साहित्य

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Monday, September 06, 2021

ओबीसी में क्रीमीलेयर क्या है और यह कैसे तय होता है? सुप्रीम कोर्ट के हालिया आदेश के बाद ओबीसी में उपजती एक नई चेतना-नन्द लाल वर्मा

N.L.Verma (Asso.Pro.)

ओबीसी आरक्षण : सुप्रीम कोर्ट ने अभी हाल में हरियाणा सरकार के पांच साल पुराने नोटिफिकेशन को रद्द कर दिया है। यह सवाल फिर से चर्चा के केंद्र में आ गया कि आखिर ओबीसी में क्रीमी लेयर तय करने के आधार/मानदंड क्या-क्या है या क्या-क्या होना चाहिए? आइए जानते हैं..........

      अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) में क्रीमी लेयर की व्यवस्था इंदिरा साहनी बनाम भारत सरकार के केस में सुप्रीम कोर्ट ने 1991 में एक आदेश के माध्यम से दी थी।सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि "क्रीमी लेयर" अर्थात विगत तीन वर्षों की सकल वार्षिक औसत आय सीमा (तत्कालीन एक लाख रुपये) से ऊपर आने वालों को क्रीमी लेयर मानकर उन्हें ओबीसी आरक्षण का लाभ नहीं मिलेगा।
      
सुप्रीम कोर्ट ने अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी ) के नॉन-क्रीमी लेयर में प्राथमिकता तय करने वाले आदेश का नोटिफिकेशन यह कहते हुए रद्द कर दिया कि सिर्फ आर्थिक आधार पर क्रीमी लेयर तय नहीं किया जा सकता है। सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस एल नागेश्वर राव की अगुवाई वाली बेंच ने कहा कि 17 अगस्त 2016 के नोटिफिकेशन के तहत हरियाणा राज्य सरकार ने सिर्फ आर्थिक आधार पर क्रीमी लेयर तय किया था। बेंच ने कहा कि यह नोटिफिकेशन इंदिरा साहनी से संबंधित वाद में सुप्रीम कोर्ट के दिए फैसले के खिलाफ है। उसने कहा कि इंदिरा साहनी केस के निर्णय में आर्थिक, सामाजिक और अन्य आधार पर क्रीमी लेयर तय करने का फॉर्म्युला बताया गया था।


मंडल कमिशन की सिफारिशें और ओबीसी:

 सामाजिक या शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्ग की पहचान करने के लिए वर्ष 1979 में  बिहार के भूतपूर्व मुख्यमंत्री बिंदेश्वरी प्रसाद मंडल (बीपी मंडल) की अध्यक्षता में  एक आयोग पुनः गठित किया गया था। इससे पूर्व इसी उद्देश्य के लिए 1953 में काका कालेलकर आयोग गठित किया गया था जिसकी सिफारिशें 1955 में ही आ गयी थी। तब से ये सिफारिशें सरकार के ठंडे बस्ते में पड़कर धूल फांक रही थी। मंडल आयोग ने पिछड़े वर्ग के लिए सरकारी शैक्षणिक संस्थानों और नौकरियों में 27% आरक्षण देने की सिफारिश के साथ ओबीसी के कल्याण के लिए अन्य कई सिफारिशें की थी। ध्यान रहे कि अनुसूचित जाति (SC) और अनुसूचित जनजाति (ST)  के लिए आरक्षण का प्रावधान देश में पहले से ही लागू था। इसलिए, मंडल कमिशन ने जिन्हें आरक्षण देने की सिफारिश की थी, उन्हें अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) कहा गया।

क्या है ओबीसी में क्रीमी लेयर:

मंडल कमिशन की सिफारिशें  लगभग 12 सालों तक ठंडे बस्ते में दबी रही। जब वीपी सिंह देश के प्रधानमंत्री बने तो वर्ष 1991 में इन्ही सिफारिशों के आधार पर केवल सरकारी नौकरियों में ओबीसी के 27% आरक्षण की घोषणा कर दी थी। तब सुप्रीम कोर्ट की वकील इंदिरा साहनी ने उसे देश की शीर्ष अदालत में चुनौती दी। सुप्रीम कोर्ट ने 16 नवंबर, 1991 को दिए अपने फैसले में ओबीसी को 27% आरक्षण के फैसले का समर्थन किया, लेकिन उसने कहा कि ओबीसी की पहचान के लिए जाति को पिछड़ेपन का आधार बनाया जा सकता है। साथ ही, उसने यह भी स्पष्ट किया था कि ओबीसी में क्रीमी लेयर को आरक्षण नहीं दिया जाएगा।


      
सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद अगले वर्ष 1992 में देश भर में सरकारी नौकरियों में ओबीसी आरक्षण लागू हो गया। हालांकि, कुछ राज्यों ने सुप्रीम कोर्ट की बात यह कहते हुए नहीं मानी की उनके यहां ओबीसी में कोई क्रीमी लेयर है ही नहीं। वर्ष 1999 में क्रीमी लेयर का मुद्दा फिर सुप्रीम कोर्ट के सामने उठा। कोर्ट ने फिर से अपना पुराना आदेश दोहराया। हालांकि, केंद्र की वीपी सिंह सरकार ने 1993 में ही ओबीसी में क्रीमी लेयर तय करने के लिए अधिकतम सालाना औसत आय की रकम भी तय कर दी थी और नॉन-क्रीमी लेयर सर्टिफिकेट की भी व्यवस्था बना दी थी।

क्या है आय का पैमाना:

इसके मुताबिक, वर्ष 1993 में किसी ओबीसी अभ्यर्थी के माता-पिता की विगत तीन वर्षों की  औसत वार्षिक सकल आय 1 लाख रुपये से ज्यादा  वाला अभ्यर्थी  क्रीमी लेयर घोषित किया गया। यानी, जिस ओबीसी अभ्यर्थी के माता -पिता की पिछले तीन सालों की औसत वार्षिक सकल आय एक लाख रुपये की कमाई हो रही थी, उसे आरक्षण का फायदा नहीं दिया जाएगा। इस आय की गणना करने में उसके माता -पिता की वेतन और कृषि से होने वाली आय शामिल नही करने का प्रावधान था। फिर 2004 में यह वार्षिक आय बढ़कर 2.5 लाख रुपये, 2008 में 4.5 लाख रुपये, 2013 में 6 लाख रुपये और फिर 2017 में 8 लाख रुपये हो गयी। नियम के मुताबिक, हर तीन साल में क्रीमी लेयर तय करने के तयशुदा आमदनी की रकम को रिवाइज किया जाता है। यही वजह है कि अब राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग (NCBC) और ओबीसी वेलफेयर की लड़ाई लड़ने वाले सामाजिक न्याय के पक्षधर राजनीतिक दल और एक्टिविस्ट जल्दी से जल्दी यह रकम बढ़ाने की बात कर रहे हैं। उल्लेखनीय है कि ओबीसी वेलफेयर की संसदीय समिति के चेयरमैन एमपी की सतना लोकसभा क्षेत्र से लगातार चार बार के सांसद श्री गणेश सिंह पटेल की अध्यक्षता में इस आय सीमा को 15लाख रुपये बढ़ाने की सिफारिश की गई थी जिस पर केंद्र सरकार द्वारा कोई संज्ञान न लेने पर उन्होंने संसद के सभी ओबीसी सांसदों को एक आमंत्रण पत्र भेजा था कि वे इस विषय को लागू करने के लिए केंद्र सरकार से अनुरोध करें और दबाव बनाएं। लेकिन अत्यंत दुख के साथ लिखना पड़ रहा है कि उस समय एनडीए सरकार में शामिल किसी दल के ओबीसी सांसद अपने ही समाज के कल्याण के लिए बनी समिति की सिफारिशों को लागू करने के लिए केंद्र सरकार या पीएम मोदी से निवेदन करने का साहस तक नही जुटा पाए थे। गैर एनडीए दलों के कुछ सांसदों जिनमें समाजवादी पार्टी के तत्कालीन राज्यसभा सांसद श्री रवि प्रकाश वर्मा भी शामिल थे,ने देश के पीएम को पत्र लिखकर श्री गणेश सिंह पटेल की समिति की सिफारिशों को लागू करने के लिए अनुरोध किया गया था।


       
गिनती के कुछ सांसदों की आवाज़ नक्कारखाने में तूती की आवाज़ की तरह दबकर रह गयी थी और उसके कुछ दिनों के बाद ही श्री गणेश सिंह पटेल का कार्यकाल समाप्त हो जाने के लगभग सात आठ महीने बाद उनके स्थान पर सीतापुर से सांसद श्री राजेश वर्मा को उस समिति का चेयरमैन बनाया गया  जो वर्तमान में उस पद पर आसीन हैं।
     
उधर, केंद्र सरकार का कहना है कि उसे ओबीसी कोटे की जातियों में उपजातियों के निर्धारण के लिए गठित जस्टिस रोहिणी आयोग की रिपोर्ट का इंतजार है। केंद्रीय सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता राज्य मंत्री प्रतिमा भौमिक ने मॉनसून सत्र के दौरान लोकसभा में लिखित जवाब दिया था। उन्होंने कहा, 'ओबीसी में क्रीमी लेयर तय करने का इनकम क्राइटेरिया के रिविजन का प्रस्ताव सरकार के विचाराधीन है।'


     
अभी हाल में ओबीसी के क्रीमीलेयर पर सुप्रीम कोर्ट का बड़ा फैसला आया है कि... सिर्फ आर्थिक आधार पर तय नहीं हो सकता है ओबीसी क्रीमी लेयर। इसलिए इस निर्णय ने  क्रीमी लेयर और नॉन क्रीमी लेयर पर सामाजिक न्याय की राजनीति करने वाले दलों और ओबीसी बौद्धिक वर्ग में एक नई बहस को जन्म दे दिया है। दूसरे ओबीसी की किसी जाति को ओबीसी सूची में शामिल करने और निकालने के राज्यों के अधिकार का बिल संसद से पारित हो जाने के बाद भी ओबीसी आरक्षण पर नए सिरे से वैचारिक- विमर्श शुरू हो चुका है। ओबीसी आरक्षण पर जन्मी यह नई बहस सामाजिक न्याय की पक्षधर पार्टियों के लिए यूपी के विधानसभा चुनाव में कितना कारगर सिद्ध हो सकती है, आने वाले निकट भविष्य में ही देखा जा सकता है।



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Sunday, September 05, 2021

शिक्षा तो दूर सार्वजनिक कुएं से पानी पीने को मोहताज थे-अखिलेश कुमार अरुण

साथियों हम तो उस समाज से आते हैं जहां सार्वजनिक कुएं, तालाब, नदी-नाले से पानी पीना भी गुनाह था; ऐसे में हम शिक्षा कैसे प्राप्त कर सकते थे। मिट्टी का पुतला बनाकर शिक्षा लेने लगा तो अंगूठा कटवा लिया गया, ज्ञान देने लगा तो सर कटवा लिया गया, अध्यात्म के तरफ गए निर्गुण की उपासना करने लगे तो छल से मार दिया गया क्योंकि शिक्षा का अधिकार तो हमें था ही नहीं, तो हम शिक्षा कैसे प्राप्त करते शुक्र है अपने उस रहनुमा का जिसने हमें यह अधिकार दिया #भारतीय संविधान की धारा 29,30 और 21 क, जिसमें #शिक्षा संस्कृति और शिक्षा का मूल अधिकार समाहित किया गया है।

हमारी शिक्षा प्रारंभ होती है #चार्टर #एक्ट 1813 और  1833 से धीरे-धीरे ही सही हमें शिक्षा प्राप्त करने का मौका मिला तो, अंग्रेजों को जाति धर्म से अलग हटकर उन्हें एक नौकर चाहिए था ऐसा नौकर जो उनकी भाषा और शिक्षा को समझ कर कंपनी के कार्यप्रणाली के अनुसार अपने को तैयार कर सके किंतु हम यहां भी चूक गए, #मैकाले का विवरण पत्र #1835 के अनुसार शिक्षा का स्वरूप #निस्यंदन_सिद्धांत (filtration theory) की भेंट चढ़ गई क्योंकि उच्च वर्ग शिक्षित होकर नौकरी पेशा में जाने लगा उसका सामाजिक स्तर पहले से ही ऊंचा था और ऊंचा हो गया। अंग्रेजों के साथ उसका उठना बैठना हो गया, "अरे ओ साहब कहां इन मैले-कुचैले जाहिलों को शिक्षित करने की सोच रहे हैं।" छन-छन कर जो शिक्षा निचले तबके तक आने के लिए थी उसकी जालियां बंद कर दी गई शिक्षा छनने की बात अलग एक बूंद टपकना भी मयस्सर न रहा।

शिक्षा का स्वरूप वर्तमान समय में अत्यधिक विकृत हो गया है क्योंकि शिक्षा की धारा दो रूपों में प्रवाहित हो रही है-एक तरफ सुख सुविधाओं से संपन्न महंगी शिक्षा व्यवस्था और दूसरी तरफ गरीबों की शिक्षा जिसमें शिक्षा के न नए आयाम हैं और न ही सुविधाएं परिणामत: एक बहुत बड़ा तबका चाहे वह जिस जाति धर्म-मजहब का हो शिक्षा से वंचित है क्योंकि महंगी शिक्षा उसके बस की बात नहीं है। अभी हाल ही में #कानपुरयूनिवर्सिटी (गरीबों की यूनीवर्सिटी कह लीजिए) के अंतर्गत संचालित #सीतापुर, #लखीमपुर, #उन्नाव आदि जिलों के #महाविद्यालय संचालित हो रहे थे, यकायक इन्हें #लखनऊविश्वविद्यालय से संबद्ध कर दिया गया, जिसकी फीस 2 गुना ही नहीं 3 गुना है ऐसे में इन पिछड़े जिलों के अभिभावक अपने पाल्य को शिक्षा दिलाने के लिए महाविद्यालय की मोटी फीस अदा करने में अक्षम है। ऐसे में जनसामान्य की शिक्षा को कैसे साकार किया जा सकता है। हम फिर जहां से उठे थे धीरे धीरे वहीं और उससे भी बुरी स्थिति को प्राप्त हो रहे हैं।

वस्तुत: हम आखरी पीढ़ी होंगे अपने समाज में उच्च शिक्षा धारित करने वाले लोगों में से इसके बाद आने वाली पीढ़ी उच्च शिक्षा के लिए तरसेगी केवल एक स्वप्न बनकर रह जाएगा उनके शिक्षा की चाहत और उनके सामाजिक जीवन का उभरता स्तर, शिक्षा में मार्क्सवाद अपने चरम पर है पूंजीपति और सर्वहारा वर्ग की शिक्षा कहिए.... हमारे हाथ से शिक्षा की आधुनिकता के नाम पर हमारी पाटी, खड़िया, सरकंडे की कलम भी छीन लिया गया और अत्याधुनिक शिक्षा का साधन भी उपलब्ध नहीं कराया गया। प्राईमरी और जूनियर की स्कूलिंग में शिक्षा से ज्यादा सरकार को मिड-डे-मील का फीडबैक चाहिए। मास्टर जी पढ़ाने से ज्यादा सरकार को  मोबाइल पर एप्प से लेकर आफिस के रजिस्टर तक मिड-डे-मील को लेकर व्यस्त हैं....टूंटपूजिहे प्राइवेट स्कूल कोरोना की मार से चौपट हो गए और बड़े स्कूल आनलाइन क्लाश के नाम पर अभिभावकों की जेब काट लिए हमारे माता-पिता के पास इतनी मोटी रकम नहीं थी उनकी रोड किनारे की दुकान, मजदूरी और कम्पनी की प्राइवेट नौकरी चली गई, नून-रोटी खाकर किसी प्रकार से जीवनयापन हो रहा है।

वंचितों की शिक्षा का असली इतिहास ज्योतिबा फुले और सावित्रीबाई फुले से स्टार्ट होता है जो बाबा साहब डॉक्टर बी आर अंबेडकर के गुरु भी कहलाते हैं अंग्रेजों की शिक्षा प्रणाली का ही परिणाम था की 1891 में जन्मा बालक शिक्षा के क्षेत्र में अर्जित कर आज विश्व का सर्वोच्च शिक्षा प्राप्त करने वाला स्कॉलर बना हुआ है जिसे हम नॉलेज आफ सिंबल इन द वर्ल्ड के नाम से जानते हैं। हम अपने संपूर्ण समाज की तरफ से ऐसे महापुरुष को बार-बार नमन करते हैं हमारे असली शिक्षक बाबा साहब ज्योतिबा राव फूले और सावित्रीबाई फूले ही हैं।

आज के समय में भी द्रोणाचार्य जैसे शिक्षकों की कमी नहीं है इन शिक्षकों की साया से भी बचने का प्रयास करुंगा।

अधिकतर शिक्षक ऐसे हैं जो अपने शिक्षक धर्म का निर्वाह करते आए हैं चाहे वह जो भी समय काल रहा हो हम अपने जीवन के मोड़ पर मिले उन शिक्षकों को पुनः पुनः नमन करता हूं और अपने ज्ञान वृद्धि के लिए उन शिक्षकों के आशीर्वाद की कामना करता हूं जिनका आशीर्वाद हमें आजीवन मिलता रहे। 

शिक्षक दिवस की शुभकामनाएं।

अखिलेश कुमार अरुण
8127698147

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Saturday, August 21, 2021

दुल्हन नहीं सिर्फ दाई- गोपेंद्र कु सिन्हा गौतम

लघुकथा

 गोपेंद्र कु सिन्हा गौतम
चार भाई और तीन बहनों में चौथे स्थान पर रजिया जन्म से बहुत चुलबुली थी।पूरे मोहल्ले वासियों की लाड़ली थी।सभी लोग रजिया के मुस्कान और तोतली बोली पर फिदा हो जाते थे चाहे कितने भी परेशानी में क्यों न हों!लोग उसे प्यार से रज्जो कहते।
रजिया तितली की भांति फुदकती रहती। शायद ही ऐसा कोई दिन हो जब वह दोनों वक्त का खाना अपने घर में खाई हो।उसके हिरण जैसी सजल आंखें और मोतियों सरीखे बत्तीसी उसकी मुस्कुराहट में चार चांद लगा देते थे।जब हंसती तो सारा मोहल्ला खिलखिला उठता।गांव के लोगों में एक कहावत प्रचलित हो गया था..कोई बीमार क्या, मर भी गया हो तो अगर रजिया खिलखिला कर हंस दे तो वह चीता पर से उठ जाएगा।
विद्यालय में भी रजिया अपने सहपाठियों के साथ-साथ शिक्षक शिक्षिकाओं के बहुत प्रिय थी।जब कभी शिक्षक शिक्षिका या कोई सहपाठी धीरे से भी आवाज लगाता रजिया ओ रजिया,वह बिजली की भांति पहुंच जाती।ऐसा लगता मानो वह पहले से ही आवाज के इंतजार कर रही थी। पर यह क्या आठवीं कक्षा में पहुंचते ही उसकी शादी तय कर दी गई।वह भी एक ऐसे लड़के से जो दोवाह (विदुर) था।इसके बारे में रजिया को किसी ने कुछ बताना लाजमी नहीं समझा।शादी तय हो जाने के बावजूद रजिया पूरे मोहल्ले में स्वच्छंद विचरण करते रहती।उस पर गांव घर की भौजाइयां कहतीं रज्जो अब तुम्हारी शादी होने वाली है वहां जाकर भी इसी तरह से कूदते फांदते रहोगी क्या? रज्जो बिंदास जवाब देती तुम्हारे नंदोई को भी उड़ाना सिखा दूंगी भाभी! शादी के बाद जब रजिया अपने ससुराल पहुंची तो डोली में ही उसकी सास ने गोद में एक पांच वर्षीय बच्ची को डालते हुए बोली लो दुल्हनिया आज से संभालो अपनी बेटी को इसी के लिए हमने  बेटे की दुबारा शादी करवाई है।रजिया समझते देर न लगी कि उसका पति पहले से शादीशुदा है। उसे शक भी हो रहा था क्योंकि उसका पति उम्र में उससे लगभग दोगुने से भी अधिक लगता था। रात को रज्जो ने अपने पति से कहा इस बच्ची को अपने दादी के पास क्यों नहीं भेज देते हो ? इस पर उसके पति ने आंख तरेरते हुए बोला कहां जाएगी तुम्हें किस लिए ब्याह कर लाया हूं ! चेहरा देखने के लिए ? पति के अकड़ भरे जवाब सुन रजिया के आंखों से मोती जैसे आंसू झर झर कर गिरने लगे।वह समझ गई थी प्रकृति ने उसके साथ धोखा किया।उसे दोवाह पति और पहले से ही एक बेटी रहने का कोई गम नहीं था।पर अपने पति के अकड्डू मिजाज ने उसे अंदर तक झकझोर कर रख दिया। स्वच्छंद विचरण करने वाली तितली अब अपना पंख सिकोड लेना है ठीक समझी। शुरू शुरू वह अपने ससुराल में लगभग एक वर्ष तक रही।लेकिन एक दिन भी उसके चेहरे पर मुस्कुराहट तक नहीं दिखी गई। वह अपने पति की बेटी को पालने में अपना सब कुछ लगा दी।दिन रात उसी के सेवा में लगी रहती।बदले में सौतेली मां होने का घर से बाहर वालों तक दंश झेलना पड़ता, उसके ऊपर पति का सनकी मिजाज।उसके आंखों से आंसू पूरे एक साल में शायद ही कोई दिन हो जब न निकली हो!
एक वर्ष के बाद जब अपने मायके लौटी तो पूरे मोहल्ले के लोग उसे देखने के लिए इकट्ठा हो गए। लेकिन रजिया चुपचाप दबे पांव अपने घर चली गई।भला उन लोगों को क्या पता रजिया के दिल पर क्या बीत रहा है।एक महिला ने उसे छेड़ने के इरादे से बोली रज्जो शादी के लड्डू हम लोगों को नहीं खिलाओगी क्या ? कहीं जीजा जी ने मना तो नहीं किया है ? चलो ठीक है हमें लड्डू नहीं चाहिए पर अपनी हंसी और खिलखिलाहट से तो हम लोग को वंचित मत करो,आखिर कौन सा गुनाह हम लोगों ने किया है तुम्हारी शादी कर के ? दहेज में सब कुछ दिया पर हम लोगों ने तुम्हारी हंसी और खिलखिलाहट तो उन्हें नहीं दी थी,जो तुम वहीं छोड़ के आ गई। इतना सुनते ही रजिया बिफर कर अपनी मां के आंचल में मुंह छुपा सुबकते हुए बोली आप लोगों की रज्जो शायद पिछले जन्म में कोई बहुत बड़ा गुनाह की थी इसलिए माता-पिता और भाइयों ने सनकी दोवाह लड़के से हमारी शादी कर दी।जहां मैं बिना बच्चे को जन्म दिये मां तो बन गई,पर एक दिन के लिए भी दुल्हन नहीं बन पाई,सिर्फ बच्चे के पालने वाली दाई रह गई दाई। इतना कह कर रजिया भोंकार पारकर रोने लगी। वहां उपस्थित सारे लोगों की आंखों से आंसू इस तरह उमड़ने लगे मानो एक साथ गंगा-यमुना में बाढ़ आ गई हो और वह एक बार में ही सब कुछ बहा कर ले जाने को बेताब है।

सामाजिक और राजनीतिक चिंतक
ग्राम देवदत्तपुर,पोस्ट एकौनी, थाना दाऊदनगर, जिला
औरंगाबाद, बिहार
पिनकोड 824113
मोबाइल न 9507341433

बुढ़ापे का निवाला पेंशन- गोपेंद्र कु सिन्हा गौतम

लघुकथा

गोपेंद्र कु सिन्हा गौतम
स्वाति, सुरेखा और सुमन तीन बहनें थीं।वे पढ़ने लिखने में काफी होशियार थीं,साथ ही घर के कामों में भी हाथ बंटाने से तनिक भी नहीं हिचकती थीं।न तो तीनों बहनों को कभी भाई की कमी खलती न उनके माता-पिता को बेटे की।जिंदगी तेजी से हंसी-खुशी से गुजर रही थी।
लेकिन होनी को कौन टाल सकता है।पिछले मई माह में उनके माता-पिता एक सप्ताह के भीतर ही काल के गाल में समा गए। दोनों के दोनों दुनिया को तबाह करने वाली बीमारी कोरोना और देश में व्याप्त स्वास्थ्य सुविधाओं के अभाव के भेंट चढ़ गए। जिसके कारण तीनों बहनों पर दुःख का पहाड़ टूट पड़ा। रातों-रात इनकी देखभाल और पढ़ाई लिखाई की दोहरी जिम्मेदारी अब अवकाश प्राप्त शिक्षक दादाजी पर आन पड़ी। लेकिन दादाजी को मिलने वाले पेंशन से घर खर्च के साथ साथ पढ़ाई-लिखाई का खर्च चलाना काफी मुश्किल होने लगा।यह देख एक दिन तीनों बहनें दादाजी के पास गईं और बोलीं दादाजी ! हमलोगों ने फैसला किया है कि कल से पढ़ाई लिखाई के बाद आसपास के घरों में ट्यूशन पढ़ाने का काम भी करूंगी।इस पर दादाजी नाराज हो गए और बोले तुम लोगों को हमारी बुड्ढी हड्डियों पर भरोसा नहीं है जो ऐसा फैसला हमसे बिना पूछे कर ली। अगर तुम्हें कोई परेशानी है तो कहो।जब-तक मैं जिंदा हूं तुम्हें सोचने की जरूरत नहीं है।अभी तुम्हारे मासूम हाथ कमाने योग्य नहीं हैं मेरी बच्चियों!क्या कहेगा दुनिया जमाना ! अवकाश प्राप्त शिक्षक मनोहर बाबू की पोतियां घर खर्च चलाने के लिए ट्यूशन पढ़ा रहीं हैं।तुम लोग सिर्फ अपने पढ़ाई-लिखाई पर ध्यान केंद्रित करो।अभी हमारी बुड्ढी हड्डियों में इतनी ताकत है कि कमाकर तुम लोगों को अच्छी तालीम दे सकूं।तुम लोग नहीं मैं बच्चों को पढ़ाऊंगा। फिर कभी ऐसी बात किये तो मैं तुमलोगों को माफ़ नहीं करूंगा।
क्या तुम लोग भी अटल बिहारी की सरकार की तरह हो जो बीच राह में करोड़ों कर्मचारियों को धोखा दे दी थी! और पुरानी पेंशन की नई पेंशन का झुनझुना थमा दिया।जिसके कारण आज हम जैसे करोड़ों कर्मचारी जिंदगी भर कमाने के बावजूद बुढ़ापे में बेसहारा बन जा रहे हैं। एक तरफ तो उन्होंने हमारी बुढ़ापे की लाठी तोड़ ही दी,क्या तुम लोग भी बीच में पढ़ाई-लिखाई से ध्यान हटाकर हमारे बुढ़ापे की अंतिम सहारे को भी समाप्त करना चाहती हो। पोतियों ने दादाजी के कंधे पर सर रखकर एक साथ बोलीं नहीं दादा जी हम अटल जी के जैसे नहीं हो सकते जो आपके बुढ़ापे का निवाला छीन लेंगे!
सामाजिक और राजनीतिक चिंतक
ग्राम देवदत्तपुर,पोस्ट एकौनी, थाना दाऊदनगर, जिला
औरंगाबाद, बिहार
पिनकोड 824113
मोबाइल न 9507341433


Sunday, August 08, 2021

ब्राह्मणों को एक ‘वोट बैंक’ में तब्दील करने के मायने-अजय बोकिल

अजय बोकिल
किसी भी समाज का पारंपरिक रूप से प्रभावशाली तबका एक वोट बैंक में कैसे तब्दील होने लगता है, यह उत्तर प्रदेश में ब्राह्मण वोटों को लेकर हो रही राजनीतिक खींचतान से बखूबी समझा जा सकता है। आगामी विधानसभा चुनावों के मद्देनजर राज्य के करीब 12 फीसदी ब्राह्मण वोटों को अपने पाले में खींचने के लिए लगभग सभी दल ताकत लगाए हुए हैं। प्रदेश में सत्तारूढ़ भाजपा इस वोट को अपनी बपौती मान कर चल रही है तो पहले बरसों सत्ता में रही कांग्रेस को अभी भी उम्मीद है कि ब्राह्मण कांग्रेस के राज में अपने स्वर्णिम अतीत को नहीं भूलेंगे। ब्राह्मण वोट में नए सिरे से सेंधमारी की शुरूआत सबसे पहले मायावती की बहुजन समाज पार्टी ने राज्य में ब्राह्मण सम्मेलनों के आयोजन के ऐलान से की तो इससे चौंकन्नी समाजवादी पार्टी ने भी ऐसे ही सम्मेलनों के आयोजनो की घोषणा कर दी है। दोनो पार्टियां इस असंतोष को हवा देने की पूरी कोशिश में है कि भाजपा राज में ब्राह्मणों का उत्पीड़न हो रहा है। न केवल राजनीतिक बल्कि सामाजिक और प्रशासनिक रूप से भी। लिहाजा ब्राह्मणों को ‘न्याय’ चाहिए तो वो हमारी पार्टी के झंडे तले आएं। वैसे यह भी दिलचस्प है कि ‍हिंदू समाज के पिरामिड पर शीर्ष पर बैठी और काफी हद तक समूचे हिंदू समाज का वोट-व्यवहार तय करने वाली ब्राह्मण जाति को ही उसके हितरक्षण की सियासी गाजर दिखाई जा रही है। यह स्थिति उन ब्राह्मणों के लिए भी शायद नई है, जो अब तक स्वयं को समाज और राजनीति का नियंता मानते आए हैं और आत्मश्रेष्ठत्व का यह भाव उनमें डीएनए की तरह रचा हुआ है।
उत्तर प्रदेश जैसे देश के आबादी के ‍िलहाज से सबसे बड़े राज्य में तीन दशक पहले तक ब्राह्मणों में अपने ‘वर्चस्व’ को लेकर खास चिंता नहीं थी। क्योंकि संख्या में तुलनात्मक रूप में कम होने के बाद भी उनकी प्रभावी मौजूदगी हर उस क्षेत्र में थी, जिसे निर्णायक कहा जाता है। आजादी के बाद से लेकर 1989 तक राज्य में अधिकांश मुख्यमंत्री ब्राह्मण ही रहे। प्रशासनिक पदों और कांग्रेस पार्टी में भी उनकी भूमिका अहम रही। आम ब्राह्मण में यही संदेश था कि धर्म सत्ता के साथ राजनीतिक सत्ता में भी उसकी शीर्ष भूमिका है। लेकिन उसके बाद मंडल-कमंडल की राजनीति, दलित और पिछड़े वर्ग की राजनीतिक चेतना के जबर्दस्त उभार तथा राजजन्म भूमि आंदोलन के बहाने समूचे हिंदू समाज को एक करने की आरएसएस की काफी हद तक सफल कोशिशों ने यूपी में ब्राह्मणों की भूमिका को धीरे-धीरे मर्या‍दित कर दिया। इस सामा‍जिक बदलाव को जातिवादी राजनीति ने इसे ‘सामाजिक न्याय’ और ‘समता’ तथा हिंदूवादी राजनीति ने ‘समरसता’ का नाम दिया। सामाजिक समरसता का यह विचार भी ब्राहमणो के ही ‍िदमाग की उपज था, लेकिन आज ब्राह्मण इसी ‘समरसता’ में अपना ‘रस’ खोजने पर विवश हैं। परिणामस्वरूप उत्तर प्रदेश में तीन दशकों से ब्राह्मण अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए बार बार राजनीतिक प्रयोग कर रहे हैं, लेकिन उनकी बेचैनी का कोई स्थायी समाधान नहीं निकल सका है। यहां तर्क दिया जा सकता है कि चूंकि भारत में ‘सामाजिक न्याय’ का क्रियान्वयन लोकतंत्र के खांचे में हो रहा है और हमारा लोकतंत्र मूलत: संख्यात्मक बहुमत से संचालित होता है, ऐसे में ब्राह्मण भले ही सदियों से हिंदू धर्म सत्ता के नियंता और राजनीतिक सत्ता के अनुमोदक रहे हों, संख्यात्मक रूप से अल्पसंख्यक ही हैं। लिहाजा आज उनका सत्ता में शेयर भी उसी अनुपात में होगा। दूसरे, वर्तमान हिंदू पुनर्जागरण की नींव भले ब्राह्मणों ने रखी हो, लेकिन उस पर ध्वजा अब उस पिछड़े वर्ग की लहरा रही है, जिसे ब्राह्मणों ने अपनी ताकत बढ़ाने और सामाजिक वर्चस्व को कायम रखने के लिए साथ लिया था। हिंदू समाज की ‘सामाजिक समरसता’ की ताकत को भाजपा और आरएसएस के बखूबी पहचाना है। चूंकि संख्यात्मक रूप से अोबीसी कुल हिंदू समाज का लगभग आधा है, ऐसे में इस वर्ग में गहरी पैठ भाजपा के लिए राजनीतिक दीर्घायुषी होने की जमानत है। ऐसे में ब्राह्मण और दलित साथ आएं तो ठीक न आए तो भी ठीक। यही सोच ब्राह्मणों के लिए विचलित करने वाली है। जबकि अधिकांश ब्राह्मण ऐसी सामाजिक- राजनीतिक व्यवस्था चाहते हैं,जो ‘सामाजिक समता’ के साथ साथ उनकी पारंपरिक श्रेष्ठता को कायम रखे। ऐसे ब्राह्मणों को किसी न किसी पार्टी के साथ ऐसे अलिखित अनुबंध की आवश्यकता है, जो उनके धार्मिक-सामाजिक और राजनीतिक महत्व को मूर्त रूप में स्वीकार करे।
मोटे तौर पर बहुतांश ब्राह्मणों के राजनीतिक सोच के हिसाब से आज भाजपा ही उनके सबसे नजदीक है ( किसी जमाने में यह हैसियत कांग्रेस की थी)। लेकिन हिंदुत्व के लोकव्यापीकरण के चक्कर में भाजपा का ध्यान अब उन जातियों और समुदायो पर ज्यादा है, जो घोर जातिवाद, ब्राह्मणवाद अथवा अन्यान्य कारणो से भाजपा से छिटकती रही हैं। राजनीतिक सत्ता की स्थिरता और सातत्य के लिए यह जरूरी भी है।
दरअसल यूपी में ब्राह्मणों की इस कथित ‘सुविचारित’ अथवा ‘परिस्थितिजन्य उपेक्षा’ ही ब्राह्मणों की बेचैनी का असल कारण है। इसी को दूसरी पार्टियां आगामी चुनाव में राजनीतिक रूप से भुनाना चाहती हैं। यही कारण है ‍िक 2007 में जाटव-ब्राह्मण जातीय समीकरण बनाकर सत्ता में आने वाली मायावती और उनकी बहुजन समाज पार्टी ने लाख गालियां देकर भी ब्राह्मणों को पुचकारना चाहा। नए नारे गढ़े गए, मसलन ‘ब्राह्मण शंख बजाएगा, हाथी बढ़ता जाएगा।‘ लेकिन बसपा के शासन काल में हकीकत में ब्राह्मणों के हाथ में केवल शंख ही रह गया, जिसे उन्होंने अगले चुनाव में ब्राह्मणों ने समाजवादी पार्टी के राज्याभिषेक के रूप में बजाया। बावजूद इसके, उनके सुनहरे दिन फिर भी नहीं लौटे। 2017 में यूपी विधानसभा चुनाव में भाजपा की बम्पर जीत में ब्राह्णों की बड़ी हिस्सेदारी रही। सीएसडीएस सर्वे के मुताबिक तब राज्य के 80 फीसदी ब्राह्मणो ने बीजेपी को वोट किया था। लेकिन हकीकत में ‘वर्चस्व’ जैसी कोई बात नहीं हुई। उल्टे संदेश यह गया कि योगी सरकार विकास दुबे ( जो कि घोषित गैंगस्टर था) का भी एनकाउंटर करा रही है। अर्थात ब्राह्मणों को इस तरह भी निपटाया जा रहा है। यूं योगी राज में भाजपा के विधायक हैं। 6 मंत्री भी हैं। लेकिन इन में कोई भी ऐसा प्रखर चेहरा नहीं है, जिसे सही अर्थों में ब्राह्मणों का रहनुमा कहा जा सके।
अब सवाल यह कि ‘ब्राह्मणों के वर्चस्व’ ( डाॅमिनेंस) घटने का निश्चित अर्थ क्या है? इसे कैसे पारिभाषित किया जाए? वो कौन से कारण हैं, जो ब्राह्मणों को अपने उपेक्षित होने का अहसास कराते हैं या फिर यह केवल काल्पनिक मनोदशा है, जो सामाजिक अवसाद से उत्पन्न हुई है? और यह भी कि संख्यात्मक रूप से अल्प होने के बाद भी ब्राह्मण हर क्षेत्र में अपनी निर्णायक हिस्सेदारी क्यों चाहते हैं? अगर समस्याअों की दृष्टि से देखें तो ब्राह्मण समाज की भी वही समस्याएं हैं, जो अन्य समाजों की है। सबसे बड़ा कारण तो आर्थिक और रोजगार का है। पुरोहिताई और धार्मिक कर्मकांड का पारंपरिक व्यवसाय घटते जाने के कारण ब्राह्मणो के सामने रोजगार की समस्या जटिल होती जा रही है। हालांकि ब्राह्मण वो समाज है, जो समय के अनुसार खुद को ‘प्रूव’ करता चलता है और हर नई चुनौती पर विजय पाने की कोशिश करता है। लेकिन समाज और सत्ता के संचालन में उनकी निर्णायक और निर्धारक भूमिका का सिमटते जाना ही शायद उसके लिए सबसे ज्यादा चिंता का कारण है।
यूं पूरे देश में ब्राहमणों की करीब 96 उप जातियां हैं। इनमें से यूपी में करीब एक दर्जन उपजातियां रहती हैं। इनमें भी मुख्‍य रूप से कान्यकुब्ज और उसकी एक उपशाखा सरयूपारीण का ज्यादा वर्चस्व है। ‘उपेक्षित’ होने का सर्वाधिक भाव भी इन्हीं दो उपजातियों में ज्यादा है। इसलिए जब दिनेश शर्मा को राज्य का उपमुख्यमंत्री बनाया गया तो कहा गया ‍कि वो तो ब्रह्मभट्ट ब्राह्मण हैं ( यानी ‍िक अल्पसंख्यक ब्राह्मण हैं)।
ब्राह्मण समाज में घुमड़ते इसी आंतरिक असंतोष में राजनीतिक पार्टियो को सत्ता परिवर्तन की संभावनाएं दिख रही हैं। यही कारण है कि बसपा के ब्राहमण सम्मेलन ( जिन्हें बाद में प्रबुद्ध वर्ग सम्मेलन नाम दिया गया) में जय श्रीराम के नारे गूंजे। पार्टी के वरिष्ठ नेता सतीश‍ मिश्रा ने राज्य में ‘ब्राह्मणों के हो रहे उत्पीड़न’ का बदला लेने की बात बार-बार दोहराते हुए कहा कि राज्य में 23 फीसदी दलित और 12 फीसदी ब्राह्मण वोट मिल जाएं तो सरकार बदल जाए। उसी प्रकार समाजवादी पार्टी को भी ब्राह्मणों के भगवान ‘परशुराम’ ( यूं हिंदुअों के अधिकांश देवता ब्राह्मणो द्वारा ही रचे, भजे गए हैं) की याद आई। ब्राह्मणों को दूसरी पार्टियों के इस राजनीतिक निमंत्रण से भाजपा चिंतित है, लेकिन उसे भरोसा है कि ब्राह्मणो के मूल सोच और मानसिकता का अंतिम पड़ाव भाजपा ही है। दूसरी तरफ ब्राहमणों में यह भावना घर कर रही है कि उन्हें अपनी ताकत तो दिखानी होगी, वरना हर पार्टी उन्हें हल्के में ही लेगी। इसे ‘राजनीतिक बदला’ न भी माने तो ‘राजनीतिक ताकत’ का इजहार तो कह ही सकते हैं, जो वोटों के हथियार से होता है। यूं ब्राह्मणों को किसी रेवड़ के रूप में हांकना असंभव है, क्योंकि वह बुद्धि का दामन छोड़ नहीं सकता। वह देखेगा, सोचेगा, समझेगा। लेकिन लोकतंत्र में संख्याबल का वही महत्व है, जो क्रिकेट में रन बनाने का है। लिहाजा यह दबाव बनाने की कोशिश दिखती है ‍कि पार्टियां ज्यादा से ज्यादा संख्या में ब्राह्मण उम्मीदवारों को टिकट दें और ब्राह्मण मतदाता राजनीतिक पूर्वाग्रहों को अलग रखकर समजातीय होने के आधार पर अपने जातभाई को ही वोट करें तो कुछ बात बन सकती है। हालांकि यह सीमित सोच मूल रूप से ब्राह्मण धर्म, कर्म और मानस के अनुरूप नहीं है। फिर भी ऐसा हुआ तो यह न केवल यूपी में बल्कि उन राज्यों में भी ब्राह्मणों के वर्चस्व कायम रखने की जद्दोजहद को एक नया तेवर दे सकती है।
लेखक वरिष्ठ संपादक हैं, दैनिक सुबह सवेरे मध्यप्रदेश।

Friday, August 06, 2021

सर्वोच्च अदालत का श्रेष्ठ/उच्च मानवीय संवेदनाओं से ओतप्रोत निर्णय, सार्वजनिक-धार्मिक स्थलों से भिखारियों को हटाने हेतु दायर याचिका-नन्द लाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)



प्रोफ़ेसर एन एल वर्मा
     मोहल्लों,सड़कों,धार्मिक स्थलों और चौक-चौराहों पर  भीख मांगने पर दायर एक याचिका की सुनवाई करते हुए देश की सुप्रीम कोर्ट ने कोई स्पष्ट आदेश या निर्देश न देते हुए उसकी जिस श्रेष्ठ मानवीय संवेदनशीलता के साथ व्याख्या की है, वह गरीबी उन्मूलन की दिशा में समाज और सरकार के लिये भविष्य में गरीबों के हित में लिए जाने वाले फैसलों के लिए बेहद गौरतलब साबित होंगे अर्थात यह निर्देशात्मक- निर्णयात्मक व्याख्या देश में कई दशकों से चलाये जा रहे "गरीबी हटाओ अभियान" को एक नई सक्रियता- गतिशीलता और दिशा-दशा प्रदान करने में मील का पत्थर साबित हो सकती है।
       सार्वजनिक और धार्मिक स्थलों पर भीख मांगने वालों के प्रति अदालत ने  मानवीय संवेदना का उच्च और श्रेष्ठ संवेदनशील आचरण का उदाहरण पेश किया है, वह न केवल स्वागतयोग्य है बल्कि,समाज और सरकार के लिए अनुकरण करने के लिए एक आईना भी दिखाता है। याचिका पर अदालत ने स्पष्ट रूप से दो टूक में जबाव देते हुए कहा है कि अदालत भिखारियों के मुद्दे को समाज के संभ्रांत वर्ग के नजरिए से नही देख और समझ सकती है। अदालत ने कहा कि "भीख मांगना एक सामाजिक-आर्थिक समस्या है"। खंड पीठ ने कहा कि वह सड़को- चौराहों से भिखारियों के हटाने या हटने का आदेश नही दे सकती है, क्योंकि शिक्षा ,संसाधन और रोजगार विहीनता के चलते, पेट की भूख शांत करने जैसी अपनी नैसर्गिक और बुनियादी जरूरत को पूरा करने के लिए भीख मांगना,भिखारियों की अपनी विवशता है।
          अदालत ने कहा है कि भिखारियों पर प्रतिबंध लगाना ठीक नहीं होगा और  प्रतिबंध से भीख मांगने की समस्या का हल भी नहीं होता दिखाई देगा। याचिकाकर्ता को शायद यह उम्मीद थी कि सुप्रीम अदालत सड़कों- चौराहों पर लोगों को भीख मांगने से रोकने के लिए कोई सख्त आदेश या निर्देश जारी करेगी। अदालत ने भीख जैसी समस्या की व्याख्या जिस मानवीय संवेदना के साथ की है, वह गरीबी हटाने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम साबित हो सकती है। अदालत ने सरकार पर एक बड़ा सवालिया निशान खड़ा करते हुए पूछा है कि "आखिर लोग भीख क्यों मांगते हैं?" इसकी सामाजिक और आर्थिक विषमताओं और असमानताओं की तह में जाना होगा। आर्थिक और संसाधनों की एक गरीबी के कारण ही  दूसरे प्रकार की गरीबी जैसी स्थिति उपजती है और ऐसे बेबश लोग भिखारी बन जाते हैं। सामाजिक और राजनैतिक राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर यह यह कहने और वैचारिक विमर्श में बहुत अच्छा लगता है कि देश की सड़कों-चौराहों पर कोई भिखारी ना दिखे। ऐसा दिखने से किसी देश की अर्थव्यवस्था और अर्थशास्त्र के दृष्टिकोण से अच्छा नही माना जाता है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर देश की ख़ुशहाली और साख के अवमूल्यन की स्थिति मानी जाती है जिससे देश की सरकार की छवि को धक्का लगता है। लेकिन, सड़कों-चौराहों से भिखारियों को हटा देने से क्या उनकी गरीबी दूर हो जाएगी ? क्या जो लाचार है या किसी के पास आय का कोई निश्चित और नियमित साधन नहीं है, उन्हें मरने के लिए मौत के खुले मुंह/ गड्ढे में छोड़ दिया जाएगा?
         न्यायमूर्ति ने याचिकाकर्ता की ओर से पेश वरिष्ठ वकील से यह भी कहा है कि "कोई भी भीख नहीं मांगना चाहता है।" सम्मान की रोजी-रोटी के साथ देश का हर नागरिक जीवन जीना चाहता है। कोर्ट का आशय साफ है कि सरकार को भीख मांगने की समस्या से अलग ढंग से निपटने के लिए कोई अन्य कारगर ठोस कदम उठाने होगे। इसमें कोई शक नहीं है कि सरकार की अधिकांश सामाजिक-आर्थिक लाभकारी योजनाएं राजनैतिक और नौकरशाही  भ्रष्टाचार और बँटवारे की वजह से अभी भी असंख्य लोगों तक नहीं पहुंच पा रही है। राष्ट्र की मुख्यधारा से वंचित लोग ही भीख मांगने के लिए विवश है। ऐसे लोगों तक जल्दी से जल्दी सरकारी योजनाओं का लाभ पहुंचना चाहिए। जहां तक चौक-चौराहों पर भिखारियों की समस्या है, स्थानीय शासन-प्रशासन इस मामले में उचित कदम उठा सकता है। सड़क पर भीख मांगने वालों को सूचित और निर्देशित किया जा सकता है कि वह किसी सुरक्षित जगह पर ही भीख मांगने जैसा कार्य करें और भिखारियों पर भी पैनी नज़र रखनी होगी अन्यथा भिखारियों की आड़ में सामाजिक और आर्थिक अपराध पनपने की संभावनाएं बढ़ सकती हैं।
          कोर्ट ने कहा है कि भीख मांगना एक सामाजिक समस्या है तो समाज को भी अपने स्तर पर इस समस्या का समाधान करने के विकल्पों पर विचार किया जाना चाहिए। समाज के आर्थिक रूप से संपन्न, सक्षम और संभ्रांत वर्ग को अपने स्तर से इस समस्या का समाधान करने के यथा शक्ति-संभव प्रयास करने चाहिए।समाज के आर्थिक रूप से संपन्न और सक्षम लोगों को स्थानीय स्तर पर सरकार के साथ मिलकर गरीबों की भीख मांगने की विवशता और व्यवस्था का अंत करना चाहिए।बरहाल,सर्वोच्च अदालत ने कोरोना महामारी के मद्देनजर भिखारियों और बेघर लोगों के पुनर्वास और टीकाकरण पर याचिकाकर्ता की आग्रह करने वाली याचिका पर मंगलवार को केंद्र और दिल्ली सरकार को नोटिस जारी कर पूछा है। याचिकाकर्ता की इस संबंध में प्रशंसा की जानी चाहिए कि उसमें कोरोना महामारी के बीच भिखारियों और बेघर लोगों के पुनर्वास, टीकाकरण ,आश्रय और भोजन उपलब्ध कराने का आग्रह भी इसी याचिका में अदालत से किया है। वाकई, भीख मांगने वाले और बेघर लोग कोरोना महामारी में देश के अन्य लोगों की तरह ही भोजन,आवास, स्वास्थ्य और चिकित्सा सुविधाओं के हकदार हैं। केंद्र सरकार को राज्य सरकारों के साथ मिलकर वंचित लोगों के लिए स्वास्थ्य और रोजगार का दायरा बढ़ाना चाहिए ताकि जो बेघर है,निर्धन है,उनके पास पुरजोर तरीके से पहुंच सके।
लखीमपुर-खीरी (यूपी).....9415461224......885865600

हिरोशिमा, शिन और उसकी तिपहिया साइकिल-तत्सुहारू कोडामा

सभ्य मानव की बर्बर कहानी
हिरोशिमा पर परमाणु बम गिरने के ठीक 4 दिन पहले शिन को उसके तीसरे जन्मदिन पर चटक लाल रंग की तिपहिया साइकिल उसके चाचा ने दी थी। उस समय बच्चों के लिए साइकिल बहुत बड़ी चीज़ थी, क्योंकि उस वक़्त जापान में लगभग सभी उद्योग युद्ध-सामग्री बनाने में लगे हुए थे। 
शिन दिन भर साइकिल पर सवार रहता। सोते समय भी वह साइकिल का हत्था पकड़ कर ही सोता। 6 अगस्त की सुबह वह रोते हुए उठा। शायद उसने सपने में देखा कि उसकी साइकिल चोरी हो गयी है। बगल में हंसती साइकिल को देखकर वह अचानक चुप होकर मुस्कुराने लगा और तुरन्त साइकिल पर सवार हो गया। 
सुबह 8 बजकर 15 मिनट पर जब परमाणु बम गिरा तो शिन अपनी तिपहिया साइकिल से एक शरारती तितली का पीछा कर रहा था।
बाद में जब मलबे से शिन का शव निकाला गया तो उस वक़्त भी शिन साइकिल के हत्थे को मजबूती से पकड़े हुए था, मानो साइकिल चोरी का डर अभी भी उसे सता रहा हो।
साइकिल के प्रति शिन के इस लगाव को देखते हुए उसके पिता ने जली हुई साइकिल को भी शिन के साथ दफना दिया।
कुछ वर्षों बाद शिन के पिता को लगा कि शिन की कहानी दुनिया के सामने आनी चाहिए। उसके बाद उसने कब्र से साइकिल निकाल कर म्यूज़ियम (Hiroshima Peace Memorial Museum ) में रखवा दिया। तब दुनिया को शिन के बारे में पता चला। 
इसी म्यूज़ियम में शिन की साइकिल के बगल में एक घड़ी भी रखी है, जो ठीक 8 बजकर 15 मिनट पर बन्द हो गयी थी। 
हमने सुना था कि समय कभी रुकता नहीं। लेकिन 6 अगस्त को 8 बजकर 15 मिनट पर समय वास्तव में रुक गया था।
म्यूज़ियम की यह रुकी घड़ी मानो इस जिद में रुकी हो कि जब तक शिन वापस आकर इस घड़ी में चाभी नहीं भरेगा, वह आगे नहीं बढ़ेगी। ठीक शिन की साइकिल की तरह जो अभी भी म्यूज़ियम में उदास खड़ी शिन का इंतज़ार कर रही है।
हिरोशिमा-नागासाकी में तमाम लोग ही नहीं मारे गए, उनसे जुड़ी असंख्य कहानियां भी मारी गयी। यानी शिन के साथ वह तितली भी 1000 डिग्री सेल्शियस में जल कर 'अमूर्त' हो गयी, जिसका पीछा शिन कर रहा था।
'सभ्य' समाज की 'सभ्यता' का इससे अच्छा उदाहरण और क्या हो सकता है।

(नोट: तत्सुहारू कोडामा (Tatsuharu Kodama) ने अपनी पुस्तक 'SHIN'S TRICYCLE' में विस्तार से इस कहानी को लिखा है।)

#मनीष आज़ाद, Amita Sheereen जी की वाल से साभार

Thursday, August 05, 2021

दुनिया के 5 देशों में पहुंची झुग्गी में किराये के झोपड़े में रहने वाली कलाकार की बांबू (बांस) राखियाँ-मुकेश कुमार

देशी संस्कृति एक विमर्श
मुकेश कुमार
पूर्व उपसम्पादक दैनिक भास्कर
आप माने या न माने झुग्गी में दस बाई तेरह के किराए के झोपड़े में रहनेवाली बांस कारीगर की बांबू राखिया और अन्य कुछ कलाकृतियां दुनिया के ५ देशों में पहुंची है. बीते वर्ष प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा सराहना पा चुकी बांबू राखी इस वर्ष सीधे इंग्लैंड, स्विट्ज़रलैंड, फ्रांस, नेदर्लांड और स्वीडन पहुंची है. हैरत की बात है कि दो वर्ष पूर्व इसी गरीब बांस कारीगर महिला को इजरायल के जेरुसलेम की एक बड़ी आर्ट स्कूल में वर्कशॉप लेने का निमंत्रण भी मिला था, पर आर्थिक कारणवश वह नहीं पहुंच पाई थी. इस वर्ष उनकी राखियों ने सीधे ५ देशों की यात्रा कर ली है. भारत में बांबू राखी को लोकप्रियता दिलाने के साथ ही इस तरह से दुनियाभर में इन राखियों को पहुंचनेवाली यह कारीगर देश की पहली महिला है. मीनाक्षी मुकेश वालके ऐसा इनका नाम है.

मीनाक्षी मुकेश वालके महाराष्ट्र के आदिवासी बहुल और नक्सल प्रभावित चंद्रपुर के बंगाली कॅम्प झोपडपट्टी में रहती है. वे बांबू डिजाइनर और महीला सक्षमीकरण कार्यकर्ता है. बांस क्षेत्र में उनके अद्वितीय सेवा कार्य की सराहना करते हुए इसी वर्ष कनाडा की इंडो कॅनडीयन आर्ट्स अँड कल्चर इनिशिएटिव संस्था ने महिला दिवस पर वुमन हीरो पुरस्कार से सम्मानित भी किया था. 

लॉक डाउन की भीषण मार सहने के  बाद इस वर्ष रक्षा बंधन पर मीनाक्षी और उनकी साथी महिलाओं ने बड़े साहस से काम शुरू किया. द बांबू लेडी ऑफ महाराष्ट्र के नाम से मशहूर सौ मीनाक्षी वालके ने २०१८ में केवल 50 रुपयों में सामाजिक गृहोद्योग अभिसार इनोवेटिव की स्थापना की थी. उसी समय उन्होंने पहली बार बांबू की राखियां भी बनाई थी. अब उनका कारवां सात समुंदर पार पहुंचा है. इससे मीनाक्षी की सहयोगी कारीगर महिलाओं में हर्षोल्लास व्याप्त है.

स्वित्झर्लंड की सुनीता कौर ने मीनाक्षी की बांबू राखियों के साथ ही अन्य कलाकृतियां भी वहां बिक्री हेतु मंगाई है. स्वीडन के सचिन जोंनालवार समेत लंदन की मीनाक्षी खोडके ने भी अपने ग्लोबल बाप्पा शो रूम के लिए राखियों की खरीद की है. 

बांबू की पूर्णतया इको फ्रेंडली ऐसी बांबू राखियों में प्लास्टिक का तनिक भी अंश न होना, यह मीनाक्षी वालके की विशेषता है और राखियों को सजाने वे खादी धागे के साथ तुलसी मणी एवम् रुद्राक्ष का प्रयोग करती है. मीनाक्षी इस संदर्भ में बताती है कि अपनी पावन संस्कृती का शुद्ध एहसास इस भावनिक संस्कार में महसूस होना चाहिए. प्रकृति को वंदन करते हुए आध्यात्मिक अनुभूती मिलनी चाहिए, ऐसा हमारा प्रयास रहता है. स्वदेशी, संस्कृती और पर्यावरण संदेश का प्रेरक संयोग करने की कोशिश इससे हम कर रहे है, ऐसा मीनाक्षी ने बताया. बतौर मीनाक्षी, उनका काम ही मुख्य रूप से प्लास्टिक का प्रयोग न्यूनतम हो इस दिशा में चलता है. वसुंधरा का सौदर्य अबाधित रहे, इस हेतु वे समर्पित है. इस लिए उनका हर काम, कलाकृति शुद्ध स्वरूप में होती है.

ज्ञातव्य हो, लॉक डाउन में मीनाक्षी और सहयोगियों का बड़ा नुकसान हुआ. कुछ कारीगरों पर किराणा किट लेने की नौबत अाई. ऐसे संकट में कोई भी साथ में खड़ा नहीं रहा. डेढ़ वर्ष से काम ठप है. इस बिकट प्रसंग में अब राखी के बंधन ने आर्थिक अड़चनों से मुक्ति दिलाने में बड़ा साथ दिया है, ऐसी भावुक प्रतिक्रिया भी मीनाक्षी ने व्यक्त की. किसी भी प्रकार की परम्परा या विरासत नहीं, समर्थन या मार्गदर्शन नहीं, बेहद गरिबी में मीनाक्षी ने अभिसार इनोव्हेटिव्ज यह सामाजिक उद्यम शुरू किया. झोपडपट्टी की महिला व लड़कियों को मुफ्त प्रशिक्षण देकर रोजगार देते हुए मीनाक्षी का काम बढता जा रहा है. यहां बता दे, बीते वर्ष मीनाक्षी की राखी महाराष्ट्र के तत्कालीन वित्त एवं वन मंत्री सुधीर मुनगंटीवार ने स्वयं प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी को भेजी थी!

इस साल ५० हजार का लक्ष्य
मीनाक्षी ने बताया कि इस वर्ष उन्होंने ५० हजार राखियों का लक्ष्य रखा है. विदेशों से मांग बढ़ने के बाद अब स्थानीय स्तर से भी पूछ परख बरबस ही बढ़ गई है. लॉक डाउन से मीनाक्षी व उनकी सहयोगी महिलाओं पर भुखमरी ही नहीं, कर्ज की नौबत अाई है. ऐसे में अब राखी ने उन्हें नव संजीवनी देकर उम्मीदें काफी बढ़ा दी है. 
मीनाक्षी का अमीर खान कनेक्शन
भाजपा के सुधीर मुनगंटीवार महाराष्ट्र के वनमंत्री थे तब बल्लारपुर में स्टेडियम का उद्घाटन अमीर खान के हाथों हुआ था. इस बीच सैनिकी विद्यालय में अमीर खान के अल्पाहार की व्यवस्था की थी. उस समय मीनाक्षी के बांबू राखी का लोकार्पण भी नियोजित था परंतु समयाभाव में वह टल गया था. देर से ही सही उसके बाद अमीर खान के ही दंगल फिल्म की अभिनेत्री मिनू प्रजापती ने मीनाक्षी के बनाए बांबू गहनों की खरीदी कर प्रशंसा की थी. मीनाक्षी यह याद बड़े ही उत्साह से बताती है.
बांबू फ्रेंडशिप बैंड का आविष्कार
इको फ्रेंडली फ्रेंडशिप बैंड वैसे उपलब्ध या प्रचलित नहीं था. मुख्य रूप से धातू, प्लास्टिक के ही स्वरूप में वह अधिकांश उपलब्ध है. मीनाक्षी ने इसी वर्ष जून माह में बांबू के फ्रेंडशिप बैंड बनाने का आविष्कार किया. इसके माध्यम से भी स्वदेशी, पर्यावरण से मित्रता ऐसा संदेश दिया जा रहा है. उल्लेखनीय है कि आज तक बांबू के फ्रेंडशिप बैंड उपलब्ध व लोकप्रिय नहीं थे.

पूर्व उप संपादक, दैनिक भास्कर
चंद्रपुर (महाराष्ट्र)

परिवार-अल्का गुप्ता

अल्का गुप्ता
मीलों चलते हैं,हर पग में ढलते हैं
कितने ही मूढ़ ,भले ही ज्ञानी हो
गुमनाम थपेड़ों में खुशियों की लहरों में
जन होते हैं जो पहरों में होते हैं परिवार... 
युगों से होती आयीं प्राकृतिक विपदायें सब पर आनी हैं
इस काल मृत्यु लोक में नवाचार नहीं हुआ जन्मदाताओं में
धर्म की सूक्तियो को जीवन में प्रशस्त किया
करते हैं जो अभिनेता संचरित करते हैं प्रेरणा
जीवन की बौछारों में लिख देते हैं अधिकारों में 
कई गुना बढ़कर शीर्ष नेतृत्व जीवन के
मन के संग्रहालयों में . .. 
फूलों की खुश्बुदार ,नव लताओं में सजी
प्रेम की बसन्ती हवाऐं ,हिलोरें लेती हैं
पितृत्व की अनुभूतियों से,पूरित कच्चे धागों से बंधक
मर्यादित,अनुभवों के उपरांत परमानन्द
स्नेह के चुंबकीय भाव ममता के थपकियाँ
सिहरन भी महसूस कर लेती हैं परिवार में.. 
इकाई को दहाई की व्याख्या में पिरोती है
यदि हम बंधे हैं आज के युग मेंप्रेम के कच्चे धागो से
जब कुहासा(अंधेरा) प्रतीत होता हैं जब गली चैबारों 
में चांदनी बिखरी लगती हैं 
आंगन की उपमाओं में नहीं है नौ रत्नों में
पावन, नीर, पयोधि से पूरित प्रेम में... 
निजता को परिभाषित जिस आभा से पूरित
उपमान हैं हम जिनके सौभाग्यशाली हैं मनुज
श्रष्टा को भी प्राप्त नहीं जो अमर तत्व पालनहार.
प्रेम फुलवारी से खिली रिश्तों की बगिया है परिवार



लखीमपुर खीरी, उत्तर प्रदेश

Tuesday, July 20, 2021

ये मानसूनी बादल भी अचानक गुजरात क्यों चले जाते हैं-अजय बोकिल

अजय बोकिल
अगर मध्यप्रदेश की बात करें तो मानसून का मिजाज उस नेट कनेक्शन की तरह हो गया है, जो जाने के बाद फिर आने का नाम ही नहीं ले रहा। मौसम विभाग की भविष्यवाणी और हकीकत में बादलों के बरसने के बीच वही रिश्ता है जो झूठे आशिक और उसकी माशूका के बीच होता है। आलम यह है कि आधा आषाढ़ बीत चुका है, बादलों की जानलेवा चमक तो दिखाई दे रही है, लेकिन झमाझम बारिश को धरती अभी तरसी हुई है। देश की राजधानी दिल्ली में तो मई जून सी गर्मी और भयंकर उमस है। वहां केवल राजनीतिक बादल गरज रहे हैं, लेकिन असली बादलों की बरसात को लोग तरस गए हैं। हालांकि बीती रात कुछ पानी गिरा है। वैसे यह शायद पहला मौका है, जब मौसम विभाग ने आधिकारिक तौर पर माना है कि दिल्ली में मानसून पहुंचने की उसकी सारी भविष्यवाणियां गलत साबित हुई हैं। मौसम विभाग ने इस नाकामी पर खुद हैरानी जताते हुए इसे ‘विरल’ घटना बताया है। मौसम विभाग ने कहा कि उसके नए मॉडल विश्लेषण से संकेत मिला था कि बंगाल की खाड़ी से निचले स्तर पर नम पूर्वी हवाएं 10 जुलाई को पंजाब और हरियाणा होते हुए उत्तर पश्चिम भारत में फैल जाएंगी। लेकिन वैसा नहीं हुआ।
 विभाग के दावे की एक बड़ी वजह पिछले कुछ सालों से मौसम की ‍भविष्यवाणी के लिए ‘न्यूमेरिकल वेदर माॅडल’ ( संख्यात्मक मौसम माॅडल) अपनाना भी था। लेकिन वह भी दगा दे गया। वैसे भी दिल्ली का ठीक ठीक मिजाज कौन समझ पाया है, सो मौसम विभाग भी जान लेता। अलबत्ता विभाग पिछले कुछ दिनो से चेता रहा था कि मानसून दिल्ली अब पहुंचा, तब पहुंचा। लेकिन एक दो फुटकर बारिशों के बाद मानसून गुजरात निकल लिया। अब आप यह न कहें कि इस देश में आजकल हर बात गुजरात से शुरू होकर गुजरात पर ही खतम क्यों होती है?
यूं मानसून का मिजाज और तासीर देश के अलग-अलग हिस्सों में अलग-अलग है, जहां मैदानी इलाको के लोग बारिश को तरस गए हैं, वहीं पहाड़ी राज्यों में बादल फट रहे हैं। मानसून चाहता क्या है, यही समझना मुश्किल है। हालत यह है कि कुछ दिन पहले जिस मानसून‍ सिस्टम से मप्र में झमाझम बारिश की भविष्यवाणी थी, वो अचानक मुंह फेर कर गुजरात रवाना हो गया। इधर घटाएं छा तो रही हैं, लेकिन जानलेवा उमस बढ़ाकर अोझल भी हो रही हैं। खेतो में फसलें सूखने लगी हैं और राज्य के महज दो बांध ही अभी तक भर पाए हैं। नर्मदा सहित कई नदियां मीडिया में अपनी उफनती हुई तस्वीरे देखने को बेताब हैं। कुछ शहरों में जलसंकट भी दस्तक देने लगा है।
उधर तेज गर्मी और उमस के कारण बेहाल लोग मौसमी बीमारियों से ग्रस्त होने लगे हैं। कोरोना से जो थोड़ी राहत मिली थी, उसे दूसरी सीजनल बीमारियों ने रिप्लेस करना शुरू कर दिया है। करे तो क्या करें? अगर समय पर पानी नहीं गिरा तो बहुत से गणित गड़बड़ा जाएंगे। हालांकि मौसम विभाग ने अगले हफ्ते फिर एक नया सिस्टम बनने और अच्छी बारिश की बात कह के विटामिन की गोली देने की ‍कोशिश की है।
हर मानसून में यह सवाल किसी परीक्षा के स्थायी प्रश्न की तरह कौंधता है कि मौसम विभाग की भविष्यवाणियां अक्सर गलत साबित क्यों होती हैं? खासकर भारत के बारे में तो कई लोग मौसम विभाग से ज्यादा ज्योतिषियों या गांव के बुजुर्गों के तजुर्बे पर भरोसा करते हैं। हो सकता है कि खुद मौसम को मौसम विभाग को छकाने में मजा आता हो। मौस‍म विशेषज्ञों का कहना है कि इस विरोधाभास के पीछे भारत की भौगोलिक स्थिति बड़ा कारण है। माना जाता है ‍िक मौसम विभाग की भविष्यवाणियां उन देशों या स्थानों के बारे में ज्यादा सटीक बैठती हैं, जहां प्राय: एक सा मौसम ही रहता है। जबकि भारत का उत्तरी हिस्सा उपउष्णकटिबंधीय जोन में पड़ता है तो दक्षिणी भाग उष्णकटिबंधीय जोन में। हिमालय से लगे इलाकों में स्थिति और अलग होती है। ऐसे में मौसम की चाल भी भटक जाती है। बावजूद इस हकीकत के कि मौसम विभाग का दावा है कि पहले की तुलना में उसकी भविष्यवाणियां अब ज्यादा सटीक हैं। विभाग के मुताबिक पहले मौसम की भविष्यवाणी सटीक होने का प्रतिशत 60 फीसदी तक था, जो अब 80 फीसदी है। यानी 20 फीसदी मामला अभी भी राम भरोसे है। विभाग का यह भी कहना है कि मौसम की ज्यादा विश्वसनीय भविष्यवाणी की वजह हाल के वर्षों में अपनाया न्यूमेरिकल वेदर माॅडल है। इसे संख्यात्मक मौसम पूर्वानुमान ( एनडब्ल्यूएफ) भी कहते हैं। इसके तहत मौसम का दिन प्रतिदिन का डाटा एकत्र कर उसे कम्प्यूटर माॅडल से प्रोसेस किया जाता है। विभाग ने इसके लिए देश भर में सौ डाॅप्लर और राडार लगाए हैं। जो स्थानीय मौसम की पल-पल की जानकारी रखते हैं। हालांकि और अधिक सटीक भविष्यवाणी के लिए ज्यादा डाॅप्लर और राडारों की आवश्यकता है। लेकिन जो बताया जाता है, वो भी खरा कम ही उतरता है। शायद इसलिए भी क्योंकि मौसम किसी विभाग के निर्देश या माॅडल के अनुसार न तो चलता है न बदलता है। वो कोविड की माफिक कब रंग बदल ले, कहा नहीं जा सकता। विभाग जो भविष्यवाणी करता है, वो अमूमन मौसम के नियमित डाटा और चरित्र के आधार पर होता है, लेकिन कब बादल रिमझिम बरसेंगे, कब झमाझम में तब्दील होंगे और कब फट पड़ेंगे, कब झांसा देकर निकल लेंगे, इसका सही-सही अंदाजा लगाना बेहद कठिन है। उदाहरण के लिए मौसम विभाग ने दो दिन पूर्व कहा था कि बंगाल की खाड़ी में जिस सिस्टम से मध्यप्रदेश को भिगोने की संभावना बनी थी। वह काफी तेजी से मूव होकर गुजरात की ओर बढ़ गया। अभी अरब सागर से जो नमी आ रही है, उसी के कारण बारिश हो रही है। मानसून तो एक्टिव है, लोकल सिस्टम से ही अभी बारिश होती रहेगी। यही कारण है कि बारिश टुकड़ों में हो रही है। हवा की दिशा भी लगातार बदलती जा रही है। बताया जाता है कि बंगाल की खाड़ी में एक और सिस्टम डेवलप हो रहा है, लेकिन यह भी मप्र के नीचे से मूव करते हुए ओडिशा से विदर्भ और फिर गुजरात की ओर बढ़ जाएगा।
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लेकिन मौसम की सही और सटीक भविष्यवाणी का अपना आर्थिक और राजनीतिक महत्व भी है। यही कारण है कि अमेरिका ने 12 साल पहले मौसम की सटीक भविष्यवाणी के लिए जरूरी तंत्र बनाने पर 5.1 अरब डाॅलर खर्च‍ किए थे। भारत में मौसम विभाग की भविष्यवाणी हर समय गलत ही हो, ऐसा नहीं है। कई बार उसकी चेतावनियां समय रहते सचेत करने वाली भी होती है। इसके बाद भी जनमानस में विभाग की छवि ‘ कहता कुछ और होता कुछ’वाली ज्यादा है। खासकर किसान अगर मौसम विभाग के हिसाब से चले और उन्हें नुकसान न हो, इसकी कोई गारंटी नहीं है। वैसे भी ग्लोबल वार्मिंग ने मौसम के चरित्र को भी बदल कर रख ‍िदया है। अब वह वैसा ही व्यवहार करे , जरूरी नहीं है, जिसको देखकर हमारे पूर्वजों ने कहावतें रची थीं। आवश्यक नहीं कि अब गर्मी के मौसम में ही लू चले या बारिश के मौसम में ही बाढ़ आए। यह भी जरूरी नहीं कि ठंड के सीजन में ही आप ठिठुरें या बसंत में ही भंवरे फूलों का पराग चूसने निकलें। यही हाल रहा तो हमे ऋतुअोंका नामकरण भी फिर से करना पड़ेगा और ये नाम भी हाइब्रिड हो सकते हैं। मौसम का यह बदलाव मनुष्य के वजूद के लिए भी खतरा बन रहा है। हम खुद अपनी जड़े खोदने में लगे हैं। अपने हितसाधन के आगे प्रकृति का हर विधान हमे व्यवधान लगने लगा है। मानसून भी इस खेल को समझने लगा है, इसीलिए वह कभी भी आॅफ लाइन हो जाता है। फिलहाल तो उसका यही स्टेटस है। कुछ ऐसी ही परेशानी मौसम‍ ‍िवभाग की भी है। किसी शायर ने ठीक ही कहा है ‘मौसम की तरह बदलते हैं उसके वादे, उस पर यह जिद कि तुम मुझपे एतबार करो।‘
लेखक वरिष्ठ संपादक हैं सुबह सवेरे दैनिक मध्य प्रदेश

सुरेश सौरभ की लघुकथाएं विश्व भाषा में-सत्य प्रकाश शिक्षक

(चिट्ठी)

लखीमपुर-खीरी नगर के चर्चित लघुकथाकार व्यंग्यकार सुरेश सौरभ की लघुकथाएं विश्व भाषा अकादमी राजस्थान की अंतरराष्ट्रीय ई पुस्तक में शामिल हुईं हैं। संपादक चन्द्रेश कुमार छतलानी ने उक्त लघुकथा संग्रह में सौरभ की लघुकथाओं का चयन देश के जाने-माने लघुकथाकारों के साथ किया है इसके लिए नंदी लाल, रामाकान्त चौधरी, विकास सहाय, सत्य प्रकाश शिक्षक, अखिलेश अरूण, आदि साहित्यिक मनीषियों ने उन्हें बधाई दी है। विदित है सौरभ के पक्की दोस्ती, वर्चुअल रैली, 51कवि, नोट बंदी, सौ कवि निर्भया,नंदू सुधर गया आदि एक दर्जन से अधिक संग्रह प्रकाशित हो चुकें हैं और रचनाएं देश विदेश के पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहतीं हैं।इनकी कई रचनाओं का पंजाबी उड़िया आदि भाषाओं में अनुवाद हो रहा है।
प्रेषक-सत्य प्रकाश शिक्षक
लखीमपुर खीरी

‘महेशचंद्र देवा’ अभिनय दुनिया के उभरते हुए सितारे-अखिलेश कुमार ‘अरुण’

साक्षात्कार

महेशचंद्र देवा (अभिनेता)

आप अपने काम को लेकर बहुत ही उत्साहित हैं, आपसे हमारी मुलाकात 2015-16 के दौरान हुई थी। वह मुलाकात एक औपचारिक मुलाकात थी बस परिचय भर हो सका कि आप महेश चन्द्र देवा है और मैं अखिलेश कुमार अरुण। आप अपने चबूतरा पाठशाला पर 15 या 20 बच्चों में व्यस्त थे किसी को चित्रकारी तो किसी को एबीसीडी का ककहरा सिखा रहे थे। आपके काम की तल्लीनता ही आपके सफलता का द्योतक है और आप अपनी पहचान बना पाने में सफल हो सके है एक अभिनेता ही नहीं शिक्षक और गुरु के रूप में भी। लखनऊ को अपना कर्मभूमि बनाने वाले अभिनेता बनने के  साथ ही साथ मलिनबस्तियों से उठाकर बच्चों को रंगमंच की दुनिया से होते हुए फिम्ली जगत में अब तक 40 से 50 बच्चों को लाने वाले जो हजारों-हजार बच्चों और उनके माता-पिता को मान-सम्मान से जीवन जीने के लिए उत्त्साहित करती हैं पल-प्रतिपल। मदर सेवा संस्थान ने 8 साल पहले चबूतरा थियेटर पाठशाला की नींव रखी थी जिसका मकसद था बच्चों के अंतर्निहित प्रतिभाओं को मंच देना हर साल चबूतरा थियेटर फेस्टिवल का आयोजन कर प्रतिभाओं को मंच तक पहुँचाने के साथ-साथ उनके सपनों को भी साकार किया है। आज हिंदी फिल्म जगत में तमाम बच्चे जैसे- आर्यन चौधरी, नीलमा चौधरी, शिखा बाल्मीकि, नैंसी बाल्मीकि, खुशी गौतम, मोनू गौतम, काजल गौतम,मोहम्मद अमन, मोहम्मद सैफ, मोहम्मद आरिफ, सोनाली वाल्मीकि, मानस वाल्मीकि, जितेंद्र शर्मा , हर्ष गौतम, प्रीति वर्मा, सिया सिंह कृतिका सिंह सतप्रीत सरन, समीक्षा सरन जैसी गौतम, पूर्णिमा सिद्धार्थ, दीपक सिद्धार्थ, श्रीकांत गौतम आदित्य कुमार, लकी गौतम आदि बच्चों को रुपहले परदे से रूबरू कराया और संस्थान ने उन्हें आत्मनिर्भर भी बनाया। एक मिशाल हैं आप, अपने आप में। आपके कार्य की जितनी सरहना की जाये वह कम ही होगा। महेश चंद्र देवा जी से बातचीत के आधार पर आइए जान ते हैं-उनकी जीवनी, उनका कार्यक्षेत्र, और अभिनय की दुनिया के साथ-साथ उनके भविष्य की उन योजनाओं के बारे में-

 

मैं- सबसे पहला प्रश्न मेरा क्या यह होगा कि आपकी शिक्षा कितनी रही है आपका शैक्षिक परिवेश कैसा रहा है, गांव से हैं  या शहर से हैं?

महेशचंद्र देवा जी- स्मृतियों में जाते हुए महेश चंद्र देवा जी बताते हैं कि उनका परिवार मध्यमवर्गीय परिवार रहा था जहां आपके पिताजी सचिवालय में सरकारी नौकरी करते थे जिससे परिवार का खर्च-भर ही चल सकता था, शहरी परिवेश में पले-बढ़ें हैं किंतु आपका लगाव झुग्गी झोपड़ियों के बीच में रहने वाले लोगों से ज्यादा रहा है। अपनी शिक्षा के बारे में बात करते हुए कहते हैं कि उन्होंने अपनी पढ़ाई के दौरान ही पढ़ाई के साथ साथ रंगमंच से जुड़ गए थे. आपकी  शिक्षा-दीक्षा सरकारी विद्यालयों, कॉन्वेंट स्कूल और शिया इंटर कॉलेज से लखनऊ यूनिवर्सिटी तक का सफर रहा है, जिसमें उन्होंने शिक्षा परास्नातक तक की शिक्षा प्राप्त किए हैं, कला में रुचि के चलते उन्होंने कला को अधिक महत्व दिया। रंगमंच की कोई विधिवत शिक्षा न लेकर इस क्षेत्र के विख्यात लोगों के सानिध्य में रख नुक्कड़ नाटक और अन्य नाट्य कार्यशालाओं से अपने अभिनय को निखारा है।

मैं- रंगमंच से आपका बचपन से ही लगाव था जिसमें आप स्कूल स्तर पर नाटकों में भाग लेते रहे किंतु आपको कब ऐसा लगा कि नहीं हमको रंगमंच के दुनिया में जाना चाहिए?

आप कहते हैं कि यह हमारे लिए बहुत महत्वपूर्ण सवाल है, हमारे जीवन से जुड़ा हुआ.एक बार की बात है  रंगमंच से जुड़ा हुआ बच्चों के द्वारा नाटक प्रस्तुत किया जा रहा था जो लखनऊ में ही था. जहां पर हम को सबसे पहले रंगमंच को करीब से देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। वहीँ से मन में लालसा जागी कि अब हमें रंगमंच के क्षेत्र में जाना है, आगे आप बताते हुए कहते हैं कि वह पहला अवसर था कि मैं विधिवत प्रशिक्षण प्राप्त करने के लिए भारत की सर्वोच्च रंगमंच संस्था इप्टा में संपर्क किया जहां यह कहते हुए हम को अयोग्य करार दे दिया गया कि आप बहुत दुबले-पतले हैं आपके लिए यह  क्षेत्र उचित नहीं है किंतु हम हिम्मत नहीं हारे उसके बाद दो बार हमने एनएसडी में भी प्रयास किया किन्तु असफल रहे, एक जगह बच्चों का कार्यशाला हो रहा था उसको देख कर हमें लगा कि यही हमारे लिए ठीक रहेगा कुछ शुल्क जमा करके उस कार्यशाला से जुड़ गए जहां से हमारी रंगमंच शिक्षा प्रारंभ होती है।

मैं- क्या आपने रंगमंच की विधिवत शिक्षा ली है अथवा छोटी-छोटी कार्यशालायें ही आपके रंगमंचीय कला को निखारने का माध्यम रही हैं?

महेशचंद्र देवा जी- एनएसडी और इप्टा जैसी बड़े रंगमंच के संस्थाओं से न जुड़ पाने का मलाल था किंतु हमने इसे अपने ऊपर हावी नहीं होने दिया, देश के प्रतिष्ठित रंगमंच निर्देशकों के देखरेख में हमने कार्यशालायें की और जहां भी जैसे हमको मौका मिला अभिनय की बारीकियों को सीखता गया। हमारे जीवन में अभिनय को निखारने का सहयोग जिन लोगों से प्राप्त हुआ उनमें प्रमुख नाम है जैसे रंगमंच के जगतगुरु पदम श्री राज बिसारिया जी, राबिन दास, देवेंद्र राज अंकुर, सत्यव्रत रावत, सुधीर कुलकर्णी, ललित सिंह पोखरिया आदि मेरे गुरु रहे हैं, रंगमंच के अतिरिक्त हमने कुछ दिनों तक कत्थक की भी शिक्षा प्राप्त की जिसके गुरु रहे हैं कपिला महराज। उक्त लोगों से रंगमंच शिक्षा में हमने रंगमंच से जुड़े हुए रूप सज्जा, मंच सज्जा, लाइटिंग, अभिनय आदि को सीखा जाना और समझा उनकी बारीकियों को, नुक्कड़ नाटक के गुरु अनिल मिश्रा जी रहे हैं।

मैं- अगला प्रश्न यह कि आपको रंगमंच करते हुए कभी ऐसी परिस्थितियां का समना करना पड़ा कि नहीं यह क्षेत्र अब हमारे बस का नहीं है, इसे छोड़ देना चाहिए?

महेशचंद्र देवा जी- आप अपने पिछले दौर को याद करते हुए कहते हैं कि संघर्ष के दिनों में हमारे पास पैसे नहीं होते थे तो पैदल ही थिएटर से लेकर के नुक्कड़ फिल्म सिटी, जहां तक बन पड़ता था उससे भी आगे तक जाना होता था। अपने काम के प्रति हमारी सच्ची श्रद्धा थी जो हमें हमारी मुकाम देकर गई है। आप कहते हैं कि मैं अपने संघर्ष के दिनों में साइकिल से ज्यादा चलता था। जेब में ऑटो और रिक्शा के लिए पैसे नहीं होते थे, एक दो रूपये जेब में पड़े होते थे साइकिल पंचर हो गई या कुछ बिगड़ गया उसके लिए। मैं विषम से विषम परिस्थितियों में मजबूती के साथ खड़ा रहा। रंगमंच व्यक्ति को जीवन के रंगमंच पर कैसे खुश रहना है और दूसरे को खुश रखना है यह सिखा देता है। रंगमंच के प्रति मेरी जो दृढ़ इच्छा कहिये या त्याग, उसके चलतेहमने सरकारी नौकरी को रंगमंच के लिए त्याग दिया और रंगमंच को ही अपने जीवन का एक मुख्य उद्देश्य बना दिया था। राजश्री पुरुषोत्तम टंडन  मुक्त विश्वविद्यालय से महामहिम द्वारा दिया जाने वाला प्रमाण पत्र  हम लेने इसलिए नहीं गए क्योंकि हमें कबीर जी के जीवन पर नाटक करना था सम्मान से ज्यादा हमारे लिए काम जरुरी था।

मैं- चबूतरा पाठशाला और मदर सेवा संस्थान में पहले किस को स्थापित किया गया था और इसे स्थापित करने का विचार क्यों और कैसे आया आपके मन में इस का उद्देश्य क्या है?

महेशचंद्र देवा जी-रंगमंच जब से व्यवसायिक स्तर पर आया है तब से लेकर के आज तक के समय में बहुत परिवर्तन हो गया है. राजा-महाराजाओं के काल में वंचित समुदाय (भांट,चारण, बहुरुपिया, नट, मदारी आदि)  के जीवन-यापन का साधन रहा है किन्तु अब यही तबका आज अपने इस पुस्तैनी पेशा से दूर हो गया है, १९१३ में दादा साहब फाल्के को राजा हरिश्चंद्र फिल्म में काम करने के लिए कोई महिला कलाकार नहीं मिली थी और आज देखिये..... हमारे चबूतरा पाठशाला का भी यही उद्देश्य है जिनके रगो में रंगमंच का खून दौड़ रहा है उनको इस मुख्यधारा से जोड़ना है जो वास्तव में रंगमंच के कलाकार थे. इसलिए अपने संघर्ष के दिनों में ही मैंने इन वंचित बच्चों के लिए जिसमें रिक्शा चालकों, मजदूर आदि जो दिनभर कुछ न कुछ करके अपना जीवन यापन करते हैं। उनको रंगमंच से जोड़ने के लिए इस मदर  सेवा संस्थान की स्थापना सन 2004 में की गई जिसकी प्रेरणास्रोत इतिहास प्रसिद्ध महिलाएं ज्योतिबा फुले, माता रमाबाई, मदर टेरेसा आदि रही हैं और यह संस्थान सफल भी रहा। आज केवल महेशचंद्र देवा जी प्रदेश ही नहीं देश-विदेश में यह संसथान जाना पहचाना जाता है। 2013 में, मैं अपनी माता जी के प्रेरणा से ‘चबूतरा पाठशाला’ की स्थापना की जो रंगमंच का रेगुलर क्लास करता है, यह पाठशाला वास्तव में प्रकृति के बीच, पेड़ के नीचे, खुले आसमान में जो बच्चे अनाथ हैं, जिनके माता-पिता जेल में बंद हैं, झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाले लोगों के बच्चे, रेल की पटरियों से लेकर के रेलवे की कंपार्टमेंट में काम करने वाले बच्चों के लिए उनको साक्षर करने के उद्देश्य से ककहरा सिखाने के लिए इसकी नीव रखी गई. धीरे धीरे रंगमंच का ककहरा कब सीखने लगे पता ही न चला, उत्तरोत्तर वृद्धि करते हुए इसकी शाखाएं-लखनऊ में गोमती नगर, डालीगंज, और विकास नगर में भी स्थापित गया. उनका जो विषय होता था वह इन्हीं लोगों के जीवन पर होता था जैसे- बाल मजदूरी, अशिक्षा, दहेज, नशा पान-पुड़िया आदि को अपने कार्यशाला का मुद्दा बनाया, जिसमें बच्चों ने खूब बढ़-चढ़कर भाग लिया हमें खुशी होती है कि आज 40 से 45 बच्चे हिंदी सिनेमा जगत में काम कर रहे हैं। जिनके पिता  ठेला, रिक्शा चलाते हैं, सब्जी बेचते हैं, आदि. वे फिल्में जिनमें बच्चों ने काम किया है ‘आर्टिकल-15, (फिल्म) मीर नायर की ‘अ सुटेबल ब्याय’, (बीबीसी लन्दन के लिए) ‘जैक्सन’, ‘भोकाल’ (बेवसीरिज) आदि में भी काम कर रहे हैं और अपने अभिनय का लोहा मनवा रहे हैं। मेरा सन 2017 में एक और थिएटर के क्षेत्र में प्रयास रहा ‘थिएटर इन एजुकेशन’ अर्थात पढ़ाई पढ़ाई में रंगमंच कला का ज्ञान, की स्थापना की। लखनऊ के लगभग 100 से 150 स्कूलों में हमने 10,000 से अधिक बच्चों को रंगमंच का ककहरा सिखाया उन लोगों को बताया कि क्या होता है रंगमंच, जिसमें बच्चे अपने भविष्य का सुनहरा अवसर तलाश सके और एक ताना-बाना बुन सकें।

मैं- आप वंचित समुदाय से आते हैं, फिलहाल कलाकारों की कोई जाति नहीं होती। किन्तु क्या?आपने कभी अनुभव किया कि आपको जातीयता का दंस झेलना पड़ा हो?

महेशचंद्र देवा जी- आप रंगमंच के माध्यम से स्पष्ट संकेत देते हैं की सामाजिक बुराई के स्वरूप में जो जाति व्यवस्था है। इसको खत्म करने के लिए तमाम साहित्यकारों और महापुरुषों ने समय-समय पर अपनी लेखनी चलाई है और लोगों को जागरूक किया है। ऐसे में संघर्ष के दौरान जातीयता रूपी जहर का असर नाम मात्र के लिए हुआ होगा, इसका कोई स्पष्ट अंकन हमारे दिमाग में अभी तक नहीं है क्योंकि रंगमंच से जुड़ा हुआ हर एक कलाकार अपने कार्य को महत्व देता है। अपने कार्य के अनुरूप ही वह सफलता प्राप्त करता है, वह अलग बात है कि उसके जीवन में कभी ऐसा भी पल आया हो या इसको झेला हो यह उसके लिए बस चलते हवा का झोंका जैसा है। अपने काम पर ध्यान देना चाहिए आपका परिश्रम आपके सफलता का बिगुल बजाने लगे, आप देखेंगे की एक से एक कलाकार जो वंचित समुदाय से रहें वह फिल्म दुनिया में आज नाम कमा रहे हैं और अपने नाम से जाने और पहचाने जाते हैं।

मैं-आपको रंगमंच से अलग हटकर फिल्मी जगत पहला ब्रेक कब और कैसे मिला?

महेशचंद्र देवा जी-इस प्रश्न पर आप कहते हैं कि फिल्म जगत में अपनी पहचान बनाने के लिए या अपने काम को लेकर के ढेर सारे लोगों से भिन्न-भिन्न जगहों पर मिलना पड़ता है। अपनी बात रखनी पड़ती है और आपका काम, आपका व्यवहार कब किसको पसंद आ जाए और आपको एक मौका दे दे। आपके जीवन का वह सबसे बड़ा सुनहरा पल होता है। हमें पहला जो ब्रेक फिल्म में मिला वह दुर्भाग्य से हमारा जो कैरेक्टर था किसी दूसरे को दे दिया गया और उसके बाद जो दूसरी फिल्म आई वह भोजपुरी फिल्म थी जिसमें हम बतौर गीतकार अपना चरित्र निभा रहे थे, जहाँ से अभिनय का सफर शुरू होकर हिंदी बॉलीवुड से लेकर के हॉलीवुड तक हमने फिल्म की सभी में छोटे-मोटे रोल हैं। लगभग 30 से 35 फिल्मों की की लिस्ट है जिसमें हमने काम किया है जैसे-मीलियन डालर आर्मस् (हालीवुड), कोरिया की द प्रिंसेस आफ अयोध्या अभी-अभी कागज फिल्म आई है जिसमें हम एक टाइपिस्ट की भूमिका में हैं इसके साथ-साथ अवधी, भोजपुरी, हिंदी भाषाओँ की फिल्मों में हमें चरित्र अभिनय करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ जो आज भी अनवरत जारी है।

मैं-आपकी भविष्य में आने वाले कौन-कौन सी फिल्में हैं उसकी जानकारी मिल जाए तो......?

महेशचंद्र देवा जी-इस पर आप हंसते हुए कहते हैं यह सौभाग्य है जो वर्तमान समय में हमें खूब काम मिल रहा है। उनमें से से कुछ फिल्में हैं प्रयागराज,  चूना वेबसीरिज (नेट क्लिप्स), हुड़दंग जो मंडल कमीशन पर बनी है जो 90 के दशक की फिल्म है जिसमें हम इंस्पेक्टर की भूमिका में हैं, कीड़ा घर वेब सीरीज, डब्ल्यू बैचलर हरमन जोशी के साथ इस प्रकार से 10 या 15 फिल्में हैं जो इस साल के अंत तक  आ जाएंगी। टीवी सीरियल में ‘और भाई क्या चल रहा है’ सावधान इंडिया में ‘क्राइम अलर्ट’ आदि।

मैं- आज तक के अपने रंगमंचीय सफर और सिनेमा जगत मैं प्राप्त उपलब्धियों से अपने को कितना संतुष्ट पाते हैं इसके बारे में कुछ बताएं?

महेशचंद्र देवा जी- हमारे लिए हमारा कार्य है हमें संतुष्टि प्रदान करता है क्योंकि हम अपने कार्य के प्रति जितना ईमानदार रहेंगे उतना ही हम अपनी पहचान बनाने में सफल रहेंगे। अपने कार्य से ज्यादा हमको संतुष्टि उनमें मिलती है जो बच्चे आज झुग्गी झोपड़ी और मलिन बस्तियों से निकलकर बड़े-बड़े सिनेमा जगत के कलाकारों के साथ काम करते हैं, बदले में उन्हें पैसे भी मिलते हैं। उनके साथ रहने खाने का मौका मिलता है। जो बरबस आंखों में आंसू ला देते हैं किन्तु ये आंसू खुशी के आंसू होते हैं यह हमारे लिए सबसे बड़ी संतुष्टि और संतोष है।

मैं-अब चलते चलते अंतिम प्रश्न की आप फिल्मी दुनिया या रंगमंच से जुड़े हुए युवकों के लिए जो अपना भविष्य तलाश रहे हैं उनको आपका क्या संदेश है?

महेशचंद्र देवा जी-वास्तव में आज के युवा वर्ग बहुत जल्दी सफलता की सीढ़ी चढ़ना चाहते हैं।सफल न हो पाने पर अपने को ठगा हुआ पाकर अवसाद में चले जाते हैं जिसका परिणाम बहुत बुरा होता है। इसलिए हमारा कहना होगा की इस क्षेत्र में कलाकार को धैर्य के साथ अपने कार्य के प्रति इमानदार रहते हुए अपना कार्य करते रहना चाहिए यानी ‘संघर्ष जितना बड़ा होगा मुकाम भी उतना बड़ा होगा’ बस यही आपके सफलता का सूत्र है जो आपको एक सफल कलाकार बना सकता है।

बहुत-बहुत धन्यवाद।।।

शुक्रिया।।।।

डिप्रेस्ड एक्सप्रेस अगस्त अंक २०२१ में प्रकाशित

साक्षात्कार/लेखक-
अखिलेश कुमार ‘अरुण’
ग्राम-हजरतपुर,पोस्ट-मगदापुर
जिला-लखीमपुर(खीरी) उ०प्र० 
262804 मोबाइल-8127698147

 

बीएसपी सुप्रीमो मायावती का "ब्राम्हण-मन्त्र/अस्त्र " चुनाव और फुले-आंबेडकर मिशन के लिए कितना कारगर साबित होगा-नन्द लाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)

Prof. N.L.Verma
          2007 में ब्राम्हण समाज की सामाजिक केमिस्ट्री से यूपी में पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने में सफल हो चुकी बहुजन समाज पार्टी 2022 में भी ब्राम्हण समाज पर दांव लगाकर चुनावी लक्ष्य पर निशाना भेदने की रणनीति बना चुकी है। बीएसपी में मायावती के बाद दूसरे कद्दावर नेता सतीश चंद्र मिश्रा के नेतृत्व में बीएसपी ने यूपी में ब्राम्हण सम्मेलनों के माध्यम से ब्राम्हणों की चुनावी गणेश परिक्रमा शुरू कर दी है। अखिल भारतीय ब्राम्हण महासभा भी बीएसपी के पक्ष में अपने समर्थन की घोषणा भी कर चुकी है। क्या आज ब्राम्हण समाज की राजनैतिक दिशा और दशा 2007 जैसी ही है और 2022 के चुनाव में वैसी ही बनी रहेगी, यह एक बड़ा सवाल है! क्या मायावती की इस जातीय शतरंजी चाल से अन्य दलों की चुनावी रणनीति प्रभावित हो सकती है? यह सच्चाई है कि " नेता उधर ही भागने की जुगाड़ में रहता है जिधर वोट भागता हुआ दिखाई देता है।" आज के दौर में लगभग सभी दलों के लिए लोकतंत्र का मतलब सिर्फ चुनाव जीतकर सत्ता पर काबिज होने तक सिमट चुका है। कोई राजनैतिक दल धर्म के नाम पर साम्प्रदायिक और कोई जाति के नाम पर जातीय भेदभाव और वैमनस्यता का ज़हर घोलकर चुनावी रण युद्ध मे जीत हासिल कर सत्ता की कुर्सी पर येन केन प्रकारेण कब्जा करना चाहता है। आज दलों के चुनावी एजेंडे में आम आदमी के बुनियादी मुद्दों पर धर्म और जाति भारी पड़ती नज़र आ रही है,अर्थात ज्वलंत मुद्दों की जगह नही रह गई है। धर्म और जाति के बिगड़ैल और घातक घोड़े पर सवार होकर मिली सत्ता की प्रवृत्ति-प्रकृति, दिशा-दशा और जीवनकाल कैसा और कितना अनुशासित और लोक कल्याणकारी साबित होगा? धार्मिक और जातीय शक्तियों के बल पर मिली सत्ता में यही राजनैतिक शक्तियां सामाजिक तानाबाना को उधेड़ने में कोई कोर कसर छोड़ती नज़र नही आएगी।
              मा.कांशी राम जी द्वारा अत्यधिक त्याग, तपस्या और परिश्रम से डॉ. भीमराव आंबेडकर के मिशन और दर्शन पर बनाई गई बीएसपी जातियों के बल पर मिली सत्ता में जातियों का विनाश करने के डॉ.आंबेडकर के लक्ष्य को कितना भेद पाएगी? धार्मिक और जातीय शक्तियों के समीकरण से सत्ता का राजनैतिक लक्ष्य तो भेदा जा सकता है लेकिन सामाजिक और लक्ष्य नही। डॉ.आंबेडकर अपने सम्पूर्ण जीवनकाल में " राजनैतिक लोकतंत्र से पहले सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र विकसित और सशक्त करने के हमेशा पक्षधर रहे हैं। सामाजिक जातीय वर्णव्यवस्था में कथित ब्रम्हमुख से उपजे सर्वोच्च ब्राम्हण की जातीय पीठ पर कथित निम्न जाति आधारित दल सवार होकर ज्योतिबा फुले और डॉ.आंबेडकर के मिशन की यात्रा कैसे पूरी कर पायेगा ?

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संवैधानिक सामाजिक न्याय विरोधी बीजेपी सरकार के चाल-चरित्र की एक और बानगी- नन्द लाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)

N.L.Verma
पिछड़े समाज के परिवार से आने और पिछड़ों की सरकार की बार-बार दुहाई देने वाले बीजेपी सरकार के प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने यूपी विधान सभा चुनाव की बडी रणनीति के तहत एक तरफ अपनी कैबिनेट में पिछड़े समाज से आने वाले 27 लोगों को मंत्री बनाकर ओबीसी का राजनैतिक रूप से परम् हितैषी साबित करने का खेल रचा गया  और दूसरी तरफ नीट (NEET) मेडिकल परीक्षा में ओबीसी के आल इंडिया कोटे के 27% आरक्षण को एक झटके में छीनकर सवर्णों को देने की साजिश और दूरदर्शिता को ओबीसी और उसके ओबीसी मंत्री अच्छी तरह नहीं समझ पा रहे हैं। इस निर्णय से लगभग ग्यारह हजार ओबीसी परीक्षार्थी आरक्षण से डॉक्टर बनने के अवसरों से वंचित हो जाएंगे।  गौर करने लायक है कि सरकार में लगभग सभी ओबीसी मंत्रियों के ऊपर एक सवर्ण मंत्री बैठाया गया है जिससे ओबीसी मंत्री संवैधानिक सामाजिक न्याय सिध्दांत के आरक्षण जैसे मुद्दों पर न तो बोल सके और न ही कार्य करने की हिम्मत जुटा सकें। ओबीसी को ओबीसी मंत्रियों के चेहरे दिखाकर आने वाले चुनाव में बीजेपी की उनके 52 % वोट बैंक पर कब्जा करने की रणनीति का एक अहम हिस्सा है।
         सामाजिक न्याय का एजेंडा लेकर पैदा हुए जो भी राजनैतिक दल आज बीजेपी सरकार का हिस्सा बने हुए हैं क्या वे सरकार में रहते हुए सामाजिक न्याय पर बोलने और कार्य करने की हिम्मत जुटा पाएंगे? यह एक बड़ा सवाल खड़ा होना स्वाभाविक है। बीजेपी सरकार के इस निर्णय से 27 ओबीसी लोगों को मंत्री बनाकर लगभग 52 % ओबीसी का हक मारा जाएगा और अपने अपने ओबीसी मंत्रियों का जलवा देखकर ओबीसी सड़क से लेकर विधानसभा-संसद तक खुश होता नजर आएगा। सामाजिक न्याय के एजेंडे पर काम करने की आवाज़ बुलंद करने वाले जो दल आज सत्ता और चुनाव के लालच में बीजेपी सरकार का हिस्सा बने हुए हैं उनकी स्थिति पेड़ काटने के लिए "लोहे की कुल्हाड़ी " में पड़े "लकड़ी के बेंट " जैसी ही है जो अन्ततः अपने परिवार के लिए घोर नुकसानदेह और विनाशकारी साबित होती है। यूपी में होने वाले विधानसभा चुनाव में जागरूक ओबीसी इन्हीं दलों से  मेडिकल आरक्षण खत्म होने और सवर्णों को 10 % आरक्षण पर जब सवाल करता हुआ पेश आएगा तो इन दलों के नेताओं के पास क्या जवाब होगा ? इस विषय पर  ओबीसी और दलित एजेंडा पर बने सभी दलों को अभी सचेत और एकजुट हो जाने की जरूरत है अन्यथा जागरण ओबीसी से बेइज़्ज़त होने के अलावा कोई दूसरा रास्ता नही दिखाई देता नज़र आएगा।अभी भी वक्त है कि अपनी सामाजिक और राजनैतिक जिम्मेदारी का बोध/अहसास करते हुए सामाजिक न्याय और किसान विरोधी पार्टी बीजेपी से जितना जल्दी हो सके राजनैतिक दूरी बनाने के निर्णय पर अविलंब विचार-आचार करें। यदि ये दल बीजेपी सरकार से अलग नही होते हैं तो ओबीसी के प्रति सबसे घातक सामाजिक और राजनैतिक अविश्वास माना जायेगा।
             यदि संविधान प्रदत्त बहुसंख्यक समाज के सामाजिक न्याय की सुरक्षा और सरंक्षण चाहते हैं तो ओबीसी और दलित कोर वोट बैंक वाले सभी दलों और समाज को अपने राजनैतिक दुराग्रह-विग्रह दरकिनार कर और सत्ता के शीर्ष बनने के अहम और महत्वाकांक्षा को त्यागकर चुनावी रणभूमि में एक साथ आना होगा अन्यथा बीजेपी और आरएसएस की आरक्षण और किसान विरोधी मानसिकता की सरकार को निकट भविष्य में हटाया जाना सम्भव नही होगा।
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चर्चा में झूठी-सुरेश सौरभ

(फिल्म समीक्षा)      एक मां के लिए उसका बेटा चाहे जैसा हो वह राजा बेटा ही होता है, बच्चे कच्ची मिट्टी की तरह होते हैं, जिन्हें हम अपने विचार...

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