा' स्तंभ के कारण हाथ उठाना, मारपीट करना ,गला दबाना, शोभितम की कायराना हरकत है।  आरोपी को ऐसा दंड मिले  जो पूरे देश में  मिसाल बने। 
           शिक्षक  राजकिशोर गौतम और कवि रमाकांत चौधरी ऐसी घटनाओं को बाबा साहब के संविधान में दी गई अभिव्यक्ति की आजादी पर किया हमला बताते हैं। खीरी के वरिष्ठ पत्रकार सत्य कथा लेखक साजिद अली चंचल इस मामले में  कहते हैं ,लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ की स्वतंत्रता पर प्रहार करने का घिनौना खेल खेलने से बाज नहीं आ रहें हैं भ्रष्टाचारी। लखीमपुर खीरी के निडर निर्भीक पत्रकार विकास सहाय के साथ, जो जुल्म की होली खेलकर उनकी (पत्रकारिता की) आवाज को दबाने का प्रयास नगर पालिकाध्यक्ष के प्रतिनिधि द्वारा किया गया, घोर निंदनीय एवं अक्षम्य हैं,  ऐसे बेहद संवेदनशील मामले में योगी जी ठोस कदम उठाएं ताकि अभिव्यक्ति की आजादी बची रही।
रिपोर्ट
सुरेश सौरभ
निर्मल नगर लखीमपुर खीरी
उत्तर प्रदेश
मो-7376236066

Friday, September 23, 2022

ईडब्ल्यूएस आरक्षण की संवैधानिक परख: सुप्रीम कोर्ट में हो रही सुनवाई में याचिकाकर्ताओं और सरकार द्वारा क्रमशःपेश किए गए महत्वपूर्ण विधिक तर्क और कठदलीलें : एक गहन विश्लेषणात्मक अवलोकन

ईडब्ल्यूएस  मुद्दा 
एन०एल० वर्मा (असो.प्रोफ़ेसर)
वाणिज्य विभाग
वाईडीपीजी कॉलेज,लखीमपुर खीरी


ओबीसी,एससी और एसटी के बुद्धिजीवियों को  मोदी नेतृत्व की बीजेपी सरकार द्वारा अपनायी जा रही पिछड़ा वर्ग विरोधी नीतियों - रीतियों और उनकी मंशा को समझना होगा और समाज को समझाना होगा कि आरएसएस नियंत्रित मनुवादी सरकार हमारी आने वाली पीढ़ियों के भविष्य के लिए कितना खतरनाक और षड्यंत्रकारी है और सुप्रीम कोर्ट में इस केस की सुनवाई कर रही बेंच और केंद्र सरकार के अटॉर्नी जनरल के रुझान और कठदलीलों से आने वाले निर्णय का पक्ष सहज ही अनुमान लगाया जा सकता  है
         ईडब्ल्यूएस के लिए 10% आरक्षण के मामले में केंद्र में मोदी नेतृत्व की सरकार अटॉर्नी जनरल ने सुप्रीम कोर्ट में कहा है कि ओबीसी,एससी और एसटी की जातियों को पहले से ही आरक्षण मिल रहा है। ऐसे में यह आरक्षण केवल सामान्य वर्ग के गरीब लोगों को ही दिया जा सकता है। कोर्ट में अटॉर्नी जनरल ने मंगलवार को कहा कि पिछड़ी जाति, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोग पहले से ही आरक्षण का फायदा ले रहे हैं। इस 10% ईडब्ल्यूएस आरक्षण पर केवल सामान्य वर्ग की जातियों के लोगों का ही अधिकार बनता है। सामान्य वर्ग के गरीब लोगों को इस कानून या व्यवस्था के तहत लाभ मिलेगा जो एक क्रांतिकारी कदम साबित होगा।
          केंद्र में बीजेपी सरकार ने लोकसभा चुनाव से ठीक पहले जनवरी 2019 में 103वें संविधान संशोधन के तहत सवर्ण जातियों के आर्थिक रूप से गरीबों के लिए ईडब्ल्यूएस आरक्षण लागू किया गया था। तीन साल से मिल रहे इस आरक्षण की वैधानिकता पर सुप्रीम कोर्ट में अब सुनवाई शुरू हुई है। पांच जजों की संवैधानिक बेंच मामले की सुनवाई कर रही है। याचिका में कहा गया है कि एससी,एसटी और ओबीसी में भी आर्थिक रूप से गरीब लोग होते हैं तो फिर यह आरक्षण केवल सामान्य वर्ग के गरीब लोगों को ही क्यों दिया जा रहा है? आर्थिक रूप से गरीब तो हर वर्ग और जाति में होते हैं। इसलिए 10% ईडब्ल्यूएस आरक्षण की परिधि में हर वर्ग और जाति के गरीब लोगों को रखना चाहिए। ईडब्ल्यूएस आरक्षण से सुप्रीम कोर्ट द्वारा इंद्रा साहनी केस के निर्णय में लगाई गई 50% की आरक्षण सीमा का खुला उल्लंघन होता है। वर्तमान में ओबीसी को 27%, एससी को 15% और एसटी के लिए 7.5% आरक्षण की व्यवस्था है। ऐसे में 10% का ईडब्लूएस आरक्षण सुप्रीम कोर्ट द्वारा लगाई गई 50% आरक्षण की सीमा को तोड़ता है और आरक्षण का एकमात्र मानक या आधार आर्थिक नहीं हो सकता है।
           " वेणुगोपाल ने कहा है कि ईडब्ल्यूएस आरक्षण का कानून आर्टिकल 15 (6) और 16 (6) के मुताबिक ही है। यह पिछड़ों और वंचितों को सरकारी शिक्षण संस्थाओं और नौकरियों में आरक्षण देता है और 50% की आरक्षण सीमा को पार नहीं करता है। केके वेणुगोपाल ने कहा कि संविधान में एससी और एसटी के लिए आरक्षण अलग से दर्ज़ है। इसके मुताबिक संसद, विधानसभा,पंचायत और स्थानीय नगर निकायों के साथ प्रमोशन में भी उन्हें आरक्षण दिए जाने की व्यवस्था है। अगर उनके पिछड़ेपन को ध्यान में रखते हुए हर तरह का फायदा उन्हें दिया जा रहा है तो ईडब्ल्यूएस कोटा पाने के लिए वे ये सारे फायदे छोड़ने को तैयार होंगे?"
          अटॉर्नी जनरल ने कहा है कि पहली बार सामान्य वर्ग के गरीब लोगों को 10% आरक्षण दिया गया है और यह एक क्रांतिकारी पहल है। यह एससी, एसटी और ओबीसी को दिए जाने वाले आरक्षण से अलग है और यह उनको दिए जाने वाले आरक्षण को किसी भी प्रकार से प्रभावित नहीं करता है। मुख्य न्यायाधीश यूयू ललित, जस्टिस दिनेश माहेश्वरी, एस रवींद्र भट, बेला एम त्रिवेदी और जेबी पारदीवाला की बेंच ने मामले को बुधवार तक के लिए टाल दिया है।
           " वेणुगोपाल ने दलील दी है कि 1992 में सुप्रीम कोर्ट ने ही फैसला दिया था कि 50% से ज्यादा आरक्षण नहीं दिया जाना चाहिए ताकि बाकी 50% जगह सामान्य वर्ग के लोगों के लिए बची रहे। ईडब्ल्यूएस आरक्षण शेष 50% में आने वाले सामान्य वर्ग के लोगों के लिए ही है। यह शेष 50% वाले ब्लॉक को डिस्टर्ब नहीं करता है। उन्होंने कहा कि केवल सामान्य वर्ग के ही लोग आकर यह कह सकते हैं कि उन्हें 10% ही आरक्षण क्यों दिया जा रहा है? वेणुगोपाल शायद यह भूल रहे हैं कि ओबीसी,एससी और एसटी को अधिकतम 50% आरक्षण की सीमा का यह कतई मायने नही हैं कि शेष 50% सामान्य वर्ग के लिए आरक्षित है। यदि इसकी व्याख्या वेणुगोपाल के हिसाब से की जाएगी तो सुप्रीम कोर्ट के उस निर्णय के हिसाब से तो शत-प्रतिशत आरक्षण हो जाता है। शेष 50% सामान्य वर्ग के लिए आरक्षित नही है बल्कि,वो 50% अनारक्षित होता है जिसमें उच्च मेरिट के आधार पर आरक्षित और सामान्य वर्ग का कोई भी अभ्यर्थी जगह पा सकता है। कानूनविद वेणुगोपाल तो 50% आरक्षण की सीमा को उल्टे पैर खड़े करते हुए नज़र आ रहे हैं। इसे कहते हैं कठदलीली और आरक्षण व्यवस्था का शीर्षासन करवाना।"
           याचिकाकर्ताओं की तरफ से कहा गया था कि संविधान में सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़ी जातियों को ही जातिगत आरक्षण की व्यवस्था है और इसी आधार पर  संसद,विधानसभा, पंचायत,नगर निकायों और प्रोमोशन में आरक्षण व्यवस्था लागू है। भविष्य में आर्थिक गरीबी के आधार पर संसद,विधानसभा, पंचायत,नगर निकाय और प्रोमोशन में भी आरक्षण की वकालत किया जाना कितना न्याय संगत और व्यावहारिक होगा? सुप्रीम कोर्ट 1992 में ही फैसला सुना चुकी है कि आरक्षण की सीमा 50% से ज्यादा नहीं हो सकती। ऐसे में केवल सामान्य वर्ग में आने वाली जातियों के गरीब लोगों को आर्थिक सूचकांक के आधार पर आरक्षण कैसे दिया जा सकता है? कोर्ट ने याचिकाकर्ताओं से कहा है कि बहुत सारे लोग ऐसे हैं जो कि पीढ़ियों से गरीब हैं। उनका परिवार मुख्यधारा में नहीं जुड़ पाया है। गरीबी की वजह से उन्हें रोजगार के अवसर नहीं मिल पाते। हमने इस केस को उसी ऐंगल से देखा है। हम उस क्राइटीरिया को नहीं देख रहे हैं कि ईडब्लूएस कैसे निर्धारित किया जाएगा बल्कि, यह देखेंगे कि ईडब्लूएस को एक वर्ग बनाकर आरक्षण देना ठीक है या नहीं लेकिन, न्यायपालिका स्तर पर शायद इस तथ्य पर जानबूझकर या इनोसेंटली भूल या चूक हो रही है कि देश में आर्थिक सूचकांक के आधार पर हर वर्ग/जाति में बहुसंख्यक गरीब लोग हैं। हमारे देश की सामाजिक - जातीय व्यवस्था में आज भी कई पूरी की पूरी जातियां ही आर्थिक रूप से गरीबी और कंगाली का जीवन जीने को अभिशप्त हैं,अर्थात जातियों में गरीबी है। क्या ऐसी जातियों को ईडब्ल्यूएस आरक्षण की परिधि से बाहर रखना समान अवसर की संवैधानिक अवधारणा या सामाजिक न्याय के सिद्धांतों के प्रतिकूल नहीं होगा? मेरे विचार से ईडब्ल्यूएस आरक्षण केवल सामान्य वर्ग के गरीब लोगों को ही देने की व्यवस्था स्पष्ट रूप से संविधान के मूल ढांचे के खिलाफ दिखाई देती है।

Monday, August 22, 2022

इंद्र कुमार मेघवाल की हत्या : जातीय दुराग्रह की पराकाष्ठा: दाह संस्कार में यूपी के हाथरस मॉडल की पुनरावृत्ति:प्रो.नन्द लाल वर्मा

ज्वलंत मुद्दा, जातियदंस
एन०एल० वर्मा (असो.प्रोफ़ेसर)
वाणिज्य विभाग
वाईडीपीजी कॉलेज,लखीमपुर खीरी


           राजस्थान के सुराणा गाँव के सरस्वती विद्या मंदिर स्कूल की तीसरी कक्षा का नौ वर्षीय दलित छात्र इंद्र कुमार मेघवाल भारत के अमिट घिनौने जातिवाद की भेंट चढ़ गया। एक सवर्ण शिक्षक छैल सिंह की पिटाई से घायल मासूम की इलाज के दौरान मौत हो गई। अंतिम संस्कार से पूर्व मानवीय और कानूनी इंसाफ माँग रहे लोगों को राज्य की दमनकारी शक्तियों का कोपभाजन बनना पड़ा। सवर्णों के लिए शायद इंद्र कुमार का खून कम पड़ गया हो,इसलिए और भी दलितों का खून बहाया गया। यहाँ तक कि शोकाकुल परिवार को भी पुलिस की लाठियों का शिकार होना पड़ा। इससे यह पता चलता है कि हमारा सिस्टम कितना असंवेदनशील और क्रूर है। आरोपी शिक्षक के गिरफ़्तार होते ही उसकी जाति के लोग यह कहते हुए संगठित और सक्रिय हुए कि "पानी की मटकी छूने और मारपीट करने की बात झूठ है।"आरोपी का बचाव करते हुए बेहद सुनियोजित और व्यवस्थित काउंटर जातिगत नेरेटिव सेट किया गया और पूरा जातिवादी ईकोसिस्टम सक्रिय होते देर नही लगी। कैसे एक विशुद्ध मानवाधिकार उल्लंघन का मामला जातिगत राजनीति का हिस्सा और शिकार हो जाता है?
             जातिवादी संगठन सोशल मीडिया पर लिख रहे हैं कि उस विद्यालय में कोई मटकी थी ही नहीं,सब लोग पानी टंकी से पीते थे। पानी की बात,मटकी की बात, छुआछूत की बात और यहाँ तक कि मारपीट की बात भी सच नहीं है। छात्र पहले से ही बीमार था,बच्चे आपस में झगड़े होंगे,जिससे चोट लग गई होगी। सुनियोजित तरीके से उसी स्कूल के एक अध्यापक गटाराम मेघवाल और कुछ विद्यार्थियों को मीडिया के समक्ष पेश किया गया कि पानी की मटकी की बात सही नहीं है। इस स्कूल में कोई भेदभाव नहीं है और न ही बच्चे के साथ मारपीट की गई। जालोर भाजपा विधायक योगेश्वर गर्ग ने भी इन्हीं सुरों में अपना सुर मिलाया और खुलेआम आरोपी शिक्षक को बचाने की कोशिश करते हुए एक वीडियो भी जारी किया। स्थानीय पुलिस ने भी जांच पूरी किये बिना ही मीडिया में बयान दे डाला कि इस घटना में मटकी का एंगल कहीं नहीं दिखाई दे रहा है।
           इस प्रकरण में राज्य का सिस्टम जातिवादी शक्तियों के सामने घुटने टेकते नज़र आया और मुआवज़ा देने तक में जातीय भेदभाव साफ़-साफ़ नज़र आया। इस सूबे में अजब सी रिवाज़ क़ायम होती दिखी कि किसी ग़ैरदलित की हत्या हो तो उसे 50 लाख का मुआवज़ा और परिजन को नौकरी,लेकिन दलित की हत्या पर सिर्फ मुआवज़ा वह भी 5 लाख। अर्थात शासन की नज़र में गैरदलित की जान की कीमत,दलित की जान की कीमत के दस गुने के बराबर और नौकरी अलग। किसी भी लोकतांत्रिक राज्य को इतना संवेदनहीन और जातिभेदी नहीं होना चाहिये। संविधान के अनुसार उसकी नज़र में हर नागरिक बराबर होना चाहिये। इस भेदभाव के ख़िलाफ़ देश में ही नहीं, बल्कि विदेशों में भी भयंकर आक्रोश व्याप्त है। इस घटना से मानवीय संवेदनाएं इस कदर आहत होती नज़र आई कि सत्तारूढ़ दल के एक विधायक पाना चंद मेघवाल ने अपनी विधायकी अपने पास रखना अनैतिक समझा और इस्तीफा दे डाला जिससे उत्प्रेरित होकर अन्य विधायक भी इस्तीफ़े देने के मूड में दिखाई पड़ रहे हैं।
         
 अगर शासन ने इस घटना से उपजी सामाजिक-मानवीय संवेदनाओं को अच्छी तरह नहीं समझा तो यह सत्ता प्रतिष्ठान के लिए ठीक नही होगा। जो लोग,समूह और जातियाँ इस निर्मम हत्याकांड को बेहद चतुराई से शब्दों की बाज़ीगरी कर विचलित या विषयांतर करने का दुष्कर्म और तरह तरह के उपक्रम कर रहे हैं,वे भी देर सवेर इसका ख़ामियाज़ा भुगतने के लिए तैयार रहें,क्योंकि दलितों की वर्तमान पीढ़ी अब किसी भी तरह के सामाजिक दमन या अत्याचार बर्दाश्त करने को तैयार नहीं है,हर मोर्चे पर वह जवाब देने के लिए सक्षम है। कथित जातिगत श्रेष्ठता वाले किसी मुग़ालते में न रहें। शिक्षा के मंदिर में दलित छात्र के साथ जातिजन्य अत्याचार के ख़िलाफ़ देशव्यापी आक्रोश फूटना स्वाभाविक है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में एक शिक्षक द्वारा की गई ऐसी क्रूरता और निर्दयता कैसे बर्दाश्त की जा सकती है? भारतीय दंड संहिता की धारा 302 और अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निरोधक) अधिनियम 1989 की विभिन्न धाराओं के तहत सरकार ने मुक़दमा दर्ज कर आरोपी शिक्षक को गिरफ़्तार कर जेल भेज दिया है।
        मृतक के पिता देवा राम द्वारा वायरल वीडियो और चाचा द्वारा पुलिस को दी गयी तहरीर के आधार पर एफआईआर दर्ज हुई। उसमें बताया कि प्यास लगने पर नौ वर्षीय इंद्र मेघवाल ने शिक्षक छैल सिंह के लिए पानी पीने हेतु रखे गए मटके से पानी पी लिया। इससे आग बबूला शिक्षक ने मासूम बच्चे के साथ मारपीट की,जिससे उसके दाहिने कान और आँख पर गम्भीर चोट आई और उसकी नस फट गई। इलाज हेतु परिजन कई अस्पतालों में भटकते रहे और अंत में एक अस्पताल में उपचार के दौरान इंद्र कुमार की मौत हो गई। इस बीच छात्र के पिता और आरोपी शिक्षक के मध्य फ़ोन पर बात हुई,जिसमें छात्र का पिता शिक्षक से यह कह रहा है कि "आपको इतनी ज़ोर से नहीं मारना चाहिये था,बच्चों को इस तरह मारने का आपको कोई अधिकार नहीं है।" शिक्षक अपना क़सूर मानते हुए इलाज में मदद करने की बात कहता सुनाई पड़ रहा है। इसके बाद गाँव स्तर पर डेढ़ लाख रुपए में समझौता करने या होने का दावा भी किया जा रहा है।
          इस वक्त वहाँ की बहुसंख्यक वर्चस्वशाली जाति के लोग, उनके जातिवादी संगठन, मीडिया, विधायक,स्कूल के विद्यार्थी और कुछ शिक्षक यह साबित करने में लगे है कि मृत छात्र के पानी का मटका छूने जैसी कोई बात ही नही हुई और न ही मारपीट। अब सवाल यह है कि अगर पानी की मटकी नहीं थी तो शिक्षक पानी कहाँ से पीते थे? इसका जवाब यह है कि विद्यार्थी हो अथवा शिक्षक, यहाँ तक कि गाँव वाले भी स्कूल में स्थित टंकी से पानी पीते थे। स्कूल में स्थित पानी की जिस टंकी का फ़ोटो टीवी चैनल्स दिखा रहे हैं,उसे देखकर तो उपरोक्त दावे में दम नहीं नज़र आता।
            अगर पानी की मटकी छूने का मामला नहीं था तो फिर वो क्या मामला था, जिसकी वजह से मासूम को शिक्षक ने इतना पीटा कि उसकी जान ही चली गई? पुलिस को यह भी पता करना चाहिये कि इस निर्दयतापूर्ण पिटाई के पीछे का कारण क्या था? यह भी दावा किया जा रहा है कि शिक्षक ने पीटा ही नहीं, फिर वह क्यों फ़ोन पर गलती स्वीकार रहा है और उसे डेढ़ लाख में समझौता करने की क्या मजबूरी थी? बिना गलती कोई इतनी मोटी रकम भी क्यों देना चाहेगा? अकारण तो कोई किसी का मुँह बंद करवाने का दबाव डालकर समझौता नहीं करता और न ही पैसा देता है! इतने बड़े कांड को तेईस दिन तक छिपाकर रखा गया। ऐसा लगता है कि अगर छात्र की मृत्यु नहीं हुई होती तो पूरा मामला मैनेज ही किया जा चुका था। क्या छात्र के साथ हुआ भेदभाव व अत्याचार भविष्य में सामने आ पाता? क्या बच्चों की कोई गरिमा नहीं है, क्या उनके कोई मानवीय अधिकार नहीं हैं, क्या शिक्षकों को इस प्रकार की क्रूर सजा देने का अधिकार हैं?
            बहुत सारे सवाल हैं जो अनुत्तरित है,जिनके जवाब जांचों की रिपोर्ट्स आने के बाद ही मिलेंगे,लेकिन इससे पहले ही घोर जातिवादी तत्व और संगठन यह साबित करने को आतुर है कि न मटकी का मामला है और न ही मारपीट का। यहाँ तक कि पोस्टमार्टम रिपोर्ट का हवाला देते हुए ऐसे ठोस दावे किये जा रहे हैं,जैसे कि डॉक्टर ने इन्हीं के कहने पर रिपोर्ट बनाई हो और बनाते ही उसकी एक कॉपी अपर कास्ट एलिमेंट्स को पकड़ा दी गयी हो। सोशल मीडिया पर सवर्ण जातिवादी तत्वों और उनके संगठनों की तरफ़ से दलित चिन्तकों और निष्पक्ष मीडिया के लोगों को निरंतर धमकियां दी जा रही है कि निष्पक्ष लिखो,पानी की बात मत कहो और मटकी का ज़िक्र मत करो। सुराणा में जातीय भेदभाव जैसी कोई बात नहीं है, हमारा भाईचारे का ताना बाना मत बिगाड़ो। एक न एक दिन तुमको सौहार्द ख़त्म करने वाली पोस्टें डिलीट करनी होगी, तब क्या तुम सार्वजनिक रूप से गलती मानोगे और माफ़ी माँगोगे? 
         आज़ादी के 75 साल बाद भी देश में भयंकर जातिवाद है और जालोर में तो विशेष तौर पर बेहद घिनौना छुआछूत,भेदभाव तथा अन्याय-अत्याचार दिखाई देता है। वहाँ पानी की मटकी और शिक्षा में भेदभाव के मामले संभव है। मिड डे मिल,आँगन बाड़ी के पुष्टाहार व नरेगा में पानी पिलाने में नियुक्त लोगों का सामाजिक जातीय अंकेक्षण किया जाए और जिले के तमाम सरकारी व ग़ैर सरकारी विद्यालयों का एक जातिगत भेदभाव का सर्वे किया जाये तो सच्चाई सामने आ जायेगी कि वहां कौन सा सौहार्द और भाईचारा व दलित छात्रों के क्या हालात है?
       अंत में ऐसे क्रूर जातिवादी लोगों से सिर्फ़ एक छोटा सा सवाल है कि "अगर मृतक छात्र इंद्र के साथ न तो पानी पीने की मटकी में भेदभाव हुआ और न ही शिक्षक ने उसे मारा तो क्या उस मासूम ने खुद को मार डाला? अरे जातिवादियों ! कुछ तो मानवता रखो,थोड़ी तो इंसानियत बचा कर रखो और ज़रा तो पीड़ित परिवार के प्रति संवेदना बरतो! क्या तुम्हारे अंदर इंसान होने की इतनी न्यूनतम अर्हता भी नहीं बची है! " जाति है कि जाती नहीं " की अंतहीन पीड़ा और बेवशी के साथ इंद्र कुमार को अश्रुपूर्ण श्रद्धांजलि और शोकसंतप्त परिजनों को सांत्वना अर्पित करने के सिवा मैं.............!

पढ़िये आज की रचना

चर्चा में झूठी-सुरेश सौरभ

(फिल्म समीक्षा)      एक मां के लिए उसका बेटा चाहे जैसा हो वह राजा बेटा ही होता है, बच्चे कच्ची मिट्टी की तरह होते हैं, जिन्हें हम अपने विचार...

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