साहित्य

  • जन की बात न दबेगी, न छिपेगी, अब छपेगी, लोकतंत्र के सच्चे सिपाही बनिए अपने लिए नहीं, अपने आने वाले कल के लिए, आपका अपना भविष्य जहाँ गर्व से कह सके आप थे तो हम हैं।
  • लखीमपुर-खीरी उ०प्र०

Saturday, June 05, 2021

लूडो: ‘किस्मत के खेल’ में तब्दील हुआ वो बच्चों का खेल

 "इस खेल की दीवानगी अब इस कदर है कि पिछले साल इस कंपनी की लूडो किंग गेम एप से होने वाली कमाई 145 करोड़ रू. थी। द मिंट’ में छपी एक रिपोर्ट बताती है कि पिछले कोरोना लाॅक डाउन में इस लूडो गेम को 10 करोड़ से अधिक लोगों ने डाउन लोड किया था दिसंबर 2020 तक यह संख्याल बढ़कर 50 करोड़ हो गई। अनुमान है कि इस साल के अंत तक आन लाइन गेमिंग का बाजार भारत में 730 अरब रू. से ज्यादा का हो जाएगा।"

अजय बोकिल


अफसोस कि संचार क्रांति के पहले के दौर में कभी बच्चों में सर्वाधिक लोकप्रिय खेल रहा लूडोअब बड़े पैमाने पर जुएं के खेल में बदल गया है। खासकर इसके डिजीटल वर्जन ने बच्चों के इस मनोरंजन को बड़े पैमाने पर गेम्बलिंग में तब्दील कर दिया है। मामला कितना बढ़ गया है, इस बात का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि हाल में बाॅम्बे हाइकोर्ट में दायरह एक याचिका में कहा गया है चूं‍कि लूडो गेम एक सामाजिक बुराई बन गया है, इसलिए कोर्ट इस मामले में तुरंत हस्तक्षेप करे। कोई कोर्ट ऐसे प्रकरण में किस प्रकार और क्यो हस्तक्षेप करेगा, समझना मुश्किल है, फिर भी हाईकोर्ट में महाराष्ट्र सरकार को नोटिस जरूर जारी किया है। इसके पहले यही मामला ‍मजिस्ट्रेट कोर्ट में गया था। तब ‍मजिस्ट्रेट  कोर्ट ने लूडो को कौशलका खेल मानते हुए इसके‍ ‍खिलाफ एफआईआर दर्ज करने से इंकार कर ‍िदया था। जो भी हो, इस पूरे मामले ने जहां आधी सदी पार कर चुके लोगों को अपने लूडोमयबचपन की याद दिला दी, वहीं यह नई बहस भी छेड़ दी है ‍कि क्या लूडो केवल एक कौशल व मनोरंजन का खेल ( जो कभी हुआ करता था) है या फिर यह वास्तव में जुआं ही है। हालांकि लूडो जिस दौर में बोर्ड पर खेला जाता था, तब भी कुछ फड़ों पर इसमें जुएं के दावं चले जाते थे, लेकिन अब डिजीटल लूडो गेम में तो ज्यादातर जुआं ही खेला जा रहा है, जिसकी वजह से गेम निर्माता कंपनी, एडमिन एजेंट और खिलाड़ी मालामाल हो रहे हैं। इस दृष्टि से यह एक जमाने में बचपन को रिझाने वाले दिलचस्प खेल की यह ट्रेजिडी है।

 

फिर कोर्ट की बात। यानी जो किसी जमाने में राज दरबार में द्युत के रूप में मौजूद था, वह अब न्याय की गुहार के लिए अदालत की चौखट पर है। बाॅम्बे हाइकोर्ट में राजनीतिक पार्टी मनसे के एक पदाधिकारी केशव मुले ने एक याचिका दायर कर कहा कि लूडो सुप्रीम ऐप पर लोग पैसे दांव पर लगा कर खेल रहे हैं। जो गेम्बलिंग प्रतिबंधक कानून की धारा 3, 4, और 5 के तहत आता है। इसलिए ऐप से जुड़े प्रबंधन के लोगों के खिलाफ कार्रवाई होनी चाहिए। याचिकाकर्ता के मुताबिक यह गेम चार लोग 5-5 रुपए का दांव पर लगा कर खेलते हैं। जीतने वाले को 17 रुपए मिलते हैं, जबकि ऐप चलाने वाले को 3 रुपए मिलते हैं। यह सामाजिक बुराई बड़ी तेजी से समाज में घर करती जा रही है। अदालत इसमें हस्तक्षेप करे। अब अदालत इसमें क्या और ‍कैसे हस्तक्षेप करेगी, करेगी भी या नहीं, यह देखने की बात है। लेकिन जो बहस का मुद्दा बन रहा है, वो ये कि लूडो कौशल का खेल या किस्मत का ? किस्मत का खेल मानने वालो का तर्क यह है कि लूडो का खेल ‍िगरने वाले पांसे के अंकों पर ‍िनर्भर करता है। और जब लोग पैसा दांव पर लगाते हैं तो यह कौशल का खेल न रहकर किस्मत का खेलहो जाता है। जुआं कानूनन अपराध है और इसके लिए सजा का प्रावधान है।

 

अलबत्ता यह खबर पढ़कर पहली नजर में खुशी इस बात की हुई कि मोबाइल युग शुरू होने के पूर्व के बचपन के अभिन्न साथीमाने जाने वाले लूडोऔर सांप सीढ़ीजैसे खेल अभी भी न सिर्फ जिंदा हैं, बल्कि ज्यादा लतियल तरीके से खेले जा रहे हैं। आज मोबाइल के साथ जीने वाले  बच्चे उन खेलों को कितना खेलते होंगे, यह जानने की जिज्ञासा इस हकीकत से चकित हुई कि बच्चों से ज्यादा आजकल बड़े ये खेल आॅन लाइन खेल रहे हैं और इसी बहाने जमकर जुआं खेला जा रहा है। बड़े पैमाने पर पैसे का लेन-देन हो रहा है। लूडो की यह लत पिछले हुए और इस साल जारी कोरोना लाॅक डाउन में कई गुना बढ़ गई है। घरो में कैद लोग इस तरह डिजीटल जुआं खेलकर मालामाल भी हो रहे हैं और लुट भी रहे हैं। लाॅक डाउन के दौरान हमारे सामा‍िजक व्यवहार में यह बड़ा, नकारात्मक लेकिन उल्लेखनीय बदलाव है। लूडोनाम से भले विदेशी लगता हो, लेकिन है मूलत: स्वदेशी ही। भारतीय संस्कृति पर गर्व करने के लिए यह काफी है, क्योंकि यह आधुनिक देशी खेल पुराने पचीसीका ही परिवर्तित रूप है। ये खेल भारत में प्राचीन काल से खेला जा रहा है। महाभारत में यह पाशके नाम से उल्लेखित है। तब यह कौडि़यों और शंखों से खेला जाता था। महाभारत का विनाशकारी महायुद्ध भी इसी जुएं का परिणाम था। इसी का थोड़ा बदला रूप चौपड़है, जो गांवों में आज भी खेला जाता है। कहते हैं कि यह खेल भारत से ही चीन गया। भारत में मुगल काल में भी यह काफी लोकप्रिय था। समय बिताने के लिए राजा महाराज और रईस चौपड़ की बाजियां लगाया करते थे। 1938 में एक अमेरिकी खिलौना कंपनी ने ट्रांसोग्राम नामक खेल बोर्ड गेमके रूप में भारत में भी लांच किया। लूडो में चार खिलाड़ी तक एक साथ खेल सकते हैं। इसमें चार खाने होने हैं और एक पांसे के हिसाब से गोटियां चली जाती हैं। जो सबसे पहले अपना चौखाना पूरा कर लेता है, वह विजेता होता है।

 

पिछले कुछ सालों में  संचार क्रांति के दौर में लूडो बच्चों की प्राथमिकता सूची में शायद नीचे चला गया था, वरना तीन दशक पहले तक ज्यादातर बच्चों की गर्मियों की छुट्टियां लूडो, सांप-सीढ़ी, ताश की बाजियां,  और अष्ट चंग पे जैसे खेल खेलते, आम चूसते और इमलियां फोड़ते-खाते, खेलते कूदते ही बीतती थीं। फोन वगैरह तो मध्येमवर्गीय घरों में भी सपने जैसा था। वो छुट्टियां बच्चो के लिए सचमुच छुट्टियों की तरह होती थीं। पूरी तरह तनाव और दबाव रहित। 

 

वही भूला ‍िबसरा लूडोगेम अब नए डिजीटल अवतार में टाइमपास मनोरंजन से ज्यादा पैसों पर दावं लगाने के खेल के रूप में समाज में अपनी पैठ बना रहा है। पांच साल पहले एक भारतीय कंपनी गेमेशन टैक्नोलाॅ‍जीस प्रा. लि.ने इसे लूडो किंगनाम से गेमिंग ऐप लांच किया। इस खेल की दीवानगी अब इस कदर है कि पिछले साल इस कंपनी की लूडो किंग गेम एप से होने वाली कमाई 145 करोड़ रू. थी। द मिंटमें छपी एक रिपोर्ट बताती है कि पिछले कोरोना लाॅक डाउन में इस लूडो गेम को 10 करोड़ से अधिक लोगों ने डाउन लोड किया था दिसंबर 2020 तक यह संख्याल बढ़कर 50 करोड़ हो गई। अनुमान है कि इस साल के अंत तक आॅन लाइन गेमिंग का बाजार भारत में 730 अरब रू. से ज्यादा का हो जाएगा। एक दृष्टि से यह भारत में मेक इन इंडियाका चमत्कार है और दूसरी दृष्टि से जब लाॅक डाउन में गरीबो के पेट पर लात पड़ रही है तब लूडो के नाम पर आॅन लाइन जुआं खेलने वालों की चांदी हो रही है। जो कमा रहे या गवां भी रहे हैं, वो इसके ‍लतियल होते जा रहे हैं। यह नई तरह की सट्टेबाजी है और यही  बड़ी चिंता की बात है। इसमें कोर्ट ज्यादा कुछ नहीं कर पाएगी। समाज को ही इस खेल को बुरी लत में बदलने से रोकना होगा। मनोरंजन और कौशल के खेल को किस्मत के खेलमें तब्दील होने पर लगाम लगानी होगी। क्योंकि देश और समाज पुरूषार्थ और कौशल से चलते हैं, ‘किस्मतके भरोसे नहीं चलते। 

 (लेखक दैनिक सुबह सवेरे के वरिष्ठ संपादक हैं  मो-98936 99939

( ‘सुबह सवेरेमें दि. 5 जून 2021 को प्रकाशित)

लोकतंत्र को ‘ठोकतंत्र’ में बदलने से बचाने वाला फैसला

 देशहित में एक विमर्श,{वरिष्ठ संपादक, सुबह-सवेरे (दैनिक)}

अजय बोकिल


देश की सर्वोच्च अदालत ने जाने-माने पत्रकार विनोद दुआ के खिलाफ राजद्रोह की प्राथमिकी  को खारिज कर न केवल दुआ बल्कि समूची पत्रकार बिरादरी को बड़ी राहत दी है। सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई की दौरान साफ कहा कि हर पत्रकार को कानूनी सुरक्षा प्राप्त करने का अधिकार है। हालांकि जस्टिस यूयू ललित और जस्टिस विनीत सरन की पीठ ने विनोद दुआ के उस अनुरोध को खारिज कर दिया, जिसमें उन्होंने कहा था कि जब तक एक समिति अनुमति नहीं दे देती, तब तक पत्रकारिता का 10 साल से अधिक का अनुभव रखने वाले किसी मीडियाकर्मी के खिलाफ कोई प्राथमिकी दर्ज न की जाए। सर्वोच्च अदालत का यह फैसला दो कारणों से अहम है। एक, पिछले कुछ सालों में असहमति के हर स्वर को राजद्रोह का रंग देने की कोशिश बड़े पैमाने पर हो रही है। दूसरे, ‘सरकार के विरोधको राष्ट्र के विरोधमें तब्दील करने का सुनियोजित प्रयत्न हो रहा है। ऐसे में उन पत्रकारों को भी लपेटने की कोशिश जारी है, जो घोषित तौर पर किसी एजेंडे का हिस्सा नहीं हैं और अपना पत्रकारीय कर्तव्य पूरी निष्ठा और सरकारी निगाहों की परवाह किए बगैर कर रहे हैं। यकीनन राजद्रोह बेहद गंभीर अपराध है, लेकिन जो सत्ता को न सुहाए, हर वो काम राजद्रोहहै, यह भी अस्वीकार्य है।

 

किसी जमाने में चख ले इंडियासे पूरे देश में चर्चित हुए पत्रकार विनोद दुआ आजकल यू ट्यूब पर शो चलाते हैं। उनके 30 मार्च 2020 को प्रसारित ऐसे ही एक शो को लेकर हिमाचल प्रदेश में एक स्थानीय भाजपा नेता अजय श्याम ने दुआ के खिलाफ शिमला जिले में राजद्रोह का मामला दर्ज कराया था। जिसके मुताबिक दुआ ने अपने यूट्यूब कार्यक्रम में प्रधानमंत्री पर आरोप लगाए थे कि उन्होंने वोट हासिल करने के लिए मौतों एवं आतंकी हमलोंका इस्तेमाल किया। इस टिप्पणी से सांप्रदायिक नफरत फैलकर शांति भंग हो सकती थी। दुआ के खिलाफ पुलिस ने भादसं की धारा 124, धारा 268 (सार्वजनिक उपद्रव), धारा 501 (अपमानजनक चीजें छापना) और धारा 505 के तहत मामला दर्ज किया था। दुआ इसके‍‍ खिलाफ कोर्ट में गए और उन्होंने सर्वोच्च अदालत से उनके खिलाफ दायर राजद्रोह की प्राथमिकी खारिज करने तथा इस मामले में एक कमेटी के मार्फत जांच के आदेश देने का अनुरोध किया था। सर्वोच्च अदालत ने अपने फैसले में दुआ के खिलाफ दर्ज एफआईआर रद्द करते हुए कहा कि प्रत्येक पत्रकार केदार नाथ सिंह मामले (जिसने भादवि की धारा 124ए के तहत राजद्रोह के अपराध के दायरे को परिभाषित किया था) के तहत सुरक्षा का हकदार है। अदालत ने कहा कि ऐसी धाराएं तभी लगाई जानी चाहिए, जब शांति बिगाड़ने की कोशिश हो। उल्लेखनीय है कि 1962 में केदार नाथ सिंह केसमें सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों की संविधान पीठ ने स्पष्ट किया था कि कथित राजद्रोही भाषण और अभिव्यक्ति के लिए व्यक्ति को तभी दंडित किया जा सकता है, जब वो भाषण उकसाने वाला’ ‘हिंसाया सार्वजनिक अव्यवस्थाके लिए नुकसान पहुंचाने वाला हो।

 

इसके पहले पत्रकार दुआ ने अपने बचाव में तर्क दिया था कि सरकार की आलोचना तब तक राजद्रोह नहीं है, जब तक वह हिंसा  भड़काने वाली नहीं हो। उन्होंने कहा कि अगर मैं प्रधानमंत्री की आलोचना करता हूं तो यह सरकार की आलोचनाके दायरे में नहीं आता। दुआ के वकील विकास सिंह ने सुप्रीम कोर्ट के 1962 के केदारनाथ मामले के फैसले का उल्लेख करते हुए कहा था कि एक नागरिक के नाते यह विनोद दुआ का अधिकार है कि वह सरकार के बारे में जो भी चाहें, उसे कह या लिख सकते हैं। सरकार की आलोचना या उस पर टिप्पणी कर सकते हैं। हालांकि यह आलोचना या टिप्पणी ऐसी होनी चाहिए कि उससे सरकार के खिलाफ किसी तरह की हिंसा न फैले।  सिंह ने दलील दी कि अगर हमारे प्रेस ( मीडिया) को स्वतंत्र रूप से कामकाज करने की अनुमति नहीं दी गई तो सच्चे अर्थों में हमारा लोकतंत्र खतरे में है।उन्होंने कहा कि दुआ को भारतीय दंड संहिता की धारा 505 (2) और 153ए के तहत लगाए गए आरोपों के लिए दोषी नहीं ठहराया जा सकता, क्योंकि उन्होंने पत्रकार के रूप में किसी धर्म, नस्ल, भाषा, क्षेत्रीय समूह या समुदाय के खिलाफ कुछ नहीं किया है।

 

यहां गौरतलब बात यह है कि सुप्रीम कोर्ट के जिस फैसले का हवाला अदालत में दिया गया है, वह 1962 का है। तब देश में ज्यादातर कांग्रेस सरकारें थीं। इसका अर्थ यह हुआ कि पत्रकारों के खिलाफ इस तरह के मामले चलाने की प्रवृत्ति नई नहीं है। लेकिन चिंता की बात यह है कि बीते 6 सालों में इस तरह के मामले बहुत ज्यादा बढ़े हैं। यानी किसी भी असहमति और‍ किसी एजेंडा विशेष विरोधी बात को राजद्रोह का ठप्पा लगाकर  मुकदमा दर्ज कर दिया जाता है। एक अध्ययन रिपोर्ट के मुताबिक विगत एक दशक में देश में राजद्रोह के कुल 10938 मामले दर्ज हुए, जिनमें से 65 प्रतिशत मामले 2014 के बाद के हैं। इनमें से ज्यादा किसी सरकार और राजनेता के खिलाफ की गई टिप्पणी को आधार बनाकर दर्ज किए गए हैं। देश में ऐसे सबसे ज्यादा मामले बिहार, यूपी, असम, कर्नाटक, झारखंड आदि राज्यों में दर्ज हुए हैं। हाल में आंध्र प्रदेश सरकार ने दो तेलुगू चैनलो के खिलाफ भी ऐसे ही मामले दर्ज‍ किए।

 

यहां सवाल उठता है कि आखिर राजद्रोह कानून है क्या और यह कितना गंभीर अपराध है? इस देश में राजद्रोह का कानून सबसे पहले अंग्रेज लेकर आए। भारतीय दण्ड संहिता ( आईपीसी) की धारा 124 ए में उल्लेखित राजद्रोह की परिभाषा के अनुसार अगर कोई व्यक्ति सरकार-विरोधी सामग्री लिखता या बोलता है, ऐसी सामग्री का समर्थन करता है, राष्ट्रीय चिन्हों का अपमान करने के साथ संविधान को नीचा दिखाने की कोशिश करता है तो उसके खिलाफ इस धारा में राजद्रोह का मामला दर्ज हो सकता है। अगर कोई शख्स देश विरोधी संगठन के खिलाफ अनजाने में भी संबंध रखता है या किसी भी प्रकार से सहयोग करता है तो वह भी राजद्रोह के दायरे में आता है। राजद्रोह गैर जमानती जुर्म है और दोषी पाए जाने पर व्यक्ति को तीन साल से लेकर आजीवन जेल तक हो सकती है। साथ ही उसका पासपोर्ट रद्द हो जाता है, वह सरकारी नौकरी से महरूम हो जाता है। इसी धारा के तहत अंग्रेजों ने लोकमान्य तिलक के खिलाफ मुकदमा चलाया तो स्वतंत्र भारत में फारवर्ड कम्युनिस्ट पार्टी के नेता केदारनाथ सिंह पर बिहार सरकार ने, कार्टूनिस्ट असीम ‍त्रिवेदी  पर महाराष्ट्र सरकार (2012) ने, केस चलाया । आजाद भारत में इस कानून को खत्म करने की बात कई बार उठी। लेकिन सत्ता में आते ही हर राजनीतिक पार्टी को यह कानून प्यारा लगने लगता है। मोदी सरकार ने भी ‍दो साल पहले संसद में साफ कर दिया था कि वह इस कानून को खत्म नहीं करेगी। क्योंकि राष्ट्र-विरोधी, पृथकतावादी और आतंकवादी तत्वों से प्रभावकारी ढंग से निपटने के लिए इस कानून की जरूरत है।

 

यकीनन राष्ट्रद्रोही गतिविधियों पर नकेल डालने के लिए सख्त कानून जरूरी है, लेकिन इसी के साथ यह सवाल भी अहम है कि कौन सा काम राष्ट्रविरोधी है और कौन सा सरकार विरोधी ? इसे पारिभाषित कौन करेगा? कोई एकसरकार तो राष्ट्रनहीं हो सकती। राष्ट्र की परिभाषा सरकार से बहुत बड़ी है। तो फिर   इसकी लक्ष्मण रेखा क्या है? राजनेता और सरकार की नजर में सच उजागर करने वाला और उसे कटघरे में खड़ा करने वाला कोई भी काम राजद्रोहहो सकता है। दरअसल यहां सच उजागर करने और सरकार को बेनकाब करने में महीन फर्क है। अभिव्यक्ति की आजादी यही कहती है कि जो सच है वह नि‍र्भीकता से सामने लाया जाए ( बशर्ते वो हमेशा एकतरफा न हो)। स्वस्थ पत्रकारिता से यही अपेक्षित है। लेकिन यही सच जब सरकारों के लिए मुश्किल खड़ी करता है तो उसे देशविरोधी करार देने की पूरी कोशिश होती है। व्यक्ति को राष्ट्र और राष्ट्र को व्यक्ति में बदलने का नरेटिव बनाया जाता है।  अभिव्यक्ति की आजादीपर इस अधिकार के दुरूपयोग का मास्क पहनाया जाता है। यह प्रवृत्ति तब ज्यादा प्रबल होती है, जब भीतर से स्वयं को असुरक्षित करने वाले सत्ताधीश बाहर और ज्यादा शक्तिशाली और निष्ठुर दिखने का प्रयास करते हैं। 

 

यह हमने स्व. इंदिरा गांधी के जमाने में भी देखा और आज भी देख रहे हैं। शायद इसीलिए सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस मदन लोकुर को कहना पड़ा कि सरकार बोलने की आजादी पर अंकुश लगाने के लिए राजद्रोह कानून का सहारा ले रही है। यानी मूल मुद्दा इस कानून की मनमाफिक व्याख्या का है। शायद यही कारण है कि राजद्रोह के अधिकांश मामले कोर्ट में नहीं टिके। इस कानून के तहत सजा का प्रतिशत बहुत ही कम है। यानी सरकारें इस कानून का प्रयोग लक्षित व्यक्ति या संगठनों को प्रताड़ित करने के लिए ज्यादा कर रही है। 

 

अभी दो दिन पहले ही आंध्र प्रदेश की जगन्मोहन रेड्डी सरकार द्वारा दो तेलुगू चैनलों के खिलाफ दायर राजद्रोह के मामले की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि  मीडिया के संदर्भ में राजद्रोह कानून की सीमाएं तय करने की जरूरत है। कोर्ट ने कहा ‍कि वह अभिव्यक्ति की आजादी और मीडिया के अधिकारों के संदर्भ में राजद्रोह कानून की व्याख्या की समीक्षा करेगा। कोर्ट की समीक्षा पर सबकी निगाह रहेगी। फिलहाल तो कोर्ट के इस फैसले से समूचे मीडिया जगत को राहत मिली है। क्योंकि जाग्रत मीडिया इस देश में जिंदा रहने की जमानत है और इसलिए भी कि देश में लोकतंत्र को ठोकतंत्र में बदलने से रोकने के लिए (कुछ गलतियों के बावजूद)  यह निहायत जरूरी है।

(लेखक दैनिक सुबह सवेरे के वरिष्ठ संपादक हैं  मो-98936 99939

पर्यावरण दिवस

पर्यावरण दिवस पर विशेष

 कई बार कह चुका हूँ मित्रों

मैं अपने संदेश में ।

आज प्लास्टिक पनप रही है

खतरा बनकर देश में ।।

 

झील सरोवर नदी ताल

झरने सागर हैरान हैं ।

इसके कब्जे में वन उपवन

खेत और खलियान हैं ।।

 

उपजाऊ को बंजर करना

इसका एक स्वभाव है ।

खाने पीने की चीजों पर

पड़ता बुरा प्रभाव है ।।

 

सख्ती आज नजर आई है

सरकारी आदेश में ।

आज प्लास्टिक पनप रही है

खतरा बनकर देश में ।।

 

पॉलीथिन के थैलों में जो

चीजें फेकी जातीं हैं ।

खाकर उनको जाने कितनी

गायें जान गंवातीं हैं ।।

 

पशु पक्षी और जीव जन्तुओं

पर पड़ता है बुरा असर ।

पर्यावरण प्रदूषित करता

नहीं छोड़ता कोई कसर ।।

 

महापुरुष भी बतलाते हैं

बात यही उपदेश में ।

आज प्लास्टिक पनप रही है

खतरा बनकर देश में ।।

 

जाने क्या मजबूरी है और

जाने क्या लाचारी है ।

जाने क्यों ये खतरनाक

पॉलीथिन सबपर भाारी है ।।

 

स्वार्थ त्याग कर पॉलीथिन का

बंद करें उपयोग हम ।

जूट और कपड़ों के थैलों

का ही करें प्रयोग हम ।।

 

पर्यावरण बेचैन ना हो

अब पॉलीथिन के केश में ।

आज प्लास्टिक पनप रही है

खतरा बनकर देश में ।।

 


श्याम किशोर बेचैन

9125888207

श्यामकिशोर बेचैन की बाल-कवितायेँ


Friday, June 04, 2021

आरएसएस नियंत्रित बीजेपी सरकार में ओबीसी के वेलफेयर की उम्मीद/कल्पना करना सबसे बड़ी भूल:

एक विमर्श  वंचित समाज के लिए
नन्द लाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर) 


             ज ओबीसी से संबंधित सोशल मीडिया/साइट्स पर एक ख़बर काफी तेजी से प्रचारित हो रही है। खबर यह है कि बीजेपी के यूपी पिछड़ा वर्ग प्रकोष्ठ के अध्यक्ष और सीतापुर लोकसभा मा.सांसद श्री राजेश वर्मा को संसद की "ओबीसी वेलफेयर संबंधी संसदीय समिति " का अध्यक्ष नियुक्त किया गया है,इस पद को राज्यमंत्री स्तर का दर्जा प्राप्त है।ओबीसी विशेषकर कुर्मी/पटेल समाज के राष्ट्रीय और राज्य स्तरीय सामाजिक संगठनों से भरपूर बधाईयों और शुभकामनाओं का अनवरत सिलसिला जारी है।ज़ारी भी रहना चाहिए,क्योंकि ओबीसी में कुर्मी/पटेल समाज की अपनी एक महत्वपूर्ण व निर्णायक जनसंख्या और राजनैतिक शक्ति और भागीदारी रही है।हमारी तरफ से हार्दिक बधाईयां और शुभकामनाएं इसलिये विशेष हो जाती हैं,क्योंकि श्री राजेश वर्मा हमारे जनपद खीरी से लगे जनपद सीतापुर के रहने वाले हैं और वहीं से बीजेपी से दोबारा सांसद चुने गए हैं और बीजेपी के उत्तर प्रदेश पिछड़ा वर्ग प्रकोष्ठ के प्रांतीय अध्यक्ष भी हैं।इससे पूर्व वह बीएसपी से सांसद रहे हैं। 

इस संसदीय समिति का गठन इस उद्देश्य से है कि वह समय-समय पर देश के ओबीसी की सामाजिक और शैक्षणिक स्थिति का आकलन और मूल्यांकन करना और बदले हुए परिवेश में उनके अपेक्षित कल्याण के लिए सरकार को सिफारिश करना।श्री राजेश वर्मा से पहले इसी संसदीय समिति के चेयरमैन बीजेपी के वरिष्ठ सांसद (2004 से अनवरत चौथी बार सांसद) श्री गणेश सिंह पटेल (मध्यप्रदेश की सतना लोकसभा सीट) थे जिनका कार्यकाल संभवतःवर्ष 2020 समाप्त होने से कुछ समय पूर्व खत्म हो गया था।यहां यह उल्लेख करना और याद दिलाना बहुत जरूरी है कि श्री गणेश सिंह पटेल ने अपने कार्यकाल में ओबीसी की क्रीमी लेयर की नौकरियों और शिक्षण संस्थाओं के प्रवेश में आरक्षण के लिए संशोधित औसत वार्षिक आय सीमा आठ लाख रुपये से बढ़ाकर पंद्रह लाख रुपए की सिफारिश की थी और यह भी उल्लेख किया था कि इस "औसत वार्षिक आय सीमा" की गणना (कैल्कुलेशन) में अभ्यर्थी के माता-पिता की "कृषि और वेतन" से होने वाली आय शामिल नहीं की जाएगी जैसा कि 1992 में बना क्रीमी लेयर नियम जो 1993 से लागू हुआ,की आय सीमा तय करते समय मूल विशेषज्ञ समिति ने सिफारिश की थी।श्री गणेश सिंह जी की अन्य सिफारिशों के साथ यह सिफारिश कई महीने सरकारी पटल पर पेंडिंग में पड़ी रहीं और बीपी शर्मा(सेवानिवृत्त आईएएस) की अध्यक्षता में गठित डीओपीटी की समिति की क्रीमी लेयर की सिफारिश (औसत वार्षिक आय ₹12लाख जिसकी गणना में कृषि और वेतन से होनी वाली आय शामिल की गई थी) मानकर ओबीसी के बहुत से बच्चों को क्रीमी लेयर में शामिल होने की वजह से आरक्षण की परिधि से आज भी बाहर किया जा रहा है।बहुत से अभ्यर्थी आज भी न्यायिक प्रक्रिया से जूझ रहे हैं। श्री गणेश सिंह पटेल द्वारा बार- बार याद दिलाने के बावजूद जब उनकी सिफारिशों पर संसद या सरकार के पटल पर चर्चा तक नही हुई तो उन्होंने संसद के सभी 112 ओबीसी सांसदों को एक खुला आमंत्रण पत्र प्रेषित कर यह अनुरोध किया था कि इस विषय पर सभी ओबीसी सांसदों को दलगत राजनीति से ऊपर उठकर मा. प्रधानमंत्री जी और गृहमंत्री को इन सिफारिशों को लागू करने के लिए पत्र लिखकर या ट्वीट करके, क्रीमीलेयर के माध्यम से नौकरीपेशा और किसानों को आरक्षण से लगभग बाहर करने की कोशिश का कड़ा विरोध करें।इस खुले पत्र के बाद चुनिंदा गैर बीजेपी सांसदों ने तो पीएम को पत्र लिखा।किंतु बीजेपी सरकार में शामिल सभी दलों के ओबीसी सांसदों को सांप सूंघ गया था।बीजेपी के जो ओबीसी सांसद इस समिति के सदस्य थे, वे भी उनके इस आमंत्रण पत्र पर अदृश्य राजनैतिक भयवश मौन व्रत धारण कर कन्नी काटते रहे। जनपद खीरी के गोला गोकर्णनाथ निवासी यूपी से समाजवादी पार्टी के तत्कालीन राज्यसभा सांसद श्री रवि प्रकाश वर्मा जी ने पीएम को इस संदर्भ में पत्र लिखकर जिस तत्परता, जीवंत सामाजिक चेतना और गौरव का परिचय दिया था,उसके लिए जनपद खीरी के ओबीसी संगठनों को उनके प्रति कृतज्ञता भाव से धन्यवाद। सामाजिक दिशा में उनके द्वारा की गई इस पहल/ प्रयास के लिए ओबीसी उन्हें सदैव सम्मान के साथ याद करता रहेगा श्री गणेश सिंह जी ने बीजेपी से सांसद होने के बावजूद ओबीसी के कल्याण की दिशा में वर्गीय चेतना से ओतप्रोत जो साहसिक कदम उठाया था, उसकी प्रशंसा या सपोर्ट में ओबीसी विशेषकर कुर्मी/पटेल समाज के विविध समूहों मंव इतनी चेतना,जोर-शोर और दमख़म और सभी ओबीसी सांसदों के प्रति आक्रोश नही दिखा था जितना आज नवनियुक्त अध्यक्ष की ताजपोशी पर दिख रहा है। धर्म की राजनीति के नशे में डूबा ओबीसी यह नही समझ पा रहा कि किस साज़िश से बीजेपी सरकार द्वारा व्यवस्था में परिवर्तन कर अप्रत्यक्ष तरीकों से उसके आरक्षण के प्रभाव को कैसे धीरे धीरे खत्म किया जा रहा है और दूसरी तरफ देश के 15% सामान्य वर्ग के निर्धन लोगों(ईडब्ल्यूएस) को संविधान संशोधन के माध्यम से 10% आरक्षण दिया जा रहा है? 

 दरअसल,ओबीसी में इतिहास पर गौर कर सीखने की आदत नही है।यदि ओबीसी को श्री गणेश सिंह पटेल के संघर्ष और योगदान और आरएसएस संचालित बीजेपी सरकार की सामाजिक और राजनैतिक संस्कृति की सही जानकारी होती तो नवनियुक्ति पर इतना जश्न जैसा माहौल नही दिखता! मूलतः सामाजिक विचारक और मंडल आंदोलन से जुड़े श्री गणेश सिंह पटेल के सामाजिक दिशा में किये गए योगदान/ऋण के लिए वे ओबीसी में सदैव सम्मान से याद किये जायेंगे।उनके कार्यकाल की सिफारिशें आज भी भारत सरकार के दफ्तर में धूल फांक रही हैं और इन सिफारिशों के लागू न होने के कारण ओबीसी के बहुत से बच्चे आरक्षण का लाभ न मिलने से आईएएस, आईपीएस और पीसीएस बनने से वंचित होकर उससे कमतर पदों पर चयनित होने के लिए बाध्य किये जा रहे हैं।

अपने अब तक के लोकसभा सांसद के कार्यकाल में गणेश सिंह पटेल ने ओबीसी के मुद्दों को हमेशा प्रमुखता और प्रखरता प्रदान की है। इसी वजह से उन्हें ओबीसी कल्याण की संसदीय समिति का अध्यक्ष बनाया गया था और इस नाते उनका जो सामाजिक-राजनैतिक कद बढ़ा, उसका सही इस्तेमाल करते हुए उन्होंने ओबीसी क्रीमीलेयर के नियमों में होने जा रहे अपनी ही सरकार के खतरनाक बदलावों का विरोध तो किया ही, साथ ही उसे राष्ट्रीय मुद्दा भी बना दिया।" 

आज स्थिति यह है कि क्रीमीलेयर में संशोधन की सिफारिश करने वाली डीओपीटी कमेटी के चेयरमैन बीपी शर्मा देशभर में ओबीसी तबके के बीच खलनायक बन चुके हैं और अब सरकार भी उनकी सिफारिशों पर आगे बढ़ने से पहले पुनर्विचार करती दिख रही है जैसा कि गृहमंत्री अमित शाह ने संकेत दिया है।अगर ओबीसी के लिए यह बात कुछ मायने रखती है तो इसका पूरा श्रेय समाजवादी पृष्ठभूमि और मंडल आयोग के प्रबल समर्थक सांसद गणेश सिंह पटेल को ही जाता है। 

सांसद श्री राजेश वर्मा को उसी संसदीय समिति का चेयरमैन बनाया गया है।ओबीसी के सभी सोशल साइट्स/मीडिया से मेरा अनुरोध है कि वे नवनियुक्त चेयरमैन को भरपूर मात्रा में और लंबे समय तक हार्दिक बधाईयां और शुभकामनाएं प्रेषित करने के साथ सोशल साइट्स/मीडिया के माध्यम से श्री गणेश सिंह जी के कार्यकाल की ठंडे बस्ते में पड़ी क्रीमी लेयर की सिफारिश को तत्काल लागू कराने की समय-समय पर याद दिलाते रहे और पूर्णसम्मान के साथ सामाजिक और राजनैतिक दबाव भी बनाते रहें जिससे हमारे ओबीसी के बच्चों का भविष्य अंधकारमय होने से बच सके।यही हमारी सामाजिक और राजनैतिक चेतना की परिचायक भी होगी।

श्री राजेश वर्मा जी को ओबीसी के समस्त सामाजिक और राजनैतिक संगठनों की ओर से इस अनुरोध के साथ एक बार पुनः बधाईयां और शुभकामनाएं कि ओबीसी की क्रीमी लेयर से संबंधित सिफारिश को यथाशीघ्र लागू करवाने में भरसक प्रयास करें जिससे हमारे समाज के बच्चे कमतर पदों पर जाने की मजबूरी से बच सकें। 

 
लखीमपुर-खीरी (यूपी) 9415461224,8858656000

सुरेश सौरभ की बाल-कवितायेँ


 1 पापड़ वाला

-सुरेश सौरभ
 पापड़ ले लो पापड़ ले लो!

कुर्रम-कुर्रम पापड़ हैं

नरम-नरम पापड़ है

मुँह में रखो झटपट गायब

ऐसा बढ़िया पापड़ है।

 

2 गौरैया

 यह प्यारी गौरैया है

दाना-चुग्गा खाती है

बच्चों को खिलाती है

यह बड़ी चिलबिल्ली है

देखी इसने दिल्ली है

जैसे घर की गैया है

वैसे प्यारी गौरैया है।

 

 3 कौवे जी

 कौवे जी ओ! कौवे जी

काँव-काँव कनफोड़ू जी

तुमने इतने क्यों काले हो

क्रीम लगाओ,पाउडर लगाओ

हो जाओ तुम गोरे जी।

 

4 टिंकू भाई

 इधर दौड़ना उधर दौड़ना

फिर सीढ़ी छू वापस आना

टॉफी खाकर मुँह चिढ़ाना

सीटी वाला बाजा बजाना

काम न इनका कोई भाई

नाम है इनका टिंकू भाई।

 

  5 टकला

 कितना प्यारा टकला है

कितना चिकना टकला है

मन करता है इसपे फिसलूँ

मन करता है इसपे उछलूँ

मन करता है इसपे कुदूँ

इतना उछलूँ इतना कुदूँ

इतना उछलूँ इतना कुदूँ

बस आसमान को छू लूँ।

 

6  मोबाइल

 यह शैतान का बच्चा है

हरदम पापा के संग रहता है।

पापा इसको खूब झुलाते

दूर-दूर की सैर कराते

मुझको तनिक न भाता है

मोबाइल यह कहलाता है।

 

 7 तोंद

 बुलडोजर सी चलती है

हरदम खाती रहती है।

काम न कोई करती है

यह तोंद बड़ी निठल्ली है।

 

 8 नानी अम्मा

 नानी अम्मा आयेंगी

चिज्जी-विज्जी लायेंगी।

गौरी को खिलायेंगी

गौरी ऊधम मचायेगी।

नानी उसे दुलरायेंगी

झूला खूब झूलायेंगी।

सुरेश सौरभ

मो0-निर्मल नगर लखीमपुर-खीरी उ0 प्र0

पिन-262701 मो-7376236066

तोता

श्याम किशोर बेचैन

हरा  बदन  है मुख  है लाल |

घर है उसका पेड़ की डाल ||

 

पिंजरे  मे  जब   होता  है  |

मन  ही  मन  में  रोता  है ||

 

मीठा  तीखा  उसे  पसंद |

उसको ना  भाए प्रतिबंध ||

 

है  सुकदेव  का वंशज वो |

बिन किताब पढ़ता है जो ||

 

शब्द  शब्द  दोहराता  है |

सबके  मन को  भाता है ||


ग़ज़ल ( देवेन्द्र कश्यप 'निडर')


देवेन्द्र कश्यप 'निडर'


हाय ! कैसे दिन  यहाँ  पर आ गये ।

झूठ  के  जलवे  यहाँ  पर छा गये ।।

 

कल तलक  जो थे  बड़े भोले भले ।

बेंच  कर औकात  अपनी खा गये ।।

 

हाथ  जोड़े   जो   खड़े   थे  नाटकी ।

अब कड़क तेवर बदल कर ला गये ।।

 

कल शपथ ली आम जनता के लिए ।

आज  जनता की कमी को गा गये ।।

 

थे  छपे  अखबार   में   कर्मठ  कभी ।

अब करोड़ों के लिए  बिक  धा गये ।।

 

जो   लफंगें   थे    कभी   नेता   बने ।

सभ्यता  का  ताज  अब  वे पा गये ।।

 

छानते  थे  खाक   गाँवों  में  'निडर'

शहर  के  घर आज उनको भा गये ।।

ग्राम अल्लीपुर पत्रालय कुर्सी तहसील सिधौली 

जिला सीतापुर, पिन कोड – 261303

मेरी अभिकामना

"है मेरी अभिकमना, इस ब्लॉग पर यह 100 वीं रचना है,  कम समय में रचनाओं का शतक पूरा कर लिया गया यह हमारे लिए हर्ष का विषय है. ब्लॉग 2014 से संचालित हैं जिस पर इक्का-दुक्का मेरे स्वंय की रचनाएँ ही प्रकाशित होती थीं जिले के नामचीन साहित्यकार सुरेश सौरभ के सुझाव से मई के अंतिम सप्ताह से अब यह ब्लॉग मेरा व्यक्तिगत न रहकर ऑनलाइन दुनिया में संपादन/प्रकाशन पर एक शोध के लिए आप सभी साहित्यकार मित्रों के लिये पटल का रूप ले लिया है. बहुत अधिक रचनाएँ प्राप्त होने लगी हैं. हम गौरान्वित हैं कि हमारा जिला भी साहित्य के क्षेत्र में अग्रणी है और इसे साहित्य के दुनिया में और आगे ले जाना है."
-संपादक/उपसंपादक
है मेरी अभिकामना

मैं ज़िन्दगी का सार पा लूँ,

नीरजा विष्णु 'नीरू'

टूटकर, गिरकर, बिखरकर

एक नया आकार पा लूँ।

 

है मेरी अभिकामना

मैं ज़िन्दगी का सार पा लूँ।

 

कंटकों से बैर कैसा ?

प्रेम क्या मुझको सुमन से ?

पथ मेरा ऐसा हो जिसपे

चलके मैं संस्कार पा लूँ।

 

है मेरी अभिकामना

मैं ज़िन्दगी का सार पा लूँ।

 

जीत का लालच नही है

हार का भय भी नही,

हो वही परिणाम जिससे

कर्म का आधार पा लूँ।

 

है मेरी अभिकामना

मैं ज़िन्दगी का सार पा लूँ।

 

मित्रवत मुझसे मिलें सब

शत्रुता जैसा न कुछ हो,

प्रेम हो चारों तरफ

ऐसा सुखद संसार पा लूँ।

 

है मेरी अभिकामना

मैं ज़िन्दगी का सार पा लूँ।

 

भावनाओं के भंवर में

बह न जाये नाव मेरी

हो न कोई शेष तृष्णा

तृप्ति की पतवार पा लूँ।

 

है मेरी अभिकामना

मैं ज़िन्दगी का सार पा लूँ।

Email: neerusolanki1090@gmail.com

ग्राम व पोस्ट: भीखमपुर जनपद: लखीमपुर खीरी

(उत्तर प्रदेश) पिन कोड:262805

Thursday, June 03, 2021

कोरोना काल की, त्रासदियों की लघुकथाएँ आमंत्रित

साहित्यिक आमंत्रण

 साहित्यकार समाज का सजग प्रहरी होता है। समय की धारा को अपनी लेखनी से लिपबिद्ध करता चले, यह उसका दायित्व भी होता है। दरबारी भांड,चारण, रीतकालीन जैसे लेखक हमेशा रहें हैं और हमेशा रहेंगे। नीर-क्षीर ढंग से अपनी बात कहना ही हमारा लेखकीय कर्म होना चाहिए, इस संग्रह में ऐसे ही रचनाकारों का हृदय से स्वागत है।

अपनी दो या तीन लघुकथाएँ नीचे लिखी हमारी मेल पर वर्ड फाइल में भेजें (चित्र नहीं)

पुस्तक का प्रकाशन राष्ट्रीय स्तर पर, दिल्ली का शीर्ष प्रकाशन करेगा, जो अमेजॉन और फ्लिपकार्ड पर उपलब्ध रहेगी। रचनाएँ चयनित होने पर, ईबुक और पीडीएफ लेखकों को निःशुल्क मिलेगी, चाहे तो हार्ड कापी 30% छूट के साथ खरीद सकते हैं। लघुकथाएं लगभग तीन सौ से पांच सौ शब्दों की बेहतर रहेंगी।

 

 विशेष- लघुकथाएँ भेजने की अंतिम तिथि 20 जून 2021

 

 संपादक-सुरेश सौरभ

  मो-7376236066

Email-sureshsaurabhlmp@gmail.com

ग़ज़ल (अरविन्द असर)

 

अरविन्द असर


कैसे बताऊं बात कि हालात हैं बुरे,

दिन बन गया है रात कि हालात हैं बुरे।

 

श्मशान, अस्पताल में लाशों के ढेर हैं,

रोकें ये वारदात कि हालात हैं बुरे।

 

कैसा ये दौर है कि करोड़ों को आजकल,

दूभर है दाल- भात कि हालात हैं बुरे।

 

इस सोच में हूं गुम कि चलूं कौन सी मैं चाल,

है हर क़दम पे मात कि हालात हैं बुरे।

 

गैरों की छोड़िए कि अब अपने भी इन दिनों,

देते नहीं हैं साथ कि हालात हैं बुरे।

 

हम डाल -डाल बचने की कोशिश में हैं, मगर

है रोग पात- पात कि हालात हैं बुरे।

 

बचना है गर तुम्हें तो "असर " इस निजाम पर,

जमकर चलाओ लात कि हालात हैं बुरे।

 

 

D-2/10 ,रेडियो कालोनी, किंग्स्वे कैम्प दिल्ली-110009

Ph no.9871329522,8700678915

पढ़िये आज की रचना

चर्चा में झूठी-सुरेश सौरभ

(फिल्म समीक्षा)      एक मां के लिए उसका बेटा चाहे जैसा हो वह राजा बेटा ही होता है, बच्चे कच्ची मिट्टी की तरह होते हैं, जिन्हें हम अपने विचार...

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