साहित्य

  • जन की बात न दबेगी, न छिपेगी, अब छपेगी, लोकतंत्र के सच्चे सिपाही बनिए अपने लिए नहीं, अपने आने वाले कल के लिए, आपका अपना भविष्य जहाँ गर्व से कह सके आप थे तो हम हैं।
  • लखीमपुर-खीरी उ०प्र०

Friday, April 14, 2023

बाबा साहब के सपनों का भारत और हम, हमारा उत्तरदायित्व-अखिलेश कुमार ’अरूण’

 

   जयन्ती विशेष   

आज हम बाबा साहब की 132 वीं जयंती मनाने जा रहे हैं। उनकी पहली जयंती और आज की जयंती में काफी अंतर देखने को मिलता है। आज से कुछ वर्ष पहले बाबा साहब की जयंती को मनाने वाला उनका अपना समाज था किन्तु आज सर्वसमाज उनकी जयंती को मनाता है, वर्तमान परिदृश्य में बाबा साहब का राजनीतिक ध्रुवीयकरण कर दिया गया है जो वोट बैंक में तब्दील हो चुके हैं। उनके सिद्धांत, शिक्षा, उपदेश सब राजनीति के आगे धूमिल होते जा रहें हैं। बाबा साहब को एक वर्ग विशेष से सम्बन्धित नहीं किया जाना चाहिए, उनको सभी मानें और मनाऐं क्योंकि उन्होंने भारत जैसे विशाल विभिन्नताओं वाले देश का संविधान लिखने में महती भूमिका निभाई है। इसलिए प्रत्येक भारतवाशी उनका कर्जदार है परन्तु यह कहाँ शोभा देता है कि जयंती बाबा साहब की मनाये और उन्ही के सिध्दान्तों, शिक्षाओं आदि को ताक़ पर रख दिया जाए।

 

बाबा साहब डॉ भीमराव रामजी अम्बेडकर सामाजिक रूप से अत्यन्त निम्न समझे जाने वाले वर्ग में जन्म लेकर भी जो ऊँचाई उन्होने प्राप्त की यह बात हम सबके लिये अत्यन्त प्रेरणादायी है। जो कार्य भगवान बुध्द ने 2500 वर्ष पूर्व शुरू किया था जिसके कर्णधार रहे संत रैदास, कबीर, ज्योतिबा फुले आदि, वही कार्य बड़ी लगन ईमानदारी व कड़ी मेहनत और विरोधियों का सामना करते हुये बाबा साहब दलित-अतिदलित,महिला-पुरूषों के लिये किए हैं। बाबा साहब नया भारत चाहते थे जिसमें स्वतंत्रता समता और बन्धुत्व हो जो हमें संविधान के रूप दिया, वह चाहते थे कि जब एक भारतीय दूसरे भारतीय से मिले तो वे उनको अपने भाई-बहन के समान देखें, एक नागरिक दूसरे के लिये प्रेम और मैत्री महसूस करे लेकिन भारतीय समाज में कुछ हद तक सुधर हुआ है किन्तु जिस भारत और भारतियों की कल्पना की गयी थी उसके विपरीत स्वतंत्रता, समता और बधुंत्व जो संविधान में लिखा है इसे राजनीति के बड़े-बड़े घाघ नेता  आज भी दलित-अतिदलित लोगों तक पहुँचने नहीं देते। जाति विहीन समाज की स्थापना के बिना स्वतंत्रता, समता और बधुंत्व का कोई महत्व नहीं है। बाबा साहब ने कहा था, “निःसंदेह हमारा संविधान कागज पर अश्पृश्यता को समाप्त कर देगा किन्तु यह 100 वर्ष तक भारत में वायरस के रूप में बना रहेगा। और आज हम संविधान लागू किये जाने से लेकर 73 वर्ष के बूढ़े भारत में निवास कर रहे हैं जहाँ हिन्दू-मुस्लिम, उंच-नीच, स्वर्ण-दलित, अतिदलित की राजनीति से ऊपर नहीं उठ सके हैं

 

यदि हिन्दू धर्म अछूतों का धर्म है तो उसको सामाजिक समानता का धर्म बनना होगा चर्तुवर्ण के सिध्दान्तों को समाप्त करना होगा चर्तुवर्ण और जाति भेद दलितों के आत्म सम्मान के विरूध्द हैं। उक्त कथन के साथ बाबा साहब हिन्दू धर्म में बने रहने के लिए जीवन के अंतिम समय तक प्रयासरत रहे किन्तु हिन्दू धर्म के ठेकेदारों ने ऐसा नहीं होने दिया परिणामतः बाबा साहब ने 24 अक्टूबर 1956 को अपने लाखो अनुयायियों की संख्या मे बौद्ध धर्म को अंगीकार कर लिए, अतः आज जिन लोगों कि जन-आन्दोलन में रूचि है उन्हे केवल धार्मिक दृष्टिकोण अपनाना छोड़ देना चाहिये तथा उन्हें सामाजिक और आर्थिक दृष्टिकोण अपनाकर सामाजिक और आर्थिक पुर्ननिमार्ण के लिये अमूल्य परिवर्तन वादी कार्यक्रम पर जोर देना चाहिए बिना इसके दलित-अतिदलित लोगों की दसा में सुधार लाया जाना संभव नहीं है।

 

विश्व के महान विद्वानों की श्रेणी में अग्रणी बाबा साहब अम्बेडकर की यह युक्ति ‘‘सभी समस्याओं से मुक्ति का मार्ग राजनीतिक कुंजी है।’’ यथार्त सत्य है, जिसे प्राप्त करने के लिए पूरे जीवन संघर्षरत रहे। अपने समाज को हक दिलाने के लिए अपने परिवार को काल के मुंह मे ढकेल कर समाज के हक की लड़ाई लड़ते रहे। यह अधिकार, एकमात्र मत का अधिकार न होकर राजनैतिक अधिकार है जिसके बल पर किसी एक परिवार की नहीं बल्कि सम्पूर्ण देश में रह रहे उन सभी व्यक्तियों की अस्मिता का आधार है चाहे वह किसी भी वर्ग, जाति, धर्म को मानने वाला हो। कोई एक देश ही नहीं सम्पूर्ण विश्व के इतिहास को बदलने की ताकत रखता है। 24 जनवरी 1950 को संविधान पर अन्तिम रूप से आत्मार्पित हस्ताक्षर करते हुये बाबा साहब ने कहा था कि मैने आज रानी के पेट का आपरेशन कर दिया आज के बाद कोई राजा पैदा नहीं होगा। परन्तु दुःख इस बात का है कि इक्का-दुक्का को छोड़ दें तो वर्तमान राजनीति परिवारवाद के चलते उसी लीक पर जा चुकी है। जिसकी सम्पूर्ण जिम्मोदारी हम सब की है क्योंकि हम अपने मत के अधिकार का दुर्पयोग करते चले जा रहे हैं और एक के बाद परिवारवाद की राजनीति को बढ़ावा देकर वंशानुगत राजनीति का समर्थन कर रहे हैं । उत्तर प्रदेश के 2022  की राजनीति में परिवारवाद की राजनीति का भी असर रहा है, संसद और विधायक के बेटे-बेटियों को सत्ता सौंपते जा रहे हैं

दलितों-अतिदालितों और पिछड़ों के लिए बाबा साहब अपने शोधपत्रों-पत्रिकाओं, लेखों, सभा-संगोष्ठियों में जहाँ कहीं, जब भी मौका मिलता तब उनकी उक्ति गर्जते सिंह की गर्जना की भाँति गगन में प्रतिध्वनित हो उठती, ‘‘जाओ लिख दो तुम अपनी दीवारों पर कि हम इस देश की शासक जातियाँ हैं, हम उसी कौम के वंशज है जिसके समय में यह देश सोने कि चिड़िया कहलाता था।’’ वे सम्पूर्ण समस्याओं के समाधान की कुंजी पर एकाधिकार प्राप्त करने के लिये शिक्षित बनो, शिक्षित करो और संगठित रहो के नारा पर बल देते हुये कहते हैं कि तुम्हारा और तुम्हारे परिवार का कल्याण इसी में है। अपने आत्म-सम्मान की जिन्दगी को जी सकोगे अन्यथा कि स्थिति में उस चैराहे पर खड़े भीखमंग्गे की तरह पूरे जीवन अपने अधिकारों की भीख मांगते रहोगे। राजनीतिक सत्ता का हस्तान्तरण होता रहेगा, सरकारें आती और जाती रहेंगी। तुम्हारी सुध तो दूर तुम पर कोई थूकेगा नहीं। बहुत नेकदिली किसी सरकार की सत्ता हुई भी तो तरस खाकर एक-आध धेला (आपका हक) फेंक देगा उससे क्या होने वाला  इससे अच्छा तो मौत को गले लगा लो गुलामों की जिन्दगी जिने से बेहतर है मरजाना।

उनका यह क्रान्तिकारी सामाजिक परिवर्तन का आन्दोलन 19वीं सदी के दूसरे दसक के मध्य से 6 वें दसक के मध्य, जीवन के अन्तिम क्षण 06 दिसम्बर 1956 तक चलता रहा फिर शनैः-शनैः खेल शुरू हुआ, लोकतांत्रिक शासन के आने पर राजनैतिक रोटी सेंकने का, पार्टियाँ आती-जाती रहीं। अपने हिसाब से वंचितों का शोषण जारी रहा। वोट का अधिकार मिला किन्तु उसका सही प्रयोग वंचितवर्ग आज तक नहीं कर सका। कभी जाति के नाम पर तो कभी धर्म के नाम पर। अलगाववाद, भ्रष्टाचार, दारू-मुर्गा और सब कुछ फ्री का चाहिए परिश्रम न करना पड़े आदि के नाम पर वोट देते रहे है । और उसी में अपने लोगों का मान-सम्मान खुशी तलाशते रहे और यह आज भी बदस्तूर जारी है। वंचितवर्ग कितना भी पढ़-लिख गया हो किन्तु मानसिक गुलामी और संकीर्णता का शिकार बना हुआ है।

शिक्षित बनों के नाम पर अधकचरे शिक्षा तक सिमित हो रह गए हैं, आज सामान्य परिवार के लोग अपने बच्चों को पढ़ा नहीं पा रहे है क्योंकि शिक्षा का निजीकरण एक बड़ा अभिशाप है जहाँ शिक्षा इतनी महँगी हो गयी है और वहीँ दूसरी तरफ लोग-मंदिर मस्जिद की ओर दौड़ रहे हैं, कापी-किताबों से विमुख होते जा रहे भविष्य में आने वाली यह वर्तमान खेप देखिये क्या गुल खिलाती है, शांत मन से हम चिंतन करें तो पाएंगे कि जाति-धर्म के नाम पर संकुचित मानसिकता के युवा जो धर्म की राजनीति के शिकार हो चुके हैं वह आने वाले भारत के कल (भविष्य) को नफरत के सिवाय और कुछ नहीं दे सकते। वर्तमान भारत देश के लोकतान्त्रिक शक्ति का दुरपयोग देश के सत्ता धारी दल पुरे मनोयोग से कर रहे हैं उनके ऐजेण्डे से देश का विकास और लोगों की समस्या गायब है।

बाबा साहब की जयंती भी आज केवल और केवल वोट की राजनिति बनकर रह गयी है, बाबा साहब के जन्मदिवस पर वास्तव में हम भारतवासी उनके सिधान्तों और शिक्षाओं का सच्चे मन से संकल्प ले लें तो बदलते भारत की तस्वीर विश्व की इकलौती तस्वीर होगी जो हमें एक अलग पहचान दिला सकती है। लेकिन हमारा दुर्भाग्य है कि हम और हमारी राजनीति हिंन्दू-मुस्लिम, असहिष्णुता, दलित कार्ड से ऊपर ही नहीं उठ पा रही है और यह तब-तक चलता रहेगा जब-तक भारत का हर एक नागरिक चाहे वह सवर्ण हो, अवर्ण (शूद्र) हो अपनी समाज और देश के प्रति जिम्मेदारी का अहसास नहीं करते तब तक बाबा साहब के सपनों के भारत का निर्माण असम्भव है, इसलिए हमें आज नहीं तो कल इस बात की प्रतिज्ञा लेनी होगी कि बाबा साहब के सपनों के भारत का निर्माण हमारी प्राथमिकताओं में से एक है और उसके निर्माण का हम आज संकल्प लेते हैं।

-अखिलेश कुमार अरूण
शिक्षा-{एल0एल0बी0, एम00 (राजनीति विज्ञान, प्रा0भा0 इतिहास, इतिहास, शिक्षाशास्त्र, हिंदी), एम0एड0, नेट(शिक्षाशास्त्र, राजनीति विज्ञानं}
मो0नं0-8127698147
ग्राम-हजरतपुर, पोस्ट-मगदापुर,
जिला-लखीमपुर खीरी उ0प्र0 262804
रचनात्मक उपलब्धि-समय-समय पर देश के  प्रतिष्टित विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में गद्य व पद्य रचनाएं प्रकाशित होती रही हैंतथा दो  साझा काव्य (उजास और बाल-किलकारी) और एक लघुकथा संग्रह प्रकाशित हैं।

 

Thursday, April 13, 2023

शोषितों- वंचितों के लिए निर्भीकता की मिसाल-मसाल और विद्यार्थियों के लिए बेमिसाल आदर्श/प्रेरक व्यक्तित्व हैं,डॉ.बी.आर.आंबेडकर-नन्दलाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)

महापुरुषों के आदर्श से साभार
एन०एल० वर्मा (असो.प्रोफ़ेसर) सेवा निवृत
वाणिज्य विभाग
वाईडीपीजी कॉलेज,लखीमपुर खीरी

           डॉ.भीम राव आंबेडकर एक ऐसे प्रेरणास्रोत हैं जो हर निराश,हताश और परेशान व्यक्ति की सामाजिक,धार्मिक,आर्थिक और राजनीतिक मुक्ति का मार्ग तैयार और आजीवन संघर्ष करते हुए दिखाई देते हैं। डॉ.आंबेडकर को यदि 20 वीं सदी का महानतम व्यक्ति की संज्ञा दी जाए तो अतिशयोक्ति नही होगी। जय भीम भी जय हिंद की तरह ही एक ऐसा नारा या उदघोष है जो हर वंचित- शोषित व्यक्ति के अंदर सतत संघर्ष के लिए एक अद्भुत असीम ऊर्जा और शक्ति का संचार करता है। भीषण विषम सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियों और दुश्वारियों से गुजर कर उन्होंने जो मुकाम हासिल किया है,वह दुनिया की इतिहास में एक अमिट छाप है। उनके जीवन संघर्ष की गाथा संजीदगी और ईमानदारी के साथ जो भी पढेगा, उसकी आंखें एक बार भीगती या डबडबाती जरूर नज़र आएंगी।
           हाथ में नीला झंडा लेकर जय भीम बोलने,नीला कपड़ा पहनने या मूंछ ऐंठने से कोई आंबेडकरवादी नही बन जाता है। आंबेडकरवादी बनने की इस मिथ्या परंपरा या पहचान से बाहर निकलकर डॉ.आंबेडकर की तरह अपने को शिक्षा की भट्ठी में तपाना होगा। जय भीम का नारा तभी बुलंद और सार्थक होगा जब बहुजन समाज के लोग आंबेडकर जी की वैचारिकी या दर्शन को व्यावहारिक जीवन में अर्थात आचरण में उतारेंगे। डॉ.भीमराव आंबेडकर की प्रतिमा के सामने दीपक,मोमबत्ती और अगरबत्ती जलाकर केवल उनका उपासक ही नहीं बनना है, बल्कि उनकी विचारधारा का संवाहक भी बनना है अर्थात उनकी वैचारिकी को पूरी शिद्दत से खड़ा करना है। आंबेडकर जी खुद कहा करते थे कि मैं मूर्तियों और प्रतिमाओं में नहीं ,बल्कि क़िताबों में रहता हूँ। इसलिए आंबेडकरवादी बनने के लिए हर इंसान को उनकी वैचारिकी-दर्शन को पढ़कर आत्मसात करना होगा। बहुजनों को डॉ.आंबेडकर जी सवर्णों के सिर पर बैठने का ऐसा अद्भुत सिद्धांत या हथियार (संविधान और सामाजिक न्याय के लिए आरक्षण व्यवस्था) देकर गए हैं जिसकी अकूत ताकत के साथ वह शान से सिर उठाकर चल सकता है। वह कहते थे "शिक्षा शेरनी का वह दूध है जिसे जो पिएगा वह दहाड़ेगा।" दलित समाज आज भी घोड़ी,बारात और चारपाई पर बैठने तक सिमटा और लड़ता हुआ दिखाई देता है। ऐसा वही कहते हैं जो दलित अशिक्षित और अज्ञानी हैं। डॉ आंबेडकर के बताए रास्ते पर चलकर ब्राह्मण जैसा बनने का प्रयास तो कीजिए। फिर देखिए आपको सिर पर बैठाने के लिए लोग लाइन लगाकर दिखेंगे।

            विद्यार्थी जीवन में जिस भीमराव को क्लास के बाहर बैठा दिया जाता था। वह बालक फिर भी किसी भी प्रकार की ग्लानि या अपमान महसूस न करते हुए अपने ज्ञान अर्जन के मार्ग पर पूरी हिम्मत और शिद्दत से चलता चला जाता है। कोलंबिया और लन्दन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स जैसी दुनिया की सबसे प्रतिष्ठित शैक्षणिक संस्थाओं में एक साधारण परिवार का एक असाधारण बालक स्वयं को एक सच्चा विद्यार्थी/शोधार्थी सिद्ध करते हुए अपने लक्ष्य की ओर बढ़ता जाता है। आज उन्हें पूरी दुनिया में ज्ञान के प्रतीक अर्थात सिंबल ऑफ नॉलेज की संज्ञा से नवाज़ा जाता है। डॉ.आंबेडकर की शैक्षणिक ज्ञान की वजह से ही डॉ.आंबेडकर की बहुआयामी वैचारिकी -दर्शन को कोलंबिया विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में शामिल कर वहां के छात्रों को पढ़ाया और उन पर शोध कराया जा रहा है और हमारे देश में डॉ. आंबेडकर का बहुआयामी साहित्य और दर्शन लंबे समय तक आम लोगों के पास पहुंचने तक नही दिया गया। बहुजन समाज से निकले अन्य समाज सुधारकों और विचारकों की तरह डॉ.आंबेडकर को भी इतिहास के पन्नों में जानबूझकर इसलिए दबाए रखा गया जिससे देश का वंचित,शोषित और अशिक्षित एससी-एसटी,ओबीसी और अल्पसंख्यक वर्ग में सामाजिक,राजनीतिक, आर्थिक और धार्मिक चेतना का संचार न हो सके। 
           सामाजिक छुआछूत के कारण डॉ.आंबेडकर को जिस समाज ने क्लास के बाहर बैठने के लिए मजबूर किया, उन्होंने उसी के बीच या उसके सिर पर बैठकर अपने अकूत ज्ञान की बदौलत पूरी निर्भीकता के साथ ऐसा संविधान रच दिया जिसमें कहीं भी किसी भी स्तर पर रंचमात्र भेदभाव,प्रतिक्रिया या बदले की भावना नहीं झलकती है। डॉ आंबेडकर बहुजन समाज को संविधान रूपी ऐसा मजबूत हथियार दे गए हैं जिसके बल पर वह बेधड़क बोल सकता है। वह अपने सामाजिक, राजनीतिक और अन्य हक लेने के साथ उनके लिए कानूनी और लोकतांत्रिक लड़ाई भी लड़ सकता है। डॉ.आंबेडकर की आज की हैसियत का पता इसी बात से लगाया जा सकता है कि देश की विभिन्न पार्टियों के बैनर-पोस्टर-भाषण डॉ.आंबेडकर के नाम और चित्र के बिना अधूरे से लगते हैं। आज के दौर में राजनीतिक सत्ता के क्षितिज या कैनवस पर डॉ.आंबेडकर को इग्नोर करना असंभव सा हो गया है। यथास्थितिवादी सोच की राजनीति करने वाली राजनीतिक पार्टियों के भी राजनीतिक आयोजन आंबेडकर के चित्रों से अछूते नही हैं। वर्तमान दौर की राजनीति में डॉ.आंबेडकर की वैचारिकी या दर्शन एक अपरिहार्य विषय बन चुका है। देश के हर नागरिक को डॉ.की सामाजिक,राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्था के मोटे-मोटे सिद्धांतों को जरूर पढ़ना चाहिए। आज के वैज्ञानिक और आर्थिक युग में यह दुर्भाग्य का विषय है कि समाज मे सोशल साइंस के विषय लेकर अध्ययन और शोध करने  वाले छात्र-छात्राओं का कमतर मूल्यांकन किया जा रहा है। आरक्षण की संवैधानिक व्यवस्था पर समाज का एक ऐसा भी वर्ग है जो यह कहता है कि आंबेडकर ने हमारी जिंदगी बर्बाद कर दी और दूसरा वर्ग गर्व से सीना ऊंचाकर कर जय भीम का उदघोष करते हुए शान से कहता है कि डॉ.आंबेडकर हमारे भगवान हैं, मसीहा हैं और मुक्तिदाता हैं। सामाजिक व्यवस्था के दो छोरों पर बैठे लोगों की इस सोच के भारी अंतर से डॉ.आंबेडकर की सार्थकता और प्रासंगिकता का सहज आभास किया जा सकता है। अंत में, हर परेशान और निराश इंसान के मसीहा डॉ.आंबेडकर की अक्षुण्ण स्मृतियों को सादर नमन!

मिले मुलायम-कांशीराम, हवा में उड़ गए का परिष्कृत रूप मिले मौर्या और अखिलेश,उभर न जाये और क्लेश-नन्दलाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)

  राजनैतिक मुद्दा   

"बीएसपी के लावारिस पड़े 10-12% को अपने पाले में डॉ.आंबेडकर के नाम पर खींच सकती है,उसकी दलील शायद यह दी जा रही है कि अब बसपा सुप्रीमो राजनीतिक रूप से निष्क्रिय होकर नेपथ्य में जा चुकी हैं। मृग तृष्णा की तरह यह उनकी भूल है, क्योंकि राजनीतिक विश्लेषकों और बुद्धजीवियों का मानना है कि बदलते राजनीतिक परिवेश या प्रतिकूल राजनीतिक घटनाक्रम की आशंका वश यह आधार वोट बैंक शांत जरूर दिखता है, लेकिन लावारिस तो कतई नहीं कहा जा सकता है और न ही फ़िलहाल,उभरती वैकल्पिक दलित राजनीति में शिफ्ट होती दिख रही है।"
एन०एल० वर्मा (असो.प्रोफ़ेसर) सेवा निवृत
वाणिज्य विभाग
वाईडीपीजी कॉलेज,लखीमपुर खीरी
         वर्ष 1993 में सपा और बसपा गठबंधन की राजनीति को नई धार देने की नीयत से बसपा ने एक नारे को जन्म दिया था। यह नारा राजनीतिक रूप से इतना सफल रहा था कि गठबंधन सत्ता की कुर्सी तक जा पहुंचा था,किंतु अल्पायु में ही वह बुरी तरह राजनीतिक रूप से तितर बितर हो गया था जिसके परिणामस्वरूप बहुजन समाज दो धड़ों में बंट गया था और तब से यह बँटबारा 2007 तक अनवरत रूप से जारी रहा। एक धड़ा अनुसूचित जाति और अतिपिछड़ी जातियों का बना और दूसरा धड़ा शेष पिछड़ी जातियों और अल्पसंख्यक समुदाय की एकजुटता लेकर उभरा। 2007 में बहुजन समाज पार्टी सामाजिक समीकरण साधकर अकेले बहुमत के बल पर पांच साल तक यूपी सरकार चलाने में सफल रही,लेकिन सामाजिक विसंगतियों के पनपने से 2012 आते आते सामाजिक संगति के चलते सपा सत्तारूढ़ पार्टी पर भारी पड़ गया। भारी पड़ने के बहुत से सामाजिक और राजनीतिक बिंदु हैं। 2017 के चुनाव में राम मंदिर की लहर के चलते सामाजिक न्याय की लड़ाई के नाम पर उभरे दोनों दल सामाजिक-राजनीतिक बिखराव के चलते चुनावी जमीन पर बुरी तरह विफल रहे। 2022 के चुनाव में सपा ने अपनी खोई हुई राजनीतिक ज़मीन की कुछ सीमा तक भरपाई कर ली,लेकिन बसपा लगभग शून्य की अवस्था में चली गयी।

          2024 में लोकसभा चुनाव होना है, इसलिए सभी राजनीतिक दल कई तरह की सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक कसरते करने में कोई कोर कसर नही छोड़ना चाहते हैं, भले ही उनकी किसी एक कसरत से राजनीतिक सेहत पर बुरा असर पड़ जाए, इस ओर उनका ध्यान कतई नहीं है। अयोध्या में बन रहे राम मंदिर का जनवरी2024 यानि लोकसभा चुनाव के सन्निकट उद्घाटन या जनता को समर्पित करने की बीजेपी की चुनावी राजनीति की योजना की बहुत पहले घोषणा हो चुकी है। बीजेपी के लिए राम मंदिर या हिंदुत्व का मुद्दा बेहद मुफ़ीद साबित हुआ है। अर्थात बीजेपी धर्म या हिंदुत्व की पिच पर खेलने और जीतने में अपने को सर्वाधिक सेफ और कम्फर्ट जोन में मानकर चलती हैं, क्योंकि देश का ओबीसी हिंदुत्व या धर्म के नाम पर अपनी असली राजनीतिक पहचान बहुत जल्दी भूल जाता है। ओबीसी हिंदुत्व का सबसे मजबूत और बड़ा संवाहक माना जाता है।

          इधर हाल में, धार्मिक ग्रंथ राम चरित मानस की कुछ सामाजिक रूप से अपमान करती चौपाइयों और प्रसंगों पर बिहार की राजनीतिक धरती से उठी चिनगारी धीरे धीरे युपी की राजनीतिक धरती पर भी उसकी राजनीतिक आग की गर्माहट देखने को मिल रही है। बिहार के एक मंत्री के मुंह से निकली यह चिंगारी सपा के एक नेता के मुंह मे ऐसी घुसी कि उसके निकलने और उसकी लौ का असर थमने का नाम नहीं ले रही है। राजनीतिक फायदे की नीयत से इसी क्रम को आगे बढ़ाते हुए सपा नेता ने अपने कॉलेज में बहुजन समाज पार्टी के संस्थापक कांशीराम की आदमकद की मूर्ति स्थापित कर उसका उद्घाटन और अनावरण सपा अध्यक्ष से कराकर बीएसपी के आधार वोट बैंक में सेंध लगाने का एक अप्रत्याशित राजनीतिक उपक्रम कर डाला जिसमे 1993 में हुए गठबंधन के राजनीतिक नारे का पूरी ऊर्जा के साथ जबरदस्त उदघोष हुआ जिसके राजनीतिक गलियारों में तरह तरह के निहतार्थ निकाले जा रहे हैं। कुछ लोगों का विश्लेषण है कि कभी बसपा में लंबे अरसे तक रहे सपा नेता मान रहे हैं कि बीएसपी के लावारिस पड़े 10-12% को अपने पाले में डॉ.आंबेडकर के नाम पर खींच सकती है,उसकी दलील शायद यह दी जा रही है कि अब बसपा सुप्रीमो राजनीतिक रूप से निष्क्रिय होकर नेपथ्य में जा चुकी हैं। मृग तृष्णा की तरह यह उनकी भूल है, क्योंकि राजनीतिक विश्लेषकों और बुद्धजीवियों का मानना है कि बदलते राजनीतिक परिवेश या प्रतिकूल राजनीतिक घटनाक्रम की आशंका वश यह आधार वोट बैंक शांत जरूर दिखता है, लेकिन लावारिस तो कतई नहीं कहा जा सकता है और न ही फ़िलहाल,उभरती वैकल्पिक दलित राजनीति में शिफ्ट होती दिख रही है। दलित चिंतकों का मानना है कि बीएसपी के शांत पड़े मजबूत वोट बैंक को लावारिस समझना एक बड़ी राजनीतिक नासमझी  सिद्ध हो सकती है। सपा नेता द्वारा लगभग 30 साल पुराना नारा लगाए जाने पर बसपा सुप्रीमो ने ट्विटर के माध्यम से कड़ी आपत्ति जताई  है। उधर बीजेपी और उसके कुछ धार्मिक हिन्दू संगठनों द्वारा सपा नेता पर एफआईआर दर्ज कर क़ानूनी कार्रवाई किये जाने की चर्चा जोरों पर है। नारे पर मचे बवाल पर सपा अध्यक्ष शायद यह समझकर चुप्पी साधे हों कि मौर्य के नारे से जितना दलितों से राजनीतिक लाभ मिल सकता है,वह मिल जाने दिया जाय। सामाजिक न्याय के चिंतकों का यह भी मानना है कि सपा के लिए मौर्या एसेट के बजाय कहीं लाइबिलिटी न बन जाये जिसको चुकाने में सपा को भारी कीमत चुकानी पड़े!

             2024 की राजनीति के दृष्टिगत विपक्षी दलों को धार्मिक ग्रंथों,हिंदुत्व और श्री राम से जुड़े मुद्दों,प्रतीकों और स्थलों पर पूरी तरह चुप्पी साधने का वक्त और समझदारी है,क्योंकि इस तरह के सारे बिंदु बीजेपी के लिए बेहद मुफ़ीद साबित होते देखे गए हैं। सामाजिक न्याय, बेरोजगारी, निजीकरण से सिकुड़ते आरक्षण और उसके फलस्वरूप धीमी/कमजोर होती डॉ.आंबेडकर की सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र की अवधारणा और प्रक्रिया,शिक्षा और चिकित्सा व्यवस्था, किसानों की एमएसपी की गारंटी, भ्रष्टाचार, पीएम के 2014 के चुनाव से पहले और चुनाव के दौरान लगातार कही गई झूठी बातों, आवारा पशुओं से  अनवरत हो रही आम आदमी की  जान-माल की हानि, मीडिया और संवैधानिक संस्थाओं की भूमिका और ईडब्ल्यूएस आरक्षण से उपजे सामाजिक और राजनैतिक सवालों जैसे कालेलकर आयोग और मंडल आयोग की सिफारिश के आधार पर ओबीसी के राजनीतिक आरक्षण और एससी-एसटी के अधूरे राजनीतिक आरक्षण के साथ प्रोमोशन में आरक्षण और ओबीसी की उसकी जनसंख्या के आधार पर आरक्षण सीमा बढ़ाने, 69000 प्राथमिक शिक्षक भर्ती में अथाह आरक्षण घोटाला, पुरानी पेंशन योजना(ओपीएस)की बहाली और जाति आधारित जनगणना के मुद्दों पर सड़क से लेकर सदन तक एकजुट होकर लड़ने की जरूरत है।
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प्रो.नन्द लाल वर्मा........9415461224......लखीमपुर-खीरी।

Tuesday, April 11, 2023

समसामयिक मुद्दों पर रंग बिखेरती सौरभ की "बेरंग"-नृपेन्द्र अभिषेक नृप

 पुस्तक समीक्षा

हिन्दी साहित्य की दुनिया में अपनी पहचान बना चुके बहुमुखी प्रतिभा के धनी लखीमपुर खीरी निवासी, सुरेश सौरभ जी की कलम लघुकथाओं के साथ-साथ कविताओं, कहानियों और व्यंग्य लेखन में भी काफ़ी लोकप्रिय हो रही है। सुरेश जी अक्सर समसामयिक मुद्दों पर लिखते ही रहते हैं और देश के प्रसिद्ध समाचार पत्रों में छपते रहते हैं। उनकी रचनाएं यथार्थ का सच्चा आईना होती हैं, जो समाज के वंचित तबकों के लिए हक और हुकूक की वकालत करतीं रहतीं हैं।
       हाल ही में सुरेश सौरभ का लघुकथा संग्रह "बेरंग" प्रकाशित हो कर चर्चित हो रहा है, जिसमें उन्होंने समसामयिक विसंगतियों और विद्रूपताओं पर लघुकथाओं को संग्रहीत किया है। समाज में निरंतर पनप रही बुराइयों का भी उन्होंने सुंदर शब्दांकन किया है। लेखक ने पुस्तक में सरल एवं ओजस्वी भाषा शैली प्रस्तुत की है। संदेशप्रद लघुकथाओं के‌ इस संग्रह में कुल 78 लघुकथाएं संग्रहीत है।
      पुस्तक का नामकरण संग्रह की लघुकथा 'बेरंग' पर किया गया है, जिसमें लेखक ने हिंदुओं के प्रसिद्ध त्यौहार होली को विषय बनाया है। इस लघुकथा में लेखक ने होली के बहाने, महिलाओं के साथ होने वाले दुर्व्यवहारों को मनौवैज्ञानिक ढंग से दर्शाया है।वे लिखते हैं. 'होली एक समरसता का त्योहार है। प्रेम और धार्मिक सौहार्द को बढ़ाता है।... कुछ आवारा शोहदों ने इसे बिलकुल घिनौना बना दिया है।... ऐसे होली को बेरंग करने वाले कथित लोगों से बचने की वे सीख देते हैं। सजग करते हैं।
    'बौरा' लघुकथा में लेखक ने एक मूक बधिर की प्रेम कथा को लिखा है, जिसमें वह अपनी प्रेमिका से मिलते हुए पकड़ा जाता है। समाज प्रेमिका को निर्दोष मान कर छोड़ देता है लेकिन बौरा जो कि मूक बधिर था, अपनी सफ़ाई में कुछ नहीं बोल सकता था, उसे जेल भेज दिया जाता है। उन्होंने इस लघुकथा में समाज की दोहरी मानसिकता को दिखाया है, जिसमें समाज प्रेम का दुश्मन बन बैठा है और उसकी नजर में प्रेमी युगल में, एक दोषी तो दूसरा निर्दोष दिख जाता हैं।
      एक बेटी को शादी के बाद ससुराल जाना पड़ता है और सारी जिंदगी वहीं रहना पड़ता है, अपने माँ और पिता से बहुत दूर। इस विषय पर सुरेश जी ने ' पीड़ाओं के पक्षी' लघुकथा लिखी है। एक छोटी सी बच्ची को जब पता चलता है कि उसे बड़ी होकर ससुराल जाना पड़ेगा, तो वो रोने लगती है। समाज के बनाये इस रस्म-रीति से वह अंजान है, छोटी बेटी को इसमें कुछ भी, ठीक नहीं लग रहा है क्योंकि जो बेटी अपने माँ-बाप की गोद में खेल कर बड़ी होती है, उसे एक दिन उनसे ही बिछड़ कर जाना पड़ता है। यह कथा मार्मिक है जो बेटी के प्रति मां-बाप के प्रेम और करूणा को दर्शाती है।
      आज का मानव अपने अहम की लड़ाई में एक-दूसरे के देशों पर हमला करने से बाज नहीं आता है। रूस द्वारा यूक्रेन पर हमले को, विषय बना कर लिखी गई लघुकथा 'कुत्ते कीव के' में लेखक ने दो कुत्तों के वार्तालाप के माध्यम से कीव की अव्यवथा को दिखाया है। इसके अलावा लघुकथा 'रूस लौट न सके' में भी एक पक्षी को ले कर यूक्रेन के लोगों के कराहते जीवन को लेखक ने बरीकी से बयां किया है। वे लघुकथा 'युद्ध नहीं बुद्ध' के द्वारा शांति का संदेश देते हैं, तो वहीं लघुकथा 'बारूद की भूख ' में बम के धमाके से चीख़ते मजबूर प्रवासी लोगों के आँसूओं को  दर्शाते हैं। 
       इस पुस्तक में समाज के  सामाजिक, साम्प्रदायिक एवं बाह्य आडम्बरों पर लेखक ने गहरी चोटें कीं है।'कर्मकांड',  तेरा-मेरा मजहब' , 'बेकारी' , 'भरी जेब' , 'अनकहे आँसू' , 'ठेकेदारों का ठिकाना' जैसी लघुकथाओं के माध्यम से सुरेश जी ने समाज की विविधताओं भरे जीवन को  बेहतरीन ढंग  से लिखा है। लघुकथाओं में भाषा शैली और विषय की विविधताओं ने पुस्तक में चार चाँद लगा दिए है, जो कि  पाठकों को पढ़ने के लिए उत्सुक कर रही है। उन्हें लुभा रही है। वास्तव में यह पुस्तक गागर में सागर भर रही है, जिसमें 78 लघुकथाओं ने संग्रह 'बेरंग' में विविध रंग बिखेरें हैं।

समीक्षक : नृपेन्द्र अभिषेक नृप
पुस्तक : बेरंग
लेखक: सुरेश सौरभ
प्रकाशक: श्वेत वर्णा प्रकाशन, नई दिल्ली
मूल्य : 200 रुपये।
मो- 99558 18270

Friday, March 31, 2023

सियासी जंग की शिकार हुई दोस्ती-अखिलेश कुमार अरुण

बचाने वाले से बड़ा न कोय

 

अखिलेश कुमार अरुण
ग्राम हजरतपुर परगना मगदापुर
जिला लखीमपुर खीरी, उत्तर प्रदेश
मोबाइल 8127698147

वह भी क्या समय होता था जब लोग दोस्ती में जान दे देते थे. आज का समय ऐसा हो गया है कि लोगों को आदमी तो आदमी पशु-पक्षी और मानव की दोस्ती भी हजम नहीं हो रही है. भाई मैं न सारस के समर्थन में हूँ और न ही उस युवक आरिफ के समर्थन में क्योंकि दोनों ने गलत किया है. यह हमारे और हमारी सरकार के सिद्धांतों के खिलाफ़ है. न मनुष्य सारस से दोस्ती कर सकता है और न सारस मनुष्य से यहाँ सरासर गलती सारस की नहीं आरिफ की है उसने सारस को क्यों बचाया, सारस को नहीं आरिफ को कैद करना चाहिए था क्योंकि इस प्रकार की घटना को कोई और नवयुवक अंजाम न दे सके, मरते तड़पते पशु-पक्षियों को उनके हाल पर छोड़ देना चाहिए क्योंकि आज के समय में गौतम बुद्ध का हंस, देवदत्त को ही दिया जाना इस बात का प्रमाण है. भले ही इस बात से आप सहमत न हों लेकिन इतना तो जरुर है कि आज भी सरंक्षित वन्यजीवों का शिकार धड़ल्ले से हो रहा है जिसमें कहीं न कहीं देवदत्त इसमें शामिल हैं.

 

गायों के साथ फोटो खिंचाने वाले देखते ही देखते सच्चे गौभक्त बन जाते हैं और जो वास्तव में गायों की सेवा करते हैं उनका कहीं नाम नहीं होता यही हुआ है आरिफ के साथ वन्यजीवों की ब्रांडअम्बेसडर बनी बैठी हैं दिया मिर्जा जिनका जीवों से दूर-दूर का नाता नहीं होगा या एक-दो कुत्ता-बिल्ली पाल रही होंगी और एक से एक अनाम पशु-पक्षी प्रेमी उनके लिए न जाने क्या-क्या करते हैं. आरिफ आज के समय में पशु-पक्षी प्रेमियों के लिए एक उदाहरण बन गया था. उसकी और उसके सारस की दोस्ती उन लोगों के लिए किसी एक ऐसे सन्देश देने से कम नहीं था जो नवयुवकों को पशु-पक्षी काम करता. सारस आरिफ के पास रहता तो कोई गलत नहीं था कहा जाता है कि सारस जिसको चाह जाता है उसके लिए अपना सब कुछ न्योछावर कर देता है यहाँ तक कि अपने प्राण भी तो क्या सारस आरिफ से अलग रहकर जिन्दा रह पायेगा?

 

वन्यजीव सरंक्षण के नाम पर सरकार के बैकडोर से कौन-कौन सा खेला होता है यह किसी को बताने की जरुरत नहीं है.  वन्यजीव सरंक्षण अधिनियम १९७२ के तहत विभिन्न प्रकार के पशु-पक्षी जो विलुप्त होने की कागार पर हैं उनको सरंक्षित किया गया है उसमें से एक साईबेरियन सारस भी शामिल हैइस अधिनियम को तब लाया गया था जब हमारे देश में प्राचीन समय में शौक के लिए और अंग्रेजी हुकूमत में व्यापार के लिए बड़े पैमाने पर पशु-पक्षियों का शिकार किया जाने लगा जो १९ वीं शताब्दी के अंत तक आते-आते कई प्रकार के जीवों के आस्तित्व को समाप्त करने की अंतिम सीमा पर था तब १९७२ में पशु-पक्षियों के शिकार पर प्रतिबन्ध लगाने के लिए इस क़ानून को लाया गया तथा २००३ में इसको विस्तारित करते हुए दंड और सजा की समयावधि को और बढ़ा दिया गया.


वन्यजीव संरक्षण अधिनियम का मुख्य उद्देश्य शिकार पर प्रतिबंध लगाकरउनके आवासों को कानूनी सुरक्षा देकर और अंत में वन्यजीव व्यापार को प्रतिबंधित करके लुप्तप्राय प्रजातियों की शेष आबादी की रक्षा करना है। अधिनियम में अंकित शब्दों के विपरीत आरिफ और सारस की दोस्ती थी क्योंकि आरिफ सारस को घायल अवस्था में पाता है और उसकी सेवा-सुस्रुसा से ठीक होकर सारस आरिफ का कायल हो गया था. सारस के आबादी/आवास में आरिफ का आना-जाना नहीं था और नहीं वह उसका व्यापार कर रहा था और न ही ऐसा कोई काम कर रहा था जिससे सारस को कोई शारीरिक क्षति होने की आशंका थी तो ऐसे में कौन सी विपदा आन पड़ी कि आनन-फानन में वन विभाग की टीम इतनी सक्रियता दिखाते हुए सारस को कैद कर पक्षी और मनुष्य की दोस्ती को तार-तार कर दिया.

 

सारस और आरिफ की दोस्ती में होना तो यह चाहिए था कि आरिफ को पशु-पक्षियों के सरंक्षण की कोई बड़ी जिम्मेदारी देते या ब्रांडअम्बेसडर बना देते क्योंकि जहाँ दिया मिर्जा (अभिनेत्री ) को भारतीय वन्यजीव ट्रस्ट का अम्बेसडर बनाया जा सकता है जिनको जीवों से कुछ नहीं लेना-देना, उत्तर प्रदेश में स्वच्छ भारत मिशन के अम्बेसडर अक्षय कुमार हैं जो विमल पान मसाला का प्रचार-प्रसार करते हैं जिसको खाकर लोग जगह-जगह सरकारी आफिसों की दीवारों को रंग-बिरंगा किये रहते हैं. इन सबसे लाख गुना सही था आरिफ जिसे वन्यजीवों के सरंक्षण के लिए ब्रांड अम्बेसडर बनाकर एक नईं पहल की शुरुआत की जा सकती थी और अधिक से अधिक लोगों को पशु-पक्षियों के प्रति जागरूक किया जा सकता था.

 

लेखक-अखिलेश कुमार अरुण

ग्राम-हजरतपुर, जिला-खीरी

Tuesday, March 21, 2023

दो बड़े राजवंशों के बीच का काल, मौर्योत्तर काल का इतिहास-अखिलेश कुमार अरुण

 समीक्षा 



पुस्तक परिचय
पुस्तक का नाम-मौर्योतर काल में शिल्प, व्यापर और नगर विकास
लेखक- डॉ० आदित्य रंजन
प्रकाशक- स्वेतवर्णा प्रकाशन (नई-दिल्ली)
मूल्य-199.00
प्रकाशन वर्ष- 2022

इतिहास गतिशील विश्व का अध्ययन है जिस पर भविष्य की नींव रखी जाती है, बीते अतीत काल का वह दर्पण है जिसमें वर्तमान पीढ़ी अपनी छवि देखती है और भविष्य को संवारती है। पृथ्वी पर जितने भी प्राणी पाए जाते हैं उन सब में मनुष्य ही एक ऐसा जीव है जो अपने अतीत में घटी घटनाओं को याद रखता है। जिस क्रम में आज जो भी कुछ हम पढ़ने को पाते हैं वह पूर्व घटित घटनाओं का वर्णन होता है। जिसे विभिन्न समयकाल में शोध कर लिखा गया है और इतिहास लेखन में अभी बहुत कुछ लिखा जाना बाकी है। अतः इसी लेखन की अग्रेत्तर पीढ़ी में डॉ० आदित्य रंजन अपनी पुस्तक मौर्योत्तर काल में शिल्प-व्यापार एवं नगर विकास (200 ई०पू० से 300 ई०) लेकर आते हैं जो अपने विषयानुरूप एकदम अछूता विषय है जिस पर कोई सटीक पुस्तक हमें पढ़ने को नहीं मिलती। यह पुस्तक पांच अध्यायों में विभक्त है जिसमें मौर्योत्तर काल में शिल्प, व्यापर, नगर विकास और मुद्रा अर्थ व्यवस्था तथा माप-तौल पर सटीक लेखन किया गया है।

इतिहास के अध्येताओं और विद्यार्थियों के लिए यह पुस्तक बहुत ही उपयोगी साबित होगी और इसे अपने पूर्व पुस्तकों की पूरक कहना न्यायोचित होगा। इस पुस्तक में दो बड़े राजवंशों (मौर्य और गुप्त काल) के बीच में छिटपुट राजवंशों के सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक जानकारी उपलब्ध कराती है तथा सामंतवाद के प्रारम्भिक चरण की शुरुआत में शिल्प-श्रेणियों तथा वर्ण व्यवस्था के समानांतर जाति व्यवस्था के विकास की कहानी को स्पष्ट करती है । 

पुस्तक के प्राक्कथन में लिखा है कि इस काल के ग्रन्थों में शिल्पियों के जितने प्रकार प्राप्त होते हैं वह पूर्व ग्रन्थों में नहीं मिलते...नि:सन्देह इस काल के धन्धों में दस्तकारों की अत्यधिक बढ़त हुई शिल्पी लोग संगठित होते थे जिनको संगठित रूप में श्रेणी कहा जाता था। पुस्तक के सन्दर्भ में यह कथन न्यायोचित है। वह सब कुछ इतिहास के अध्येता को इस पुस्तक में पढ़ने को मिलेगा जिसकी आवश्यकता मौर्योत्तर काल के इतिहास को जानने के लिए आवश्यक बन पड़ता है।

 

इस पुस्तक में मौर्योत्तर कालीन विकसित शिल्प एवं शिल्पियों तथा उनके व्यवसाय सम्बंधित शुद्धता (सोने-चांदी जैसे धातुओं में मिलावट आदि) के अनुपात को भी निश्चित किया गया है निर्धारित अनुपात से अधिक अंश होने पर शिल्पी को दण्ड देने का प्रावधान है। इस पुस्तक में कहा गया है कि कौटिल्य सोना (स्वर्ण) पर राज्य का एकाधिकार स्थापित करता है। यहां तक कि धोबी (रजक) को वस्त्र धोने के लिए चिकने पत्थर और काष्ट पट्टिका का वर्णन भी मिलता है और यह भी निर्धारित है कि धोबी को जो कपड़े धुलने के लिए मिलते थे उसको किसी को किराए पर देता है अथवा फाड़ देता है तो उसे 12 पड़ का दण्ड देना होता था। मौर्योत्तर काल में पोत निर्माण का भी कार्य किया जाता था जिसका वर्णन इस पुस्तक में किया गया है सामान्यतः इन सब बातों का वर्णन इतिहास की पूर्ववर्ती पुस्तकों में पढ़ने को नहीं मिलता है इस लिहाज से यह पुस्तक अत्यन्त महत्वपूर्ण और उपयोगी सिद्ध होती है।

मौर्यकालीन राज्य और व्यापार से संबंधित राजाज्ञा और वस्तुओं के क्रय विक्रय से सम्बंधित अनुज्ञप्ति-पत्र, थोक भाव पर बेचे जानी वाली वस्तुओं का मूल्य निर्धारण वाणिज्य अधीक्षक के द्वारा किया जाना तथा मिलावट तथा घटतौली आदि के सन्दर्भ में कठोर से कठोर दण्ड का विधान आदि सामान्यतः बाजार नियंत्रण अलाउद्दीन खिलजी के शासन काल की महान उपलब्धि है किन्तु इस में वर्णित बाजार व्यवस्था को पढ़कर ऐसा प्रतीत होता है कि खिलजी का बाजार नियंत्रण मौर्य और मौर्योत्तर कालीन व्यवस्था का विकसित स्वरूप है।

पुस्तक के अंतिम अध्याय में मुद्रा अर्थव्यवस्था तथा माप-तौल पर मौर्योतर कालीन सिक्के और माप के परिणाम को विस्तृत रूप से वर्णित किया गया है। सिक्कों के वर्णित प्रकारों में अग्र, अर्जुनायन, अश्वक, औदुम्बर, क्षुद्रक, कुतूल, कुनिंद, मालव, शिबि, औधेय (काल विभाजन के आधार पर १. नंदी तथा हाथी प्रकार के सिक्के, 2.कार्तिकेय ब्रहामंड देव लेख युक्त सिक्के, ३. द्रम लेखयुक्त सिक्के, ४. कुषाण सिक्कों की अनुकृति वाले सिक्के तथा माप-तौल के लिए निर्धारित माप के परिमाणों यथा-रक्तिका, माशा, कर्ष, पल, यव, अंगुल, वितास्ति, हस्त, धनु, कोस, निमेष, काष्ठ आदि का उल्लेख पुस्तक उपयोगिता को सिद्ध करते हैं।

अखिलेश कुमार अरुण
ग्राम-हजरतपुर, पोस्ट-मगदापुर
जिला-लखीमपुर (खीरी) उ०प्र०

 

Monday, March 20, 2023

झोला उठाकर जाने की जिद-सुरेश सौरभ


हास्य-व्यंग्य
  सुरेश सौरभ
निर्मल नगर लखीमपुर-खीरी
उत्तर प्रदेश पिन-262701
मो-7376236066

अक्सर जब मैं अपनी कोई बात, अपनी पत्नी से मनवाना चाहता हूं, तो गुस्से में आकर कह देता हूं, मेरी बात मानना हो तो मानो वर्ना मैं अपना झोला उठाकर अभी चल दूंगा। पत्नी डर जाती है, फौरन मेरी बात किसी आज्ञाकारी भक्त की तरह मान लेती है। यानी मैं अपनी पूरी स्वातंत्रता में जीते हुए, पत्नी को हर बार इमोशनल ब्लैकमेल करके मौज से, अपने दिन काटता जा रहा हूं। अब मेरे बड़े सुकून से अच्छे दिन चल रहे थे, पर उस दिन जब मैंने यह बात दोहराई, तब वे पलट कर बोलीं-तू जो हरजाई है, तो कोई और सही और नहीं तो कोई और सही।’  
मैंने मुंह बना कर कहा-लग रहा आजकल टीवी सीरियल कुछ ज्यादा ही देखने लगी हो। वो नजाकत से जुल्फें लहरा कर बोली-हां आजकल देख रहीं हूं ‘भाभी जी घर पर हैं, भैया जी छत पर हैं।’ 
मैंने तैश में कहा-इसी लिए आजकल तुम कुछ ज्यादा ही चपड़-चपड़ करने लगी हो। तुम नहीं जानती हो, मैं जो कहता हूं, वो कर के भी दिखा सकता हूं। मुझे कोई लंबी-लंबी फेंकने वाला जोकर न समझना।’ 
वह भी नाक-भौं सिकोड़ कर गुस्से से बोली-हुंह! तुम भी नहीं जानते मैं, जो कह सकती हूं, वह कर भी सकती हूं, जब स्त्रियां सरकारें चला सकती हैं। गिरा सकती हैं, तो उन्हें सरकारें बदलने में ज्यादा टाइम नहीं लगता।’ 
मेरी सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई। अपना गियर बदल कर मरियल आवाज में मैं बोला-झोला खूंटी पर टंगा है, अब वह वहीं टंगा रहेगा। मेरी इस अधेड़ अवस्था में सरकार न बदलना। मेरा साथ न छोड़ना, वरना मैं कहीं मुंह दिखाने के लायक न रहूंगा। मेरी खटिया खड़ी बिस्तरा गोल हो जायेगा। खट-पट किसके घर में नहीं होती भाग्यवान! मुझ पर तरस खाओ! तुम मेरी जिंदगी हो! तुम मेरी बंदगी हो! मेरी सब कुछ हो!
तब वे मुस्कुराकर बोलीं-बस.. बस ज्यादा ताड़ के झाड़ पर न चढ़ो! ठीक है.. ठीक है, चाय बनाकर लाइए शर्मा जी। आप की बात पर विचार किया जायेगा। मेरा निर्णय अभी विचाराधीन है।
चाय बनाने के लिए रसोई की ओर मैं चल पड़ा। सामने टंगा झोला मुझे मुंह चिढ़ा रहा है। 
बेटी बचाओ अभियान में अब तन-मन से जुट पड़ा हूं। झोला उठाकर जाने वाली मेरी अकड़ जा रही है। भले ही अब हमें कोई पत्नी भक्त कहें, पर कोई गम नहीं, लेकिन पत्नी के वियोग में एक पल रहना मुझे गंवारा नहीं साथ ही पत्नी के छोड़कर जाने पर जगहंसाई झेल पाना भी मेरे बस की बात नहीं।


Sunday, March 19, 2023

बोलना होगा-अखिलेश कुमार अरुण

अखिलेश कुमार अरुण
ग्राम हजरतपुर परगना मगदापुर
जिला लखीमपुर खीरी, उत्तर प्रदेश
मोबाइल 8127698147

कविता

आज भी हमें, बराबरी करने देते नहीं हो और सोचते हो कि हम कुछ न बोलें।

संविधान एक सहारा था उस पर भी हाबी हो और सोचते हो कि हम कुछ न बोलें।।


बोल ही तो नहीं रहे थे-

आदि-अनादि काल के हम शासक न जाने कब हम गुलाम बन गए,

तूती बोलती थी कभी हमारी और  न जाने हम कब नाकाम हो गए

राज-पाट सब सौंप दिए या हड़प लिया गया हो और सोचते हो कि हम कुछ न बोलें।


बोल ही तो नहीं रहे थे-

शिक्षा के द्वार बंद कर दिए, किये हमें हमारे अधिकार से वंचित,

हम कामगार लोग जीने को मजबूर थे, हो समाज में कलंकित।

गुणहीन न थे हम, हमको अज्ञानी बना दिए और सोचते हो कि हम कुछ न बोलें।


बोल ही तो नहीं रहे थे-

जब तुमने हम पर अत्याचार किया, जातीय प्रताड़ना किये,

गले में मटकी कमर में झाड़ू और पानी को मोहताज किये,

छूने पर घड़ा आज भी जहाँ मार देते हो और सोचते हो कि हम कुछ न बोलें।


बोल ही तो नहीं रहे थे-

अपनी बहन-बेटी की आबरू को तुम्हारी विलासिता के लिए,

है, नांगोली का स्तन काटना आज भी इस बात का प्रमाण लिए,

हाथरस की उस लड़की का कुनबा तबाह किए और सोचते हो कि हम कुछ न बोलें।


बोल ही तो नहीं रहे थे-

अमनिवियता को समर्पित भरे-पड़े तुम्हारे साहित्य पर,

जहाँ लिखते हो पुजिये गुणहीन, मूर्ख सम विप्र चरण,

जहाँ, मानवीयता को सोचना ही पाप लिए हो और सोचते हो कि हम कुछ न बोलें।


बोल ही तो नहीं रहे थे-

तुमने पशु को माता कहा और एक वर्ण विशेष को अछूत,

गोबर को गणेश कहा और तर्क करने को कहा बेतूक,

हम बने रहे मूर्ख, बेतुकी बातों को मानते गए और सोचते हो कि हम कुछ न बोलें।


बोल ही तो नहीं रहे थे-

मंदिर कौन जाता है किन्तु हमारे राष्ट्रपति को जाने नहीं दिए,

सत्ता क्या गयी, बाद एक मुख्यमंत्री के जो कुर्सी धुलवा दिए,

बाद हमारे विधानसभा को शुद्ध  करवाते हो और सोचते हो कि हम कुछ न बोलें ।।


बोल ही तो नहीं रहे थे- 

लेकिन अब बोलेंगे तुम्हारे गलत को ग़लत और सही को सच्च से,

मिडिया तुम्हारी है फिर डरते हो तुम हमारी अनकही एक सच्च से

क्योंकि तुम्हारे लाखों झूठ पर हमारा एक सच्च काफी है,

हम, इस रोलेक्टसाही में लोकतंत्र के मुखर आवाज हैं और सोचते हो कि हम कुछ न बोलें।


 


Friday, March 17, 2023

69000 शिक्षक भर्ती प्रक्रिया में आरक्षण घोटाले की खुलती परत दर परत-नन्दलाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)

मुद्दा 69000 शिक्षक भारती 

हाई कोर्ट के फैसले के बाद यदि सरकार की ईमानदारी से ओबीसी और एससी-एसटी वर्ग के पीड़ितों के साथ आरक्षण पर न्याय करने की मंशा है तो संशोधित चयन सूची तैयार करने वाली कमेटी में ओबीसी और एससी-एसटी वर्ग का समुचित प्रतिनिधित्व होना बहुत जरूरी है। पीड़ित अभ्यर्थियों और विपक्ष को एकजुट होकर इस दिशा में जोरदार तरीके से सड़क से लेकर सदन तक अड़े रहना चाहिए।
एन०एल० वर्मा (असो.प्रोफ़ेसर) सेवा निवृत
वाणिज्य विभाग
वाईडीपीजी कॉलेज,लखीमपुर खीरी

         आरक्षित वर्ग के अभ्यर्थियों को संवैधानिक आरक्षण के लाभ से वंचित होने पर उन्होंने सरकार के खिलाफ शांतिपूर्ण लोकतांत्रिक आंदोलन और धरना-प्रदर्शन कर सरकार का कई बार ध्यानाकर्षण करने के विफल प्रयासों के बाद वे प्रकरण को राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग तक ले जाने के लिए विवश हुए। राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग द्वारा आरक्षण विसंगतियों को स्वीकार करने और उनके सुधारने की सिफारिश के बावजूद राज्य सरकार की ओर से जानबूझकर आरक्षण की विसंगतियों को दूर करने का कोई प्रयास नही किया गया। इससे क्षुब्ध,निराश, हताश और पीड़ित अभ्यर्थियों को न्यायालय की शरण लेनी पड़ी जिसमें समय और धन की बर्बादी हुई और असहनीय शारीरिक-मानसिक पीड़ा और दुश्वारियों के कठिन दौर से सपरिवार गुजरना पड़ा। इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच ने सोमवार को अपने एक आदेश में 69000 की मौजूदा चयन लिस्ट को याचिकाकर्ताओं द्वारा पेश किए गए साक्ष्यों और दस्तावेजों के आधार पर गलत माना है और कहा है कि सरकार लिस्ट में अभ्यर्थियों के गुणांक,कैटेगरी (सामान्य/अनारक्षित,ओबीसी और एससी-एसटी) और उनकी सब कैटेगरी सहित ओबीसी का 27% और एससी-एसटी का 23% आरक्षण पूरा करते हुए संशोधित सूची तैयार करे। आरक्षण घोटाले से चयन से बाहर हुए आरक्षित वर्ग के अभ्यर्थी सरकार पर लगातार आरोप लगाकर अपने हक के लिए तीन साल से विभिन्न संस्थाओं और जिम्मेदारों के खिलाफ धरना- प्रदर्शन कर रहे थे। बाद में इस शिक्षक भर्ती में अनुमानित 19 हजार से अधिक आरक्षण घोटाले के मुकाबले सरकार ने  5 जनवरी 2022 को घोटाला स्वीकार करते हुए 6800 सीटों पर अतिरिक्त आरक्षण दिया था,उसे भी हाई कोर्ट ने पूरी तरह खारिज़ कर दिया है। याचिकाकर्ताओं का कहना है कि इस भर्ती प्रक्रिया में अनुमानित 19000 आरक्षित पदों पर घोटाला कर उनके स्थान पर अनारक्षित वर्ग के अभ्यर्थियों की भर्ती कर एक बड़ा घोटाला हुआ है। हाई कोर्ट ने सरकार को 69000 शिक्षकों की नए सिरे से चयन सूची को तीन महीने में श्रेणीवार (अनारक्षित, ओबीसी और एससी - एसटी) तैयार करने के लिए निर्देश दिए हैं और यह भी कहा है कि तब तक सभी चयनित कार्यरत शिक्षक अपने पदों पर कार्य करते रहेंगे। उल्लेखनीय है कि आरक्षण से वंचित हुए अभ्यर्थियों की दलीलों को न्यायालय ने सही मानते हुए 8 दिसंबर 2022 को आरक्षण घोटाले पर आर्डर रिजर्व किया था। असली घोटाला तो संशोधित सूची बनने के बाद ही सामने आ पाएगा।
           कोर्ट का यह निर्णय यूपी सरकार के लिए बड़ा झटका माना जा रहा है। बड़ी बात यह है कि जीरो भ्रष्टाचार की दुहाई देने वाली यूपी सरकार के सुशासनकाल में राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग और हाई कोर्ट ने पहले ही मान लिया था कि भर्ती प्रक्रिया के आरक्षण में कई तरह की विसंगतियां हुई हैं। जो विसंगतियां सुनी जा रही हैं उनमें प्रमुख रूप से एक यह है कि आरक्षित वर्ग की उच्च मेरिट को दरकिनार करते हुए उनको अनारक्षित वर्ग में चयनित नहीं किया गया है,अर्थात उनको उनके आरक्षण प्रतिशत की सीमा तक समेट दिया गया है। दूसरा जो महत्वपूर्ण हुई अनियमितता बताई जा रही है कि बहुत से सामान्य/सवर्ण वर्ग के अभ्यर्थियों ने आरक्षित वर्ग (ओबीसी/एससी) का जाति प्रमाणपत्र बनवाकर आरक्षित श्रेणी में चयन पाने में सफल हो गए है। इसी तरह ओबीसी के अभ्यर्थियों द्वारा एससी-एसटी का जाति प्रमाणपत्र बनवाकर एससी-एसटी का आरक्षण डकारने की बात भी सुनी जा रही है।
           कोर्ट के निर्णय के कुछेक बिन्दुओं पर मीडिया के माध्यम से आ रही खबरों से भ्रम या अस्पष्टता की स्थिति नज़र आ रही है। बताया जा रहा है कि कोर्ट ने अपने आदेश में कहा है कि आरक्षण 50% से ज्यादा नहीं होना चाहिए। जब आरक्षण की 50% की सीमा सुप्रीम कोर्ट पहले ही तय कर चुकी है तो फिर फैसले में इसे उल्लिखित करने का कोई औचित्य प्रतीत नहीं होता है? यदि यह बात सही है तो इसके लागू करने में कहीं कोई बड़ा झोल तो नहीं है? कुछ लोग इस बात को इस तरह परिभाषित-व्याख्यायित कर आशंका व्यक्त कर रहे हैं कि ओबीसी और एससी-एसटी अभ्यर्थियों को उनके निर्धारित आरक्षण प्रतिशत की संख्या तक ही चायनित किये जाने का संकेत तो नहीं है अर्थात उच्च मेरिट और सामान्य वर्ग के बराबर या उनसे अधिक मेरिट अंक होने के बावजूद उन्हें अनारक्षित वर्ग में चयनित नही किये जाने की आशंका व्यक्त की जा रही है। जबकि ऐसा नियम नही है। हां, यह नियम तो है कि यदि कोई अभ्यर्थी आरक्षण की छूटों की वजह से ही आवेदन करने के लिए पात्र बनता है तो उसे अंतिम सूची में आरक्षित वर्ग में ही चयन पाने का अधिकार होगा फिर भले ही उसकी मेरिट अनारक्षित वर्ग की कट ऑफ मेरिट से अधिक क्यों न हो। नियमानुसार 50% अनारक्षित वर्ग की सूची में आरक्षित और अनारक्षित श्रेणी में भेद न करते हुए विशुद्ध रूप से मेरिट के आधार पर सामान्य/अनारक्षित वर्ग की अंतिम चयन सूची तैयार होनी चाहिए। तत्पश्चात अनारक्षित श्रेणी की कट ऑफ से नीचे ही आरक्षित श्रेणी के अभ्यर्थियों की चयन सूची बननी चाहिए जो विशुद्ध रूप से संवैधानिक आरक्षण व्यवस्था के अनुरूप कही जाएगी। हाई कोर्ट के फैसले के बाद यदि सरकार की ईमानदारी से ओबीसी और एससी-एसटी वर्ग के पीड़ितों के साथ आरक्षण पर न्याय करने की मंशा है तो संशोधित चयन सूची तैयार करने वाली कमेटी में ओबीसी और एससी-एसटी वर्ग का समुचित प्रतिनिधित्व होना बहुत जरूरी है। पीड़ित अभ्यर्थियों और विपक्ष को एकजुट होकर इस दिशा में जोरदार तरीके से सड़क से लेकर सदन तक अड़े रहना चाहिए।
         अब सवाल यह उठता है कि आरक्षण में फर्ज़ीवाड़े से जो अपात्र नौकरी कर रहे हैं,क्या उनको नौकरी से हटाया जाएगा और जो विधायिका- कार्यपालिका की मिलीभगत से हुए फर्ज़ीवाड़े या लापरवाही से इतने समय तक सेवा से वंचित रहे हैं, उनके मानसिक और आर्थिक नुकसान की भरपाई कैसे होगी और आन्दोलनरत रहे पीड़ित अभ्यर्थीगण कोर्ट के फैसले से संशोधित सूची में चयनित हो जाते हैं तो उनकी सेवा की वरिष्ठता (सीनियोरिटी) तय होने के नियम क्या होंगे,क्या उन्हें समानता का अधिकार मिलेगा ? हाई कोर्ट के आदेश के बाद चयनित होने वाले नए अभ्यर्थियों के सामने कई तरह की चुनौतियां रहेंगी। जो अभ्यर्थी फ़र्ज़ी प्रमाणपत्र जारी कराकर नौकरी पाने में सफल हो गए थे तो उनके खिलाफ़ और फर्जी प्रमाणपत्र जारी करने वाले सरकारी कर्मचारियों/अधिकारियों के खिलाफ क्या कोई सख्त कानूनी कार्रवाई होगी? इस संदर्भ में योगी नेतृत्व वाले पहले शासनकाल में तत्कालीन उच्च शिक्षा मंत्री के भाई ने ईडब्ल्यूएस का फर्जी दस्तावेज जारी कराकर एक विश्वविद्यालय में ईडब्ल्यूएस आरक्षण का लाभ लेते हुए नियुक्ति पाई थी। बाद में सोशल मीडिया के सक्रिय होने से मंत्री के भाई को नौकरी से इस्तीफा देना पड़ा था, लेकिन फर्जी दस्तावेज जारी कराने और करने वालों के खिलाफ कोई भी कानूनी कार्रवाई नहीं हुई थी। जब तक फर्जी प्रमाण पत्र जारी करने और कराने से लेकर आरक्षण लागू करने वाले जिम्मेदारों के खिलाफ सख्त कानूनी कार्रवाई नही होगी तब तक नियुक्तियों में फर्जीवाड़ा नही रुक सकता है। फ़र्ज़ीवाड़ा करने वाले अभ्यर्थियों और नौकरशाहों के खिलाफ ठोस कार्यवाही करने के लिए कोई नया सख्त कानून बनाना चाहिए जिससे दोनों पक्षों में एक भय का संचार हो सके।
           शासन और प्रशासन में बैठे जिन लोगों की वजह से आरक्षण में जो भयंकर फर्जीवाड़ा हुआ है,वे लापरवाही और कदाचार के शातिर अपराधी हैं। उनके खिलाफ कानूनी कार्रवाई करने के लिए पीड़ितों द्वारा एक और आंदोलन और धरना-प्रदर्शन करना होगा जिसमें सामाजिक - राजनीतिक संगठनों और बुद्धिजीवियों की भी सहभागिता और पहरेदारी सुनिश्चित हो जिससे भविष्य में आरक्षण व्यवस्था कानूनी रूप से शत- प्रतिशत लागू हो सके। कोर्ट के आदेश के बावजूद नई सूची तैयार करने में सरकार आरक्षण व्यवस्था का शत - प्रतिशत अनुपालन कर पाएगी,पीड़ित अभ्यर्थियों और सामाजिक न्याय के संगठनों के जहन में अभी भी एक बड़ा सवाल और संशय बना हुआ है। ओबीसी और एससी- एसटी आरक्षण (सरकारी नौकरियों, शिक्षण संस्थाओं में प्रवेश और राजनैतिक) व्यवस्था के इतिहास और उसके क्रियान्वयन पर सामाजिक और राजनीतिक स्तर पर नए सिरे से गम्भीर चिंतन- विमर्श के साथ अब देश में जातिगत जनगणना होना बहुत जरूरी है। इस दिशा में विपक्षी दलों के आरक्षण व्यवस्था के जानकारों और विशेषज्ञों की भूमिका सार्थक सिद्ध हो सकती है। ओबीसी और एससी-एसटी के सामाजिक, राजनीतिक, अकैडमिक संगठनों को एकजुट होकर वर्तमान सरकार की सामाजिक न्याय के प्रति नकारात्मक रवैये के दूरगामी दुष्परिणामों के दृष्टिगत अब जातिगत जनगणना के मुद्दे की लड़ाई सड़क से लेकर विधायी सदन तक लड़कर अंतिम अंज़ाम देना जरूरी हो गया है, अन्यथा सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थाओं में आरक्षण की वजह से बची खुची सीटों पर हमारे समाज के बच्चों के लिए दरवाजे भी बंद हो जाएंगे जिसके फलस्वरूप समाज की सामाजिक और आर्थिक खाई जो अभी तक थोड़ी बहुत पटती दिख रही थी, उसे अपनी पुरानी अवस्था में जाते देर नहीं लगेगी ।

Monday, March 13, 2023

संवैधानिक लोकतंत्र बचाना है तो एससी-एसटी और ओबीसी को जातिगत राजनीति की जगह जमात की राजनीति पर केंद्रित होना पड़ेगा:नन्दलाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर),

एन०एल० वर्मा (असो.प्रोफ़ेसर) सेवा निवृत
वाणिज्य विभाग
वाईडीपीजी कॉलेज,लखीमपुर खीरी


 "धार्मिक और आर्थिक गुलामी का खतरनाक दौर."
            बीजेपी गठबंधन को हराने के लिए सम्पूर्ण राजनैतिक विपक्षी दलों को अपने-अपने राजनैतिक मनभेद और मतभेद भुलाकर जातिगत राजनीति की लड़ाई से ऊपर उठकर सम्पूर्ण जमात के व्यापक हितों की सुरक्षा की राजनीति पर ध्यान केंद्रित करना होगा। यहां गैरभाजपाई दलों और विपक्षी दलों में अंतर समझना जरूरी है। सामान्यतः भाजपा के अलावा सभी दल गैरभाजपाई माने जाते हैं,लेकिन जो दल बीजेपी सरकार की रीतियों-नीतियों का खुलकर या मौन समर्थन करते हैं या चुनाव से पहले या बाद में सत्ता में हिस्सेदारी के लिए बीजेपी के साथ गठबंधन करते हैं,वे दल गैरभाजपाई तो कहे जा सकते हैं, किंतु विपक्षी दल नहीं। जो दल चुनाव से पहले, चुनाव के दौरान और चुनाव बाद सत्ता में हिस्सेदारी के लिए बीजेपी के साथ गठबंधन नहीं करते हैं और बीजेपी गठबंधन सरकार के संविधान विरोधी अलोकतांत्रिक आचरण और सामाजिक न्याय विरोधी निर्णयों/नीतियों पर सड़क से लेकर सदन तक जोरदार तरीके से आलोचना या असहमति व्यक्त करते हैं और संवैधानिक लोकतंत्र के सम्मान की रक्षा के लिए राजनीतिक लड़ाई लड़ते हुए दिखते हैं,उन्हें ही विशुद्ध विपक्षी दल कहना उचित होगा। कहने का आशय यह है कि ओबीसी और एससी-एसटी वर्ग को अपने-अपने वर्ग के कतिपय नेताओं की जातिगत राजनीति या लाभ को दरकिनार करते हुए पूरी ज़मात के व्यापक हितों (सामाजिक न्याय) की सामूहिक राजनीतिक लड़ाई लड़ने की भावना पैदा कर ही लोकतंत्र के आवरण में छुपी तानाशाही प्रवृत्ति अपनाए बीजेपी को परास्त करने की दिशा में कुछ सफलता हासिल की जा सकती है। जातिगत राजनीति से आपकी जाति का व्यक्ति विधायक/ सांसद/मंत्री तो बन सकता है, लेकिन वह हमारे समाज के व्यापक हितों की रक्षा नही कर सकता है। इसी तरह कोई भी दल आपकी जाति का मंत्री/गवर्नर/ उपराष्ट्रपति/ राष्ट्रपति बनाकर आपकी जाति का वोट लेकर सत्ता तो हासिल कर सकता है ,लेकिन ऐसा पदस्थ व्यक्ति आपकी जाति या वर्ग के हितों की रक्षा के मामले पर खरा उतरता नज़र नहीं आता है या आएगा। दलित समाज के व्यक्ति को इस देश के कितने भी उच्च पद पर बैठ जाने के बावजूद उसकी वास्तविक पहचान दलित/अछूत ही मानी जाती रही है। यहां तक कि देश के राष्ट्रपति जैसे सर्वोच्च पद पर पहुंचने के बावजूद वह मंदिरों में प्रवेश करने के अधिकार से वंचित ही रहता है।  
                  बीजेपी का बार बार यह राजनीतिक रोना कि कांग्रेस के सत्तर साल के शासन में कुछ नहीं हुआ के अनर्गल अलाप को किसी भी विपक्षी दल या सामाजिक संगठन को समर्थन नही करना चाहिए। आज़ादी के बाद देश के विभाजन के फलस्वरूप पैदा हुई खराब स्थितियों के बावज़ूद कॉंग्रेस के सत्तर सालों में बड़ी बड़ी सरकारी/सार्वजनिक संस्थाओं का विशाल इंफ्रास्ट्रक्चर खड़ा हुआ,स्कूल,कॉलेज और विश्वविद्यालय खुले जिसमें आरक्षण की वजह से शिक्षा के अवसर और नौकरियां मिलने पर वंचित और शोषित समाज का एक बहुत बड़ा तबका सामाजिक और आर्थिक रूप से मध्य वर्ग के रूप में मजबूती के साथ उभरा है। वंचित और शोषित समाज के लोग आरक्षण की बदौलत ही सार्वजनिक और सरकारी संस्थाओं में लाखों रुपये की नौकरी पाकर चमचमाता कोट,पैंट और टाई पहनने के लायक बने हैं और घरों में कीमती टाइल्स लगाकर साफ सुथरी जिंदगी जीने का मौका पाए है। अब यह सर्वविदित हो चुका है कि नौ साल के बीजेपी की शासन सत्ता के दौर में बेतहाशा निजीकरण की प्रक्रिया से सार्वजनिक और सरकारी संस्थाओं को खत्म कर आरक्षण की वज़ह से मिलने वाली सस्ती शिक्षा और नौकरियों के अवसर खत्म हो चुके हैं/ रहे हैं। शिक्षा,चिकित्सा और कृषि को राजनैतिक स्वार्थवश मनपंसद कुछ कॉरपोरेट घरानों को सौंपकर ओबीसी और एससी - एसटी  समुदाय की आने वाली पीढ़ियों के भविष्य को बर्बाद करने का बड़ा कार्यक्रम बन चुका है। ओबीसी और एससी-एसटी समुदाय की सरकारी स्कूलों और अस्पतालों तक जो आसानी से पहुंच होती थी/है, निजीकरण के बाद वह अब एक सपना बनती दिखाई देती नज़र आएगी। रेलवे,एलआईसी और राष्ट्रीयकृत बैंक जिनमें अभी तक निम्न और मध्य वर्ग की सहज, विश्वसनीय और निःशुल्क पहुंच होती थी ,वह भी  इस बीजेपी के शासन काल में एक सपना भर रह जायेगा। पूंजीपरस्त बीजेपी की सत्ता में खीरा चोर को सज़ा और हीरा चोर को सिर-आंखों पर बैठाए जाने की संस्कृति देखी जा सकती है। बीजेपी शासन सत्ता ने विपक्ष को बर्बाद या खत्म करने की एक नई संस्कृति पैदा की है जिसमें उसने संवैधानिक संस्थाओं के माध्यम से चुनाव से ठीक पहले उनके यहां इनकम टैक्स, ईडी, सीबीआई, सीवीसी,आइवी द्वारा छापे डालकर उन्हें परेशान और विचलित करने के उपक्रम किये जा रहे हैं। यदि वास्तव में जांच करनी थी तो चुनावी बेला के अलावा किसी समय हो सकती थी। नहीं, चुनाव से भटकाने और जनता को जांच दिखाकर और बेवकूफ बनाकर उनका वोट हथियाना और अपने शासन सत्ता काल की नाकामियों को छुपाना इनका मक़सद रह गया। हिंडन वर्ग की रिपोर्ट और गुजरात दंगों पर बनी डॉक्यूमेंट्री से सत्ता बुरी तरह से डरी या बौखलाई हुई नजर आती है। चुनाव के एन वक्त पर एकजुट होते विपक्ष के नेताओं को राज्यवार परेशान कर और क्षद्म राष्ट्रवाद ,धर्म और हिन्दू बनाम मस्लिम के बल पर येनकेन प्रकारेण चुनाव जीतना और सत्ता पर काबिज़ रहना ही इनके लिए लोकतंत्र की परिभाषा और व्याख्या बन चुकी है।


Wednesday, February 08, 2023

घनीभूत संवेदनाओं का प्रगटीकरण-डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

पुस्तक समीक्षा 


पुस्तक -बेरंग (लघुकथा संग्रह )
लेखक-सुरेश सौरभ
प्रकाशन-श्वेत वर्णा प्रकाशन नई दिल्ली।
मूल्य -२००
प्रकाशन वर्ष-2022
मानव समाज के उत्तम दिशा में उत्थान हेतु स्वस्थ व उत्तम मानवीय संस्कारों की आवश्यकता होती है और ऐसे मानवीय संस्कार हमें संस्कृति से ही प्राप्त हो सकते हैं। संस्कृति को उत्तम रखने में साहित्य की भूमिका महती होती है। उत्तम साहित्य, संस्कृति में मौजूद विषाणुओं को समाप्त कर रोगयुक्त संस्कारों में संजीवनी का संचार करने की क्षमता रखता है।
कहना न होगा कि प्रस्तुत लघुकथा संग्रह "बेरंग" में इसके रचयिता सुरेश सौरभ ने उक्त कथनों को ही मूर्तिमंत किया है। लेखक ने अटूट परिश्रम से सामयिक विविध विषयों की जीवंत झांकी को सरल एवं ओजस्वी भाषा शैली में प्रस्तुत किया है, वह श्लाघनीय है। यह अनुभवजन्य और सन्देशप्रद लघुकथाओं का संग्रह है, जिसमें 77 लघुकथाएँ विद्यमान हैं। ये रचनाएँ जीवन के दर्पण सरीखी हैं। 
साहित्य इन्द्रधनुषीय होता है, जिसमें जीवन के विविध रंग होते हैं, लेकिन इस संग्रह का शीर्षक बेरंग है, जो कि लेखक ने अपनी एक रचना पर रखा है। इस संग्रह की अन्य अग्रणीय व चर्चा योग्य लघुकथाओं में से एक 'बेरंग' लघुकथा ने होली सरीखे उत्तम त्यौहार पर महिलाओं के साथ किए जाने वाले दुर्व्यवहार की वेदना को जो स्वर दिया है, वह विचारने को मजबूर करता है।
'कन्या पूजन' एक स्तब्ध कर देने वाला कथानक है। नवरात्र में कन्या पूजन के बहाने से किसी बालिका के साथ बलात्कार करना अमानवीयता की पराकाष्ठा है और इसी तरह के समाज-कंटक संस्कृति की उत्तमता को अपने घिनौने नकाब से ढक देने में कामयाब हो ही रहे हैं।
अछूती व नई कल्पनाशीलता से पगी रचनाएँ ही अधिकार पूर्वक अपना स्थान बना सकती हैं। 'धंधा' भी इसी तरह की एक लघुकथा है, इसकी भाषा शैली बहुत अच्छी है, इसमें एक मुहावरे का भी निर्माण हो रहा है- 'पचहत्तर आइटमों में छिहत्तर मसाले'। रचना समाज में फैली दिखावे की संस्कृति में छिपे धन की बचत के भाव को दर्शा पाने में पूर्ण सफल है।
'महँगाई में फँसी साइकिल' में चिंतन और मनन के माध्यम से जो ताना-बाना बुना गया, वह काबिले तारीफ है। उसे बिना लाग-लपेट के सरलता से व्यक्त करना उत्कृष्ट रचनाकार की गूढ़ चिन्तनशीलता को दर्शाता है।
लघुकथा संसार ने तो बहुत प्रगति की है, लेकिन लघुकथा संस्कार ने नहीं। इन दिनों कई सामयिक लघुकथाओं में लेखकीय पूर्वाग्रहों के कारण नकारात्मकता का पोषण दृष्टिगत हो रहा है। इस कथन के विपरीत, 'बादाम पक चुका' भारतीय संस्कृति के उस सत्य का समर्थन करती रचना है, जिसमें पति व पत्नी के मध्य विश्वास का रिश्ता होता है। 
'दावत का मज़ा' भूख और ग़रीबी से जूझते तबके की मजबूरियों और विडंबनाओं के सामने दावतों के रंग को बेरंग बना रही है। यह रचना लेखक की गहन-गंभीर चिंतनशीलता को प्रदर्शित करती है। 
'भरी-जेब' एक अलग ही धरातल पर आकार लेती है, जो धन की बजाय प्रेम और संवेदना की एक बारीक़ धुन में बंध कर स्वयं को धन्य समझने को बताती है। बड़ी ही सरलता से प्रेम और मनुष्य के संबंधों की बारीक़ियों को भी रेखांकित करती हैं।
'तेरा-मेरा मज़हब' चूड़ी और कंगन के प्रतीकों के जरिए साम्प्रदायिक सद्भाव का एक ऐसा चित्र खींचती है, जिसका शब्द-शब्द अपने आप में अनूठा है। यह रचना जर्मन संगीतकार बीथोवेन के गीत सरीखी एक नवाचार है।
'पूरा मर्द' में रचनाकार ने सरल और सहज शब्दों में बिना किसी शोशेबाज़ी और दिखावे के सशक्त व रोचक ढंग से अपने विषय को दर्शाया है। यही इसकी मुख्य विशेषता है। यह उम्दा व भावप्रधान रचना है। 
रचनाओं को पढ़कर यह समझ आता है कि, ये लघुकथाएँ महज लेखकीय सुख के लिए नहीं लिखी गई हैं, बल्कि इन्हें रचने का उद्देश्य घनीभूत संवेदना का प्रगटीकरण है। लेखक ने हमारे आसपास की ही दुनिया के कई बिखरे हुए बिंदुओं को जोड़कर एक मुकम्मल तस्वीर उभारने का सफल प्रयास किया है। इस संग्रह में मनुष्य की कमज़ोरियाँ हैं और उसे समझने का प्रयास करता लेखक भी है। यहाँ सपने हैं, तो उनसे पैदा हुई हताशाएँ भी हैं। कटु आलोचनाएँ हैं, तो प्रेम की सुगंध भी है। प्रशस्तियाँ हैं, तो गर्जनाएँ भी हैं। कुछ लघुकथाएँ पाठकों से कठोर प्रश्न करती मनुष्य के मनुष्य के प्रति दुर्व्यवहार को भी बारीक़ी से उकेरती हैं। 
लेखक ने कुछ रचनाओं में प्रतीकों को प्रवीणता-कुशलता के साथ स्पष्ट किया है लेकिन इस बात का ध्यान रखते हुए कि यथार्थपरक तथ्य कहीं ओझल न हो जाए, अपितु उनके महत्व को भी पाठकगण हृदयंगम कर सकें। संग्रह की एक अच्छी बात यह भी है कि लेखक अच्छे-बुरे का ज़्यादा आग्रह नहीं करते, वह सिर्फ़ अपनी बात कहभर देतेहैं, बाक़ी पाठक अपने तरीक़े से विचारते रहें। सहजता से समाज का यथार्थ सामने रख देना और बिना उपदेश के विमर्श इस संग्रह की ख़ूबी है। 
   इस संग्रह के मूल्यांकन का अधिकार तो पाठकों को है ही। मेरे अनुसार, समग्रतः इस संग्रह की रचनाएँ पाठकों को विचार करने के लिए धरातल देती हैं। प्रभावशाली मानवीय संवेदनाओं, उन्नत चिन्तन, सारभूत विषयों को आत्मसात करती जीवंत लघुकथाओं से परिपूर्ण यह संग्रह रोचक-रोमांचक कथ्य के कारण पठनीय और सुरुचिपूर्ण साहित्यिक कृति है। 
लेखक श्री सौरभ को अशेष मंगलकामनाएँ।

3 प 46, प्रभात नगर, सेक्टर-5, हिरण मगरी, उदयपुर – 313 002, राजस्थान
मोबाइल: 9928544749
chandresh.chhatlani@gmail.com

तुलसीदास जी का नारियों के प्रति दृष्टिकोण-लक्ष्मीनारायण गुप्त


पिछली प्रविष्टि में "ढोल, गँवार.." की चर्चा की गई थी और मैंने यह मत व्यक्त किया तहा कि यह तुलसी का नारी विरोधी दृष्टिकोण व्यक्त करता है। लोगों को लगा कि मैंने यह लेख बहुत शीघ्र समाप्त कर दिया। कुछ और कहने की आवश्कता है। पहले मैं पिछले लेख के तर्क को संक्षिप्त में दुहराता हूँ। उपर्युक्त चौपाई समुद्र के द्वारा कही गई है। इस प्रसंग में वाल्मीकि रामायण में समुद्र वही सारी बातें कहता है जो गोस्वामी जी ने उससे कहलवाई हैं किन्तु इस चौपाई के कथन को छोड़ कर। स्पष्ट है कि यह गोस्वामी जी की स्वयं की धारणा है।

अब मैं श्रीरामचरितमानस से कुछ उद्धरण दे रहा हूँ। विद्वान पाठक स्वयं निर्णय करें कि इनसे तुलसी नारी विरोधी लगते हैं या नहीं।

१। बालकाण्ड में सती रामचन्द्र जी की परीक्षा लेने सीता का वेष लेकर जाती हैं। सती राम से कपट करती हैं जिसके वारे में गोस्वामी जी कहते हैः
"सती कीन्ह चह तहउँ दुराऊ। देखहु नारिसुभाउ प्रभाऊ।।"
तो नारी का सहज स्वभाव कपट का है। इसी प्रसंग में जब सती लौट कर शिव जी के पास आती हैं तो वे पूछते हैं कि कैसे परीक्षा ली। सती कहती है कि उन्होंने कोई परीक्षा नहीं ली। शिव जी ध्यान लगा कर जान लेते हैं कि सती ने क्या किया था। शिव जी अपने मन में प्रण करते हैं कि अब सती के इस शरीर से उनका कोई शारीरिक सम्पर्क नहीं होगा। आकाशवाणी के एनाउन्सर को इस प्रण का पता चल जाता है किन्तु सती तो महज़ एक स्त्री हैं, इसलिये उन्हें कुछ पता नहीं चलता। शिव जी पूछने से उत्तर नहीं देते तो गोस्वामी जी उनसे यह सोचवाते हैं:
"सती हृदय अनुमान किय सब जानेउ सर्वग्य।
कीन्ह कपटु मैं शम्भु सन नारि सहज जड़ अग्य।।"
वे स्वयं भी मानती हैं कि नारियाँ तो स्वाभाविक रूप से जड़ और अज्ञानी होती हैं।

२। अयोध्याकाण्ड में जब मन्थरा कैकेई को फुसला रही है, कैकेई पहले यूँ सोचती हैः
" काने, खोरे, कूबरे कुटिल कुचाली जानि।
तिय विसेषि पुनि चेरि कहि भरतमातु मुस्कानि।।"
(रामचन्द्रप्रसाद की टीकाः जो काने, लँगड़े और कुबड़े हैं, उन्हें कुटिल और कुचाली जानना चाहिए। फिर स्त्रियाँ उनसे भी अधिक कुटिल होती हैं और दासी तो सबसे अधिक। इतना कहकर भरत जी की माता मुसकरा दीं।)

३। रामचन्द्र जी के वन चले जाने पर पुरी के लोग कैकेई की ही नहीं, सारी नारियों की निन्दा करते हुए कहते हैं:
" सत्य कहहिं कवि नारि सुभाऊ। सब बिधि अगहु अगाध दुराऊ।।
निज प्रतिबिम्बु बरुकु गहि जाई। जानि न जाइ नारि गति भाई।।"
(कवियों का कहना ठीक ही है कि स्त्री का स्वभाव सब तरह से अग्राह्य, अथाह और भेदभरा है। अपने प्रतिबिम्ब को कोई भले ही पकड़ ले किन्तु स्त्रियों की गति नहीम जानी जाती।)

४। अरण्यकाण्ड में अनसूया सीता को नारी धर्म की शिक्षा देते हुए कहती हैं:
" सहज अपावन नारि पति सेवत शुभ गति लहइ।"
(स्त्री तो सहज ही अपावन होती है...)

५। अरण्यकाणड में शूर्पणखा के प्रणयनिवेदन की भूमिका बाँधते हुए कागभुसुण्डि जी गरुड़ से कहते हैः
"भ्राता, पिता, पुत्र उरगारी। पुरुष मनोहर निरखत नारी।।
होइ विकल सक मनहिं न रोकी। जिमि रविमनि द्रव रबिहि बिलोकी।।"
(हे गरुड़, स्त्री सुन्दर पुरुष को देखते ही, चाहे वह भाई, पिता, पुत्र ही क्यों न हो, विकल हो जाती हैं और अपने मन को रोक नहीं सकती हैं जैसे सूर्य को देखकर सूर्यमणि पिघल जाती है।)
लगता है वलात्कार के सारे केस औरतें ही करती होंगी।

६। किष्किंधाकाण्ड में सीतावियोग में प्रकृतिवर्णन करते हुए रामजी कहते हैं:
"महावृष्टि चलिफूटि किंयारी। जिमि सुतंत्र भए बिगरहिं नारी।।"
(महावृष्टि से क्यारियाँ फूट गई हैं और उनसे ऐसे पानी बह रहा है जैसे स्वतंत्रता मिलने से नारियाँ बिगड़ जाती हैं।)

७। लक्ष्मणशक्ति के मौके पर राम जी विलाप करते हुए कहते हैं:
"जस अपजस सहतेउँ जग माहीं। नारि हानि विसेष दुख नाहीं।"
(मैं संसार मे यश अपयश ले लेता। स्त्री की क्षति कोई खास बात नहीं है।)

८। लंकाकाण्ड में रावण मन्दोदरी की सलाह ठुकराते हुए कहता हैः
"नारि सुभाव सत्य सब कहहीं। अवगुन आठ सदा उर रहहीं।
साहस, अनृत, चपलता माया। भय अविवेक, असौच अदाया।।"
(नारी के स्वभाव के बारे में कवि सत्य ही कहते हैं कि सदा ही उनके हृदय में आठ अवगुण रहते हैं: साहस, असत्य, चपलता, माया (छल कपट), भय, अविवेक, अपवित्रता, और निर्ममता।"

यह सूची पूरी नहीं है अपितु केवल वे प्रसंग दिए हैं जिनके बारे में मैं पहले से कुछ जानता था।
...२७ जनवरी २००७

ओपीएस बनाम एनपीएस: केंद्र सरकार के नकरात्मक रवैये से अधर में लटक सकते हैं,राज्यों की ओपीएस बहाली के निर्णय-नन्दलाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)

एन०एल० वर्मा (असो.प्रोफ़ेसर) सेवा निवृत
वाणिज्य विभाग
वाईडीपीजी कॉलेज,लखीमपुर खीरी
           छत्तीसगढ़ में ओपीएस लागू करने के बाद भी संकट खत्म होता नजर नहीं आ रहा है। भूपेश सरकार ने बहाली की अधिसूचना जरूर जारी कर दी है, लेकिन अभी तक राज्य और केंद्र के बीच रार कायम है। उधर केंद्रीय वित्त राज्यमंत्री ने पुरानी पेंशन योजना लागू करने से साफ इनकार कर दिया है। ऐसे में मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने कहा है कि एनपीएस में जमा पैसा राज्य कर्मचारियों का है, उनका अंशदान है। इसमें भारत सरकार का एक भी पैसा नहीं है। 
           मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने पुरानी पेंशन योजना की बहाली को लेकर किए गए सवाल पर कहा कि एनपीएस में जमा पैसा राज्य कर्मचारियों का है और राज्य का अंशदान है। जो केंद्रीय कर्मचारी हैं, उनका पैसा भारत सरकार के पास है। इसके लिए हम लगातार मांग रहे हैं, लेकिन भारत सरकार नकारात्मक रवैया अपना रही है। उन्होंने बताया कि इसके लिए अधिकारियों को निर्देशित किया गया है कि वे कर्मचारी संगठनों के साथ बैठक करें। मुख्यमंत्री बघेल ने कहा कि बातचीत से क्या रास्ता निकल सकता है,उस पर गौर कर  विचार-विमर्श करें। इसके बाद मेरे पास आएं। फिर जिन कर्मचारियों के लिए ओल्ड पेंशन स्कीम लागू की गई है, उसमें क्या हल निकल सकता है, इसे देखेंगे। मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने कहा कि हम पुरानी पेंशन योजना लागू करने के लिए प्रतिबद्ध हैं। छत्तीसगढ़ के साथ ही राजस्थान, झारखंड और हिमाचल प्रदेश भी पुरानी पेंशन योजना लागू करने की घोषणा कर चुके हैं। 
        दरअसल, सोमवार को लोकसभा में एआईएमआईएम के अध्यक्ष और सांसद असदुद्दीन ओवैसी ने पुरानी पेंशन योजना को लेकर सवाल पूछा था। इस पर वित्त राज्यमंत्री डॉ. भागवत कराड ने लिखित जवाब देकर कहा है कि इसे लागू करने का सरकार का कोई विचार नहीं है। कई राज्यों ने पुरानी पेंशन को लागू करने के लिए अपने स्तर पर नोटीफिकेशन जारी किया है। ऐसे में केंद्र सरकार यह स्पष्ट करना चाहती है कि एनपीएस में जमा धनराशि वापसी का कोई प्रावधान नहीं है। 
        मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने मार्च 2022 को पुरानी पेंशन योजना को फिर से लागू करने की घोषणा की थी। राज्य सरकार ने नोटिफिकेशन जारी कर अपने कर्मचारियों के वेतन से 10% की हो रही कटौती को भी बंद करा दिया है और सामान्य भविष्य निधि (जीपीएफ) नियम के अनुसार उनके वेतन से 12% राशि भी काटी जाने लगी है। राज्य सरकार ने अपने कर्मचारियों के जीपीएफ खाते भी एकॉउंटेंट जनरल (एजी) से लेकर वित्त विभाग को उपलब्ध करा दिए हैं।
         देश के बौद्धिक और राजनीतिक क्षेत्रों में केंद्र की बीजेपी सरकार की इस तरह की हठधर्मिता अन्य राज्य सरकारों के ओपीएस बहाली के निर्णय को कमजोर और हतोत्साहित करने की दिशा में अवलोकन और आंकलन किया जा रहा है। चूंकि ओपीएस खत्म करने का निर्णय भी बीजेपी शासनकाल में लिया गया था। इसलिए सेवानिवृत्त कर्मचारियों की बुढ़ापे में और परिवार के लिए सबसे अधिक भरोसेमंद और गारंटीयुक्त साबित होने वाली ओपीएस की बहाली का मुद्दा वर्तमान केंद्र सरकार के लिए थूककर चाटने और गले की हड्डी जैसा माना जा रहा है। सरकार के निर्णय की पुष्टि करते हुए आरबीआई ने भी राज्यों को वित्तीय प्रबंधन की दिक्कतों का हवाला देते हुए ओपीएस बहाली न करने की सलाह दे डाली है। सरकार और आरबीआई के वक्तव्यों से साफ संकेत मिल रहे हैं कि देश की अर्थव्यवस्था पूरी तरह खोखली हो चुकी है या यूँ कहें कि केंद्र सरकार की सॉल्वेंसी की स्थिति जर्जर हो चुकी है। देश की अर्थव्यवस्था की असलियत तो सत्ता परिवर्तन के बाद ही जनता के सामने आ पाएगी,लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी होगी।

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(फिल्म समीक्षा)      एक मां के लिए उसका बेटा चाहे जैसा हो वह राजा बेटा ही होता है, बच्चे कच्ची मिट्टी की तरह होते हैं, जिन्हें हम अपने विचार...

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