साहित्य

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  • लखीमपुर-खीरी उ०प्र०

Wednesday, October 12, 2022

ईडब्ल्यूएस आरक्षण की पृष्ठभूमि कांग्रेस ने तैयार की थी,किंतु सामाजिक-राजनीतिक नुकसान के डर से उसने कदम पीछे खींच लिए थे, लेकिन बीजेपी ने सही वक्त पर फेंका पांसा-प्रोफेसर नन्दलाल वर्मा

   विमर्श   
एन०एल० वर्मा (असो.प्रोफ़ेसर)
वाणिज्य विभाग
वाईडीपीजी कॉलेज,लखीमपुर खीरी
2005 में कांग्रेस नेतृत्व की यूपीए सत्ता में आई तो उसने 10 जुलाई 2006 को  रिटायर्ड मेजर जनरल एसआर सिन्‍हो की अध्यक्षता में तीन सदस्‍यीय आयोग गठित किया। आयोग ने 2010 में अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंप दी, लेकिन इस आयोग की रिपोर्ट पर यूपीए की सरकार ने वोट बैंक के खिसकने के डर से उस पर अमल करने के बारे में निर्णय नही ले स्की। तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने राजनीतिक नुकसान के डर से रिपोर्ट पर मौन साधते हुए इसे ठंडे बस्ते में डाल देना ही उचित समझा, जबकि उनकी यूपीए सरकार के पास अभी कार्यकाल के चार साल बचे थे।

1990 में मंडल कमीशन की सरकारी नौकरियों में ओबीसी के लिए 27% आरक्षण की सिफारिश की घोषणा करने के बाद से ही आर्थिक आधार पर आरक्षण देने की जमीन कांग्रेस द्वारा तैयार कर ली थी, लेकिन उसे कभी अमल में लाने की कोशिश यूपीए शासनकाल के दौरान नहीं हुई जिसे बीजेपी ने 2019 के लोकसभा चुनाव से ठीक पहले एक राजनीतिक हथियार के रूप में प्रयोग कर लिया। 

वर्तमान में क्यों चर्चा में आया  : वैसे तो यह मामला मेडिकल प्रवेश परीक्षा नीट से भी जुड़ा रहा है, लेकिन इसको जानने के लिए 2019 में चलते हैं। इस साल बीजेपी की केंद्र सरकार ने 103वॉ संविधान संशोधन कर आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग को शिक्षा और रोजगार के क्षेत्र में 10% ईडब्ल्यूएस आरक्षण देने की घोषणा की थी। फिर केंद्र सरकार ने 29 जुलाई 2021 को नीट परीक्षा में आरक्षण को लेकर एक फैसला लिया। केंद्र सरकार ने कहा कि अंडर ग्रैजुएट या पोस्ट ग्रैजुएट मेडिकल कोर्सेज में ओबीसी समुदाय को 27% और आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (ईडब्ल्यूएस) के लोगों को 10% आरक्षण का लाभ मिलेगा। इस फैसले के आने के बाद नीट परीक्षा की तैयारी कर रहे तमाम छात्र सुप्रीम कोर्ट पहुंच गए। याचिका लगाकर कहा कि केंद्र सरकार का फैसला सुप्रींम कोर्ट के इंदिरा साहनी बनाम केंद्र सरकार (1992) में दिए गए फैसले के खिलाफ है जिसमें कहा गया है कि आरक्षण की सीमा 50% से ऊपर नहीं होनी चाहिए। यह भी कहा गया कि सरकार ओबीसी वाला इनकम क्राइटेरिया ईडब्ल्यूएस पर कैसे लागू कर सकती है? 21अक्टूबर को सुप्रीम कोर्ट की तीन जजों की बेंच ने केंद्र सरकार से सवाल पूछा कि ईडब्ल्यूएस आरक्षण निर्धारित करने के लिए कोई मानदंड स्थापित किए गए हैं? ईडब्ल्यूएस आरक्षण के निर्धारण में शहरी और ग्रामीण क्षेत्र को ध्यान में रखा गया? जिसको लेकर केंद्र सरकार ने अपना जवाब दाखिल किया। सरकार ने ईडब्ल्यूएस के लिए आठ लाख रुपए की आय सीमा के क्राइटेरिया सेट करने को सही ठहराया है। केंद्र की तरफ से कहा गया है कि सिंहों कमीशन की रिपोर्ट पर यह फैसला लिया गया है। केंद्र सरकार ने यह भी कहा कि आठ लाख रुपये की सीमा बांधना संविधान 14,15 और 16 के अनुरूप है। 

मंडल कमीशन: साल 1990 जिसे भारतीय सामाजिक इतिहास में ‘वाटरशेड मोमेंट’(ऐतिहासिक क्षण) कहा जा सकता है। अंग्रेज़ी के इस शब्द का मतलब है कि वह क्षण जहां से कोई बड़ा परिवर्तन शुरू होता है। हाशिए पर पड़े देश के बहुसंख्यक तबके से इतर जातीय व्यवस्था में राजनीतिक चाशनी जब लपेटी गई तो हंगामा मच गया। समाज में लकीर खींची और जातीय राजनीति के धुरंधरों के पौ बारह हो गए। 7 अगस्त 1990, तत्तकालीन प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करने का ऐलान संसद में किया तो देश जातीय समीकरण के उन्माद से झुलसने लगा। मंडल कमीशन की सिफारिश के मुताबिक पिछड़े वर्ग को सरकारी नौकरी में 27% आरक्षण देने की बात कही गई। जो पहले से चले आ रहे अनुसूचित जाति-जनजाति को मिलने वाले 22.5 % आरक्षण से अलग था। वीपी सिंह के इस फैसले ने देश की पूरी सियासत बदलकर रख दी। सवर्ण जातियों के युवा सड़क पर उतर आए। आरक्षण विरोधी आंदोलन के नेता बने राजीव गोस्वामी ने आत्मदाह कर लिया जो खुद ओबीसी की श्रेणी में आता था। कांग्रेस पार्टी ने वीपी सिंह सरकार के फैसले की पुरजोर मुखालफत की और राजीव गांधी मणिशंकर अय्यर द्वारा तैयार प्रस्ताव लेकर आए, जिसमें मंडल कमीशन की रिपोर्ट को पूरी तरह से खारिज किया गया। जिस मंडल कमीशन लागू करने के बाद बीजेपी और कांग्रेस ने वीपी सिंह सरकार के खिलाफ मतदान किया और उनकी सरकार गिर गई और उसके बाद आई नरसिंह राव सरकार।

इंदिरा साहनी केस : किसी भी प्रकार के आरक्षण पर बहस हो और इस मामले का जिक्र न हो, ऐसा हो नहीं सकता है। इंदिरा साहनी दिल्ली की पत्रकार थी। वीपी सिंह ने मंडल कमीशन को ज्ञापन के जरिये लागू किया था। इंदिरा साहनी इसकी वैधता को लेकर 1 अक्टूबर 1990 को सुप्रीम कोर्ट पहुंच गई। तब तक वीपी सिंह सत्ता से जा चुके थे और चंद्रशेखर नए प्रधानमंत्री बन गए थे, लेकिन उनकी सरकार ज्यादा दिन चली नहीं। 1991 के चुनाव में कांग्रेस की सत्ता में वापसी हुई और पीवी नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री बने। 25 सितंबर 1991 को राव ने सवर्णों के गुस्से को शांत करने के लिए आर्थिक आधार पर 10% आरक्षण का प्रावधान कर दिया। नरसिम्हा राव ने भी आर्थिक आधार पर आरक्षण की व्यवस्था एक ज्ञापन के जरिये ही लागू की थी। इन दोनों ज्ञापनों पर सुनवाई के लिए सुप्रीम कोर्ट की नौ जजों वाली संवैधानिक पीठ बनी। जिसके सामने आरक्षण के आधार, संविधान के अनुच्छेद 16 (4) और 16 (1) और 15 (4) व 16 (1) के पछड़ा वर्ग की समानता जैसे सवाल थे। बता दें कि संविधान के 14 से लेकर 18 तक के अनुच्छेद में जो मजमून लिखा है उसे हम समानता के अधिकार के नाम से जानते हैं। इसमें लिखा गया है कि सरकार जाति, धर्म या लिंग के आधार पर किसी भी किस्म का भेदभाव नहीं कर सकती है। सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने इंद्रा साहनी केस में फैसला देते समय आर्थिक आधार पर दिए जाने वाले आरक्षण को खारिज कर दिया। नौ जजों की बेंच ने कहा था कि आरक्षित स्थानों की संख्या कुल उपलब्ध स्थानों के 50% से अधिक नहीं होना चाहिए अर्थात आरक्षण की सीमा 50% से ज्यादा नही होनी चाहिए। सुप्रीम कोर्ट के इसी ऐतिहासिक फैसले के बाद से कानून बना था कि 50% से ज्यादा आरक्षण नहीं दिया जा सकता।

आयोग बनाने के पीछे मकसद:  जुलाई 2006 में सिंहों आयोग के गठन का बड़ा कारण चार महीना पहले यानी 5 अप्रैल 2006 को तत्कालीन मानव संसाधन विकास मंत्री अर्जुन सिंह द्वारा केंद्र सरकार के उच्च शिक्षा संस्थानों में ओबीसी के लिये 27% आरक्षण लागू करने की घोषणा थी। 2005 में ही संविधान संशोधन को जमीन पर उतारने की घोषणा की थी, लेकिन इसके खिलाफ भारी विरोध खड़ा हो गया। उत्तर भारत के कई शहरों में डॉक्टरों और मेडिकल के छात्र इसको लेकर सड़कों पर उतर आए और यहां तक कि विरोध स्वरूप मरीजों का इलाज भी बंद कर दिया गया था। जिस वजह से दवाब में आकर कांग्रेस की तरफ से सवर्णों के गुस्से पर मरहम लगाने के लिए आयोग बनाने वादा एक राजनीतिक दांव खेला गया, लेकिन इसकी रिपोर्ट और सुझाव वर्षों तक धूल फांकते रहे।

आयोग की रिपोर्ट में क्या कहा गया:    आयोग की रिपोर्ट में आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग  के लिए एक श्रेणी देने की सिफारिश की थी, जिसको ओबीसी या अन्य पिछड़ा वर्ग के समान लाभ मिलेगा। लाभार्थियों की पहचान के लिए जिन आधार को शामिल किया गया उसमें पूछा गया कि क्या वे करों का भुगतान करते हैं, वे एक वर्ष में कितना कमाते हैं और कितनी भूमि के मालिक हैं? आयोग की रिपोर्ट में कहा गया है कि कुछ राज्यों में सामान्य श्रेणी और ओबीसी की निरक्षरता दर 'लगभग समान' है, हालांकि सामान्य जातियों में अशिक्षा की स्थिति एससी/एसटी/ओबीसी की तुलना में कम है। जबकि सामान्‍य वर्ग की सामाजिक-आर्थिक स्थिति एससी-एसटी से बहुत आगे थी और ओबीसी से बेहतर थी। इस कमीशन ने अपनी रिपोर्ट में एक जगह यह भी लिखा है कि सवर्ण (जनरल कैटेगरी) गरीबों की पहचान करने के लिए आय सीमा वही रखी जा सकती है, जो ओबीसी नॉन क्रीमी लेयर की सीमा है। 

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