साहित्य

  • जन की बात न दबेगी, न छिपेगी, अब छपेगी, लोकतंत्र के सच्चे सिपाही बनिए अपने लिए नहीं, अपने आने वाले कल के लिए, आपका अपना भविष्य जहाँ गर्व से कह सके आप थे तो हम हैं।
  • लखीमपुर-खीरी उ०प्र०

Monday, June 21, 2021

बेटी अनुप्रिया ने एमएलसी सीट के संबंध में मुझसे कोई बात नही की:कृष्णा पटेल-नन्द लाल वर्मा

पते की बात, एक विमर्श

 

एन.एल.वर्मा
ऐसी स्थिति में यूपी का कुर्मी समाज चाहते हुए अपना विश्वसनीय और हितैषी राजनैतिक नेतृत्व नही तलाश पा रहा है और राजनैतिक विकल्प की तलाश में वह राजनीति की अंतहीन अंधेरी सुरंग में फंसता हुआ नज़र आता है।मेरे विचार से प्रदेश के कुर्मी समाज को अपना दल के उस धड़े के साथ खड़ा होना चाहिये जिसका राजनैतिक गठबंधन ऐसे दल के साथ हो जिसके सामाजिक सरोकार ओबीसी/एससी/एसटी से व्यापक संदर्भों में मिलते-जुलते हों जिससे समाज को निर्णय लेने में राजनैतिक सहजता और सुविधा बनी रहे।

        प्रदेश व केंद्र सरकार में भाजपा की सहयोगी अनुप्रिया पटेल की अगुवाई वाले अपना दल (एस) ने विधान परिषद में खाली हो रही सरकार की मनोनीत क्षेत्र के चार (एमएलसी सीटें) सदस्यों में से एक सदस्य पद देने की मांग की है। अपना दल (एस) ने प्रदेश भाजपा के शीर्ष नेताओं के सामने अपनी यह मंशा जाहिर कर दी है। पार्टी सारे विवादों को किनारे रखकर स्व. सोनेलाल पटेल की पत्नी कृष्णा पटेल को एमएलसी बनाना चाहती है, ताकि  विधानसभा चुनाव में पार्टी परिवार की पूरी एकता के साथ जनता के बीच नजर आए।

         अनुप्रिया पटेल की पार्टी के एक वरिष्ठ नेता ने भाजपा के शीर्ष नेताओं को यह समझाने का प्रयास किया है कि इसका लाभ विधान सभा चुनाव के दौरान राज्य में एनडीए के सभी प्रत्याशियों को मिलेगा। कृष्णा पटेल के साथ आ जाने से विपक्षियों को चुनाव में पटेल समाज को दिग्भ्रमित करने का मौक़ा भी नहीं मिलेगा। मिली जानकारी के मुताबिक कृष्णा पटेल के नाम पर सहमति न बनने की स्थिति में अपना दल (एस) स्व. डा. सोनेलाल पटेल के राजनैतिक सहयोगी रहे किसी पुराने कुर्मी नेता को विधान परिषद में भेजना चाहेगी। विधान परिषद में सपा के चार मनोनीत सदस्यों का कार्यकाल पांच जुलाई को समाप्त हो रहा है।यह खबर एक दिन पहले प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में थी।

          उपर्युक्त खबर का खंडन करते हुए  कृष्णा पटेल ने मीडिया से मुखातिब होते हुए कहा है कि बेटी अनुप्रिया ने इस संबंध में मुझसे कोई बात नही की है। इस खंडन से दो धड़ों में फंसे अपना दल की राजनीति में उलझे परिवार को फिर से एक करने की अनुप्रिया पटेल की कोशिशें (खबरें) आसानी से परवान चढ़ती नज़र नहीं आ रही हैं।अपना दल (कमेरावादी) की अध्यक्ष और सांसद अनुप्रिया पटेल की मां ने कहा है कि ये सब बातें बेवज़ह हो रही हैं।उन्होंने स्पष्ट किया है कि उन्हें एमएलसी बनाने के मुद्दे पर उनकी बेटी अनुप्रिया या उनके नेतृत्व वाले अपना दल के किसी भी जिम्मेदार व्यक्ति ने मुझसे कोई बात नही की है।उन्होंने कहा कि जब चुनाव निकट आते हैं तो इस तरह की बातें चर्चा में लाकर फैलाई जाती हैं जिससे समाज को दिग्भ्रमित किया जा सके।उन्होंने यह भी कहा है कि इस तरह का कोई प्रस्ताव लाने से पूर्व एक साथ बैठकर बात की जाती है,ऐसी कोई चर्चा उनसे या उनके दल के किसी जिम्मेदार व्यक्ति से नही हुई है।उन्होंने कहा कि वह इस समय विधानसभा चुनाव की तैयारियों में जुटी हैं।चुनाव के लिए जिस दल से बेहतर और सम्मानजनक गठबंधन होने की संभावना दिखेगी,उससे ही गठबंधन किया जाएगा और अपना दल ( कमेरावादी) पूरी मजबूती के साथ डॉ. सोने लाल पटेल के राजनैतिक सपने को साकार करने के संकल्प के साथ चुनाव में उतरेगी।

           विधान परिषद की सीट पर अनुप्रिया पटेल और कृष्णा पटेल के इन परस्पर विरोधी वक्तव्य/बयानबाज़ी का सामाजिक और राजनैतिक निहितार्थ/संदेश क्या हो सकता है?डॉ. सोने लाल पटेल द्वारा स्थापित अपना दल में आस्था और उम्मीद रखने वाला कुर्मी समाज दो धड़ों में बंटे अपना दल की पारिवारिक और राजनैतिक रस्साकशी, फूट और परस्पर विरोधी बयानबाज़ी से राजनैतिक रूप से असमंजस और अनिर्णय की स्थिति में दिखाई देता है।आरएसएस नियंत्रित और ओबीसी विशेषकर आरक्षण विरोधी बीजेपी सरकार की नीतियों और रीतियों से कुर्मी समाज का शिक्षित और जागरूक वर्ग पूरी तरह नाखुश और आक्रोशित नज़र आता है और अपना दल का एक धड़ा उसी बीजेपी सरकार का लंबे अरसे से सहयोगी बना हुआ है। पूंजीवाद परस्त बीजेपी सरकार का ओबीसी,एससी और एसटी जिसका बहुत बड़ा भाग जो खेत-खलिहान पर निर्भर है उसके सामाजिक-सांस्कृतिक- आर्थिक और शैक्षणिक सरोकारों से दूर- दूर तक सम्बन्ध नही है या यह कहना भी अनुचित नही होगा कि बीजेपी सरकार इन वर्गों के हितों के विरुद्ध कार्य करती नज़र आती है।यूपी सरकार किसानों के गन्ना मूल्य के भुगतान/बढ़ोतरी और गेहूं खरीद के मसले पर पूरी तरह लचर, असहाय और विफल सिद्ध हुई है।

         यहां यह उल्लेख करना जरूरी हो जाता है कि सतना,मध्यप्रदेश से लगातार चार बार से सांसद श्री गणेश सिंह पटेल को ओबीसी कल्याण की पार्लियामेंट कमेटी के चेयरमैन के पद पर दुबारा नियुक्ति इसलिए नही की गई क्योंकि उन्होंने पद पर रहते हुए ओबीसी के लिए बनी "क्रीमी लेयर" की आय सीमा को आठ लाख रुपये से बढ़ाकर पन्द्रह लाख रुपये (कृषि आय और वेतन को न शामिल कर) करने की सिफारिश मोदी सरकार से की थी।जब सरकार ने पटेल जी की सिफारिशों को तवज्जो न देकर एक सेवानिवृत्त भ्रष्ट आईएएस अफसर पं. बीके शर्मा की अध्यक्षता में बनाई गई डीओपीटी की कमेटी जो पार्लियामेंट कमेटी के सामने बहुत छोटी और नगण्य होती है, की बारह लाख रुपए (कृषि आय और वेतन को शामिल कर ) की सिफारिश को मोदी सरकार मान लेती है तब पटेल जी ने संसद के सभी पार्टियों के ओबीसी सांसदों को पत्र लिखकर इस सम्बंध में ट्वीट या पत्र के माध्यम से मोदी सरकार पर दबाव बनाने के लिए ओबीसी के व्यापक हित मे आग्रह किया था।पटेल जी के इस पत्र के सिलसिले में एनडीए में शामिल किसी दल के ओबीसी सांसद ने पत्र लिखना तो दूर संसद में एक शब्द तक बोलने की हिम्मत नहीं जुटा सका था। श्री पटेल जी के कार्यकाल समाप्त होने के लगभग सात महीने बाद उसी अध्यक्ष पद पर सीतापुर से सांसद श्री राजेश वर्मा को मनोनीत किया गया है।पटेल जी की सिफारिशों को न मानने से ओबीसी के बहुत से बच्चे सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थाओं में आरक्षण की परिधि से बाहर कर दिए गए हैं। मोदी नेतृव बीजेपी सरकार की कथनी और करनी में कोई तालमेल नही है और सरकार ने जितने निर्णय लिए हैं उनसे आम आदमी ही परेशान हुआ है। काला धन के नाम पर नोटबन्दी,जीएसटी, कृषि कानून,विदेशों में जमा काला धन वापस लाने और जनता में बांटने के अतिरंजित वक्तव्यों,भ्रष्टाचार और निजीकरण आदि पर बीजेपी सरकार के निर्णयों का अवलोकन-आकलन करने का वक्त आ गया है।

           ऐसी स्थिति में यूपी का कुर्मी समाज चाहते हुए अपना विश्वसनीय और हितैषी राजनैतिक नेतृत्व नही तलाश पा रहा है और राजनैतिक विकल्प की तलाश में वह राजनीति की अंतहीन अंधेरी सुरंग में फंसता हुआ नज़र आता है।मेरे विचार से प्रदेश के कुर्मी समाज को अपना दल के उस धड़े के साथ खड़ा होना चाहिये जिसका राजनैतिक गठबंधन ऐसे दल के साथ हो जिसके सामाजिक सरोकार ओबीसी/एससी/एसटी से व्यापक संदर्भों में मिलते-जुलते हों जिससे समाज को निर्णय लेने में राजनैतिक सहजता और सुविधा बनी रहे।सामाजिक और राजनीतिक महानुभावों से विनम्रता और आदर के साथ आग्रह करना चाहता हूं कि व्यक्तिगत सामाजिक/राजनैतिक लाभ को दरकिनार कर मेरे उक्त विचार को निष्पक्ष और निरपेक्ष भाव से स्वीकार कर उस पर चिंतन और मनन करें।

नन्द लाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)

Ph.9415461224,8858656000

पिता शिक्षक पिता रक्षक-श्यामकिशोर बेचैन

  पिता दिवस पर विशेष। 
श्याम किशोर बेचैन


पिता शिक्षक पिता रक्षक
पिता  ही  अन्न दाता  है।
पिता सांसो की सरगम है 
पिता ज्ञानी  है ज्ञाता  है।।
पिता हंसना  सिखाता  है 
पिता चलना सिखाता है।
पिता से  है  मेरा  जीवन 
पिता मेरा   विधाता   है।।

पिता से परवरिश मिलती 
पिता से प्यार मिलता है।
पिता  की  छत्र  छाया में 
पिता का सार मिलता है।
पिता से तख्त मिलता है 
पिता से ताज मिलता है।
पिता की जब जरूरत हो 
पिता  तैयार  मिलता है ।।

पिता साहस पिता साहिल 
पिता  सम्मान  है  मेरा ।
पिता  से है  मेरी  दुनियां 
पिता  भगवान  है मेरा ।।
पिता कुछ सख्त है लेकिन 
पिता ही घर चलाता है ।
पिता   हमदर्द   है   मेरा 
पिता  अरमान  है मेरा ।।

पता-बक्सा बाजार संकटादेवी,
लखीमपुर-खीरी उत्तर प्रदेश

Sunday, June 20, 2021

20 जून पितृदिवस-श्याम किशोर बेचैन

सबल भाई की निर्बल भाई

पर  गुंडा  गर्दी  ना  होती ।

काश पिता जीवित होता तो

ऐसी  सरदर्दी  ना   होती ।।

 

सबका अपना हिस्सा होता

सबका  अपना घर  होता ।

होता  सच्चा  प्यार  सामने 

झूठी  हमदर्दी  ना  होती ।।

 

हांथ पिता का सर पे होता

तो अनाथ  ना  कहलाता ।

और  जमाने  भर में  मेरी

ऐसी बे कदरी  ना  होती ।।

 

पिता एक अंकुश होता है

पिता   हौसला   होता  है ।

पिता नही होता तो शायद

तनपे कोई वर्दी ना होती ।।

 

पिता के दम से मान हुआ

पूरा  हर  अरमान  हुआ ।

पिता के होते हावी मुझपर

गर्मी और सर्दी ना होती ।।

 

हर बच्चे को मिलता चैन

होता   ना  कोई   बेचैन ।

पिताके होते दुनियां ऐसी

जालिम बेदर्दी ना होती ।।

 


कवि श्याम किशोर बेचैन

संकटा देवी बैंड मार्केट

लखीमपुर खीरी

Saturday, June 19, 2021

कोरोना में शादी- सुरेश सौरभ

  लघुकथा

   एक मंदिर। एक पंडित। एक दूल्हा। उसके साथ एक बराती, उसका बाप। एक दुल्हन। उसके साथ एक घराती उसकी मां। बाकी सब जगह कोरोना। शादी मंदिर में हो गई।
     शादी के बाद उनके सुख से दिन बीतने लगे। दो बच्चे हुए। वे बरसों बाद जवान हुए। एक बेटी की शादी की।अपनी प्रतिष्ठा और परंपराओं की खातिर लाखों खर्च किए। उन पर कर्जा हुआ। वह बहुत परेशान हुए। 
     खर्चे को लेकर पति-पत्नी में वाद-विवाद हुआ। तब कुढ़कर पत्नी बोली-कोरोना काल की ही शादी बढ़िया थी-न ज्यादा झंझट न, झूठी परंपराओं के सिरदर्द का बोझ।
   
सुरेश सौरभ


निर्मल नगर लखीमपुर खीरी
पिन-262701
मो-7376236066

क्या हर ‘जांगिड’ की नियति ‘खेमका’ होना ही है-अजय बोकिल

अजय बोकिल
सरकारी ही क्यों, किसी भी नौकरी में निष्पक्षता, स्वविवेक और सचमुच ईमानदारी से काम करने की कोई गुंजाइश होती है ? व्यवस्था को चुनौती देने वाली हर आवाज का हश्र एक जैसा ही क्यों होता है? और यह भी कि जब सिस्टम की सनक और स्वार्थी तंत्र में रमकर ही काम करना है तो फिर नौकरी में आते समय संविधान या सत्यनिष्ठा की शपथ का स्वांग क्यों ? मध्य प्रदेश के युवा आईएएस लोकेश जांगिड की साढ़े चार साल की नौकरी में आठवें तबादले के बाद उनके भीतर उभरे आक्रोश की अभिव्यक्ति एक आईएएस ग्रुप चैट में होने, उस चैट के वायरल होने के बाद जांगिड को नोटिस मिलने फिर उन्हें जान से मारने की धमकी देने और अब इस मामले के राजनीतिक रंग लेने से वो दबे सवाल फिर राख की मानिंद उड़ने लगे हैं कि सिविल सेवाका वास्तविक अर्थ है क्या? यथा‍स्थितिवाद की कायमी में वंदना का एक और स्वर मिलाना, व्यवस्था से दो-दो हाथ कर उसे सुधारने का जोखिम उठाना या केवल अपनी मलाईदार पोस्टिंग और सुविधाओं का गेम खेलते रहना तथा इसके लिए राजनेताओं का मोहरा बनकर तंत्र को अपने‍ हिसाब से चलाना ? आखिर एक सफल नौकरशाह की परिभाषा क्या है? ताउम्र नौकरी में प्राइम पोस्टिंग के लिए हर संभव जोड़-तोड़ या फिर मिली जिम्मेदारी में व्यवस्था में सुधार के लिए नवाचार ? ‘जाहि बिधी राखे रामके भाव से चाकरी करते रहना अथवा मौका ‍िमलते ही हंटर चलाने लगना ? हाशिए पर डाले जाने का जोखिम उठाकर भी ईमानदारी के मानक कायम करना या फिर कंबल ओढ़कर घी पीते रहना? आकाओ का हुक्का भरते रहना अथवा हर हुक्के में नई अंगार भरने का दुस्साहस करना? ये तमाम सवाल इसलिए क्योंकि लोकेश जांगिड को सोशल मीडिया में मप्र का अशोक खेमकाकहा जा रहा है। तो क्या व्यवस्था? के दाग उजागर करने वाले हर अफसर की नियति अशोक खेमकाहोना ही है?

इन सवालों के जवाब ढूंढने के लिए हम कुछ बातों पर गौर करें। आईएएस या ऐसी ही समकक्ष सेवाओं में ज्यादातर युवा इसलिए आते हैं क्योंकि कम उम्र में ही उन्हें बड़ी सत्ता और अधिकारों का उपभोग करने का अवसर मिलता है। बहुत से लोग इसे देशसेवा का परम अवसरतो कुछ की निगाह में यह भ्रष्टाचार के चरम अवसरका स्थायी परवाना होता है। गिने-चुने अफसर होते हैं, जो अंतरात्मा को जिंदा रखते हुए व्यवस्था में लगे घुन को चीन्हकर उन्हें मिटाने को अपना कर्तव्य मान बैठते हैं। ध्यान रहे कि कोई भी तंत्र उसे असुविधाजनक लगने वाले हर तत्व को खामोश करने या हाशिए पर डालने में संकोच नहीं करता। ऐसा नहीं कि अशोक खेमका के पहले सिस्टम के सताए हुए अफसर नहीं हुए, लेकिन खेमका सिस्टम में रहकर‍ सिस्टम के सितम सहते हुए उससे भिड़ते रहने के प्रतीक बन गए हैं।

अब जांगिड स्वयं कितने ईमानदार हैं, कहना मुश्किल है, लेकिन बकौल उनके उन्होंने जिला कलेक्टर के आचरण पर सवाल उठाए, जिसके परिणामस्वरूप उनका तबादला कर ‍िदया गया। इसे कांग्रेस नेता‍ दिग्विजय सिंह ने यह आरोप लगाकर हवा दे दी कि (सरकार के लिए) चंदा जुटाने में नाकाम रहने पर जांगिड को हटाया गया। उधर जांिगड ने समूची ब्यूरोक्रेसी को ही कटघरे में खड़ा कर दिया है, इसलिए उन्हे कहीं से मदद मिलना नामुमकिन सा है। जाहिर है पानी में रहकर मगर से बैर करने पर दो ही विकल्प होते हैं। या तो आप आंख मूंद कर मगर के मुंह में चले जाएं या पानी से ही बाहर निकल आएं। जांिगड के मुताबिक जान से मारने की धमकी मिलने के बाद उन्होंने ने पुलिस से सुरक्षा मांगी है। लेकिन पुलिस भी तो हस्तिनापुर से बंधी है। तात्पर्य ये कि जांगिड को अपनी लड़ाई खुद लड़ना है। बताया जाता है कि उन्होंने मप्र सरकार के रवैए से क्षुब्ध होकर गृह राज्य महाराष्ट्र कैडर में तीन साल के लिए प्रतिनियुक्ति पर जाने की इच्छा जताई है। लेकिन जांगिड शायद भूल गए कि महाराष्ट्र के खेमकाऔर ईमानदार अधिकारी तुकाराम मुंढे को नागपुर में स्मार्ट सिटी कंपनी के सीईओ रहते केन्द्रीय मंत्री नितिन गडकरी से पंगा लेने की सजा भुगतनी पड़ रही है। ठाकरे सरकार ने इस आईएएस अफसर को अब महाराष्ट्र मानवाधिकार आयोग में सचिव के पद पर लूप लाइन में डाल दिया है। मुंढे भी 15 साल की नौकरी में 17 से ज्यादा तबादले झेल चुके हैं। वजह उन्होंने भी भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम छेड़ रखी थी।

दुर्भाग्य से ऐसे ईमानदार और कर्तव्यनिष्ठ अफसरों के साथ राजनेताओ का व्यवहार सत्तापक्ष और प्रतिपक्ष में रहते हुए अलग- अलग तरह का होता है। उदाहरण के लिए हरियाणा में कांग्रेस के शासन काल में राॅबर्ट वाड्रा के जमीन खरीदी घोटाले को बेनकाब करने वाले अफसर अशोक खेमका तब विपक्ष में बैठी भाजपा की आंखों के तारे थे, लेकिन जैसे ही भाजपा वहां सत्ता में आई, खेमका उसकी आंखों को खटकने लगे। 30 साल की नौकरी में 53 तबादले झेलने वाला यह अफसर अब भाजपा शासन काल में महानिदेशक पुरातत्व की लूप लाइन पोस्ट पर तैनात है। खेमका को भी जान से मारने की धमकियां मिल चुकी हैं। हालांकि खेमका से पहले चाकरी के दौरान अधिकतम तबादलों का रिकाॅर्ड एक और प्रशासनिक अधिकारी प्रदीप कास्नी के नाम है, जिन्हें 35 साल की नौकरी में सरकार ने 71 बार इधर से उधर किया। बावजूद इसके कास्नी तबादला हीरोनहीं बन पाए और यह सेहरा खेमका के सिर ही बंधा।

उदाहरण और भी हैं। उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के शासनकाल में एक मस्जिद की अवैध दीवार गिराने वाली और खनन माफिया के खिलाफ मुहिम छेड़ने वाली धाकड़ अफसर दुर्गाशक्ति नागपाल कभी हिंदुवादियों की आदर्शथीं, लेकिन जब उनकी सरकार आई तो दुर्गाशक्ति को यूपी छोड़ दिल्ली केन्द्र में प्रति नियुक्ति पर जाना पड़ा। बताया जाता है कि वो आजकल वाणिज्य और उद्दयोग मंत्रालय में उपसचिव बनकर दफ्तयर में बैठी हैं। यानी दुर्गाशक्ति का भी केवल राजनीतिक इस्तेमाल कर लिया गया। ऐसे ही एक आईएएस अफसर हैं केरल कैडर के राजू नारायण सामी। अच्छे काम का सिला उन्हें 20 साल में 22 तबादलों के रूप में ‍मिला। भ्रष्ट राजनेताओं का मोहरा बनने से इंकार करने पर सामी के खिलाफ जांच बैठाई गई। मोदी सरकार ने उन्हें नारियल बोर्ड के चेयरमैन पद से हटाया तो राज्य की वामंपथी सरकार ने भी उन्हें संसदीय कार्य विभाग का प्रमुख सचिव बनाकर बिठा रखा है। हालांकि सामी ने फिर भी हिम्मत नहीं हारी और न ही कोई शिकायत की। इसी तरह तमिलनाडु कैडर के 1991 बैच के आईएएस अधिकारी रहे यू. सागयन ने भ्रष्टाचार के खिलाफ बोलने पर 27 साल में 25 तबादले झेले और दो साल पहले ही नौकरी से रिटायरमेंट ले लिया। कर्नाटक कैडर के 2009 बैच के आईएएस अधिकारी डी.के.रवि ने तो कोलार जिले में रेत माफिया के खिलाफ अभियान चलाने की कीमत आत्महत्या कर चुकाई।

व्यवस्थाा के खिलाफ बगावत की बड़ी हर सिस्टम में चुकानी पड़ती है, फिर चाहे वह राजनीति में हो या नौकरी में हो। फर्क इतना है ‍कि राजनेता बगावत के बाद यू-टर्न भी बड़ी बेशरमी से ले लेते हैं, लेकिन नौकरी में उतनी गुंजाइश नहीं होती। यह फर्क अंतरात्मा का भी हो सकता है। यहां एक व्यवस्थावादी तर्क हो सकता है कि नौकरी करने का मतलब ही आका के हुक्म का पालन है। आदेश की अवहेलना या उसे अपनी सुविधानुसार पारिभाषित करने का विकल्प आपके पास नहीं होता। यह आपको नौकरी में आने से पहले सोचना चाहिए। मनमर्जी से जीना है तो चाकरी न करें। दूसरे शब्दों में कहें तो आप होते अंततरू व्यवस्था के गुलाम ही हैं, चाहे अधिकारों से कितने ही विभूषित क्यों न हों। जो इस मर्यादा को नियति मानकर नौकरी करता जाता है, वह न सिर्फ सुरक्षित पार लग जाता है बल्कि रिटायरमेंट के बाद भी मनसबदारी पा सकता है। फिर शिकायत क्यों?

 दरअसल सरकार और प्रशासन में अनुकूलऔर प्रति कूलअफसर का रेखांकन इसी से तय होता है कि आप नियम-कानून का पालन सरकार और राजनेता के हितों के अनुकूल कराते हैं या प्रतिकूल कराते हैं। यूं सार्वजनिक रूप से अफसरों को निष्पक्ष, समदर्शी और पुण्यात्मा की माफिक काम करने, संविधान की रक्षा और कानून का पालन कराने की नसीहतें दी जाती हैं। जबकि हकीकत इससे उलट होती है, जहां ईमानदारी और मूकदर्शिता में फर्क लगभग समाप्त हो जाता है। जांगिड जैसे अफसरों की यही परेशानी है कि वो पुण्यात्मा होने के चक्कर में अंतरात्मा को प्रशासित करने में नाकाम रहते हैं। यही अंतर्द्वंद्व उन्हें उस राह पर ढकेलता है, जिसे आम बोलचाल और व्यवस्था की भाषा में बगावत कहते हैं। इसका अंजाम व्यवस्था से खुद को अलग करने, उसे कोसते रहकर उसमें बने रहने, खुदकुशी कर लेने या फिर खुद तंत्र में विलीन हो जाने में हो सकता है। अब जांगिड आगे क्या करते हैं, यह देखने की जिज्ञासा चुप्पी साधे जितने बाकी आईएएस और दूसरे अफसरों में है, उससे ज्यादा उस आम पब्लिक में है, जो यदा-कदा ही ऐसे लोगों के पक्ष में सड़क पर उतरती है।

(वरिष्ठ संपादक दैनिक सुबह सवेरे मप्र-9893699939)

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