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  • लखीमपुर-खीरी उ०प्र०

Friday, September 23, 2022

ईडब्ल्यूएस आरक्षण की संवैधानिक परख: सुप्रीम कोर्ट में हो रही सुनवाई में याचिकाकर्ताओं और सरकार द्वारा क्रमशःपेश किए गए महत्वपूर्ण विधिक तर्क और कठदलीलें : एक गहन विश्लेषणात्मक अवलोकन

ईडब्ल्यूएस  मुद्दा 
एन०एल० वर्मा (असो.प्रोफ़ेसर)
वाणिज्य विभाग
वाईडीपीजी कॉलेज,लखीमपुर खीरी


ओबीसी,एससी और एसटी के बुद्धिजीवियों को  मोदी नेतृत्व की बीजेपी सरकार द्वारा अपनायी जा रही पिछड़ा वर्ग विरोधी नीतियों - रीतियों और उनकी मंशा को समझना होगा और समाज को समझाना होगा कि आरएसएस नियंत्रित मनुवादी सरकार हमारी आने वाली पीढ़ियों के भविष्य के लिए कितना खतरनाक और षड्यंत्रकारी है और सुप्रीम कोर्ट में इस केस की सुनवाई कर रही बेंच और केंद्र सरकार के अटॉर्नी जनरल के रुझान और कठदलीलों से आने वाले निर्णय का पक्ष सहज ही अनुमान लगाया जा सकता  है
         ईडब्ल्यूएस के लिए 10% आरक्षण के मामले में केंद्र में मोदी नेतृत्व की सरकार अटॉर्नी जनरल ने सुप्रीम कोर्ट में कहा है कि ओबीसी,एससी और एसटी की जातियों को पहले से ही आरक्षण मिल रहा है। ऐसे में यह आरक्षण केवल सामान्य वर्ग के गरीब लोगों को ही दिया जा सकता है। कोर्ट में अटॉर्नी जनरल ने मंगलवार को कहा कि पिछड़ी जाति, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोग पहले से ही आरक्षण का फायदा ले रहे हैं। इस 10% ईडब्ल्यूएस आरक्षण पर केवल सामान्य वर्ग की जातियों के लोगों का ही अधिकार बनता है। सामान्य वर्ग के गरीब लोगों को इस कानून या व्यवस्था के तहत लाभ मिलेगा जो एक क्रांतिकारी कदम साबित होगा।
          केंद्र में बीजेपी सरकार ने लोकसभा चुनाव से ठीक पहले जनवरी 2019 में 103वें संविधान संशोधन के तहत सवर्ण जातियों के आर्थिक रूप से गरीबों के लिए ईडब्ल्यूएस आरक्षण लागू किया गया था। तीन साल से मिल रहे इस आरक्षण की वैधानिकता पर सुप्रीम कोर्ट में अब सुनवाई शुरू हुई है। पांच जजों की संवैधानिक बेंच मामले की सुनवाई कर रही है। याचिका में कहा गया है कि एससी,एसटी और ओबीसी में भी आर्थिक रूप से गरीब लोग होते हैं तो फिर यह आरक्षण केवल सामान्य वर्ग के गरीब लोगों को ही क्यों दिया जा रहा है? आर्थिक रूप से गरीब तो हर वर्ग और जाति में होते हैं। इसलिए 10% ईडब्ल्यूएस आरक्षण की परिधि में हर वर्ग और जाति के गरीब लोगों को रखना चाहिए। ईडब्ल्यूएस आरक्षण से सुप्रीम कोर्ट द्वारा इंद्रा साहनी केस के निर्णय में लगाई गई 50% की आरक्षण सीमा का खुला उल्लंघन होता है। वर्तमान में ओबीसी को 27%, एससी को 15% और एसटी के लिए 7.5% आरक्षण की व्यवस्था है। ऐसे में 10% का ईडब्लूएस आरक्षण सुप्रीम कोर्ट द्वारा लगाई गई 50% आरक्षण की सीमा को तोड़ता है और आरक्षण का एकमात्र मानक या आधार आर्थिक नहीं हो सकता है।
           " वेणुगोपाल ने कहा है कि ईडब्ल्यूएस आरक्षण का कानून आर्टिकल 15 (6) और 16 (6) के मुताबिक ही है। यह पिछड़ों और वंचितों को सरकारी शिक्षण संस्थाओं और नौकरियों में आरक्षण देता है और 50% की आरक्षण सीमा को पार नहीं करता है। केके वेणुगोपाल ने कहा कि संविधान में एससी और एसटी के लिए आरक्षण अलग से दर्ज़ है। इसके मुताबिक संसद, विधानसभा,पंचायत और स्थानीय नगर निकायों के साथ प्रमोशन में भी उन्हें आरक्षण दिए जाने की व्यवस्था है। अगर उनके पिछड़ेपन को ध्यान में रखते हुए हर तरह का फायदा उन्हें दिया जा रहा है तो ईडब्ल्यूएस कोटा पाने के लिए वे ये सारे फायदे छोड़ने को तैयार होंगे?"
          अटॉर्नी जनरल ने कहा है कि पहली बार सामान्य वर्ग के गरीब लोगों को 10% आरक्षण दिया गया है और यह एक क्रांतिकारी पहल है। यह एससी, एसटी और ओबीसी को दिए जाने वाले आरक्षण से अलग है और यह उनको दिए जाने वाले आरक्षण को किसी भी प्रकार से प्रभावित नहीं करता है। मुख्य न्यायाधीश यूयू ललित, जस्टिस दिनेश माहेश्वरी, एस रवींद्र भट, बेला एम त्रिवेदी और जेबी पारदीवाला की बेंच ने मामले को बुधवार तक के लिए टाल दिया है।
           " वेणुगोपाल ने दलील दी है कि 1992 में सुप्रीम कोर्ट ने ही फैसला दिया था कि 50% से ज्यादा आरक्षण नहीं दिया जाना चाहिए ताकि बाकी 50% जगह सामान्य वर्ग के लोगों के लिए बची रहे। ईडब्ल्यूएस आरक्षण शेष 50% में आने वाले सामान्य वर्ग के लोगों के लिए ही है। यह शेष 50% वाले ब्लॉक को डिस्टर्ब नहीं करता है। उन्होंने कहा कि केवल सामान्य वर्ग के ही लोग आकर यह कह सकते हैं कि उन्हें 10% ही आरक्षण क्यों दिया जा रहा है? वेणुगोपाल शायद यह भूल रहे हैं कि ओबीसी,एससी और एसटी को अधिकतम 50% आरक्षण की सीमा का यह कतई मायने नही हैं कि शेष 50% सामान्य वर्ग के लिए आरक्षित है। यदि इसकी व्याख्या वेणुगोपाल के हिसाब से की जाएगी तो सुप्रीम कोर्ट के उस निर्णय के हिसाब से तो शत-प्रतिशत आरक्षण हो जाता है। शेष 50% सामान्य वर्ग के लिए आरक्षित नही है बल्कि,वो 50% अनारक्षित होता है जिसमें उच्च मेरिट के आधार पर आरक्षित और सामान्य वर्ग का कोई भी अभ्यर्थी जगह पा सकता है। कानूनविद वेणुगोपाल तो 50% आरक्षण की सीमा को उल्टे पैर खड़े करते हुए नज़र आ रहे हैं। इसे कहते हैं कठदलीली और आरक्षण व्यवस्था का शीर्षासन करवाना।"
           याचिकाकर्ताओं की तरफ से कहा गया था कि संविधान में सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़ी जातियों को ही जातिगत आरक्षण की व्यवस्था है और इसी आधार पर  संसद,विधानसभा, पंचायत,नगर निकायों और प्रोमोशन में आरक्षण व्यवस्था लागू है। भविष्य में आर्थिक गरीबी के आधार पर संसद,विधानसभा, पंचायत,नगर निकाय और प्रोमोशन में भी आरक्षण की वकालत किया जाना कितना न्याय संगत और व्यावहारिक होगा? सुप्रीम कोर्ट 1992 में ही फैसला सुना चुकी है कि आरक्षण की सीमा 50% से ज्यादा नहीं हो सकती। ऐसे में केवल सामान्य वर्ग में आने वाली जातियों के गरीब लोगों को आर्थिक सूचकांक के आधार पर आरक्षण कैसे दिया जा सकता है? कोर्ट ने याचिकाकर्ताओं से कहा है कि बहुत सारे लोग ऐसे हैं जो कि पीढ़ियों से गरीब हैं। उनका परिवार मुख्यधारा में नहीं जुड़ पाया है। गरीबी की वजह से उन्हें रोजगार के अवसर नहीं मिल पाते। हमने इस केस को उसी ऐंगल से देखा है। हम उस क्राइटीरिया को नहीं देख रहे हैं कि ईडब्लूएस कैसे निर्धारित किया जाएगा बल्कि, यह देखेंगे कि ईडब्लूएस को एक वर्ग बनाकर आरक्षण देना ठीक है या नहीं लेकिन, न्यायपालिका स्तर पर शायद इस तथ्य पर जानबूझकर या इनोसेंटली भूल या चूक हो रही है कि देश में आर्थिक सूचकांक के आधार पर हर वर्ग/जाति में बहुसंख्यक गरीब लोग हैं। हमारे देश की सामाजिक - जातीय व्यवस्था में आज भी कई पूरी की पूरी जातियां ही आर्थिक रूप से गरीबी और कंगाली का जीवन जीने को अभिशप्त हैं,अर्थात जातियों में गरीबी है। क्या ऐसी जातियों को ईडब्ल्यूएस आरक्षण की परिधि से बाहर रखना समान अवसर की संवैधानिक अवधारणा या सामाजिक न्याय के सिद्धांतों के प्रतिकूल नहीं होगा? मेरे विचार से ईडब्ल्यूएस आरक्षण केवल सामान्य वर्ग के गरीब लोगों को ही देने की व्यवस्था स्पष्ट रूप से संविधान के मूल ढांचे के खिलाफ दिखाई देती है।

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