विमर्श
![]() |
एन०एल० वर्मा (असो.प्रोफ़ेसर) वाणिज्य विभाग वाईडीपीजी कॉलेज,लखीमपुर खीरी |
ईडब्ल्यूएस आरक्षण के विरुद्ध दलीलें:
मुख्य न्यायाधीश यूयू ललित, जस्टिस दिनेश महेश्वरी, जस्टिस एस. रविंद्र भट, जस्टिस बेला एम. त्रिवेदी और जस्टिस जेबी पारदीवाला की पांच सदस्यीय संविधान पीठ इस मामले की सुनवाई कर रही है। पीठ ने कहा कि ईडब्ल्यूएस आरक्षण के विरुद्ध दलीलें दी गई हैं कि इससे एससी-एसटी और ओबीसी के गरीबों को जाति के आधार पर ईडब्ल्यूएस आरक्षण से बाहर रखा गया है और इस प्रकार ईडब्ल्यूएस आरक्षण संविधान के बुनियादी ढांचे का उल्लंघन करता है।
केंद्र सरकार की ओर से पेश सालिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि यहां पर किसी कानून को नहीं, बल्कि संविधान संशोधन को चुनौती दी गई है और संविधान संशोधन को संवैधानिक प्रावधानों पर नहीं, बल्कि संविधान के मूल ढांचे के आधार पर परखा जाएगा। याचिकाकर्ताओं को साबित करना होगा कि ईडब्ल्यूएस आरक्षण संविधान के मूल ढांचे का उल्लंघन करता है।
कोर्ट ने मेहता से पूछा कि ईडब्ल्यूएस आरक्षण लागू करने का क्या प्रभाव है, सरकार के पास राज्यों के आंकड़े होंगे? उन्होंने कहा कि इतनी जल्दी आंकड़े पेश करना मुश्किल होगा। इस पर पीठ ने कहा कि उन्होंने कुछ राज्यों से आंकड़े मांगे हैं। सुनवाई के दौरान मध्य प्रदेश सरकार की ओर से जब कानून का समर्थन करते हुए दलीलें दी जा रही थीं और यह कहा गया कि राज्य ने गरीबों को 10% आरक्षण लागू कर दिया है तो कोर्ट ने राज्य सरकार के वकील महेश जेठमलानी से कहा कि इसे लागू करने का क्या अनुभव रहा है? ईडब्ल्यूएस आरक्षण का क्या प्रभाव है, उसका असर किस किस पर कैसा और कितना पड़ा है? इस बारे में आंकड़े पेश करिए। याचिकाकर्ताओं की ओर से यह भी दलील दी गयी कि आरक्षण व्यवस्था गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम नहीं है। आर्थिक गरीबी आज है, कल नहीं रह सकती है, अर्थात आर्थिक गरीबी एक अस्थायी विषय है, जबकि सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ापन अरसे से चले आ रहे ऐतिहासिक अन्याय का परिणाम है और सामाजिक पिछड़ापन स्थायी विषय है। आरक्षण व्यवस्था सामाजिक प्रतिनिधित्व की बात करता है। सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़ी और वंचित जातियों के प्रतिनिधित्व का द्योतक माना जाता है, आरक्षण। सरकार के पैरोकार ईडब्ल्यूएस आरक्षण को आर्थिक गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम के संदर्भों में देख रहे है और गरीबों की गरीबी दूर करना सरकार के संवैधानिक उत्तदायित्व की बात करते हैं। व्यवस्था के हर स्तर पर सामान्य वर्ग के प्रतिनिधित्व की कमी का सवाल ही नही है। जनसंख्या के अनुपात के हिसाब से सामान्य वर्ग की जातियां ओवर रिप्रेजेंटेड हैं। इसलिए आर्थिक गरीबी के आधार पर केवल सामान्य वर्ग की कुछ जातियों को 10% ईडब्ल्यूएस आरक्षण की व्यवस्था सामाजिक न्याय के सिद्धांतों के घोर खिलाफ जाती दिख रही हैं।
केंद्र सरकार की ओर से पेश अटार्नी जनरल केके वेणुगोपाल ने बुधवार को दोहराया कि ईडब्ल्यूएस को आरक्षण देने का प्रावधान करने वाला 103वां संविधान संशोधन संविधान सम्मत है और कोर्ट को इसमें दखल नहीं देना चाहिए। यह संविधान के मूल ढांचे का उल्लंघन नहीं करता। ईडब्ल्यूएस को आरक्षण देकर उन्हें गरीबी से ऊपर उठाने की कोशिश की गई है और यह सरकार का संवैधानिक दायित्व भी है। सरकार का ईडब्ल्यूएस आरक्षण उसी दिशा में उठाया गया एक क्रांतिकारी कदम है।
उन्होंने कहा कि यह आरक्षण का एक नवीन और भिन्न रूप है जिसमें सामान्य वर्ग के ईडब्ल्यूएस को 10% आरक्षण दिया गया है। यह आरक्षण एससी-एसटी और ओबीसी को दिए जाने वाले आरक्षण से भिन्न है। ईडब्ल्यूएस आरक्षण संविधान के अनुच्छेद-14 (समानता का अधिकार) का उल्लंघन नहीं करता है। गरीबों को गरीबी से ऊपर उठाना सरकार का संवैधानिक दायित्व है। एससी-एसटी और ओबीसी को पहले ही 49.5% आरक्षण मिला हुआ है, उन्हें ईडब्ल्यूएस की श्रेणी में शामिल करने से सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्धारित 50% की सीमा का हनन होगा। ईडब्ल्यूएस को 10% आरक्षण सामान्य वर्ग के 50% आरक्षण से दिया गया है, इसलिए इसमें सीमा का उल्लंघन नहीं होता। संविधान की प्रस्तावना और अनुच्छेद 46 व 47 में गरीबों को गरीबी से ऊपर उठाना सरकार का दायित्व बताया गया है। यहां उल्लेखनीय है कि सामान्य वर्ग के लिए 50% आरक्षण नहीं है, बल्कि यह अनारक्षित या ओपेन टू आल होता है जिसमें सभी कैटेगरी के अभ्यर्थी मेरिट के आधार पर जगह ले सकते हैं। जैसे लोकसभा, विधानसभा और त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव में आरक्षित वर्ग का कैंडिडेट सम्बंधित आरक्षित सीट पर तो चुनाव लड़ ही सकता है और वह यदि चाहे तो अनारक्षित/सामान्य सीट पर भी चुनाव लड़ सकता है, लेकिन सामान्य या अनारक्षित वर्ग का कैंडिडेट सिर्फ सामान्य या अनारक्षित सीट पर ही चुनाव लड़ सकता है,वह किसी आरक्षित सीट पर चुनाव नहीं लड़ सकता है।