साहित्य

  • जन की बात न दबेगी, न छिपेगी, अब छपेगी, लोकतंत्र के सच्चे सिपाही बनिए अपने लिए नहीं, अपने आने वाले कल के लिए, आपका अपना भविष्य जहाँ गर्व से कह सके आप थे तो हम हैं।
  • लखीमपुर-खीरी उ०प्र०

Thursday, April 13, 2023

मिले मुलायम-कांशीराम, हवा में उड़ गए का परिष्कृत रूप मिले मौर्या और अखिलेश,उभर न जाये और क्लेश-नन्दलाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)

  राजनैतिक मुद्दा   

"बीएसपी के लावारिस पड़े 10-12% को अपने पाले में डॉ.आंबेडकर के नाम पर खींच सकती है,उसकी दलील शायद यह दी जा रही है कि अब बसपा सुप्रीमो राजनीतिक रूप से निष्क्रिय होकर नेपथ्य में जा चुकी हैं। मृग तृष्णा की तरह यह उनकी भूल है, क्योंकि राजनीतिक विश्लेषकों और बुद्धजीवियों का मानना है कि बदलते राजनीतिक परिवेश या प्रतिकूल राजनीतिक घटनाक्रम की आशंका वश यह आधार वोट बैंक शांत जरूर दिखता है, लेकिन लावारिस तो कतई नहीं कहा जा सकता है और न ही फ़िलहाल,उभरती वैकल्पिक दलित राजनीति में शिफ्ट होती दिख रही है।"
एन०एल० वर्मा (असो.प्रोफ़ेसर) सेवा निवृत
वाणिज्य विभाग
वाईडीपीजी कॉलेज,लखीमपुर खीरी
         वर्ष 1993 में सपा और बसपा गठबंधन की राजनीति को नई धार देने की नीयत से बसपा ने एक नारे को जन्म दिया था। यह नारा राजनीतिक रूप से इतना सफल रहा था कि गठबंधन सत्ता की कुर्सी तक जा पहुंचा था,किंतु अल्पायु में ही वह बुरी तरह राजनीतिक रूप से तितर बितर हो गया था जिसके परिणामस्वरूप बहुजन समाज दो धड़ों में बंट गया था और तब से यह बँटबारा 2007 तक अनवरत रूप से जारी रहा। एक धड़ा अनुसूचित जाति और अतिपिछड़ी जातियों का बना और दूसरा धड़ा शेष पिछड़ी जातियों और अल्पसंख्यक समुदाय की एकजुटता लेकर उभरा। 2007 में बहुजन समाज पार्टी सामाजिक समीकरण साधकर अकेले बहुमत के बल पर पांच साल तक यूपी सरकार चलाने में सफल रही,लेकिन सामाजिक विसंगतियों के पनपने से 2012 आते आते सामाजिक संगति के चलते सपा सत्तारूढ़ पार्टी पर भारी पड़ गया। भारी पड़ने के बहुत से सामाजिक और राजनीतिक बिंदु हैं। 2017 के चुनाव में राम मंदिर की लहर के चलते सामाजिक न्याय की लड़ाई के नाम पर उभरे दोनों दल सामाजिक-राजनीतिक बिखराव के चलते चुनावी जमीन पर बुरी तरह विफल रहे। 2022 के चुनाव में सपा ने अपनी खोई हुई राजनीतिक ज़मीन की कुछ सीमा तक भरपाई कर ली,लेकिन बसपा लगभग शून्य की अवस्था में चली गयी।

          2024 में लोकसभा चुनाव होना है, इसलिए सभी राजनीतिक दल कई तरह की सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक कसरते करने में कोई कोर कसर नही छोड़ना चाहते हैं, भले ही उनकी किसी एक कसरत से राजनीतिक सेहत पर बुरा असर पड़ जाए, इस ओर उनका ध्यान कतई नहीं है। अयोध्या में बन रहे राम मंदिर का जनवरी2024 यानि लोकसभा चुनाव के सन्निकट उद्घाटन या जनता को समर्पित करने की बीजेपी की चुनावी राजनीति की योजना की बहुत पहले घोषणा हो चुकी है। बीजेपी के लिए राम मंदिर या हिंदुत्व का मुद्दा बेहद मुफ़ीद साबित हुआ है। अर्थात बीजेपी धर्म या हिंदुत्व की पिच पर खेलने और जीतने में अपने को सर्वाधिक सेफ और कम्फर्ट जोन में मानकर चलती हैं, क्योंकि देश का ओबीसी हिंदुत्व या धर्म के नाम पर अपनी असली राजनीतिक पहचान बहुत जल्दी भूल जाता है। ओबीसी हिंदुत्व का सबसे मजबूत और बड़ा संवाहक माना जाता है।

          इधर हाल में, धार्मिक ग्रंथ राम चरित मानस की कुछ सामाजिक रूप से अपमान करती चौपाइयों और प्रसंगों पर बिहार की राजनीतिक धरती से उठी चिनगारी धीरे धीरे युपी की राजनीतिक धरती पर भी उसकी राजनीतिक आग की गर्माहट देखने को मिल रही है। बिहार के एक मंत्री के मुंह से निकली यह चिंगारी सपा के एक नेता के मुंह मे ऐसी घुसी कि उसके निकलने और उसकी लौ का असर थमने का नाम नहीं ले रही है। राजनीतिक फायदे की नीयत से इसी क्रम को आगे बढ़ाते हुए सपा नेता ने अपने कॉलेज में बहुजन समाज पार्टी के संस्थापक कांशीराम की आदमकद की मूर्ति स्थापित कर उसका उद्घाटन और अनावरण सपा अध्यक्ष से कराकर बीएसपी के आधार वोट बैंक में सेंध लगाने का एक अप्रत्याशित राजनीतिक उपक्रम कर डाला जिसमे 1993 में हुए गठबंधन के राजनीतिक नारे का पूरी ऊर्जा के साथ जबरदस्त उदघोष हुआ जिसके राजनीतिक गलियारों में तरह तरह के निहतार्थ निकाले जा रहे हैं। कुछ लोगों का विश्लेषण है कि कभी बसपा में लंबे अरसे तक रहे सपा नेता मान रहे हैं कि बीएसपी के लावारिस पड़े 10-12% को अपने पाले में डॉ.आंबेडकर के नाम पर खींच सकती है,उसकी दलील शायद यह दी जा रही है कि अब बसपा सुप्रीमो राजनीतिक रूप से निष्क्रिय होकर नेपथ्य में जा चुकी हैं। मृग तृष्णा की तरह यह उनकी भूल है, क्योंकि राजनीतिक विश्लेषकों और बुद्धजीवियों का मानना है कि बदलते राजनीतिक परिवेश या प्रतिकूल राजनीतिक घटनाक्रम की आशंका वश यह आधार वोट बैंक शांत जरूर दिखता है, लेकिन लावारिस तो कतई नहीं कहा जा सकता है और न ही फ़िलहाल,उभरती वैकल्पिक दलित राजनीति में शिफ्ट होती दिख रही है। दलित चिंतकों का मानना है कि बीएसपी के शांत पड़े मजबूत वोट बैंक को लावारिस समझना एक बड़ी राजनीतिक नासमझी  सिद्ध हो सकती है। सपा नेता द्वारा लगभग 30 साल पुराना नारा लगाए जाने पर बसपा सुप्रीमो ने ट्विटर के माध्यम से कड़ी आपत्ति जताई  है। उधर बीजेपी और उसके कुछ धार्मिक हिन्दू संगठनों द्वारा सपा नेता पर एफआईआर दर्ज कर क़ानूनी कार्रवाई किये जाने की चर्चा जोरों पर है। नारे पर मचे बवाल पर सपा अध्यक्ष शायद यह समझकर चुप्पी साधे हों कि मौर्य के नारे से जितना दलितों से राजनीतिक लाभ मिल सकता है,वह मिल जाने दिया जाय। सामाजिक न्याय के चिंतकों का यह भी मानना है कि सपा के लिए मौर्या एसेट के बजाय कहीं लाइबिलिटी न बन जाये जिसको चुकाने में सपा को भारी कीमत चुकानी पड़े!

             2024 की राजनीति के दृष्टिगत विपक्षी दलों को धार्मिक ग्रंथों,हिंदुत्व और श्री राम से जुड़े मुद्दों,प्रतीकों और स्थलों पर पूरी तरह चुप्पी साधने का वक्त और समझदारी है,क्योंकि इस तरह के सारे बिंदु बीजेपी के लिए बेहद मुफ़ीद साबित होते देखे गए हैं। सामाजिक न्याय, बेरोजगारी, निजीकरण से सिकुड़ते आरक्षण और उसके फलस्वरूप धीमी/कमजोर होती डॉ.आंबेडकर की सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र की अवधारणा और प्रक्रिया,शिक्षा और चिकित्सा व्यवस्था, किसानों की एमएसपी की गारंटी, भ्रष्टाचार, पीएम के 2014 के चुनाव से पहले और चुनाव के दौरान लगातार कही गई झूठी बातों, आवारा पशुओं से  अनवरत हो रही आम आदमी की  जान-माल की हानि, मीडिया और संवैधानिक संस्थाओं की भूमिका और ईडब्ल्यूएस आरक्षण से उपजे सामाजिक और राजनैतिक सवालों जैसे कालेलकर आयोग और मंडल आयोग की सिफारिश के आधार पर ओबीसी के राजनीतिक आरक्षण और एससी-एसटी के अधूरे राजनीतिक आरक्षण के साथ प्रोमोशन में आरक्षण और ओबीसी की उसकी जनसंख्या के आधार पर आरक्षण सीमा बढ़ाने, 69000 प्राथमिक शिक्षक भर्ती में अथाह आरक्षण घोटाला, पुरानी पेंशन योजना(ओपीएस)की बहाली और जाति आधारित जनगणना के मुद्दों पर सड़क से लेकर सदन तक एकजुट होकर लड़ने की जरूरत है।
...........................................
प्रो.नन्द लाल वर्मा........9415461224......लखीमपुर-खीरी।

No comments:

पढ़िये आज की रचना

चर्चा में झूठी-सुरेश सौरभ

(फिल्म समीक्षा)      एक मां के लिए उसका बेटा चाहे जैसा हो वह राजा बेटा ही होता है, बच्चे कच्ची मिट्टी की तरह होते हैं, जिन्हें हम अपने विचार...

सबसे ज्यादा जो पढ़े गये, आप भी पढ़ें.