साहित्य

  • जन की बात न दबेगी, न छिपेगी, अब छपेगी, लोकतंत्र के सच्चे सिपाही बनिए अपने लिए नहीं, अपने आने वाले कल के लिए, आपका अपना भविष्य जहाँ गर्व से कह सके आप थे तो हम हैं।
  • लखीमपुर-खीरी उ०प्र०

Saturday, September 07, 2024

चर्चा में झूठी-सुरेश सौरभ

(फिल्म समीक्षा) 



    एक मां के लिए उसका बेटा चाहे जैसा हो वह राजा बेटा ही होता है, बच्चे कच्ची मिट्टी की तरह होते हैं, जिन्हें हम अपने विचारों और संस्कारों से पुष्पित और पल्लवित करते हैं । शिव सिंह 'सागर' की हाल ही में रिलीज हुई एक शॉर्ट फिल्म  "झूठी" इन दिनों बेहद चर्चा में है, शॉर्ट फिल्म झूठी का कथानक भी कुछ इस तरह का है, जो शिक्षा जगत में विमर्श का विषय बना हुआ है, एक अध्यापक एक बच्चे राहुल को जब कक्षा में कमजोर पाता है, तब उसे वह एक पर्ची लिखकर देता है और वह कहता है कि यह पर्ची अपनी मां को देना‌। बच्चा वह पर्ची अपनी मां को देता है। माँ पर्ची देखती है। उस पर्ची में लिखा होता है,आपका बच्चा दुनिया का सबसे मूर्ख बालक है, इसे अगले दिन से स्कूल में न भेजें। लेकिन वह मां हिम्मत नहीं हारती है और अपने बच्चे से कहती है कि इस पर्ची में लिखा है कि मेरा बेटा बहुत होशियार है। संसार में आज भी द्रोणाचार्यों की कमी नहीं  हैं, जिनकी वजहों से अनेक एकलव्यों के अंगूठे काटे जा रहा  हैं। फिर वह हिम्मती मां अपने बेटे को खुद पढ़ाना शुरू करती है और पढ़ते-पढ़ते एक दिन वह अपने बेटे को इस काबिल बनती है कि उसका बेटा पुलिस का एक जिम्मेदार अधिकारी बन जाता है। 
     पुलिस अधिकारी बनने के बाद जब वह बेटा घर आता है। तब उसकी मां इस दुनिया में से  गुजर चुकीं होती हैं। किसी काम से वह अपनी माँ का एक पुराना बक्सा खोलता है, जिसमें से एक पर्ची निकलती है, उसे याद आया, अरे! यह तो वहीं पर्ची है, जो वर्षों पहले मेरे मास्टर जी ने मेरी मां के लिए दिया था। उस पर्ची को देखा है उसमें लिखा था "आपका बेटा दुनिया का सबसे मूर्ख लड़का है और इसे कल से स्कूल न भेजें।" वह अपनी मां को याद करता है ,भावुक हो जाता है और बुदबुदाता है-'मां तुम सचमुच मेरे लिए भगवान हो।' कहानी वाकई दिल को छूने वाली है।  निम्न मध्यम वर्गीय परिवार पर आधारित इस फिल्म में एक स्त्री के संघर्ष को दिखाया गया है। जिसका पति शराबी है, फिर भी वह अपनी सूझबूझ से द्रोणाचार्य जैसे गुरुओं का डटकर सामना करते हुए अपने बेटे को पढ़ा-लिखा कर अफसर बना देती है। यह मातृ शक्ति का ही कमाल है, जो कोयले को हीरा बना देती है। सब कलाकार  बहुत ही उम्दा तरीके से फिल्म में अभिनय करते नजर आते हैं,किरदार के रूप में आर. चंद्रा, अमित श्रीवास्तव, अनीता वर्मा, प्रियांश गुप्ता, अमन शर्मा, ओम् प्रकाश श्रीवास्तव, आदि लोग लघु फिल्म में नज़र आए हैं। इसके अलावा कैमरा मैन डी. के.,फोटोग्राफी और एडिटर के. आमिर हैं। अर्पिता फिल्म्स इंटरटेनमेंट के बैनर तले बनी, यह लघु फिल्म आजकल खासी चर्चा में है। शिव सिंह 'सागर' इस फिल्म के लेखक, निर्माता, निर्देशक हैं। छंगू भाई, कबाड़ी, पापा पिस्तौल ला दो, रक्षक, फंस गया बिल्लू, डुबकी जैसी अनेक बेहतरीन कथानकों की लघु फिल्मों का निर्देशन करने वाले 'सागर' जी फतेहपुर के युवा कवि एवं  शायर हैं।

Wednesday, July 24, 2024

हिंदी लघुकथा स्वरूप और सार्थकता-सुरेश सौरभ

   पुस्तक समीक्षा  
                         


पुस्तक- हिंदी लघुकथा स्वरूप और सार्थकता
संपादक- डॉ. मिथिलेश दीक्षित
प्रकाशक-शुभदा बुक्स साहिबाबाद उ.प्र.
मूल्य-300/
पृष्ठ-112 (पेपर बैक)
    
  सुरेश सौरभ
निर्मल नगर लखीमपुर-खीरी
उत्तर प्रदेश पिन-262701
मो-7376236066

                डॉ. मिथिलेश दीक्षित साहित्य जगत में एक बड़ा नाम है। शिक्षा के क्षेत्र में ही नहीं बल्कि साहित्य और समाज सेवा में भी आपका उल्लेखनीय योगदान है। हिंदी की तमाम विधाओं में आपका रचना कर्म है। विभिन्न विधाओं में आप की लगभग  अस्सी पुस्तकें प्रकाशित हो चुकीं हैं। हाल ही में इनकी किताब हिंदी लघुकथा स्वरूप और सार्थकता के नाम से सुभदा बुक्स साहिबाबाद से प्रकाशित हुई है, जो हिंदी लघुकथा के पाठकों, लेखकों और शोधार्थियों- विद्याथिर्यों  के लिए पठनीय और वंदनीय है। संपादकीय में डॉ.मिथिलेश दीक्षित लिखती हैं- हिंदी साहित्य की गद्यात्मक विधाओं में लघुकथा सबसे चर्चित विधा है। आज के विधागत परिपेक्ष्य में लघुकथा के स्वरूप को देखते हैं, तो लगता है इसके स्वरूप में पर्याप्त परिवर्तन हुआ है, इसका मूल प्रयोजन भी बदल गया है। अब उपदेशात्मक या कोरी काल्पनिक लघुकथाओं में विशेष पत्रों के स्थान पर सामान्य जन का प्रतिनिधित्व करने वाले सामान्य पात्रों का समयगत परिस्थितियों में चित्रण होता है.....और वे आगे लिखतीं हैं..संक्षिप्तता गहन संवेदन, प्रभाव सृष्टि और संप्रेषण क्षमता लघुकथा की विशिष्ट गुण है। "लघुकथाकार का गहन संवेदन जब लघुकथा में समाहित हो जाता है, तब शिल्प में सघनता आ जाती है, भाषा में सहजता और पात्रों में जीवन्तता आ जाती है‌।"
      डॉ.ध्रुव कुमार, अंजू श्रीवास्तव निगम, इंदिरा किसलय, डॉ.कमल चोपड़ा, कल्पना भट्ट, कनक हरलालका, डॉ.गिरीश पंकज, निहाल चंद्र शिवहरे, बी. एल. अच्छा, डॉ,भागीरथ परिहार, मुकेश तिवारी, मीनू खरे, रजनीश दीक्षित, शील कौशिक, डॉ. शैलेश गुप्ता 'वीर' ,डॉ.शोभा जैन, सत्या  सिंह, डॉ.स्मिता मिश्रा, डॉ. सुरंगमा यादव, डॉ.सुषमा सिंह, संतोष श्रीवास्तव के बहुत ही शोधपरक लेखों  को इस पुस्तक में सम्मिलित किया गया हैं।  लेखों में लघुकथा के शिल्प, संवेदना, और लघुकथा के  वर्तमान, अतीत और भविष्य पर बड़ी सहजता, सूक्ष्मता और गंभीरता से विमर्श किया गया है। पुस्तक में हिंदी लघुकथा के बारे में डॉक्टर मिथिलेश दीक्षित से डॉ.लता अग्रवाल की बातचीत भी कई महत्वपूर्ण बिंदुओं पर की गई है, जिसमें लघुकथा की प्रासंगिकता, उसकी उपयोगिता, उसका आकार-प्रकार व मर्म, उसमें व्यंग्य तथा शिल्पगत विविधता आदि। 

         प्रसिद्ध साहित्यकार  गिरीश पंकज पुस्तक में अपने आलेख में लिखते हैं-" कुछ लेखक लघुकथा को लघु कहानी समझ लेते हैं जिसे अंग्रेजी में 'शॉर्ट स्टोरी' कहते हैं, जबकि वह लघु नहीं पूर्ण विस्तार वाली सुदीर्घ कहानी ही होती है। लघुकथा के नाम पर 500 या 1000 शब्दों वाली भी लघुकथाएं मैंने देखी हैं और चकित हुआ हूं ।ये किसी भी कोण  से लघुकथा के मानक में फिट नहीं हो सकती। मेरा अपना मानना है कि लघुकथा 300 शब्दों तक ही सिमट जाएं तो बेहतर है। तभी सही मायने में उसे हम संप्रेषणीय में लघुकथा कहेंगे। अगर वह 500 या उससे अधिक शब्दों तक फैल जाती है तो उसे लघु कहानी के श्रेणी में रखना उचित  होगा।"
         मिथिलेश जी ने बहुत श्रमसाध्य कार्य किया है,  लघुकथा पर कालजयी विमर्श की पहल की है उन्हें हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं। 



Tuesday, July 16, 2024

केवल आरक्षण से ही आधे आईएएस एससी-एसटी और ओबीसी,लेकिन वे शीर्ष पदों पर क्यों नहीं पहुंच पाते-नन्दलाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)


【अधिकारियों के लिए न्यूनतम और अधिकतम कार्यकाल/अवधि तय होनी चाहिए और शीर्ष पदों के लिए गठित पैनल को गैर-विवेकाधीन, मैट्रिक्स-आधारित और पारदर्शी बनाना होगा】
नन्दलाल वर्मा
(सेवानिवृत्त एसोसिएट प्रोफेसर)
युवराज दत्त महाविद्यालय
लखीमपुर-खीरी
9415461224.
कांग्रेस के सांसद राहुल गांधी ने महिला आरक्षण विधेयक पर लोकसभा में बोलते हुए एक महत्वपूर्ण विषय के तार छेड़ दिए,जिसे जानते तो सभी हैं,लेकिन उन पर बड़े मंचों पर चर्चा तक नहीं होती है। महिला आरक्षण के अंदर अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) महिलाओं के लिए आरक्षण की मांग करते हुए राहुल गांधी ने कहा था कि आज की सरकार में सचिव स्तर की नौकरशाही पर सिर्फ तीन ओबीसी अफसर हैं। यानी देश की आधी से ज्यादा उनकी आबादी और हर वर्ष 27% आरक्षण से ओबीसी अधिकारी चयनित होने के बावजूद उनकी भारत सरकार के सिर्फ 5 प्रतिशत बजट निर्धारण में ही भूमिका है। इस मुद्दे को उन्होंने प्रेस कॉन्फ्रेंस,भारत जोड़ों की पैदल यात्रा और चुनावी रैलियों में भी उठाया और आरक्षण विरोधी नरेंद्र मोदी सरकार को इसके लिए ज़िम्मेदार ठहराया।
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इसके जवाब में भारतीय जनता पार्टी और केंद्र सरकार ने यह तो नहीं कहा कि राहुल गंधी का ओबीसी अफसरों का बताया हुआ आंकड़ा गलत है,लेकिन जवाबी राजनीतिक हमला करते हुए कहा कि जब केंद्र में कांग्रेस की सत्ता थी, तो उसने ओबीसी अफसरों की संख्या बढ़ाने के लिए क्या किया? कैबिनेट मंत्री किरेन रिजीजू ने इस बारे में एक्स पर पोस्ट किया था कि इस समय वही अफसर सचिव बन रहे हैं जो 1992 के आसपास नौकरी में आए थे। इसलिए कांग्रेस को बताना चाहिए कि ओबीसी अफसरों को आगे लाने में कांग्रेस की सरकारों की भूमिका क्या रही?
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2024 में होने वाले लोकसभा चुनावों तक ऐसा लगता था कि सामाजिक न्याय पर ओबीसी के मुद्दे पर काफी चर्चा होगी और नौकरशाही के शीर्ष पर ओबीसी अफसरों के यथोचित प्रतिनिधित्व न होने या कम होने पर भी काफी चर्चा होगी,लेकिन चुनावी रैलियों और चुनावी घोषणा पत्र में सामाजिक न्याय पर ओबीसी अफसरों के प्रतिनिधित्व और महिला आरक्षण बिल में ओबीसी महिलाओं का आरक्षण न होने और जातिगत जनगणना पर जिस तेजी और जोर शोर से चर्चा होनी चाहिए थी, वह नहीं होती दिखी। मोदी के अबकी बार 400पार के नारे के निहितार्थ पर बीजेपी के कतिपय नेताओं की संविधान बदलने के बयान से एससी-एसटी और ओबीसी समाज मे यह संदेश घर कर गया कि यदि इस बार बीजेपी को दो तिहाई बहुमत हासिल हो जाता है तो संविधान में महत्वपूर्ण बदलाव किया जा सकता है। यदि संविधान बदला तो सरकारी नौकरियों में आरक्षण तो खत्म हो ही जाएगा। इस बार के लोकसभा चुनाव में संविधान और लोकतंत्र का मुद्दा फेज़ दर फेज़ जोर पकड़ता चला गया जिसका सर्वाधिक प्रभाव यूपी में पड़ा जहां बीजेपी इस बार राम मंदिर के नाम पर अस्सी की अस्सी सीटें जीतने का दावा कर रही थी,वहां अयोध्या की सीट पर वहां की जनता ने बीजेपी को हराकर यह संदेश दे दिया कि हिन्दू बनाम मुस्लिम की राजनीति अब चलने वाली नहीं है। मंदिर और मुस्लिम मुद्दा इस बार चुनाव में कहीं भी जोर पकड़ते नहीं दिखा जिसके चलते वह यूपी में मात्र 33 सीटें ही जीत पाई और इस चुनाव की सबसे बड़ी उपलब्धि कि अयोध्या में एक दलित समाज के व्यक्ति से बीजेपी के कथित रघुवंशी लल्लू सिंह को हार का सामना करना पड़ा जो बीजेपी के राम मंदिर निर्माण की जनस्वीकार्यता पर बड़ा सवाल खड़ा करती है। बनारस से मोदी जी की जीत की असलियत पर भी सवाल उठ रहे हैं। फ़िलहाल वह हार से बचा लिए गए।
राहुल गांधी ने ओबीसी नौकरशाही की सहभागिता का मुद्दा तो सही उठाया था,लेकिन उनका यह कहना पूरी तरह सही नहीं है कि इसकी सारी जिम्मेदारी वर्तमान मोदी सरकार की ही है। यह नौकरशाही की संरचना,उसके काम करने के तरीके और उसके जातिवादी चरित्र से जुड़ा मामला है और किसी भी पार्टी की सरकार के आने या जाने से इसमें बहुत ज्यादा फर्क नहीं पड़ेगा। इस समस्या का यदि वास्तव में समाधान करना है तो वह नौकरशाही की संरचना और उसकी चयन प्रक्रिया के स्तर पर ही सम्भव हो सकता है।
तीन प्रस्तावित समाधान:
आईएएस अफसरों के नौकरी में आने की अधिकतम उम्र 29 साल हो और इसी दायरे के अंदर विभिन्न कैटेगरी को उम्र में जो भी छूट देनी हो, दी जाए या फिर सभी अफसरों की नौकरी का कार्यकाल बराबर किया जाए,ताकि सभी श्रेणी के अफसरों को सेवा के इतने वर्ष अवश्य मिल जाएं ताकि वे भी नौकरशाही के शीर्ष स्तर तक पहुंच पाएं। नौकरी के अलग-अलग स्तरों पर जब अफसरों को चुनने के लिए पैनल बनाया जाए तो यह प्रकिया पारदर्शी हो और इसमें मनमाने तरीके से किसी को चुन लेने और किसी को खारिज कर देने का वर्तमान चलन पूरी तरह से बंद होना चाहिए। अफसरों की सालाना गोपनीय रिपोर्ट(सीआर) के मामले में जातिवादी मानसिकता पर अंकुश लगे और भेदभाव को प्रक्रियागत तरीके से सीमित किया जाए।
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इन उपायों पर चर्चा करने से पहले यह ज़रूरी है कि इस विवाद के तीन पहलुओं पर आम सहमति बनाई जाए। सबसे पहले तो सरकार और नीति निर्माताओं को सहमत होना होगा कि भारतीय नौकरशाही के उच्च पदों पर सामाजिक विविधता का अभाव है और एससी-एसटी और ओबीसी के अफसर उच्च पदों पर आनुपातिक रूप से बहुत कम हैं। 2022 में संसद में पूछे गए एक सवाल के जवाब में तत्कालीन केंद्रीय कार्मिक मंत्री डॉ.जितेंद्र सिंह ने सरकार की तरफ से जानकारी दी थी कि संयुक्त सचिव और सचिव स्तर पर केंद्र सरकार में 322 पद हैं,जिनमें से एससी,एसटी,ओबीसी और जनरल (अनारक्षित वर्ग) कटेगरी के क्रमश: 16, 13, 39 और 254 अफसर हैं। 2022 में ही पूछे गए एक अन्य सवाल के जवाब में डॉ.सिंह ने सदन को जानकारी दी थी कि भारत सरकार के 91 अतिरिक्त सचिवों में से एससी-एसटी के दस और ओबीसी के चार अफसर हैं,वहीं 245 संयुक्त सचिवों में से एससी-एसटी के 26 और ओबीसी के 29 अफसर ही हैं। आख़िर निर्धारित प्रतिशत तक आरक्षण और ओवरलैपिंग से अनारक्षित श्रेणी में अतिरिक्त जगह बनाने के बावजूद उच्च नौकरशाही के हर स्तर पर आरक्षित वर्ग के अधिकारियों का न्यूनतम आनुपातिक प्रतिनिधित्व न होना,सरकार की संविधान विरोधी सोच को दर्शाता है।
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हमें दूसरी सहमति इस बात पर बनानी चाहिए कि यह समस्या 2014 में बनी मोदी सरकार में ही पैदा नहीं हुई है,लेकिन यह तथ्य और सत्य है कि उन्होंने भी इसे ठीक करने के लिए कोई कदम नहीं उठाया है। यह सच है कि यह समस्या 2014 से पहले से ही चली आ रही है। मिसाल के तौर पर,मनमोहन सिंह के यूपीए शासन के तुरंत बाद 2015 के आंकड़ों के मुताबिक, केंद्र सरकार के 70 सचिवों में कोई ओबीसी नहीं था और एससी-एसटी के तीन-तीन ही अधिकारी थे। 278 संयुक्त सचिवों में सिर्फ 10 एससी और 10 एसटी और 24 ओबीसी थे।
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तीसरी सहमति इस बात पर बनानी चाहिए कि राजकाज और खासकर नौकरशाही में तमाम सामाजिक समूहों, खासकर वंचित समूहों की हिस्सेदारी न सिर्फ अच्छी बात है, बल्कि संविधान और लोकतंत्र के सामाजिक न्याय के लिए यह ज़रूरी भी है। किसी भी संस्था का सार्वजनिक या सबके हित में होना इस बात से भी तय होता है कि इसमें विभिन्न समुदायों और वर्गों की समुचित हिस्सेदारी है या नहीं! ज्योतिबा फुले ने उस समय इस बात को बेहतरीन तरीके से उठाया था,जब उन्होंने पाया कि पुणे सार्वजनिक सभा में पिछड़ी जातियों का प्रतिनिधित्व ही नहीं है तो उन्होंने पूछा कि फिर यह सार्वजनिक सभा कैसे हुई? ज्योतिबा फुले के इस विचार को भारतीय संविधान में मान्यता मिली और अनुच्छेद 16(4) के तहत व्यवस्था की गई है कि अगर राज्य की नज़र में किसी पिछड़े वर्ग (एससी- एसटी और ओबीसी) का सरकारी नौकरियों में पर्याप्त प्रतिनिधित्व/हिस्सेदारी नहीं है तो सरकार उस वर्ग के लोगों के लिए आरक्षण की व्यवस्था कर सकती है।
उपरोक्त तीन स्थापनाओं पर सहमति के बाद हम उन कारणों पर विचार कर सकते हैं जिनकी वजह से एससी-एसटी और ओबीसी के नौकरशाहों की शीर्ष निर्णायक तथा महत्वपूर्ण पदों पर हिस्सेदारी नहीं है:
नौकरी में अलग-अलग उम्र में आना और कार्यकाल में अंतर:
1️⃣
सिविल सर्विस परीक्षा के लिए यूपीएससी के मापदंडों के हिसाब से अनारक्षित और ईडब्ल्यूएस कैटेगरी के अभ्यर्थियों की अधिकतम उम्र 32 साल निर्धारित है। ओबीसी कैंडिडेट को तीन साल और एससी-एसटी कैंडिडेट इस उम्र में पांच साल की छूट है। यानी ओबीसी कैंडिडेट 35 साल तक और एससी-एसटी कैंडिडेट 37 साल की उम्र तक ऑल इंडिया सर्विस में आ सकते हैं,लेकिन इसका एक यह भी अर्थ है कि एससी-एसटी और ओबीसी के कई कैंडिडेट,अनारक्षित और ईडब्ल्यूएस कैंडिडेट्स के मुकाबले कम समय नौकरी कर पाएंगे। यह बात बहुत महत्वपूर्ण है,क्योंकि सबसे लंबी अवधि तक नौकरी कर रहे कैंडिडेट्स से ही शीर्ष स्तर के अफसर चुने जाते हैं। उम्र में छूट की वजह से सैद्धांतिक रूप से देखा जाए तो सिविल सेवा के दो अफसरों के कार्यकाल में 16 वर्ष तक का अंतर हो सकता है,क्योंकि सभी वर्गों से एक अफसर न्यूनतम 21 साल की उम्र में और दूसरा आरक्षित वर्ग का अफसर अधिकतम 37 साल की उम्र में सर्विस में आ सकता है।
सकता है।
2️⃣
दूसरी समस्या उच्च पदों के लिए गठित एंपैनलमेंट की है। अभी व्यवस्था यह है कि सरकार का कार्मिक विभाग नियत समय की नौकरी पूरी कर चुके अफसरों से पूछता है कि क्या वे विभिन्न उच्च पदों के लिए एंपैनल होना चाहते हैं। जो सहमति देते हैं उनमें से कुछ अफसरों को उन पदों के पैनल में चुन लेती है। इसी पैनल से अफसरों को प्रमोशन के लिए चयनित किया जाता है। अभी पैनल में अफसरों को लेने की प्रक्रिया पारदर्शी नहीं है और इसमें विभाग के उच्च अधिकारियों का मंतव्य यानी उनकी राय महत्वपूर्ण होती है। चूंकि,उच्च पदों पर एससी-एसटी और ओबीसी के अफसर बहुत कम हैं तो आरक्षित वर्ग के अफसरों के प्रति एक स्वाभाविक पक्षपात हो सकता है, इस बात से इनकार तो नहीं किया जा सकता। इसलिए ज़रूरी है कि इस प्रक्रिया में पक्षपात की आशंका को न्यूनतम किया जाए और विभिन्न मापदंडों को स्कोर के आधार पर निर्धारित किया जाए। अगर ऐसा कोई निष्पक्ष सिस्टम बना पाना संभव न हो तो फिर जिन अफसरों ने एक निर्धारित कार्यकाल पूरा कर लिया है,उन सभी को पैनल में ले लिया जाए। दूसरे प्रशासनिक सुधार ट्रिब्यूनल की रिपोर्ट ने कैबिनेट सेक्रेटेरिएट के आंकड़ों के हवाले से बताया है कि अनारक्षित श्रेणी के कैंडिडेट्स औसतन लगभग 25 साल की उम्र में जबकि एससी-एसटी और ओबीसी औसतन लगभग 28 साल की उम्र में सेवा में आते हैं,यानि आरक्षित श्रेणी के कैंडिडेट अनारक्षित श्रेणी के कैंडिडेट से औसतन तीन साल कम नौकरी कर पाते हैं। प्रशासनिक सुधार ट्रिब्यूनल मानता है कि, आरक्षित श्रेणी के कई अफसर इस वजह से भी नीति निर्माता के स्तर पर नहीं पहुंच पाते हैं।
रिपोर्ट में यह भी उल्लेख किया गया है कि “आरक्षित वर्ग से बहूत कम अफसर ही सचिव स्तर तक पहुंच पाते हैं।” लोक प्रशासन पर बनी कोठारी कमेटी ने तो अनारक्षित वर्ग ही नहीं,आरक्षित वर्ग के कैंडिडेट्स के लिए भी सिर्फ दो बार परीक्षा में बैठने की सिफारिश की थी। भर्ती नीति और चयन पद्धति पर इस समिति (डी.एस.कोठारी) ने परीक्षा चक्र के डिजाइन पर सिफारिशें प्रदान कीं, जिसके परिणामस्वरूप तीन चरणों में परीक्षा की वर्तमान प्रणाली शुरू की गई: एक प्रारंभिक परीक्षा जिसके बाद एक मुख्य परीक्षा और एक साक्षात्कार। इसके अलावा,ऑल इंडिया सर्विसेज के लिए एक ही परीक्षा की योजना शुरू की गई। देश में गठित कई सुधार आयोग और समितियां इस बात पर एकमत दिखती हैं कि ज्यादा उम्र के चयनित अफसर सेवा में नहीं लिए जाने चाहिए और सुधारों में यह सुझाव बेहद उपयोगी माना जाता है। 31अगस्त 2005 को जांच आयोग के रूप में वीरप्पा मोइली की अध्यक्षता में दूसरे प्रशासनिक सुधार ट्रिब्यूनल ने सिफारिश की है कि सिविल सर्विस परीक्षा में बैठने के लिए अनारक्षित वर्ग हेतु उम्र 21 से 25 साल होनी चाहिए। ओबीसी के लिए इसमें तीन साल और एससी-एसटी के लिए अधिकतम चार साल की छूट हो। इस उम्र तक अगर लोग नौकरी में आ जाते हैं तो इस बात की पूरी संभावना होगी कि हर अफसर सचिव पद हेतु एंपैनल होने के अर्ह(योग्य) हो जाएगा। दूसरा सुझाव पहली नज़र में अटपटा लग सकता है,लेकिन अगर ज़िद है कि अफसर 32, 35 और 37 साल तक के हो सकते हैं तो ऐसा नियम बनाया जा सकता है कि किसी भी वर्ग से अफसर चाहे जिस उम्र में आए,सबको एक समान कार्यकाल मिलेगा।
3️⃣
एक और महत्वपूर्ण पहलू, किसी अफसर को काबिल और ईमानदार मानने या न मानने को लेकर है। हालांकि, प्रशासनिक सेवाओं में जाति आधारित पक्षपात को साबित कर पाना हमेशा संभव नहीं है,लेकिन उच्च पदों पर उनकी लगभग अनुपस्थिति को देखते हुए इस आशंका से इनकार भी नहीं किया जा सकता। जब 22.5% एससी-एसटी तथा 27% ओबीसी अफसर केवल आरक्षण से सर्विस में आ रहे हैं और कुछ उच्च मेरिट की वजग से ओवरलैपिंग से अनारक्षित श्रेणी में जगह ले लेते हैं, तो वे बीच में कहां लटक या अटक जा रहे हैं? दूसरे प्रशासनिक सुधार ट्रिब्यूनल ने सालाना रिपोर्ट बनाने में पक्षपात कम करने के लिए यह सिफारिश की थी कि "आउट ऑफ टर्न प्रमोशन ग्रेड" किसी भी स्तर पर सिर्फ 5-10% अफसरों को ही दिया जाए यानी कि मनमाने ढंग से प्रोमोशन पर एक सीमा तक अंकुश लगाना भी न्यायसंगत होगा। साथ ही यह भी सिफारिश थी कि गोपनीय रिपोर्ट की जगह एक नया सिस्टम ईज़ाद किया जाए,जिसमें कार्यभार पूरा करने के स्पष्ट रूप से पहचाने जाने वाले मानकों के आधार पर किसी अफसर का प्रोमोशन हेतु मूल्यांकन हो।
सरकार अगर सचमुच नौकरशाही के उच्च पदों पर सामाजिक विविधता के आधार पर न्याय या हिस्सेदारी देना चाहती है, तो उसे उपरोक्त कुछ उपायों पर गम्भीरतापूर्वक विचार करना चाहिए।

Friday, July 12, 2024

सामाजिक न्याय के नाम पर सत्ता की मलाई चाटते जातीय दलों की असलियत जो एससी-एसटी और ओबीसी के लिए आस्तीन के सांप सिद्ध हो रहे हैं-नन्दलाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)

भाग: दो.......
(भाग एक पढ़ने के लिए लिंक करें https://anviraj.blogspot.com/2024/07/blog-post_12.html
नन्दलाल वर्मा
(सेवानिवृत्त एसोसिएट प्रोफेसर)
युवराज दत्त महाविद्यालय
लखीमपुर-खीरी
9415461224.

वास्तविकता यह है कि एससी-एसटी और ओबीसी के जनप्रतिनिधियों को आरक्षण व्यवस्था और उसमें होने वाली साजिशों की जानकारी ही नहीं है और न ही उन्हें इसकी जरूरत महसूस होती है,क्योंकि एक विधायक या सांसद के बच्चे के लिए इन चीजों का कोई महत्व नहीं रह जाता है। सामाजिक न्याय की आरक्षण व्यवस्था और उसका सही तरीके से क्रियान्वयन एक जटिल प्रक्रिया है जिसकी सामान्य जानकारी (ज्ञान नहीं) बहुजन समाज के कुछ लोगों को तो है,लेकिन बहुजन समाज के जनप्रतिनिधियों को तो है ही नहीं और न ही वे इसकी सामान्य जानकारी और क्रियान्वयन प्रक्रिया की जटिलता को जानना और समझना चाहते हैं,भले ही उनमें से कोई सामाजिक अधिकारिता विभाग का मंत्री ही क्यों न बना दिया जाए!
✍️यूपी में 69000 प्राथमिक शिक्षकों की भर्ती में एससी और ओबीसी के लगभग 19000 अभ्यर्थियों की हकमारी की सच्चाई राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग और राज्य की हाई कोर्ट मान चुकी है। इन 19000 अभ्यर्थियों के स्थान पर अपात्र या अयोग्य नौकरी कर अच्छा खासा वेतन उठाकर अपने परिवार की परवरिश कर आर्थिक रूप से मजबूत हो रहे हैं। भर्ती की सूची के संशोधन हेतु कोर्ट द्वारा निर्धारित अवधि गुजर जाने के बावजूद न तो राज्य सरकार के कानों पर जूं रेंग रही है और न ही न्यायपालिका को उसकी दुबारा सुधि आ रही है। राज्य सरकार में शामिल अपना (दल एस) प्रमुख अनुप्रिया पटेल के विधायक और मंत्रीगण और एससी-एसटी और ओबीसी के सत्ता पक्ष और विपक्ष के जनप्रतिनिधि लंबे अरसे से लंबित इस मुद्दे पर चुप्पी क्यों साधे हुए हैं? मेडिकल की नीट,शिक्षा की यूजीसी नेट और शोध की सीएसआईआर की परीक्षाओं में केवल पेपर लीक का या पेपर बिकने या उसमें हुई धांधलियों तक ही सीमित नहीं है,अपितु इसके पीछे एक बड़ा सामाजिक-आर्थिक विषय जुड़ा हुआ है। 
✍️मेडिकल की नीट,यूजीसी-नेट और सीएसआईआर जैसी परीक्षा में अयोग्य लोगों की भर्ती होने से केवल पात्र/योग्य बच्चों के वर्तमान और भविष्य के साथ ही खिलवाड़ नहीं होता है,बल्कि गलत तरीके से बनने वाले डॉक्टरों और शिक्षकों से देश की जनता के स्वास्थ्य और जीवन में लंबे समय के लिए खतरनाक स्थितियां पैदा होंगी जिससे आने वाली कई पीढ़ियों का जीवन और शिक्षा बर्बाद होने की पूरी संभावना रहती है। सामाजिक न्याय की दुहाई देने वाले सभी दलों (सत्ता या विपक्ष) के सांसदों को नीट जैसी राष्ट्रीय स्तर की परीक्षा में अनियमितताओं के परत दर परत खुलासे किए जाने के लिए एक मंच पर दिखना चाहिए,तभी सामाजिक न्याय के नाम पर हो रही राजनीतिक गोलबंदी सार्थक और विश्वसनीय होती नजर आएगी और देश हर वर्ग के विद्यार्थियों के साथ न्याय होगा। अन्यथा किसी एक दल द्वारा सामाजिक न्याय या आरक्षण के किसी एक हिस्से को उछालने के निहितार्थ कुछ और हो सकते हैं,जहां तक आम आदमी का दिमाग और नज़र नही जा सकती है। किसी अदृश्य राजनीतिक एजेंडे को पूरा करने के लिए ऐसी परिस्थितियां शीर्ष स्तर से राजनीतिक रूप से प्रेरित या संदर्भित होने की पूरी संभावना जताई जा रही है। राजनीतिक विश्लेषकों और विशेषज्ञों की राय में अनुप्रिया पटेल की चिट्ठी के संदर्भ में "कहीं पे निगाहें-कहीं पे निशाना" की कहावत चरितार्थ होती नज़र जा रही है। राजनीतिक गलियारों में चर्चा कि इस चिट्ठी की विषय वस्तु के जरिये योगी आदित्यनाथ की एससी-एसटी और ओबीसी विरोधी ईमेज बनाने का षड्यंत्र या साज़िश हो सकती है। लोकसभा चुनाव 2024 में एससी- एसटी और ओबीसी की नाराज़गी और भविष्य की राजनीति इस चिट्ठी के माध्यम से बीजेपी साधना चाहती है। हो सकता है कि योगी से केंद्र की नाराज़गी निकालने में यह चिट्ठी रामवाण के रूप में सहायक या कारगर साबित हो जाए! अनुप्रिया पटेल की इस चिट्ठी पर मीडिया जगत में तो यहां तक चर्चा है कि गुजराती जोड़ी का अपने गठबंधन घटक के कंधे पर बंदूक रखकर योगी के ऊपर दागने का प्रयास है।
✍️राष्ट्रव्यापी बहुचर्चित मेडिकल की नीट,शिक्षा की यूजीसी-नेट और शोध की सीएसआईआर जैसी अतिमहत्वपूर्ण परीक्षाओं में हुई धांधलियों पर अनुप्रिया पटेल की ओर से एक मौखिक वक्तव्य तक नहीं आया और अचानक एनएफएस पर लिखित चिट्ठी,वह भी प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को संबोधित! असल में एनएफएस का फॉर्मूला राज्य और केंद्र के विश्वविद्यालयों में शिक्षक भर्ती में उस स्तर पर लागू होने की ज्यादा संभावना रहती है जहां साक्षात्कार  और एकेडेमिक्स के आधार पर नियुक्तियां होती हैं। किसी भी सेवा आयोग से होने वाली भर्तियों में एनएफएस लागू कर अनारक्षित वर्ग की भर्ती करने का प्रावधान नहीं है। यूपी में स्थित राज्य और केंद्रीय विश्वविद्यालयों में एससी-एसटी और ओबीसी के अभ्यर्थियों के साथ एनएफएस के नाम पर घोर अन्याय होते समय यह मुद्दा किसी सामाजिक न्याय या आरक्षण की वकालत करने वाले दल द्वारा क्यों नहीं उठाया गया? बीएचयू, दीनदयाल उपाध्याय विश्वविद्यालय गोरखपुर और बुंदेलखंड विश्वविद्यालयों में एनएफएस के बहाने न जाने कितने एससी-एसटी और ओबीसी अभ्यर्थियों की हकमारी हुई है,यह तथ्य सोशल मीडिया के माध्यम से जगजाहिर होने के बावजूद उस समय सामाजिक न्याय की दुहाई देने वाले सभी दल और उनके मुखिया कान में तेल डालकर या रुई ठूंसकर क्यों बैठे रहे? आज सरकारी कर्मचारियों का राष्ट्रव्यापी सबसे बड़ा मुद्दा पुरानी पेंशन योजना (ओपीएस) की बहाली का है जो बुढ़ापे का सबसे बड़ा आर्थिक सहारा और मजबूती के रूप में मानी जाती है। सामाजिक न्याय की राजनीति का नारा लगाने वाले एनडीए गठबंधन में शामिल और विपक्ष के सभी दलों को इस लंबित मामले पर संसद से लेकर सड़क तक संघर्ष करना चाहिए अन्यथा नैतिकता के आधार पर सभी विधायकों और सांसदों को भी अपनी पेंशन छोड़ देना चाहिए। असल में अनुप्रिया पटेल द्वारा अपनी चिट्ठी में एनएफएस के मुद्दे को उछालने की टाईमिंग और परिस्थिति सही नहीं चुनी गई।मोदी की पिछली सरकार में दिल्ली विश्वविद्यालय की भर्तियों में एनएफएस का मुद्दा काफी चर्चा में रहा, लेकिन तब अनुप्रिया पटेल की इस पर कोई सामाजिक और राजनीतिक प्रतिक्रिया देखने और सुनने को नही मिली थी। इसलिए उनकी इस चिट्ठी की टाइमिंग को लेकर कई तरह के निहितार्थ निकाले जा रहे हैं। 
✍️यूटूबर्स और सोशल मीडिया में अपना दल (एस) की अनुप्रिया पटेल की उस चिट्ठी का राजनीतिक पोस्टमार्टम अच्छी तरह से हो रहा है। बताया जा रहा है कि अनुप्रिया पटेल की चिट्ठी किसी बड़े राजनीतिक एजेंडे को पूरा करने की दिशा में बीजेपी के शीर्ष राजनेताओं की साजिश का हिस्सा है।  पेपर लीक मामले में सुभासपा के एक विधायक का नाम आने और उसके एक पुराने स्टिंग ऑपरेशन का वीडियो वायरल होने से जो राजनीतिक उथल-पुथल पैदा होती नजर आ रही है,उसका ठीकरा यूपी के एक बड़े बीजेपी नेता और पीएम पद के कथित दावेदार के रास्ते में रोड़ा पैदाकर उनके सिर पर फोड़ने का षडयंत्र का हिस्सा बताया जा रहा है। वरिष्ठ और निर्भीक पत्रकार वानखेड़े के इस चिट्ठी के पोस्टमार्टम से यह बात निकलकर सामने आ रही है कि इस चिट्ठी के माध्यम से मोदी और शाह की खोपड़ी एक बड़े राजनीतिक उद्देश्य को साधने की नीयत से काम कर रही है। अनुप्रिया पटेल की चिट्ठी मोदी-शाह की एक बड़ी राजनीतिक चाल का हिस्सा बताई जा रही है। मोदी-शाह इस चिट्ठी के माध्यम से लोकप्रिय हो रहे योगी आदित्यनाथ की वर्तमान और भावी राजनीति में ग्रहण लगाना चाहते हैं। यूटूबर्स और राजनीतिक विशेषज्ञों का अनुमान और आंकलन है कि अनुप्रिया पटेल ने स्वप्रेरणा से यह चिट्ठी नहीं लिखी है,बल्कि यूपी में लॉ एंड ऑर्डर के मामले में लोकप्रियता के शिखर पर स्थापित मुख्यमंत्री योगी आदित्य नाथ की राजनीतिक साख पर बट्टा लगाने की नीयत से एक सुनियोजित रणनीति के तहत यह चिट्ठी बीजेपी के ही शीर्ष नेतृत्व द्वारा लिखाई गयी है। यह भी कहा जा रहा है कि अनुप्रिया पटेल की इस चिट्ठी के माध्यम से यह संदेश प्रचारित और प्रसारित करने की कोशिश की गई है कि राज्य की योगी सरकार एससी-एसटी और ओबीसी विरोधी है। राजनीतिक विश्लेषकों का यह भी आंकलन है कि मोदी और शाह एक तीर से कई शिकार करना चाहते हैं। बीजेपी के द्वय राजनेता इस चिट्ठी में निहित विषय को सामाजिक और राजनीतिक रंग देकर योगी की जगह प्रदेश में पिछड़े वर्ग की राजनीति को स्थापित कर सपा और नीतीश कुमार की राजनीति की बीजेपी में भरपाई करना चाहते हैं। इस चिट्ठी की असलियत,निहितार्थ और असर तो आने वाले भविष्य में घटित होने वाली घटनाओं से ही उजागर होना सम्भव होगा।

बड़े चोरों के भरोसे-सुरेश सौरभ

  (व्यंग्य)   
  सुरेश सौरभ
निर्मल नगर लखीमपुर-खीरी
उत्तर प्रदेश पिन-262701
मो-7376236066

बाढ़ के पानी से तमाम गांव लबालब भर चुके थे। बाढ़ सब बहा ले गयी, अब सिर्फ लोगों की आंखों में पानी ही पानी बचा था। रात का वक्त है-भूख से कुत्तों का रुदन राग बज रहा है। वहीं पास में बैठे कुछ चोर अपने-अपने दुःख का राग अलाप रहे हैं।
एक चोर बोला-सारा धंधा चौपट कर दिया इस पानी ने, सोचा था दिवाली आने वाली है कहीं लम्बा हाथ मारूंगा, पर अब तो भूखों मरने की नौबत आ गई। 
दूसरा चोर लम्बी आह भर कर बोला-लग रहा, आकाश से पानी नहीं मिसाइलें बरसीं हैं, हर तरफ पानी बारूद की तरह फैला हुआ नजर आ रहा है। 
उनके तीसरे मुखिया चोर ने चिंता व्यक्त की-हम टटपूंजिये चोरों के दिन गये। अब तो बड़े-बड़े चोरों के दिन बहुरने वाले हैं। कल गांव में टहल रहा था। बाढ़ में फंसे लोग आपस में बातें कर रहे थे कि सरकार ऊपर से राहत सामग्री बहुत भेज रही है, पर नीचे वाले  बंदर, बंदरबांट में लगे हैं, यही आपदा में अवसर, अफसरों का माना जाता है।
चौथा चोर दार्शनिक भाव में बोला-अब हम बाढ़ में फंसे पीड़ित, परेशान लोगों को क्या लूटें? चलो सुबह उन बड़े चोरों के पास चलें, जो राहत समग्री बांटते हुए गरीबों का हक जोकों की तरह चूस रहे हैं और गांव के भोले-भाले लोग उन्हें अपना भगवान मान कर उनके भक्त बने हुए हैं।
 सुबह वे चोर सरकारी राहत सामग्री पाने के लिए कतार बद्ध भीड़ में खड़े थे। उनके सामने एक अधिकारी अपने हाथ में भोंपू लिए ऐलान कर रहा था-सब लोग लाइन से ही राहत समग्री लें और जिन्हें  कल कूपन दिये गये थे उन्हें ही आज राशन मिलेगा। जिनके पास कूपन नहीं है, वे यहां फालतू में न खडे हो। हमारी टीम बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों का दौरा कर रही है जो प्रभावित होंगे उन्हें ही कूपन मिलेंगे। और जो डेट कूपन पर होगी, उसी डेट पर उन्हें राहत सामग्री मिलेंगी। यह ऐलान सुन वह सारे चोर हैरत से एक दूसरे का मुंह ताकने लगे, क्योंकि किसी के पास कूपन नहीं थे। तब तीसरा मुखिया चोर बोला-कल लोग इसी के कूपन-उपन बांटने जैसी कुछ चर्चा कर रहे थे, कल यही अपने लोगों से वसूली करा रहा था। फिर उनकी इशारों से मंत्रणा हुई। सारे चोर कतारों से हट लिए। रास्ते में उनका मुखिया चोर बोला-अब हमसे बड़े-बडे़ पढ़े-लिखे चोर गांवों में आ गये हैं। अब हमें चोरी छोड़ कर नेतागीरी करनी चाहिए, शहरों में कुछ बड़े-बड़े नेता-मंत्री  हमारी पहचान के मित्र हैं, उनका यही कहना हैं। क्योंकि चोरी छोड़ कर ही, वे माननीय बने और करोड़पति भी । 
   अब सारे चोर माननीय बनने की तरतीब में बतियातें हुए जा रहे थे।  

सामाजिक न्याय के नाम पर सत्ता की मलाई चाटते जातीय दलों की असलियत जो एससी-एसटी और ओबीसी के लिए आस्तीन के सांप सिद्ध हो रहे हैं-नन्दलाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)

भाग:एक
       
नन्दलाल वर्मा
(सेवानिवृत्त एसोसिएट प्रोफेसर)
युवराज दत्त महाविद्यालय
लखीमपुर-खीरी
9415461224.
✍️सामाजिक न्याय की दुहाई देकर जातीय आधार पर दल गठित जो दल संविधान विरोधी आरएसएस और उसके राजनीतिक दल बीजेपी नेतृत्व एनडीए की सरकार में शामिल होकर लंबे अरसे से सत्ता की मलाई चाटने वाले दल बहुजन समाज (एससी-एसटी और ओबीसी) के लिए आस्तीन के सांप साबित हो रहे हैं। अनुप्रिया पटेल,ओम प्रकाश राजभर और संजय निषाद सभी सत्ता की अवसरवादी राजनीति कर समाज मे राजनीतिक बिखराव पैदाकर मनुवादी शक्तियों को अप्रत्यक्ष रूप से लंबे अरसे से राजनीतिक लाभ पहुंचा रहे हैं,अर्थात उनकी चुनावी राजनीति को मजबूत कर रहे हैं। संविधान और लोकतंत्र के मुद्दे पर ओबीसी और एससी-एसटी और अल्पसंख्यक मुस्लिम समुदाय में चुनावी जागरूकता के साथ टैक्टिकल वोटिंग का हुनर पैदा होने से आज बीजेपी और एनडीए गठबंधन यूपी में अप्रत्याशित रूप से कमजोर हुआ है,यदि बीएसपी सुप्रीमो विपक्ष के इंडिया गठबंधन में शामिल हो गईं होती तो यूपी में बीजेपी और एनडीए गठबंधन का सफाया लगभग पक्का था,लेकिन दुर्भाग्यवश वो न हो सका। बीएसपी सुप्रीमो की भूमिका को लेकर भी सामाजिक-राजनीतिक और बौद्धिक मंचों पर कई तरह के आलोचनात्मक ढंग से सवाल उठते रहे और उन सवालों या संशयों के दुष्प्रभाव बीएसपी के आये चुनावी परिणामों का विश्लेषण करने से परिलक्षित होते दिखाई भी दिए हैं। लोकसभा चुनाव 2019 में समाजवादी पार्टी से गठबंधन कर शून्य से दस तक पहुंचने वाली बीएसपी ने लगभग 20% वोट हासिल किया था और समाजवादी पार्टी अपनी पुरानी संख्या ही बचा पाई थी। 2024 में बीएसपी सुप्रीमो की "एकला चलो" की नीति के फलस्वरूप वह शून्य पर जा पहुंची और वोट प्रतिशत भी आधे से ज़्यादा कम हो गया। जब देश की सबसे बड़ी पार्टी बीजेपी गठबंधन की राजनीति का फार्मूला अपनाने पर मजबूर है या यह उसकी सत्ता की राजनीति का अभिन्न हिस्सा बन चुका है तो ऐसी परिस्थिति में बीएसपी की एकला चलो की राजनीति कितनी तार्किक और न्यायसंगत लग रही है।
✍️मोदी नेतृत्व बीजेपी जैसे-जैसे राजनीतिक रूप से कमजोर दिखाई देगी,सामाजिक न्याय की झूठी राजनीति करने वाले बहुजन समाज के असली राजनीतिक दुश्मनों का बीजेपी से मोह भंग होता हुआ दिखेगा और सत्ता की ओर बढ़ते किसी दूसरे राजनीतिक विकल्प की तलाश जारी करते हुए दिखाई देंगे। आज की विशुद्ध सत्ता की राजनीति के दौर में सामाजिक न्याय के नाम पर बने ऐसे जाति आधारित दलों की कोई कमी नहीं है,एक हटेगा तो  जातीय राजनीति की भरपाई के लिए कोई दूसरे के आने का क्रम थमने वाला नहीं और पैदा होते रहेंगे एवं अलग-अलग जाति के नाम पर बहुजन समाज राजनीतिक रूप से बंटता हुआ राजनीति का शिकार होकर ठगा जाता रहेगा। समाज के शिक्षित जानकार और जागरूक लोगों को आगे आकर समाज की सामाजिक-राजनीतिक चेतना और कदम पर काम करना होगा। जातीय राजनीति और चेतना के अति भावावेश या अतिरंजना में अब और बहने की जरूरत नहीं है,क्योंकि देश में सामाजिक- राजनीतिक बहुरूपियों की कमी नहीं है। एक हटेगा तो दूसरा आकर .....।
【अपना दल (एस) सांसद अनुप्रिया पटेल की मुख्यमंत्री योगी को लिखी चिट्ठी का पोस्टमार्टम एवं राजनीतिक निहितार्थ】
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✍️आजकल एनडीए गठबंधन में शामिल अपना दल (एस) की केंद्रीय राज्यमंत्री अनुप्रिया पटेल की एक चिट्ठी सोशल मीडिया से लेकर मुख्यधारा के मीडिया में सुर्खियों में है जिसमें उन्होंने प्रदेश के मुख्यमंत्री श्री योगी आदित्यनाथ को पत्र लिखकर सरकारी नियुक्तियों में एनएफएस(नॉन फाउंड सूटेबल) के नाम पर एससी-एसटी और ओबीसी के अभ्यर्थियों के साथ हो रहे अन्याय की ओर सरकार का ध्यान आकर्षित किया है। उल्लेखनीय है कि अपना दल (एस) राज्य में 2014 से बीजेपी गठबंधन की राजनीति का हिस्सा बनकर योगी सरकार में और 2017 से केंद्र सरकार में शामिल है। आरएसएस संचालित और नियंत्रित बीजेपी का राजनीतिक आचरण शुरू से ही संविधान और लोकतंत्र विरोधी रहा है। जब बीजेपी की सरकार नहीं हुआ करती थी तबसे वह आरक्षण खत्म करने की अप्रत्यक्ष और अदृश्य साज़िश के तहत संविधान समीक्षा की बात करती रही है और 2014 में मोदी के नेतृत्व में पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में आने के बाद भी संविधान और आरक्षण की समीक्षा की लगातार समय-समय वकालत की जाती रही है। संविधान और संविधान सम्मत आरक्षण को सीधे खत्म करने का वक्तव्य-कदम किसी भी दल के लिए कितना आत्मघाती साबित हो सकता है,आरएसएस और बीजेपी उसे अच्छी तरह समझती है। इसलिए संविधान और आरक्षण पर डायरेक्ट हिट या आक्रमण नहीं होगा,बल्कि उसके अप्रत्यक्ष विकल्पों पर लगातार विचार-मंथन होता रहता है और 2014 से उसकी कार्ययोजना पर क्रियान्वयन भी हो रहा है। सरकारी और सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों का बेतहाशा निजीकरण,बैंकों का विलय,पीपीपी मॉडल का अनवरत विकास,सरकारी नौकरियों में कमी,विशेषज्ञता के नाम पर लेट्रल एंट्री के नाम पर एक वर्ग और संस्कृति विशेष की भर्तियां करना आदि सामाजिक न्याय जैसी सांविधानिक व्यवस्थाओं की धज्जियाँ उड़ाने की अप्रत्यक्ष और अदृश्य रूप से तो विगत दस सालों से उपक्रम जारी है। चुनावी माहौल में एससी-एसटी और ओबीसी मंदिर,हिंदुत्व और धर्म के नशे में बेसुध होकर मतदान करता दिखाई देता है। 
✍️2019 के लोकसभा चुनाव से ठीक पहले आर्थिक रूप से पिछड़ों के लिए संवैधानिक आरक्षण व्यवस्था न होने के बावजूद सवर्ण वर्चस्व आरएसएस के इशारे पर सामान्य वर्ग की जातियों के लिए दस प्रतिशत सरकारी नौकरियों में आरक्षण देते समय सत्ता और विपक्ष में बैठे सभी एससी-एसटी और ओबीसी के सांसदों के मुँह में दही क्यों जम गई थी अर्थात उनकी जुबान को लकबा क्यों मार गया था? यदि डॉ.भीमराव आंबेडकर जी ने एससी-एसटी के लिए लोकसभा में आरक्षण की व्यवस्था न की होती तो एससी-एसटी के लिए लोकसभा में पहुंचना एक सपना ही रह जाता। 75 साल के लोकतंत्र में संसद की राज्यसभा में आरक्षण न होने की वजह से एससी-एसटी के कितने सांसद पहुंच पाए हैं?
✍️एससी-एसटी और ओबीसी अभ्यर्थियों के साथ लंबे अरसे से होते आ रहे अन्याय या चीर हरण पर अपना दल (एस) प्रमुख और सांसद की नज़र अब पहुंची है, उसके लिए बहुजन समाज की ओर से सादर धन्यवाद और साधुवाद। एससी-एसटी और ओबीसी अभ्यर्थियों के साथ केवल एनएफएस के आधार पर ही अन्याय या उनकी हकमारी नहीं हो रही है,बल्कि उनके साथ केंद्र में 2014 से और राज्य सरकार में 2017 से यह प्रक्रिया अनवरत रूप से कई रूपों में जारी है। विधान मंडल और संसद में बैठे एससी-एसटी और ओबीसी के सांसदों के दिमागों में सत्ता के ताले,जुबानों पर लकबा की मार और आंखों पर पट्टियां बंधी हुई हैं। सबसे बड़ा सवाल यह है कि उसका इलाज कैसे हो सकता है? सरकारी नौकरियों में एससी-एसटी और ओबीसी की बैक लॉग की बंद पड़ी भर्ती प्रक्रिया, आरक्षण में ओवरलैपिंग व्यवस्था का खात्मा,शिक्षण संस्थानों में नियुक्ति के उपरांत प्लेसमेंट में नई रोस्टर व्यवस्था लागू होना, डिफेंस सेवाओं में भर्ती की सारी पुरानी प्रक्रिया, किंतु चार साल के लिए अग्निवीर बनाया जाना,ओबीसी आरक्षण में क्रीमिलेयर के नाम पर उस वर्ग के योग्य और पात्र अभ्यर्थियों को आरक्षण से बाहर करना,बढ़ती महंगाई के फलस्वरूप घटती क्रय शक्ति (परचेजिंग पावर) अर्थात अप्रत्यक्ष रूप से घटती आय और नए वेतनमान की वजह से बढ़ती आय के फलस्वरूप बढ़ता क्रीमिलेयर वर्ग अर्थात क्रीमीलेयर के बहाने आरक्षण की सीमा से बाहर होता ओबीसी का एक बड़ा वर्ग, ओबीसी वेलफेयर की संसदीय समिति के अध्यक्ष सतना-एमपी से लगातार चौथी बार के सांसद गणेश सिंह पटेल द्वारा क्रीमीलेयर की आय सीमा 15लाख रुपये की सिफारिश करने की वजह से रुष्ट कथित ओबीसी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उनका कार्यकाल का विस्तार ही नहीं किया और उनके स्थान पर सीतापुर से सांसद राजेश वर्मा को नामित किया। उनके कार्यकाल में शायद ही इस मुद्दे पर कोई अगली कार्यवाही हो सकी हो। 2024 में गणेश सिंह पटेल सतना से लगातार पांचवीं बार सांसद चुने गए हैं।
✍️मंडल आयोग की स्पष्ट सिफारिश होने के बावजूद प्रोमोशन में आरक्षण न होने से तत्संबंधी स्तर पर आरक्षण में कमी आना... आदि बड़ी हकमारी की ओर हमारे एससी-एसटी और ओबीसी के चुने हुए जनप्रतिनिधियो का ध्यान अभी तक क्यों नहीं जा सका? सामाजिक न्याय करने का वादा कर विधान मंडल और संसद में पहुँचकर हमारे जनप्रतिनिधि यदि वहां सत्ता से सामाजिक न्याय की मांग नहीं कर सकते हैं तो ऐसे लोगों को दुबारा प्रतिनिधि चुनना उस समाज की मूर्खता या जातीय अंधभक्ति ही समझी जाएगी। सामाजिक न्याय की राजनीति के बहाने विधायिका में हिस्सेदारी पाने वाले सभी दलों पर जातिगत जनगणना कराने का सामाजिक दबाव बनना चाहिए जिससे जनसंख्या के हिसाब से जातिगत आरक्षण के विस्तार की राजनीति को भरपूर ताकत मिल सके। एनएफएस तो आरक्षण में कटौती करने की मनुवादियों द्वारा एक नवीन अदृश्य तकनीक विकसित की गई है जिसका दायरा शिक्षण संस्थाओं जैसे क्षेत्रों की नौकरियों तक ही सीमित है या जहां साक्षात्कार की मेरिट के आधार पर नियुक्तियां होती हैं। अपना दल (एस) की सांसद की चिट्ठी में केवल एनएफएस के आधार पर आरक्षण में हो रही साज़िश का ही उल्लेख नहीं होना चाहिए था, बल्कि ऊपर अंकित उन सभी बिंदुओं को शामिल किया जाना चाहिए था जिनके माध्यम से एससी-एसटी और ओबीसी की लंबे अरसे से बारीकी से बड़ी हकमारी हो रही है।
भाग दो पढ़ने के लिए लिंक करे    https://anviraj.blogspot.com/2024/07/blog-post_55.html

Tuesday, July 02, 2024

इंदिरा गांधी की इमरजेंसी से ज़्यादा खतरनाक है,आज के दौर की अघोषित तानाशाही और इमरजेंसी-नन्दलाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)

"लोकतंत्र के मंदिर में राजतंत्र-तानाशाही की निशानी "सिंगोल" स्थापित करने के पीछे मोदी/बीजेपी की नीयत क्या है?"                        
नन्दलाल वर्मा
(सेवानिवृत्त एसोसिएट प्रोफेसर)
युवराज दत्त महाविद्यालय
लखीमपुर-खीरी
✍️लोकसभा स्पीकर बनने के बावजूद आरएसएस और बीजेपी की ग़ुलाम मानसिकता से न मुक्त हो पाने वाले ओम बिरला को कांग्रेस की 50साल पुरानी इमर्जेंसी याद है,किंतु नीट,यूजीसी नेट,सीएसआईआर जैसी प्रतियोगी परीक्षाओं की धांधली और नग्नता - सांप्रदायिकता की आग से अभी-अभी बुरी तरह झुलसे मणिपुर के गहरे ज़ख्म और वहां की जनता की पीड़ा याद नहीं, क्योंकि वह अपनी आँख से न तो देख पाते है और न ही अपने दिमाग से सोच पाते है। बीजेपी शासित राज्य उत्तर प्रदेश और राष्ट्रीय स्तर की प्रतियोगी परीक्षाओं के पेपर लीक होने से रद्द हुई परीक्षाएं  से जो भद्द कटी है,उससे बेख़बर और बेशर्म हो चुके हैं, हमारे स्पीकर और पूरी बीजेपी। उन्हें 1975 वाली इमरजेंसी तो याद है,लेकिन अयोध्या की 1992 में बाबरी मस्जिद और 2002 में गोधरा  कांड जैसी विध्वंसक और पूरे देश में अराजकता फैलाने और दिल दहला देने वाली घटनाएं याद नहीं! व्यक्तिवादी और दलीय अंधभक्ति-स्वामिभक्ति और ग़ुलामी की पराकाष्ठा दर्शाता है,बिरला का सम्पूर्ण व्यक्तित्व,वक्तव्य और कृतित्व। इंदिरा गांधी ने जो कुछ भी किया वह डंके की चोट पर और ताल ठोंककर किया,किसी राजनीतिक विरोधी को छुपके से घात लगाकर या पीठ में छुरा भोंककर नहीं। लोकहित में बड़े-बड़े राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मुद्दों को सुलझाने में जो ऐतिहासिक,महत्वपूर्ण और सख़्त निर्णय लिये,उनका भी सम्मान के साथ ज़िक्र किया जाना चाहिए। निःसंदेह कांग्रेस के माथे पर इमरजेंसी के और बीजेपी के माथे पर गोधराकांड और बाबरी मस्जिद विध्वंस के लगे गहरे काले और बदनुमा धब्बों के निशान मिटाना संभव नहीं है।
✍️सरकार के इशारे पर जनता द्वारा निर्वाचित और संवैधानिक पद पर आसीन किसी मुख्यमंत्री तक को किस हद तक परेशान किया जा सकता है इसकी जीती जागती मिसाल हैं,दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल और झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन। इन दोनों के खिलाफ कोई ऐसा लिखित या ठोस सबूत नहीं मिला है कि उनके साथ एक दुर्दांत अपराधी की तरह पेश हुआ जाए! इसके बावजूद सरकार की कठपुतलियां बनी देश की जांच एजेंसियां सरकार के इशारे पर उनके साथ ऐसा बर्ताव कर रही हैं जो राजनीतिक वैमनस्यता या खीज़ से प्रेरित लगती है। जिस तरह कानूनी दांव-पेंच का फायदा उठाकर इन दोनों को जेल में डालने की साजिश रची गई है,वह भारत जैसे देश के विशाल और प्रौढ़ लोकतंत्र के लिए एक खतरनाक संकेत और संदेश है। अरविंद केजरीवाल को जैसे ही निचली अदालत से जमानत मिलती है,उसमें तनिक भी विलंब किये बिना उससे ऊपरी अदालत में उनके खिलाफ एक अर्जी डाल दी जाती है। इतना ही नहीं,उस पर कोई फैसला आ पाता कि तुरंत एक दूसरी जांच एजेंसी ने अपनी दबिश बढ़ा दी और उनको गिरफ्तार कर लिया। बदले की भावना से प्रेरित इस तरह की कार्रवाई को लोकतांत्रिक देश में कतई जायज नहीं ठहराया जा सकता है। 
✍️वर्तमान अघोषित तानाशाही और इमरजेंसी के अलंबरदार पीएम नरेंद्र मोदी संसद भवन में इंदिरा गांधी द्वारा 25जून,1975 को घोषित इमरजेंसी को कोस रहे थे और लोकतंत्र के प्रति गहरी आस्था जताते हुए संसद में एक लंबा भाषण भी दिया,लेकिन उनके दावों और हकीकत में जमीन-आसमान का अंतर साफ दिखाई देता है। 1975 में जो भी हुआ वह सब कुछ बाक़ायदा घोषित था और सभी को पता था कि देश में आपातकाल घोषित हो चुका है, नागरिकों के संवैधानिक- लोकतांत्रिक अधिकार आपातकाल उठने तक स्थगित और सीमित कर दिए गए हैं। देश के लोगों को आपातकाल में सोच-संभल कर और समझकर किसी भी तरह के कदम उठाने का मौका दिया गया था,लेकिन वर्तमान में तो ऐसा लगता है कि लोकतंत्र प्रशासनिक-जांच एजेंसियों के कदमों के नीचे दबा हुआ है। जब सुप्रीम कोर्ट केजरीवाल की जमानत देने का इशारा कर चुकी थी फिर रात के अंधेरे में केजरीवाल से पूछताछ क्यों की गयी और अगले दिन रिमांड की मांग क्यों की? सत्ता के इशारे पर जांच एजेंसी ने यह सब इसलिए किया ताकि उनका जेल से बाहर आना संभव न हो सके और ऐसा हुआ भी। निचली अदालत ने जमानत इसलिए दे दी थी,क्योंकि उनके खिलाफ कोई ठोस सबूत नहीं मिले। केवल गवाहों के आरोपों को सबूत के रूप में पेश किया जा रहा था। मामले से जुड़ी जांच एजेंसियां सत्ता को खुश करने के लिए अपने रसूख़ का नाज़ायज़ फायदा उठा रही हैं जिसे भारत जैसे देश के 75 साल के परिपक्व लोकतंत्र में कतई उचित नहीं ठहराया जा सकता है। किसी भी सत्ता की इस तरह की मनमानी कार्रवाइयों का वृहद स्तर पर विरोध किया जाना चाहिए जिससे बिना ठोस सबूत के फंसाए गए संवैधानिक पदों पर आसीन व्यक्तियों को न्याय मिल सके।
✍️राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि तत्कालीन घोषित इमरजेंसी से आज की अघोषित इमरजेंसी ज़्यादा और व्यापक रूप से घातक या खतरनाक साबित हुई है और हो रही है। बीजेपी के दस साल के शासन काल में विपक्षी दलों और आम आदमी को आर्थिक रूप से जर्जर करने की नीयत से जानबूझकर काले धन के नाम पर की गयी अचानक नोट बंदी और लॉक डाउन से उपजी राष्ट्रव्यापी बेचैनी और अफरातफरी और उससे ध्वस्त हुई देश की अर्थव्यवस्था,यातायात व्यवस्था और उसके बेरोजगारी जैसे भयंकर दुष्परिणाम शायद वो भूल गए हैं। सरकार के पीेएम केयर्स फंड और सुप्रीम कोर्ट द्वारा असंवैधानिक घोषित एलेक्टोरल बॉण्ड जैसे बड़े-बड़े घोटाले और चंदा देने वाली कम्पनियों के खुलासों की फ़ाइल उनकी स्मृतियों से बहुत जल्दी डिलीट हो गई हैं। किसी भी सदन के सभापति का आचरण निष्पक्ष और दलीय विचारधारा से परे माना जाता है। शायद यह भी भूल गए हैं, हमारे दूसरी बार बनाए गए  स्पीकर साहब! देश की सर्वोच्च पंचायत संसद संविधान और संसदीय मर्यादाओं और परंपराओं से विगत लंबे अरसे से चलती आ रही है। विपक्षी दलों के सांसदों के प्रति ओम बिरला का एक स्पीकर के रूप में तानाशाह वाला आचरण और वक्तव्य बेहद अशोभनीय और निंदनीय कहने में कोई अतिशयोक्ति नही है। बीजेपी की शह पर संसद में ओम बिरला विपक्षी सांसदों के प्रति संविधान और संविधानिक मर्यादाओं का खुला उल्लंघन करने में कोई संकोच नहीं कर रहे हैं। ओम बिरला जी को यह याद रखना चाहिए कि इस बार की लोकसभा की बनावट और बुनावट पिछली लोकसभा से कतई अलग है। अब सदस्यों के निष्कासन और उनके प्रति अधीनस्थों जैसी अपनाई जा रही भाषा-शैली और आचरण उनके और मोदी सरकार के ऊपर भारी पड़ सकते है। ओम बिरला की नियुक्ति या चयन की पूरी प्रक्रिया में नीतीश कुमार और चंद्र बाबू नायडू  संसदीय (संविधान और लोकतंत्र) इतिहास के पन्नों में खलनायक के रूप में दर्ज़ हो चुके हैं। इसके बावजूद नीतीश कुमार की राजनीतिक गठबंधन की कोई स्थायी गारंटी या वारंटी नही कही जा सकती है। बिहार में 2025 में होने वाले विधानसभा चुनाव का राहु या शनि देव कभी भी प्रकट हो सकता है। ओम बिरला के रहते यदि इस बार भी संसदीय परंपराओं और मूल्यों में और अधिक गिरावट देखने को मिलती है तो उसके लिए नीतीश और नायडू भी बराबर के दोषी या.... माने जायेंगे। 
✍️संविधान, लोकतंत्र और सामाजिक न्याय के नाम पर व्यक्तिगत राजनीतिक लाभ के लिए जातियों की गोलबंदी कर जातीय आधार पर गठित जो राजनीतिक दल आज एनडीए की सरकार का हिस्सा बनकर सत्ता की मलाई खा रहे हैं और सामाजिक न्याय के मुद्दे पर मुंह में ताला लगाए हुए हैं, वे दल और उनके नेता ओबीसी और एससी-एसटी समाज के भविष्य के लिए आरएसएस और बीजेपी से ज़्यादा खतरनाक साबित हो रहे हैं। सरकार से हिस्सेदारी खत्म होने के डर से उनकी स्थिति भेड़िया या शेर के सामने बकरी जैसी दिखती है। आरएसएस और बीजेपी तो ऐलानिया तौर पर संविधान और लोकतंत्र की आरक्षण जैसी व्यवस्था की शुरू से ही विरोधी रही है, लेकिन सामाजिक न्याय का राजनीतिक चोला ओढ़े सामाजिक-राजनीतिक भेड़ियों से बहुजन समाज को ज़्यादा खतरा है। संविधान, लोकतंत्र और सामाजिक न्याय विरोधी आरएसएस रूपी कथित सांस्कृतिक और राष्ट्रवादी संगठन और उससे उपजी बीजेपी और उनके सहयोगी दलों और नेताओं से बहुजन समाज अर्थात ओबीसी और एससी-एसटी के साथ अल्पसंख्यक समुदायों को राजनीतिक रूप से दूर रहने में ही भलाई है, क्योंकि इन सभी का इन समाजों को हिन्दू- मुसलमान, मंदिर-मस्जिद और हिन्दू राष्ट्र के नाम पर सामाजिक वैमनस्यता फैलाकर राजनीतिक सत्ता हासिल करना एकमात्र लक्ष्य हैं।
✍️2024 में मोदी नेतृत्व में तीसरी बार एनडीए की सरकार बनने में सामाजिक न्याय की दुहाई देने वाले नीतीश कुमार और चन्द्र बाबू नायडू की भूमिका राजनीतिक विश्लेषकों की समझ से परे बताई जा रही है। मोदी सरकार 3.0 को नीतीश कुमार और चन्द्र बाबू नायडू द्वारा दिया गया सहयोग और समर्थन भविष्य में क्या राजनीतिक गुल खिलायेगा,इसका अनुमान और आंकलन करने में बड़े-बड़े राजनीतिक पंडित और भविष्य वक्ता फेल होते नज़र आ रहे हैं। एनडीए गठबंधन की मोदी सरकार 3.0 बहुत कुछ नीतीश कुमार और नायडू की राजनीतिक चाल-चलन पर निर्भर करेगी,साथ ही यह भी अटकलें लगाई जा रही हैं कि बीजेपी के लोकसभा स्पीकर के माध्यम से मोदी-शाह की शतरंजी चाल से नीतीश-नायडू को होने वाले खतरे से भी इनकार नहीं किया जा सकता है। राजनीतिक विश्लेषकों और विशेषज्ञों का अनुमान है कि इस बार की लोकसभा में पिछली लोकसभा से अधिक नंगा नाच होने की संभावना है। नीतीश कुमार और बीजेपी की स्थिति सांप-नेवले के रूप में देखी जा रही है। कौन सांप और कौन नेवला साबित होगा, यह तो आने वाला वक्त ही बता पायेगा। फ़िलहाल, इस बार की लोकसभा में कुछ ऐसा होने की संभावना जताई जा रही है जो संसदीय इतिहास में आज से पहले कभी नही हुआ है।

Monday, June 17, 2024

योग दिवस-अखिलेश कुमार 'अरुण


  कहानी   

अखिलेश कुमार 'अरुण' 
ग्राम- हज़रतपुर जिला-लखीमपुर खीरी 
मोबाईल-8127698147
    करीम चचा प्रधान के यहां से एक महीने की मजदूरी के एवज में मिले 1200 रुपये के अतिरिक्त की मजदूरी के लिए चक्कर पर चक्कर लगा रहे थे। घर में चार जनों का परिवार है जिनके भरण-पोषण का एकमात्र सहारा करीम चचा की मजदूरी है।

    मजदूरों के लिए एक कहावत है कि मजदूर को मजदूरी उसका पसीना सूखने से पहले मिल जाना चाहिए क्योंकि मजदूर अपना और अपने परिवार का पेट साथ लेकर आता है मजदूरी से लौटने के बाद फकत वक्त उसकी मजदूरी उसके काम न आए तो उसकी मजदूरी किसी काम की नहीं, गांव का प्रधान है कि अपनी रसूख और राजनीतिक पहुंच के चलते किसी से नहीं डरता। करीम चचा यह जानते हुए भी उसके यहां काम करने गये कि इस प्रचंड गर्मी में कुछ सहारा हो जाएगा क्योंकि किसानों की किसानी अप्रैल-मई के बाद खत्म है वहां कोई काम है नहीं कि जहां कुछ काम-धाम करके दो-चार पैसे का जुगाड़ हो जाए  पर प्रधान जी अपना घर बनवा रहे थे। इसलिए काम मिल गया था। एक महीना पूरा खटे हैं सौ-पचास करके 1200 रुपए कुल अभी तक करीम चचा ले गये हैं और प्रधान कह रहा है कि 200 और तुम्हारा बनता है वह दो-चार दिन में दे देगा।

    करीम चचा अब करें तो करें क्या? किसी ने सलाह दिया कि श्रम विभाग में चले जाओ वहां जाकर शिकायत कर दो। करीम चचा ने ऐसा ही किया आज से 10 दिन पहले लिखित शिकायत की अर्जी सहायक श्रमायुक्त को दे आए थे जिसकी प्रति लेकर आज फिर आफिस पहुंच गये क्योंकि अभी तक कुछ हुआ तो है नहीं। अर्जी की ताकीद करवाई और श्रमायुक्त महोदय से गुजारिश कर रहे हैं" साहेब, मजदूरी का पूरा पैसा दिलवा दीजिए ....? नहीं तो हम चार जनों का परिवार भूखों मर जाएगा।"

    "रुको, हम अभी आते हैं।" कहकर किसी साहब का हवाला देकर निकल लिए। घंटा-दो घंटा बीतने के बाद करीम चचा श्रमायुक्त महोदय को खोजते हुए आगे बढ़ चले तो पता चला कि अपर श्रमायुक्त महोदय के पास बैठे हैं। बहुत हिम्मत करके दरवाजे पर दस्तक दिए,"हुजूर हम अन्दर आ सकते हैं!"

    "हां, आइए।" चश्मे के ऊपर से झांकते हुए  साहब ने अनुमति दी।

    "अरे! तुम, हम कहे थे न कि अभी आ रहे हैं।" श्रमायुक्त जी थोड़ी गर्मी दिखाते हुए करीम चचा की तरफ मुखातिब हुए।

    "क्या समस्या है? छोटे साहब से बड़े साहब ने पूछा।

    "कुछ खास नहीं सर।"

    करीम चचा कुछ बोलने को हुए कि उससे पहले ही छोटे साहब बोल पड़े, "अभी योग दिवस पर बहुत काम करना है, ऊपर से आदेश आया है। यह बहुत जरूरी है, उसके बाद आना।"

    "कब सर?"

    "योग दिवस के बाद।"

    "योग दिवस कब......?

    "अरे, इतना भी नहीं मालूम, तुमको योग दिवस कब है.....21 जून के बाद।"

 (दिनांक २१.०६.२०२४ को मध्य प्रदेश से दैनिक पत्र इंदौर समाचार के पृष्ठ संख्या ९ पर प्रकाशित.)

पापा पिस्तौल ला दो(लघु चलचित्र समीक्षा)-रमेश मोहन शुक्ल

  लघु चलचित्र समीक्षा  

    'पापा पिस्तौल ला दो' कुल सात मिनट छ: सेकेंड की यह लघु फिल्म पिता और पुत्री के रिश्तों की हृदय स्पर्शी प्रेरणादायक  कहानी है, जो आजकल बेहद चर्चा का विषय बनी हुई है, माधव (आर. चंद्रा) अपनी पत्नी के स्वर्गवास के बाद तीन बेटियों को गरीबी में पाल-पोस रहा है। एक दिन शाम होने को, माधव बाज़ार जाने को तैयार हो रहा है। मगर उसकी बड़ी बेटी निम्मी (ऋचा राजपूत) अभी तक घर नहीं आई है। इस बात को लेकर माधव थोड़ा चिंतित है। 

   
 अपनी साइकिल के पास बाजार जाने के लिए तैयार है, वह  अपनी दोनों बेटियों पिहू और भूमि से बाज़ार से क्या लाना है, पूछता है, तभी माधव की बड़ी बेटी निम्मी स्कूल से वापस आ जाती है। मगर वो  बेहद गुस्से में हैं, और आते ही, अपने पापा से पिस्तौल लाने को कहती है।  माधव पहले तो भयभीत होता है। मगर निम्मी से पिस्तौल मांगने की वजह पूछता है। तब निम्मी समाज के कुछ अराजक तत्वों से परेशान होने की बात करती है, जिससे माधव निम्मी को आत्मरक्षा के लिए एक एकेडमी ले जाता।  वहाँ निम्मी ताईकांडो की ट्रेनिंग लेती है,और फिर एक दिन उन बदतमीज शोहदों को सबक सिखाती है जो उसे रोज परेशान करते रहते थे। ऐसे निम्मी की ज़िन्दगी ही बदल जाती है, एक कमजोर लड़की ताकतवर बन जाती है। माधव की सोच समाज को एक नई सीख देती है। दिशा देती है। कम समय में बड़ी ही स्पष्टता से कहानी बहुत कुछ कह जाती है। 
    फिल्म के कई दृश्य सिहरन पैदा करते हैं। केंद्रीय भूमिका में ऋचा राजपूत ने अपने अभिनय से सबका मन मोह लिया है। 
पिता की भूमिका में आर. चंद्रा खूब जमे हैं। कुछ और सहायक कलाकारों ने लघु फिल्म को अपनी मेहनत लगन से अच्छी बनाने का पूरा प्रयास किया है। फिल्म के निर्माता/ निर्देशक हैं शिव सिंह सागर, फिल्म की कहानी  चर्चित लघुकथाकार सुरेश सौरभ ने लिखी है। कैमरे पर पिंकू यादव ने उतारा है। इस फिल्म को आप लोग यूट्यूब पर अर्पिता फिल्म्स इंटरटेनमेंट पर देख सकते हैं। 

               रमेश मोहन शुक्ल 
   संपादक, संभावित संग्राम फतेहपुर

Thursday, June 06, 2024

"एक अकेला सब पर भारी और यह मोदी की गारंटी है" के दम्भ को तोड़ता जनादेश-नन्दलाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)

नन्दलाल वर्मा
(सेवानिवृत्त एसोसिएट प्रोफेसर)
युवराज दत्त महाविद्यालय
लखीमपुर-खीरी
✍️बीजेपी के सांसद रहे लल्लू सिंह (अयोध्या) और अनंत कुमार हेगड़े (कर्नाटक) संविधान बदलने की बात लगातार सार्वजनिक रूप से कह रहे थे और इसकी सफलता और सार्थकता सिद्ध करने के लिए नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में "अबकी बार400 पार " नारे को समय-समय पर बुलंद करते दिख रहे थे। दूसरी तरफ पीएम की आर्थिक सलाहकार परिषद के अध्यक्ष बिबेक देबोराय ने "द मिंट"  अंग्रेजी अखबार में संविधान बदलने की जरूरत बताते हुए बाक़ायदा एक विस्तृत लेख लिख डाला। उस लेख का हिंदी अनुवाद का जब हिंदी भाषी राज्यों में जोर-शोर से प्रचार-प्रसार होने लगा तो बहुजन समाज के बुद्धिजीवियों,चिंतकों,सोशल एक्टिविस्टों और संविधान प्रदत्त सामाजिक न्याय की राजनीति करने वालों ने बीजेपी के "अबकी बार400 पार " के नारे के गूढ़ रहस्यों और निहितार्थों को देश के ओबीसी,एससी-एसटी और अल्पसंख्यक समुदायों को समझाना शुरू किया तो उसके राजनीति पर पड़ने वाले व्यापक असर को भांपते हुए आरएसएस की ओर से बीजेपी को इस नारे की सार्वजनिक मंचों से तत्काल बंदी का हुक़्म जारी करना पड़ा। उसके बाद बीजेपी की रैलियों में पूरे चुनाव भर इस नारे,संविधान-लोकतंत्र या आरक्षण पर सन्नाटा छाया रहा।

✍️चुनाव में इस नारे के गूढ़ रहस्य और निहितार्थ के प्रचार-प्रसार का इतना प्रभाव पड़ा कि बीजेपी अकेले बहुमत की संख्या पाने से वंचित रह गई। इस स्थिति से बहुजन समाज में राहत महसूस हुई और उम्मीद जताई जा रही है कि अकेले बीजेपी को पूर्ण बहुमत न मिलने की वजह से मोदी की तीसरे काल की सरकार पूर्ण आत्मनिर्भर नहीं रहेगी,बल्कि गठबंधन घटक दलों पर निर्भर रहेगी जो संविधान,लोकतंत्र और सामाजिक न्याय के आरक्षण के मजबूत पैरोकार रहे हैं। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने तो सामाजिक न्याय के विस्तार के लिए अपने राज्य में जातिगत जनगणना के नाम पर सामाजिक सर्वेक्षण कराकर बाक़ायदा उसके जातिगत आंकड़े तक ज़ारी कर दिए थे जिससे केंद्र सरकार ने असहमति और आपत्ति ज़ाहिर करते हुए कहा था कि किसी राज्य को जातिगत जनगणना कराने अधिकार नहीं है,यह अधिकार केवल केंद्र सरकार को है और वह जातिगत जनगणना कराने के लिए सक्षम नहीं है,क्योंकि इससे सरकार का अनाबश्यक धन और समय की बर्बादी होगी जो देश की जनता के हित में नहीं होगा। संविधान,लोकतंत्र और सामाजिक न्याय के दो मजबूत पैरोकार जेडीयू के नीतीश कुमार और टीडीपी के चन्द्र बाबू नायडू के सहयोग और समर्थन से ही बीजेपी की सरकार बनने की उम्मीद है,लेकिन इस बार मोदी जी की एक नख-दंत विहीन पीएम साबित होने की और अमित शाह का महत्व और दखल कम होने की संभावना जताई जा रही है। इस सरकार में मोदी-शाह की मनमानी कतई चलने वाली नहीं है। इसलिए यहां तक चर्चा है कि अमित शाह गृह मंत्रालय के बिना नहीं रह सकते हैं और यदि उन्हें यह विभाग नहीं मिलता है तो संभावना है कि उनकी गृह राज्य वापसी हो जाए!इस बार मोदी नेतृत्व वाली सरकार एनडीए के उन घटक दलों की "डील" पर चलने की संभावना जताई जा रही है,जो कभी मोदी के सामने सिर उठाकर बोलने,बैठने या बराबर खड़े होने की हिम्मत नहीं जुटा सकते थे। आज वे बेधड़क मोदी से सत्ता बंटबारे में खुलकर मोलभाव करने की स्थिति में हैं।

✍️देश में आये इस तरह के जनादेश के लिए बहुजन समाज(ओबीसी,एससी-एसटी और धार्मिक अल्पसंख्यक समुदाय के लोग) का चुनावी निर्णय बेहद कारगर साबित होता हुआ है।संविधान,लोकतंत्र और सामाजिक न्याय के आरक्षण को छेड़ने या खत्म करने की वकालत करने वाली आरएसएस नियंत्रित बीजेपी अब अपने तीसरे शासन काल में इन मुद्दों पर चर्चा तक करने की हिम्मत नहीं जुटा पाएगी। बहुजन समाज की इस बार की चुनावी राजनीतिक चेतना और इस चर्चा कि मोदी के दिन लदने वाले हैं,से पैदा हुआ राजनीतिक माहौल आरएसएस और बीजेपी को बड़ा सबक सिखा गया है और अब इस पर वहां गम्भीरतापूर्वक चिंतन और मनन जरूर शुरू हो गया होगा। इस जनादेश में बीजेपी अभी भी सबसे बड़ा दल बनकर उभरा है और उसके एनडीए को पूर्ण बहुमत के लिए जरूरी न्यूनतम संख्या से बीस ज्यादा का बहुमत मिला है। सबसे बड़ा दल होने और प्री-पोल गठबंधन के नाते एनडीए की ही सरकार बनना तय है। चूंकि,बीजेपी की सरकार बनेगी तो मोदी के रहते कोई दूसरा पीएम पद की दावेदारी पेश नहीं कर सकता है और ऐसी स्थिति में मोदी, पीएम पद छोड़ भी नहीं सकते हैं,क्योंकि वह अपने दस साल की बैलेंस शीट को अच्छी तरह जानते हैं और वह विपक्षी गठबंधन की सरकार बनने की कोई संभावना पैदा होने के संकेत तक बर्दाश्त नहीं कर सकते,भले ही उसके लिए  संविधान की धज्जियां उड़ानी पड़ें! विपक्षी इंडिया गठबंधन की सरकार बनने का मतलब पीएम केयर्स फण्ड,राफेल सौदा और इलेक्टोरल बांड जैसे बड़े घोटाले खुलने के साथ उनके दस साल के सारे काले कारनामों की सरकार और जनता के सामने कलई खुलना।अच्छा हुआ मोदी को पीएम बनने के लिए एनडीए को पर्याप्त बहुमत हासिल हो गया,वरना देश को बहुत गम्भीर संवैधानिक राजनीतिक परिस्थितियों का सामना करना पड़ सकता था।

✍️2027के यूपी में होने वाले चुनाव से पहले इस मुद्दे की तगड़ी काट ढूंढने की कोई कोर-कसर छोड़ी नहीं जायेगी,क्योंकि बीजेपी के इस मुद्दे पर जब सामाजिक और राजनीतिक हमले शुरू हुए तो बीजेपी खुद विपक्ष पर संविधान,लोकतंत्र और सामाजिक न्याय के आरक्षण के बंटवारे का आरोप लगाकर पूरे चुनाव भर इस तोहमत से बचने के प्रयास करती रही,लेकिन अंततोगत्वा उसके दुष्प्रभाव की छींटों से वह पूरी तरह से बच नही पाई,जिसके परिणाम स्वरूप अकेले बीजेपी बहुमत के पाले को छू तक नही पाई। बीजेपी अच्छी तरह जानती है कि ओबीसी और एससी-एसटी के सहयोग के बिना वह राजनीतिक रूप से मजबूत नहीं हो सकती,क्योंकि कथित हिंदुत्व और राष्ट्रवाद के नाम पर इन जातियों की राजनीतिक गोलबंदी आसानी से की जा सकती है। कहने को तो भाजपानीत एनडीए को पूर्ण बहुमत मिल गया है,लेकिन ऐसी सरकार में निर्णय लेने के मामलों में पहले की तरह "एक अकेला सब पर भारी" जैसे निर्द्वन्द्व भाव से तानाशाही तर्ज़ पर निर्णय लेने की गुंजाइश बहुजन समाज के चातुर्यपूर्ण चुनावी निर्णय से मिले जनादेश से खत्म हो गयी है और सभी राजनीतिक दलों और उनके नेताओं को अप्रत्यक्ष रूप से यह संदेश भी दे दिया है कि यदि किसी भी शासन सत्ता की तरफ से संविधान और लोकतंत्र पर किसी तरह की आंच या चोट आने की ज़रा सी भी आहट सुनाई दी तो ईवीएम के बटन से करारी चोट देने में कोई कमी नहीं रखी जाएगी। यह भी सन्देश छिपा है कि सभी राजनीतिक दलों और नेताओं को संविधान सम्मत लोकतंत्र को सुरक्षित और समृद्ध करना उनका पहला धर्म है,अन्यथा सत्ता पक्ष और विपक्ष की लड़ाई में विपक्ष की भूमिका में देश की जनता खड़ी होती दिखाई देगी। लोकतंत्र में जनता द्वारा,जनता के लिए,जनता की सरकार चुनी जाती है। सन्देश है कि इस देश में हिन्दू-मुसलमान आधारित धर्म और मंदिर-मस्जिद की वैमनस्यता फैलाने वाली राजनीति अब नहीं चल पाएगी। देश में जनता के शिक्षा,बेरोज़गारी और स्वास्थ्य से जुड़े मुद्दों पर ही स्थायी राजनीति चल सकती है। चुनिंदा अमीर पूंजीपतियों को अथाह लाभ पहुंचाने के बजाए देश के संसाधन विहीन गरीब और मध्यम तबके के लिए कल्याणकारी योजनाओं को प्राथमिकता देनी होगी,अन्यथा आने वाले चुनाव में जनता को बाज़ी पलटते देर नहीं लगेगी। सबसे दिलचस्प और अप्रत्याशित जनादेश यूपी में रहा,विशेषकर अयोध्या में वहां की जनता के रुख से यह साबित हो गया है कि सरकार चुनने में यहां न तो राम मंदिर के निर्माण से लेकर प्राण प्रतिष्ठा और न ही मुफ़्त में मिल रहे पांच किलो गेंहू-चावल का असर है। पूर्ण बहुमत के साथ दस साल के शासन चलाने वालों को आइना दिखाता है, यह जनादेश!सभी दलों को इस जनादेश से सबक सीखने की जरूरत है। इस बार के चुनाव में सत्तारूढ़ भाजपा के ख़िलाफ़ जनता ने चुनाव लड़कर लोकतंत्र में तानाशाही प्रवृत्ति को सबक सिखाने का काम किया है। राजनीतिक विश्लेषकों और विशेषज्ञों और बौद्धिक वर्ग के विचार- विमर्श में इस तथ्य या सच्चाई को स्वीकार किया और खूब सराहा जा रहा है।

✍️इस जनादेश ने केवल मोदी और शाह के सपनों को ही चकनाचूर नहीं किया है,बल्कि उत्तर प्रदेश के शासन को लेकर भ्रम भी दूर हो गया है। इस जनादेश से सत्ता काल की निरंतरता और अवधि के संदर्भ में नरेंद्र मोदी,जवाहर लाल नेहरू के बराबर भले ही पहुंच जाएं जो मोदी जी लंबे अरसे से सपना देख रहे है,क्योंकि जब भी मोदी अपने शासन,सत्ता,सरकार की उपलब्धियों की बात करते हैं तो वे जवाहरलाल नेहरू को कोसना नहीं भूलते। जवाहरलाल नेहरू का भूत अभी उन्हें सताता रहता है।नेहरू और मोदी में सत्ता की आवृत्ति-अवधि की बराबरी तो हो सकती है,लेकिन नेहरू जैसे विशाल-विराट व्यक्तित्व,दृष्टि और ज्ञान की बराबरी कैसे कर पाएंगे? जनता ने मोदी को यह भी सन्देश दिया है कि कोई स्वयं को ईश्वर का अवतार स्थापित करने का भ्रम न फैलाये,क्योंकि धरती पर सभी मनुष्यों का जन्म एक ही तरह होता है और उसे उसके सामाजिक,शैक्षणिक और आर्थिक पृष्ठभूमि-परिवेश के हिसाब से आगे बढ़ने या महान बनने का अवसर मिलता है।मोदी की वेशभूषा,वस्त्रों,धार्मिक-आध्यात्मिक भूमिकाओं और उनके संस्कृत-गणित ज्ञान को गोदी मीडिया और देश के नामी गिरामी व्यंग्यकारों ने जनता को भरपूर दिखाने-सिखाने का प्रयास किया अर्थात मोदी के मदारी व्यक्तित्व ने इन दस सालों में जनता का भरपूर मनोरंजन किया। उनके व्यक्तित्व,कृतित्वों और वक्तव्यों पर बने मीम्स और व्यंग्य आने वाली पीढ़ियों को सालों गुदगुदाते रहेंगे।

'पापा पिस्तौल ला दो' एक बेहतरीन शार्ट फिल्म-सत्य प्रकाश 'शिक्षक'


लखीमपुर खीरी  फिल्में समाज का आइना होती है, आज की जीवन शैली में व्यस्तता के कारण साहित्य एवं सिनेमा में लघु विधाएं ज्यादा प्रचलन में हैं। आज साहित्य में लघुकथा सर्वाधिक प्रचलित विधा है।  सिनेमा में शार्ट फिल्में भी खूब चलन में है। लघु फिल्म की बात करें तो एक से बढ़कर एक अच्छी लघु फिल्में चर्चा में आ रही हैं। हाल ही में  अर्पिता फिल्म्स इंटरटेनमेंट के बैनर तले बनी लघु फिल्म "पापा पिस्तौल ला दो" भी काफ़ी चर्चा में हैं। लघु फिल्म की कहानी प्रसिद्ध लघु कथाकार सुरेश सौरभ (लखीमपुर खीरी) ने लिखी है। साहित्य जगत में इनकी लघुकथा " पापा पिस्तौल ला दो " खूब सराही गई। जिससे प्रभावित होकर फतेहपुर जनपद के युवा फिल्म निर्देशक शिव सिंह 'सागर' ने इस लघुकथा पर लघु फिल्म बनाई है। फिल्म की केंद्रीय भूमिका में  ऋचा राजपूत ने बड़ी ही खूबसूरती से निम्मी के किरदार को जिया है। फतेहपुर के सशक्त अभिनेता आर. चद्रा ने माधव यानि पिता के चरित्र को अपने अभिनय से सजा दिया है। इसके अतिरिक्त सहयोगी कलाकारों में राजकुमार, कुनाल, दिव्यांशु पटेल, भूमि श्रीवास्तव, पीहू, अनुराग कुमार, अंश यादव आदि कलाकारों ने लघु फिल्म में महती भूमिका निभाई है। फिल्म को कैमरे पर खूबसूरती से उतारा है पिंकू यादव ने।  ओम प्रकाश श्रीवास्तव, डॉ. मिथिलेश दीक्षित, डॉ. द्वारिका प्रसाद रस्तोगी, संजीव जायसवाल 'संजय' वसीक सनम,  राजू फतेहपुरी, विजय श्रीवास्तव आदि साहित्य कला से जुड़े विशिष्ट जनों ने  फिल्म की पूरी यूनिट को बधाई दी है। बताते चले कि स्त्री विमर्श पर यह एक बेहतरीन कथानक की फिल्म है। 

गांधी किसी फ़िल्म(रील) के नायक नहीं,अपितु एक असल (रियल) जिंदगी के प्रेरक-नायक हैं-नन्दलाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)

नन्दलाल वर्मा
(सेवानिवृत्त एसोसिएट प्रोफेसर)
युवराज दत्त महाविद्यालय
लखीमपुर-खीरी
✍️विगत कुछ वर्षों से हमारे देश की इतिहास को फिल्मों के माध्यम से देखने और समझने वाली एक खास पीढ़ी बनकर तैयार हो चुकी है। उसको लगता है कि जो फिल्मों के माध्यम से इतिहास दिखाया जा रहा है,वही देश का असली इतिहास है। अभी कुछ दिनों से एक विशिष्ट राजनीतिक धड़े के प्रमुख और देश के लोकप्रिय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी द्वारा चुनिंदा पत्रकारों को दिए गए साक्षात्कार में गांधी जी की बायोग्राफी पर 1982 में बनी फिल्म आने के बाद गांधी जी की पहचान या उनको जानने का दावा किया गया। देश की नई पीढ़ी को यह बताने का प्रयास किया गया कि महात्मा गांधी को उन पर बनी फिल्म के आने के बाद ही देश के लोग जान पाए हैं। देश की जनता को दिग्भ्रमित करने की नीयत से उनके महान व्यक्तित्व-कृतित्व की राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पहचान या ख्याति को जानबूझकर अनदेखी करने की कोशिश की गयी,क्योंकि उनका नाम एक विपक्षी राजनीतिक दल के साथ जुड़ा हुआ है।
✍️28 मई, 2024 को एबीपी के तीन पत्रकार:एबीपी की न्यूज एंकर,रोमाना ईसार खान,एबीपी न्यूज की आउटपुट एडिटर रोहित सिंह सावल और एबीपी आनंद के वरिष्ठ उपाध्यक्ष सुमन डे ने प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी का साक्षात्कार लिया था जिसमें मोदी से राम मंदिर प्राण प्रतिष्ठा समारोह में विपक्ष की अनुपस्थिति के बारे में पूछा और क्या उनके फैसले का चुनाव परिणामों पर असर पड़ेगा? जवाब में प्रधान मंत्री ने विपक्ष की तीखी आलोचना करते हुए कहा कि वे गुलामी की मानसिकता से बाहर नहीं आ सके हैं। इसके बाद उन्होंने आगे कहा कि “महात्मा गांधी एक महान व्यक्ति थे। क्या इन 75 वर्षों में यह हमारी जिम्मेदारी नहीं थी कि हम यह सुनिश्चित करें कि दुनिया महात्मा गांधी को जाने? महात्मा गांधी को कोई नहीं जानता है। जब 'गांधी' फिल्म बनी थी तब दुनिया यह जानने को उत्सुक थी कि यह आदमी कौन है! हमने ऐसा नहीं किया है,यह हमारी जिम्मेदारी थी। अगर दुनिया दक्षिण अफ्रीकी नेता नेल्सन मंडेला और मार्टिन लूथर किंग को जानती है, तो गांधी उनसे कम नहीं थे। आपको यह स्वीकार करना होगा। मैं दुनिया भर में यात्रा करने के बाद यह कह रहा हूं…समझा जा सकता है कि प्रधानमंत्री ने 1982 में ब्रिटिश फिल्म निर्माता रिचर्ड एटनबरो की गांधी की बायोपिक रिलीज हुई फ़िल्म का जिक्र किया, जिसमें बेन किंग्सले ने गांधी जी का किरदार निभाया था। अगले वर्ष "गांधी" फ़िल्म को 11 अकादमी पुरस्कार नामांकन प्राप्त हुए थे और उनमें से 8 उसके हिस्से में आए थे,जिसमें सर्वश्रेष्ठ चित्र,सर्वश्रेष्ठ निर्देशक और प्रमुख भूमिका में सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के लिए अकादमी पुरस्कार शामिल थे।
✍️इस सांस्कृतिक और राजनीतिक धड़े के लोगों को शायद यह जानकारी नहीं है कि सन 1982 में आई इस फिल्म से कई वर्ष पहले 1930 में साबरमती आश्रम से दांडी तक नमक सत्याग्रह का आयोजन कर महात्मा गांधी पूरी दुनिया में एक बड़े सामाजिक और राजनीतिक नायक बनकर उभर चुके थे। इस मार्च में महात्‍मा गांधी ने देश के आम नागरिकों को एक मंच पर लाकर अंग्रेजी सत्‍ता के सामने बड़ी चुनौती खड़ी कर दी थी। वह हर काम बड़ी ही शांति और सादगी से करते थे, यहां तक क‍ि आजादी की लड़ाई भी उन्होंने बिना किसी तलवार और बंदूक के लड़ी। उनके द्वारा नेतृत्व दिया गया दांडी मार्च,नमक मार्च या दांडी सत्याग्रह के रूप में इतिहास में दर्ज़ है। उनके जीवनकाल में ही उनकी प्रसिद्धि दुनिया भर में फैल गई थी और उनकी मृत्यु के बाद इसमें और वृद्धि ही हुई है। उनकी सामाजिक-राजनीतिक विचारधारा और स्वतंत्रता आंदोलन में उनकी बहुआयामी भूमिका और व्यक्तित्व पर देश और विदेश की नामी गिरामी शिक्षण संस्थाओं/विश्वविद्यालयों में अध्ययन और शोध कार्य हो चुके और आज भी हो रहे हैं। महात्मा गांधी एक व्यक्ति नहीं,बल्कि उसमें एक पूरी संस्था समाहित है। महात्मा गांधी का नाम अब पृथ्वी पर सर्वाधिक मान्यता प्राप्त नामों में से एक है।
✍️भारत में अंग्रेजों के शासन काल के वक्‍त नमक उत्पादन और उसके विक्रय पर भारी मात्रा में कर लगा दिया गया था। नमक जीवन के लिए जरूरी चीज होने के कारण भारतवासियों को इस कानून से मुक्त करने और अपना अधिकार दिलवाने हेतु यह सविनय अवज्ञा का कार्यक्रम आयोजित किया गया था। कानून भंग करने पर सत्याग्रहियों ने अंग्रेजों की लाठियां खाई थीं,लेकिन पीछे नहीं मुड़े थे। इस आंदोलन में लोगों ने गांधी के साथ कई सौ किलोमीटर पैदल यात्रा की और जो नमक पर कर लगाया था उसका विरोध किया। इस आंदोलन में कई नेताओं को गिरफ्तार भी किया गया जिसमें सी.राजगोपालचारी, पं.जवाहर लाल नेहरू, सरोजनी नायडू जैसे आंदोलनकारी शामिल थे। यह आंदोलन लगभग एक साल तक चला और 1931में गांधी-इरविन के बीच हुए समझौते से खत्म हुआ। इसी आन्दोलन से सविनय अवज्ञा आंदोलन की शुरुआत हुई। इस आंदोलन ने संपूर्ण देश में अंग्रेजों के खिलाफ व्यापक जन-संघर्ष को जन्म दिया था।  
✍️महात्मा गांधी के बारे में यहां तक बताया जाता है कि लंदन में जब चार्ली चैपलिन(सुविख्यात अंग्रेजी हास्य अभिनेता और फिल्म निर्देशक) उनसे मिलने आए तो वहां के लोग चैपलिन की जगह गांधी जी को देखने के लिए बेतहाशा टूट पड़े थे। अमेरिकी अखबारों के शीर्ष पत्रकार गांधी जी के राजनीतिक दर्शन को समझने में हफ्तों लगाया करते थे। गांधी जी मशहूर अमेरिकी समाचार पत्रिका "टाइम" के मुख पृष्ठ पर दिखाई देते थे,यह था दुनिया में गांधी जी की लोकप्रियता का आलम। आज के दौर की छिछली और सत्तापरक राजनीति में गांधी जी को कमतर आंकने की एक सुनियोजित साजिश और षडयंत्र रचा जा रहा है। जिस इंसान ने अपने जीवन के अतिमहत्वपूर्ण 40 साल देश की आजादी की लड़ाई में झोंक दिए और महज अपनी लाठी के बल पर हिंदुस्तान को आजाद कर दिखाया। लंदन से "बार ऐट लॉ" की पढ़ाई कर कोट-पैंट और टाई को छोड़कर कर जिसने अपनी वेशभूषा में महज़ एक धोती रखी हो।राजनीति और सत्ता के लिए उस महान व्यक्ति की इस तरह पहचान करवाने की तुच्छ कवायद बेहद निंदनीय है। कहा गया कि मार्टिन लूथर किंग और नेल्सन मंडेला को लोग गांधी से ज्यादा मानते हैं,जबकि वास्तविकता यह है कि ये दोनों गांधी जी को अपना आदर्श मानते थे। इसी तरह महान भौतिक वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन भी महात्मा गांधी के व्यक्तित्व से काफी प्रभावित थे। कहना गलत नहीं होगा कि रविंद्र नाथ टैगोर का वह महात्मा जो अपने आखिरी दिनों में इस दुनिया में हिंसा से निराश था,मौत के बाद पूरी दुनिया का महात्मा बन गया। 
✍️जब लोग आजादी और नई मिली सत्ता का स्वागत कर रहे थे तब महात्मा गांधी ने उससे खुद को बिल्कुल अलग कर लिया था और नोआखली से दिल्ली भाग-भाग कर वह मानवता को बचाने की कोशिश कर रहे थे। जिस देश के लिए गांधी जी ने अंग्रेजों से लड़कर आज़ादी दिलाई,आज उसी देश के लोग राजनीतिक विचारधारा,चेतना और संवेदना के स्तर पर इतने विपन्न,खोखले और दिवालिया दिखने लगे हैं,जहाँ कभी गांधी की मूर्ति में लगी लाठी तोड़ दी जाती हैं,ऐनक तोड़ दिया जाता है और कभी-कभी तो उनकी प्रतिमा ही खंडित कर दी जाती है। हमें यह कभी भी नहीं भूलना चाहिए कि गांधी जी किसी व्यक्ति का नाम नहीं है,बल्कि वह एक सामाजिक- राजनीतिक विचारधारा,चेतना,आंदोलन-संघर्ष का नाम है,वह सामाजिक विज्ञान के विद्यार्थियों और शोधार्थियों के लिए एक बहुआयामी और वृहद विषयवस्तु हैं। वह हमारे देश के महात्मा हैं,हम उन्हें राष्ट्रपिता का सम्मान देते हैं और आज के दौर के राजनेता यदि सीखना चाहें तो उनसे हर दिन कुछ न कुछ नया सीख सकते हैं। इसलिए गांधी जी को उन पर बनी फ़िल्म तक सीमित कर देखना, समझना और समझाना सर्वथा गलत होगा!
✍️गांधी जी के दर्शन,व्यक्तित्व और कृतित्व के कतिपय पहलुओं उनसे जुड़े घटनाक्रमों से सहमत या असहमत होना किसी भी नागरिक का निजी विचार हो सकता है। यदि कोई उनके विचारों के कुछ अंशों से सहमत नहीं है तो उसको संपूर्णता में ख़ारिज किया जाना जायज़ नहीं,लेकिन किसी महापुरुष के विचार या दर्शन के सूक्ष्म अंश से असहमति का यह तो मतलब नहीं है कि उसके सम्पूर्ण जीवन या व्यक्तित्व पर एक ऐसा सवाल खड़ा कर दिया जाए जो उसकी पहचान और अस्तित्व के लिए आम आदमी के बीच संकट खड़ा होता हुआ दिखाई दे। किसी भी व्यक्ति की विचारधारा संपूर्णता में समावेशी नहीं हो सकती है और कोई भी व्यक्ति संपूर्णता में दोषों से मुक्त नहीं हो सकता है, तो फिर एक इतिहास पुरुष की पहचान उनकी जीवनी पर बनी एक फ़िल्म के बाद होने का वक्तव्य कितना जायज़ और नैतिक? हमारा संविधान आलोचना करने और असहमत होने का अधिकार देता है। गांधी जी भी आलोचना -असहमति से परे नहीं हो सकते। गांधी जी के व्यक्तित्व-कृतित्व की आलोचना करिए,लेकिन सही मूल्यांकन के साथ। हमारे प्रधान मंत्री जी तो "एंटायर पोलिटिकल साइंस" में परास्नातक हैं,निश्चित रूप से इस विषय के पाठ्यक्रम में गांधी जी के राजनीतिक दर्शन का थोड़ा-बहुत तो समावेश रहा होगा! गांधी जी की पहचान सीमित-धूमिल करने के प्रयास या साजिश या षडयंत्र से उनके पैतृक संगठन के सावरकर और नाथूराम गोडसे उनके समकक्ष या उनसे ऊपर स्थापित तो हो नहीं जाएंगे, क्योंकि सबके चरित्र भारतीय राजनीति के इतिहास के पन्नों में दर्ज हैं। एक गांधी बनने में कई दशक लगते हैं और एक गोडसे बनने के लिए एक सनक और एक छोटा सा शस्त्र ही काफ़ी है। गांधी जी और उनका दर्शन पूरी दुनिया के लिए था,है और रहेगा,ऐसा मेरा विश्वास है।

पढ़िये आज की रचना

चर्चा में झूठी-सुरेश सौरभ

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