साहित्य

  • जन की बात न दबेगी, न छिपेगी, अब छपेगी, लोकतंत्र के सच्चे सिपाही बनिए अपने लिए नहीं, अपने आने वाले कल के लिए, आपका अपना भविष्य जहाँ गर्व से कह सके आप थे तो हम हैं।
  • लखीमपुर-खीरी उ०प्र०

Sunday, December 22, 2019

असल मुद्दे बनाम सीएबी, सीएए और एनआरसी


असल मुद्दे बनाम सीएबी, सीएए और एनआरसी

-अखिलेश कुमार ‘अरुण’
Image result for nrcसाथियों बहुत दिनों के बाद लेखनी को हाथ लगाया है. पिछले साल दो साल से लेखन कर्म से विरत रहा हूँ. जिसके ढेर सारे कारण थे उनका उल्लेख करना आवश्यक जान नहीं पड़ता है. किन्तु अब हमें हमारा लेखकीय धर्म धिक्कार रहा है अब और नहीं.........देश विषम परिस्थियों से गुजर रहा है. विद्वान् साथियों की राय-मशविरा को कोई स्वीकारने वाला नहीं है. फेसबूकिया, व्हाट्सएप्प युनिवर्सिटियों के ज्ञानियों की भरमार हो चली है. उनके ज्ञान पर खीझ भी आती है और गुस्सा भी. जो किताबों को देखकर ही नाक-भौं सिकोड़ते हैं वह भी अपने लेखन की सत्यता के रिफरेन्स के लिए किताबों लम्बी-चौड़ी लिस्ट उदाहरण के तौर पर चिपका देते है. ऐसा जान पड़ता है कि हमने अब तक जो भी पढ़ा-लिखा है वह सब व्यर्थ गया. ऐसी पढाई-लिखाई किस काम की जहाँ पर अधूरी जानकारी ही, दी जाती रही है.
Image result for berojgariअब आते हैं हम अपने असल मुद्दे पर जहाँ एक तरफ हमारा देश बेरोजगारी, भुखमरी, शिक्षित बेरोजगारी, मंहगाई, व्यापारी वर्ग मंदी, कार्पोरेट घराना आदि सस्याओं से जूझ रहा है. देश की जीडीपी अन्तराष्ट्रीय स्तर पर औंधे मुहं लुढ़कते जा रही है. अपने देश के लोगों का भविष्य खतेरे में है. जनता त्राहिमाम् कर रही है. वहां देश की सत्तासीन सरकार CAB (सिटिजनशिप अमेंडमेंट बिल) NRC (नेशनल रजिस्टर फॉर सिटिजन) और CAA (सिटिजनशिप अमेंडमेंट एक्ट) को भुनाने में लगी हुई है. 
Image result for nrcजगह-जगह जनांदोलन उग्र रूप लेता जा रहा है. हठधर्मिता दोनों तरफ हाबी है जनता लागू नहीं होने देने के पक्ष में है और सरकार लागू करने के पक्ष में है. लोक प्रशासन जिसकी लाठी उसकी भैंस होकर रह गयी है. खूब लाठी-डंडे, आंसू गैस के गोले बरसाए जा रहे हैं. मेरे इस आर्टिकल लिखे जाने तक १७ लोग इस आन्दोलन की भेंट चढ़ चुके हैं. उपद्रवी अपने आस-पास के लोगों को आन्दोलन की आंड़ लेकर क्षति पहुंचा रहे हैं दुकान, कार, टैम्पों खिडकियों-दरवाजे के शीशे तोड़े जा रहे हैं. पुलिस के भेष में उपद्रवी हेलमेट लगाये लाठी-डंडों से लैस अपने आकाओं के सह पर शांतिपूर्ण प्रदर्शनों को भड़काने का काम कर रहें हैं. लखनऊ में एक प्रदर्शनकारी के मरने पर जब उसका पोस्टमार्टम रिपोर्ट आता है तो उसमें 32 बोर की गोली मिलती है, इस तरह के कारतूश का प्रयोग उत्तर प्रदेश की पुलिस तो करती नहीं है तब यह गोली चलने वाला कौन था? शांतिपूर्ण प्रदर्शन जहाँ गुलाब के फूल लिए लोगों पर लाठियां भांजती पुलिस, Image result for kapil mishraकपिल मिश्रा के NRC और CAA समर्थक प्रदर्शन का स्वागत करती है जहाँ जोर-शोर से नारा लगाया जा रहा है, “देश के गद्दारों को गोली मारों शालों को” इसका उल्लेख करना यहाँ इसलिए आवश्यक बन पड़ता है कि प्रसाशन भी धर्म के नशे में चूर है. अगर ऐसा नहीं था तो क्या हुआ उन भारतीय दंड संहिता के धाराओं का, धारा 153 A- धर्म, जाति समुदाय के आधार पर शत्रुता भड़काने की कोशिश, धारा 295-लोगों में खौफ़ पैदा करना,  धारा 295A शांति भंग करना. और धारा 144. पुलिस क्यों मूक दर्शक बनी हुई थी इस भड़काऊ नारे के साथ दौड़ लगाती भीड़ पर. कहीं-कहीं पर सोशल मिडिया पर वायरल होती वीडियो में पुलिसकर्मी सरकारी सम्पतियों को तोड़-भोड़ रहे हैं, पेट्रोल डाल कर आग लगा रहे है. इसकी क्या जरुरत है पुलिसकर्मी ऐसा करने के लिए क्यों मजबूर हैं. उन्हें ऐसा करते हुए उनका ज़मीर उन्हें क्यों नहीं ललकारता, प्रशासन का भय क्यों नहीं है? या पुलिस पर उपरी आदेश है.
Image result for nrc ramchandra guhaनागरिकता संसोधन बिल के प्रोटेस्ट में जो नेता-अभिनेता, लेखक आ रहा है उसको प्रसाशन महत्त्व नहीं दे रहा है. विश्व प्रसिद्द इतिहासकार रामचंद्र गुहा केवल तख्ती लिए खड़े थे उनकी गिरफ़्तारी चर्चा का विषय बनी हुई है. सुशान्त सिंह सावधान इंडिया एपिसोड से इसलिए बाहर कर दिए जाते हैं कि वह इस बिल का समर्थन नहीं करते है. कंगना रानौत फ़िल्मी जगत पर तंज कसती हैं कि शीशे के सामने घंटो बस रूप निहारने में व्यस्त हैं देश के भूत-भविष्य से उनका कोई मतलब ही नहीं है.
पिछले तीन-चार दिनों से दैनिक जन-जीवन अस्त-व्यस्त है. स्कूल-कालेज और विश्वविद्यालय में  एक-एक दिन करके अघोषित छुट्टियों में साल के बचे-खुचे दिन बीते जा रहे हैं. सेमेस्टर परीक्षाओं का सेड्युल बिगड़ा जा रहा है. छात्रों पर देशद्रोही होने का आरोप लगाया जा रहा है. जो जहाँ मिल रहा है वहां दौड़ा-दौड़ा कर पीटा जा रहा है. एक वीडियो में साफ देखने को मिल रहा है की घर के अंदर से खींच कर पुलिस कुछ व्यक्तियों को वेतहाशा मारे जा रही है.
आखिर क्या खास है इसमें जिसको लागू करने के लिए सरकार पूरे मनोयोग से पिल पड़ी है. विद्वान वर्ग सरकार से सवाल करता है कि इस समय क्या जरुरत थी इस बिल की? यही सवाल अंजना ओम कश्यप के द्वारा इंटरव्यू में दिल्ली के मुख्यमंत्री कजरीवाल भी करते है. जिम्मेदारों को उत्तर देते न सूझता है, बस एक ही रट लगाये हैं चाहे जो भी कुछ हो जाये लागू करके रहेंगे. भारत लोकतान्त्रिक देश है अंग्रेजों का गुलाम नहीं जहाँ दमनकारी नीतियों का पालन किया जा रहा है. केंद्र और राज्य सरकारों ने देशद्रोह की परिभाषा को ही बदल कर रख दिया है उसकी नजर में सरकर की आलोचना करना ही देशद्रोह है. लोकतांत्रिक देश में पूर्ण बहुमत की सरकार ही उसका दुर्भाग्य है. विपक्ष का दबाब होता तो सत्ता के नशे में चूर सरकार पर अंकुश बना रहता. यह बिल इसलिए भी बुरा है क्योंकि वर्तमान परिवेश में इसका स्वरुप धार्मिक हो गया है संविधान की अंतरात्मा पर सवाल खड़ा करता है. भारतीय संविधान सभी धर्मों का सम्मान करता है परिणामतः यह धर्मनिरपेक्ष है अतः किस आधार पर अल्पसंख्यक समुदायों की पहचान करेगा. तथा उनको इस बिल के दायरे में लायेगा.
नागरिक संसोधन बिल पर बस इतना ही कहा जा सकता है कि इसका भी वही हर्ष होगा जो नोटबंदी, कालाधन, हर साल दो करोड़ रोजगार आदि का हुआ है. केंद्र सरकार अपने साढ़े पांच साल की शासन की असफलताओं को छिपाने के लिए देश के आम नागरिकों की भावनओं से खेल रही है. राहत इन्दौरी की रचना का उल्लेख किये बिना नहीं रह पाउँगा-
सरहदों पर बहुत तनाव है क्या?
कुछ पता करो चुनाव है क्या?
खौफ़ बिखरा है दोनों सम्तों में,
तीसरी सम्त का दबाव है क्या?
यह पंक्तिया अपने में बहुत कुछ संजोये हुए है. पूरी राजनीतिक परिद्रश्य का निचोड़ है. देश में जहाँ कहीं चुनाव होता है. कुछ न कुछ जरुर भुनाया जाने लगता है. बस अब देखना यह है की राजनीति के धुरंधर अपने को सत्ता में बनाये रखने के लिए देश को किस हद तक ले जाते है.
इन्कलाब जिंदाबाद              जय जन                जय भारत
-अखिलेश कुमार ‘अरुण’

Saturday, September 07, 2019

भारतीय सेना में जातिवाद और भ्रष्टाचार

-अखिलेश कुमार 'अरुण'


army के लिए इमेज परिणामभारतीय सेना में आये दिन सेना के जवान अब एक-एक करके न्याय के लिये विडियो वायरल करते जा रहे हैं, ये उनका पेषा नहीं है जब वे हद से ज्यादा परेषान हो जाते हैं तब ऐसा करते हैं। उनके में सेना के प्रति मान-सम्मान प्रेम और त्याग है। सेना की आन्तरिक गतिविधियों को सरकार और देष की जनता के सामने नहीं लाना चाहता क्योंकि उसे भय है भारतीय सेना की इज्जत और मान-सम्मान पर आँच आने का, इस प्रकार की शंका विडियो वायरल करने से पहले जवान जाहिर कर रहा है।
सेना की आन्तरिक गतिविधियों के चलते जवान इतना पीड़ित हो जाता है कि उसका हिम्मत जवाब दे जाता है। न्याय पाने के लिये वह किस कदर आँसू बहाता है यह तो आप सेना के जवान तेज बहादुर यादव और कमलेष कुमार जाधव गोकुल के वायरल विडियो को देखकर अंदाजा लगा सकते हैं। दोनों की समस्याओं में समानता है। एक सैनिकों के खाने को लेकर तो दूसरा छूआ-छूत, अपने जैसे और न जाने कितने सैनिको के साथ हो रहे भेद-भाव को लेकर, इसमें दोनों सैनिक अपनी समस्याओं से पीड़ित नहीं हैं बल्कि अपने जैसे न जाने कितने सैनिकों की समस्याओं को लेकर पीड़ित हैं। सैनिकों का मुख्य कत्र्तव्य देष की रक्षा करना है, उनका न कोई अपना धर्म-मजहब, समाज़, जाति होता है, जिस दिन वे सेना को ज्वाईनकर लेते हैं उसी दिन से उनका सब कुछ सेना ही हो जाता है, यहाँ तक कि परिवार भी और अपना सर्वस्व सेना के कृत्र्तव्यों का निर्वहन करते हुये, प्राणें की बाजी लगाकर देष के नाम कुर्बान कर देते हैं। लेकिन वे देष की रक्षा क्या करेगें जो खुद ही पीड़ित हों। किसी ने खूब लिखा है-
भूखे पेट भजन न होई गोपाला।
यह लेओ आपन कण्ठी-माला।।
army के लिए इमेज परिणाम
वास्तव में दोनों ही सैनिक भूखे हैं एक गुणवत्ता परक भोजन का और दूसरा अपने मान-सम्मान का, सैनिको में देष सुरक्षा की भावना के लिये इन दोनों का होना अति आवष्यक है। जहाँ अच्छा भोजन उन्हें पौरुषत्व देता है वहीं प्रेम से बोले गये दो शब्द जातिवाद से ऊपर मानवीयता का व्यवहार मानसिक रुप से शक्ति प्रदान करता है। कमलेष कुमार जैसे जवान देष की सेवा क्या खाक करेगें जिस देष के लोग उसे नीच जाति का समझते हों, सवर्ण सैनिक अधिकारी उसे जाति के नाम पर दुत्कारते हों किन्तु इतना सब होने के बाद भी वह सैनकि रो रो कर नयाय इसलिये मांग रहा हे कि वह देष की सेवा कर सके।एक जगह यह सैनिक अपने मान-सम्मान पर सवाल करते हुये दिख रहा है कि मुझे दुष्मन की गोली लगने का उतना दुःख नहीं होगा जितना कि इस समय जातिवाद के नाम पर अपतानित होने का दुःख है।
बीते कुछ दिन पूर्व सोषल साईट पर 26 राष्ट्रीय रायफल, अल्फा कम्पनी कुमाऊँ रेजीमेन्ट, जम्म्ूा एण्ड काष्मीर में तैनात एक जवान कमलेष कुमार जाधव गोकुल भाई, जूनागढ़ सोमनाथ गुजरात का निवासी है। इस जवान ने दो विडियो वायरल किये हैं एक-एक दिन के अन्तराल पर तथा भविष्य में विडियो न वायरल करने की भी बात कह रहा है। जवान के द्वारा विडियो वायरल किये जाने का मुख्य कारण डायनिंग हाल में खाना खाने को लेकर किया गया, जहाँ जवान को सबके साथ खाना इसलिये खाने से मना कर दिया जाता है कि वह अछूत जाति का शूद्र है, अपने साथ हुई घटना को लेकर अपने उच्च अधिकरी (शायद कोई शाहू जी हैं) के पास जाता है वह भी लताड़ कर इसलिए भगा देता है कि जवान अछूत है और उसके आने से महोदय का  निवास स्थान अपवित्र हो जाता है फिर खेल शुरु होता है मानसिक रुप से प्रताड़ित किये जाने का, भूखे-प्यासे रहकर जवान अपने ऊपर हो रहे जुल्मों को दो दिन तक सहन करता है। न्याय न मिल पाने की आष में सोषल साईट का सहारा लेता है औररो रो कर अपनी व्यथा माननीय प्रधनमंत्री मोदी जी को संबोधित करते हुये न्याय की गुहार सुश्री बहन कु0 मायावती जी से भी लगाता है। यह जातिवाद, छूआ-छूत का खेल आखिर कब तक चलता रहेगा। यह सवाल है सरकार से एक तरफ जहाँ वंचितों का मत पाने के लिये शूद्र राष्ट्रपति को चुनाव मैदान में उतारा जाता है वहीं आये दिन सरकारी विभागों, स्कूल-कालेजों, भरतीय सेंनाओं में छूआ-छूत का खेल अपने चरम पर है। यह अपने 21 वीं सदी का भारत मानवता का चादर कब ओढ़ेगा।
army food के लिए इमेज परिणामसैनिकों के साथ भेद-भाव होने की यह कोई पहला घटना नहीं है और न ही खराब खना मिलने की घटना केवलतेज बहादुर यादव सैनिक के साथ हुई थी। इस प्रकार की घटनायें सैनिकों के साथ आये दिन होती रहती हैं। कुछ सैनिक सेना की रूल एण्ड रेगुलेषन, उच्चाधिकारियों के दबाब, नोकरी जाने के डर से मुँह नहीं खोल पाते हैं। जैसे-तैसे अपनी नौकरी काल का निर्वहन करते रहते हैं और एक दिन पदमुक्त हो जाते हैं, बात जहाँ की तहाँ दब जाती है। इस लेख को लिखने का कारण केवल कमलेष कुमार जाधव का विडियो ही मेरे लिये एक मुख्य स्रोत नहीं है। मेरा भी एक मि़त्र एसएसबी का जवान है जो आये दिन प्रताड़ित किये जाने पर मुझसे अपनी बात रखता है। इस स्थिति में भारतीय आर्मी के जवान किस तन-मन के साथ देष की रक्षा करेगें।
सेना के उच्चाघिकारी अपने को किसी राजा से कम नहीं आंकते हैं। उनकी अपनी शानो-सौकत की बात ही निराली है। उनके खाने-पीने की व्यवस्था भी सामान्य सैनिकों से भिन्न होती है जिसकी मांग सिपाही.....एक मेस एक खाना की कर चुका है कि पता तो चले कि उनके खाने में और सैनिकों के खाने में कितनी समानता है। मेरे मत से यह माँग जायज भी तभी तो खाने की गुणवत्ता में सुधार आयेगा और सैनिकों के भोजन में भ्रष्टाचार के खेल पर पाबंदी लगाई जा सकेगी।
सैनिकों में जातिवाद के आधार पर उनके हौसले, जज्बा को प्राथमिकता दी जाती है, तो यह सबसे बड़ा दुर्भाग्य है अपने भारतीय सैन्य का, पहली बार अंग्रेज दबे-कुचले वंचितों की ताकत को पहचाना था। जिसने अपने सैन्य व्यवस्था और सरकारी तन्त्र में इनको शामिल किया और सैनिक ताकत और योग्यता के बल पर 200 सौ सालों तक भारत में राज किया। यही ताकत अगर भारतीय राज-रजवाड़े पहले पहचान गये होते तो देष कभी गुलाम ही नहीं हुआ होता। वीरता की कहानी इनकी भी लिखी जाती किन्तु दुर्भाग्य इनके सारे सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक अधिकारों पर पाबंदी लगा दी गयी थी जिसके कारण नेतृत्व के आभाव में कुर्बानी देते रहे और गुमनाम वीरों की श्रेंणी में शहीद होते रहे।
देष के आजाद होने के बाद भारतीय संविधान में इस आषय के नीति नियमों को उपबन्धित किया गया कि भारत में निवास करने वाले सभी जन विना भेद-भाव, छूआ-छूत, ऊँच-नीच के समान रुप से देष के विकास में सहयोग दे सकें यथा-
अनु0 15(2)-धर्म, मूलवंष, जाति, लिंग, जन्मस्थान आदि के आधार पर किसी नागरिक को विभेद का प्रतिषेध जोचार्टर एक्ट 1833 के सरकारी आदेष का मूलअंष है।
अनु0 16 लोकनियोजन के विषय में समान अवसर की समानता।
अनु0 17- अस्पृष्यता का अन्त।
उपरोक्त उपबन्धित भारतीय संविधान में अनुच्छेद सैनिको के सन्दर्भ में या अन्य जो भी इस प्रकार की घटनाओं के षिकार होते हैं उनके लिये यह एक मजाक बन कर रह गया है। अगर प्रताड़ना का यह क्रम निरन्तर यूँ ही चलता रहा तो वह दिन दूर नहीं जब सैनिक देष की रक्षा के लिये हथियार बाद में पहले अपने मान-सम्मान, आस्तित्व के लिये उठायेगा।

Monday, January 01, 2018

भोजपुरी लोक-समाज के गायक

भोजपुरी लोक-समाज के गायक- रविन्द्र कुमार 'राजू' के निधन से एगो भोजपुरी के निमन अध्याय क पटाक्षेप हो गईल। उनके निधन पर हम सब भोजपुरिया लोगिन साथे-साथे ऊ सबे दुःखी बा जे उनकर गीत-संगीत से असीम सुख के अनुभति करत रहल हा।
परसों की रात हमरा देर रात क नींद ना आवत रहे तब मोबाईल से हेडफोन लगा के एगो गीत बजवनी अउर पाँच-छः बेर से अधिका ले सुनते-सुनत सूत कईलीं, ऊ गीत कवन रहे जानताड़ीं जा-"ए बलम जी"।
हमके का मालूम रहे कि उ गीत उनका अन्तिम समय की बेला में सुनत तारीं, जेकरा निधन के सनेश हमरा फेसबुक पर, मसहूर गीतकार/संगीतकार-अशोक कुमार 'दीप' जी के फेसबुक वॉल से पता चलल। अचके एगो झटका लागल उनके करीब से हम ना जानत रहलीं हं बकीर उनकर गीत-गवनई से परिवार जइसन रिस्ता रहल ह। उनकरा गीत में समाज के दरद रहल ह। एगो नवही कनिया के दुख क सुन्दर प्रस्तुति " ए बलम जी.........!" त परिवारिक प्रेम और त्याग क साक्षात दर्शन "खेत बारी बटीं जाई वीरना......।
अश्रुपूर्ण भावभीनी श्रध्दाजंलि।
गीतकार/साहित्यकार-अखिलेश कुमार अरुण

Friday, September 01, 2017

महात्मा ज्योतिबा फुले -अखिलेश कुमार अरुण

ज्योतिराव फुले पुण्यतिथि: दलित उत्थान के महात्मा, समाज के लिए किये अनेक  कार्य | NewsTrack
दलित समाज के प्रथम शिक्षक महात्मा ज्योतिबा फुले जी के जीवन का संक्षिप्त इतिहास
जन्म- 11 अप्रैल सन् 1827,पुणे मुम्बई
माता-पिता- चिमड़ाबाई,गोबिन्दराव
माता के बचपन में निधन हो जाने के बाद इनका लालन-पालन पिता की मौसेरी बहन सगुणाबाई ने किया।
14 वर्ष की उम्र में इनका विवाह सावित्रीबाई (8 वर्ष) के साथ सम्पन्न करा दिया गया।
काशीबाई विधवा स्त्री के अवैध संतान को गोद लिया था जिसका नाम यशवंत राव था।
शस्त्र की शिक्षा लाहुजी भाऊ से प्राप्त किया साथ में दो और छात्र थे-बाल गंगाधर तिलक,बलवंत फड़के
14 जनवरी 1848 को भिड़ के मकान में बालिका शिक्षा की प्रथम पठशाला की स्थापना की गयी,जिसकी मुख्य अध्यापिका थी सावित्रीबाई (15 वर्ष)।
अछूत बच्चों की शिक्षा के लिये 01 मई 1852 को प्रथम पठशाला की स्थापना की गयी।
मुम्बई सरकार द्वारा 16 नवम्बर 1852 को सम्मानित किया गया।
विधवा स्त्रियों की दयनीय दशा पर 28 जन. 1953 को बाल हत्या प्रतिबन्धक गृह की स्थापना की गयी।
पहली पुस्तक -तृतीय रत्न का प्रकाशन 1855 में किया गया,शिवाजी-जा-पंवाणा 1869,ब्राह्मणांचे कसब,किसान का कोणा, अछूतों की कैफियत, गुलामगीरी,अन्तिम पुस्तक-सार्वजनिक सत्यधर्म पुस्तक 1889
संपादन-सतधार पत्रिका
दलितों की मुक्ति का घोशणा-पत्र कहा गया उनकी पुस्तक गुलामगीरी को।
संगठन- महिला सेवा मण्डल,सत्य शोधक समाज
पुणे नगरपालिका के सदस्य रहे 1876-1882 तक
11 मई 1888 को नागरिक अभिनन्दन कर महात्मा की उपाधि दी गयी, सयाजीराव गायकबाण ने इन्हें बुकर टी वाशिगंटन के नाम से सम्बोधित किया है।
1888 में लकवा रोग से ग्रस्त हो गये और 28 नव.1890 को 63 वर्ष की आयु में निर्वाण को प्राप्त हुये।

                                                          

Friday, August 04, 2017

चोटी-कटवा का भ्रम, मास-हिस्टीरिया




Image result for hysteriaदेश के उत्तरवर्ती क्षेत्र में पिछले कुछ दिनों से सुनी-सुनाई अफ़वाह का सिलसिला लगातार जारी है। इसमें वे धूर्त मक्कार बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रहे हैं जो सत्य से कोशों दूर रहते हैं। लोगों को भ्रमित करना ही उनका पेशा है। मैं अपने बचपन के दिनों में मुँहनोचवा के आतंक का असर लोगों पर देख चुका हूँ जहाँ हमारे गाँव के ज्यादातर लोग रात को घर के अन्दर सोते थे, वहीं हमारे घर में परिवार के सभी लोग यहाँ तक कि हम बच्चे भी बाहर ही सोते थे इस अफ़वाह से आमना-सामना के लिये परन्तु दुर्भाग्य कहिये उस मुँहनोचवा का या मेरे परिवार का कभी आस-पास नहीं हु ये।

                       चोटी-कटवा का भ्रम, मास-हिस्टीरिया


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समय-समय पर विविध प्रकार के अभवाह लोगों के बीच आते रहे हैं। ये अफ़वाह विश्वास करने वालों के लिये काल हो जाते हैं और न मानने वालों के लिये मुर्खतापूर्ण धूर्त मक्कारी बस यही सत्य है। भारत की जनता आज भी अन्धविश्वास के चंगुल से मुक्त नहीं हो पाई है या यों कहें कि आज भी पोंगा-पंथी अपनी दुकान चलाने के लिये लोगों के बीच ऐसे अफवाह फैलाकर सत्यता की जाँच करते रहते हैं कि उनका और उनके द्वारा बनाये गये जादू-टोना, गण्डा-ताबीज, भूत, पिचाश, चुड़ैल आदि का कितना असर लोगों के दिलों-दिमाग पर है।


आज महिलायें ज्यादातर चोटी-कटवा से भयभीत हैं, गाँव तो गाँव इससे शहर की महिलायें भी अछूती नहीं हैं। यह कोई नई घटना नहीं है इससे पहले भी कई अफ़वाह लोगों के बीच आ चुका है। यथा-गणेश का दूध पीना, मंकीचोर, मुँहनोचवा, शंकर के त्रिनेत्र से आंसू आना, पेड़ में गणेश की आकृति उभरना आदि। कितने का उदाहरण दिया जाय परन्तु दुर्भाग्य रहा कि आज तक इन घटनाओं के साक्ष्य प्राप्त नहीं हुये। इसके तह में जाने का प्रयास करो तो साफ झूठ के अतिरिक्त और कुछ नहीं होता है। लोग सुनी-सुनाई बातों पर यकीन करते चले जाते हैं और पहला व्यक्ति अपने से दूसरे को अतिशयोक्ति में व्यापक वर्णन प्रस्तुत करता है। और यह सामूहिक रूप से लोगों को अपनी गिरफ्त में ले लेता है।

कुछ व्यक्ति इस प्रकार की अफवाहों के शिकार हो जाते हैं। इसमें कसूर उनका नहीं है। मनोवैज्ञानिकों के मतानुसार वे एक बिमारी से पीड़ित होते हैं जिसे हिस्टीरिया के नाम से जाना जाता है। हिस्टीरिया रोग की ज्यादातर शिकार महिलायें होती हैं। व्यापक क्षेत्र में जब इससे लोग पीड़ित हो जाते हैं तो इसे मास-हिस्टीरिया के नाम से जाना जाता है। हिस्टीरिया (HYSTERIA) की कोई निश्चित परिभाषा नहीं है। बहुधा ऐसा कहा जाता है, हिस्टीरिया अवचेतन अभिप्रेरणा का परिणाम है। अवचेतन अंतर्द्वंद्र से चिंता उत्पन्न होती है और यह चिंता विभिन्न शारीरिक, शरीरक्रिया संबंधी एवं मनोवैज्ञानिक लक्षणों में परिवर्तित हो जाती है। अतः इस रोग से पीड़ित महिलायें स्वयं का अफवाहों से सीधा संबन्ध प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से जोड़ लेती हैं जिस कारण वे कभी-कभी अपना जान भी गंवा बैठती हैं। हिस्टीरिया का उपचार मनोवैज्ञानिकों ने संवेदनात्मक व्यवहार, पारिवारिक समायोजन, शामक औषधियों का सेवन, सांत्वना, बहलाने, तथा पुन शिक्षण से किया जाना बताते हैं।

चोटि-कटवा से पीड़ित महिला जो बेहोस हो गयी थी या जो चोटिल हो गई है वे सब इसी रोग से पीड़ित हैं। इसके इतर वे महिलायें जो यात्रा के दौरान या बाजार, सिनेमाहाल, भीड़-भाड़ वाली जगहों पर जहाँ उनकी चोटी कट जाती है, वस्तुतः यह किसी सरारती व्यक्ति का काम है। जब लोगों के जेब कट सकते हैं, कानों के कुण्डल, गले का हार नोचा जा सकता है। तब की स्थिति में किसी महिला की चोटी काट देना तो बहुत सरल है। अफवाहों का बाजार कम पढ़े-लिखे लोगो के बीच ही फैलता है। शिक्षितवर्ग इन सबसे कोसों दूर रहता है।
Image result for hysteriaइसका एक मात्र बचाव जागरूकता है सही तरीके से आम-जन को निर्देशित किया जाना चाहिये कि अफवाहों को तब तक प्राथमिकता न दें जब तक कि उसकी पुष्टि नहीं हो जाती। ऐसा होता नही है मीडिया अपनी टीआरपी के लिये अन्धविश्वासियों के मूँह में माईक लाकर घूसेड़ देता है और तरह-तरह की चमत्कार लीलायें एक के बाद एक आखों देखी परोसता रहता है। अनुमानतः यह भी हो सकता है कि लोगों का ध्यानाकर्षण राजनीतिज्ञ धूर्त मुख्य मुद्दों से लोगों को बरगलाने के लिये इस फिजुल की बातों को हवा दे रहे हों, यह कोई बहुत बड़ी समस्या नहीं किन्तु मीडिया तिल का ताड़ बनाने में लगी है। आईये हम अपने को सतर्क रखें और अपने आस-पास के लोगों का जागरूक 
                -अखिलेश कुमार अरूण


Wednesday, April 12, 2017

बाबा साहब और उनकी जयंती

आज हम बाबा साहब की 126 वीं जयंती मना रहे हैं. उनकी पहली जयंती और आज की जयंती में प्रयाप्त परिवर्तन दृष्टिगोचित हो रहा है. बाबा साहब तब की जयंती में सामाजिक थे, दलितों के मसीहा थे उनको मानने और मनाने वाला उनका अपना एक वर्ग था किन्तु आज परिस्थिति उसके बिल्कुल विपरीत है बाबा साहब का राजनीतिक ध्रुवियकरण कर दिया गया है. आज के समय में वह वोट बैलेंस बन चुके हैं. उनके सिद्धांत, शिक्षा, उपदेश धूमिल होते जा रहें हैं. हमारे कहने का मतलब बाबा साहब को एक वर्ग विशेष से सम्बन्धित नहीं करना है उनको सभी मानों और मनाओ क्योंकि उन्होंने भारत जैसे विशाल विभिन्नताओं वाले देश का संविधान लिखने में महती भूमिका निभाई है. इसलिए प्रत्येक भारतवाशी उनका कर्जदार है परन्तु यह कहाँ शोभा देता है कि जयंती बाबा साहब की मनाये और गुणगान किसी और का करें यह सर्वथा उनके साथ अन्नाय ही है.

बाबा साहब डाW भीमराव रामजी अम्बेडकर सामाजिक रूप से अत्यन्त निम्न समझे जाने वाले वर्ग में जन्म लेकर भी जो ऊँचाई उन्होने प्राप्त की यह बात हम सबके लिये अत्यन्त प्रेरणादायी है।
जो कार्य भगवान बुध्द ने 25,000 वर्ष पूर्व शुरू किया था, वही कार्य बड़ी लगन ईमानदारी व कड़ी मेहनत और विरोधियों का सामना करते हुये बाबा साहब दलित-अतिदलित,महिला-पुरूषों के लिये किया।


बाबा साहब नया भारत चाहते थे जिसमें स्वतंत्रता समता और बन्धुत्व हो जो हमें संविधान के रूप दिया, वह चाहते थे कि जब एक भारतीय दूसरे भारतीय से मिले तो वे उनको अपने भाई-बहन के समान देखें, एक नागरिक दूसरे के लिये प्रेम और मैत्री महसूस करे लेकिन भारतीय समाज आज भी इसके विपरित है, स्वतंत्रता,समता और बधुंत्व जो संविधान में लिखा है इसे जातियाँ आज भी दलित-अतिदलित लोगों तक पहुँचने नहीं देती। जाति विहीन समाज की स्थापना के बिना स्वतंत्रता, समता और बधुंत्व का कोई महत्व नहीं है।  
बाबा साहब ने कहा था, “निःसंदेह हमारा संविधान कागज पर अश्पृश्यता को समाप्त कर देगा किन्तु यह 100 वर्ष तक भारत में वायरस के रूप में बना रहेगा।”
सम्मान और स्वतंत्रता से जीना-मरना प्रत्येक मानव का जन्म सिध्द अधिकार है इसके लिये सतत् सघंर्ष करना महा पुण्य का कार्य है बाबा साहब जाति व्यवस्था को प्रजातंत्र के लिये घातक मानते थे यदि मनुष्य, मनुष्य के साथ अमानवीय व्यवहार करे उसके साथ छुआ-छूत करे वह मनुष्य और इसकी आज्ञा देने वाला समाज सभ्य नहीं हो सकता।

“यदि हिन्दू धर्म अछूतों का धर्म है तो उसको सामाजिक समानता का धर्म बनना होगा चर्तुवर्ण के सिध्दान्तों को समाप्त करना होगा चर्तुवर्ण और जाति भेद दलितों के आत्म सम्मान के विरूध्द हैं ।”
जिन लोगों कि जन-आन्दोलन में रूचि है उन्हे केवल धार्मिक दृश्टिकोण अपनाना छोड़ देना चाहिये तथा उन्हें सामाजिक और आर्थिक दृश्टिकोण अपनाना होगा।
 सामाजिक और आर्थिक पुर्ननिमार्ण के लिये अमूल्य परिवर्तन वादी कार्यक्रम के बिना दलित-अतिदलित लोगों की दषा में सुधार नहीं हो सकता।

भारतीय संविधान में मिले अधिकारों की सुरक्षा और उन्हें प्राप्त करने लिये प्रत्येक समय वचनबध्द रहना होगा इसी में बाबा साहब के जन्म दिन की सच्ची सार्थकता होगी।

Friday, October 28, 2016

चीनी वस्तुओं का बहिष्कार कितना सार्थक

चीनी वस्तुओं का बहिष्कार कितना सार्थक

                                                                 -अखिलेश कुमार अरुण 
देशभक्ति के रंग में सराबोर हम भारतियों ने देश के नाम कुछ करने को ठान बैठे हैं. देश हमारा है हम देश के हैं इसलिए हम अपने दुश्मन देश को मदद पहुँचाने वाले देश का समर्थन नहीं करते हैं. भारत पर पाकिस्तान का उरी हमला २०१६ एक त्रासदी है और इस त्रासदी को प्रतेक भारतीय अनुभव करता है. हम  अपने देश के समर्थन के लिए चीन जैसे देश जिसका वैश्वविक बाजार में प्रयाप्त भागीदारी बनी हुयी है और उसका सबसे बड़ा बाज़ार दक्षिणी एशियाई देश हैं. जिसका कारण भी सर्वविदित है कि दक्षिणी एशियाई देशों के नागरिकों की औसत कमाई अन्य देशों की अपेक्षा निम्न है जिसके चलते चीन निर्मित सस्ते सामानों की मांग सदैव प्रयाप्त मात्रा में बनी रहती है, चाहे वह इलेक्ट्रिक उपकरण हो या कंप्यूटर मोबाइल एसेसीरिज हों LYF 4G Mobile, PC, LAPTOP, झालरें, लेड-बल्ब, चार्जेर, इत्यादि जहाँ कम कमाई वाले व्यक्तियों को इनकी सहज़ उपलब्धता उनके सामान्य से भी कम धनापूर्ती में हो जाती है वे चीनी वस्तुओं का बहिष्कार नहीं कर सकते बहिष्कार का असली मज़ा तब है जब स्वेच्छा से व्यक्ति इसके लिए राज़ी हो और यह तभी संभव है कि जब की कम कीमत में स्वदेशी वस्तुओं की आपूर्ति जनसामान्य के लिए उपलब्ध करायी जाय.
चीनी वस्तुओं के बहिष्कार की आधिकारिक घोषणा भारतीय सरकार के द्वारा नहीं किये जाने के उपरांत इसका परिणाम ठेले, खोंमचे, रोड पटरी के सीमांत दुकानदारों को उठाना पड़ रहा है. दीवाली उनकी फीकी हो रही है नए सामानों कि खरीददारी नहीं कर रहें हैं क्योंकि गतवर्ष में बचे सामानों की बिक्री नहीं हो रही है उसी में उनका सैकड़ो रूपया फंसा पड़ा है, रही बात चीनी सामानों के बिक्री की तो 20 की जगह 19 होकर आज़ भी चीनी वस्तुओं सप्लाई जस की तस बनी हुयी है. अंतर बस इतना है कि उसको खरीदने वाले सामान्य धनिकवर्ग के लोग और बड़े व्यवशायी हैं यथा- कंप्यूटर, मोबाइल, अन्य अस्सेसिरिज़.

चीनी बाज़ार बंदी को भुनाने के लिए हम इसकी अधिकारिक घोषणा करें और सीमांत व्यापारियों की जगह बड़े व्यापारियों, उद्द्योगपतियों की दुकाने बंद करें यही हमारा चीनी वस्तुओं का असली बहिष्कार होगाA केवल फुटकर व्यापारियों की गले की हड्डी न बनें और नहीं उनके पेट पर लात मारे यह सरासर अन्याय है अपने देश के गरीबों के हित में और यह हमें वर्दास्त नहीं आपको भी शायद......


 

Saturday, September 24, 2016

एक सैनिक (कविता)

एक सैनिक 

बागी सैनिक से कुछ यों बोला

हम दोनों छोड़ चले

अपने देश में रोने-धोने को 

बूढी-माता बाप हमारे,

बाट जोहती प्रियतमा अपनी 

आँखों में ले आँसू को.

अब्बा-पापा कहने को,

तरसेंगे तेरे-मेरे, अपने लाल हमारे

अंतर बस इतना होगा-

तेरा पाकिस्तान, तो मेरा हिंदुस्तान होगा.

                                                                     (मेरी कविता के कुछ अंश) -अरुण

Tuesday, September 13, 2016

हमारा हिंदी-प्रेम

अखिलेश कुमार अरुण-

हाय हेल्लो, डियर-सिस्टर एंड ब्रदर, आईये पधारिये एक मंच पर और अंग्रेजी में सम्बोधन के बाद  चीख-पुकार मचाइये अपने लिए नहीं अपनी पहचान, रीती-रिवाज,संस्कृति के लिए जो पल-पल के सफ़र में जिन्दा है, जोर और जबर से, चलना-फिरना तो कब से बंद कर दिया है, मुई मरती भी नहीं कि इस हाय! तोबा से छुट्टी मिले. साल में यह एक ही तो दिन है जब हम सब इकट्ठा होते भी हैं, तो इसलिए कि उसने अपनी अंतिम सांसे गिन चूकी है कि अभी बाकी है.
इस उपरोक्त भूमिका का तात्पर्य सीधा है कि १४ सितम्बर १९४९, यह एक ऐसा दिन है जिस दिन हमें हमारी पहचान बड़ी जद्दो-जेहद के बाद बमुश्किल हाशिल हुई थी. फिर हमारे कुछ भाईयों (दक्षिण भारतीय राज्य) ने इसे ठुकरा दिया था.
कुछ अजीब सा नहीं लगता है कि हम अपनी मातृभाषा के कुशल मंगल के लिए 14 सितम्बर से पखवाड़ा मानते हैं. जगह-जगह सभाएं की जाती हैं, स्कूल-कालेजों में हिंदी पढ़ना, लिखना और बोलने का संकल्प दिलवाते हैं. रेलवे, बस स्टेशन और सरकारी कार्यालयों में “हिंदी में काम करना राष्ट्रीयता का घोतक है.” तख्ती टंगवाते हैं. इन कर्तव्य निर्वहनों द्वारा हम कितना न्याय कर पा रहें हैं अपनी भाषा के विकास के लिए बाद हम अपने लड़के को इंग्लिश बोर्डिंग के स्कूल में ही पढ़ने को भेजते हैं. उसकी गिटर-पिटर के इंग्लिश पर पुलकित होकर असीम सुख पाते हैं. तोतले मुंह बच्चे को वाटर, ब्रेड, नुडल्स, कहना सिखाते हैं. और यही सब हम-आप को अपनी सोसायटी से अलग करती है और अपनी इस पहचान को मिटा कर, समान्य लोगों से अलग होने का दंभ भरते हैं. मातृभाषा प्रेम के नाम पर अर्थ का अनर्थ करने वाले शब्दों (कृप्या, गल्ती, परिक्षा, पुछो आदि) का प्रयोग करते हैं. साल में एक बार लेखक महोदय, महानुभाव लोग भी अपनी लेखनी से कागज को काला करके हिंदी के प्रति अपना प्रेम प्रदर्शित कर लेते हैं. अतः मैं भी अछूता क्यों रहता बहती गंगा में बार-बार हाँथ धोने का मौका तो मिलता नहीं सो हिंदी दिवस की पूर्वसंध्या पर ही इस कार्य को किया जाना हमने उचित समझा है. किसी को शिकायत देने का मौका ही नहीं छोड़ा कि हम हिंदी प्रेमी नहीं है. गद्य तो गद्य, पद्य में भी अगले वर्ष २०१५ में भी हमने कुछ पंक्तियों लिखा था. प्रकाशन हेतु कुछ माह पूर्व भेजे भी थे. वानगी प्रस्तुत है-
“हिंदी के उद्दगार पर,
नतमस्तक बारम्बार हूँ.
हे कल्याणकारी तरण-तारिणी,
जनमानस की संकल्प धारिणी-
तेरा अभिनंदन और वंदन है,
तूं सरल ह्रदय सा स्पंदन है.”
हमारे पड़ोस के अज़ीज़ हिंदी प्रेमी मियां शेख़ साहब हिन्दवी होने का दम्भ भरते हैं. ऐसा नहीं कि मियाँ शेख़ की प्रारम्भिक पढ़ाई हिंदी में ही हुई. हुआ यूँ कि मियां शेख़ इंग्लिश सिखने का कोई कसर बाकी नहीं छोड़े परन्तु बिचारे उच्चारण (c का स,क, t का ट,त) व व्याकरणिक ( I want to eat date. मैं तिथि खाना चाहता हूँ. नहीं नहीं ...खजूर) दोष के चलते उन्हें हिन्दवी होना पड़ा.
हम अपनी हिंदी से अगर वास्तव में प्यार करते हैं. और उसका सम्मान करते हैं तो हिंदी के लिए साल का एक दिन न होकर वल्कि वर्ष के पूरे ३६५ दिन हिंदी के ही नाम होना चाहिए. हमें जहाँ कहीं जब भी मौका मिले हिंदी के उत्थान की ही बात करें. तभी हमारी हिंदी हमारी न होकर बल्कि विश्व की हो सकेगी और इसका भी मान-सम्मान देश-विदेश में होगा. अपने आस्तित्व को लेकर हिंदी आँसू नहीं बहायेगी और न ही उसे इंग्लिश के सामने अपमानित ही होना पड़ेगा.

जय हिंदी                                        जय भारत 

पढ़िये आज की रचना

चर्चा में झूठी-सुरेश सौरभ

(फिल्म समीक्षा)      एक मां के लिए उसका बेटा चाहे जैसा हो वह राजा बेटा ही होता है, बच्चे कच्ची मिट्टी की तरह होते हैं, जिन्हें हम अपने विचार...

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