साहित्य

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  • लखीमपुर-खीरी उ०प्र०

Monday, September 06, 2021

सिफारिश लागू हुई तो बदल जाएगा ओबीसी आरक्षण का पुराना ढांचा-नन्द लाल वर्मा

"क्या ओबीसी आरक्षण में बंदरबांट को खत्म कर देगी "रोहिणी आयोग" की सिफारिश, सामाजिक- राजनीतिक दबदबे का बदल सकता है हुलिया या चेहरा,सिफारिश लागू हुई तो बदल जाएगा ओबीसी आरक्षण का पुराना ढांचा"

N.L.Verma (Asso. Pro.)


       केंद्रीय विभागों और बैंकों में होने वाली भर्तियों के डेटा एनालिसिस से आयोग ने पाया है कि 983 जातियों को ओबीसी आरक्षण का कोई लाभ ही नहीं मिल पाया। इससे साफ हो गया है कि ओबीसी की कुछ जातियों का ही आरक्षण में दबदबा रहता है। ऐसे में रोहिणी आयोग ओबीसी की केंद्रीय सूची को बांटने की सिफारिश कर सकता है। आयोग ने ओबीसी को चार खांचों / वर्गों में बांटकर सबको एक निश्चित आरक्षण देने की सिफारिश की है। आयोग का मानना है कि ओबीसी में कुछ दबदबे वाली जातियां ही आरक्षण का ज्यादा फायदा उठा रही हैं, बाकी वंचित रह गए हैं।
        ओबीसी आरक्षण को लेकर तेज होती सियासत के बीच रोहिणी आयोग की सिफारिशें गौर करने लायक हैं। केंद्र सरकार ने ओबीसी समुदाय से आने वाले जस्टिस जी. रोहिणी की अगुवाई में चार सदस्यीय आयोग का गठन 2 अक्टूबर, 2017 को किया था। आयोग ने 11 अक्टूबर, 2017 को कार्यभार संभाला। सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय ने एक सवाल के जवाब में 13 मार्च, 2018 को लोकसभा को बताया था कि ''दिल्ली हाई कोर्ट के पूर्व चीफ जस्टिस जी. रोहिणी की अध्यक्षता में सेंटर फॉर पॉलिसी स्टडीज, नई दिल्ली के डायरेक्टर डॉ. जे.के. बजाज, एंथ्रोपॉलोजिकल सर्वे ऑफ इंडिया, कोलकाता के डायरेक्टर और देश के रजिस्ट्रार जनरल और सेंसस कमिश्नर की सदस्यता वाले आयोग का गठन किया गया है।''
       मंत्रालय ने कहा कि यह आयोग ओबीसी में उप-श्रेणियों का निर्धारण करेगा। उसने इसका उद्देश्य बताते हुए कहा है कि ''जातियों और समुदायों के बीच आरक्षण का लाभ पहुंचने में किस हद तक असमानता और विषमता है, इसका पता लगाया जाएगा। आयोग ओबीसी की जातियों की उप-श्रेणियां तय करने के तरीके और पैमाने तय करेगा।'' आयोग को 27 मार्च, 2018 तक अपनी रिपोर्ट सौंप देनी थी, लेकिन उसे कई बार सेवा विस्तार दिया गया।
       देश में एक जाति के अंतर्गत कई उप-जातियां हैं। केंद्र सरकार की सूची में ही 2,633 जातियों को अन्य पिछड़ा वर्ग में शामिल किया गया है। आयोग ने इस वर्ष सरकार को सुझाव दिया था कि इन्हें चार वर्गों में बांटकर उन्हें क्रमशः 2% 6%, 9% और 10% आरक्षण दे दिया जाए। इस तरह, ओबीसी के 27% का आरक्षण उप-जातियों के चार वर्गों में बंट जाएगा। आंध्र प्रदेश में भी ओबीसी को पांच वर्गों ''A, B, C, D, E '' में बांटा गया है। वहीं, कर्नाटक में ओबीसी के सब-ग्रुप के नाम '' 1, 2A, 2B, 3A, 3B '' हैं।
       दरअसल, आरक्षण लाभ के सामाजिक स्तर पर समान वितरण को सुनिश्चित करने के लिए ओबीसी लिस्ट को समूहों में बांटने की राय दी गई है जिससे 27% आबंटित मंडल आरक्षण में कुल पिछड़ी जाति की आबादी को शामिल किया जा सके। उप-वर्गीकरण के बाद ''बैकवर्ड्स में फॉरवर्ड्स'' 27% में से केवल एक हिस्से के लिए योग्य होंगे जो मौजूदा स्थिति से बिल्कुल उलट है। फिलहाल, इनका शेयर असीमित है। इनके बारे में कहा जाता है कि ये आरक्षण लाभ का एक बड़ा हिस्सा झटक लेते हैं। 27% आरक्षण का बाकी हिस्सा सबसे ज्यादा बैकवर्ड समूहों के लिए होगा और इससे उन्हें ''बैकवर्ड्स में फॉरवर्ड्स'' के साथ प्रतिस्पर्धा से बचने में मदद मिलेगी। क्या जातीय जनगणना से  ओबीसी के उत्थान का मकसद हल जाएगा या फिर कोई अलग वजह से एकजुट हुईं बिहार की सभी पार्टियां,यह एक बड़ा सवाल है जिसका जवाब निकट भविष्य में ही उजागर हो सकता है।
      केंद्रीय विभागों और बैंकों में होने वाली भर्तियों के डेटा एनालिसिस से आयोग ने पाया कि 10 जातियों को आरक्षण का 25% लाभ मिला है जबकि 38 अन्य जातियों ने दूसरे एक चौथाई हिस्से को घेर लिया। करीब 22% आरक्षण का लाभ 506 अन्य जातियों को मिला। इसके विपरीत लगभग 2.68% लाभ 994 जातियों ने आपस में शेयर किया। गौर करने वाली बात यह है कि 983 जातियों को ओबीसी आरक्षण का कोई लाभ ही नहीं मिल पाया। इससे साफ हो गया है कि कुछ जातियों का ही आरक्षण लाभ में दबदबा रहता है। ऐसे में आयोग ओबीसी की केंद्रीय सूची को बांटने की सिफारिश करेगा।
       राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग (NCBC) ने वर्ष 2015 में ओबीसी जातियों या ओबीसी को पिछड़ा वर्ग (बैकवर्ड),ज्यादा पिछड़ा वर्ग (मोर बैकवर्ड ) और अति पिछड़ा वर्ग (मोस्ट बैकवर्ड) में बांटने की सिफारिश की थी। उसने कहा था कि सालों से आरक्षण का लाभ समाज की दबदबे वाली कुछ ओबीसी जातियां ही (पिछड़ों में अगड़े) हड़प ले रही हैं। इसलिए अन्य पिछड़े वर्ग में भी उप-वर्गीकरण करके अति-पिछड़ी जातियों के समूहों की पहचान करना जरूरी हो गया है। ध्यान रहे कि एनसीबीसी को सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों के कल्याण, उनकी शिकायते सुनने और उनके समाधान ढूंढने का संवैधानिक अधिकार प्राप्त है।
मंडल दौर की वापसी के संकेत... 3.0 की आहट से है यह बेचैनी?
       क्या रोहिणी आयोग की सिफारिशें सामाजिक और राजनैतिक स्तर पर हंगामा मचा सकती हैं ? बहरहाल, सब-कैटिगरी बनने से ''बैकवर्ड्स में फॉरवर्ड्स'' नाराज हो सकते हैं क्योंकि वे खुद को लूजर की स्थिति में आते समझ सकते हैं। दरअसल, ये समूह तुलनात्मक रूप से सामाजिक,शैक्षणिक, राजनीतिक और आर्थिक रूप से मजबूत माने जाते हैं।इसलिए इनका दबदबा रहता है। इनकी नाराजगी से बचने के लिए ही आयोग ने ''सबसे ज्यादा पिछड़े'' और ''अति पिछड़े'' जैसे नए सब-ग्रुप को नाम या टाइटल देने की जगह उन्हें कैटिगरी 1, 2, 3, 4 में बांटने की सिफारिश कर दी है। इस तरह के सामाजिक-शैक्षणिक रूप से पिछड़े स्तरों के मानदंड बिहार और तमिलनाडु राज्यों में अपनाए गए हैं।
        जस्टिस रोहिणी कमिशन ने ओबीसी से जुड़े सारे आंकड़ों को डिजिटल मोड में रखने और ओबीसी सर्टिफिकेट जारी करने का स्टैंडर्ड सिस्टम बनाने की भी सिफारिश की है। अगर इन सिफारिशों को लागू कर दिया गया तो देश के कुछ राज्यों विशेषकर यूपी और बिहार की राजनीति पर भी अच्छा खासा असर पड़ने की संभावनाएं नज़र आती हैं। खासकर, इन राज्यों समेत उत्तर भारत के कई राज्यों की राजनीति में नई जातियों के दबदबे का उभार देखा जा सकता है। ध्यान रहे कि मंडल कमिशन के बाद 1990 के दशक से यूपी और बिहार की राजनीति में वहां की यादव जाति बड़ी प्रभावशाली भूमिका में दिखाई देती है।

लखीमपुर-खीरी

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ओबीसी में क्रीमीलेयर क्या है और यह कैसे तय होता है? सुप्रीम कोर्ट के हालिया आदेश के बाद ओबीसी में उपजती एक नई चेतना-नन्द लाल वर्मा

N.L.Verma (Asso.Pro.)

ओबीसी आरक्षण : सुप्रीम कोर्ट ने अभी हाल में हरियाणा सरकार के पांच साल पुराने नोटिफिकेशन को रद्द कर दिया है। यह सवाल फिर से चर्चा के केंद्र में आ गया कि आखिर ओबीसी में क्रीमी लेयर तय करने के आधार/मानदंड क्या-क्या है या क्या-क्या होना चाहिए? आइए जानते हैं..........

      अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) में क्रीमी लेयर की व्यवस्था इंदिरा साहनी बनाम भारत सरकार के केस में सुप्रीम कोर्ट ने 1991 में एक आदेश के माध्यम से दी थी।सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि "क्रीमी लेयर" अर्थात विगत तीन वर्षों की सकल वार्षिक औसत आय सीमा (तत्कालीन एक लाख रुपये) से ऊपर आने वालों को क्रीमी लेयर मानकर उन्हें ओबीसी आरक्षण का लाभ नहीं मिलेगा।
      
सुप्रीम कोर्ट ने अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी ) के नॉन-क्रीमी लेयर में प्राथमिकता तय करने वाले आदेश का नोटिफिकेशन यह कहते हुए रद्द कर दिया कि सिर्फ आर्थिक आधार पर क्रीमी लेयर तय नहीं किया जा सकता है। सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस एल नागेश्वर राव की अगुवाई वाली बेंच ने कहा कि 17 अगस्त 2016 के नोटिफिकेशन के तहत हरियाणा राज्य सरकार ने सिर्फ आर्थिक आधार पर क्रीमी लेयर तय किया था। बेंच ने कहा कि यह नोटिफिकेशन इंदिरा साहनी से संबंधित वाद में सुप्रीम कोर्ट के दिए फैसले के खिलाफ है। उसने कहा कि इंदिरा साहनी केस के निर्णय में आर्थिक, सामाजिक और अन्य आधार पर क्रीमी लेयर तय करने का फॉर्म्युला बताया गया था।


मंडल कमिशन की सिफारिशें और ओबीसी:

 सामाजिक या शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्ग की पहचान करने के लिए वर्ष 1979 में  बिहार के भूतपूर्व मुख्यमंत्री बिंदेश्वरी प्रसाद मंडल (बीपी मंडल) की अध्यक्षता में  एक आयोग पुनः गठित किया गया था। इससे पूर्व इसी उद्देश्य के लिए 1953 में काका कालेलकर आयोग गठित किया गया था जिसकी सिफारिशें 1955 में ही आ गयी थी। तब से ये सिफारिशें सरकार के ठंडे बस्ते में पड़कर धूल फांक रही थी। मंडल आयोग ने पिछड़े वर्ग के लिए सरकारी शैक्षणिक संस्थानों और नौकरियों में 27% आरक्षण देने की सिफारिश के साथ ओबीसी के कल्याण के लिए अन्य कई सिफारिशें की थी। ध्यान रहे कि अनुसूचित जाति (SC) और अनुसूचित जनजाति (ST)  के लिए आरक्षण का प्रावधान देश में पहले से ही लागू था। इसलिए, मंडल कमिशन ने जिन्हें आरक्षण देने की सिफारिश की थी, उन्हें अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) कहा गया।

क्या है ओबीसी में क्रीमी लेयर:

मंडल कमिशन की सिफारिशें  लगभग 12 सालों तक ठंडे बस्ते में दबी रही। जब वीपी सिंह देश के प्रधानमंत्री बने तो वर्ष 1991 में इन्ही सिफारिशों के आधार पर केवल सरकारी नौकरियों में ओबीसी के 27% आरक्षण की घोषणा कर दी थी। तब सुप्रीम कोर्ट की वकील इंदिरा साहनी ने उसे देश की शीर्ष अदालत में चुनौती दी। सुप्रीम कोर्ट ने 16 नवंबर, 1991 को दिए अपने फैसले में ओबीसी को 27% आरक्षण के फैसले का समर्थन किया, लेकिन उसने कहा कि ओबीसी की पहचान के लिए जाति को पिछड़ेपन का आधार बनाया जा सकता है। साथ ही, उसने यह भी स्पष्ट किया था कि ओबीसी में क्रीमी लेयर को आरक्षण नहीं दिया जाएगा।


      
सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद अगले वर्ष 1992 में देश भर में सरकारी नौकरियों में ओबीसी आरक्षण लागू हो गया। हालांकि, कुछ राज्यों ने सुप्रीम कोर्ट की बात यह कहते हुए नहीं मानी की उनके यहां ओबीसी में कोई क्रीमी लेयर है ही नहीं। वर्ष 1999 में क्रीमी लेयर का मुद्दा फिर सुप्रीम कोर्ट के सामने उठा। कोर्ट ने फिर से अपना पुराना आदेश दोहराया। हालांकि, केंद्र की वीपी सिंह सरकार ने 1993 में ही ओबीसी में क्रीमी लेयर तय करने के लिए अधिकतम सालाना औसत आय की रकम भी तय कर दी थी और नॉन-क्रीमी लेयर सर्टिफिकेट की भी व्यवस्था बना दी थी।

क्या है आय का पैमाना:

इसके मुताबिक, वर्ष 1993 में किसी ओबीसी अभ्यर्थी के माता-पिता की विगत तीन वर्षों की  औसत वार्षिक सकल आय 1 लाख रुपये से ज्यादा  वाला अभ्यर्थी  क्रीमी लेयर घोषित किया गया। यानी, जिस ओबीसी अभ्यर्थी के माता -पिता की पिछले तीन सालों की औसत वार्षिक सकल आय एक लाख रुपये की कमाई हो रही थी, उसे आरक्षण का फायदा नहीं दिया जाएगा। इस आय की गणना करने में उसके माता -पिता की वेतन और कृषि से होने वाली आय शामिल नही करने का प्रावधान था। फिर 2004 में यह वार्षिक आय बढ़कर 2.5 लाख रुपये, 2008 में 4.5 लाख रुपये, 2013 में 6 लाख रुपये और फिर 2017 में 8 लाख रुपये हो गयी। नियम के मुताबिक, हर तीन साल में क्रीमी लेयर तय करने के तयशुदा आमदनी की रकम को रिवाइज किया जाता है। यही वजह है कि अब राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग (NCBC) और ओबीसी वेलफेयर की लड़ाई लड़ने वाले सामाजिक न्याय के पक्षधर राजनीतिक दल और एक्टिविस्ट जल्दी से जल्दी यह रकम बढ़ाने की बात कर रहे हैं। उल्लेखनीय है कि ओबीसी वेलफेयर की संसदीय समिति के चेयरमैन एमपी की सतना लोकसभा क्षेत्र से लगातार चार बार के सांसद श्री गणेश सिंह पटेल की अध्यक्षता में इस आय सीमा को 15लाख रुपये बढ़ाने की सिफारिश की गई थी जिस पर केंद्र सरकार द्वारा कोई संज्ञान न लेने पर उन्होंने संसद के सभी ओबीसी सांसदों को एक आमंत्रण पत्र भेजा था कि वे इस विषय को लागू करने के लिए केंद्र सरकार से अनुरोध करें और दबाव बनाएं। लेकिन अत्यंत दुख के साथ लिखना पड़ रहा है कि उस समय एनडीए सरकार में शामिल किसी दल के ओबीसी सांसद अपने ही समाज के कल्याण के लिए बनी समिति की सिफारिशों को लागू करने के लिए केंद्र सरकार या पीएम मोदी से निवेदन करने का साहस तक नही जुटा पाए थे। गैर एनडीए दलों के कुछ सांसदों जिनमें समाजवादी पार्टी के तत्कालीन राज्यसभा सांसद श्री रवि प्रकाश वर्मा भी शामिल थे,ने देश के पीएम को पत्र लिखकर श्री गणेश सिंह पटेल की समिति की सिफारिशों को लागू करने के लिए अनुरोध किया गया था।


       
गिनती के कुछ सांसदों की आवाज़ नक्कारखाने में तूती की आवाज़ की तरह दबकर रह गयी थी और उसके कुछ दिनों के बाद ही श्री गणेश सिंह पटेल का कार्यकाल समाप्त हो जाने के लगभग सात आठ महीने बाद उनके स्थान पर सीतापुर से सांसद श्री राजेश वर्मा को उस समिति का चेयरमैन बनाया गया  जो वर्तमान में उस पद पर आसीन हैं।
     
उधर, केंद्र सरकार का कहना है कि उसे ओबीसी कोटे की जातियों में उपजातियों के निर्धारण के लिए गठित जस्टिस रोहिणी आयोग की रिपोर्ट का इंतजार है। केंद्रीय सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता राज्य मंत्री प्रतिमा भौमिक ने मॉनसून सत्र के दौरान लोकसभा में लिखित जवाब दिया था। उन्होंने कहा, 'ओबीसी में क्रीमी लेयर तय करने का इनकम क्राइटेरिया के रिविजन का प्रस्ताव सरकार के विचाराधीन है।'


     
अभी हाल में ओबीसी के क्रीमीलेयर पर सुप्रीम कोर्ट का बड़ा फैसला आया है कि... सिर्फ आर्थिक आधार पर तय नहीं हो सकता है ओबीसी क्रीमी लेयर। इसलिए इस निर्णय ने  क्रीमी लेयर और नॉन क्रीमी लेयर पर सामाजिक न्याय की राजनीति करने वाले दलों और ओबीसी बौद्धिक वर्ग में एक नई बहस को जन्म दे दिया है। दूसरे ओबीसी की किसी जाति को ओबीसी सूची में शामिल करने और निकालने के राज्यों के अधिकार का बिल संसद से पारित हो जाने के बाद भी ओबीसी आरक्षण पर नए सिरे से वैचारिक- विमर्श शुरू हो चुका है। ओबीसी आरक्षण पर जन्मी यह नई बहस सामाजिक न्याय की पक्षधर पार्टियों के लिए यूपी के विधानसभा चुनाव में कितना कारगर सिद्ध हो सकती है, आने वाले निकट भविष्य में ही देखा जा सकता है।



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Sunday, September 05, 2021

शिक्षा तो दूर सार्वजनिक कुएं से पानी पीने को मोहताज थे-अखिलेश कुमार अरुण

साथियों हम तो उस समाज से आते हैं जहां सार्वजनिक कुएं, तालाब, नदी-नाले से पानी पीना भी गुनाह था; ऐसे में हम शिक्षा कैसे प्राप्त कर सकते थे। मिट्टी का पुतला बनाकर शिक्षा लेने लगा तो अंगूठा कटवा लिया गया, ज्ञान देने लगा तो सर कटवा लिया गया, अध्यात्म के तरफ गए निर्गुण की उपासना करने लगे तो छल से मार दिया गया क्योंकि शिक्षा का अधिकार तो हमें था ही नहीं, तो हम शिक्षा कैसे प्राप्त करते शुक्र है अपने उस रहनुमा का जिसने हमें यह अधिकार दिया #भारतीय संविधान की धारा 29,30 और 21 क, जिसमें #शिक्षा संस्कृति और शिक्षा का मूल अधिकार समाहित किया गया है।

हमारी शिक्षा प्रारंभ होती है #चार्टर #एक्ट 1813 और  1833 से धीरे-धीरे ही सही हमें शिक्षा प्राप्त करने का मौका मिला तो, अंग्रेजों को जाति धर्म से अलग हटकर उन्हें एक नौकर चाहिए था ऐसा नौकर जो उनकी भाषा और शिक्षा को समझ कर कंपनी के कार्यप्रणाली के अनुसार अपने को तैयार कर सके किंतु हम यहां भी चूक गए, #मैकाले का विवरण पत्र #1835 के अनुसार शिक्षा का स्वरूप #निस्यंदन_सिद्धांत (filtration theory) की भेंट चढ़ गई क्योंकि उच्च वर्ग शिक्षित होकर नौकरी पेशा में जाने लगा उसका सामाजिक स्तर पहले से ही ऊंचा था और ऊंचा हो गया। अंग्रेजों के साथ उसका उठना बैठना हो गया, "अरे ओ साहब कहां इन मैले-कुचैले जाहिलों को शिक्षित करने की सोच रहे हैं।" छन-छन कर जो शिक्षा निचले तबके तक आने के लिए थी उसकी जालियां बंद कर दी गई शिक्षा छनने की बात अलग एक बूंद टपकना भी मयस्सर न रहा।

शिक्षा का स्वरूप वर्तमान समय में अत्यधिक विकृत हो गया है क्योंकि शिक्षा की धारा दो रूपों में प्रवाहित हो रही है-एक तरफ सुख सुविधाओं से संपन्न महंगी शिक्षा व्यवस्था और दूसरी तरफ गरीबों की शिक्षा जिसमें शिक्षा के न नए आयाम हैं और न ही सुविधाएं परिणामत: एक बहुत बड़ा तबका चाहे वह जिस जाति धर्म-मजहब का हो शिक्षा से वंचित है क्योंकि महंगी शिक्षा उसके बस की बात नहीं है। अभी हाल ही में #कानपुरयूनिवर्सिटी (गरीबों की यूनीवर्सिटी कह लीजिए) के अंतर्गत संचालित #सीतापुर, #लखीमपुर, #उन्नाव आदि जिलों के #महाविद्यालय संचालित हो रहे थे, यकायक इन्हें #लखनऊविश्वविद्यालय से संबद्ध कर दिया गया, जिसकी फीस 2 गुना ही नहीं 3 गुना है ऐसे में इन पिछड़े जिलों के अभिभावक अपने पाल्य को शिक्षा दिलाने के लिए महाविद्यालय की मोटी फीस अदा करने में अक्षम है। ऐसे में जनसामान्य की शिक्षा को कैसे साकार किया जा सकता है। हम फिर जहां से उठे थे धीरे धीरे वहीं और उससे भी बुरी स्थिति को प्राप्त हो रहे हैं।

वस्तुत: हम आखरी पीढ़ी होंगे अपने समाज में उच्च शिक्षा धारित करने वाले लोगों में से इसके बाद आने वाली पीढ़ी उच्च शिक्षा के लिए तरसेगी केवल एक स्वप्न बनकर रह जाएगा उनके शिक्षा की चाहत और उनके सामाजिक जीवन का उभरता स्तर, शिक्षा में मार्क्सवाद अपने चरम पर है पूंजीपति और सर्वहारा वर्ग की शिक्षा कहिए.... हमारे हाथ से शिक्षा की आधुनिकता के नाम पर हमारी पाटी, खड़िया, सरकंडे की कलम भी छीन लिया गया और अत्याधुनिक शिक्षा का साधन भी उपलब्ध नहीं कराया गया। प्राईमरी और जूनियर की स्कूलिंग में शिक्षा से ज्यादा सरकार को मिड-डे-मील का फीडबैक चाहिए। मास्टर जी पढ़ाने से ज्यादा सरकार को  मोबाइल पर एप्प से लेकर आफिस के रजिस्टर तक मिड-डे-मील को लेकर व्यस्त हैं....टूंटपूजिहे प्राइवेट स्कूल कोरोना की मार से चौपट हो गए और बड़े स्कूल आनलाइन क्लाश के नाम पर अभिभावकों की जेब काट लिए हमारे माता-पिता के पास इतनी मोटी रकम नहीं थी उनकी रोड किनारे की दुकान, मजदूरी और कम्पनी की प्राइवेट नौकरी चली गई, नून-रोटी खाकर किसी प्रकार से जीवनयापन हो रहा है।

वंचितों की शिक्षा का असली इतिहास ज्योतिबा फुले और सावित्रीबाई फुले से स्टार्ट होता है जो बाबा साहब डॉक्टर बी आर अंबेडकर के गुरु भी कहलाते हैं अंग्रेजों की शिक्षा प्रणाली का ही परिणाम था की 1891 में जन्मा बालक शिक्षा के क्षेत्र में अर्जित कर आज विश्व का सर्वोच्च शिक्षा प्राप्त करने वाला स्कॉलर बना हुआ है जिसे हम नॉलेज आफ सिंबल इन द वर्ल्ड के नाम से जानते हैं। हम अपने संपूर्ण समाज की तरफ से ऐसे महापुरुष को बार-बार नमन करते हैं हमारे असली शिक्षक बाबा साहब ज्योतिबा राव फूले और सावित्रीबाई फूले ही हैं।

आज के समय में भी द्रोणाचार्य जैसे शिक्षकों की कमी नहीं है इन शिक्षकों की साया से भी बचने का प्रयास करुंगा।

अधिकतर शिक्षक ऐसे हैं जो अपने शिक्षक धर्म का निर्वाह करते आए हैं चाहे वह जो भी समय काल रहा हो हम अपने जीवन के मोड़ पर मिले उन शिक्षकों को पुनः पुनः नमन करता हूं और अपने ज्ञान वृद्धि के लिए उन शिक्षकों के आशीर्वाद की कामना करता हूं जिनका आशीर्वाद हमें आजीवन मिलता रहे। 

शिक्षक दिवस की शुभकामनाएं।

अखिलेश कुमार अरुण
8127698147

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Saturday, August 21, 2021

दुल्हन नहीं सिर्फ दाई- गोपेंद्र कु सिन्हा गौतम

लघुकथा

 गोपेंद्र कु सिन्हा गौतम
चार भाई और तीन बहनों में चौथे स्थान पर रजिया जन्म से बहुत चुलबुली थी।पूरे मोहल्ले वासियों की लाड़ली थी।सभी लोग रजिया के मुस्कान और तोतली बोली पर फिदा हो जाते थे चाहे कितने भी परेशानी में क्यों न हों!लोग उसे प्यार से रज्जो कहते।
रजिया तितली की भांति फुदकती रहती। शायद ही ऐसा कोई दिन हो जब वह दोनों वक्त का खाना अपने घर में खाई हो।उसके हिरण जैसी सजल आंखें और मोतियों सरीखे बत्तीसी उसकी मुस्कुराहट में चार चांद लगा देते थे।जब हंसती तो सारा मोहल्ला खिलखिला उठता।गांव के लोगों में एक कहावत प्रचलित हो गया था..कोई बीमार क्या, मर भी गया हो तो अगर रजिया खिलखिला कर हंस दे तो वह चीता पर से उठ जाएगा।
विद्यालय में भी रजिया अपने सहपाठियों के साथ-साथ शिक्षक शिक्षिकाओं के बहुत प्रिय थी।जब कभी शिक्षक शिक्षिका या कोई सहपाठी धीरे से भी आवाज लगाता रजिया ओ रजिया,वह बिजली की भांति पहुंच जाती।ऐसा लगता मानो वह पहले से ही आवाज के इंतजार कर रही थी। पर यह क्या आठवीं कक्षा में पहुंचते ही उसकी शादी तय कर दी गई।वह भी एक ऐसे लड़के से जो दोवाह (विदुर) था।इसके बारे में रजिया को किसी ने कुछ बताना लाजमी नहीं समझा।शादी तय हो जाने के बावजूद रजिया पूरे मोहल्ले में स्वच्छंद विचरण करते रहती।उस पर गांव घर की भौजाइयां कहतीं रज्जो अब तुम्हारी शादी होने वाली है वहां जाकर भी इसी तरह से कूदते फांदते रहोगी क्या? रज्जो बिंदास जवाब देती तुम्हारे नंदोई को भी उड़ाना सिखा दूंगी भाभी! शादी के बाद जब रजिया अपने ससुराल पहुंची तो डोली में ही उसकी सास ने गोद में एक पांच वर्षीय बच्ची को डालते हुए बोली लो दुल्हनिया आज से संभालो अपनी बेटी को इसी के लिए हमने  बेटे की दुबारा शादी करवाई है।रजिया समझते देर न लगी कि उसका पति पहले से शादीशुदा है। उसे शक भी हो रहा था क्योंकि उसका पति उम्र में उससे लगभग दोगुने से भी अधिक लगता था। रात को रज्जो ने अपने पति से कहा इस बच्ची को अपने दादी के पास क्यों नहीं भेज देते हो ? इस पर उसके पति ने आंख तरेरते हुए बोला कहां जाएगी तुम्हें किस लिए ब्याह कर लाया हूं ! चेहरा देखने के लिए ? पति के अकड़ भरे जवाब सुन रजिया के आंखों से मोती जैसे आंसू झर झर कर गिरने लगे।वह समझ गई थी प्रकृति ने उसके साथ धोखा किया।उसे दोवाह पति और पहले से ही एक बेटी रहने का कोई गम नहीं था।पर अपने पति के अकड्डू मिजाज ने उसे अंदर तक झकझोर कर रख दिया। स्वच्छंद विचरण करने वाली तितली अब अपना पंख सिकोड लेना है ठीक समझी। शुरू शुरू वह अपने ससुराल में लगभग एक वर्ष तक रही।लेकिन एक दिन भी उसके चेहरे पर मुस्कुराहट तक नहीं दिखी गई। वह अपने पति की बेटी को पालने में अपना सब कुछ लगा दी।दिन रात उसी के सेवा में लगी रहती।बदले में सौतेली मां होने का घर से बाहर वालों तक दंश झेलना पड़ता, उसके ऊपर पति का सनकी मिजाज।उसके आंखों से आंसू पूरे एक साल में शायद ही कोई दिन हो जब न निकली हो!
एक वर्ष के बाद जब अपने मायके लौटी तो पूरे मोहल्ले के लोग उसे देखने के लिए इकट्ठा हो गए। लेकिन रजिया चुपचाप दबे पांव अपने घर चली गई।भला उन लोगों को क्या पता रजिया के दिल पर क्या बीत रहा है।एक महिला ने उसे छेड़ने के इरादे से बोली रज्जो शादी के लड्डू हम लोगों को नहीं खिलाओगी क्या ? कहीं जीजा जी ने मना तो नहीं किया है ? चलो ठीक है हमें लड्डू नहीं चाहिए पर अपनी हंसी और खिलखिलाहट से तो हम लोग को वंचित मत करो,आखिर कौन सा गुनाह हम लोगों ने किया है तुम्हारी शादी कर के ? दहेज में सब कुछ दिया पर हम लोगों ने तुम्हारी हंसी और खिलखिलाहट तो उन्हें नहीं दी थी,जो तुम वहीं छोड़ के आ गई। इतना सुनते ही रजिया बिफर कर अपनी मां के आंचल में मुंह छुपा सुबकते हुए बोली आप लोगों की रज्जो शायद पिछले जन्म में कोई बहुत बड़ा गुनाह की थी इसलिए माता-पिता और भाइयों ने सनकी दोवाह लड़के से हमारी शादी कर दी।जहां मैं बिना बच्चे को जन्म दिये मां तो बन गई,पर एक दिन के लिए भी दुल्हन नहीं बन पाई,सिर्फ बच्चे के पालने वाली दाई रह गई दाई। इतना कह कर रजिया भोंकार पारकर रोने लगी। वहां उपस्थित सारे लोगों की आंखों से आंसू इस तरह उमड़ने लगे मानो एक साथ गंगा-यमुना में बाढ़ आ गई हो और वह एक बार में ही सब कुछ बहा कर ले जाने को बेताब है।

सामाजिक और राजनीतिक चिंतक
ग्राम देवदत्तपुर,पोस्ट एकौनी, थाना दाऊदनगर, जिला
औरंगाबाद, बिहार
पिनकोड 824113
मोबाइल न 9507341433

बुढ़ापे का निवाला पेंशन- गोपेंद्र कु सिन्हा गौतम

लघुकथा

गोपेंद्र कु सिन्हा गौतम
स्वाति, सुरेखा और सुमन तीन बहनें थीं।वे पढ़ने लिखने में काफी होशियार थीं,साथ ही घर के कामों में भी हाथ बंटाने से तनिक भी नहीं हिचकती थीं।न तो तीनों बहनों को कभी भाई की कमी खलती न उनके माता-पिता को बेटे की।जिंदगी तेजी से हंसी-खुशी से गुजर रही थी।
लेकिन होनी को कौन टाल सकता है।पिछले मई माह में उनके माता-पिता एक सप्ताह के भीतर ही काल के गाल में समा गए। दोनों के दोनों दुनिया को तबाह करने वाली बीमारी कोरोना और देश में व्याप्त स्वास्थ्य सुविधाओं के अभाव के भेंट चढ़ गए। जिसके कारण तीनों बहनों पर दुःख का पहाड़ टूट पड़ा। रातों-रात इनकी देखभाल और पढ़ाई लिखाई की दोहरी जिम्मेदारी अब अवकाश प्राप्त शिक्षक दादाजी पर आन पड़ी। लेकिन दादाजी को मिलने वाले पेंशन से घर खर्च के साथ साथ पढ़ाई-लिखाई का खर्च चलाना काफी मुश्किल होने लगा।यह देख एक दिन तीनों बहनें दादाजी के पास गईं और बोलीं दादाजी ! हमलोगों ने फैसला किया है कि कल से पढ़ाई लिखाई के बाद आसपास के घरों में ट्यूशन पढ़ाने का काम भी करूंगी।इस पर दादाजी नाराज हो गए और बोले तुम लोगों को हमारी बुड्ढी हड्डियों पर भरोसा नहीं है जो ऐसा फैसला हमसे बिना पूछे कर ली। अगर तुम्हें कोई परेशानी है तो कहो।जब-तक मैं जिंदा हूं तुम्हें सोचने की जरूरत नहीं है।अभी तुम्हारे मासूम हाथ कमाने योग्य नहीं हैं मेरी बच्चियों!क्या कहेगा दुनिया जमाना ! अवकाश प्राप्त शिक्षक मनोहर बाबू की पोतियां घर खर्च चलाने के लिए ट्यूशन पढ़ा रहीं हैं।तुम लोग सिर्फ अपने पढ़ाई-लिखाई पर ध्यान केंद्रित करो।अभी हमारी बुड्ढी हड्डियों में इतनी ताकत है कि कमाकर तुम लोगों को अच्छी तालीम दे सकूं।तुम लोग नहीं मैं बच्चों को पढ़ाऊंगा। फिर कभी ऐसी बात किये तो मैं तुमलोगों को माफ़ नहीं करूंगा।
क्या तुम लोग भी अटल बिहारी की सरकार की तरह हो जो बीच राह में करोड़ों कर्मचारियों को धोखा दे दी थी! और पुरानी पेंशन की नई पेंशन का झुनझुना थमा दिया।जिसके कारण आज हम जैसे करोड़ों कर्मचारी जिंदगी भर कमाने के बावजूद बुढ़ापे में बेसहारा बन जा रहे हैं। एक तरफ तो उन्होंने हमारी बुढ़ापे की लाठी तोड़ ही दी,क्या तुम लोग भी बीच में पढ़ाई-लिखाई से ध्यान हटाकर हमारे बुढ़ापे की अंतिम सहारे को भी समाप्त करना चाहती हो। पोतियों ने दादाजी के कंधे पर सर रखकर एक साथ बोलीं नहीं दादा जी हम अटल जी के जैसे नहीं हो सकते जो आपके बुढ़ापे का निवाला छीन लेंगे!
सामाजिक और राजनीतिक चिंतक
ग्राम देवदत्तपुर,पोस्ट एकौनी, थाना दाऊदनगर, जिला
औरंगाबाद, बिहार
पिनकोड 824113
मोबाइल न 9507341433


Sunday, August 08, 2021

ब्राह्मणों को एक ‘वोट बैंक’ में तब्दील करने के मायने-अजय बोकिल

अजय बोकिल
किसी भी समाज का पारंपरिक रूप से प्रभावशाली तबका एक वोट बैंक में कैसे तब्दील होने लगता है, यह उत्तर प्रदेश में ब्राह्मण वोटों को लेकर हो रही राजनीतिक खींचतान से बखूबी समझा जा सकता है। आगामी विधानसभा चुनावों के मद्देनजर राज्य के करीब 12 फीसदी ब्राह्मण वोटों को अपने पाले में खींचने के लिए लगभग सभी दल ताकत लगाए हुए हैं। प्रदेश में सत्तारूढ़ भाजपा इस वोट को अपनी बपौती मान कर चल रही है तो पहले बरसों सत्ता में रही कांग्रेस को अभी भी उम्मीद है कि ब्राह्मण कांग्रेस के राज में अपने स्वर्णिम अतीत को नहीं भूलेंगे। ब्राह्मण वोट में नए सिरे से सेंधमारी की शुरूआत सबसे पहले मायावती की बहुजन समाज पार्टी ने राज्य में ब्राह्मण सम्मेलनों के आयोजन के ऐलान से की तो इससे चौंकन्नी समाजवादी पार्टी ने भी ऐसे ही सम्मेलनों के आयोजनो की घोषणा कर दी है। दोनो पार्टियां इस असंतोष को हवा देने की पूरी कोशिश में है कि भाजपा राज में ब्राह्मणों का उत्पीड़न हो रहा है। न केवल राजनीतिक बल्कि सामाजिक और प्रशासनिक रूप से भी। लिहाजा ब्राह्मणों को ‘न्याय’ चाहिए तो वो हमारी पार्टी के झंडे तले आएं। वैसे यह भी दिलचस्प है कि ‍हिंदू समाज के पिरामिड पर शीर्ष पर बैठी और काफी हद तक समूचे हिंदू समाज का वोट-व्यवहार तय करने वाली ब्राह्मण जाति को ही उसके हितरक्षण की सियासी गाजर दिखाई जा रही है। यह स्थिति उन ब्राह्मणों के लिए भी शायद नई है, जो अब तक स्वयं को समाज और राजनीति का नियंता मानते आए हैं और आत्मश्रेष्ठत्व का यह भाव उनमें डीएनए की तरह रचा हुआ है।
उत्तर प्रदेश जैसे देश के आबादी के ‍िलहाज से सबसे बड़े राज्य में तीन दशक पहले तक ब्राह्मणों में अपने ‘वर्चस्व’ को लेकर खास चिंता नहीं थी। क्योंकि संख्या में तुलनात्मक रूप में कम होने के बाद भी उनकी प्रभावी मौजूदगी हर उस क्षेत्र में थी, जिसे निर्णायक कहा जाता है। आजादी के बाद से लेकर 1989 तक राज्य में अधिकांश मुख्यमंत्री ब्राह्मण ही रहे। प्रशासनिक पदों और कांग्रेस पार्टी में भी उनकी भूमिका अहम रही। आम ब्राह्मण में यही संदेश था कि धर्म सत्ता के साथ राजनीतिक सत्ता में भी उसकी शीर्ष भूमिका है। लेकिन उसके बाद मंडल-कमंडल की राजनीति, दलित और पिछड़े वर्ग की राजनीतिक चेतना के जबर्दस्त उभार तथा राजजन्म भूमि आंदोलन के बहाने समूचे हिंदू समाज को एक करने की आरएसएस की काफी हद तक सफल कोशिशों ने यूपी में ब्राह्मणों की भूमिका को धीरे-धीरे मर्या‍दित कर दिया। इस सामा‍जिक बदलाव को जातिवादी राजनीति ने इसे ‘सामाजिक न्याय’ और ‘समता’ तथा हिंदूवादी राजनीति ने ‘समरसता’ का नाम दिया। सामाजिक समरसता का यह विचार भी ब्राहमणो के ही ‍िदमाग की उपज था, लेकिन आज ब्राह्मण इसी ‘समरसता’ में अपना ‘रस’ खोजने पर विवश हैं। परिणामस्वरूप उत्तर प्रदेश में तीन दशकों से ब्राह्मण अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए बार बार राजनीतिक प्रयोग कर रहे हैं, लेकिन उनकी बेचैनी का कोई स्थायी समाधान नहीं निकल सका है। यहां तर्क दिया जा सकता है कि चूंकि भारत में ‘सामाजिक न्याय’ का क्रियान्वयन लोकतंत्र के खांचे में हो रहा है और हमारा लोकतंत्र मूलत: संख्यात्मक बहुमत से संचालित होता है, ऐसे में ब्राह्मण भले ही सदियों से हिंदू धर्म सत्ता के नियंता और राजनीतिक सत्ता के अनुमोदक रहे हों, संख्यात्मक रूप से अल्पसंख्यक ही हैं। लिहाजा आज उनका सत्ता में शेयर भी उसी अनुपात में होगा। दूसरे, वर्तमान हिंदू पुनर्जागरण की नींव भले ब्राह्मणों ने रखी हो, लेकिन उस पर ध्वजा अब उस पिछड़े वर्ग की लहरा रही है, जिसे ब्राह्मणों ने अपनी ताकत बढ़ाने और सामाजिक वर्चस्व को कायम रखने के लिए साथ लिया था। हिंदू समाज की ‘सामाजिक समरसता’ की ताकत को भाजपा और आरएसएस के बखूबी पहचाना है। चूंकि संख्यात्मक रूप से अोबीसी कुल हिंदू समाज का लगभग आधा है, ऐसे में इस वर्ग में गहरी पैठ भाजपा के लिए राजनीतिक दीर्घायुषी होने की जमानत है। ऐसे में ब्राह्मण और दलित साथ आएं तो ठीक न आए तो भी ठीक। यही सोच ब्राह्मणों के लिए विचलित करने वाली है। जबकि अधिकांश ब्राह्मण ऐसी सामाजिक- राजनीतिक व्यवस्था चाहते हैं,जो ‘सामाजिक समता’ के साथ साथ उनकी पारंपरिक श्रेष्ठता को कायम रखे। ऐसे ब्राह्मणों को किसी न किसी पार्टी के साथ ऐसे अलिखित अनुबंध की आवश्यकता है, जो उनके धार्मिक-सामाजिक और राजनीतिक महत्व को मूर्त रूप में स्वीकार करे।
मोटे तौर पर बहुतांश ब्राह्मणों के राजनीतिक सोच के हिसाब से आज भाजपा ही उनके सबसे नजदीक है ( किसी जमाने में यह हैसियत कांग्रेस की थी)। लेकिन हिंदुत्व के लोकव्यापीकरण के चक्कर में भाजपा का ध्यान अब उन जातियों और समुदायो पर ज्यादा है, जो घोर जातिवाद, ब्राह्मणवाद अथवा अन्यान्य कारणो से भाजपा से छिटकती रही हैं। राजनीतिक सत्ता की स्थिरता और सातत्य के लिए यह जरूरी भी है।
दरअसल यूपी में ब्राह्मणों की इस कथित ‘सुविचारित’ अथवा ‘परिस्थितिजन्य उपेक्षा’ ही ब्राह्मणों की बेचैनी का असल कारण है। इसी को दूसरी पार्टियां आगामी चुनाव में राजनीतिक रूप से भुनाना चाहती हैं। यही कारण है ‍िक 2007 में जाटव-ब्राह्मण जातीय समीकरण बनाकर सत्ता में आने वाली मायावती और उनकी बहुजन समाज पार्टी ने लाख गालियां देकर भी ब्राह्मणों को पुचकारना चाहा। नए नारे गढ़े गए, मसलन ‘ब्राह्मण शंख बजाएगा, हाथी बढ़ता जाएगा।‘ लेकिन बसपा के शासन काल में हकीकत में ब्राह्मणों के हाथ में केवल शंख ही रह गया, जिसे उन्होंने अगले चुनाव में ब्राह्मणों ने समाजवादी पार्टी के राज्याभिषेक के रूप में बजाया। बावजूद इसके, उनके सुनहरे दिन फिर भी नहीं लौटे। 2017 में यूपी विधानसभा चुनाव में भाजपा की बम्पर जीत में ब्राह्णों की बड़ी हिस्सेदारी रही। सीएसडीएस सर्वे के मुताबिक तब राज्य के 80 फीसदी ब्राह्मणो ने बीजेपी को वोट किया था। लेकिन हकीकत में ‘वर्चस्व’ जैसी कोई बात नहीं हुई। उल्टे संदेश यह गया कि योगी सरकार विकास दुबे ( जो कि घोषित गैंगस्टर था) का भी एनकाउंटर करा रही है। अर्थात ब्राह्मणों को इस तरह भी निपटाया जा रहा है। यूं योगी राज में भाजपा के विधायक हैं। 6 मंत्री भी हैं। लेकिन इन में कोई भी ऐसा प्रखर चेहरा नहीं है, जिसे सही अर्थों में ब्राह्मणों का रहनुमा कहा जा सके।
अब सवाल यह कि ‘ब्राह्मणों के वर्चस्व’ ( डाॅमिनेंस) घटने का निश्चित अर्थ क्या है? इसे कैसे पारिभाषित किया जाए? वो कौन से कारण हैं, जो ब्राह्मणों को अपने उपेक्षित होने का अहसास कराते हैं या फिर यह केवल काल्पनिक मनोदशा है, जो सामाजिक अवसाद से उत्पन्न हुई है? और यह भी कि संख्यात्मक रूप से अल्प होने के बाद भी ब्राह्मण हर क्षेत्र में अपनी निर्णायक हिस्सेदारी क्यों चाहते हैं? अगर समस्याअों की दृष्टि से देखें तो ब्राह्मण समाज की भी वही समस्याएं हैं, जो अन्य समाजों की है। सबसे बड़ा कारण तो आर्थिक और रोजगार का है। पुरोहिताई और धार्मिक कर्मकांड का पारंपरिक व्यवसाय घटते जाने के कारण ब्राह्मणो के सामने रोजगार की समस्या जटिल होती जा रही है। हालांकि ब्राह्मण वो समाज है, जो समय के अनुसार खुद को ‘प्रूव’ करता चलता है और हर नई चुनौती पर विजय पाने की कोशिश करता है। लेकिन समाज और सत्ता के संचालन में उनकी निर्णायक और निर्धारक भूमिका का सिमटते जाना ही शायद उसके लिए सबसे ज्यादा चिंता का कारण है।
यूं पूरे देश में ब्राहमणों की करीब 96 उप जातियां हैं। इनमें से यूपी में करीब एक दर्जन उपजातियां रहती हैं। इनमें भी मुख्‍य रूप से कान्यकुब्ज और उसकी एक उपशाखा सरयूपारीण का ज्यादा वर्चस्व है। ‘उपेक्षित’ होने का सर्वाधिक भाव भी इन्हीं दो उपजातियों में ज्यादा है। इसलिए जब दिनेश शर्मा को राज्य का उपमुख्यमंत्री बनाया गया तो कहा गया ‍कि वो तो ब्रह्मभट्ट ब्राह्मण हैं ( यानी ‍िक अल्पसंख्यक ब्राह्मण हैं)।
ब्राह्मण समाज में घुमड़ते इसी आंतरिक असंतोष में राजनीतिक पार्टियो को सत्ता परिवर्तन की संभावनाएं दिख रही हैं। यही कारण है कि बसपा के ब्राहमण सम्मेलन ( जिन्हें बाद में प्रबुद्ध वर्ग सम्मेलन नाम दिया गया) में जय श्रीराम के नारे गूंजे। पार्टी के वरिष्ठ नेता सतीश‍ मिश्रा ने राज्य में ‘ब्राह्मणों के हो रहे उत्पीड़न’ का बदला लेने की बात बार-बार दोहराते हुए कहा कि राज्य में 23 फीसदी दलित और 12 फीसदी ब्राह्मण वोट मिल जाएं तो सरकार बदल जाए। उसी प्रकार समाजवादी पार्टी को भी ब्राह्मणों के भगवान ‘परशुराम’ ( यूं हिंदुअों के अधिकांश देवता ब्राह्मणो द्वारा ही रचे, भजे गए हैं) की याद आई। ब्राह्मणों को दूसरी पार्टियों के इस राजनीतिक निमंत्रण से भाजपा चिंतित है, लेकिन उसे भरोसा है कि ब्राह्मणो के मूल सोच और मानसिकता का अंतिम पड़ाव भाजपा ही है। दूसरी तरफ ब्राहमणों में यह भावना घर कर रही है कि उन्हें अपनी ताकत तो दिखानी होगी, वरना हर पार्टी उन्हें हल्के में ही लेगी। इसे ‘राजनीतिक बदला’ न भी माने तो ‘राजनीतिक ताकत’ का इजहार तो कह ही सकते हैं, जो वोटों के हथियार से होता है। यूं ब्राह्मणों को किसी रेवड़ के रूप में हांकना असंभव है, क्योंकि वह बुद्धि का दामन छोड़ नहीं सकता। वह देखेगा, सोचेगा, समझेगा। लेकिन लोकतंत्र में संख्याबल का वही महत्व है, जो क्रिकेट में रन बनाने का है। लिहाजा यह दबाव बनाने की कोशिश दिखती है ‍कि पार्टियां ज्यादा से ज्यादा संख्या में ब्राह्मण उम्मीदवारों को टिकट दें और ब्राह्मण मतदाता राजनीतिक पूर्वाग्रहों को अलग रखकर समजातीय होने के आधार पर अपने जातभाई को ही वोट करें तो कुछ बात बन सकती है। हालांकि यह सीमित सोच मूल रूप से ब्राह्मण धर्म, कर्म और मानस के अनुरूप नहीं है। फिर भी ऐसा हुआ तो यह न केवल यूपी में बल्कि उन राज्यों में भी ब्राह्मणों के वर्चस्व कायम रखने की जद्दोजहद को एक नया तेवर दे सकती है।
लेखक वरिष्ठ संपादक हैं, दैनिक सुबह सवेरे मध्यप्रदेश।

Friday, August 06, 2021

सर्वोच्च अदालत का श्रेष्ठ/उच्च मानवीय संवेदनाओं से ओतप्रोत निर्णय, सार्वजनिक-धार्मिक स्थलों से भिखारियों को हटाने हेतु दायर याचिका-नन्द लाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)



प्रोफ़ेसर एन एल वर्मा
     मोहल्लों,सड़कों,धार्मिक स्थलों और चौक-चौराहों पर  भीख मांगने पर दायर एक याचिका की सुनवाई करते हुए देश की सुप्रीम कोर्ट ने कोई स्पष्ट आदेश या निर्देश न देते हुए उसकी जिस श्रेष्ठ मानवीय संवेदनशीलता के साथ व्याख्या की है, वह गरीबी उन्मूलन की दिशा में समाज और सरकार के लिये भविष्य में गरीबों के हित में लिए जाने वाले फैसलों के लिए बेहद गौरतलब साबित होंगे अर्थात यह निर्देशात्मक- निर्णयात्मक व्याख्या देश में कई दशकों से चलाये जा रहे "गरीबी हटाओ अभियान" को एक नई सक्रियता- गतिशीलता और दिशा-दशा प्रदान करने में मील का पत्थर साबित हो सकती है।
       सार्वजनिक और धार्मिक स्थलों पर भीख मांगने वालों के प्रति अदालत ने  मानवीय संवेदना का उच्च और श्रेष्ठ संवेदनशील आचरण का उदाहरण पेश किया है, वह न केवल स्वागतयोग्य है बल्कि,समाज और सरकार के लिए अनुकरण करने के लिए एक आईना भी दिखाता है। याचिका पर अदालत ने स्पष्ट रूप से दो टूक में जबाव देते हुए कहा है कि अदालत भिखारियों के मुद्दे को समाज के संभ्रांत वर्ग के नजरिए से नही देख और समझ सकती है। अदालत ने कहा कि "भीख मांगना एक सामाजिक-आर्थिक समस्या है"। खंड पीठ ने कहा कि वह सड़को- चौराहों से भिखारियों के हटाने या हटने का आदेश नही दे सकती है, क्योंकि शिक्षा ,संसाधन और रोजगार विहीनता के चलते, पेट की भूख शांत करने जैसी अपनी नैसर्गिक और बुनियादी जरूरत को पूरा करने के लिए भीख मांगना,भिखारियों की अपनी विवशता है।
          अदालत ने कहा है कि भिखारियों पर प्रतिबंध लगाना ठीक नहीं होगा और  प्रतिबंध से भीख मांगने की समस्या का हल भी नहीं होता दिखाई देगा। याचिकाकर्ता को शायद यह उम्मीद थी कि सुप्रीम अदालत सड़कों- चौराहों पर लोगों को भीख मांगने से रोकने के लिए कोई सख्त आदेश या निर्देश जारी करेगी। अदालत ने भीख जैसी समस्या की व्याख्या जिस मानवीय संवेदना के साथ की है, वह गरीबी हटाने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम साबित हो सकती है। अदालत ने सरकार पर एक बड़ा सवालिया निशान खड़ा करते हुए पूछा है कि "आखिर लोग भीख क्यों मांगते हैं?" इसकी सामाजिक और आर्थिक विषमताओं और असमानताओं की तह में जाना होगा। आर्थिक और संसाधनों की एक गरीबी के कारण ही  दूसरे प्रकार की गरीबी जैसी स्थिति उपजती है और ऐसे बेबश लोग भिखारी बन जाते हैं। सामाजिक और राजनैतिक राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर यह यह कहने और वैचारिक विमर्श में बहुत अच्छा लगता है कि देश की सड़कों-चौराहों पर कोई भिखारी ना दिखे। ऐसा दिखने से किसी देश की अर्थव्यवस्था और अर्थशास्त्र के दृष्टिकोण से अच्छा नही माना जाता है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर देश की ख़ुशहाली और साख के अवमूल्यन की स्थिति मानी जाती है जिससे देश की सरकार की छवि को धक्का लगता है। लेकिन, सड़कों-चौराहों से भिखारियों को हटा देने से क्या उनकी गरीबी दूर हो जाएगी ? क्या जो लाचार है या किसी के पास आय का कोई निश्चित और नियमित साधन नहीं है, उन्हें मरने के लिए मौत के खुले मुंह/ गड्ढे में छोड़ दिया जाएगा?
         न्यायमूर्ति ने याचिकाकर्ता की ओर से पेश वरिष्ठ वकील से यह भी कहा है कि "कोई भी भीख नहीं मांगना चाहता है।" सम्मान की रोजी-रोटी के साथ देश का हर नागरिक जीवन जीना चाहता है। कोर्ट का आशय साफ है कि सरकार को भीख मांगने की समस्या से अलग ढंग से निपटने के लिए कोई अन्य कारगर ठोस कदम उठाने होगे। इसमें कोई शक नहीं है कि सरकार की अधिकांश सामाजिक-आर्थिक लाभकारी योजनाएं राजनैतिक और नौकरशाही  भ्रष्टाचार और बँटवारे की वजह से अभी भी असंख्य लोगों तक नहीं पहुंच पा रही है। राष्ट्र की मुख्यधारा से वंचित लोग ही भीख मांगने के लिए विवश है। ऐसे लोगों तक जल्दी से जल्दी सरकारी योजनाओं का लाभ पहुंचना चाहिए। जहां तक चौक-चौराहों पर भिखारियों की समस्या है, स्थानीय शासन-प्रशासन इस मामले में उचित कदम उठा सकता है। सड़क पर भीख मांगने वालों को सूचित और निर्देशित किया जा सकता है कि वह किसी सुरक्षित जगह पर ही भीख मांगने जैसा कार्य करें और भिखारियों पर भी पैनी नज़र रखनी होगी अन्यथा भिखारियों की आड़ में सामाजिक और आर्थिक अपराध पनपने की संभावनाएं बढ़ सकती हैं।
          कोर्ट ने कहा है कि भीख मांगना एक सामाजिक समस्या है तो समाज को भी अपने स्तर पर इस समस्या का समाधान करने के विकल्पों पर विचार किया जाना चाहिए। समाज के आर्थिक रूप से संपन्न, सक्षम और संभ्रांत वर्ग को अपने स्तर से इस समस्या का समाधान करने के यथा शक्ति-संभव प्रयास करने चाहिए।समाज के आर्थिक रूप से संपन्न और सक्षम लोगों को स्थानीय स्तर पर सरकार के साथ मिलकर गरीबों की भीख मांगने की विवशता और व्यवस्था का अंत करना चाहिए।बरहाल,सर्वोच्च अदालत ने कोरोना महामारी के मद्देनजर भिखारियों और बेघर लोगों के पुनर्वास और टीकाकरण पर याचिकाकर्ता की आग्रह करने वाली याचिका पर मंगलवार को केंद्र और दिल्ली सरकार को नोटिस जारी कर पूछा है। याचिकाकर्ता की इस संबंध में प्रशंसा की जानी चाहिए कि उसमें कोरोना महामारी के बीच भिखारियों और बेघर लोगों के पुनर्वास, टीकाकरण ,आश्रय और भोजन उपलब्ध कराने का आग्रह भी इसी याचिका में अदालत से किया है। वाकई, भीख मांगने वाले और बेघर लोग कोरोना महामारी में देश के अन्य लोगों की तरह ही भोजन,आवास, स्वास्थ्य और चिकित्सा सुविधाओं के हकदार हैं। केंद्र सरकार को राज्य सरकारों के साथ मिलकर वंचित लोगों के लिए स्वास्थ्य और रोजगार का दायरा बढ़ाना चाहिए ताकि जो बेघर है,निर्धन है,उनके पास पुरजोर तरीके से पहुंच सके।
लखीमपुर-खीरी (यूपी).....9415461224......885865600

हिरोशिमा, शिन और उसकी तिपहिया साइकिल-तत्सुहारू कोडामा

सभ्य मानव की बर्बर कहानी
हिरोशिमा पर परमाणु बम गिरने के ठीक 4 दिन पहले शिन को उसके तीसरे जन्मदिन पर चटक लाल रंग की तिपहिया साइकिल उसके चाचा ने दी थी। उस समय बच्चों के लिए साइकिल बहुत बड़ी चीज़ थी, क्योंकि उस वक़्त जापान में लगभग सभी उद्योग युद्ध-सामग्री बनाने में लगे हुए थे। 
शिन दिन भर साइकिल पर सवार रहता। सोते समय भी वह साइकिल का हत्था पकड़ कर ही सोता। 6 अगस्त की सुबह वह रोते हुए उठा। शायद उसने सपने में देखा कि उसकी साइकिल चोरी हो गयी है। बगल में हंसती साइकिल को देखकर वह अचानक चुप होकर मुस्कुराने लगा और तुरन्त साइकिल पर सवार हो गया। 
सुबह 8 बजकर 15 मिनट पर जब परमाणु बम गिरा तो शिन अपनी तिपहिया साइकिल से एक शरारती तितली का पीछा कर रहा था।
बाद में जब मलबे से शिन का शव निकाला गया तो उस वक़्त भी शिन साइकिल के हत्थे को मजबूती से पकड़े हुए था, मानो साइकिल चोरी का डर अभी भी उसे सता रहा हो।
साइकिल के प्रति शिन के इस लगाव को देखते हुए उसके पिता ने जली हुई साइकिल को भी शिन के साथ दफना दिया।
कुछ वर्षों बाद शिन के पिता को लगा कि शिन की कहानी दुनिया के सामने आनी चाहिए। उसके बाद उसने कब्र से साइकिल निकाल कर म्यूज़ियम (Hiroshima Peace Memorial Museum ) में रखवा दिया। तब दुनिया को शिन के बारे में पता चला। 
इसी म्यूज़ियम में शिन की साइकिल के बगल में एक घड़ी भी रखी है, जो ठीक 8 बजकर 15 मिनट पर बन्द हो गयी थी। 
हमने सुना था कि समय कभी रुकता नहीं। लेकिन 6 अगस्त को 8 बजकर 15 मिनट पर समय वास्तव में रुक गया था।
म्यूज़ियम की यह रुकी घड़ी मानो इस जिद में रुकी हो कि जब तक शिन वापस आकर इस घड़ी में चाभी नहीं भरेगा, वह आगे नहीं बढ़ेगी। ठीक शिन की साइकिल की तरह जो अभी भी म्यूज़ियम में उदास खड़ी शिन का इंतज़ार कर रही है।
हिरोशिमा-नागासाकी में तमाम लोग ही नहीं मारे गए, उनसे जुड़ी असंख्य कहानियां भी मारी गयी। यानी शिन के साथ वह तितली भी 1000 डिग्री सेल्शियस में जल कर 'अमूर्त' हो गयी, जिसका पीछा शिन कर रहा था।
'सभ्य' समाज की 'सभ्यता' का इससे अच्छा उदाहरण और क्या हो सकता है।

(नोट: तत्सुहारू कोडामा (Tatsuharu Kodama) ने अपनी पुस्तक 'SHIN'S TRICYCLE' में विस्तार से इस कहानी को लिखा है।)

#मनीष आज़ाद, Amita Sheereen जी की वाल से साभार

Thursday, August 05, 2021

दुनिया के 5 देशों में पहुंची झुग्गी में किराये के झोपड़े में रहने वाली कलाकार की बांबू (बांस) राखियाँ-मुकेश कुमार

देशी संस्कृति एक विमर्श
मुकेश कुमार
पूर्व उपसम्पादक दैनिक भास्कर
आप माने या न माने झुग्गी में दस बाई तेरह के किराए के झोपड़े में रहनेवाली बांस कारीगर की बांबू राखिया और अन्य कुछ कलाकृतियां दुनिया के ५ देशों में पहुंची है. बीते वर्ष प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा सराहना पा चुकी बांबू राखी इस वर्ष सीधे इंग्लैंड, स्विट्ज़रलैंड, फ्रांस, नेदर्लांड और स्वीडन पहुंची है. हैरत की बात है कि दो वर्ष पूर्व इसी गरीब बांस कारीगर महिला को इजरायल के जेरुसलेम की एक बड़ी आर्ट स्कूल में वर्कशॉप लेने का निमंत्रण भी मिला था, पर आर्थिक कारणवश वह नहीं पहुंच पाई थी. इस वर्ष उनकी राखियों ने सीधे ५ देशों की यात्रा कर ली है. भारत में बांबू राखी को लोकप्रियता दिलाने के साथ ही इस तरह से दुनियाभर में इन राखियों को पहुंचनेवाली यह कारीगर देश की पहली महिला है. मीनाक्षी मुकेश वालके ऐसा इनका नाम है.

मीनाक्षी मुकेश वालके महाराष्ट्र के आदिवासी बहुल और नक्सल प्रभावित चंद्रपुर के बंगाली कॅम्प झोपडपट्टी में रहती है. वे बांबू डिजाइनर और महीला सक्षमीकरण कार्यकर्ता है. बांस क्षेत्र में उनके अद्वितीय सेवा कार्य की सराहना करते हुए इसी वर्ष कनाडा की इंडो कॅनडीयन आर्ट्स अँड कल्चर इनिशिएटिव संस्था ने महिला दिवस पर वुमन हीरो पुरस्कार से सम्मानित भी किया था. 

लॉक डाउन की भीषण मार सहने के  बाद इस वर्ष रक्षा बंधन पर मीनाक्षी और उनकी साथी महिलाओं ने बड़े साहस से काम शुरू किया. द बांबू लेडी ऑफ महाराष्ट्र के नाम से मशहूर सौ मीनाक्षी वालके ने २०१८ में केवल 50 रुपयों में सामाजिक गृहोद्योग अभिसार इनोवेटिव की स्थापना की थी. उसी समय उन्होंने पहली बार बांबू की राखियां भी बनाई थी. अब उनका कारवां सात समुंदर पार पहुंचा है. इससे मीनाक्षी की सहयोगी कारीगर महिलाओं में हर्षोल्लास व्याप्त है.

स्वित्झर्लंड की सुनीता कौर ने मीनाक्षी की बांबू राखियों के साथ ही अन्य कलाकृतियां भी वहां बिक्री हेतु मंगाई है. स्वीडन के सचिन जोंनालवार समेत लंदन की मीनाक्षी खोडके ने भी अपने ग्लोबल बाप्पा शो रूम के लिए राखियों की खरीद की है. 

बांबू की पूर्णतया इको फ्रेंडली ऐसी बांबू राखियों में प्लास्टिक का तनिक भी अंश न होना, यह मीनाक्षी वालके की विशेषता है और राखियों को सजाने वे खादी धागे के साथ तुलसी मणी एवम् रुद्राक्ष का प्रयोग करती है. मीनाक्षी इस संदर्भ में बताती है कि अपनी पावन संस्कृती का शुद्ध एहसास इस भावनिक संस्कार में महसूस होना चाहिए. प्रकृति को वंदन करते हुए आध्यात्मिक अनुभूती मिलनी चाहिए, ऐसा हमारा प्रयास रहता है. स्वदेशी, संस्कृती और पर्यावरण संदेश का प्रेरक संयोग करने की कोशिश इससे हम कर रहे है, ऐसा मीनाक्षी ने बताया. बतौर मीनाक्षी, उनका काम ही मुख्य रूप से प्लास्टिक का प्रयोग न्यूनतम हो इस दिशा में चलता है. वसुंधरा का सौदर्य अबाधित रहे, इस हेतु वे समर्पित है. इस लिए उनका हर काम, कलाकृति शुद्ध स्वरूप में होती है.

ज्ञातव्य हो, लॉक डाउन में मीनाक्षी और सहयोगियों का बड़ा नुकसान हुआ. कुछ कारीगरों पर किराणा किट लेने की नौबत अाई. ऐसे संकट में कोई भी साथ में खड़ा नहीं रहा. डेढ़ वर्ष से काम ठप है. इस बिकट प्रसंग में अब राखी के बंधन ने आर्थिक अड़चनों से मुक्ति दिलाने में बड़ा साथ दिया है, ऐसी भावुक प्रतिक्रिया भी मीनाक्षी ने व्यक्त की. किसी भी प्रकार की परम्परा या विरासत नहीं, समर्थन या मार्गदर्शन नहीं, बेहद गरिबी में मीनाक्षी ने अभिसार इनोव्हेटिव्ज यह सामाजिक उद्यम शुरू किया. झोपडपट्टी की महिला व लड़कियों को मुफ्त प्रशिक्षण देकर रोजगार देते हुए मीनाक्षी का काम बढता जा रहा है. यहां बता दे, बीते वर्ष मीनाक्षी की राखी महाराष्ट्र के तत्कालीन वित्त एवं वन मंत्री सुधीर मुनगंटीवार ने स्वयं प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी को भेजी थी!

इस साल ५० हजार का लक्ष्य
मीनाक्षी ने बताया कि इस वर्ष उन्होंने ५० हजार राखियों का लक्ष्य रखा है. विदेशों से मांग बढ़ने के बाद अब स्थानीय स्तर से भी पूछ परख बरबस ही बढ़ गई है. लॉक डाउन से मीनाक्षी व उनकी सहयोगी महिलाओं पर भुखमरी ही नहीं, कर्ज की नौबत अाई है. ऐसे में अब राखी ने उन्हें नव संजीवनी देकर उम्मीदें काफी बढ़ा दी है. 
मीनाक्षी का अमीर खान कनेक्शन
भाजपा के सुधीर मुनगंटीवार महाराष्ट्र के वनमंत्री थे तब बल्लारपुर में स्टेडियम का उद्घाटन अमीर खान के हाथों हुआ था. इस बीच सैनिकी विद्यालय में अमीर खान के अल्पाहार की व्यवस्था की थी. उस समय मीनाक्षी के बांबू राखी का लोकार्पण भी नियोजित था परंतु समयाभाव में वह टल गया था. देर से ही सही उसके बाद अमीर खान के ही दंगल फिल्म की अभिनेत्री मिनू प्रजापती ने मीनाक्षी के बनाए बांबू गहनों की खरीदी कर प्रशंसा की थी. मीनाक्षी यह याद बड़े ही उत्साह से बताती है.
बांबू फ्रेंडशिप बैंड का आविष्कार
इको फ्रेंडली फ्रेंडशिप बैंड वैसे उपलब्ध या प्रचलित नहीं था. मुख्य रूप से धातू, प्लास्टिक के ही स्वरूप में वह अधिकांश उपलब्ध है. मीनाक्षी ने इसी वर्ष जून माह में बांबू के फ्रेंडशिप बैंड बनाने का आविष्कार किया. इसके माध्यम से भी स्वदेशी, पर्यावरण से मित्रता ऐसा संदेश दिया जा रहा है. उल्लेखनीय है कि आज तक बांबू के फ्रेंडशिप बैंड उपलब्ध व लोकप्रिय नहीं थे.

पूर्व उप संपादक, दैनिक भास्कर
चंद्रपुर (महाराष्ट्र)

परिवार-अल्का गुप्ता

अल्का गुप्ता
मीलों चलते हैं,हर पग में ढलते हैं
कितने ही मूढ़ ,भले ही ज्ञानी हो
गुमनाम थपेड़ों में खुशियों की लहरों में
जन होते हैं जो पहरों में होते हैं परिवार... 
युगों से होती आयीं प्राकृतिक विपदायें सब पर आनी हैं
इस काल मृत्यु लोक में नवाचार नहीं हुआ जन्मदाताओं में
धर्म की सूक्तियो को जीवन में प्रशस्त किया
करते हैं जो अभिनेता संचरित करते हैं प्रेरणा
जीवन की बौछारों में लिख देते हैं अधिकारों में 
कई गुना बढ़कर शीर्ष नेतृत्व जीवन के
मन के संग्रहालयों में . .. 
फूलों की खुश्बुदार ,नव लताओं में सजी
प्रेम की बसन्ती हवाऐं ,हिलोरें लेती हैं
पितृत्व की अनुभूतियों से,पूरित कच्चे धागों से बंधक
मर्यादित,अनुभवों के उपरांत परमानन्द
स्नेह के चुंबकीय भाव ममता के थपकियाँ
सिहरन भी महसूस कर लेती हैं परिवार में.. 
इकाई को दहाई की व्याख्या में पिरोती है
यदि हम बंधे हैं आज के युग मेंप्रेम के कच्चे धागो से
जब कुहासा(अंधेरा) प्रतीत होता हैं जब गली चैबारों 
में चांदनी बिखरी लगती हैं 
आंगन की उपमाओं में नहीं है नौ रत्नों में
पावन, नीर, पयोधि से पूरित प्रेम में... 
निजता को परिभाषित जिस आभा से पूरित
उपमान हैं हम जिनके सौभाग्यशाली हैं मनुज
श्रष्टा को भी प्राप्त नहीं जो अमर तत्व पालनहार.
प्रेम फुलवारी से खिली रिश्तों की बगिया है परिवार



लखीमपुर खीरी, उत्तर प्रदेश

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