साहित्य

  • जन की बात न दबेगी, न छिपेगी, अब छपेगी, लोकतंत्र के सच्चे सिपाही बनिए अपने लिए नहीं, अपने आने वाले कल के लिए, आपका अपना भविष्य जहाँ गर्व से कह सके आप थे तो हम हैं।
  • लखीमपुर-खीरी उ०प्र०

Tuesday, January 17, 2023

प्रभुदा से जुड़े सवाल और जवाब एक साथ तलाशता ‘कथादेश’-अजय बोकिल

कथादेश के बहाने
अजय बोकिल
 वरिष्ठ संपादक, दैनिक सुबह सवेरे म०प्र०

साहित्य, संस्कृति और कला की मासिकी ‘कथादेश’ का कथाकार, चित्रकार, पत्रकार, चिंतक या कहूं कि अपनी मिसाल आप प्रभु जोशी ( जिन्हें मैं प्रभुदा ही कहता आया) पर एकाग्र यह एक यादगार और जरूरी अंक है। यादगार इसलिए कि शायद पहली बार प्रभु जी के जीवन पर हर कोण से प्रकाश डालता यह शाब्दिक कोलाज है तो जरूरी इसलिए कि प्रभुदा जैसे नितांत ‘अस्त व्यस्त’ रचनाकार को समझने के लिए अभी ऐसे और अंकों की गरज है। मुझे इस अंक की जानकारी प्रभुदा के अनुज हरि जोशी के फोन से मिली। हालांकि हरिजी से मेरा भी यह पहला परिचय ही था। उन्होंने मुझसे कहा कि आपने वह अंक देखा कि नहीं? मैं तब गाड़ी ड्राइव कर रहा था। जवाब में इतना ही कहा कि अच्छा..मैं देखता हूं। बाद में मित्रवर कैलाश मंडलेकर से बात हुई तो उसने कहा कि हां, तुम जरूर देखना। इसमें मेरा भी लेख है। काश, तुम भी कुछ भेजते।‘ 
सही है। मैं इस अंक के लिए कुछ नहीं भेज सका। इसलिए सोचा कि अंक ही पढ़ डालूं। पढ़ा तो लगा कि मानो प्रभुदा को ही नए सिरे से पढ़ रहा हूं। खासकर इसलिए कि प्रभुदा से मेरे नईदुनिया में उप संपादक के रूप में जुड़ने के बाद अग्रज-अनुज का जो अटूट रिश्ता बना, वो आखिरी वक्त तक कायम रहा। डेढ़ साल पहले जब क्रूर कोरोना ने प्रभु दा को असमय लील लिया तब मैंने बेहद तनाव प्रभुदा को शाब्दिक श्रद्धांजलि देने का प्रयास किया था।   
बीती 12 दिसंबर प्रभुदा की जन्मतिथि थी। यानी वो आज अगर होते तो 72 के होते। बीते 35 साल में प्रभु जोशी को मैं जितना आंक सका, उसका कुल जोड़ यह है कि उनके भीतर कई व्यक्तित्व और रचनाकार थे। लेकिन वो आपस में गड्ड मड्ड नहीं थे। प्रभु दा में एक बड़े लेखक, अनूठे चित्रकार या चिंतक होने का लेश मात्र भी गुरूर नहीं था। वो कई बार निजी जीवन की बातें भी वैसे ही शेयर करते थे, जैसे वो विश्व साहित्य पर साधिकार बात करते थे । एक बार उन्होंने मुझसे फोन पर कहा भी’ अजय इतने साल बाद भी हम एक दूसरे की पारिवारिक जिंदगी के बारे में कितना कम जानते हैं, यह हमने कभी सोचा ही नहीं।‘ मुझसे कई बार कहते, तुम कहानी लिखना बंद मत करना। जब मैं पत्रकारिता में रमा तो मेरे लेखन को लेकर भी बहुत बारीकी से विश्लेषण कर दिशा निर्देश देते रहे। 

‘कथादेश’ का यह विशेषांक प्रभु जोशी के व्यक्तित्व के विविध और विरोधाभासी आयामो को पूरी ईमानदारी से बयान करता है। बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा कि यह प्रभु जोशी की समूची शख्सियत को लेकर कई सवाल खड़े करता है तो उन सवालों के कई जवाब भी इसी में मिलते हैं। पत्रिका के संपादक ओमा शर्मा ने अपने संपादकीय प्रभु जोशी होने के मायने’ में ठीक ही लिखा है ‘लेखन के शैशवकाल में ही उन्होंने ( प्रभु जोशी) पाठकों लेखको के बीच जो मुकाम हासिल कर लिया था, वह नितांत अभूतपूर्व था। बाद में वे चित्रकला में एकाग्र हो गए, लेकिन वहां भी अपनी शिखर पहचान कायम रखी। एक जनबुद्धिजीवी के बतौर उन्होंने अपनी भाषा, संस्कृति, स्त्रीवाद और भूंडलीकृत व्यवस्था के प्रपंचों, यहां तक कि राजनीति की दुरभिसंधियों समेत दूसरे अनेक समकालीन मसलों की जांच परख में उत्तरोत्तर अपनी सोच निवेशित संप्रेषित की, जो किसी हिंदी लेखक के लिए कतिपय दुस्साहसिक वर्जित इलाका है।‘
इस अंक के पहले खंड में प्रभु दा की अद्भुत और ‘पितृऋण’ जैसी कालजयी कहानियां व लेख हैं। लेकिन उनके चिंतक व्यक्तित्व को सामने लाने वाला अनूप सेठी का प्रभु दा से वह दुर्लभ साक्षात्कार है, जो प्रभु जोशी को प्रथम पंक्ति के कला व साहित्य चिंतको में शुमार करता है। इसमें उन्होंने शब्द, रंग, ध्वनि, कला और साहित्य की भाषा के बारे में बहुत गहरे तथा आत्म चिंतन से उद्भूत विचार रखे हैं। प्रभु जी की विशेषता यही थी कि उनके पास कला की लाजवाब भाषा और भाषा की अनुपम कला एक साथ थी। वो समान अधिकार के साथ रंगों की भाषा से खेल सकते थे और भाषा के रंगों को पूरी ताकत से उछाल सकते थे। इसी साक्षात्कार में एक सवाल के जवाब में प्रभुदा कहते हैं कि ‘हर शब्द का एक स्वप्न होता है कि वह दृश्य बन जाए।‘ अपनी कथा रचना प्रक्रिया ( हालांकि कहानी लेखन उन्होंने बहुत पहले बंद कर ‍िदया था) कहा कि मैं खुद भी कहानी का आरंभ लिखता हूं तो बार-बार बदलता हूं। ऐसा नहीं कि जो कहानी लिखी वह एक बार में ही हो गई।‘ लेकिन रचनाकार-कलाकार प्रभु जोशी के अलावा एक इंसान के रूप में प्रभु जोशी क्या थे, किन अतंर्दवद्वों से जूझ रहे थे, उनकी मानवीय कमजोरियां क्या थीं, जिन्हें उन्होंने अपनी बहुआयामी रचनात्मकता से ढंके रखने की हरदम कोशिश की। इन पहलुओंके बारे में बहुत शिद्दत से रोशनी प्रख्यात व्यंग्यकार और प्रभुदा के अनन्य मित्र ज्ञान चतुर्वेदी ने अपने स्मृति लेख ‘कोरोना ने बचा लिया उसे’ में डाली है। यह समूचा लेख दरअसल प्रभु जी के कुछ विरोधाभासी, अजब लापरवाही भरे और खुद संकटो को न्यौतने के विचित्र आग्रहो और उसके कारण सतत तनावों में जीने की अभिशप्तताओं से भरा हुआ है। इस लेख में ज्ञानजी ने कई ऐसे खुलासे किए हैं, जिससे यह सवाल मन को मथता है कि प्रभु जोशी जैसा एक इतना बड़ा और प्रतिभाशाली रचनाकार एक आम मनुष्य की तरह जिंदगी सरल जिंदगी क्यों नहीं जी पाता? दूसरी तरफ शायद यही बात है जो उसे दूसरों से अलग और अन्यतम बनाती है। उनमें एक अलग तरह का ‘जिद्दीपन’ था, जिसे उनके चाहने वाले कभी अफोर्ड नहीं कर सकते थे। यानी कोरोना दूसरों के लिए भले मौत का कारण बना हो लेकिन अपने ही अंतर्विरोधो से जूझ रहे प्रभुदा के लिए ‘मोक्षदायी’ साबित हुआ, ऐसा कथित मोक्ष जिसके लिए हममे से शायद कोई भी मानसिक रूप से तैयार नहीं था। 
‘कथादेश’ के इस अंक में प्रभु जोशी के अनुज हरि जोशी ने उनके बचपन की यादों को संजोया है तो प्रभुजी के भतीजे अनिरूद्ध जोशी ने अपने काका को अलग अंदाज में सहेजा है। प्रभु जोशी के दो परम ‍मित्रों जीवन सिंह ठाकुर तथा प्रकाश कांत ने भी अपने दोस्त के स्वभाव और दोस्ती की निरंतरता के अजाने पहलुओं पर रोशनी डाली है। आकाशवाणी में उनके सहकर्मी और अभिन्न मित्र रहे कवि लीलाधर मंडलोई ने कहा कि प्रभु जोशी पक्के मालवी थे, इसलिए तमाम प्रलोभनो के बाद भी उन्होंने इंदौर नहीं छोड़ा। कैलाश मंडलेकर ने भी प्रभु जोशी के सहज व्यक्तित्व को अपनी नजर से देखा है। इनके अलावा मुकेश वर्मा, रमेश खत्री, मनमोहन सरल तथा अशोक मिश्र, ईश्वरी रावल, सफदर शामी, जय शंकर, डॉ कला जोशी के संस्मरण भी प्रभु दा की शख्सियत के नए आयाम खोलते हैं। प्रभुदा के सुपुत्र इंजीनियर और कला मर्मज्ञ पुनर्वसु जोशी का समीक्षात्मक लेख अपने पिता की जलरंग चित्रकारी पर है। वो लिखते हैं- ‘प्रभु जोशी ने कवितामय गद्य के अपने लेखन की विशिष्ट भाषा की तरह,पारदर्शी जलरंगों के माध्यम को साधते हुए जलरंगों में भी एक ‍कविता ही रची है।‘ 
यह सही है कि प्रभु जोशी की महासागर-सी प्रतिभा को वो सम्मान और प्रतिसाद नहीं मिला, जिसके वो हकदार थे। इसका एक बड़ा कारण वो खुद भी थे। ‘कॅरियर’ और ‘ग्रोथ’ के लिए किसी किस्म का जोखिम उठाना उनकी फितरत में ही नहीं था। चाहे इसका कितना ही नुकसान क्यों न उठाना पड़े। प्रभु जोशी का समूचा रचनाकर्म उनके अपने कठिन संघर्ष और मनुष्य की पीड़ाओं से उपजा नायाब खजाना है। प्रभु जोशी कथा और उपन्यास लेखन में तो अनुपम थे ही, जल रंगो में काम करने वाले वो ऐसे बिरले चित्रकार थे, जिन्होंने रंगों और रेखाओं से बिल्कुल नया आयाम‍ दिया। ‘कथादेश’ के इस अंक का अंतर्निेहित संदेश यही है कि साहित्य और चित्रकला के क्षेत्र में प्रभु जोशी के अवदान का समुचित मूल्यांकन होना आवश्यक है। ऐसा अब तक क्यों नहीं हुआ, यह चुप सवाल भी यह विशेषांक मन में छोड़ जाता है।

भाग एक : ईडब्ल्यूएस आरक्षण: सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने खींच दी हैं,भविष्य की सामाजिक-राजनीतिक विमर्श और आंदोलन की गहरी रेखाएं-नन्दलाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)

भाग-1
एन०एल० वर्मा (असो.प्रोफ़ेसर) सेवा निवृत
वाणिज्य विभाग
वाईडीपीजी कॉलेज,लखीमपुर खीरी

ईडब्ल्यूएस आरक्षण पर आये सुप्रीम कोर्ट के फैसले से सामाजिक न्याय पर भविष्य की सामाजिक - राजनीतिक रेखाएं खिंचती हुई नजर आ रही हैं। सामान्य वर्ग के लिए आर्थिक आधार पर दिए गए आरक्षण पर 103वें संविधान संशोधन की वैधता ने भविष्य में एससी-एसटी और ओबीसी वर्ग में इसे लागू करने की सामाजिक-राजनीतिक मांग की मजबूत नींव भी रख दी है। सामान्य वर्ग के ईडब्ल्यूएस को सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थाओं में प्रवेश में 10% आरक्षण देश की सर्वोच्च अदालत की पांच सदस्यीय संविधान पीठ द्वारा 3-2 बहुमत से जायज़ ठहराये जाने के बाद अब सामान्य वर्ग के गरीबों को आरक्षण का रास्ता विधिक रूप से साफ हो चुका है,जबकि उन्हें आरक्षण का लाभ जनवरी 2019 में संसद से पारित होने के तुरंत बाद से ही दिया जा रहा था और वह भी पूर्वकालिक व्यवस्था से। संसद में इस आरक्षण का अधिकांश राजनीतिक दलों द्वारा तरह तरह से स्वागत किया गया , लेकिन इस फैसले के बाद ओबीसी और एससी-एसटी के आरक्षण से सम्बंधित कई अन्य अहम सवाल भी पैदा हुए हैं जिनकी सामाजिक,राजनीतिक और एकेडेमिक पटलों पर चिंतन मनन शुरू हो गया है और इस चिंतन मनन की परिणिति निकट भविष्य में दिखाई देना शुरू होगा।
         पहला तो यह है कि क्या आर्थिक आधार पर दिया गया ईडब्ल्यूएस आरक्षण देश में समानता के सिद्धांत का उल्लंघन है, दूसरा, आर्थिक आधार पर आरक्षण केवल सामान्य वर्ग को ही क्यों, तीसरे क्या भविष्य में भारत जैसे देश में आरक्षण का मुख्य आधार आर्थिक पिछड़ापन ही बनेगा, चौथा क्या इससे ओबीसी आरक्षण पर दिए गए सुप्रीम कोर्ट की नौ जज़ों की संविधान पीठ के 1992 के फैसले " देश में आरक्षण 50% से अधिक नहीं हो सकता " का यह उल्लंघन है और पांचवॉ यह कि भारत जैसे देश में जाति आधारित आरक्षण की बैसाखी आखिर कब तक कायम रहेगी?
        इन तमाम सवालों को संविधान की पीठ में शामिल जजों ने भी उठाए हैं, जिनके सटीक उत्तर एससी-एसटी और ओबीसी वर्ग के बुद्धिजीवियों और कानूनविदों को खोजने होंगे और भविष्य में देश का सामाजिक तानाबाना और राजनीतिक दिशा -दशा भी उसी से तय होगी। इस दूरगामी फैसले में विशेष संस्कृति में पैदा हुए,पले-बढ़े और पढ़े पांचो जजों में एक बात पर सहमति दिखी कि आर्थिक आधार पर आरक्षण संविधान के बुनियादी ढांचे का उल्लंघन नहीं है। पीठ में शामिल जस्टिस दिनेश माहेश्वरी ने कहा है: 103वें संविधान संशोधन को संविधान के मूल ढांचे को भंग करने वाला नहीं कहा जा सकता। ईडब्ल्यूएस आरक्षण समानता संहिता या संविधान के मूलभूत तत्वों का उल्लंघन नहीं और 50% से अधिक आरक्षण सीमा का उल्लंघन बुनियादी ढांचे का उल्लंघन भी नहीं करता है, क्योंकि यहां आरक्षण की उच्चतम सीमा केवल 16 (4) और (5) के लिए है जिसे अब अपने वर्ग के हितों के संदर्भ में नए तरीके से परिभाषित किया जा रहा है। फैसले को भारतीय संविधान की फ्लेक्सीबिलटी का अनुचित फायदा उठाने का कुत्सित प्रयास के रूप में देखा जा रहा है! जस्टिस बेला एम.त्रिवेदी की राय में 103वें संविधान संशोधन को भेदभाव के आधार पर रद्द नहीं किया जा सकता। ईडब्लूएस आरक्षण को संसद द्वारा की गई एक सकारात्मक कार्यवाही के रूप में देखा जाना चाहिए। इससे अनुच्छेद 14 या संविधान के मूल ढांचे का कोई उल्लंघन नहीं होता।
       सुप्रीम कोर्ट की पीठ का यह भी कहना है कि पूर्व में आरक्षित वर्गों (ओबीसी और एससी-एसटी) को ईडब्ल्यूएस आरक्षण के दायरे से बाहर रखकर उनके अधिकारों को प्रभावित नहीं करता है। जाति व्यवस्था द्वारा पैदा की गई असमानताओं को दूर करने के लिए आरक्षण लाया गया था। गणतंत्र के 72 वर्षों के बाद हमें परिवर्तनकारी संवैधानिकता के दर्शन को जीने के लिए नीति पर फिर से विचार करने की जरूरत है। जस्टिस जे.बी. पारदीवाला ने भी अपने फैसले में दोनों के विचारों से सहमति जताई और संशोधन की वैधता को बरकरार रखा। आरक्षण व्यवस्था पर अपनी महत्वपूर्ण टिप्पणी में उन्होंने कहा है कि आरक्षण सामाजिक और आर्थिक न्याय को सुरक्षित करने का साधन है,आरक्षण अनिश्चित काल तक जारी नहीं रहना चाहिए और इसे निहित स्वार्थ नहीं बनने देना चाहिए। गौरतलब है कि केंद्र की मोदी सरकार ने दोनों सदनों में 103वें संविधान संशोधन विधेयक को मंजूरी दी थी जिसके तहत सामान्य वर्ग के गरीब लोगों को शैक्षणिक संस्थानों और सरकारी नौकरियों में 10% आरक्षण का प्रावधान किया गया था।
        12 जनवरी 2019 को राष्ट्रपति ने इस कानून को मंजूरी दी, लेकिन इस कानून को सुप्रीम कोर्ट में यह कहकर चुनौती दी गई थी कि इससे संविधान के समानता के अधिकार और संविधान पीठ द्वारा लगाई गई 50% आरक्षण की सीमा का उल्लंघन होता है। अत: इस संशोधन को खारिज़ किया जाए, लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने इस संविधान संशोधन को वैध माना। कानून में सामान्य वर्ग के सालाना 8 लाख रुपये से कम आय वाले परिवारों को इकोनॉमिकली वीकर सेक्शन्स (ईडब्लूएस) मानते हुए सरकारी शैक्षिक संस्थाओं तथा नौकरियों में भी 10% आरक्षण दिया जा रहा है,लेकिन संविधान पीठ के ही जस्टिस एस.रवींद्र भट ने अपने निर्णय में ईडब्ल्यूएस आरक्षण संबंधी संविधान संशोधन पर असहमति जताते हुए उसे रद्द कर दिया। जस्टिस भट ने अन्य तीन न्यायाधीशों के फैसले पर असहमति जताते हुए कहा कि 103 वां संशोधन संवैधानिक रूप से प्रतिबंधित भेदभाव की वकालत करता है। आरक्षण की तय 50% की सीमा के उल्लंघन की अनुमति देने से और अधिक उल्लंघन हो सकते हैं जिसके परिणामस्वरूप विभाजन हो सकता है। जस्टिस रवींद्र भट ने अपने फैसले में आर्थिक आधार पर आरक्षण को खारिज करते हुए कई सवाल उठाए। उन्होंने कहा कि जिस तरह एससी-एसटी और ओबीसी को इस आरक्षण से बाहर रखा गया है, उससे भ्रम होता है कि समाज में उनकी आर्थिक स्थिति काफी बेहतर हो चुकी है, जबकि सबसे ज्यादा गरीब और गरीबी इन्हीं वर्गों में हैं और ग़रीबी आकलन में आठ लाख की आय की क्राईटेरिया कतई उचित नही कहा जा सकता है और यह संविधान के मूल ढांचे के खिलाफ है। हालांकि, उन्होंने यह भी कहा है कि केवल आर्थिक आधार पर दिया गया आरक्षण वैध है। कुल मिलाकर इसका अर्थ यही है कि जस्टिस भट्ट और जस्टिस यू.यू. ललित ने आर्थिक आधार पर आरक्षण को तो सही माना, लेकिन उसके तरीके पर असहमति जताई है।
क्रमशः भाग दो में-

भाग दो : ईडब्ल्यूएस आरक्षण: सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने खींच दी हैं,भविष्य की सामाजिक-राजनीतिक विमर्श और आंदोलन की गहरी रेखाएं-नन्दलाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)

  भाग-2  
एन०एल० वर्मा (असो.प्रोफ़ेसर) सेवा निवृत
वाणिज्य विभाग
वाईडीपीजी कॉलेज,लखीमपुर खीरी

      इस बारे में सरकारी पक्ष का कहना था कि नए प्रावधान से सुप्रीम कोर्ट द्वारा लागू आरक्षण की 50% की सीमा का कहीं से उल्लंघन नहीं हुआ है, क्योंकि यह वास्तव में आरक्षण के भीतर आरक्षण ही है। यह 10% आरक्षण सामान्य वर्ग (जिसमें हिंदुओं की अगड़ी जातियां व गैर हिंदू धर्मावलंबी शामिल हैं) के बाकी 50% कोटे में से ही दिया गया है,अर्थात सरकारी और सवर्ण मानसिकता के लोग 50% अनारक्षित सीटों को सामान्य वर्ग के लिए आरक्षित मानकर चलते आये हैं और आज भी मान रहे हैं, अनारक्षित 50%सीटों  को ओपन टू ऑल अर्थात जिसमें विशुद्ध मेरिट के आधार पर अनारक्षित और आरक्षित वर्ग के अभ्यर्थियों में भेदभाव किये बिना चयनित होने की व्यवस्था होती है। इन 50%सीटों के भर जाने के बाद ही ओबीसी और एससी-एसटी के अभ्यर्थियों का उनके आरक्षण प्रतिशत के हिसाब से चयनित किये जाने की व्यवस्था होती है। इस प्रकार की चयन प्रक्रिया से सामान्य वर्ग की कट ऑफ मेरिट के बराबर या नीचे से ही आरक्षित वर्ग की मेरिट सूची की शुरूआत होती है।
      बेशक, इस ईडब्ल्यूएस आरक्षण से समाज के सामान्य वर्ग के उस गरीब तबके को राहत मिली है, जो केवल गरीब होने के कारण अपने ही वर्ग के सम्पन्न तबके से प्रतिस्पर्द्धा में पिछड़ रहा था। भाजपा और एनडीए में शामिल दलों ने इसे अपनी जीत बताया है। भाजपा को इसका कुछ लाभ आगामी चुनावों में हो सकता है, हालांकि ज्यादातर राज्यों में अगड़ी जातियां भाजपा समर्थक ही हैं।
        इस मामले में कांग्रेस का पूरा रवैया थोड़ा ढुलमुल दिखा। उसने एक तरफ अगड़ों को आर्थिक आरक्षण का समर्थन यह कहकर किया कि संसद में उनकी पार्टी ने संविधान संशोधन के पक्ष में वोट दिया था तो दूसरी तरफ अपने ही एक दलित नेता उदित राज से इसका यह कहकर विरोध करा दिया कि यह संशोधन आरक्षण की सीमा लांघता है और यह भी कि न्यायपालिका की मानसिकता ही मनुवादी है। हालांकि, कांग्रेस महासचिव जयराम रमेश ने स्पष्ट कहा कि उनकी पार्टी शीर्ष अदालत के फैसले का स्वागत करती है। उन्होंने कहा कि यह संविधान संशोधन 2005-06 में डाॅ.मनमोहन सिंह की सरकार द्वारा सिन्हा आयोग के गठन से शुरू की गई प्रक्रिया का ही नतीजा है। सिन्हा आयोग ने जुलाई 2010 में अपनी रिपोर्ट दी थी। केवल तमिलनाडु की सत्तारूढ़ डीएमके के मुख्यमंत्री एम.के.स्टालिन ने फैसले का यह कहकर विरोध किया कि इससे लंबे समय से जारी "सामाजिक न्याय के संघर्ष को झटका" लगा है। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने फैसले का स्वागत करते हुए देश में जातिगत जनगणना की मांग दोहराई है। जाहिर है कि अधिकांश दल राजनीतिक कारणों से फैसले का खुलकर विरोध नहीं कर पा रहे हैं, क्योंकि मुट्ठी भर अगड़ों के वोटों की चिंता सभी को सता रही है।
         बहरहाल, सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से भविष्य की सामाजिक-राजनीतिक विमर्श और आंदोलन की रेखाएं खिंचती नज़र आ रही हैं। ईडब्ल्यूएस आरक्षण की वैधता ने आने वाले समय में एससी-एसटी और ओबीसी वर्ग में भी इसे लागू करने की मांग की नींव रखने का काम किया है (ओबीसी में तो क्रीमी लेयर का नियम लागू है), क्योंकि आरक्षित वर्गों में भी विभिन्न जातियों के बीच आरक्षण का लाभ उठाने को लेकर प्रतिस्पर्द्धा तेज हो गई है। भारत में करीब 3 हजार जातियां और 25 हजार उप जातियां हैं। यह भी बात जोरों से उठने लगी है कि जब एक परिवार का तीन पीढि़यों से आरक्षण का लाभ लेते हुए आर्थिक-सामाजिक उत्थान हो गया फिर उन्हें आरक्षण क्यों मिलते रहना चाहिए तथा देश में सामाजिक और आर्थिक समता का सर्वमान्य पैमाना क्या है, क्या होना चाहिए? विभिन्न जातियों और समाजों में आरक्षण का लाभ उठाकर पनपते और प्रभावी हो रहे नए किस्म के ब्राह्मणवाद को अभी से नियंत्रित करना कितना जरूरी है और यह कैसे होगा? जाति आधारित राजनीति इसे कितना होने देगी? जाहिर है कि बदलते सामाजिक-राजनीतिक समीकरणो के चलते यह मांग आरक्षित वर्गों में से ही उठ सकती है,अर्थात सामाजिक न्याय का संघर्ष या आंदोलन एक नए दौर में प्रवेश कर सकता है। ये बदले सामाजिक समीकरण ही देश की राजनीति की चाल भी बदलेंगे और राजनीति के साथ व्यवस्था भी बदलेगी जिसकी सूक्ष्म रूप में आहट सुनाई भी देने लगी है।

Tuesday, January 10, 2023

डॉ.आंबेडकर द्वारा ओबीसी उत्थान के लिए की गई संवैधानिक व्यवस्था का सामाजिक-राजनीतिक-अकादमिक विमर्श के पटलों/मंचों पर समय पर आकलन और आंकलन न हो पाना ओबीसी के सामाजिक न्याय और बहुजन समाज की राजनीति के लिए बेहद दुर्भाग्यपूर्ण और हानिकारक साबित हुआ और आज भी हो रहा है-नन्दलाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)

 पृष्ठ एक "
एन०एल० वर्मा (असो.प्रोफ़ेसर) सेवा निवृत
वाणिज्य विभाग
वाईडीपीजी कॉलेज,लखीमपुर खीरी

           हिंदू धर्म शास्त्रों का गहनता पूर्वक अध्ययन करने के बाद डॉ.आंबेडकर ने 1946 में "शूद्र कौन थे - हू वेयर शूद्राज़ " नामक एक पुस्तक लिखी जिसमें ब्राह्मणवादी वर्ण व्यवस्था में सबसे नीचे पायदान पर स्थापित किये गए शूद्र वर्ण जिसे बाद में उन्होंने संवैधानिक रूप से ओबीसी नाम से परिभाषित किया। पुस्तक के माध्यम से शूद्रों का सामाजिक व शैक्षणिक इतिहास लोगों के सामने लाने का प्रयास किया गया। इस पुस्तक को लिखने के तुरंत बाद उन्हें उनकी शिक्षा और ज्ञान की वजह से भारत के संविधान लिखने की जिम्मेवारी मिली। संविधान सभा में वह सबसे ज्यादा शिक्षित और विद्वान थे और उनके बाद उनके सलाहकार डॉ.बीएन राव थे। शेष सदस्य डॉ.आंबेडकर की विद्वता के सामने कहीं ठहरते नज़र नहीं आ रहे थे। शूद्रों का इतिहास लिखने के कारण डॉ.आंबेडकर उनकी सामाजिक,राजनीतिक और आर्थिक समस्याओं से भलीभाँति परिचित थे और वह स्वयं भी उन समस्याओं से तपकर निकले थे। डॉ.आंबेडकर को ओबीसी की समस्याएं बेहद महत्वपूर्ण और गंभीर लगती थी। उन्हें मालूम था कि शूद्र वर्ण की समस्याओं का समाधान संवैधानिक व्यवस्था के जरिए ही निकाला जा सकता है। इसलिए संविधान लिखते समय जब सामाजिक न्याय का सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में आरक्षण का मुद्दा आया तो उन्होंने अछूतों (एससी) और आदिवासियों(एसटी) से पहले शूद्र यानी ओबीसी पर विचार किया। ओबीसी के लिए 340वां उसके बाद एससी के लिए 341वां और सबसे बाद एसटी के लिए 342वां अनुच्छेद लिखा। तार्किक और विस्तृत स्पष्टीकरण-विश्लेषण प्रस्तुत कर उन्होंने इन अनुच्छेदों को संविधान सभा में सर्वसम्मति से पारित कराया। संविधान सभा में इन अनुच्छेदों पर बहुत लंबी बहस चली थी। अनु. 341और 342 पर अनु.340 की तुलना में कम विरोध हुआ अर्थात ओबीसी की समस्याओं को लेकर प्रस्तुत 340वें अनु. का सर्वाधिक विरोध हुआ। जब गांधी, नेहरू और पटेल को पता चला कि संविधान में अनु. 340 के अंतर्गत ओबीसी के लिए अलग से विशेष प्रावधान किया गया है तो इनके साथ-साथ अन्य तत्कालीन कद्दावर सदस्य भी नाराज हो गए। यहां तक कि सरदार पटेल जो स्वयं पिछड़ा वर्ग से आते थे,डॉ.आंबेडकर से पूछने लगे कि ये ओबीसी कौन है और इनके पिछड़ेपन के कारण क्या है ? संविधान सभा के अधिकांश सदस्यों ने ओबीसी के इस अनु. के विरुद्ध जमकर आवाज उठाई,लेकिन अपनी योग्यता और सामाजिक विज्ञान पर आधारित अभेद्य तार्किक क्षमता के दम पर डॉ.आंबेडकर ने ज्यादातर सदस्यों को संतुष्ट करते हुए यह मनाने में सफल हुए कि ओबीसी कौन और उनकी समस्याएं क्या हैं अर्थात यह समझाने में सफल हुए कि उनके पिछड़ेपन के कारण क्या है और उनकी समस्याओं के समाधान के लिए अनु. 340 क्यों जरूरी है। लम्बी और मुश्किल भरी जद्दोजहद के बाद डॉ.आंबेडकर ओबीसी के लिए अनुच्छेद 340 पारित करा सके थे। यह सच्चाई मनुवादी शक्तियों की साजिश और जिस जाति से डॉ.आंबेडकर आते थे उससे ओबीसी अपनी जातीय श्रेष्ठता के झूठे दम्भ में चूर उनके इस महान योगदान को न तो ओबीसी समझ पाया और न ही संविधान सभा के ओबीसी सदस्य उसे समझाने की दिशा में अपेक्षित काम कर सके। मनुवादियों द्वारा किये गए इस दुष्प्रचार कि आंबेडकर तो दलितों के मसीहा हैं, ओबीसी उनके दुष्चक्र में फंसकर रह गया और इस तरह देश का एक बहुसंख्य ओबीसी डॉ.आंबेडकर जैसे महान पुरूष के व्यापक और बहुआयामी व्यक्तित्व को एक जाति विशेष के खांचे में कसकर देखने,उसका जोर-शोर से प्रचार-प्रसार करने और राहत व जातीय श्रेष्ठता की सांस लेने में ही आनंद लेता रह गया। डॉ.आंबेडकर को दलितों का मसीहा घोषित और प्रचारित करने की मनुवादियों की साज़िश ओबीसी के लिए बहुत घातक सिध्द हुई,लेकिन ओबीसी वर्ण व्यवस्था की जातीय श्रेष्ठता के नशे में डुबकी लगाने में ही मस्त रहा और सवर्ण उनकी हिस्सेदारी को एक चालाक भेड़िये की तरह छुपकर नोच-नोच कर खाता रहा।
          डॉ.आंबेडकर की वजह से अनु0 340 तो पारित हो गया,लेकिन उच्च वर्गीय कट्टरवादी शक्तियों द्वारा इसका लगातार विरोध जारी रहा। अनु. 340 के अनुसार ओबीसी जातियों की पहचान कर उनकी समस्याओं का पता लगाना, उनके कारणों का जानना तथा उनके उत्थान के लिए रोड मैप तैयार करने के लिए एक आयोग के गठन का प्रावधान किया गया। 26 जनवरी 1950 को जब संविधान पूर्ण रूप से लागू हो गया तो डॉ.आंबेडकर ने ओबीसी आयोग गठित करने की मांग रखी, लेकिन प्रधानमंत्री नेहरू इस विषय को बड़ी चतुराई से टाल गए। उसी दौरान डॉ.आंबेडकर हिंदू कोड बिल पर भी काम कर रहे थे और वह उस बिल को संसद में यथाशीघ्र पारित कराना चाहते थे, लेकिन ओबीसी और महिलाओं के प्रति सरकार के उपेक्षापूर्ण रवैये ने उन्हें बहुत निराश किया। यहां तक कि संसद में उच्च वर्गीय महिलाओं ने भी हिंदू कोड बिल की अंतर्निहित विषय वस्तु जो उनके व्यापक हित में थी,के निहितार्थ को न समझते हुए उसका कड़ा विरोध किया। यही नही, डॉ.आंबेडकर को इस बिल की वजह से संसद के भीतर और संसद के बाहर भी भारी जनाक्रोश का विरोध झेलना पड़ा जिससे दुखी होकर उन्होंने 27 सितंबर 1951 को कानून मंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया। इस्तीफा देने के बाद वह चुपचाप नहीं बैठे उन्होंने संकल्प लिया कि वह अब ओबीसी को जागरूक और संगठित करने का काम करेंगे। पं.नेहरू इस बात को अच्छी तरह समझते थे, क्योंकि उस समय देशमुख और आरएल चंदापुरी जैसे ओबीसी नेता डॉ.आंबेडकर के संपर्क में थे और वे ओबीसी आयोग के गठन को लेकर देशव्यापी आंदोलन करने के लिए एक ठोस योजना का रूप देने की दिशा में प्रयासरत थे। ये ओबीसी नेता उत्तर भारत में ओबीसी की बड़ी-बड़ी जनसभाएं भी करना शुरू कर चुके थे। सन 1952 में जब पहला आम चुनाव होना था तो डॉ.आंबेडकर ने अपनी पार्टी "शेड्यूल्ड कास्ट्स फेडरेशन ऑफ इंडिया" के घोषणा पत्र में अनुच्छेद 340 के अनुसार ओबीसी आयोग के गठन का मुद्दा शामिल किया। नेहरू जी यह अच्छी तरह समझते थे कि पूरे देश का ओबीसी डॉ.आबेडकर के साथ एकजुट हो सकता है। इसलिए उच्च वर्गीय दत्तात्रेय बालकृष्ण उर्फ़ काका कालेलकर की अध्यक्षता में आनन-फानन एक ओबीसी आयोग का गठन कर दिया गया। 30 मार्च 1955 को उन्होंने अपनी रिपोर्ट राष्ट्रपति डॉ.राजेंद्र प्रसाद को सौंप दी। रिपोर्ट की विषय वस्तु पढ़कर वह हतप्रभ थे और तुरंत नेहरू से फोन कर अपनी नाराजगी व्यक्त की। नेहरू ने तुरंत रिपोर्ट मंगवाई और उसकी सिफारिशों का गहनता से अध्ययन किया। भावी राजनीति के दृष्टिगत उन्हें रिपोर्ट की सिफारिशें नागवार गुजरी अर्थात बिल्कुल पसंद नहीं आयी और कालेलकर को बुलाकर खूब फटकार लगाई,फिर उनसे ही रिपोर्ट पर लिखवाया कि " इस रिपोर्ट की सिफारिशें लागू नहीं की जा सकती है,क्योंकि मैं स्वयं इनसे सहमत नहीं हूँ।" इस तरह नेहरू ने कालेलकर आयोग रिपोर्ट की सिफारिशों को लागू करना तो दूर उन्हे संसद में पेश करने लायक भी नहीं छोड़ा। जब रिपोर्ट तैयार करने वाला ही लिख कर दे रहा हो कि वह इस रिपोर्ट से सहमत नहीं है तो फिर उसे संसद में पेश करने और उस पर चर्चा कराने की क्या जरूरत और औचित्य बनता है? इस तरह कालेलकर आयोग की रिपोर्ट को एक दूरगामी सामाजिक और राजनीतिक खतरे को भांपते हुए धीरे से ठंडे बस्ते में डाल दिया गया जिसे ओबीसी नहीं समझ पाया।
         डॉ.आंबेडकर के परिनिर्वाण के बाद कालेलकर आयोग की रिपोर्ट को भी लागू करने की पहल का काम भी थम सा गया था, लेकिन उसकी सुलगती आग की आंच अभी पूरी तरह ठंडी नहीं पड़ी थी। पं.नेहरू की मृत्यु के बाद शास्त्री जी देश के प्रधानमंत्री बने,उनकी भारत-पाक युद्ध के बाद ताशकंद समझौते के दौरान रहस्यमयी मौत हो गयी तो फिर इंदिरा गांधी देश की प्रधानमंत्री बनी। 1975 में उन्होंने देश में आपातकाल की घोषणा कर दी जिसके विरोध में सभी गैर कांग्रेसी दल एकजुट हो गए और एक संयुक्त राजनीतिक दल " जनता पार्टी " का गठन हुआ। 1977 के लोकसभा चुनाव में जनता पार्टी ने अपने चुनावी घोषणा पत्र में कालेलकर आयोग की रिपोर्ट की सिफारिशों को लागू करने का वादा किया। देश में पहली बार मोरार जी देसाई के नेतृत्व में जनता पार्टी की प्रचंड बहुमत की गैर कांग्रेसी सरकार बनी तो कुछ दिनों बाद ओबीसी का एक शिष्टमंडल प्रधानमंत्री से मिलता है और कालेलकर आयोग की रिपोर्ट लागू करने का दबाव बनाता है। प्रधानमंत्री कहते हैं कि चूंकि,आयोग की रिपोर्ट 1931 की जनगणना पर आधारित है जो काफी पुरानी हो चुकी है और तब से ओबीसी के सामाजिक और शैक्षणिक स्तर में काफी बदलाव आ चुका है और आश्वासन दिया कि उसके स्थान पर एक नया आयोग गठित किया जाएगा।......
शेष-पृष्ट दो पर                                                       

डॉ.आंबेडकर द्वारा ओबीसी उत्थान के लिए की गई संवैधानिक व्यवस्था का सामाजिक-राजनीतिक-अकादमिक विमर्श के पटलों/मंचों पर समय पर आकलन और आंकलन न हो पाना ओबीसी के सामाजिक न्याय और बहुजन समाज की राजनीति के लिए बेहद दुर्भाग्यपूर्ण और हानिकारक साबित हुआ और आज भी हो रहा है-नन्दलाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)

" पृष्ठ दो "
एन०एल० वर्मा (असो.प्रोफ़ेसर) सेवा निवृत
वाणिज्य विभाग
वाईडीपीजी कॉलेज,लखीमपुर खीरी
इस आश्वासन के साथ शिष्ट मंडल को उल्टे पांव वापस आना पड़ा और इस तरह एक बार फ़िर मनुवादियों का ओबीसी को छलने का प्रयास सफल हो गया। 1जनवरी 1979 को बीपी मंडल की अध्यक्षता में एक नया आयोग गठित किया गया जिसने 31 दिसंबर 1980 को अपनी रिपोर्ट सरकार के सामने प्रस्तुत की। देश में सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़ी हुई लगभग 3744 जातियों की ओबीसी के रूप में पहचान की गई और उनकी जनसंख्या 52% आंकते हुए सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में 27% आरक्षण की सिफारिश के साथ एससी-एसटी की तर्ज़ पर प्रोन्नति में आरक्षण और लोक सभा-विधान सभाओं में राजनीतिक आरक्षण की भी सिफारिश की। ओबीसी के उत्थान के लिए जो मंडल आयोग ने सिफारिशें की थी वे अधिकांश कालेलकर आयोग की सिफारिशों जैसी ही थीं। 1980 से 1990 तक अदृश्य सामाजिक-राजनीतिक भयवश किसी भी सरकार ने मंडल कमीशन की सिफारिशें लागू करने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। ओबीसी आयोग की सिफारिशें एक बार फिर 10 साल तक दफ्तरों की फाइलों में धूल फांकती रहीं।
             इसी दौरान देश भर में मंडल आयोग की रिपोर्ट की सिफारिशें लागू करने को लेकर विभिन्न सामाजिक - राजनीतिक मंचों से आवाजें उठती रहीं। उस समय बीएसपी के संस्थापक कांशी राम ने मुलायम सिंह ,लालू प्रसाद यादव, शरद यादव, नीतीश कुमार और रामविलास पासवान जैसे ओबीसी नेताओं से मुलाकात कर अपने संगठन के जरिए सिफारिशें लागू करने के लिए सरकार पर दबाव बनाया और नारा दिया कि "मंडल कमीशन लागू करो वरना कुर्सी खाली करो" और अंततः 7 अगस्त 1990 को तत्कालीन प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने राजनीतिक मजबूरी वश या दबाव में आकर मंडल कमीशन की रिपोर्ट की एक सिफारिश "सरकारी नौकरियों में ओबीसी के लिए 27% आरक्षण " की ऐतिहासिक घोषणा कर कई वर्षों से बोतल में बंद आरक्षण नाम के जिन्न को आज़ाद कर दिया तो आरक्षण विरोधी मनुवादी शक्तियों के विभिन्न संगठनों ने हिंदुत्व की चादर लपेटकर सड़क पर उतरकर देश को अराजकता और हिंसा की आग में झोंकने जैसा कार्य किया और इस अराजकता में देश की संपत्ति को भारी नुकसान हुआ जिसमें कथित हिन्दू संगठनो में विश्व हिन्दू परिषद, बजरंग दल, आरएसएस और बीजेपी का अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद आदि संगठनों की बड़ी भूमिका रही। बड़े पैमाने पर हिंसक आंदोलन शुरू कराए गए, लेकिन वीपी सिंह अपने निर्णय पर अडिग रहे और लेशमात्र टस से मस नही हुए। वीपी सिंह के इस साहसी निर्णय पर आरक्षण समर्थकों ने उन्हें " राजा नही फ़कीर है, देश की तक़दीर है " के बुलंद नारे के साथ सम्मान देने का कार्य किया,वहीं आरक्षण विरोधी शक्तियों ने उन्हें "राजा नहीं रंक है, देश का कलंक है" जैसे नारे देकर उन्हें अपमानित करने का कार्य भी किया। इस घोषणा के बाद वीपी सिंह अपनी जाति से एक तरह से बहिष्कृत से कर दिए गए और राजनीतिक सत्ता भी गंवानी पड़ी, लेकिन ओबीसी की जातियों में जहां वीपी सिंह एक मसीहा के तौर पर स्थापित होना चाहिए था, वह ओबीसी डॉ आंबेडकर के साथ-साथ वीपी सिंह के प्रति उनके जन्म जयंती और पुण्य तिथि पर सार्वजनिक रूप से कृतज्ञतापूर्वक सम्मान देना तो दूर उनको यादों में भी जिंदा नहीं रख सका। ओबीसी की इसी पिछड़ी और ओछी सोच की वजह से ही वह लोगों की नज़र में पिछड़ा माना जाता है।
            हिदुत्व की सबसे बड़ी और मजबूत संवाहक बनीं ओबीसी की जातियों का आरक्षण के मुद्दे से ध्यान हटाने और बंटाने के लिए बीजेपी में हिंदुत्व के बड़े राजनीतिक ठेकेदार लालकृष्ण आडवाणी ने हिन्दू धर्म के नाम पर सभी जातियों को लामबंद करने और ओबीसी आरक्षण के मुद्दे को नेपथ्य में ले जाने की साजिश रचने की दिशा में राम मंदिर आंदोलन को धार देने के उद्देश्य से सारनाथ से " राम रथ यात्रा " शुरू कर दी और इस रथ के सारथी बने थे आज के पीएम नरेन्द्र मोदी जो पीएम बनने के बाद अपने को ओबीसी कहने में गौरवान्वित महसूस करते हैं। जब रथ यात्रा बिहार की सीमा पर पहुंची तो वहाँ के तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव ने राज्य की सीमा में घुसने पर गिरफ्तार करने की घोषणा कर दी। इसका बहाना बनाकर सवर्णों की पार्टी बीजेपी ने वीपी सिंह नेतृत्व वाली सरकार से समर्थन वापस लेकर सरकार तक गिरा दी थी,लेकिन आज भी बड़ी विडंबना यह है कि ओबीसी अपना सामाजिक और राजनीतिक दुश्मन या साजिशकर्ता की पहचान करने में लगातार बड़ी भूल करता जा रहा है। वर्ण व्यवस्था में ओबीसी की जातियों को सबसे नीचे पायदान पर बैठाया गया है। इसके बावजूद वह मनुवादियों की सामाजिक और धार्मिक आडंबरों-पाखंडों की साजिश को नहीं समझ पा रहा है। आधुनिक विज्ञान के दौर में भी ओबीसी हिन्दू बनकर मनुवादी व्यवस्था और कर्मकांडों में गहरी आस्था या अंधभक्ति में डुबकी लगाकर उनके इशारों पर नृत्यकला कर आनंद लेता हुआ अपना मूल कर्म-धर्म समझ रहा है।
           देश की आजादी के बाद केंद्र में कांग्रेस या बीजेपी के नेतृत्व वाली ही सरकारें राज करती रही हैं, लेकिन दोनों पार्टियों ने जानबूझकर जाति आधारित जनगणना पर लम्बी चुप्पी साधे रहीं। 1951 की जनगणना होने बाद सरकार ने फैसला लिया था कि 1961में जनगणना जाति आधारित होगी,लेकिन इस फ़ैसले पर जानबूझकर अमल नहीं किया गया। उसका कारण साफ था कि यदि ओबीसी को अपनी आबादी का पता चल गया तो चुनावी लोकतंत्र के माध्यम से उस शासन-प्रशासन में उनकी उचित हिस्सेदारी देनी पड़ेगी जिस पर 15% कथित सवर्ण अल्पसंख्यक समुदाय हज़ारों वर्षों से कुंडली मार कर बैठा हुआ है जिसने मंडल कमीशन की ओबीसी आरक्षण की एक सिफारिश को कोर्ट में ले जाकर क्रीमी लेयर और आरक्षण की 50% सीमा निर्धारित करवाने जैसा कार्य किया। यही 15% सवर्ण और उनके संगठन मंडल कमीशन की मात्र एक सिफारिश सरकारी नौकरियों में 27% आरक्षण की घोषणा के बाद ओबीसी का ध्यान मंडल से हटाकर कमंडल की ओर ले जाने वाले लोग थे ,क्या वे ओबीसी के हितैषी थे? ओबीसी ने कभी भी इस गम्भीर साज़िश को समझने का प्रयास ही नही किया। दरअसल, इन्हीं मंडल विरोधियों ने डॉ.आंबेडकर के परिनिर्वाण दिवस 6 दिसंबर पर विवादित और न्यायालय में लंबित मंदिर-मस्जिद ढांचा गिराकर देश को सांप्रदायिकता की आग में धकेलने का काम किया और आंबेडकरवाद से बहुजन समाज का ध्यान भटकाने की दिशा में एक गहरी साज़िश भी रच डाली। मनुवादी अच्छी तरह जानते हैं कि उन्हें आंबेडकर और आंबेडकरवाद से लगातार लड़ना होगा। आखिर, क्या बात है कि हमेशा उनके निशाने पर आंबेडकर और आंबेडकरवाद ही क्यों रहता है? मनुवादियों को पता है कि आंबेडकर ने ओबीसी के लिए क्या किया है, लेकिन ओबीसी को आज तक आभास नहीं हो पा रहा है और न ही सामाजिक और राजनीतिक विमर्श के माध्यम से उन्हें समझाने के उचित प्रयास किये जा रहे हैं कि डॉ.आंबेडकर ने उनके लिए क्या किया है! उन्हें तो इसका अनुमान ही नहीं है कि यदि कालेलकर आयोग की दो-चार सिफारिशें ही 1955 में लागू हो गई होती तो अब तक ओबीसी वर्ग के करोड़ों परिवारों का जीवन स्तर ऊंचा उठ गया होता। दुर्भाग्य से तत्कालीन ओबीसी राजनेता और ओबीसी दोनों में सामाजिक-राजनीतिक जागरूकता न होने के कारण या अन्य अज्ञात कारणों से सामाजिक- राजनीतिक रूप से सोते रहे या अदृश्य भयवश चुप्पी साधे रहे और सवर्ण बड़ी चतुराई से इनका हिस्सा डकारता रहा।
          अजीब सी विडंबना है कि आज भी ओबीसी जातियों के अधिकांश लोग नेहरू,तिलक, इंदिरा गांधी आदि को ही अपना नेता मानते हैं जिन्होंने हमेशा सवर्णों के हितों को वरीयता दी और उन्हीं के हितों को ध्यान में रखकर सदैव नीतियां भी बनाई, लेकिन डॉ.आंबेडकर जिन्होंने भारतीयों के लिए ही नहीं ,बल्कि सम्पूर्ण मानवता के लिए आजीवन कड़ा संघर्ष किया,संविधान सभा में मनुवादियों का विरोध झेला और ओबीसी के लिए अनुच्छेद 340 लिखकर उन्हें एक संवैधानिक विशिष्ट पहचान दिलाई, ओबीसी के उत्थान के लिए कमीशन गठित करने के लिए नेहरू जी को विवश किया ,लेकिन वे अपना उन्हें मसीहा या रहनुमा समझने, स्वीकार करने और बताने में संकोच और शर्म महसूस करते रहे और आज भी कर रहे हैं। डॉ.आंबेडकर को मनुवादियों ने मात्र एक दलित नेता के रूप में ही प्रचारित किया और आज भी किया जा रहा है। ओबीसी के लोग भी उनके दुष्प्रचार के झांसे में बहुत आसानी से आ गए जिसके परिणाम स्वरूप वे आज तक मनुवादियों के हाथों लूटे जा रहे हैं और तब तक लुटते रहेंगे जब तक उन्हें अपने वास्तविक चौकीदार/रहनुमा और लुटेरा/दुश्मन की पहचान नहीं हो जाती है। आज़ादी के 75 साल बाद भी ओबीसी मनुवादियों की वर्णव्यवस्था में फंसकर कई तरह के शोषण का शिकार हो रहा है। देश में आज हिंदुत्व-राष्ट्रवाद,हिन्दू बनाम मुस्लिम और भारत -पाकिस्तान का राग अलापकर ओबीसी का वोट लूटकर सत्ता की राजनीति हो रही है। एससी और एसटी भलिभांति समझ चुका है कि उसका उद्धार बहुजन समाज के महापुरुषों की वैचारिकी अपनाने और आत्मसात करने में ही सम्भव है, लेकिन ओबीसी के गले के नीचे यह बात नही उतर पा रही है। जिस दिन ओबीसी बहुजन दर्शन या आंबेडकरवाद को समझकर आत्मसात कर लेगा उसी दिन बहुजन समाज सामाजिक और राजनीतिक रूप से एकजुट होकर इन मुट्ठी भर मनुवादियों की सत्ता को उखाड़कर फेंकने में सफल होते देर नहीं लगेगी और तथागत बुद्ध की " बहुजन हिताय,बहुजन सुखाय " की वैचारिकी/संकल्पना साकार होती और फलती फूलती नज़र आने लगेगी।

Tuesday, January 03, 2023

नये साल में फेसबुक कम, बुक ज्यादा-सुरेश सौरभ

हास्य-व्यंग्य
  सुरेश सौरभ
निर्मल नगर लखीमपुर-खीरी
उत्तर प्रदेश पिन-262701
मो-7376236066

   
नए साल पर मैंने प्रण किया है कि मैं फेसबुक कम चलाऊँगा और बुक पर अपनी निगाहें अधिक खर्च करूंगा। फेसबुक कम चलाने की वजह यह है कि फेसबुक चलाते-चलाते मेरी आंखें कमजोर होने लगीं हैं। 
       बरसों से फेसबुक चलाते-चलाते तमाम नाजनीनों के फेस देखते-देखते यह नौबत मेरे सिर पर साया हुई है, जो समय मैं नाजनीनों के नृत्य, गायन, उनकी कमनीय काया को फेसबुक पर देखते-देखते बिताते रहा, अगर वही समय पैसा कमाने में लगाता तो अडानी अंबानी के लेवल का जरूर बन जाता। फिर तमाम-नेता मंत्री मेरी चरण वंदना या गुणगान करते हुए फिरते और दुनिया भर का यश अपने चौखटे पर लटकता फिरता। और अपने चौखटे की वैलू वैश्विक स्तर की होती। 
     फेसबुक की बहन व्हाट्सएप्प, चचेरा भाई ट्वीटर और इन सबकी अम्मा ऐसी-वैसी तमाम वेबसाइडों का मैं इस कदर दीवाना हुआ कि नौबत यहाँ तक आ गई कि हमेशा ऑफिस में लेट हो जाया करता था। बॉस की झाड़ हमेशा मेरे पीछे किसी जिन्द-पिशाच की तरह पड़ी रहती थी। 
      हमेशा मोबाइल, मैं ऐसे अपनी आँखों से चिपकाए रहता था, जैसे कोई बंदरिया अपने नवजात बच्चे को अपने कलेजे से चिपकाये रहती। मेरी इस नजाकत को देख, अक्सर पत्नी कहती-हमेशा मोबाइल में घुसे रहो। ऐसा लगता है यह मोबाइल नहीं समुद्र मंथन से निकला वह अमृत कलश है जिसे हर समय अपने मुँह पर औंधाए रखते हो। पत्नी कभी-कभी इतनी आग-बगूला हो जाती कि हालात और हमारे रिश्ते भारत-पाक जैसे बेहद तनावपूर्ण, नाजुक और संवेनशील हो जाया करते। फिर नौबत भयानक युद्ध जैसी खतरे की बन जाती। मगर मेरी इमोशन गुलाटियों की वजह़ से द्वन्द्व युद्ध होते-होते टल जाता। फिर इसके लिए मैं ढकवा के जिन्द बाबा और ब्रह्म बाबा को प्रसाद चढ़ा आता। पर बकरे की माँ कब तक तक खैर मनायेगी, मेरी आंखें की जलन और सिर की पीड़ा बढ़ती गयी। तमाम अर्थिक और सामाजिक संबंधों का नुकसान होने लगा और तो और पत्नी को कम समय देने के कारण, वह मोबाइल को अपनी सौत और मुझे उसका गुलाम तक बताने लगी है। मित्रों यह दशा फेसबुक पर समय खपाने के कारण हुआ है।
       मेरे जैसे कई सरकारी भले मनुषों को यह फेसबुक अपना शिकार बनाता जा रहा है। थोड़ा काम, फिर फेसबुक, फिर काम फिर फेसबुक, जो समय पब्लिक के काम का होता है, उस समय, कोई नाच में पड़ा है, कोई नंगई के खेलों में पड़ा है, कोई फालतू की टिप्पणियों में पड़ा है, कोई अपने यूट्यूब के पंचर में पड़ा है, कोई अपने लौड़े के टपोरी मर्का डान्स के प्रमोशन में पड़ा है। कोई लंफगई-लुच्चई के वीडियों पब्लिक का काम छोड़ कर ऐसे देख रहा है, जैसे कुछ समय पहले कुछ माननीय विधानसभा में देख रहे थे। मेरी सरकार से गुजारिश है, बढ़ रहे सोशल मीडिया की इस लती महामारी से निपटने के लिए एक राष्ट्रीय कार्यकारिणी बनाए। इसके समूल उन्मूलन के लिए उस कार्यकारिणी का अध्यक्ष अमित मालवीय को बनाए। जिससे तमाम सरकारी काम बाधित न हो, जनता का काम न रूके। विकास पंख लगाकर फर-फर उड़ता रहे। नाले से गैस धड़-धड़ बनती रहे। दरअसल मेरा बेटा, मेरी बेटी  इस्ट्राग्राम के दीवाने होते जा रहे है। यानी दुनिवायी विषैला प्रदूषण मेरे घर में भी सोशल मीडिया के जरिए घुसने लगा है, इसलिए इसका विरोध करना भी मेरी मजबूरी बन गयी है।

मोदी की प्रतिष्ठा पर फिर गुजरातियों की मोहर -अजय बोकिल

अजय बोकिल
 वरिष्ठ संपादक, दैनिक सुबह सवेरे म०प्र०


गुजरात विधानसभा चुनावों में भाजपा की प्रचंड जीत कई मायनो में खास है। एक तो यह जीत प्रतिशत के हिसाब से भाजपा को 2017 में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में मिली जीत से भी बड़ी है। दूसरा, गुजरातियों ने एक बार फिर सिद्ध कर ‍िदया कि रोजमर्रा के मुद्दों से भी ज्यादा अहम उनके लिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की प्रतिष्ठा है, तीसरे कांग्रेस राज्य में जनाधार की दृष्टि से अब तक से सबसे निचले स्तर पर चली गई है और चौथा ये कि महज 10 साल पहले वजूद में आई आम आदमी पार्टी अब राष्ट्रीय स्तर की पार्टी बन गई है। हालांकि भाजपा ने इस चुनाव में एक और राज्य हिमाचल प्रदेश खो दिया है, लेकिन हिमाचल के नतीजे उसी परंपरा की पुष्टि हैं, जिसमें हर पांच साल बाद वहां राज बदल जाता है। भाजपा ने इस ‘रिवाज’ को बदलने की कोशिश की, लेकिन नाकाम रही। दमदार रणनीति के अभाव और पार्टी के बागी उम्मीदवारों ने भाजपा के अरमानो पर पानी फेर दिया। 
लेकिन इन दो राज्यों के विस चुनाव में भी भाजपा और देश के लिए गुजरात विधानसभा चुनाव की बहुत ज्यादा अहमियत थी। इसका पहला कारण तो यह है कि गुजरात लगभग तीन दशकों से भाजपा और आरएसएस के हिंदुत्व की अटल प्रयोगशाला बना हुआ है, जिसे वह विकास के माॅडल के रूप में पेश करते आए हैं। साथ ही वह देश के प्रधानमंत्री और हिंदुत्व के सबसे बड़े चेहरे नरेन्द्र मोदी का गृह राज्य है। इसीलिए गुजरात हारना भाजपा कभी गवारा नहीं कर सकती। लेकिन इस बार जिस तरह वोटरों ने तुलनात्मक रूप से कम वोटिंग के बाद भी भाजपा की झोली भरी है, वह असाधारण और देश की भावी राजनीति की दिशा तय करने वाली है। 
भारतीय जनता पार्टी ने गुजरात में उसकी हालत खराब होने की तमाम खबरों के बावजूद इस चुनाव में न केवल 182 में से 156 सीटें जीतीं बल्कि कुल का 52.51 फीसदी वोट भी हासिल किया। यह पार्टी के उत्तर प्रदेश में 2017 के विस चुनाव में सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन से भी बेहतर है। वहां भाजपा ने कुल 403 विधानसभा सीटों में 312 यानी 78 फीसदी सीटें जीती थीं, जबकि गुजरात में यह प्रतिशत 85 फीसदी होता है। तब यूपी में भाजपा का वोट शेयर ( प्रचंड विजय के बाद भी) 39.67 फीसदी ही था। 
एग्जिट पोल और अन्य स्रोतों से यह संकेत तो मिल रहे थे कि गुजरात में भाजपा सत्ता में लौट रही है। लेकिन तब भी प्रधानमंत्री नरेन्द्र  मोदी द्वारा चुनाव सभाअों में किए गए दावे कि भाजपा इस बार जीत का रिकाॅर्ड बनाएगी, पर कम ही लोगों को भरोसा था। इसलिए भी कि चुनाव पर मोरबी हादसे की छाया थी, विपक्ष बिल्कीस बानो के दुष्कर्मियों को जेल से छोड़ने के फैसले को मुद्दा बना रहा था, महंगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, जातिवाद और किसानों की परेशानी जैसे स्थायी मुद्दे तो थे ही। इससे भी बढ़कर यह माना जा रहा था कि गुजरात की जनता अब सत्ता का सारथी बदलना चाहती है। आखिर अच्छे-बुरे अनुभवों के साथ 27 साल कम नहीं होते। 
लगता है कि गुजरात का मतदाता ‍दुविधा में था। वो ये कि जमीनी मुद्दों या मुश्किलों के मद्देनजर सत्ता परिवर्तन के लिए वोट करे या‍ फिर गुजराती अस्मिता को ध्यान में रखते  हुए भाजपा को फिर से भगवा थमाकर नरेन्द्र मोदी का जलवा कायम रखे। दरसअल मोदी ने हिंदुत्व के साथ-साथ स्वयं को जैसे गुजराती अस्मिता से जोड़ लिया है, वह असाधारण है। वरना पूर्व प्रधानमंत्री मोरारजी भाई भी गुजराती थे और देश के प्रधानमंत्री रहे, लेकिन गुजराती अस्मिता उनके व्यक्तित्व से वैसी चस्पां नहीं हुई, जैसी कि मोदी के साथ है। इसके पहले यह गौरव केवल महात्मा गांधी को मिला है, जो गुजराती, भारतीय और वैश्विक अस्मिता को एक साथ धारण किए हुए थे। यह भी अहम है ‍कि गुजरात में भाजपा के संदर्भ में सीएम चेहरा कोई खास मायने नहीं रखता था। राज्य के मुख्‍यमंत्री भूपेन्द्र भाई पटेल एक गुमनाम सा चेहरा थे। बतौर सीएम भी उन्होंने खुद को बहुत ‘स्मार्ट मुख्यमंत्री’ के रूप में प्रोजेक्ट नहीं किया। वो चुपचाप काम करते रहे। जनता भूपेन्द्र भाई में भी शायद मोदी का चेहरा ही देख रही थी। भाजपा ने पिछले चुनाव में नाराज रहे उन पाटीदार मतदाताअोंको भी अपने खेमे में लाने में पूरी ताकत लगा दी, जो सत्ता का समीकरण बदलने की कूवत रखते हैं। इसका नतीजा सामने है। 
जानी मानी पत्रकार शीला भट्ट ने चुनाव के पहले अपने एक विश्लेषण में इस बात का खुलासा किया था कि तमाम अंतर्विरोधों के बीच एक आम गुजराती गहरे अंतर्द्वंद्व से गुजर रहा है। दूसरे तमाम मुद्दों को देखे या फिर मोदी की प्रतिष्ठा को देखे। चुनाव में भाजपा  को जिस तरह चौतरफा जीत मिली है, उससे जाहिर है कि गुजरातियों ने मोदी को एक स्वर से समर्थन दिया है, उनके हाथ और मजूबत किए हैं। इन नतीजों ने 2024 के लोकसभा चुनावो के परिणामों को अभी से रेखांकित कर दिया है। यानी सीटें भले कुछ कम ज्यादा हों, सत्ता का परचम मोदी के हाथ ही रहने वाला है। मुमकिन है कि इन परिणामों के बाद एनडीए छोड़ कर गए दल वापसी के बारे में सोचें। इसी चुनाव में भाजपा ने समान नागरिक संहिता का मुद्दा उछाल कर उसकी चुनावी टेस्टिंग भी कर ली है। तय मानिए कि अगले लोकसभा चुनावों में यह पार्टी का मुख्‍य एजेंडा होगा। 
यह सवाल भी उठ रहा है कि गुजरात में भाजपा  की इस भारी जीत का पड़ोसी राज्य मप्र में अगले साल होने वाले विधानसभा चुनावों  पर क्या असर होगा? क्या यहां भी मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान और उनकी टीम एंटी इनकम्बेंसी को मात देकर ताज फिर भाजपा को सौंपेगी अथवा नहीं? बेशक मप्र और गुजरात की परिस्थिति में अंतर है। यहां मोदी की व्यक्तिगत प्रतिष्ठा दांव पर नहीं हो सकती, क्योंकि यह उनका गृह राज्य नहीं है। अलबत्ता मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान की हो सकती है, लेकिन वो भी पिछले विस चुनाव में पार्टी  की पराजय का स्वाद चख चुके हैं। ऐसे में मप्र में भाजपा की सत्ता में वापसी की कुशल रणनीति और एकजुटता के साथ चुनाव लड़ने पर निर्भर करती है। गुजरात चुनाव नतीजों का एक अहम मुद्दा भाजपा और संघ द्वारा आदिवासी वोटों को साधने का है। आदिवासी श्रीमती द्रौपदी मुर्मू देश की राष्ट्रपति बनाना एक बड़ा और दूरगामी कदम था। गुजरात विधानसभा में आदिवासियों के लिए 27 सीटें आरक्षित हैं। इनमें से भाजपा ने इस चुनाव में 25 सीटें जीत ली हैं। इस हवा का असर मप्र की आदिवासी सीटों पर भी हो सकता है। मप्र में आदिवासियों के लिए आरक्षित कुल 47 सीटें हैं। इनमें से भी 21 सीटें उस मालवा-निमाड़ क्षेत्र में हैं, जो या तो गुजरात सीमा से या उससे प्रभावित होने वाले इलाकों में हैं। अगर भाजपा इनमें से ज्यादातर सीटें जीत लेती है तो उसे पांचवी बार सत्ता में आने से रोकना मुश्किल होगा। 
उधर दिल्ली एमसीडी में हार के बाद हिमाचल प्रदेश गंवाना भाजपा के लिए झटका है। हिमाचल में कांग्रेस स्पष्ट बहुमत के साथ सत्ता में लौट रही है। लेकिन पार्टी की इस जीत को राहुल गांधी की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ का नतीजा बताकर कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खडगे ने जबरन एक नए विवाद को हवा दे दी है। क्योंकि राहुल गांधी का हिमाचल जाने कोई कार्यक्रम नहीं है। उल्टे गुजरात में भी वो या‍त्रा से छुट्टी लेकर एक दिन चुनाव प्रचार के लिए सूरत गए थे। वहां सूरत सहित जिले की सभी 16 सीटों पर भाजपा जीत गई है। सूरत ग्रामीण की एक सीट पहले उसके पास थी, वह भी कांग्रेस गंवा बैठी है। समझना मुश्किल है कि अगर खुद कांग्रेसी नेता बार-बार यह कह रहे हैं कि चुनावी राजनीति से ‘भारत जोड़ो यात्रा’ का कोई लेना-देना नहीं है तो हिमाचल की जीत का श्रेय राहुल गांधी को देने का क्या मतलब है? अगर श्रेय देना ही है तो हिमाचल की जनता और कांग्रेस के स्थानीय  नेता और कार्यकर्ताअो को देना चाहिए। 
इन बातों का अर्थ यह नहीं कि देश में मुद्दे ही नहीं बचे या फिर चारो तरफ हरा ही हरा है। जनता की समस्याएं तकरीबन जस की तस हैं, लेकिन एक बार फिर चुनाव उन मुद्दों पर सिमट रहे हैं जहां दूसरे जज्बात निर्णायक सिद्ध होते हैं।  गुजरात और दिल्ली में भी कांग्रेस अगर पिटी है तो इसका कारण यह है कि अभी भी पार्टी चुनावों को लेकर बहुत संजीदा नहीं है। पार्टी की अतंर्कलह पर भारत जोड़ो यात्रा भी मरहम नहीं लगा पा रही है। कांग्रेस व दूसरी पार्टियां चुनाव के शुरू में गुजरात में मोदी पर व्यक्तिगत हमले से बच रही थीं, लेकिन प्रचार के आखिरी दौर तक आते-आते वही गलती कर बैठीं, जिससे उन्हें बचना चाहिए था। मोदी की लाख आलोचना की जाए पर इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि मोदी से ज्यादातर हिंदू और खासकर गुजराती अपनी अस्मिता को जोड़कर देखते हैं और यह सिलसिला थमने वाला नहीं है। 

भारत जोड़ो यात्रा: राहुल के इस प्रयास से अब तक क्या हासिल?-अजय बोकिल


अजय बोकिल
 वरिष्ठ संपादक, दैनिक सुबह सवेरे म०प्र०


सार
राहुल की यात्रा अभी भावुकता के दौर में है। असली चुनौतियां तो उसके बाद शुरू होंगी। राहुल ने जिम्मेदारी उठाने की तैयारी दिखाई है, निभाएंगे कैसे, इस सवाल का जवाब तो बाद में मिलेगा।

विस्तार
कांग्रेस के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष और सांसद राहुल गांधी की बहुचर्चित ‘भारत जोड़ो यात्रा’ आधी से ज्यादा पूरी हो चुकी है। राहुल अब मध्यप्रदेश से राजस्थान की सीमा में प्रवेश करने वाले हैं। इस कुल 3 हजार 570 किमी लंबी पैदल यात्रा में से राहुल और उनके सहयात्री 2 हजार किमी से ज्यादा भारत नाप चुके हैं। जिन 13 राज्यों से यह यात्रा गुजर रही है और गुजरेगी, उनमें से 9 राज्य पूरे हो चुके हैं। इस दौरान लोगों ने राहुल की अब तक बना दी गई ‘पप्पू’ छवि से हटकर उनमें एक नए राहुल को देखने और समझने की कोशिश की है।

खुद राहुल ने भी देश के सर्वाधिक प्रभावशाली राजनीतिक परिवार के ‘मनमौजी बेटे’ से हटकर एक अलग राहुल गांधी  के रूप में जनता से संवाद करने की कोशिश की है और इस बात को उनके घोर-विरोधी भी मानने लगे हैं। यही तत्व देश की सत्ता पर काबिज भारतीय जनता पार्टी की चिंता का सबब भी है। 

यहां असल सवाल यह है कि अब तक सुचारू रूप से सम्पन्न इस यात्रा से राहुल गांधी को क्या हासिल हुआ, उन्होंने अपनी स्थापित छवि को बदलने में कितनी कामयाबी पाई और सबसे अहम सवाल कि उनकी पार्टी कांग्रेस के प्रति जनविश्वास किस हद तक लौटा है या लौटेगा? या फिर यह यात्रा भी महज राहुल गांधी की इमेज बिल्डिंग प्रोजेक्ट बनकर रह जाएगी?

बेशक, इन सवालों के जवाब इतनी जल्दी नहीं मिलेंगे, लेकिन कुछ संकेत जरूर मिल रहे हैं, जो एक परिपक्व राजनेता राहुल गांधी को तराशने के लिहाज से अहम हैं। 

पूर्व प्रधानमंत्री स्व. राजीव गांधी के बेटे राहुल गांधी का राजनीति में प्रवेश अपने पिता की तरह अकस्मात नहीं था, लेकिन बतौर सक्रिय राजनीतिज्ञ अपने 18 साल से राजनीतिक कॅरियर में राहुल ज्यादातर समय एक युवा, ईमानदार लेकिन अंगभीर राजनेता के रूप में ही जाने जाते रहे हैं। उनके क्रियाकलापों से यह संदेश बार-बार जा रहा था कि राजनीति तो दूर किसी भी काम के प्रति उनमें कोई संकल्पबद्धता और निरतंरता का अभाव है।

राजनीति ‘स्वांत: सुखाय’ की जपमाला नहीं

राजनीतिक परिवार का वारिस होने के बाद भी वो राजनीति भी मजबूरी या विरासती दबाव के कारण कर रहे हैं। भलामानुस होना निजी तौर पर अच्छी बात है, लेकिन राजनीतिज्ञ बनने के लिए साम, दाम, दंड, भेद की निपुणता भी उतनी ही मायने रखती है। जो यह सब करने का इच्छुक नहीं है, उसे कम से कम सियासत या किसी राजनीतिक तंत्र का नेतृत्व नहीं करना चाहिए, क्योंकि राजनीति केवल ‘स्वांत: सुखाय’ की जपमाला नहीं है। नेता के सुखों, विजन, साहस, निर्णय क्षमता और दूरदृष्टि में करोड़ो लोगों भाग्य भी निहित होता है।

राहुल गांधी अब तक अपेक्षाओं के पहाड़ की तलहटी पर ही टहलते नजर आते थे। जब देश में राजनीतिक घटनाक्रम अपने उरूज पर होता, वो विदेशों में छुट्टियां मनाने चल पड़ते। यूपीए-2 सरकार के समय प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह सरकार द्वारा प्रस्तावित दागी नेताओं और विधायकों को बचाने वाला अध्यादेश सार्वजनिक रूप से फाड़ना राहुल की अगंभीरता की पराकाष्ठा थी।

इस घटनाक्रम से आहत बेचारे तत्कालीन प्रधानमंत्री इस्तीफा देने का साहस भी नहीं जुटा सके थे, जबकि अध्यादेश राहुल गांधी की जानकारी  के बगैर जारी हुआ होगा, इस पर कोई भरोसा नहीं करेगा। राहुल अगर उस अध्यादेश से अहसमत थे तो उसे पहले ही रुकवा सकते थे। लेकिन उन्होंने अपनी ही सरकार को शर्मसार करने का तरीका चुना।

इसके अलावा राहुल की राजनीतिक, सामाजिक और सामान्य ज्ञान की समझ पर भी तंज होते रहे हैं। उनकी भाषण शैली भी ऐसी है कि वो वहां पाॅज देते हैं, जहां उन्हें धारावाहिक बोलना चाहिए। गलत जगह पाॅज से कई बार अर्थ का अनर्थ या बात की गलत व्याख्या होने की पूरी गुंजाइश होती है। भाजपा के प्रचार तंत्र के लिए यह हमेशा दमदार ईंधन ही साबित हुआ है। इन क्रिया कलापों से आम जनता में यही संदेश जाता रहा है कि राहुल नेता बनना ही नहीं चाहते, उन्होंने जबरिया नेता बनाया जा रहा है। इसके पीछे एक मां का पुत्रमोह तो है ही कांग्रेस जैसी सवा सौ साल पुरानी राजनीतिक पार्टी का वैचारिक असमंजस और नेतृत्वविहीनता भी है।   

भारत जोड़ो यात्रा से का प्रभाव

तो फिर राहुल की इस यात्रा का हासिल क्या है? केवल इतनी लंबी पदयात्रा का रिकाॅर्ड बनाना? पहली बार प्रतिष्ठा की ऊंची मीनारों से उतरकर आम भारतीय से रूबरू होना? लोगों के दुख-दर्द में शामिल होने का संदेश देने  की कोशिश करना या फिर नरेन्द्र मोदी जैसे दबंग राजनेता के आभामंडल और राजनीतिक शैली को खुली चुनौती देने का साहस दिखाना?

भावनात्मक मुद्दों से परे जमीनी मुद्दों को चुनाव जिताऊ मुद्दे साबित करने की गंभीर कोशिश करना अथवा ‘नामदार’ से ‘आमदार’ होने का संदेश देना? या फिर यह संदेश देना कि सत्ता की तमाम कोशिशों के बाद भी देश में ‘प्रतिरोध’ के स्वर को दबाना या खारिज करना नामुमकिन है, क्योंकि भारत एक लोकतंत्र है, जो समानता और सौहार्द में विश्वास रखता है। 

यकीनन सवाल बड़े हैं, लेकिन इतना तय है कि इन तीन महीनों में राहुल गांधी ने अपनी स्थापित छवि को काफी हद तक बदलने की कोशिश की है और यह केवल ‘क्लीन शेव्ड राहुल’ से ‘दढि़यल राहुल’ तक सीमित नहीं है। सबसे बड़ी बात यह है कि राहुल ने यात्रा के अपने संकल्प को अब तक पूरी निरतंरता के साथ पूरा किया है।

सावरकर जैसे कतिपय विवादित बयानों को छोड़ दें तो वो बवालों से दूर रहकर समर्पित यात्री की तरह बात कर रहे हैं। गरीबी, बेरोजगारी, सुरक्षा, सर्वसमावेशिता, भय का वातावरण समाप्त करने जैसे मुद्दों को उठा रहे हैं और अपनी ओर से आश्वस्त करने का प्रयास कर रहे हैं कि अगर कांग्रेस लौटी तो देश का माहौल बदलेगा। हालांकि यह कैसे बदलेगा, इसका कोई ठोस रोड मैप उनके पास नहीं है, केवल एक भरोसे की लाठी है। 

राहुल के साथ जुड़े लोग

एक और अहम बात यह है कि राहुल लगातार  पैदल चल रहे हैं। हालांकि अभी भी बहुत से लोगों को भरोसा नहीं हो पा रहा है कि हमेशा ‘जेड’ सिक्योरिटी में घिरा रहने वाला यह शख्स दो हजार किमी का फासला पैदल नाप सकता है? लेकिन यह हो रहा है। इस दौरान वो लोगों के साथ ढोल भी बजा रहे हैं, देव दर्शन के लिए जा रहे हैं, महाकाल को साष्टांग दंडवत कर रहे हैं, लोगों से हाथ मिला रहे हैं, कहीं कहीं सभाओं को सम्बोधित भी कर रहे हैं।

उनकी यात्रा में कई खिलाड़ी (राजनीतिक नहीं), अभिनेता, अमीर-गरीब भी खुद होकर शामिल हो रहे हैं। इससे आम लोगों में एक कौतूहल का माहौल तो यकीनन बना है कि आखिर इस बंदे को यह सब करने की जरूरत क्यों आन पड़ी? 

वैसे भी इस तरह की यात्राएं व्यक्ति की संकल्पनिष्ठा का परिचायक होती हैं। उसे पूरा करने पर एक सकारात्मक संदेश तो जाता ही है। राहुल भी उसके हकदार हैं। हालांकि जिस भारत के टूटने की वो बात कर रहे हैं, उस पर बहस हो सकती है।

बाबा आमटे की भारत जोड़ो यात्रा

ध्यान रहे कि प्रख्यात समाजसेवी बाबा आमटे ने भी 1986 में ‘भारत जोड़ो यात्रा’ निकाली थी। उस वक्त देश की सत्ता कांग्रेस और राजीव गांधी के हाथों में थी। तब पंजाब में खालिस्तानी आतंकवाद सुलग रहा था। हिंदू-सिखों में दरार डालने की पुरजोर कोशिश हो रही थी। उस वक्त बाबा आमटे को लगा था कि देश टूट रहा है, उसे बचाना जरूरी है। सो राष्ट्रीय एकात्मता के नारे के साथ यह यात्रा शुरू हुई थी ( राहुल भी तकरीबन वही बात कर रहे हैं)।

बाबा आमटे की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ राहुल की यात्रा से भी लंबी यानी 5 हजार 42 किमी थी, जो कन्याकुमारी से शुरू होकर कश्मीर तक गई थी। इनमें वृद्ध बाबा आमटे के साथ 116 युवा साथी (जिनमे 16 महिलाएं थीं) भी साइकल  पर चल रहे थे ( राहुल के साथ भी लगभग इतने ही सहयात्री चल रहे हैं)। उस यात्रा को लेकर भी लोगों में कौतूहल था। रास्ते में कई लोग बाबा की यात्रा में अपनी साइकिलें लेकर शामिल होते। 

यात्रा का जगह- जगह स्वागत होता, बाबा के भाषण होते। भारत को जोड़े रखने  की कमसें खाई जातीं। जब तक यात्रा चली, उसकी चर्चा रही। बाद में मुद्दे और राजनीति ही बदल गई। तमिल आंतकवाद ने राजीव गांधी की जान ले ली तो पंजाब में आतंकवाद समाप्त होने में 11 साल लग गए। फिर भी बाबा आमटे की यात्रा को इतना श्रेय जरूर मिला कि उन्होंने टूटे मनों को जोड़ने के लिए एक भागीरथी कोशिश तो की। जबकि बाबा आमटे न तो राजनेता थे और न ही सत्ता पाना उनका उद्देश्य था।

राहुल की महत्वाकांक्षा

राहुल गांधी न तो बाबा आमटे हैं और न ही राजनीतिक फकीर हैं। वो स्वयं जो भी चाहते हों, लेकिन उनकी पार्टी कांग्रेस उनसे बहुत कुछ अपेक्षा रखती है। और किसी भी राजनीतिक दल का अंतिम लक्ष्य सत्ता पाना ही होता है, धूनी रमाना नहीं। क्या राहुल इस अरमान को पूरा कर पाएंगे? क्या वो कांग्रेसनीत यूपीए का वोट बैंक 19.49 प्रतिशत और कांग्रेस की लोकसभा सीटें 52 से आगे बढ़ा पाएंगे या यह आंकड़ा भी बचाना मुश्किल होगा?

बेशक कुटिलता और व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा राजनीति का अनिवार्य तत्व है, लेकिन सियासत अब ज्यादा शातिर और बहुआयामी हो गई है। प्रचार और दुष्प्रचार के साधन अब पहले से ज्यादा और प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं। ऐसे में नेता को स्थापित होने के लिए कई स्तरों पर जूझना होता है, उस पर अपना आधिपत्य सिद्ध करना होता है। उसे समय पर निर्णय लेने होते हैं और उनका औचित्य भी सिद्ध करना होता है।

राहुल की यात्रा अभी भावुकता के दौर में है। असली चुनौतियां तो उसके बाद शुरू होंगी। राहुल ने जिम्मेदारी उठाने की तैयारी दिखाई है, निभाएंगे कैसे, इस सवाल का जवाब तो बाद में मिलेगा।
( अमर उजाला डाॅट काॅम पर दि. 1 ‍िदसंबर 2022 को प्रकाशित)

ईडब्ल्यूएस आरक्षण: सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने खींच दी हैं भविष्य की राजनीतिक रेखाएं-अजय बोकिल

अजय बोकिल
 वरिष्ठ संपादक, दैनिक सुबह सवेरे म०प्र०

सार-
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले ने भविष्य की राजनीतिक रेखाएं भी खींच दी हैं। अनारक्षित वर्ग को आर्थिक आरक्षण की वैधता ने आने वाले समय में एससी, एसटी और ओबीसी वर्ग में भी इसे लागू करने की मांग की नींव रख दी है।

विस्तार-
देश की सर्वोच्च अदालत की पांच सदस्यीय संविधान पीठ द्वारा शैक्षणिक संस्थानों और सरकारी नौकरियों में आर्थिक रूप से कमजोर (ईडब्लूएस) वर्ग को 10 फीसदी आरक्षण देने संबंधी 103वें संविधान संशोधन को बहुमत से सही ठहराए जाने के बाद अनारक्षित वर्ग के गरीबों को आरक्षण का रास्ता साफ हो गया है। अधिकांश राजनीतिक दलों ने इसका स्वागत किया है, लेकिन इस फैसले के साथ कई अहम सवाल भी उठ रहे हैं।

 
पहला तो यह कि क्या आर्थिक आरक्षण देश में समानता के सिद्धांत का विरोधी है, दूसरा, आर्थिक आधार पर आरक्षण अनारक्षित वर्ग को ही क्यों, तीसरे क्या भविष्य में आरक्षण का मुख्य आधार आर्थिक पिछड़ापन ही बनेगा, चौथा क्या इससे सुप्रीम कोर्ट के 1992 के फैसले कि 'देश में आरक्षण 50 फीसदी से अधिक नहीं हो सकता' का यह उल्लंघन है और पांचवा यह कि इस देश में आरक्षण की बैसाखी आखिर कब तक कायम रहेगी?

ये तमाम सवाल संविधान की पीठ में शामिल जजों ने भी उठाए हैं, जिनके उत्तर हमें खोजने होंगे और कल को देश का सामाजिक ताना बाना और राजनीतिक दिशा भी उसी से तय होगी।

इस दूरगामी फैसले में पांचो जजों में एक बात पर सहमति दिखी कि आर्थिक आधार पर आरक्षण संविधान के बुनियादी ढांचे का उल्लंघन नहीं है। पीठ में शामिल जस्टिस दिनेश माहेश्वरी ने अपने निर्णय में कहा-
 
103वें संविधान संशोधन को संविधान के मूल ढांचे को भंग करने वाला नहीं कहा जा सकता। ईडब्ल्यूएस आरक्षण समानता संहिता या संविधान के मूलभूत तत्वों का उल्लंघन नहींऔर 50 प्रतिशत से अधिक आरक्षण सीमा का उल्लंघन बुनियादी ढांचे का उल्लंघन भी नहीं करता है, क्योंकि यहां आरक्षण की उच्चतम सीमा केवल 16 (4) और (5) के लिए है।

जस्टिस बेला एम. त्रिवेदी की राय में 103वें संविधान संशोधन को भेदभाव के आधार पर रद्द नहीं किया जा सकता। ईडब्लूएस कोटे को संसद द्वारा की गई एक सकारात्मक कार्रवाई के रूप में देखा जाना चाहिए। इससे अनुच्छेद 14 या संविधान के मूल ढांचे का कोई उल्लंघन नहीं होता।

ईडब्ल्यूएस कोटा आरक्षित वर्गों को इसके दायरे से बाहर रखकर उनके अधिकारों को प्रभावित नहीं करता है। आरक्षण जाति व्यवस्था द्वारा पैदा की गई असमानताओं को दूर करने के लिए लाया गया था। आजादी के 75 वर्षों के बाद हमें परिवर्तनकारी संवैधानिकता के दर्शन को जीने के लिए नीति पर फिर से विचार करने की जरूरत है।’

जस्टिस जेबी पारदीवाला ने भी अपने फैसले में दोनों के विचारों से सहमति जताई और संशोधन की वैधता को बरकरार रखा। आरक्षण व्यवस्था पर अपनी महत्वपूर्ण टिप्पणी में जस्टिस पारदीवाला ने कहा
आरक्षण अंत नहीं है, बल्कि सामाजिक और आर्थिक न्याय को सुरक्षित करने का साधन है, इसे निहित स्वार्थ नहीं बनने देना चाहिए। आरक्षण अनिश्चित काल तक जारी नहीं रहना चाहिए, जिससे निहित स्वार्थ बन जाए।’

गौरतलब है कि केंद्र की मोदी सरकार ने दोनों सदनो में 103वें संविधान संशोधन विधेयक को मंजूरी दी दी। इसके तहत अनारक्षित वर्ग के लोगों को शैक्षणिक संस्थानों में और सरकारी नौकरियों में 10 फीसदी आरक्षण का प्रावधान किया गया था। 

सर्वोच्च न्यायालय का फैसला महत्वपूर्ण
12 जनवरी 2019 को राष्ट्रपति ने इस कानून को मंजूरी दी, लेकिन इस कानून को सुप्रीम कोर्ट में यह कहकर चुनौती दी गई थी कि इससे संविधान के समानता के अधिकार और पचास प्रतिशत तक आरक्षण की सीमा का उल्लंघन होता है। अत: इस कानून को अवैध माना जाए। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने इस कानून को वैध माना। कानून में सालाना 8 लाख से कम आय वाले परिवारों को इकोनॉमिकली वीकर सेक्शन्स (ईडब्लूएस) मानते हुए सरकारी और निजी शैक्षिक तथा सरकारी नौकरी में भी 10 प्रतिशत आरक्षण दिया जा रहा है।

लेकिन संविधान पीठ के ही जस्टिस एस. रवींद्र भट ने अपने निर्णय में ईडब्ल्यूएस आरक्षण संबंधी संविधान संशोधन पर असहमति जताते हुए उस रद्द कर दिया। जस्टिस भट ने अन्य तीन न्यायाधीशों के फैसले पर असहमति जताते हुए कहा 103 वां संशोधन संवैधानिक रूप से प्रतिबंधित भेदभाव की वकालत करता है। आरक्षण पर निर्धारित 50 प्रतिशत की सीमा के उल्लंघन की अनुमति देने से और अधिक उल्लंघन हो सकते हैं जिसके परिणामस्वरूप विभाजन हो सकता है।

जस्टिस रवींद्र भट ने अपने फैसले में आर्थिक आधार पर आरक्षण को खारिज करते हुए कई सवाल उठाए। उन्होंने कहा कि जिस तरह एससी, एसटी और ओबीसी को इस आरक्षण से बाहर किया गया है, उससे भ्रम होता है कि समाज में उनकी स्थिति काफी बेहतर है, जबकि सबसे ज्यादा गरीब इसी वर्गों में हैं। यह संविधान के मूल ढांचे के खिलाफ है।

हालांकि उन्होंने यह भी कहा कि अकेले आर्थिक आधार पर किया गया आरक्षण वैध है। कुल मिलाकर इसका अर्थ यही है कि जस्टिस भट और जस्टिस यू.यू. ललित ने  आर्थिक आधार पर आरक्षण को तो सही माना, लेकिन उसके तरीके पर असहमति जताई। 

इस बारे में सरकारी पक्ष का कहना है कि नए प्रावधान से सुप्रीम कोर्ट द्वारा लागू आरक्षण की पचास फीसदी की सीमा का कहीं से उल्लंघन नहीं हुआ है, क्योंकि यह वास्तव में कोटे के भीतर कोटा ही है। यह दस प्रतिशत आरक्षण अनारक्षित वर्ग (जिसमें हिंदुओं की अगड़ी जातियां व गैर हिंदू धर्मावलंबी शामिल हैं) के बाकी पचास फीसदी कोटे में से ही दिया गया है। 

राजनीतिक दलों की प्रतिक्रिया
बेशक, इससे समाज के सामान्य वर्ग के उस गरीब तबके को राहत मिली है, जो केवल गरीब होने के कारण अपने ही वर्ग के सम्पन्न तबके से प्रतिस्पर्द्धा में पिछड़ रहा था। भाजपा और एनडीए में शामिल दलों ने इसे अपनी जीत बताया है। भाजपा को इसका कुछ लाभ आगामी चुनावों में हो सकता है, हालांकि ज्यादातर राज्यों में अगड़ी जातियां भाजपा समर्थक ही हैं।

इस मामले में कांग्रेस का रवैया थोड़ा ढुलमुल दिखा। उसने एक तरफ अगड़ों को आर्थिक आरक्षण का समर्थन यह कहकर किया कि संसद में उनकी पार्टी ने संविधान संशोधन के पक्ष में वोट दिया था तो दूसरी तरफ अपने ही एक दलित नेता उदित राज से इसका यह कहकर विरोध करा दिया कि यह संशोधन आरक्षण की सीमा लांघता है और यह भी कि न्यायपालिका की मानसिकता ही मनुवादी है। हालांकि कांग्रेस महासचिव जयराम रमेश ने स्पष्ट कहा कि उनकी पार्टी शीर्ष अदालत के फैसले का स्वागत करती है।

उन्होंने कहा कि यह संविधान संशोधन 2005-06 में डाॅ. मनमोहन सिंह की सरकार द्वारा सिन्हा आयोग के गठन से शुरू की गई प्रक्रिया का ही नतीजा है। सिन्हा आयोग ने जुलाई 2010 में अपनी रिपोर्ट दी थी। केवल तमिलनाडु की सत्तारूढ़ डीएमके के मुख्यमंत्री एम.के.स्टालिन ने फैसले का यहकर विरोध किया कि इससे लंबे समय से जारी ‘सामाजिक न्याय के संघर्ष को झटका’ लगा है।

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने फैसले का स्वागत करते हुए देश में जातीय जनगणना  की मांग दोहराई। जाहिर है कि अधिकांश दल राजनीतिक कारणों से फैसले का खुलकर विरोध नहीं कर रहे हैं, क्योंकि अगड़ों के वोट सभी को चाहिए। 

खिंच गई हैं भविष्य की राजनीतिक रेखाएं
बहरहाल सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले ने भविष्य की राजनीतिक रेखाएं भी खींच दी हैं। अनारक्षित वर्ग को आर्थिक आरक्षण की वैधता ने आने वाले समय में एससी, एसटी और ओबीसी वर्ग में भी इसे लागू करने की मांग की नींव रख दी है ( ओबीसी वर्ग में तो वैसे भी क्रीमी लेयर का नियम लागू है) क्योंकि आरक्षित वर्गों में भी विभिन्न जातियों के बीच आरक्षण का लाभ उठाने को लेकर प्रतिस्पर्द्धा तेज हो गई है। (भारत में करीब 3 जातियां और 25 हजार उप जातियां हैं)।

यह भी बात जोरों से उठ रही है कि जब एक परिवार का तीन पीढि़यों से आरक्षण का लाभ लेते हुए आर्थिक-सामाजिक उत्थान हो गया फिर उन्हें आरक्षण क्यों मिलते रहना चाहिए तथा देश में सामाजिक और आर्थिक समता का सर्वमान्य पैमाना क्या है, क्या होना चाहिए?

विभिन्न जातियों और समाजों में आरक्षण का लाभ उठाकर पनप और प्रभावी हो रहे नए किस्म के ब्राह्मणवाद को अभी से नियंत्रित करना कितना जरूरी है? और यह कैसे होगा? वोट आधारित राजनीति इसे कितना होने देगी?

जाहिर है कि बदलते सामाजिक समीकरणो के चलते यह मांग आरक्षित वर्गों में से ही उठ सकती है। यानी सामाजिक न्याय का संघर्ष एक नए दौर में प्रवेश कर सकता है। ये बदले सामाजिक समीकरण ही राजनीति की चाल भी बदलेंगे और राजनीति के साथ व्यवस्था भी बदलेगी। क्षीण रूप में इसकी आहट सुनाई भी देने लगी है। 

(अमर उजाला डाॅट काॅम  पर 10 नवंबर 2022 को प्रकाशित )

दर्द का जीवंत दस्तावेज--वर्चुअल रैल-विनोद शर्मा ‘सागर’

पुस्तक समीक्षा

पुस्तक --वर्चुअल रैली( लघुकथा संग्रह)
लेखक-- सुरेश सौरभ
प्रकाशक-इण्डिया नेटबुक्स प्राइवेट लिमिटेड नोएडा - 201301
प्रथम संस्करण-2021 
मूल्य --160रु 


   वर्तमान हिंदी साहित्य में लघुकथा एक चर्चित विधा है। जिसका लेखन व्यापक रूप से हो रहा है। लघुकथा उड़ती हुई तितली के परों के रंगों को देख लेने तथा उन्हें गिन लेने की यह कला जैसा है। साहित्य संवेदना,सान्त्वना,सुझाव शिक्षा एवं संदेश का सागर होता है, जिसमें समाज के एक छोटे से छोटे व्यक्ति से लेकर बड़े से बड़े व्यक्ति तक की व्यथा-कथा समाहित होती है। लघुकथा में बहुत बड़ी बात या संदेश को कम शब्दों में कहने की सामर्थ्य होती है। अत्यंत प्रभावी ढंग से महत्वपूर्ण विषय व संदेश को कह पाने की क्षमता के कारण ही लघुकथा पाठकों में अपनी विशेष पहचान पकड़ व पहुँच बनाने में सफल हुई है और सभी को अत्यंत पसंद है।
     विगत वर्षों कोरोना महामारी के दौरान जहाँ एक तरफ हमें अत्यधिक कष्ट व पीड़ा हुई। जिंदगी में तमाम कठिनाइयों को झेलना पड़ा। आम जिंदगी तहस-नहस हो गई। वहीं दूसरी तरफ साहित्य सृजन,आत्ममंथन तथा आत्म विश्लेषण इत्यादि के लिए पर्याप्त अवसर भी प्राप्त हुए। इस दौरान एक तरफ पर्यावरण प्रदूषण कम हुआ तो दूसरी तरफ साहित्य समृद्ध हुआ।
      चर्चित लघुकथाकार सुरेश सौरभ जी का लघुकथा संग्रह ‘वर्चुअल रैली‘ अपने आप में अप्रतिम है, जिसमें कोरोना महामारी के दौरान हमारे समाज तथा जीवन की दशा के सजीव चित्र संग्रहित हैं। आमजन की पीड़ा व परेशानियों का मार्मिक सजीव चित्रण है। सौरभ जी की लघुकथाएँ जीवन से जुड़ी तमाम विसंगतियों व विषमताओं  की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट करातीं हैं। समाज के सबसे निचले पायदान पर गुजर-बसर करने वाले व्यक्ति चाहे वह अखबार वाला हो, कबाड़ी वाला हो, रिक्शावाला हो या मजदूर हो सबकी पीड़ाओं का खाका खींचती  दिखाई देती हैं।
       ये लघुकथाएँ सदैव यह सिखाती हैं कि मानव धर्म ही सर्वोच्च व शाश्वत है। इनकी लघुकथाओं को पढ़ना जीवन के असली रंगों से परिचित होना एवं पीड़ाओं तथा परेशानियों को करीब से पढ़ने जैसा है। इनकी कथाओं के पात्र एवं विषय हमारे आस-पास के समाज व आमजन की जिंदगी से जुड़े हुए लोग हैं। जिनमें जिंदगी की जद्दोजहद, जख्म और जरूरतें साफ देखे जा सकते हैं।
    104 पृष्ठ के इस लघुकथा संग्रह में कुल 71 लघुकथाओं से गुजरने के दौरान आपको विषम परिस्थितियों में कर्तव्य बोध, साहस व समाज की सत्यता का आभास होगा। ये बेबाक लघुकथाएँ हर स्तर पर हमें प्रखरता के साथ समाज की सच्चाई मानवता की सीख तथा परपीड़ा की पहचान कराती हैं। ये लघुकथाएँ प्रकाशकों के मनमाने रवैये पर भी तीखा प्रहार भी करती हैं। किन्नरों की सामाजिक अवहेलना एवं वेश्यावृत्ति की विवशता को उजागर करती हैं । सुरेश सौरभ की कलम यहीं ही नहीं रुकती है बल्कि समाज में सोशल मीडिया की क्रूरता व निजता के वायरल होने के गंभीर मामले को भी उठाती हैं।अव्यवस्था जनित परेशानियों की प्रतिलिपि और आमजन-मन की पीड़ाओं की प्रतिनिधि हैं। वर्तमान युवा पीढ़ी के चाल-चलन चेहरे का सही रूप भी हमें दिखाती हैं। जीवन में अपनों का साया जब हटता है तो अबोध नौनिहाल पौधों का क्या होता है, इसका सोदाहरण दृश्य देखने को इन कथाओं में मिलता है । आत्मीय संबंध की उलझन की तरंगें कभी-कभी त्वरित तनाव के साथ आए तूफान उसके बाद सुखद सन्नाटें से गुनगुनाती खुशी के दर्शन, मन मोह लेते हैं। रिश्तों में बढ़ती अविश्वासनीयता,पतंगों के माध्यम से धरती पर मानव मन में जाति धर्म की झाड़ियों में फँसी मानवता व गरीबी में विवश स्त्री का दर्द और फर्जी मुठभेड़ की असलियत से रूबरू कराती हैं।
      आधुनिक बेतार जिंदगी में संबंधों के धागों की मजबूती व उनकी महक व महत्व को लघुकथाएँ रेखांकित करती हैं। गरीब बेबस विधवा तक को, जुगाड़ की बैसाखी से पहुँचती सुविधाएँ और नोटबंदी से उपजी दुश्वारियों के दृश्य, तालाबंदी से मासूम हृदय की माँग तथा गरीबों का उपहास करती योजनाओं पर तीखे व्यंग्य को उद्घाटित करती हैं। इस लघुकथा संग्रह में आमजन मन शोषित, पीड़ित वंचित व बेसहारा की पीड़ा को जुबान तो दी ही है साथ ही बेजुबान जानवरों की पीड़ा को भी स्वर प्रदान किया है। दहेज जैसी प्राचीन,अर्वाचीन विकराल कुप्रथा पर भी हृदयस्पर्शी प्रहार किया है। भूख प्यास से टूटी एक बच्ची की आत्मा के शब्द लॉकडाउन में घर से दूर-दराज फँसे परिजनों की घर वापसी की गुहार को भी हमारे दिल तक पहुँचाने का प्रयास किया है जो अव्यवस्था व भेदभाव को कोस रही है। लॉकडाउन में बंद वाहनों के साथ बंद मंदिरों व विद्यालयों से जुड़े हर व्यक्ति का ये लघुकथाएँ अनुवाद करती हैं।
      लेखक ने एक तरफ गरीबी भूख जनित अव्यवस्थाओं  को सामने रखा है तो वहीं दूसरी ओर अमीरों की विकृत मानसिकता व सोच पर भी करारा प्रहार किया है ।महानायक के दर्द के जरिए समाज को यह संदेश प्रेषित किया है कि ईश्वरीय सत्ता के अतिरिक्त कोई सर्व शक्तिमान नहीं है। कोरोना के कारण जेलों की व्यवस्था का असली दृश्य भी प्रस्तुत किया है। महामारी की मार खाए पुलिस, वकील, वेश्या, मजदूर भिखारी के साथ-साथ आम जनमानस की चीख तथा  बेबसी को भी लघुकथाओं ने भाव भरे शब्द दिए हैं। इस संग्रह की अधिकाँश लघुकथाएँ देश के विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकीं हैं। जिनका मूल उद्देश्य एक समतामूलक समाज की स्थापना है, जिनके नायक समाज में सबसे निम्न स्तर का जीवन यापन करने वाले लोग जैसे मजदूर, रिक्शावाला, मोची भिखारी, पेपर वाला इत्यादि हैं।
   यह सत्य है कि अंतिम पंक्ति में खड़ा व्यक्ति जब तक समाज की मुख्यधारा से जुड़ कर प्रगतिशील नहीं बनता तब तक एक उन्नत समाज की कल्पना नहीं की जा सकती। साहित्य का मुख्य मकसद सवाल खड़े करना ही नहीं बल्कि समाधान सुझाना भी होता है। इन सबके साथ समाज में व्याप्त ढोंग, आडंबर, छुआछूत भेदभाव जातिवाद एवं विडंबना पर भी ये लघुकथाएँ निःसंकोच चोट करती हुई प्रतीत होती हैं। इस संग्रह में कोरोना जैसी वैश्विक महामारी में विवश मानवता, सड़कों पर असहाय रेंगते जीवन के दीन-हीन दृश्य,भूख प्यास की पराकाष्ठा आदि का जमीनी चित्रण किया गया है।
     वर्चुअल रैली आमजन मन के दर्द का जीवंत दस्तावेज है। कोरोना काल में यह कर्तव्यबोध रिश्तों की विवशता, दुष्कर्म, दुर्दांतता के दर्दनाक दृश्य, ऑनलाइन शिक्षा की दुश्वारियाँ व दुविधाएँ दिखाता है। आपदा की आँड़ में हो रहे शोषण व अत्याचार व दुबक रही जिन्दगी को समेटती ये कथाएँ प्रभावी ढंग से पाठकों से जुड़ने में समर्थ हैं। तालाबंदी के दौरान भूख से तड़पते गरीबों तथा मजदूरों की पीड़ाओं का मार्मिक कोलाज सौरभ जी लघुकथाएँ प्रस्तुत करतीं हैं। इसके साथ ही परंपराओं के पराधीन धागों में बुने रिश्तों की घुटन व दुष्परिणाम का प्रभावी छायांकन भी करती हैं। एक तरफ जहाँ इस संग्रह में तालाबंदी(लाकडाउन)के दौरान दिहाड़ी मजदूरों पर पुलिस की बर्बरता, आवागमन बंद होने से वाहनों के लिए भटकते लोग और उनके रास्ता नापते पाँवों के छालों की कराह को समेटे हुए, सार्वजनिक स्वर प्रदान कर रही हैं तो दूसरी तरफ एक शहीद की माँ के गर्वित आँसू भी छलकते हैं। महामारी के दौरान मनुष्य का बदला जीवन व दुर्गंध मारती व्यवस्था की पोल खोलती हुई ये कथायें लघुकथा साहित्य में बेजोड़ हैं। इसलिए पाठकों के लिए यह लघुकथा संग्रह अतीत के गवाक्ष की तरह है। अतः इसे सभी को अवश्य पढ़ना चाहिए।

             समीक्षक-विनोद शर्मा ‘‘सागर’‘‘
                     हरगाँव -- सीतापुर 
                     उत्तर प्रदेश 
     सम्पर्क सूत्र-- 9415572588

कंझावला क्रूरता: यह तो समूची इंसानियत की बेशर्म हत्या है-अजय बोकिल

अजय बोकिल
 वरिष्ठ संपादक, दैनिक सुबह सवेरे म०प्र०
देश की राजधानी दिल्ली के बाहरी इलाके में नए साल की रात में स्कूटी पर घर लौटती एक युवती की नशे में चूर युवकों की कार में घसीट कर जिस रोंगटे खड़े कर देने वाले ढंग से मौत का मामला हुआ है, वह दरअसल समूची इंसानियत की ही बेशर्म हत्या है। इस मामले में दिल्ली पुलिस की अब तक की कहानी पर भरोसा करना उतना कठिन है, जितना कि यह मान लेना कि ये दुनिया अपने आप से चल रही है। इस प्रकरण में पूरा घटनाक्रम इस बात को काले अक्षरों में रेखांकित करता है कि क्रूरता, नृशंसता और पैशाचिकता में हम दस साल पहले दिल्ली में हुए निर्भया प्रकरण की तुलना में मीलो आगे बढ़ गए हैं और मनुष्यता के पैमाने पर मीलों नीचे गिर गए हैं। इस बात पर भरोसा कैसे करें कि एक कार में एक युवती मय स्कूटी के फंसी और उस कार में सवार नशे में डूबे पांच उच्छ्रंखल युवा उसकी लाश को 15 किमी तक घसीटते रहें, उस युवती का शरीर तार-तार हो जाए, वो युवती बचाने के लिए ठीक से चीख भी न सके और चीखी भी हो तो दिल्ली में किसी ने वो चीख न सुनी हो, सरे आम सड़क पर घिस-घिस कर उसका निर्वस्त्र जिस्म टुकड़े टुकड़े बिखरता किसी ने न देखा हो, एक-दो संवेदनशील राहगीरों ने इस भयानक ‘मोबाइल मर्डर’ की सूचना पुलिस को दी तो पुलिस ने भी उन नराधमो को पकड़ने में दिलचस्पी नहीं दिखाई। वो तो थर्टी फर्स्ट की रात सेलिब्रेशन में जुटे लोगों की निगरानी में व्यस्त थी।  यानी जो हुआ, वो सोचकर भी रोंगटे खड़े कर देता है। उससे भी ज्यादा क्षुब्ध करने वाली दिल्ली पुलिस की यह थ्योरी कि मामला शराब पीकर गाड़ी चलाने और महज एक हादसे का है। 
 दरअसल नए साल की रात दिल्ली की सड़कों पर जो हुआ, वो उस आफताब द्वारा लिव इन में रहने वाली अपनी प्रेमिका की हत्याकर 35 टुकड़े कर जंगल में सुकून के साथ फेंकने, एक पत्नी द्वारा अपने बेटे के साथ मिलकर पति की हत्याकर टुकड़े फ्रीज में रखने, एक नाबालिग बेटी द्वारा अपने प्रेमी के साथ मिलकर अपनी ही मां की तकिए से मुंह दबाकर हत्या करने तथा इसका कोई अफसोस भी होने, एक उदीयमान युवा अभिनेत्री द्वारा सेट पर ही फांसी लगा लेने या फिर काल्पनिक स्वर्ग में जाने के लिए एक परिवार के एक दर्जन सदस्यों द्वारा शांति के साथ खुदकुशी कर लेने से भी भयानक और समूचे समाज के जमीर को झिंझोड़ने वाला है। क्योंकि कांझीवला मामले में जो हुआ है, उसमें कोई निजी खुन्नस, दुराग्रह, प्रतिशोध या राक्षसी सोच भले न थी लेकिन उससे भी कहीं ज्यादा भयावह और चिंताजनक वो अमानवीयता, बेपरवाही तथा आत्मकेन्द्रिकता थी, जहां मनुष्य सिर्फ और सिर्फ अपने सुख, स्वार्थ और भोग के बारे में सोचता है, उसे सर्वोपरि मानता है। बाकी उसे किसी से कोई मतलब नहीं। इतने खुदगर्ज तो शायद पशु भी नहीं होते। 
राजनीतिक पार्टियां इस वीभत्स हादसे पर भी राजनीति भले कर लें, लेकिन इस सवाल का जवाब तो पूरे समाज को, हमारी संस्कृति को और सभ्यता को देना होगा कि आखिर हम जी किस समय में रहे हैं? तकनीकी तौर पर यह केस संभव है कि सिर्फ हादसे का साबित हो, क्योंकि पीकर शराब चलाते हुए उन्होंने घर लौटती युवती को टक्कर मार दी। टक्कर मारने के बाद दारू के नशे में मदहोश कार में सवार युवाअों ने एक क्षण के लिए भी यह न सोचा कि कम से कम गाड़ी की रफ्तार धीमी कर यह तो देख लें कि गाड़ी किससे और कैसे टकराई है। कई बार एक थप्पड़ भी नशा उतार देता है, यहां तो सीधे-सीधे एक गाड़ी दूसरे को कुचल रही थी। लेकिन उन संवेदनहीन युवाअों ने ऐसा कुछ करना तो दूर नए साल की मदहोशी में कार को घुमाना जारी रखा, मानो कुछ हुअा ही नहीं। इक्का दुक्का राहगीरों ने उन्हें रोकने की कोशिश भी की, लेकिन वो युवा मदमस्त अपने में ही व्यस्त थे। कोई मरे, कोई जीए, इससे उन्हें क्या। जिसने अपनी जान इतने वीभत्स तरीके से गंवाई, उसका दोष केवल इतना था कि वो बीते साल की आखिरी रात में अकेले यह सोच कर लौट रही थी कि आने वाले साल की सुबह उसकी जिंदगी में शायद कोई नया सपना या संदेशा लेकर  आएगी। 
इस मामले में कानूनी तौर पर क्या होगा, कैसे होगा, यह आगे  की बात है। पर इस कांड ने देश तो क्या दुनिया को भी झकझोर दिया है। यह सवाल फिर उछाल दिया है कि एक मनुष्य इतना बेरहम और बेपरवाह कैसे हो सकता है? इस बात की पूरी संभावना है कि नशे में चूर युवकों को युवती की मौत की बात पता चल गई हो तो उन्होंने उसे पूरी तरह मिटाने की सोच ली हो। युवती की जान जाने से ज्यादा उन्हें अपनी जान बचाने की ज्यादा चिंता थी। 
ऐसा नहीं कि क्रूरता की मिसालें पहले नहीं थीं। लेकिन उनके पीछे कभी वैचा‍रिक तो कभी निजी कारणों से प्रतिशोध अथवा अवसाद  का तत्व ज्यादा काम करता रहा है। लेकिन कंझावाला में विशुद्ध निर्ममता और संवेदनहीनता थी। ऐसी संवेदनहीनता जो मानवीयता को ही खारिज करती है। दुर्भाग्य से समूची दुनिया में मनुष्य को जानवर से भी ज्यादा क्रूर प्राणी बनाने में आज इंटरनेट का बड़ा हाथ है। आफताब ने अपनी प्रेमिका के टुकड़े-टुकड़े कर सुकून के साथ जंगल में फेंकने और घर में खून के धब्बे मिटाने  के तरीके गूगल से सीखे थे। आज इंटरनेट पर देखकर उस उम्र के बच्चे भी सफाई से फांसी लगाकर जान गंवा रहे है, जिस उम्र में कभी लोगों को फांसी शब्द का सही सही मतलब भी मालूम नहीं होता था, उसे लगाना तो बहुत दूरी की बात है। थोड़ी भी मनमर्जी के खिलाफ बात होने पर लोग उस तरह खुदकुशी कर रहे हैं, मानो आत्महत्या न हुई, रोजमर्रा की सब्जी काटना हो गया। 
ऐसा लगता है कि इंटरनेट हमारे ज्ञान की सीमाएं उस हद तक बढ़ा रहा है, जहां दरअसल कंटीले तारों की बाड़ होनी चाहिए थी। नेट ने दुनिया को करीब ला‍ दिया है, लेकिन मनुष्यता की मूल तत्व को दफनाने में भी कसर नहीं छोड़ी है। वरना कोई कारण नहीं था कि दिल्ली की सर्द रात में भी एक भी शख्स किसी तरह उस मीलो घिसटती जा रही युवती की देह में प्राण ज्योत बचा पाता।
विडंबना तो यह है ‍िक यह हादसा उस रात घटा, जब दिल्ली तो क्या लगभग पूरे देश की पुलिस अलर्ट पर थी।  कैसे थी, यह इस हादसे ने बेनकाब कर दिया है। पुलिस कह रही है कि जो हुआ, वह सेक्सुअल असाॅल्ट (यौनिक हमला) या सुविचारित मर्डर नहीं है। मान लिया, लेकिन जो हुआ है, वह इन अपराधों से भी ज्यादा भयानक और संवेदनाअों को सुन्न करने वाला है। कहीं ऐसा तो नहीं कि आपराधिक मानसिकता ने अब हत्या का एक बिल्कुल नया तरीका ईजाद किया हो, जिसे अदालत में इरादतन हत्या साबित करना भी मुश्किल हो। आरोपियों के मुता‍िबक कार में तेज संगीत बजाने के कारण वह मृतका की चीख नहीं सुन सके। ऐसा संगीत भी किस काम का ? तो क्या हमारी युवा पीढ़ी के लिए संगीत भी मौत का नया नुस्खा है, जिसकी आड़ में कुछ भी किया सकता है?     
'राइट क्लिक'
वरिष्ठ संपादक
( 'सुबह सवेरे' में दि 3 जनवरी 2023 को प्रकाशित)

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